वह क्षण (कहानी) : जैनेंद्र कुमार

Vah Kshan (Hindi Story) : Jainendra Kumar

"अगर तुम्हारा निश्चय हो कि व्यवसाय में नहीं जाना है तो मैं इस काम- धाम को उठा दूं। अभी तो दाम अच्छे खड़े हो जाएंगे। नहीं तो मेरी सलाह यही है कि बैठो, पुश्तैनी काम संभालो, घर- गिरस्ती बसाओ।"

पैसा, पात्र- कुपात्र नहीं देखता। क्या यह सच है?
राजीव ने यह पूछा। वह आदर्शवादी था और एम.ए. और लॉ करने के बाद अब आगे बढऩा चाहता था। आगे बढऩे का मतलब उसके मन में यह नहीं था कि वह घर के कामकाज को हाथ में लेगा। घर पर कपड़े का काम था। उसके पिता, जो खुद पढ़े लिखे थे, सोचते थे कि राजीव सब संभाल लेगा और उन्हें अवकाश मिलेगा। घर के धंधे पीटने में ही उमर हो गई है। चौथापन आ चला है और वह यह देखकर व्यग्र हैं कि आगे के लिए उन्होंने कुछ नहीं किया है। इस लोक से एक दिन चल देना है यह उन्हें अब बार- बार याद आता है। लेकिन उस यात्रा की क्या तैयारी है? सोचते हैं और उन्हें बड़ी उलझन मालूम होती है। लेकिन जिस पर आस बंधी थी वह राजीव अपनी धुन का लड़का है। जैसे उसे परिवार से लेना- देना ही नहीं। ऊंचे ख्यालों में रहता है, जैसे महल ख्याल से बन जाते हों।
राजीव के प्रश्न पर उन्हें अच्छा मालूम हुआ। जैसे प्रश्न में उनकी आलोचना हो। बोले- 'नहीं, धन सुपात्र में ही आता है। अपात्र में आता नहीं है पर, आये तो वहां ठहरता नहीं। राजीव, तुम करना क्या चाहते हो?'
राजीव ने कहा- 'आपके पास धन है। सच कहिये, आप प्रसन्न हैं?'

पिता ने तनिक चुप रहकर कहा- 'धन के बिना प्रसन्नता आ जाती है, ऐसा तुम सोचते हो तो गलत सोचते हो। तुममें लगन है। सृजन की चाह है। कुछ तुम कर जाना चाहते हो। क्या इसीलिए नहीं कि अपने अस्तित्व की तरफ से पहले निश्चित हो। घर है, ठौर ठिकाना है। जो चाहो कर सकते हो। क्योंकि खर्च का सुभीता है। पैसे को तुच्छ समझ सकते हो, क्योंकि वह है। मैं तुमसे कहता हूं राजीव कि पैसे के अभाव में सब गिर जाते हैं। तुमने नहीं जाना, लेकिन मैंने उस अभाव को जाना है। तुमने पूछा है और मैं कहता हूं कि हां, मैं प्रसन्न नहीं हूं। लेकिन धन के बिना प्रसन्न होने का मेरे पास और भी कारण न रहता। तुम्हारी आयु तेईस वर्ष पार कर गई है। विवाह के बारे में इंकार करते गये हो। हम लोगों को यहां ज्यादा दिन नहीं बैठे रहना है। तब इस सबका क्या होगा। बेटियां पराये घर की होती हैं। एक तुम्हारी छोटी बहन है, उसका भी ब्याह हो जाएगा। लड़के एक तुम हो। सोचना तुम्हें है कि फिर इस सबका क्या होगा। अगर तुम्हारा निश्चय हो कि व्यवसाय में नहीं जाना है तो मैं इस काम- धाम को उठा दूं। अभी तो दाम अच्छे खड़े हो जाएंगे। नहीं तो मेरी सलाह यही है कि बैठो, पुश्तैनी काम संभालो, घर- गिरस्ती बसाओ और हमको अब परलोक की तैयारी में लगने दो। सच पूछो तो अवस्था हमारी है कि देखें जिसे धन कहते हैं वह मिट्टी है। पर तुममें आकांक्षा है। चाहे उन्हें महत्वाकांक्षी कहो। महत्व की हो या कैसी भी हो, आकांक्षा के कारण धन- धन बनता है। इसलिए तुमको घर से विमुख मैं नहीं देखना चाहता। विमुख मैं स्वयं अवश्य बनना चाहता हूं क्योंकि आकांक्षा अब शरीर के वृद्ध पड़ते जाने के साथ हमें त्रास ही दे सकेगी। आकांक्षा इसी से अवस्था के आने पर बुझ सी जाती है। तुमको आकांक्षाओं सेभरा देखकर मुझे खुशी होती है। अपने में उनके बीज देखता हूं तो डर होता है, क्योंकि उमर बीतने पर जिधर जाना है उधर की सम्मुखता मुझमें समय पर न आएगी तो मृत्यु मेरे लिए भयंकर हो जाएगी। तुम्हारे लिए आगे जीवन का विस्तार है मुझे उसका उपसंहार करना है और तैयारी मृत्यु की करनी है। संसार असार है, यह तुम नहीं कह सकते। हां, मैं यदि वहां सार देखूं तो अवश्य गलत होगा। तुम समझते हो। कहो, क्या सोचते हो।

