Urdu Mein Firauniyat (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand
उर्दू में फिरऔनियत (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
(फिरऔनियत – मिस्र के बादशाह ‘फिरौन’ से, जिसने घमंड के मारे खुदाई का दावा किया था, और जिसे हजरत मूसा के शाप ने समाप्त किया।)
मिस्टर नियाज फतेहपुरी उर्दू के एक प्रतिष्ठित पत्रकार हैं यानी उसमें इस तरह लिखने की जनमजात प्रतिभा है कि पढ़ने वाले भड़क जाएँ। इतना ही नहीं, उसमें देश-भक्ति के तमाम दावों के बावजूद हद दर्जे की सांप्रदायिक भावनाओं और विचारों को प्रकट करने का आश्चर्यजनक साहस भी है। जिस व्यक्ति में यह दोनों तत्त्व एकत्र हो जाएँ उसके सफल पत्रकार होने में संदेह की गुंजाइश नहीं। उधर सरकार भी खुश, खरीददार भी खुश और समझदार लोग हैरत से दांतों तले उंगली दबाये हुए। इन महाशय ने उर्दू दुनिया में एक लेखन-शैली का आविष्कार किया जिसे उलझी हुई शैली कह सकते हैं और शुरू में ‘रक्कासा’ और ‘मुगलिया’ और ‘क्यूपिड’ और इसी तरह के दूसरे मौलवियाना विषयों पर लिखते रहे। आप आजकल इनसाइक्लोपीडिया या दूसरी पत्रिकाओं में गंभीर लेखों का अनुवाद, उनका हवाला दिए बगैर, किया करते हैं और इस ख्याल से उनकी गिनती विद्वानों में की जा सकती है। आप रूढ़ियों के तोड़ने वाले हैं और मौलवियों के सुधार के प्रबल पोषक। समय-समय पर आप अपने स्वतंत्र चिंतन को प्रकाशित करने के लिए धार्मिक मान्यताओं और नैतिक समस्याओं पर चोटें किया करते हैं जिससे मित्र-मंडली में अच्छी चहल-पहल हो जाया करती है। शायद इसी वजह से कोई आपकी आपत्तियों का उत्तर देने की जरूरत नहीं समझता। आप पिछले तीन सालों तक हिन्दस्तानी एकेडेमी के एक विशिष्ट सदस्य रहे मगर नए चुनाव में किसी कारण से न आ सके । यह तो उनके एकेडेमी पर गुस्सा होने का कोई कारण नहीं हो सकता क्योंकि खुदा के फजल से आप इतने तंग दिल नही है मगर शायद आपकी अनुपस्थिति में एकेडेमी ने सरासर नियमों का उल्लंघन और सांप्रदायिक भावना को बल देना शुरू कर दिया है और इसीलिए आपका आजाद कलम इधर दो-तीन-महीनों से एकेडेमी की बखिया उधेडने में लगा हुआ है। हिन्दस्तानी एकेडेमी का जन्म उर्दू-हिन्दी दोनों भाषाओं में सशक्त और उन्नति करने के लिए हुआ और दोनों ही भाषाओं के कुछ विशिष्ट लोग उसके सदस्य बनाए गए। हिन्दी के विभाग में किसी मुसलमान लेखक को नामजद नहीं किया गया क्योंकि इस सूबे में हिन्दी का कोई मुसलमान लेखक नहीं है। उर्दू विभाग में दो-एक हिन्दू भी नामजद कर दिए गए इसलिए कि हजरत नियाज चाहे उनके अस्तित्व से इनकार करे पर उर्दू में हिन्दुओं की एक अच्छी -खासी संख्या है। एकेडेमी चूँकि एक साहित्यिक संस्था है जहां उसने तत्त्व चिंतन, इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति की ओर ध्यान दिया वहाँ साहित्य की भी उपेक्षा नहीं की और अंग्रेजी के एक प्रसिद्ध नाटककार के कुछ नाटकों को दोनों भाषाओं में प्रकाशित करने का निश्चय किया। हिन्दी अनुवाद मुझको सौंपा गया, उर्दू अनुवाद मुंशी दयानरायन साहब निगम एडिटर ‘जमाना’ और मुंशी जगत मोहनलाल साहब ‘खां’ को। हजरत नियाज उस वक्त एकेडेमी के मेम्बर थे। मगर तब उन्होंने इन प्रस्ताव के विरोध में जबान खोलना किसी