उसका बेटा (पुर्तगाली कहानी) : फिआलो डी आल्मेडिया

Uska Beta (Portuguese story in Hindi) : Fialho de Almeida

एक दिन सुबह-सुबह वह पमपिलहोसा के स्टेशन पर आई। यह बीरा और लिस्बन प्रान्त के बीच एक जंक्शन था। अधेड़ उम्र की होने पर भी काम के बोझ के कारण देखने में वह अपनी उम्र से कहीं अधिक जान पड़ती थी। उसका क़द भी नाटा था। पहनावे से वह ग़रीब तो मालूम पड़ती थी पर उसके कपड़े सुन्दर काले थे। बीरा प्रान्त की किसान की प्रायः सारी स्त्रियाँ ऐसी ही होती थीं। इसलिए स्टेशन पर किसी ने उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया।

अपनी बग़ल में वह एक टोकरी लिए हुए थी। वकारीसा से वह पैदल ही यहाँ तक आई थी। स्टेशन लगभग पाँच मील दूर था। रास्तों में केवल खेत और जंगल थे। जब वह स्टेशन के पास पहुँची तो गुमटिया ने पुकारकर उससे लाइन से दूर हट जाने को कहा कि कहीं गाड़ी आ गई तो वह कुचलकर मर जाएगी।

स्त्री ने डरकर कहा कि वह अपने गाँव से आ रही है और लाइन के किनारे चलकर उसका कोई नुकसान पहुँचाने का कदापि विचार नहीं है। वह स्टेशन जाना चाहती थी क्योंकि उसका बेटा - इकलौता बेटा लिस्बन से आ रहा था। तीस साल हुए जब उसके पति की मृत्यु हुई थी तब उसका बेटा तीन साल का था। वही बेटा तो अब संसार में उसका सब कुछ है। दस साल से वह ब्रेज़ील में था। अब वह लिस्बन वाली गाड़ी से अपनी माँ के पास आ रहा था।

स्त्री की बातों को गुमटिये ने ध्यान से सुना। उसने स्त्री को स्टेशन के अन्दर जाने का रास्ता बता दिया और अपने काम पर चला गया। स्टेशन पहुँचकर उसने चारों ओर एक भय त्रस्त दृष्टि डाली। विश्रामघर, जलपान गृह, दफ़्तर आदि को भी उसने गौर से देखा। वह सबसे पूछती, "क्या किसी ने एक लम्बे, कुछ साँवला रंग के युवक को देखा है? उसके दाहिने गाल पर एक तिल है, बाल छोटे और घुंघराले हैं। वह उसका बेटा है जो लिस्बन से आनेवाली किसी गाड़ी से आ सकता है।"

कुछ लोगों ने तो उसकी बात का उत्तर ही न दिया। कुछ उस ग़रीब किसान स्त्री पर हँसे। कुछ ने कहा- लिस्बन की गाड़ी तो अभी आई ही नहीं एक युवक ने उसके साथ बड़ा अच्छा बर्ताव किया। एक सैनिक कोइम्ब्रा की गाड़ी से लूजो में अपनी सेना में भर्ती होने जा रहा था। इसकी ट्रेन रात को आती थी और उसे सारा दिन वहीं काटना था। इसलिए उसने बुढ़िया से बातें करके कुछ समय काटने के लिए उसे अपनी ही बेंच पर बिठा लिया।

लिस्बन वाली गाड़ी आ गई। बुढ़िया की आँखें चमक उठीं। बड़ी उत्सुकता से वह गाड़ी से उतरनेवाले यात्रियों को देख रही थी। सभी यात्री गाड़ी से उतर आए पर ब्रेज़ील से आनेवाला वह यात्री न उतरा।

"कोई बात नहीं, माँ!” उस सैनिक युवक ने कहा, “अब तुम घर जाओ और लिस्बन की दूसरी गाड़ी का समय हो तब आना।"

"दूसरी गाड़ी कब आती है ?"

"साढ़े पाँच बजे शाम को।"

"ओह, तब मैं घर नहीं जाऊँगी यहीं, राह देखूँगी। मान लो शाम को मुझे देर हो गई और गाड़ी पहले ही आ गई तो ? मेरे बेटे को कितना दुख होगा? तुम नहीं जानते कि वह मेरा इकलौता बेटा है और दस वर्ष से ब्रेज़ील में है।"