राजीव पिता का आदर करता था। वह चुपचाप सुनता रहा। पिता की वाणी में स्नेह था, पीड़ा थी, उसमें अनुभव था। लेकिन जितने ही अधिक ध्यान से और विनय से पिता की बात को उसने सुना, उसके मन से अपने सपने दूर नहीं हुए। अनुभव अतीत से संबंध रखता है। वह जैसे उसके लिए था ही नहीं। वह जानता था कि कमाई का चक्कर आने वाले कुछ वर्षों में खत्म हो जाने वाला है। यह बुर्जुआ समाज आगे रहने वाला नहीं। समाजवादी समाज होगा जहां अपने अस्तित्व की भाषा में सोचने की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। आप सामाजिक होने और समाज स्वत: आपका वहन करेगा। आपका योग-क्षेम आपकी अपनी चिंता का विषय ना होगा। राजीव पिता की बात सुनते हुए भी देख रहा था कि धनोपार्जन जिनका चिंतन सर्वस्व है, ऐसा वर्ग क्रमश: मान्यता से गिरता जा रहा है। कल करोड़ो में जो खेलता था आज चार सौ रुपए पाने वाले मजिस्ट्रेट के हाथों जेल भेज दिया जाता है। वह वर्ग शोषक है, आसामाजिक है। इसके अस्तित्व का आधार है कम दो, ज्यादा लो। हर किसी के काम आओ, इस शर्त के साथ कि अधिक उससे अपना काम निकाल लो। यह सिद्धांत सभ्यता का नहीं है, स्वार्थ का है, पाप का है। इस पर पलने- पूसने वाले वर्ग को समाज कब तक सहता रह सकता है? असल में यह घुन है जो समाज के शरीर को खाकर उसे खोखला करता रहता है। उस वर्ग की खुद की सफलता समाज के व्यापक हित को कीमत देने में होती है। यह ढोंग अब ज्यादा नहीं चल सकता है। इस वर्ग को मिटाना होगा और फिर समाज वह होगा जहां हर कोई अपना हित निछावर करेगा, फुलाए और फैलाएगा नहीं। स्थापित स्वार्थ, संयुक्त परिवार, जाति का, सब लुप्त हो जाएगा। स्वार्थ एक होगा और वह परमार्थ होगा। हित एक होगा और वह सबका हित होगा।

पिता की बात सुन रहा था और राजीव का तन इन विचारों के लोक में रमा हुआ था। पिता की बात पूरी हुई तो सहसा वह कुछ समझा नहीं, कुछ देर चुप ही बना रह गया। कारण बात की संगति उसे नहीं मिल रही थी।
पिता ने अनुभव किया कि बेटा वहां नहीं, कहीं और है। उन्हें सहानुभूति हुई और वह भी चुप रहे। राजीव ने उस चुप्पी का असमंजस्य अनुभव किया। हठात बोला- 'तो आप मानते है कुपात्र के पास धन नहीं होगा। फिर इंजील में यह क्यों है कि कुछ भी हो जाए धनिक का स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं हो सकता। उससे तो साबित होता है कि धन कुपात्र के पास ही हो सकता है।'
पिता की ऐसी बातों पर रोष आ सकता था पर इस बार वह गंभीर हो गए। मंद वाणी में बोले- 'ईसा की वाणी पवित्र है, यथार्थ है। वह तुम्हारे मन में उतरी है तो मैं तुमको बधाई देता हूं और फिर मुझे आगे नहीं कहना है।'
राजीव को तर्क चाहिए था। बोला- 'आप तो कहते थे कि...। '

