उस बार (कहानी) : सुमित्रानंदन पंत

Us Baar (Hindi Story) : Sumitranandan Pant

(1)

सुबोध मसूरी में अपने मामा के यहाँ उस बार गर्मी बिताने गया था। मामा सगे न थे, पर नाते की कमी भरकर अपने उदार स्नेहशील स्वभाव के कारण सगों से भी घनिष्ट लगते थे । साधारण स्थिति से अपने ही परिश्रम के बल पर उठकर वह अच्छे संपन्न हो गए थे। उन्होंने मसूरी में अपना निज का सुन्दर-सा बंगला भी बनवा लिया था । जीवन-यात्रा में सुख-दुख ऊँच-नीच पार कर चुकने पर एक सफल, संपन्न, पक्व अवस्था का लाभ मनुष्य में जिन लोकप्रिय गुणों का प्रादुर्भाव कर देता है, वे उनमें पर्याप्त मात्रा में थे । वह उदार थे, मधुर थे, मिलनसार और स्वाभिमानी थे । उनके पुट्ठों और आगे बढ़े हुए सीने से अब भी युवापन टपकता था । वे नए विचारों से सहानुभूति रखते थे ।

मामी जी का अपना कोई व्यक्तित्व न था, वह पति की छाया थीं, जैसा कि अपने देश की नारियाँ प्रायः हुआ करती हैं । इसलिए घर के वातावरण में काफी सन्तोष और शान्ति व्याप्त रहती । नलिन उनका सब से बड़ा लड़का था, सुबोध का ममेरा भाई । लंबा, हँसमुख, फुर्तीला और कुशाग्र-बुद्धि । उस साल प्रयाग विश्वविद्यालय से एम० एस-सी० फ़ाइनल में सर्व प्रथम आया था। खेलने का सबसे बड़ा शौक़ीन, यूनिवर्सिटी में हाकी फटबाल का कैप्टन रह चुका था । खिलाड़ीपन उसका स्वभाव ही बन गया था। नलिन का फुफेरा भाई गिरीन्द्र भी उन दिनों वहीं था, उसने हाल में ही एल-एल० बी० पास किया था और गर्मियों के बाद वकालत शुरू करने की सोच रहा था ।

नलिन और गिरीन्द्र के यूनिवर्सिटी के और भी कई मित्र उस साल मसूरी आए हुए थे । सब प्रायः नित्य ही आपस में मिला करते थे; सुबोध अनायास ही उनमें हिलमिल गया था, और अपनी सरल, सहनशील प्रकृति के कारण उसकी सब से खासी मित्रता हो गई थी। यूनिवर्सिटी के लड़कों में जो एक स्वतन्त्रता, पारस्परिकता, आत्म-विश्वास, बेतकल्लुफी, गपशप, हास-परिहास का वातावरण मिलता है वह विचारशील सुबोध को अप्रिय न था। उसके जीवन का काफी बड़ा भाग विद्यार्थियों के साथ बीता था पर फिर भी वह जैसे उनसे पूर्णतः परिचित न था । भाव- प्रवरण होने के कारण वह आत्म-चिन्तन में अधिक लीन रहता था । परीक्षा के कठिन श्रम के बाद जी खोलकर, छककर, छुट्टियों का उपयोग करते हुए विद्यार्थियों के आमोद-प्रमोद में जो थोड़ी-बहुत उच्छृङ्खलता स्वभावतः रहती है वह सुबोध के किसी काम में न थी । पर तटस्थ रहना उसे अच्छा न लगता था; और निःसंग रहकर वह उनकी रंगरेलियों में भाग लेने का प्रयत्न करता था । विद्यार्थियों की रंगरेलियों और परिहासों में पर्याप्त कदर्यता और भद्दापन रहता है, जिसे वे जानते हैं, परवाह नहीं करते; पर सूक्ष्म एवं सौन्दर्य-प्रिय सुबोध को कभी-कभी उस भद्देपन को निगल जाने में भीतर ही भीतर कठिनाई मालूम देती थी ।

नलिन का मित्र सतीश एक लड़की के प्रेम-पाश में था । उस लड़की के मां-बाप भी उस साल मसूरी आए हुए थे । और सतीश के बंगले के सामने ही उन्होंने बँगला लिया था। सुबह- शाम सतीश को अपनी खिड़की से लड़की के रूप की झलक मिलती रहती थी । वह सतीश के प्रेम से शायद थोड़ी-बहुत परिचित थी । प्रेमियों की चेष्टाएँ कम छिपती हैं, इसीसे कभी कभी खिड़की से मुख निकालकर सतीश को झाँकी दे देती थी ।