वह फिर वहीं बैठ गई और सैनिक ने बुढ़िया की छोटी पर दुखपूर्ण कहानी सुनी। उसके पति की कैसे मृत्यु हुई। वह और उसका बेटा ही बच गए थे। अपने बेटे को उसने बड़ी कठिनाई से पाला है। वह भी तो सेना में है। किस प्रकार वह हर महीने कुछ रुपया बचाकर माँ के पास भेजा करता है। कैसे तेईस वर्ष की अवस्था में वह ब्रेजील गया था। लेकिन वहाँ वह आराम से न रह सका। वह अधिक मजबूत भी तो नहीं है। वह पत्रों में सदा घर आकर माँ को देखने की इच्छा प्रकट किया करता था। वह बीमार हो गया था। उसने रास्ते के खर्च के लिए काफ़ी रुपया बचाया है। लेकिन यहाँ आकर वह शीघ्र ही अच्छा हो जाएगा। वह उसकी खूब सेवा करेगी। अपने देश की स्वतन्त्र वायु में साँस लेकर वह शीघ्र ही उस दूषित वायु को भूल जाएगा जिसने उसे बीमार कर दिया है।

सैनिक ने अपने थैले से फल निकालकर बुढ़िया को दिया पर बुढ़िया ने धन्यवाद के साथ अस्वीकार कर दिया। उसे भूख नहीं लगी थी और उसकी टोकरी का खाना उसके लिए काफ़ी था। एक भुनी हुई मुर्गी, कुछ पनीर, रोटी का एक टुकड़ा और शराब की एक शीशी । यह सब उसके बेटे के लिए था। बेटे के आने पर यदि वह सैनिक भी चाहेगा तो ये चीजें उसके बेटे के साथ खा सकता है। इससे उसे प्रसन्नता ही होगी। और उसे विश्वास है कि वह सैनिक उसके बेटे को अवश्य पसन्द करेगा। वह भी तो एक सैनिक है। लेकिन क्या विश्वास कि उसका बेटा दूसरी ट्रेन से आएगा ही।

सैनिक ने उसे आश्वासन दिया कि अगली ट्रेन से उसका बेटा अवश्य आएगा। सैनिक का सहारा लेकर बुढ़िया प्लेटफार्म पर टहलने लगी। विश्रामगृह में कुछ यात्री बेंच पर सो रहे थे। कुछ बैठे गप्पें लड़ा रहे थे। कुछ बच्चे इधर-उधर उछल-कूद मचा रहे थे। कुछ लड़कियाँ पेड़ के नीचे बैठी गाना गा रही थीं।

कई ट्रेनें आई और चली गई। अब बुढ़िया से न रहा गया वह रेल की सीटी सुनकर व्याकुल हो उठती थी। वह स्टेशन मास्टर के पास गई और बोली, “क्षमा करिएगा महाशय ! लेकिन वह कब आएगा?"

"कौन कब आएगा?"

"मेरा बेटा। तुम नहीं जानते कि .... ।”

"मैं नहीं जानता, पर वह कहाँ से आएगा?" "महाशय ! ब्रेज़ील से।"

"लिस्बन की गाड़ी साढ़े पाँच बजे आवेगी।"

"और... अगर आज वह न आया तो कल गाड़ी कब आवेगी ?"

"अरे भई ! ट्रेन का समय आज और कल एक ही रहेगा।” स्टेशन मास्टर ने हँसकर उत्तर दिया।

“क्षमा करिएगा महाशय ! मेरा बेटा आ रहा है-लम्बा युवक, कुछ साँवला, दाहिने गाल पर तिल का ... "

स्टेशन मास्टर को यह सब सुनने का अवकाश कहाँ? वह अपने काम में लग गया। बुढ़िया आकर फिर बेंच पर बैठ गई, अपनी टोकरी उसने जमीन पर रख दी। उसका साथी सैनिक कुछ दूर पर खड़ा किसी से बातें कर रहा था! दिसम्बर का महीना था। कोहरा पड़ना आरम्भ हो चुका था। यह कोहरा अपने क्षितिज को छिपाकर जमीन आसमान एक कर रहा था।

एक बजे सैनिक युवक ने कहा, "खाने का समय हो गया।" बुढ़िया ने भी सुना, देखा, बड़े आदमी होटलों में चले गए और ग़रीब बेचारे अपने-अपने झोलों से अपने-अपने खाने के डिब्बे निकालने लगे। कुछ औरतें आग जलाकर कॉफ़ी गर्म करने के लिए स्टेशन के बाहर लकड़ियाँ लेने गईं।

"आओ माँ", फ़ौजी ने कहा, "मेरे पास दो के लिए पर्याप्त खाना है।"

लेकिन उसने इनकार कर दिया। जब उसका बेटा आवेगा तभी वह खाएगी-बेटे के साथ ही। अभी उसे भूख नहीं थी। बेटे के साथ खाने को वह कितना सामान लाई है। घर पर उसके पास एक सूअर है। लेकिन जब तक उसका बेटा न आवेगा वह उसे न मारेगी। उसका बेटा बीमार है। स्वास्थ्य लाभ के लिए ये चीजें अच्छी हैं। अपने बेटे को बिना देखे, जिसे उसने दस बरस से नहीं देखा, वह न खाएगी।

सैनिक युवक ने खाना खाया। उसके पास गेहूँ की रोटियाँ थीं- दूध और टमाटर था बुढ़िया बैठी शून्य आकाश की ओर देखती रही।

सैनिक ने कहा- "माँ, मेरे पास थोड़ी शराब है अपने बेटे के स्वास्थ्य के लिए आओ पी लो।"

बुढ़िया झिझकी, हँसी फिर उसने निमन्त्रण स्वीकार कर लिया।

"माँ,” सैनिक ने कहा, "तुम्हारा बेटा दस वर्ष बाद आएगा; वह बहुत बदल गया होगा ?”

