वह कोयले की एक परस : श्याम सिंह बिष्ट
Vah Koyale Ki Ek Paras : Shyam Singh Bisht
अभी सुबह-सुबह आंख खुली ही थी कि- ऑफिस जाना था इसलिए अपने कपड़ों पर आर्यन करने के लिए प्रेस ढूंढने लगा, तभी अतीत के पन्नों की यादें एकाएक मेरी मस्तीक और दिलो-दिमाग पर हावी होने लगी जैसे कुछ यादों के तार किसी ने क्षैर दिये हो।
पहले टाइम पर अधिकतर मेरे गांव में लोगों के पास पेंट -कमीज परस करने के लिए आयरन मशीन कम ही हुआ करती थी, यह गांव के लोगों की दरियादिली ही थी कि वह अपनी हर चीज एक दूसरे से साझा कर लेते थे ।आज का माहौल अब ऐसा नहीं है अब यदि किसी से कुछ मांग लो तो पीछे से एक ही आवाज आएगी -बेटा पता नहीं वह कहां रखी है अभी तो मैंने यही देखी थी । खैर छोड़ो इन बातों को -
हमारे गांव में जब भी कोई शादी का माहौल होता हम सब आपस में भाई लोग या यह कहैं भाई से भी ज्यादा दोस्त उस परस को गांव के घर-घर में ढूंढने लग जाते थे, वह सिर्फ एक कोयलै की परस जहां तक मुझे याद है वह ग्वार हमारे रुप सिंह चाचा जी के वहां रखी होती थी । उस टाइम की पैंट कमीज थोड़ा अलग और डिफिकल्ट हुआ करती थी, कमीज जहां अधिकतर आसमानी और पेंट बेल बाटम type होती थी ।
पेंट कमीज मैं आर्यन करने से पहले उस कोयले की प्रेस को उसके अंदर जलते हुए कोयले डाल देते थे, वह कोयले की प्रेस उस समय इतनी भारी लगती थी कि कभी कबार हमसे तो एक हाथ से भी नहीं उठाई जाती थी फिर लगे रहो और जलते हुए कोयले को फूख देते रहो और पेंट कमीज कि क्रीज पर प्रेस करते रहो । इस बात का हमेशा ध्यान रखा जाता था कि कोयले का सफेद क्षारण कपड़ों पर ना पड़े ।
सुवाल पथाई वाले दिन दोपहर 2:00 - 3:00 बजे से है शादी का प्रोग्राम शुभारंभ हो जाता था, जहां एक तरफ शादी वाला घर चांदनी और व पतंगी कागज से सजा होता था, और कानों में कुमाऊनी गाने सुनाई पड़ते थे । गांव की महिलाएं लोग हाथों में चकला, बेलन, और कुमाऊनी पिछोर, गले में गलोबंद, नाक में नथनी, पहने हुए शादी में शरीक हुआ करते थे । बाहर से आने वाले मेहमानों का एक खास इंतजाम हुआ करता था, उनके चाय पानी पीने की व्यवस्था गांव के एक जिम्मेदार व्यक्ति को दी जाती थी । उस टाइम पर ज्यादातर स्टील के बर्तन ही चलन में थे । कुमाऊनी गाने में नाच नृत्य होता और लोग शादी का आनंद लेते, पर आज के समय इतने बुद्धिजीवी होकर भी मनुष्य कुप्रथा के चलन में चला हुआ है -अधिकतर पहाड़ों में आजकल कॉकटेल पार्टी का चलन है ।
आज का मानव बुराइयों को जल्दी ग्रहण करता है और अच्छाइयों को ना के बराबर शायद हमारे पहाड़ों की या यह कहें इस कलियुगी वक्त की यही विडंबना है कि हम लोग बुद्धिमान होकर भी इन बुराइयों का विरोध नहीं कर पाते ।
हम उस पेड़ की तरह चुपचाप खड़े रहते हैं जिस पर जितनी भी चोट या उसके साखाऐ तोड़ दी जाएं पर वह अपना कर्म करता रहता है जो छाया, फल तो देता है पर कुछ कह नहीं सकता ।
पहाड़ों में जहां पहले रात की शादी का प्रचलन था, अब वह दिन में तब्दील हो चुका है, यह हम लोगों की मजबूरी कहैं या पहाड़ों में शराब का अत्यधिक सेवन ।।
पहाड़ों की बरात में बरती जाने की खुशी उस टाइम पर इतनी होती थी जैसै किसी ने पहली बार किसी को अपने प्यार का इजहार कर दिया हो । हम सब दोस्त लोग नहाने के लिए अधिकतर नह, या खारीदार जाया करते थे, नहाने की समस्या तब होती थी जब उस ठंडे पानी को जग में भरकर अपने ऊपर डालते थे सच में पहला पानी का जग डालते ही बदन कड़क उठता था । सब लोग उस टाइम पर एक ही दोस्त के लाए हुए साबुन से नहाते थे -यह सब दोस्तों का प्यार था या कुछ और पता नहीं ।।
उस टाइम की बरात अधिकतर पैदल ही जाया करती थी, साधनों की कमी कहैं या कूक्ष और पर बरात की शादी का लड्डू और मिठाई खाने का अपना अलग ही आनंद और नाच गाने का अपना अलग मजा आता था । जब तक शादी में '"औ भिना कसकै जानु दारहटा" गाना ना बजे जब तक नाचने का तो मजा ही नहीं आता था । उस वक्त मैं तो कुछ ऐसे भी डांस के सुपरस्टार होते थे जो पत्थर पर थूक से नोट चिपका कर उल्टी गर्दन कर नोट को अपने मुंह से उठा लिया करते थे।
शादी में खाना अधिकतर जमीन पर बैठकर स्टील के बर्तन में परोसा जाता था । अभी के वक्त के हिसाब से वह माहौल पूरी तरह तब्दील हो चुका है, अब टेंट हाउस व डिस्पोजेबल बर्तनों का चलन आ चुका है ।
सुबह होते ही आलू पूरी के साथ बरात की विदाई हुआ करती थी । और फिर शादी वाले घर में वही कमरतोड़ डांस वही खुशी का माहौल ना जाने कहां खो सा गया हैं वो दिन -हम लोग शायद ज्यादा बुद्धिमान हो चुके हैं या फिर हमारी संस्कृति हमसे दिन-पर-दिन पीछे छुटति ही जा रही है ।
"पर जो भी हो उस एक "कोयले की परस" ने मेरा अतीत मुझे याद दिला दिया " !