विजया की चर्चा सतीश कम या अधिक मात्रा में अपने अन्त- रङ्ग मित्रों से कर दिया करता, उसके मन में कुछ भी नहीं रहता था । धीरे-धीरे यह बात सभी साथियों में फैल गई, और मित्र लोग भी टहलते समय विजया के कमरे के कुसुमित झरोखे की ओर प्रायः देख लिया करते थे, इस प्रणय चर्चा के कारण धीरे-धीरे नलिन के यहाँ एक बैचलर्स क्लब की सृष्टि हो गई । प्रायः सभी विवाहित लोग थे, सभी का उससे मनोरंजन होने लगा। एक- दूसरे की शादी ठहराना, कौन किसकी प्रणयिनी हैं, इस रहस्य को ढूंढ निकालना, - ऐसी ही बातों के लिए सब साथी उत्सुक रहते । सतीश की तरह गिरीन्द्र, विलास, उपेन्द्र, नलिन सब की प्रेमिकाओं का धीरे-धीरे पता लग गया, जिसकी कोई प्रेयसी न मिली उसके लिए भी एक कहानी की प्रेमिका गढ़ दी गई। इसी प्रकार कुमारों के क्लब की मीटिंगों, हाकी, फुटबाल, टेनिस की मैचों, सिनेमा, पिकनिक, तथा सैर-सपाटों में गर्मियाँ प्रायः बीत गई, वरसात शुरू हो गई। मसूरी की घाटियाँ मखमल की हरयाली के उज्ज्वल, चौड़े हास्य से भर गई। मित्रों में से बहुत से विद्यार्थी छुट्टियों की बहार लूटकर प्रयाग, लखनऊ, बनारस पढ़ने चले गए ।

नलिन, गिरीन्द्र, सुबोध, और सतीश वहाँ रह गए सही, पर परस्पर का मिलना काफी कम हो गया। गिरीन्द्र, वकालत शुरू करने की चिन्ता में पड़ गया कि किसी सीनियर के नीचे काम सीखे, सतीश, जो इस वर्ष लखनऊ से एम० ए०, एल- एल० बी० की डिग्रियाँ ले चुका था, मुन्सिफ़ी का इम्तिहान देने की सोचने लगा । नलिन आई० सी० एस० की तैयारी कर ही रहा था । कभी शाम को घूम-फिरकर लौटने के बाद जब चारों मित्र सुबोध के कमरे में घंटे आध घंटे के लिए मिलते, तो कुआरों के क्लब की सुप्तप्राय आत्मा फिर जगा दी जाती ।

एक रोज सतीश ने परिहास में विजया पर अपना प्रेमाधिकार सुबोध के नाम सौंप दिया, और यह बात एक कापी में, जो नाममात्र को बैचलर्स क्लब का रजिस्टर बना दी गई थी, लिख दी गई । तबसे सुबोध के विवाह की चर्चा भी आपस में छिड़ने लगी । सुबोध उन तीनों मित्रों में से उम्र में आठ-दस साल बड़ा था, इसलिए, संकोच न मानते हुए भी, नलिन और गिरीन्द्र उसके व्याह की चर्चा कम करते । यह मान लिया गया था कि सुबोध प्रकृति का कुआँरा है, वैसा ही रहेगा। सुबोध की बातों और तटस्थ हाव-भावों से उन्हें ऐसा विश्वास हो गया था कि वह किसी को प्यार नहीं करता, पर बात कुछ और ही थी । सतीश की तरह वह भी एक लड़की को प्यार करता था ।

(2)

प्रेम तत्वतः एक होते हुए भी भिन्न स्वभावों में भिन्न रूप से काम करता है । सतीश के लिए विजया का जो मूल्य था, वही मूल्य सुबोध के लिए सरला का होते हुए भी, दोनों का प्रेम- पदार्थ भिन्न-भिन्न तन्तुओं का बना था। सतीश के प्रेम का प्रवाह शरीर से हृदय की ओर, सुबोध का हृदय से शरीर की ओर था । एक फ्रायड के सिद्धान्तों का नमूना था दूसरा प्लैटो के । यह नहीं कि एक प्रेमी था दूसरा कामीमात्र - दोनों में आदर्श-भेद था । सतीश प्रेम को विजया के लिए संचित रखते हुए भी अन्य स्त्रियों से शारीरिक स्वतन्त्रता लेना बुरा नहीं समझता था । वह मनुष्यत्व और पशुत्व को तो अलग राहों से ले चलने का पक्षपाती था। सुबोध देह के संसर्ग को सच्चे प्रेम के अधीन रखना चाहता था । आत्म-दान से ही उसका पशु मनुष्यत्व की पवित्रता पा सकता था । एक को आत्मत्याग द्वारा योग का अधिकारी बनना पसन्द था, दूसरे को आत्म-त्याग भोग के लिए केवल साधन मात्र था । दोनों की मानसिक स्थिति दोनों के लिए सत्य थी ।