"बदल गया होगा!" माँ ने कहा, "वह कभी बदल नहीं सकता।"

बुढ़िया ने सोचा-तेईस साल का साँवले रंग का युवक नीली आँखें, दुबला-पतला शरीर! उसका बेटा, इकलौता बेटा! वह कैसे बदल सकता है?

अपने बेटे के ब्रेज़ील के जीवन के बारे में जो कुछ वह जानती थी उसने सैनिक को बताना शुरू किया। पहले-पहले वह कैसे गया। कैसे एक टेनेरी में उसने नौकरी की। तब रुपए की लालच में वह और अधिक परिश्रम करने लगा। उसके पत्रों का आना कम होने लगा। साल में केवल तीन या चार पत्र आते। इसके कई कारण थे। दूर इतना था कि चिट्ठी आने में महीनों लगते। फिर उसे काम बहुत अधिक करना पड़ता था, अक्सर वह बीमार भी रहता था। उसके पत्र से कभी प्रसन्नता नहीं प्रकट हुई।

"माँ एक टमाटर खाओ।" फ़ौजी ने कहा।

बुढ़िया ने केवल सिर हिला दिया और अपने बेटे की राम कहानी कहती ही गई। इस समय उसका बेटा मानो उसे सामने खड़ा था। वह लड़का कोई नहीं कह सकता, भला आदमी नहीं है। वह कमज़ोर है; कारण वह ग़रीब है। अब शायद यहाँ आकर वह तगड़ा हो सके।

"वह तुम्हारे लिए कुछ रुपए भी तो लाएगा।"

"पता नहीं वह क्या-क्या लाएगा। भगवान खुशी से दिन-रात काट दें इससे बड़ा धन क्या होगा। जो हमें भगवान ने दिया है वही बहुत है। बेटा आ जाए उसके लिए बस यही बहुत है। क्योंकि वही उसका इकलौता बेटा है। उसका बाप जब वह तीन साल का था तभी मर गया।"

बिजली की घंटी बज उठी और बुढ़िया खुशी से खिल उठी ।

"यह लिम्बन की गाड़ी की घंटी है।"

बच्चे हँसने लगे- सैनिक मुस्करा उठा।

"अरे, यह तो अभी दो बजे की घंटी है; गाड़ी साढ़े पाँच बजे आती है।”

किसी तरह शाम हुई। दिसम्बर का घना अन्धकार पास आने लगा। सैनिक बेंच पर लेट गया और बुढ़िया की आँखें अन्धकार को चीर कर रेल की पटरी को देखती रहीं ।

स्टेशन की लैम्प जल गई। शाम की गाड़ियाँ भी आने लगीं। बुढ़िया हर गाड़ी को बड़े ध्यान से देखती थी। पहले एक पैसेंजर गाड़ी आई। फिर अँधेरे में फिग्यूरिया की गाड़ी की सीटी सुनाई पड़ी। अब ओपोर्टो एक्सप्रेस आनेवाली है।

दस मिनट रुककर पानी ले लेने के बाद जगह के यात्री डिब्बों के अन्दर आ जा रहे थे। रेलवे कर्मचारी अपने काम में लगे हुए थे ।

बुढ़िया ने एक को रोक कर पूछा-

"महाशय ! लिस्बन की गाड़ी?"

“साढ़े पाँच बजे। इसके बाद आएगी। पीछे खिसककर खड़ी हो।"

ओपोर्टो एक्सप्रेस हिली-और थोड़ी देर के बाद अन्धकार में विलीन हो गई। बुढ़िया लाइन की ओर देखती रही। वह गाड़ी आ रही थी- लिस्बन वाली।

सैनिक ने बुढ़िया से कुछ कहा, पर वह सुन न सकी। उसका मस्तिष्क पूर्णतया अपने बेटे के विचार में व्यस्त था। धीरे-धीरे गाड़ी स्पष्ट होती गई। वह लिस्बन वाली गाड़ी थी।

