वाग्भट्ट : कश्मीरी लोक-कथा
Vaagbhatt : Lok-Katha (Kashmir)
कहा जाता है कि महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था और देश में पाण्डवों का राज पुनः स्थापित हो चुका था। एक दिन महाराज युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर के विद्वानों और वरिष्ठों को भोजन के लिए निमन्त्रित किया। भोजन करवाने के बाद महाराज युधिष्ठिर उनसे सम्बोधित हुए- "महाभारत-युद्ध में हमने विजय पाई और समूचे देश पर हमारा शासन है, पर न जाने क्यों मेरा मन उदास है। जैसे मेरे हृदयोद्यान के सघन बौरों पर तुषारपात हो गया है ! क्या आप में से कोई महानुभाव मेरी इस उदासी का कारण बता सकता है ?" कुछ क्षणों के बाद एक वयोवृद्ध महानुभाव ने कहा, “महाराज, युद्ध में असंख्य लोगों का खून बहा। लाखों घर बरबाद है गए। अनेक माताओं की आँखों के तारों को मौत के घाट उतारा गया। दुल्हिनों के मेहँदी रचे हाथ फीके पड़ गए। हस्तिनापुर की गलियों और बाजारों में शोणित के नद बह गए। यहाँ का कण-कण रक्त-रंजित है, इसीलिए आपका मन अशान्त एवं उदास है। इस पातक से मुक्ति पाने के लिए आपको प्रायश्चित्त स्वरूप अश्वमेध यज्ञ रचाना चाहिए।" यह सुनकर निर्णय लिया गया कि अश्वमेध यज्ञ रचाया जाए। इस बारे में श्रीकृष्ण जी को भी अवगत कराया गया। अब यहाँ यह प्रश्न उठाया गया कि इस यज्ञ में वेदपाठ कौन करेगा तथा यज्ञ के प्रमुख पण्डित का पद किसे दिया जाएगा? इस काम के लिए कोई उच्च कोटि का विद्वान् तथा महान् साधक ही चुना जाना चाहिए। अन्त में इस बात का निर्णय लिया गया कि यह पद श्रीकृष्ण ही सँभाल लेंगे और उन्हें सूचित करने के लिए पाण्डुओं के मँझले भाई भीम को भेजा गया ताकि श्रीकृष्ण यज्ञ का श्रीगणेश करें। भीम सन्देश लेकर द्वारिका नगरी में श्रीकृष्ण जी के पास पहुंचे।
श्रीकृष्ण ने जब भीम से सन्देश सुना तो उन्होंने भीम से कहा कि मुझसे भी श्रेष्ठ और उत्तम विद्वान् कश्मीर में हैं। इस विद्वान् का नाम वाग्भट्ट है। इन्हीं के कर कमलों से ही यज्ञ का श्रीगणेश करवाया जाना चाहिए। जब श्रीकृष्ण का सन्देश लेकर भीम हस्तिनापुर लौटे तो श्रीकृष्ण का सन्देश सुनकर सभी पाण्डव एवं विद्वान् हैरान हो गए। और कहने लगे कि क्या हस्तिनापुर के विद्वानों से भी बढ़कर कोई श्रेष्ठ विद्वान् देश में विद्यमान है ? श्रीकृष्ण का कहना था, अतः सभी अनुत्तर हो गए। अन्त में भीम को कश्मीर की ओर भेजा गया। कई महीनों के पश्चात् भीम कश्मीर पहुँच गए। यहाँ पहुँच कर कई लोगों से वाग्भट्ट के बारे में मालूम किया और पूछते-पाछते वॉग्यहोम गाँव पहुँच गए। उन्होंने यहाँ चार-पाँच व्यक्तियों को एक वृक्ष की छाया में