विजया साँवले रंग की, गदबदे सुडौल अंगों की, रूपसी से अधिक मोहिनी थी । उसकी उभरी छाती, पीन कटि-प्रदेश सतीश के आनन्द के दो संग्रहालय थे । उसके कोमल उरोज-स्तवकों पर गाल रखकर प्रेम की विस्मृति का सुख लूटने के स्वप्न सतीश प्रायः देखा करता था । विजया अपनी चारित्रिक दृढ़ता के लिए मित्र- वर्ग में प्रसिद्ध थी । वह स्थिर-चित्त, प्रेम को अधिक गंभीर परिभाषा में विश्वास रखनेवाली, प्रेम को एक सुव्यवस्थित, सम्मानित गार्हस्थ का भाग सर्वोज्ज्वल भाग माननेवाली शिक्षित लड़की थी । उसके मुख पर उसके मनोभावों की कान्ति थी । उसकी सखियों का कहना था कि सतीश का यौवन-जन्य चांचल्य, दृष्टि, भाव, इंगित एवं अन्य चेष्टाओं से विजया को सदैव घेरे रहना, घूमने में उसका पीछा करना,-जैसा वह प्रेमी युवक प्रारंभ में किया करता था उसे पसंद न था । उसे भले ही सतीश के उन्मुख प्रेम का तिरस्कार करना न सुहाता हो, पर अपने विवाह का प्रश्न उस ने अपने वयोवृद्ध दादा की ही रुचि पर छोड़ दिया था । उसके दादा उसके संस्कृत के शिक्षक थे, भारतीय- प्रथा के पक्के पक्षपाती; अपने दादा के स्नेह के सहस्रों एहसानों से दबी विजया उनकी इच्छा को पीछे अपनी इच्छा को आगे रखना उचित नहीं समझती थी । सतीश विजया को इस वृत्ति का कारण उसका हठ या गर्व समझता था । वह अपने प्रति उसके मनोभावों को जानने को उत्कण्ठित था । वह अपने को उसका प्रेम पाने के सर्वथा योग्य समझता था । वह सुरूप, सुशिक्षित, उम्र में उससे चार साल बड़ा, उससे किसी बात में कम न था । वह महत्वाकांक्षी, अपने भविष्य के लिए यशःकामी भी था । वह विजया पर विजय प्राप्त करना चाहता था । अपने विद्यार्थी - जीवन में वह कई सहपाठिनियों की ओर आकर्षित हुआ था, प्रायः सबने उसकी इस युवकोचित भावना को आदर को दृष्टि से देखा था । वह विजया की इस अननभूत विरक्ति को सहने में असमर्थ था । वास्तव में विजया ने अपने सौन्दर्य और दृढ़ता से, जिसका सतीश में अभाव था, उसे अभिभूत एवं पराजित कर दिया था । वह उसका सामना पड़ते ही कर्तव्यविमूढ़ एवं अस्थिर हो उठता था । अन्य युवतियों ने उसकी तरुण- लालसा का सोत्कण्ठ आवाहन कर जिस प्रकार उसके मन में सौन्दर्य की पवित्रता एवं कौमार्य की दिव्यता के प्रति एक सस्ता, वयस सुलभ, प्राणि-शास्त्र के भीतर से आँका जाने वाला मूल्य निश्चित कर दिया था, विजया ने ठीक उसके विपरीत अपने सौन्दर्य और कौमार्य को जीवशास्त्र एवं मनोविज्ञान से ऊपर उठाकर सतीश की पूर्व धारणाओं को अस्त-व्यस्त कर दिया था ।

इन सब दुर्बलताओं के वशीभूत होने पर भी सतीश अत्यन्त अकपट हृदय का था । उसके मन में कोई बात नहीं रहती थी । वह दूसरे की सहानुभूति पाते ही पिघल उठता था । सहानुभूति का दिखावा कर उसके मित्र उसकी द्रवणशीलता का अपने मनोरंजन के लिए तरह-तरह से दुरुपयोग करते थे । सुबोध आत्म-चिन्तन एवं अच्छे-बुरे के विचार में पड़े रहने के कारण लोगों से कुछ खिंचा रहता था और किसी तरह अपनी रक्षा स्वयं कर लेता था । सतीश दूसरों के सौजन्य के स्वांग के वशीभूत हो एकदम उनसे घुल-मिल जाता था, वह अपनी सीमा गँवा बैठता था, दूसरे की सीमाओं पर उसे अधिकार न मिलता था । इसीलिए वह जितनी जल्दी विश्वास कर लेता उतनी ही जल्दी अविश्वास एवं शंका भी करने लगता था । वह मित्र लोगों का मनोरंजन था, मित्र लोग उसके संचालन शक्तियों के समूह । सुबोध बाहर से बड़ा सीधा लगता था, पर वह सरलपन उसने अध्ययन, मनन एवं विचार करने के बाद अपने लिए अर्जित कर लिया था । वह समझता सब था, सतीश की तरह सहज विश्वास के प्रवाह में बह नहीं जाता था, पर अत्यन्त सहनशील होने एवं समाज के विशद भविष्य में विश्वास रखने के कारण दूसरों की दुर्बलताओं से विचलित एवं व्यथित न होता था । मानापमान, हर्ष-विषाद चुपचाप सह लेता था, दूसरों को केवल सीधा लगता था ।