गाड़ी प्लेटफार्म पर आकर रुक गई। एक अवर्णनीय आवाज़ पैदा हुई। कुलियों की चिल्लाहट, यात्रियों की घबराहट, पानी बेचने वाले, रोटी, केक, अख़बार, चॉकलेट, सन्तरे, कॉफ़ी बेचने वाले भी पूरे दम के साथ शोर मचा रहे थे। बुढ़िया सब को हटाती और बचती बचाती तीसरे दर्जे के मुसाफ़िरों के बीच ग़ौर से देखकर अपने बेटे को ढूँढ़ने लगी। जिसे उसने दस साल से नहीं देखा था। वह बड़ा भूखा होगा। ज्योंही वह गाड़ी से उतरेगा वह उसे सीधे घर ले जाकर पहले खाना खिलाएगी। दोनों साथ ही खाएँगे। घर पर उसने लैम्प साफ़ करके रख दिया है उसे वह जलाएगी। कॉफ़ी गर्म करेगी। अपने बेटे को वह गले से लगाएगी।

तभी एक बूढ़े ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोला, "रोज़ा, अरे तुम, रोजा!"

बुढ़िया टुकुर-टुकुर देखती रही।

"क्या मुझे तुम भूल गई, रोजा! मेरा नाम क्लेमेंट है। मैं तुम्हारा पड़ोसी था। मैं अपने पुराने घर को देखने ब्रेज़ील से आ रहा हूँ। ओह, मैं अपने पुराने परिचित स्थानों को देखकर कितना खुश हो रहा हूँ।

वह हँसा । और फिर कहने लगा, "लेकिन तुम्हें मेरे आने का कैसे पता लग गया। मैंने तो किसी को भी पत्र नहीं लिखा था। मैं चाहता था कि मुझे देखकर सबों को अचम्भा हो तो अच्छा है। मुझे देखकर लोग खूब खुश होंगे।"

“लेकिन मेरा बेटा? क्या अभी तक वह गाड़ी में ही है? तुम दोनों तो साथ ही आए होंगे?"

क्लेमेंट ने आश्चर्य से मुँह फैला दिया। फिर बोला, "आओ मेरे साथ कुछ खाना खाओ।"

“धन्यवाद! मैं अपने बेटे की राह देख रही हूँ। तुम जानते हो वह कहाँ है? शायद वह नहीं जानता था कि मैं उसका स्वागत करने आई हूँ। जाओ क्लेमेंट, उसे बुला लाओ तो हम सभी साथ ही खाना खाएँगे। मैं अपने साथ खाना लाई हूँ। जल्दी करो, जाओ, उसे कहो कि मैं उसकी राह देख रही हूँ।"

क्लेमेंट हिचका। फिर अपना हैट उसने आँखों तक खींच लिया ताकि कोई उसकी आँखों को देखकर पहचान न ले कि वह दुखी है। बुढ़िया समझ गई। दौड़कर उसने अपनी पतली बाँहों में उसे कस लिया।

"रोजा - प्रिय रोजा मेरी पुरानी पड़ोसिन, भली औरत, मैं भूल गया था कि तुम्हें नहीं मालूम है। तुम्हें बताते हुए मेरा दिल टूटा जा रहा है। लेकिन कभी-न-कभी तो जान ही जाओगी। लो मैं ही बताता हूँ कि तुम्हारा बेटा... तुम्हारा बेटा एक दुर्घटना में मर गया।

उसके मुँह से चीख भी न निकली। प्लेटफार्म पर एक बार उसने चारों ओर देखा, फिर सिर झुकाए बाहर की ओर चल पड़ी। खाने की टोकरी उसके हाथ ही में थी। सिर जमीन में गड़ाए वह स्टेशन से बाहर हो गई।

क्लेमेंट ने उसके साथ चलना चाहा पर उसे अपना असबाब भी तो देखना था। उसने सोचा कोई सवारी करके रास्ते में रोजा को भी बैठा लेगा और घर पहुँचा देगा ।

रोज़ा चली गई। उसने न कुछ देखा, न सुना। स्टेशन की रोशनी और शोर पीछे छूट गई। वह तेजी से बढ़ती गई।

लिस्बन वाली गाड़ी स्टेशन से जा चुकी थी। उसने सीटी दी। अब वह पूरे वेग से दौड़ने लगी थी। उसकी दो बड़ी-बड़ी आँखें अँधेरे में मानो आग उगल रही थीं।

रोजा अन्धकार में चलती गई। रेल की लाइन पर उसने दो मनोहर चमकदार आँखें देखीं। वह उसी ओर बढ़ चली लिस्बन वाली गाड़ी सीटी बजाती आगे बढ़ी-

दूसरे दिन सुबह-सुबह जब रोशनी हुई, सूरज उगा तो लोगों ने रोजा के अवशेष को देखा; उसकी खाने से भरी टोकरी थोड़ी दूर पड़ी थी जिसमें बेटे के लिए वह खाना लाई थी।

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