बतियाते पाया। उनके पास जाकर भीम ने उनसे वाग्भट्ट और उनके आश्रम के बारे में मालूम किया। इन लोगों ने जब यह नाम सुना तो ठहाका मार कर हँस पड़े और कहा कि यहाँ वाग्भट्ट नाम का कोई व्यक्ति नहीं; पर यहाँ वागुर नाम का एक दरिद्र है। वर्षा-घाम में हल चलाते-चलाते जिसका अंग-अंग ढीला हो जाता है, सम्भवतः उसी ने तुम्हारे सामने अपने बारे में बतंगड़ बनाया होगा। फिर भी जाओ, वह वहाँ खेत में हल जोत रहा है और वह उधर उसकी झोंपड़ी है। वहाँ उसकी पत्नी से मालूम करना। यह सुनकर भीम झोंपड़ी की ओर गया और वहाँ पहुँचकर वाग्भट्ट की पत्नी से मिला। वह उस समय चक्की पीस रही थी। "माता! श्रीमान वाग्भट्ट जी कहाँ हैं ?" भीम ने पूछा। "वत्स. वे वहाँ उस पेड़ तले हल जोत रहे हैं।" वाग्भट्ट की पत्नी ने उत्तर दिया। भीम खेत की ओर चल पड़े। वहाँ इन्होंने एक काले-कलूटे व्यक्ति को, जो केवल कौपीन धारे हुए था, हल जोतते देखा। इसे देखते ही भीम के चेहरे पर घृणा-सी छा गई। सोचा, कहाँ हस्तिनापुर के पण्डित और विद्वान् और कहाँ यह कलूटा दरिद्र ! भीम को लगा कि श्रीकृष्ण ने कहीं गलती की है। न जाने कहाँ इस नंगड़ का नाम सुना है। यदि यह उस सम्मिलन में प्रविष्ट होगा तो सब कुछ भ्रष्ट हो जाएगा। भीम यही सोच रहे थे कि वाग्भट्ट की पत्नी भी खेत पर वाग्भट्ट के लिए खाना लेकर आ गई और भीम से पूछ बैठी— "वत्स, क्या वाग्भट्ट से मिले ? तनिक प्रतिक्षा करो। वे यहीं इसी वृक्ष की छाया तले भोजन करने आ जाएँगे।" कुछ क्षण बीते कि वाग्भट्ट भी वहीं आ गया और एक अतिथि को भी आया पाया। अतिथि से औपचारिकता निभाने के बाद पूछा कि "वत्स, तुम मेरे पास किस उद्देश्य से आए हो? मुझसे क्या काम है?"
भीम असमंजस में पड़ गए कि कहूँ या न कहूँ ? पर उन्हें श्रीकृष्ण की आज्ञा याद आई और कहा-"हे द्विज श्रेष्ठ, महाराज युधिष्ठिर को अश्वमेध यज्ञ रचाना है। श्रीकृष्ण ने आपको इस यज्ञ में सम्मिलित होने और प्रमुख पण्डित का पद स्वीकारने का निमन्त्रण दिया है।" यह सुनकर वाग्भट्ट हँसने लगे और बोले-"न जाने कहाँ जाना था और कहाँ आ गए हो। प्रभु ही जाने तुम्हें किसको बुलाना था और तुम किसके पास आ गए। कहाँ वागुर और कहाँ अश्वमेध यज्ञ। मेरे सम्मिलित होने से तो सब कुछ गड़बड़ा जाएगा। अरे, मेरे पास पेट-भर भोजन और तन भर कपड़ा नहीं है. मैं अश्वमेध यज्ञ क्या जानूँ ?" यह कहते-कहते वाग्भट्ट मैले हाथों ही भात खाने लगे। भीम ने जब उनकी मलिनता देखी तो उसे घिन आ गई। सोचने लगा यह ठीक ही कहता है, यह वह हो नहीं सकता जिसे भगवान ने इतना ऊँचा दर्जा दिया हो। इसी बीच अचानक ही उसकी दृष्टि बैलों पर पड़ी। उसने देखा कि एक कौआ हल की मूठ पर बैठा है और बैल सही दिशा में स्वतः चल रहे हैं। भीम दृष्टिवान पुरुष थे, अतः उन्होंने इस संकेत को समझ लिया।