सहज-विश्वास का जीवन मानव समाज के पूर्ण विकास की ही स्थिति पर संभव हो सकता है । तब तक जन-समूह आत्म-पर की सीमाओं को रखने के लिए विवश है । हम सब को दुहरा होकर रहना पड़ता है। सतीश को अपने प्रेम के स्वर्ग का निर्माण करने के लिए विजया को प्राप्त करना आवश्यक हो गया था, वह उस पर अपना एकमात्र दावा समझता था, वही उसे अपनी अविचल दृढ़ता के आलिंगन - पाश में घेरकर उसके सतत बहते हुए हृदय की, पहाड़ों की कारा में बँधे हुए सरोवर की तरह, रक्षा कर सकता था । विजया जितना ही खिंचती, वह उतना ही उसकी ओर ढुलुक पड़ता था । अपने उत्तेजित क्षणों में वह यहाँ तक कर बैठता था कि विजया से शादी करने का जो अन्य युवक साहस करेगा उसका जीवन सुरक्षित नहीं रहेगा। कभी-कभी वह उसकी रुखाई से चिढ़कर उस पर कुढ़ने भी लगता, उसे घृणा करने की कोशिश करता, उसके लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करता, उसके सौन्दर्य और चरित्र की अवहेलना करता, और कुछ समय के लिए उसे मन से भुला देता । क्षोभ और खीझ के वश वह अपने जीवन की हड्डी को हृदय से बाहर निकाल कर अन्य युवकों की श्वानेच्छा के आँधी-तूफान के बीच फेंक देना चाहता था, पर दूसरे ही क्षण उसका प्रेमोन्माद उसे पूर्णतः वशीभूत कर लेता था ।

(3)

सरला और सुबोध की दूसरी ही कहानी थी। सरला सुबोध से पन्द्रह साल छोटी थी । वह गोरी, अनति दीर्घ, हँसमुख, चंचल, श्वेत लिलियों की सुकुमार सृष्टि थी । कम-से-कम देह की सामग्री में जैसे आत्मा उतर आई हो । संसार बसाने के लिए कैसे साथी, किन वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है, इन बातों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए वह सदैव के लिए, स्वभाववश, असमर्थ थी । वह केवल भाव की, प्रेम की क्रीड़ा थी, खिलौना थी । वह सुबोध में लीन हो गई थी । उसके बिना अपने आस्तित्व की कल्पना करना उसके लिए असंभव था । वह जैसे सुबोध के प्रेम के समुद्र के बीच भाग्य की आँधी से उड़कर गिर पड़ी थी। उसी के भीतर ऊब डूब करना, उसी की भावनाओं की लहरों में बहना उसका जीवन बन गया था। वह उस अकूल समुद्र के बाहर निकल ही नहीं सकती थी, यदि सुबोध स्वयं हाथ पकड़ कर उसे किनारे लगाना भी चाहता तो वह उसे स्वीकार ही न करती थी। सुबोध के प्रेम का समुद्र उसकी मुक्ति था, सरला चाहे अन्दर जितना गहरे पैठे, चाहे बाहर जिस छोर तक पैरे - वह कूल तल था, सरला पूर्णतः स्वतंत्र !

सरला सब को प्यार करना, सब से प्यार पाना चाहती थी । वह एक विशद सामाजिक, सामूहिक व्यक्तित्व का उपभोग करना चाहती थी, जिसके लिए उसका चारों ओर से घिरा हुआ समाज अभी तैयार न था । फलतः, स्थिति-ज्ञान से शून्य, जब जब वह अपने पावों के पंक में गड़ जाने की आशंका से भयभीत होकर सुबोध के पास लौट आती तब-तब सुबोध अबोध सरला के पाँवों को अपने अविराम सहज स्नेह की धारा से धोकर स्वच्छ कर देता, वह प्रेमी से भी अधिक उसका अभिभावक था । सरला अत्यन्त शृङ्गार- प्रिय और सौन्दर्य प्रिय थी । किसमें कहाँ सौन्दर्य छिपा है, इसे उसकी आँखें सब से पहले ढूँढ़ निकालती थीं । वह सब की साथिन और सुबोध की प्रेमिका थी ।