पिता और आर्द्र हो आए, बोले - 'मैं गलत कहता था। परम सत्य वह ही है जो बाइबिल में है। भगवान तुम्हारा भला करें।' कहकर वह उठे और भीतर चले गए। राजीव विमूढ़ सा बैठा रह गया। उसकी कुछ समझ में ना आया। जाते समय पिता की मुद्रा में विरोध या प्रतिरोध ना था। उसने सोचा कि मेरे आग्रह में क्या इतना बल भी नहीं है कि प्रत्याग्रह उत्पन्न करें? या बल इतना है कि उसका सामना हो नहीं सकता। उसे लगा कि वह जीता है। लेकिन जीत में स्वाद उसे बिल्कुल नहीं आया। वह आशा कर रहा था कि पैसे की गरिमा और महिमा सामने से आएगी और वह उसको चकनाचूर कर देगा। उसके पास प्रखर तर्क थे और प्रबल ज्ञान था। उसके पास निष्ठा थी और उसे सवर्था प्रत्यक्ष था कि समाजवादी व्यवस्था अनिवार्य और अप्रतिरोध्य होगी। पूंजी की संस्था कुछ दिनों की है और वह विभीषिका अब शीघ्र समाप्त हो जाने वाली है। उसको समाप्त करने का दायित्व उठाने वाले बलिदानी युवकों में वह अपने को गिनता था। वह यह भी जानता था कि नगर के मान्य व्यवसायी की पुत्र होने के नाते उसका यह रूप और भी महिमान्वित हो जाता है। उसे अपने इस रूप में रस और गौरव था। वह निश्शंक था कि भवितव्यता को अपने पुरुषार्थ से वर्तमान पर उतारने वाले योद्धाओं की पंक्ति में वह सम्मिलित है। उसमें निश्चित धन्यता का भाव था कि वह क्रांति का अनन्य सेवक बना है। वह तन- मन के साथ धन से भी उस युग निर्माण के कार्य में पढ़ा था और उसकी वर्चस्व की प्रतिष्ठा थी। मानो उस अनुष्ठान का वह अध्वर्यु था।

लेकिन पिता जब संतोष और समाधान के साथ अपनी हार को अपनाते हुए उसकी उपस्थिति से चुपचाप चले गए तो राजीव को अजब लगा। मानो कि उसका योद्धा का रूप स्वयं उसके निकट व्यर्थ हुआ जा रहा हो। उसका जी हुआ कि आगे बढ़कर कहे कि सुनिए तो सही, पर वह स्वयं न सोच सका कि सुनाना अब उसे शेष क्या है। पिता उसे स्वस्ति कह गए हैं, मानो आशीर्वाद और अनुमति दे गए हों। पर यह सहज सिद्धी उसे काटती सी लगी। वह कुछ देर अपनी जगह ही बैठा रहा। तुमुल द्वंद्व उसके भीतर मचा और वह कुछ निश्चय न कर सका।

चौबीस घंटे राजीव मतिभूला- सा रहा। अगले दिन उसने पिता से जाकर कहा - 'आज्ञा हो तो मैं कल से कोठी पर जाकर काम देखने लग जाऊं।'
पिता ने कहा- 'क्यों बेटा?'
'जी, और कुछ समझ नहीं आता।'

पिता ने कहा- 'तुमने अर्थशास्त्र पढ़ा है। मैंने अर्थ पैदा किया है, शास्त्र उसका नहीं पढ़ा। शास्त्र धर्म का पढ़ा है। ईसा की बात इस शास्त्र की ही बात है। अर्थशास्त्र भी वही कहता है तुम जानो। मैं बीए से आगे तो गया ही नहीं और अर्थशास्त्र की बारहखड़ी से आगे जाना नहीं। फिर भी वहां शायद मानते हैं कि अर्थ काम्य है। राजीव बेटा, धर्म ने उसे काम्य नहीं माना है। इसलिए उसकी निंदा भी नहीं है, उस पर करूणा है। तुम शायद मानते होगे, जैसे कि और लोग मानते हैं कि तुम्हारा पिता सफल आदमी है। वह सही नहीं है। ईसा की बात जो कल तुमने कही बहुत ठीक है। मैं उसको सदा ध्यान में नहीं रख सका। तुमसे कहता हूं कि निर्णय तुम्हारा है। निर्णय यही करते हो कि कोठी के काम को संभालो तो मुझे उसमें भी कुछ नहीं है। तुम्हारी आत्मा तुम्हारे साथ रहेगी। मैं तो उसे सांत्वना देने पहुंच सकंूगा नहीं। उसके समक्ष तुम्हें स्वयं ही रहना है इसलिए मैं तुम्हारी स्वतंत्रता पर आरोप नहीं लगा सकता हूं। पर बेटे, मैं भूल रहा तो भूल रहा, धर्म की ओर इंजील की बात को तुम कभी मत भूलना। इतना ही कह सकता हूं। समाजवादी हो, साम्यवादी हो, पूंजीवादी हो, व्यवस्था कुछ भी हो, धर्म के शब्द का सार कभी खत्म नहीं होता। न वह शब्द कभी मिथ्या पड़ता है। उसे मन से भूलोगे नहीं तो शायद कहीं से तुम्हारा अहित नहीं होगा। हो सकता है समाज का भी अहित न हो। राजीव, बहुत दिनों से सोचता रहा हूं। अब पूछता हूं कि हम लोग दोनों, तुम्हारी मां और मैं, अब जा सकते हैं कि नहीं। अपनी बहन सरोज के विवाह को तो ठीक- ठाक तुम कर ही दोगे।'

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