उसका कल (कहानी) : विभा देवसरे

Uska Kal (Hindi Story) : Vibha Devsare

वर्षों से सुबह की प्रार्थना - पूजा या यों कहें, मेरा चिंतन-मनन मेरे मॉर्निंग वॉक में शामिल है। मुझे लगता है, पूरे दिन में यही समय, यही अवसर सिर्फ मेरा अपना है। कितना यह पूजा-पाठ के लिए और कितना चिंतन-मनन के लिए है! ऐसा मेरा कोई दावा नहीं है। एक क्रम है, जो क्रमबद्ध नहीं हो पाता है। सिलसिला तो टूटता ही है।

बेल कॉलोनी का यह छोटा सा पार्क, इर्द-गिर्द दियासलाइयों के डिब्बे से बने छोटे-छोटे तिमंजिले मकान, साफ-सुथरी सड़क और बहुत से हरे-भरे पेड़ोंवाला यह इलाका खासा रिहायशी होने के बाद भी जिस सन्नाटे से घिरा रहता है, उसमें मुझे जाने कैसा सुकून मिलता है। यहाँ बसनेवाले निम्न मध्यम और मध्यम वर्गीय परिवारों में सुबह की रोजी-रोटी की चिंता, बच्चों के स्कूल-कॉलेज जाने का समय, पुरुषों के ऑफिस जाने का समय और पानी चले जाने का भय सारे वातावरण को मशीनी बना देता है-शायद यही वजह है कि वातावरण पूरी तरह शांत रहता है। घरों से प्रेशर कुकर की सीटी, कपड़े धोने पटकने की आवाजें और कभी- कभी सब्जी के छौंके जाने की सुगंध वातावरण के सन्नाटे में शामिल रहती है।

छोटा सा पार्क, जिसके चारों कोनों पर सीमेंट की बेंचें पड़ी हैं। अपने घूमने का क्रम पूरा करने के बाद मैं अकसर बेंच पर बैठती हूँ और कुछ श्लोक, जो अरसे से कंठस्थ हैं, का पाठ करती हूँ। उस दिन भी मैं पार्क की बेंच पर बैठकर कंठस्थ श्लोकों का पाठ कर रही थी कि अचानक बेहद शोर, मार-पीट और एक लड़की के चीखने व रोने की आवाज सुनकर मैं अपने को रोक नहीं सकी। मन-ही-मन मैंने अपने को धिक्कारा। क्या मुझे किसी के दुःख और पीड़ा से मतलब नहीं रखना चाहिए? क्या मैं मानवीय संवेदना से मुक्त हूँ ? ईश्वर - पूजा और मानवीय होना क्या एक नहीं ? अचानक आए इन विवेकशील विचारों के कारण मैं झटके से उठी । पार्क के दाहिनी ओर वाले फ्लैट्स के बाहर का यह शोर था । लगभग चौदह-पंद्रह वर्ष की एक लड़की को उसका पिता बुरी तरह से पीट रहा था । लड़की जब पिता के चंगुल से छूटती तो वह भी आक्रामक हो उठती। एक ओर लड़की की माँ जोर-जोर से चिल्लाकर कहती, 'और मारो हरामजादी को, जीना हराम किए है । अरे, जाने किस करम का फल भोग रही हूँ। जिस दिन से हरामजादी पैदा हुई है, घर नरक बन गया है।' और वह औरत, जो लड़की की माँ थी, सिर पीटकर जोर-जोर से रोने लगी। उधर, पिता अपने चंगुल से छूट गई लड़की के प्रति और भी जाहिल होता जा रहा था। कभी उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचता, उसे थप्पड़ मार-मारकर गिरा देता और लात से जमकर मारता । कभी उसके बाल खींचकर उसे मारता । लड़की भी इस यातना से जितना रोती- चीखती जा रही थी उतनी ही अधिक आक्रामक होकर वह पिता पर भी वार कर रही थी और जमकर अपने सर्जक माता-पिता को माँ-बहन की गालियों से नवाज रही थी। कुछ लोग इस सारे कांड में तमाशबीन बने खड़े थे। बाकी अड़ोस-पड़ोस और दूसरी व तीसरी मंजिल के लोग खिड़कियों और बालकनी से पिटती हुई लड़की को बेलाग होकर देख रहे थे। वे सभी लोग अपने में केंद्रित, अपने आप में महफूज हो, कॉलोनी में साथ रहते हुए भी इस वारदात में किसी तरह का रोल अदा नहीं करना चाह रहे थे । लड़की अपने पिता से बुरी तरह से पिट रही थी । उसकी माँ अपना सिर धुन रही थी। अपने को, अपनी कोख को गाली दे रही थी। लड़की को पीटता हुआ उसका पिता और जुल्म सहती हुई लड़की दोनों ही जाहिल की तरह एक-दूसरे को गाली दे रहे थे। लड़की पिता के चंगुल से छूटकर पत्थर उठाकर पिता पर वार भी कर रही थी। मैं जब इस सारी वारदात के करीब पहुँची तो पिटती हुई लड़की पिता के चंगुल से दूर खड़ी हो पिता को गालियाँ बक रही थी। पिता भी शायद लड़की को पीटते-पीटते थक गया था और अपने को एक सच्चा, किंतु वारदात से हारा, सही और नेक इनसान के रूप में दूसरों की सहानुभूति बटोरने के लिए अपना बयान देना चाहता था। वह उस लड़की को पागल घोषित करके यह साबित करना चाहता था कि इसकी वजह से घर में आएदिन कितना हंगामा होता है, रोना पीटना होता है। जिंदगी नरक के सिवाय और कुछ नहीं रह पाती है।