सुबोध कलाकार था । प्रेम उसका जीवन था । जीवन की प्रत्येक विकासोन्मुख अवस्था का, उसके समस्त स्वरूपों का, वह प्रेमी था । सब से उसकी सहानुभूति थी । जिस वस्तु पर उसका प्रेम पड़ता वह स्वयं प्रेम में परिणत हो जाती, अपने ही प्रेम में वह सुरक्षित था । प्रेम उसकी आत्मा थी, मन था, शरीर था । अतः सुबोध सरला को प्यार करता था या नहीं, यह प्रश्न ही नहीं उठ सकता था । सरला सुबोध को अनन्य हृदय से, अपने संपूर्ण अस्तित्व से प्यार करती थी, यही बात उन दोनों के सम्बन्ध में प्रधान थी। सुबोध प्रेम था तो सरला उसकी सार्थकता । फलतः सरला सार थी, रस थी, सुबोध उस प्रेम के मधुर फल का छिलका, जिसमें सरला की मधुरता और रस स्वयं आ गया था । सुबोध से भेंट होते ही सरला दूसरे ही क्षण उसमें मिल गई, उसमें गिर पड़ी, तब वह बारह साल की थी । सुबोध अनन्त शून्य था, वह अजस्र शक्ति; वह निश्चल कूलों की सहिष्णुता, वह चंचल, उद्वेलित जल धारा । दोनों कब मिल गए, कैसे मिल गए, दोनों इससे अनभिज्ञ थे !

यह बात तब प्रकट हुई जब सरला की शादी की चर्चा छिड़ी । वह अब युवती हो चुकी थी, कालेज में पढ़ती थी । उसके पिता संपन्न थे । सुबोध से सभी बातों में योग्य, यूनिवर्सिटी की डिग्री लिए, स्वस्थ, सुन्दर, समवयस्क, धनी युवक उसके प्रेम के प्रार्थी हुए। उसके मां-बाप की हार्दिक इच्छा थी कि सरला इनमें से किसी एक को अपना मनोनीत साथी बनाए । सुबोध और सरला के प्रेम की बातों से उसके मां-बाप परिचित थे; वे उससे सन्तुष्ट न थे । उस कोरी भावुकता को वे मूल्य-हीन ही न समझते थे, उसे सरला और सुबोध की दुर्बलता, अनुभव-शून्यता और शायद इससे भी अधिक मानते थे, उनकी दुर्बुद्धि और दुःखान्त नाटक का सूत्रपात ! पर फिर भी उन्हें सरला की वयस - प्राप्त वृत्ति एवं सुबोध की सच्चाई और सौजन्य पर आन्तरिक विश्वास था । वे जानते थे कि सुबोध सरला को इस विपत्ति से बचाएगा, उसके प्रेम का एवं उनके विश्वास का इस प्रकार दुरुपयोग नहीं करेगा । उससे अनुचित लाभ न उठाएगा। यह बात ठीक भी थी । यदि केवल सुबोध की बुद्धि एवं आत्म-संयम पर यह बात निर्भर होती तो वह सरला को उसके मां-बाप के मनोनीति युवक के साथ स्वर्ण - बंधन में बाँध कर अपने कर्तव्य को चरितार्थ करता । वह अत्यन्त सहिष्णु था और उसकी धारणा थी कि वह सरला के सुख के लिए भारी से भारी त्याग, और कष्ट उठा सकता है ।

प्रेम और कर्तव्य, श्रेय और प्रेय की समस्याएँ भी मानव-जीवन की अन्य समस्याओं की तरह कभी न सुझलने वाली समस्याओं में से हैं। सच तो यह है कि मानव-जीवन न श्रेय और प्रेय के ज्ञान से चलता है, न श्रेय प्रेय के सामंजस्य से, चाहे प्रेम के लिए कर्तव्य की बलि कीजिए और कर्तव्य के लिए प्रेम की । मानव जीवन शायद किसी दूसरे ही, सत्य से चलता है, पर वह इस कहानी का विषय नहीं । सरला और सुबोध का एक दूसरे को छोड़ देना उनकी शक्ति का परिचायक भी हो सकता था, उनकी दुर्बलता का भी । पर शक्त और निःशक्त ये मनुष्य के विभाग या विशेषण हो सकते हैं, प्रेम के नहीं: प्रेम न शक्त है, न अशक्त । सुबोध के लिए सरला का त्याग कर देना कठिन न था, पर वह उसके वश में न था । क्योंकि उस प्रेम का कोमल या कठोर, दुर्बल या सबल छोर था अबला - सबला सरला के हाथ में । वह सुबोध से विच्छिन्न होने की कल्पना ही नहीं कर सकती थी। सुबोध की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं वयोगत सभी अवस्थाओं से वह पूर्णतः परिचित थी। पर उसका सुबोध तो इन सब से परे केवल उसके प्रेम की निःसीमता था । वह समय- स्थिति से पीड़ित व्यक्ति नहीं, उसके प्रेम का अमर व्यक्तित्व था । सरला तो उसके साथ भोग की, सुख की, कल्पना भी नहीं कर सकती, वह तो उसके लिए त्याग और दुख भोगना चाहती है। इसी में उसकी प्रेम-प्रज्वलित आत्मा को तृप्ति मिलती थी। सुबोध के लिए मरना, मिटना, तड़पना, रोना, उसके लिए अपने को नष्ट कर देना, जो कुछ उसमें अपना रह गया है उसका विनाश कर देना चाहती थी । अरे, सुबोध तो सरला है, वही है । सरला को कोई प्यार करे इस असंगत बात को तो वह सह ही नहीं सकती, दूसरे का प्रेम तो उसके लिए बोझ है, दुःसह भार । वह तो स्वयं प्यार करना जानती है, अपने को देकर उसे मुक्ति का आनंद मिलता है, दूसरे का प्रेम पाकर बन्धन की यातना ! दूसरे के प्रेम की कल्पना को सार्थक करने के लिए अपने में प्रेमिका की दिव्यता की साधना करना उसके वश की बात नहीं है । वह कैसी स्वतन्त्र, क्रियात्मक, चंचल, प्रगतिशील है ! - वह तो स्वयं बहना, अविराम, अबोध रूप से बहना चाहती है । वह वेग है, दुःसह वेग, सुबोध निःसीम, निस्तल आकर्षण ! वह प्रेमिका है, सुबोध प्रेम !

