वाणी का गौरव (निबंध) : भूपेश प्रताप सिंह
Vaani Ka Gaurav (Article) : Bhupesh Pratap Singh
बोलने की प्रवृत्ति अधिकांश प्राणियों में होती है।जो चेतन हैं उनके शब्द सुनाई पड़ते हैं,जो जड़ हैं उनके शब्द तो नहीं सुनाई पड़ते परंतु उनकी क्रियाओं और उनमें होने वाले परिवर्तनों से उनकी प्रवृत्ति का अनुमान लगाया जाता है। अधिक गरमी या सरदी के कारण पत्तियों का मुरझाना और गिरना इसी का प्रतीक है। कहने का आशय यह कि प्रकृति ने सभी को किसी-न-किसी रूप में स्वयं को व्यक्त करने का अवसर प्रदान किया है ।परंतु यहाँ हम उस मनुष्य की बात करेंगे जो स्वयं को सभी जीवों से अधिक बुद्धिमान कहता है। उसकी अपनी वाणी का गौरव या लाघव इस बात पर निर्भर करता है कि उसने अपनी गो-सेवा कितनी की है। यहाँ मैं सींग-पूँछवाली गाय की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं उस गो की बात कर रहा हूँ जिसे वेदों में इंद्रिय कहा गया है। कैकेयीनंदन भरत ने इसी की सेवा की। अपनी इंद्रियों को वश में रख मर्यादा में रहकर अपने धर्म का निर्वाह किया ।कभी भी बेवजह का विद्रोह न करके उन्होंने वाणी के महत्व को प्रतिष्ठापित किया। इस कारण उन्हें महात्मा कहकर शास्त्रों में उनका यशोगान किया गया।
कुछ लोग बिना विचार किए कुछ भी बोलते हैं । उन्हें इस बात का शायद आभास भी नहीं होता कि अनावश्यक रूप से बोलते रहने के कारण उनकी वाणी अपना प्रभाव खोती जा रही है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो बहुत कम बोलते हैं परंतु जब भी बोलते हैं तो श्रोता उनकी बातों को बहुत दत्तचित्त हो कर सुनते हैं और उसे आत्मसात भी करते हैं। अधिक देर तक बोलना एक बात है और अधिक बोलना दूसरी बात है। अधिक बोलने वाले प्राय: अपनों के बीच भी उपेक्षित होते रहते हैं। आपके आसपास ऐसे लोगों की कमी नहीं होती जो अपने शब्दजाल में आपको उलझाए रखना ही अपना चातुर्य समझते हैं। उन्हें आपकी भलाई से कोई मतलब नहीं होता। वे अपने स्वार्थ साधन के लिए आपको गुमराह करते हैं।यदि आप किसी काम से कचहरी या किसी ऐसे संस्थान में पहुँच जाएँ जहाँ बिना दलाली के काम न होता हो तो आपकी मदद के नाम पर ये लोग मधुमक्खियों की तरह तब तक आपके पास ही मंडराते रहेंगे जब तक कि आपकी गाढ़ी कमाई का धन आपकी जेब से निकाल कर अपने छत्ते में न रख लें। ऐसे लोग भी बहुत मधुर बोलते हैं लेकिन उनकी वाणी को गौरव का पोषण नहीं करती क्योंकि वाणी का गौरव सत्य के धरातल पर स्थापित होता है।वक्ता सत्य से जितना दूर होता जाता है उसकी वाणी का प्रभाव भी उतना ही क्षीण होता जाता है और एक समय ऐसा भी आता है जब असत्य भाषण करने वाले की वाणी अपना प्रभाव पूर्णतया खो देती है। ऐसे व्यक्ति के जीवन में अंधकार छाने लगता है।
इनसान को बनाने वाले विधाता को भी शायद अनियंत्रण और अतिशयता पसंद न थी संभवत: इसीलिए हर तरह के स्वाद की परख रखने वाली जीभ को भी उसने दाँतों के बीच कैद कर दिया,अनियंत्रित होने वाले के लिए यह ज़रूरी होता है। हमारे देश में उपदेश देनी की परंपरा रही है। सभी ने वाणी के महत्व का व्यापक विवेचन भी किया लेकिन इतने वर्षों के बाद भी हम दूसरों के विषय में गलत धारणा बना ही लेते हैं और कुछ ही समय में उसे निकृष्ट या उत्कृष्ट साबित कर के अपने अहंकार को संतुष्ट कर लेते हैं। यह स्थिति न ही अपने लिए ठीक है और न ही दूसरों के लिए ठीक है। वाणी का अपना अलग सौंदर्य है, जब तक यह हमारे हृदय से जुड़ी होती है तभी तक निश्छल होती है जैसे ही बाहरी दुनिया से यह जुड़ती है अपने चारों ओर छल-प्रपंच का ऐसा गोला बनाती है जिसमें प्रकाश का पहुँच पाना लगभग असंभव हो जाता है क्योंकि लोग अपनी सुविधा के अनुसार बोलने लगते हैं। यदि हमारा निमित्त पावन होता है तो वाणी का उत्कर्ष होता है अन्यथा उपकर्ष ही होता है। संप्रति अर्थयुग में कम लोग ही इन बातों का ध्यान रखते हैं। यही कारण है कि चारों ओर अकारण विद्रोह और हिंसा का माहौल बन जाता है। हम सभी को इस स्थिति से बचना होगा।