उधर, लड़की बुरी तरह पिटने के बाद चीख-चिल्ला तो रही थी, उसका आक्रोश भी कम नहीं था। पिता को बुरी तरह गालियाँ बक रही थी। पिता शांत हो जाना चाहता था, लेकिन लड़की की बेहूदगी उससे बरदाश्त नहीं हुई और कसाई की मुद्रा में वह फिर एक बार लड़की की ओर झपटा। मुझसे रहा नहीं गया और मैं चिल्लाई, "इस तरह आप उसे क्यों मार रहे हैं ? और यहाँ आप सब आप लोग तमाशबीन बने खड़े हैं।"

मैं इतना कहकर जैसे ही लड़की को छुड़ाने के लिए आगे बढ़ी कि लड़की ने पास पड़ा हुआ पत्थर उठा लिया और मुझे मारने को हुई। मैं एकदम घबरा गई। लड़की के पिता ने उसके हाथ से पत्थर छीना, उसे मारते हुए नीचे गिराकर फिर लातों से मारने लगा। मेरे लिए यह सबकुछ असहनीय था ।

मेरे पास खड़े एक दर्शक सज्जन ने कहा, "बहनजी, आप बेकार परेशान हो रही हैं। यह लड़की है ही ऐसी, इसे पागल भी कहा जाए तो कुछ गलत नहीं। इस लड़की की वजह से इसके घर में ही नहीं, इस कॉलोनी में भी कुछ-न-कुछ हंगामा होता ही रहता है। "

मेरे सब्र का बाँध टूट रहा था, मन का आक्रोश सँभाले नहीं संभल रहा था। " लेकिन इस तरह उसका पिटते रहना कैसे आप सब बरदाश्त करते हैं।"

एक दूसरे सज्जन, जो उन सबके बीच कुछ ज्यादा ही स्मार्ट थे, बोले, 'आपने अभी कोशिश तो की थी, मैडम! सबकी अपनी पर्सनल लाइफ है। अपने ही छोटे-बड़े प्रॉब्लम्स से घिरा आदमी दूसरे की सिरदर्दी क्यों मोल लेने लगा ! अब समय कुछ और हो गया है। आप..."

मैं उन स्मार्ट सज्जन की बातों में कोई रुचि नहीं लेना चाह रही थी। मेरा ध्यान सिर्फ उस पिटती हुई लड़की में ही केंद्रित था। मैंने फिर अपनी आवाज उठाई, ,"अगर यह लड़की मेंटल केस है तो इसे मेंटल हॉस्पिटल में भरती कराकर इलाज क्यों नहीं कराते ? यहीं शाहदरा में तो है मेंटल हॉस्पिटल। यहाँ से बहुत दूर भी नहीं है।"

एक कुछ आधुनिक पढ़ी-लिखी प्रौढ़ महिला ने मेरे करीब आकर कहा, 'आप भी बहनजी, बेकार परेशान हो रही हैं। अरे, इस लड़की को इलाज के लिए अगर मेंटल हॉस्पिटल में भेज देंगे तो इनके घर का सारा काम कौन सँभालेगा ? इस लड़की की माँ को आप नहीं देख रही हैं, कैसा नाटक बनाकर रो रही है। दिन भर बीमार बनी पलंग पर पड़ी रहती है। यही लड़की उसकी तीमारदारी में भी लगी रहती है और पलटन भर भाई-बहनों को भी सँभालती है। जरा सी चूक हुई कि वह शिकायतों की फेहरिस्त अपने खसम को थमा देती है और यह इसी तरह पिटती है।"

मेरी तार्किक बुद्धि कुछ ज्यादा उमड़ रही थी, "लेकिन घर के काम-काज के लिए नौकर ..."