सरला हृदय है, उसके पिता विवेक - वह बुद्धिवादी नहीं विवेकवादी हैं । सरला उन्हें अपदार्थ, दुराग्रही, निर्बुद्धि लगती है तो क्या आश्चर्य ? सरला के पिता अच्छे-बुरे का गणित जानते हैं, सरला प्रेम का गणित । वह इकाई से आगे कुछ देख ही नहीं सकती, उसकी वह इकाई है सुबोध ! प्रबोध बाबू संसार को समझते हैं, सुख-दुख, हानि-लाभ, गुण-दोष - परिणाम को सदैव सामने रखकर विचार करते हैं। वह सरला-सुबोध पर अन्याय करना नहीं चाहते, उनसे सहानुभूनि भी रखते हैं। उनके भी हृदय है, उनके कार्यों, विचारों में उसका ऊष्ण स्पन्दन- कंपन स्पष्ट सुनने को मिलता है, पर प्रधानता वह सदैव विवेक को देते हैं । कर्तव्य विवेक का औरस है, दुख-सुख प्रेम के भाई-बहिन । सरला-सुबोध से सहानुभूति रखते हुए भी प्रबोध बाबू उनसे संतुष्ट नहीं रहते थे । वे जानते थे कि सुबोध का सांसारिक मूल्य नहीं के बरावर है, और कोई मूल्य हैं या नहीं, वह विचारणीय है, कहा नहीं जा सकता था । ऐसी हालत में सरला को जान-बूझकर अन्धे कुँए में गिरने देना कैसे बुद्धिमानी कही जा सकती थी ! उसमें पानी न निकला तो ? कन्या के भविष्य के लिए पितृ-हृदय शंका और स्नेह से भर उठता था ।

पर घर में दीप जलाकर प्रकाश का उपयोग करना एक बात स्वयं दीप की तरह जल उठकर प्रकाश बन जाना दूसरी बात ! प्रेम ज्वाला है, वह जिस पर पड़ता है उसी को भस्म कर ज्वाला में बदल देता है । वह प्रकाश पुत्र है । या प्रेम की सेवा कीजिए, या संसार से सेवा करवाइए ! या स्वर्ग की सृष्टि कीजिए या स्वर्ग का उपयोग कीजिए ! या पतङ्ग की तरह के अपना सर्वस्व स्वाहाकर असीम प्रकाश बन जाइए, या सुख, संपत्ति, संस्कृति, और स्वर्ग में सीमित हो जानेवाले संसार की कामना कीजिए। एक मरण शील है, दूसरा अमर । एक सुख से दुख की ओर ले जाता है, दूसरा दुःख से सुख की ओर । सूक्ष्मतः, दोनों भिन्न भी हैं, अभिन्न भी ।

(4)

गिरीन्द्र किसी विशेष लड़की को प्यार नहीं करता था । वह वकालत जम जाने पर किसी सुन्दर लड़की के साथ शादी करना चाहता था । उसका स्वभाव ही ऐसा था कि वह प्रेम में सतीश की तरह कभी आत्म-विस्मृत नहीं हो सकता था, मानवात्मा के प्रायः दो स्वरूप देखने को मिलते हैं। एक प्रवृत्तियों के समुचित उपयोग के लिए साधना करता है, दूसरा प्रवृत्तियों से ऊपर उठ जाने के लिए । एक और भी स्वरूप होता है जो प्रवृत्तियों के हाथ का खिलौना होता है, पर इससे हमारी कहानी का संपर्क नहीं । गिरीन्द्र पहले रूप का द्योतक था, सतीश दूसरे रूप का । जीवन की आवश्यकताओं के लिए मार्ग मिल जाने पर गिरीन्द्र के किसी सुन्दरी के पाश में सीमित हो जाने की संभावना थी, पर सतीश प्रवृत्तियों के विषयों के बीच कूदकर, उनको थकाकर, एवं उनके संमोहन से उठकर, विशद जीवन में प्रवेश करना चाहता था । वह अपने स्वभाव से विवश था, संयम से काम चलाना नहीं जानता था ।

