वाह री होली : विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'
Vaah Ri Holi : Vishvambharnath Sharma Kaushik
होली आ गई! होली आते ही ऊधम मचने लगा। पता नहीं इस त्योहार में यह क्या बात है कि लोगों की प्रवृत्ति ऊधम तथा शरारत की ओर बहक जाती है। बड़े-बुजुर्ग, गम्भीरता में बौधिसत्व के दर्जें तक पहुँचे हुए लोग भी इस त्योहार पर हँसी मजाक का अनशन तोड़ देते हैं। अपनी अपनी प्रकृति तथा रुचि के अनुसार लोग यह त्योहार मनाने की तैयारी करते हैं। आइये देखें कौन किस धुन में हैं। एक सेठ साहब जिन्होंने कपड़े में खूब चाँदी काटी है अपनी गद्दी पर विराजमान हैं। आस-पास मुनीम तथा अन्य कर्मचारी बैठे हैं। इसी समय एक अन्य दूकान के ब्राह्मण देवता किसी कार्यवश आते हैं। कार्य समाप्त करके जब वह चलने लगते हैं तो सेठ जी से पूछते हैं:---"अबकी होली के लिए क्या क्या इन्तजाम हैं लाला?"
लाला बोले---"जो तुम्हारा हुकुम हो।"
"हमारा हुकुम! तुम तो जानते ही हो लाला, हम तो खाली एक चीज के प्रेमी हैं।"
"भांग के! क्यों न?"
"हाँ? माजूम तो बनवानोगे ही लाला।"
"हां सभी करना पड़ेगा। बिना किये प्राण नहीं बचेंगे।"
"तो हमारा भी खयाल रखना।"
"सो तो रखना ही पड़ेगा।"
बाह्मण देवता तो इतनी बात करके चल दिये। इधर लालाजी मुनीम जी से बोले—"पाव भर भीग मंगा लेना।"
"पाव भर में क्या होगा—आध सेर मंगाओ।"
"आध सेर सही। चाहे सुसरी मंहगी हो चाहे सस्ती पर कोई काम बन्द नहीं हो सकता। रंग क्या भाव होगा?"
"क्या जानें—इधर कुछ पता नहीं है।"
"दस-बीस रुपये का रङ्ग भी खर्च हो जायगा।"
"टेसू के फूलों का रंग बनवा लेना-सस्ते में बन जायगा।"
"खाली पीला बनेगा। लड़के तो हरा-लाल मांगेंगे। दो-पिचकारी पावेंगी। पिचकारी भी बड़ी महंगी होंगी।
"सस्ती कौन चीज है लाला।"
"ठीक कहते हो कपड़ा तो सरकार ने सस्ता कर दिया और चीज सस्ती नहीं की। हम कपड़े वालों का गला दबा दिया।"
"कपड़ा भी कोई अधिक सस्ता नहीं हुआ।"
"हम लोग तो मारे गये। दो पिचकारी ले आना-जरा अच्छे मेल की। आज कल लड़कों के मिजाज भी आसमान पर रहते हैं—ऐसी वैसी चीज पसन्द नहीं आती।"
सेठ जी उन लोगों में हैं जो सब काम करेंगे और काफी पैसा खर्च करके करेंगे, परन्तु प्रत्येक कार्य करने के पहले एक बार रो-झींक अवश्य लेंगे।
एक महाशय अपनी मित्र मण्डली में विराजमान हैं। एक मित्र कह रहा है—"होली का त्योहार भी बड़ा मस्त त्योहार है!
"क्या बात है। इस बार कोई नई बात होनी चाहिए।"
"क्या नई बात होनी चाहिए?"
"बस यह समझ लो कि बस-।"
"वाह भई---यह बस अच्छी रही। क्या बस कुछ मालूम भी तो हो?"
"कुछ समझ में नहीं आता।"
"कोई नई बात हो ही नहीं सकती। रंग खेलो, खूब भांग छानो- बस यही होली का त्योहार है।"
"इस साल किसी को बेवकूफ बनाना चाहिए।"
"हाँ जो कुछ शरारत करना हो इस साल कर लो---सम्वत एक से सत्युग लगने वाला है। सत्युग में कुछ न कर पाओगे।"
"सत्युग में होली कैसे मनाई जायगी?"
"भगवान जाने कैसे मनाई जायगी---जैसे सब मनायेंगे वैसे ही अपने को भी मनानी पड़ेगी।"
"हम तो सत्युग में भी ऐसे ही मनायेंगे।"
"मना पायोगे तब तो मनाओगे।"
"अपने घर में किसी का इजारा है।"
"तो सत्युग आपके घर से बाहर ही रहेगा क्या?"
"हाँ, केवल होली भर?"
कुछ देर वार्तालाप करके अन्य सब लोग तो उठ गये केवल एक महाशय रह गये! उन्होंने एक सोने का जेवर निकाल कर महाशय जी को दिखाया।
महाशय जी ने पूछा---"क्या बात है?"
"इसे रख लीजिए और पचास रुपये दे दीजिए।"
"क्या करोगे?"
"करेंगे क्या? होली का खर्च चाहिए।"
"अच्छा! पचास रुपये खर्च कर डालोगे।"
"हां इतने तो खर्च ही हो जायंगे---साल भर का त्योहार है।"
"बड़े बेढब हो।"
"हम तो ऐसा ही करते हैं। जो काम करते हैं दिल खोल कर। चार दिन की जिन्दगी है एक दिन मर जायंगे---चले जायंगे। जितने दिन जीना है---शान से जियेंगे।"
महाशय जी ने पचास रुपये दे दिये। ये लोग उन लोगों में हैं जो लंगोटी में फाग खेलते हैं। इन्हें यह चिन्ता नहीं है कि कल क्या होगा। वर्तमान को देखते हैं और उससे अधिकाधिक लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं।
एक रईस का कमरा। रईस महोदय कुछ लोगों से वार्तालाप कर रहे हैं।
"बाग में किस दिन की होली होगी।" एक ने पूछा।
"जिस दिन चाहेंगे हो जायगी।"
"हीराबाई इवेंगी?"