"आपका भी जवाब नहीं, इस महँगाई के जमाने में मध्यम वर्ग के लोग भला कहाँ इतना अफोर्ड कर सकते हैं!" उन्हीं महिला ने पास खड़ी महिलाओं के बीच अपनी बात को और वजनदार बनाने की कोशिश में अपनी बात की स्वीकृति चाही।

अब तक तो पंचायती बातों के लिए खासा माहौल बन चुका था। मेरे पास कुछ और महिलाएँ आकर खड़ी हो गईं और मुझे वारदात - ए - इतिहास के बारे में जानकारी देने लगीं।

एक बोली, "बेचारी सुबह से रात तक घर के काम-काज में ही लगी रहती है ।"

दूसरी ने तमककर कहा, "और नहीं तो, माँ तो इसकी बीमार ही पड़ी रहती है। हर साल बच्चे ही जनती है। अपने को किसी हीरोइन से कम नहीं समझती । खसम जो रात-दिन सेवा में लगा रहता है।"

मुझे उन औरतों की बकवास में कोई रस नहीं मिल रहा था। उन्हें चुप कराने की कोशिश में मैंने पूछा, "लेकिन यह लड़की क्या इस औरत की नहीं है ?"

पहलीवाली औरत बोली, "है तो इसी की, पर आपको क्या कुछ फरक नजर नहीं आ रहा है। कहाँ माँ का चंपई रंग, तीखे नाक-नक्श, सुडौल शरीर, काले घने बाल और कहाँ बैगन को मात देनेवाला इसका रंग, भोंडी नाक, होंठों को धकियाते हुए बाहर निकले दाँत और ठिगनी-मोटी कद-काठी। भगवान् ने भी इसे बनाकर अपना मजाक ही उड़ाया है।"

"आप लोग ये सब बेकार की बातें क्यों कर रही हैं ? जरा सोचिए, अगर इसी तरह इस लड़की पर अत्याचार होता रहा तो क्या यह जिंदा बचेगी ?"

एक मोटी सी औरत कुछ आगे खड़ी औरतों को धकियाते हुए हाथ नचाकर बोली, "कुछ नहीं होगा इसे बहुत बेशरम है यह लड़की। इसे अपने जवान होते शरीर का, उन रंगरलियों का पूरा अहसास है। जहाँ चार जवान लड़के खड़े होंगे वहाँ यह अदाएँ दिखाती जरूर पहुँच जाएगी और किसी-न-किसी तरह अपनी ओर उनका ध्यान जरूर खींचेगी। अरे, बड़ी चालू चीज है। इसने चौकीदार से कहकर गुप्ताजी के सीधे-सादे बेटे मुन्नू को पिटवा दिया। भरी सभा में कह दिया कि यह मुझे छेड़ रहा था। अब आप ही सोचिए, इसकी शक्ल में कौन से हीरे पन्ने जड़े हैं, जो कोई इसे छेड़ेगा !"

एक दूसरी औरत ने अब तक अपनी बारी न आते देख, मेरे बिलकुल करीब आकर फुसफुसाते हुए कहा, "बहनजी, मुझे तो कहते हुए भी शर्म आती है। कुछ दिन पहले ये लड़की कॉलोनी के माली के संग कोनेवाले बगीचे में सोई पाई गई। अब उस माली को तो निकाल दिया गया, लेकिन इसका क्या हो ?"