एक रोज कुंआरों के क्लब में पास-पड़ोस, जान-पहचान की लड़कियों को सौन्दर्य - प्रतियोगिता के अनुसार नम्बर दिए गए। उस रोज गिरीन्द्र ने अपने लिए नम्बर दो सुन्दरी कन्या को चुना था । नम्बर एक कुछ बीमार रहती थी । उस पीढ़ी के कुमारों में नलिन की ऐसी ऐहिक स्थिति थी कि वह सर्व प्रथमः या द्वितीय कुमारी को अधिकृत कर सकता था । प्रायः सभी कुमारियों के पिता नलिन के पिता से उनके पुत्र के प्रार्थी थे। दया- शंकर ने इसका भार नलिन की ही रुचि पर छोड़ रक्खा था । वह स्वयं पुत्र के आइ० सी० एस० की परीक्षा समाप्त कर लेने तक उस पर विवाह के बारे में किसी प्रकार का दबाव नहीं डालना चाहते थे । नलिन छिपे - छिपे गीता को प्यार करता था ? यद्यपि वह अपने प्रेम की बात किसी पर प्रकट होने नहीं देता था । वह गीता को छोड़कर और सभी संभव असंभव कुमारियों के प्रति अपना अनुराग मित्रवर्ग पर प्रकट करता रहता था। और उनके सौन्दर्य- संमोहन एवं अपने प्रेम के बारे में छोटे-मोटे कल्पित क़िस्से भी गढ़ लेता था । इस प्रवृत्ति के दो कारण थे, एक तो उसका खिलाड़ीपन, दूसरा अपने मित्रों में छैला अथवा डान जुआन की प्रसिद्धि पाने की इच्छा । पर मित्रवर्ग उसकी चारित्रिक दृढ़ता से अपरिचित न थे, इसलिए उसकी इस युवकोचित लिप्सा पर हँस देते थे । डान जुआन की मूल भावना है शैतान के प्रति सहानुभूति या प्रेम ; उसे कला लोकोत्तर, भाववाचक सौन्दर्य प्रदान कर चुकी है । नलिन चरित्र की आड़ में चरित्रहीनता का अभिनय कर अपनी चारित्रिकता का उपभोग करने के साथ-साथ हमारे युवकों में प्रचलित आधुनिक छैलापन की वृत्ति को भी कुंठित नहीं करना चाहता था, क्योंकि हमारा बेकार, ज्ञान-संदिग्ध युवक समाज शिष्ट और शालीन कहलाए जाने में झेंपता है । स्वयं दूसरों की प्रेमिकाओं के बारे में जानने की उत्कंठा नहीं तो इच्छा रखते हुए भी वह अपनी प्रेम कथा को अत्यन्त सुरक्षित रखना चाहता था । उसका यह दुहरा भाव खटकता हो यह बात न थी, क्योंकि उसके पीछे कोई बुरी भावना न थी । मित्रवर्ग में प्रेमी-प्रेमिकाओं के बारे में हास-परिहास लगा ही रहता है, नलिन भी उसमें खूब दिलचस्पी लेता था । पर अपनी प्रेमिका को विनोद का केन्द्र बनाना, या अपने प्रेम अथवा अनुरक्ति की बात को दूसरों के मनोरंजन की सामग्री बना देना, उसे परिहास के रंगो, व्यङ्ग- वाणियों से सस्ते, साधारण, प्रकट और पक्व रूप में देखना वह नहीं सह सकता था, उसे संकोच भले ही न होता हो । यह तो उसके युवक हृदय में प्रतिष्ठित उस प्रथम प्रेम की प्रतिमा कुमारी को जो पवित्रता, दिव्यता, रहस्य, मधुरता, सुकुमारता, सौन्दर्य, पार्थिवत्व, चाँदनी, इन्द्र-धनुष, स्वप्न, उषा, लहर, बिजली - सब की सार है, उसे एकदम, जनसाधारण जिस पर चलते हैं, उस राह को धूल में मिला देना, सामान्य प्रतिदिन के प्रकाश में खोल देना, उसकी अमूल्यता को मूल्य- हीन बना देना हुआ । वह तो असामान्य है, अप्रतिम है ! दांपत्य का मधुर गुह्य स्वर्ग जो अभी उसके लिए कल्पना मात्र था, पीछे वास्तविक होकर भी आधी कल्पना ही रहता है; नारी जो अज्ञेय है, गुलाब की तरह, सौन्दर्य की तरह सदैव अज्ञेय ही रहती है; जो रहस्य एवं कल्पना की बनी है, छूने पर भी छुई नहीं जा सकती, बाहुओं में बाँध लेने पर भी बाँधी नहीं जा सकती - वह सृष्टि में सब से सारमया, पूर्णतामयी, नित्य नई, प्रत्येक पल बदलती हुई, नारी- कुमारी- प्रेमिका - देवी - परी- प्रभात संध्या, वसन्त-शरद की सार्थकता - संसार के, जीवन के समस्त अभावों की पूर्ति उसका नाम -... उसका नाम ? उसका नाम भी है ? वह रूपसी रूप, वह नामवती अनाम है ! अनिर्वचनीय है ! रहस्य है ! नहीं, नहीं-नलिन ! वह दुहरा भाव ही अच्छा ! उसका नाम नहीं लिया जा सकता ! हाय रे नवयुवक ! यौवन की समस्त उद्दाम आशा-आकांक्षाओं, रक्तमांस, श्वासों-च्छासों, स्वप्न-जागृति, रोमांस - कवित्व से निर्मित कुमारी- कामिनी ! - वह परिहास, प्रमोद, गद्य, प्रत्येक क्षण की वस्तु बनाई जा सकती है ? इसके लिए और बहुत-सी सामग्री संसार में है ! नवयुवक की आँखों का सम्मोहन क्यों मिट्टी कर दिया जाय ? दूसरों की प्रेमिकाओं की चर्चा हो, वह उन्हें नहीं जानता, वह तो केवल एक मुख को जानता है, एक मूर्ति को, एक सौन्दर्य की देव- बाला को ! वही तो प्रेमिका है, प्रेम की वस्तु हो सकती है। दूसरी कुमारियों का परिहास होने न होने का उसके मन में प्रश्न ही नहीं उठ सकता, वे प्रेमिका, प्रणयनी हो ही नहीं सकतीं, ईश्वर ने ही उन्हें नहीं बनाया है ! और किसी के आँखें नहीं, किसी को परख नहीं, आदर्श को वही पहचान सका, अपना सका है ! औरों पर वह दया करता है, तरस खाता है, उनसे सहानुभूति रखता है ।