"क्यों न आवेगी---वह भी आवेंगी अपनी सहेलियों को भी लावेंगी!" रईस ने कहा।
"तब तो शानदार होली होगी। हौज भराया जायगा?"
"हाँ---टेसू के फूल मंगाये हैं---उन्हीं का रंग बनवाकर भरा देंगे। डब्बे के रंग में बहुत रुपया खर्च होगा।"
"क्या जरूरत है। टेसू का रंग बहुत बढ़िया होता है-बसन्ती।"
"पहले डब्बे का रंग था कहाँ। यही टेसू और अन्य वनस्पतियों के रंग बनते थे।"
"बड़े अच्छे रहते थे। डब्बे के रंग ने उनका चलन ही बन्द कर दिया।"
"डब्बे के रंग सस्ते पड़ने लगे थे इससे उन्हीं का चलन हो गया था। अब रंग मंहगे हैं इस लिए फिर वनस्पतियों का रंग चालू हुआ है।"
"अरे भाई हीराबाई को एक साड़ी देनी पड़ेगी---आजकल साड़ियाँ बड़ी महंगी हैं।"
"दे दीजिएगा कोई---पन्द्रह-बीस में मिल जायगी।"
"पन्द्रह बीस में मामूली मिलेगी।"
"हां यह बात तो है।"
"मामूली वह न लेगी।"
"एक हलवाई भी ठीक करना है---
बाग में खाना-पीना होगा।"
"माजूम भी बनवाइयेगा?"
"रईस महोदय मुँह बनाकर बोले---माजूम! बनवा लेंगे थोड़ी ही, हमें तो भाँग से प्रेम नहीं है---तुम जानते ही हो।"
"हाँ आपकी तो बोतल चलेगी। लेकिन वह आजकल सब से महंँगी है।"
"महंगी हो या सस्ती---बिना उसके तो आनन्द ही न आयेगा।"
"हाँ! आप तो उसी का व्यवहार करते हैं।"
"भांग का नशा गधा नशा है, बोतल का नशा बादशाह नशा है।"
"यह तो अपनी अपनी पसन्द है।"
'हाँ पसन्द की बात तो है ही।"
यह रईस महोदय उन लोगों में हैं जिनके प्रत्येक त्योहार तथा खुशी के कार्य में वैश्या तथा मदिरा का समावेश रहता है। जिस प्रकार भोजन के लिए नमक आवश्यक होता है उसी प्रकार इन लोगों की खुशी में वेश्या तथा मदिरा का होना आवश्यक है।
एक नई रोशनी के सज्जन का निवास स्थान! यह सज्जन नवीन प्रचार विचार के हैं। नेता, समाज सुधारक, साहित्यिक-सब कुछ बनने का दावा करते हैं--इनकी मण्डली भी इसी ढंग की है।
"होली आ गई और होली आते ही लोगों ने बकना आरम्भ किया। ऐसा खराब त्योहार है कि भगवान बचावें।"
"इन लोगों को बकने में शरम भी नहीं लगती।"
"त्योहार है--इसमें सब माफ है।"
"मरा ससुरा ऐसा त्योहार। कीचड़ उछाले, फोहश बकें, खामखाह लोगों से छेड़छाड़ करें---यह त्योहार है।"
"इसमें कुछ सुधार होना चाहिए।"
"बिना स्वराज्य हुए, सुधार नहीं हो सकता। जब आर्डिनेन्स लगाया जाय तब सुधार हो और आर्डिनेन्स बिना स्वराज्य हुए लग नहीं सकता।"
"क्यों?"
"ब्रिटिश सरकार को क्या गरज है जो आर्डिनेन्स लगावे। अभी लोग शोर मचाने लगें कि धार्मिक कामों में हस्तक्षेप करती है। अपनी सरकार पर यह धौंस चलेगी नहीं।"
"जितने दिन होली रहती है, घर से निकलना दूभर हो जाता है । निकलो तो दुर्दशा कराओ।"
"हम तो कहीं बाहर चले जायँगे।"
"जहाँ जायँगे वहाँ भी तो होली ही मिलेगी।"
"सब जगह यह बात नहीं है। अन्य जगह केवल एक दिन रंग चलता है---यहाँ की तरह आठ-आठ दिन तक ऊधम नहीं मचता।"
"हाँ यह बात तो है। यहाँ का तो मामला ही दूसरा है। तीन लोक से मथुरा न्यारी।"
"हमारा बस चले तो हम इस त्योहार को ही बन्द करवा दें।"
"देखिये कभी बस चलेगा ही।"
यह सज्जन उन लोगों में हैं जिन्हें सब त्योहार बुरे ही लगते हैं। होली में हुरदङ्ग मचता है इसलिए होली खराब। दिवाली में जुआ खेला जाता है इसलिए दिवाली दो कौड़ी की। दशहरे पर राम-रावण की नकल होती है--यह बुरा है। श्रावणी पर ब्राह्मणों की लूट होती है इसलिए वह भी रद्दी। कोई त्योहार आता है तो इन महाशय का खून जलता है, परन्तु मजबूर हैं बस नहीं चलता। स्वराज्य को प्रतीक्षा में हैं, क्योंकि स्वराज्य में ये सब त्योहार बन्द करा दिये जायँगे। जब सब त्योहार बन्द हो जायँगे तब यह महाशय सन्तोष की साँस लेंगे।