वाग्भट्ट उठ खड़े हुए और पुनः हल चलाने लगे। भीम वाग्भट्ट से यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए काफी अनुनय-विनय करते रहे और कई दिन पश्चात वाग्भट ने यज्ञ में शामिल होने की हामी भरी। साथ ही यह शर्त रखी कि मैं उस धरती पर अन्न ग्रहण नहीं करूँगा जो धरती मानव शोणित से रँग गई है। मेरे लिए अत्यन्त परिश्रम पूर्वक ऐसे चूल्हे पर अन्न पकाना है जिसका स्पर्श उस मिट्टी से न होता हो। भीम ने इस शर्त को स्वीकार लिया और वाग्भट्ट को लेकर हस्तिनापुर की ओर चल पड़े। तीन महीनों के बाद वे हस्तिनापुर पहुँच गए। जब श्रीकृष्ण ने वाग्भट्ट के आगमन के बारे में सुना तो वे अपने मित्रों सहित वाग्भट्ट के स्वागत के लिए आ गए। श्रीकृष्ण ने वाग्भट्ट के पैर पखारे और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उन्हें दरबार में लाए। जब वहाँ के ब्राह्मणों ने इस काले-कलूटे व्यक्ति को देखा तो वे खीसें निपोरने लगे। वाग्भट्ट यह सब देख रहे थे और मन-ही-मन हँसते जा रहे थे।
अश्वमेध का समारम्भ हुआ। श्रीकृष्ण ने वाग्भट्ट को ऊँचे आसन पर आसीन किया और स्वयं उनके चरणों के पास बैठ गए। यज्ञारम्भ से पहले ब्राह्मणों ने आपस में कानाफूसी शुरू कर दी। जब अग्नि प्रज्वलित करने की बेला आ गई तो एक ब्राह्मण उठ खड़ा हुआ और वाग्भट्ट से कहने लगा-"द्विजवर, अग्नि प्रज्वलित कीजिए।" "अंगारे ले आइए" वाग्भट्ट ने उत्तर में कहा। "क्या आप आग से आग जला देंगे! फिर आप में कौन-सी विशिष्टता है ? हमें विश्वास था कि आप मन्त्रोच्चारण से अग्नि प्रज्वलित करेंगे।"
"क्या आज तक किसी ने मन्त्रोच्चारण से अग्नि प्रज्वलित की है ?" वाग्भट्ट ने पूछा।
"विप्रवर! क्या दीपक राग द्वारा दीपक नहीं जलते?" यह सुनकर वाग्भट्ट मौन हो गए और ब्राह्मण जोर-जोर से हँसने लगे। बात सही थी। श्रीकृष्ण खड़े हो गए और करबद्ध होकर वाग्भट्ट से कहने लगे, "महाराज, ये लोग अनजान हैं, इन पर दया कीजिए। मेरे लिए अब अग्नि को जीवादान दीजिए।" ऐसा कहते उनकी आँखों से अश्रु धाराएँ बह निकलीं जिससे वाग्भट्ट बहुत अशान्त हो गए और चीख पड़े-"भगवन्! बस कीजिए, बस मैं आपकी आज्ञा का पालन कर रहा हूँ।" यह कहते हुए उन्होंने यज्ञ-कुण्ड की समिधाओं की ओर उँगली से संकेत किया और अग्नि धू-धू कर प्रज्वलित हो उठी। चारों दीवारों की ओर इंगित किया और वहाँ से वेद-पाठ की ध्वनि ऐसे आने लगी जैसे हजारों ब्राह्मण समवेत स्वर में वेद-पाठ कर रहे हों। युधिष्ठिर एकदम उठ खडे हुए और वाग्भट्ट को चंवर डुलाने लगे।
(पृथ्वी नाथ मधुप)