पर समय बदलेगा, जब छरहरा और गदबदा शरीर, गोल और लंबा मुख, काले और भूरे बाल, नीली और काली आँखें, चंचल और गंभीर स्वभाव, मीठी और पतली आवाज़ - सभी का भेद, सभी तरह की नारियों का सौन्दर्य रहस्य धीरे-धीरे उसके हृदय में प्रस्फुटित हो सकेगा, और सब के भीतर समान रूप से उसे आदर्श के प्रेमिका के, अप्सरी के, देवी के दर्शन मिलेंगे । वह समय शायद उसके लिए अपनी प्रेमिका के प्रति सच्चे अनुराग को : एकान्त भाव से सजीव रखने, उसका प्रमाण देने का, कठिन परीक्षा काल होगा । पर तब गार्हस्थ्य का सत्य, उसके सुनहले बंधन, उसकी गौरव गरिमा नलिन के तुलनात्मक विचारों एवं आवेगों को सीमित एवं केन्द्रित करने में सहायक होंगे । गार्हस्थ्य का रूप, अपने पराए का भाव, मिट जाएगा, उसका सर्व व्यापक भाव जाग्रत हो उठेगा । तब मोह और ममत्व के छिलके के भीतर छिपे हुए प्रेम को अविराम लगन एवं आसक्ति के पंखों से घेर कर सेंकना नहीं पड़ेगा, अण्डे के बन्धन खुल जाएँगे और उसके भीतर से जो जीवन का प्रेम मुक्त हो बाहर निकलेगा वह अपनी रक्षा करने में स्वयं समर्थ हो सकेगा ।

(5)

बरसात समाप्त हो जाने पर सुबोध मसूरी छोड़कर प्रयाग चला आया था । कुछ ही सप्ताह बाद उसे जो दो पत्र मिले उनका सारांश क्रमशः नीचे दिया जाता है।

(पहला पत्र)

xxx दिल्ली । (br)१० सितम्बर, ३५

प्रिय सुबोध,

मैं आजकल यहाँ हूँ । विजया से अब मेरा दिल हट गया है । उसका कारण यह है कि ...................

....................

अब मुझे स्पष्ट जान पड़ता है कि उस पर मेरा प्रेम न था, केवल फैन्सी थी । यहाँ आने पर मेरा जी बिलकुल ही बदल गया है।

........................यह लड़की विजया से कहीं सुन्दर है । इस थोड़े से समय में ही मेरी उससे गहरी मित्रता हो गई है। सब से बड़ी बात यह है कि यह वैसी सूखी और हठी नहीं । ......................

..................................

..................................तुम्हारी क्या राय हैं शीघ्र लिखना ।

तुम्हारा

- सतीश ।

(दूसरा पत्र)

मसूरी (br)१५ सितम्बर, ३५

प्रिय सुबोध दद्दा,

तुम्हारे पत्र का उत्तर देने में विलंब हुआ, क्षमा करना ।

तुम्हारे चले जाने के बाद ...............................

.........................उन लोगों का पिता जी पर बड़ा जोर पड़ रहा है कि इसी जाड़ों में शादी कर दी जाय । तुम्हें मेरी पसन्द पसन्द है । आशा है उस अवसर पर तुम अवश्य आवोगे ।

..............................................

तुम्हारा -

नलिन ।

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