मुझे लगा कि अगर यहाँ और ज्यादा देर रुकी तो लड़की का कथा-पुराण सोप - ओपेरा की पूरी सामग्री से कम नहीं होगा। लड़की अभी भी पैर पटक- पटककर बुरी तरह रो रही थी। उसका बाप बढ़ती भीड़ देखकर घर जा चुका था । माँ पहले ही नन्हे बच्चे के रोने- चीखने की आवाज सुनकर अंदर जा चुकी थी। मजमा भी धीरे-धीरे घटने लगा था।

मेरा नियमित पूजन का क्रम तो छूट ही चुका था। मॉर्निंग वॉक से जो स्फूर्ति मिलनी थी, उसकी जगह मस्तिष्क में सैकड़ों प्रश्न कौंध रहे थे। हमारे समाज की, विशेषकर मध्यम वर्गीय परिवार की ढेर सारी लड़कियों की तसवीर आती जा रही थी और मिटती जा रही थी - क्या आज के तथाकथित आधुनिक समाज में उन्हें अपनी नियति के ही बल पर जीना पड़ रहा है?

दूसरे दिन से मेरी दिनचर्या का क्रम यथावत् आरंभ हो गया। कई दिन बीत चुके थे। स्लेट पर लिखे शब्दों की तरह मेरे मन-मस्तिष्क से भी वह घटना लगभग धुल-पुंछ गई थी। एक दिन अपने नियमित क्रम के अनुसार पार्क के कोने में पत्थर की बेंच पर बैठकर मैं अपने कंठस्थ श्लोकों का पाठ कर रही थी कि वह लड़की मेरे पास आकर बैठ गई। मुसकराते हुए उसके दाँत बाहर निकल आए थे। बहुत ही आत्मीयता भरे स्वर में बोली, "आंटीजी, नमस्ते। आप रोज यहाँ क्यों आती हैं ? आंटीजी, मैं आपको रोज देखती हूँ, आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं।"

वह बहुत आत्मीयता भरे स्वर में यह सब कह गई । वह मेरे इतने करीब थी कि मुझे लगा, वह मुझसे लिपट जाएगी। मैंने प्यार से पुचकारते हुए उससे पूछा, "अरे, आज इतने सवेरे-सवेरे तुम यहाँ कैसे ?"

"सब लोग शादी में गए हैं। मैं घर में अकेली थी। सोचा, आपके पास थोड़ी देर के लिए बैठ जाऊँ। बहुत दिन से मेरा मन कर रहा था।"

मैंने उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा, "तुम स्कूल नहीं जाती हो ?"

उसने मुझे आश्चर्य से देखते हुए कहा, "कैसी बातें कर रही हैं? मैं भला कैसे स्कूल जा सकती हूँ ! घर का काम कौन करेगा? वह ससुरी जो मेरी अम्मी है न, हर समय बिस्तर पर पड़ी रहती है। बाप शराब पीकर उसके आगे दुम हिलाता है और चार जो छोटे-बड़े पिल्ले हैं, उनके मुँह में अगर निवाला नहीं गया तो मेरी हड्डी -पसली एक की जाती है। रात-दिन घर का काम। वक्त ही कहाँ है मेरे पास कि मैं स्कूल जाऊँ! फिर आंटी, मैं पागल जो हूँ, सब लोग मुझे पागल समझते हैं। इसीलिए मेरा वह जो बाप है न, कमीना ! वह मुझे पीटता है।"

मैंने अपने को सँभालते हुए कहा, "अरे, तुम तो इतनी प्यारी लड़की हो, घर का सबकुछ सँभालती हो, फिर ऐसी लड़की क्या अपने माँ-बाप को गाली देती है !"

मैंने देखा, उसकी आँखों में आँसू छलछला आए थे। बहुत दुःखी होकर उसने कहा, “हाँ, आंटी, आप ठीक कहती हैं। मैं भी ऐसी नहीं होना चाहती हूँ। मैं रोज उस कल के बारे में सोचती हूँ, जो आएगा। सब लोग मुझे एक अच्छी लड़की समझेंगे और मैं..." एक क्षण को वह चुप हो गई। उसकी सूनी आँखें ऊपर सूने आकाश में कुछ खोजने लगीं। फिर वह सँभलकर बोली, "लेकिन आंटी, मैं अच्छी नहीं बन सकती, क्योंकि मैं बुरी हूँ। सब मुझे बुरा समझते हैं। अगर मैं अच्छी होती तो क्या मैं आपको उस दिन पत्थर से मारने दौड़ती !" वह मेरे कंधे पर सिर रखकर फफक-फफककर रो दी।

कुछ कहने और करने के लिए मैं अपने आपको टटोलती रही। उसकी पीड़ा से मैं जितनी द्रवित थी उतनी ही लाचार। मैं उसका कल उसे देना चाहती हूँ, लेकिन क्या यह संभव है ?

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