वजह से ठीक नहीं समझा। अब आपको यह आपत्ति है कि अंग्रेजी नाटकों का अनुवाद क्यों किया गया और क्या इसके लिए मुसलमान लेखक न मिल सकते थे। आपके खयाल में कोई हिन्दू उर्दू लिख ही नहीं सकता चाहे वह सारी उम्र इसकी साधन करता रहे और मुसलमान जन्म से ही उर्दू लिखना जानता है यानी उर्दू लिखने की योग्यता वह माँ के पेट से लेकर आता है । यह दावा इतना गलत, पोच, लचर और बेवकूकी से भरा हुआ है कि इसके जवाब की जरूरत नहीं। मैं तो इतना ही कह सकता हूँ कि जिस जबान के साहित्यकार इतने तंग-नजर, अपने घमंड में फूले हुए हों उसका खुदा ही मालिक है। मुसलमानों पर यह आम एतराज है कि उन्होंने हिन्दू शायरों और लिखने वालों का कभी सम्मान नहीं किया। यहाँ तक कि नसीम और सरशार भी उर्दू के बड़े लिखने वालों के दायरे से बाहर कर दिए गए मगर ऐसे ढिठाई की हिम्मत आज तक किसी ने न की थी। उसका सेहरा मिस्टर नियाज के सर है। मैं यह मानने के लिए तैयार हूँ कि उर्दू जबान पर निसबतन् मुसलमानों के एहसान ज्यादा हैं लेकिन यह नहीं मान सकता कि हिन्दुओं ने उर्दू में कुछ किया ही नहीं। आज करोडों हिन्दू उर्दू पढ़ते हैं, लाखों लिखते हैं, हजारों इस जबान में साहित्य-रचना करते हैं चाहे कविता में, चाहे गद्य में, और उर्दू की हस्ती हिन्दुओं के सहयोग से कायम है। पंजाब के मुसलमान पंजाबी लिखते और बोलते हैं, बंगाल के मुसलमान बंगाली, सिंध के सिंधी, गुजरात के गुजराती, मद्रास के तामिल। उर्दू बोलने वाले हिन्दू या मुसलमान ज्यादातर इस सूबे में हैं। कुछ पंजाब और हैदराबाद में। अगर इस बात की छानबीन का कोई सही तरीका हो कि कितने हिन्दू उर्दू बोलते हैं और कितने मुसलमान तो मेरे ख्याल से दोनों की तादाद में बहुत ज्यादा फर्क न नजर आएगा। यह दूसरी बात है कि हजरत नियाज हिन्दुओं के उर्दू को उर्दू ही न कहें। इसी तरह हिन्दू भी मुसलमानों की उर्दू को उर्दू न समझें, तो उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता। अगर मुसलमान उर्दू में अरबी और फारसी लफ्ज ठूँस-ठूँस कर उसे इस्लामी रंग देना चाहता है तो हिन्दू भी उसमें हिन्दी और भाषा के शब्द दाखिल करके उसे हिन्दू रंग देने का इच्छुक हो सकता है। उर्दू न मुसलमान की बपौती है न हिन्दू की। उसके लिखने और पढ़ने का हक दोनों को हासिल है। हिन्दुओं का उस पर हक पहला है क्योंकि वह हिन्दी की एक शाखा है, हिन्दी पानी और मिट्टी से उसकी रचना हुई है और सिर्फ कुछ थोड़े से अरबी और फारसी शब्दों के दाखिल कर देने से उसकी असलियत नहीं बदल सकती, उसी तरह जैसे पहनावा बदलने से राष्ट्रीयता या जाति नहीं बदल सकती। हजरत नियाज चाहे जितनी ही आँखें लाल-पीली करें मगर हिन्दू उर्दू पर अपने हक से अपना हाथ नहीं खींच सकता और न वह उसे अपने ढंग पर लिखने ही से बाज आ सकता है उसी तरह जैसे मुसलमान उसे अपने ढंग पर लिखने से बाज नहीं आते। हिन्दू उर्दू का खून कर रहे हैं। उसी तरह हिन्दू भी कह सकता है मुसलमान उर्दू के गले पर कुँद छुरी फेर रहे हैं। बंटवारा इसी तरह हो सकता है कि मुसलमान लिखें, मुसलमान पढ़ने वालों के लिए, हिन्दू लिखेगा हिन्दू पढ़ने वालों के लिए, मगर यह नहीं हो सकता कि हिन्दू उर्दू लिखने-पढ़ने से बिल्कुल किनाराकश हो जाएँ और मुसलमानों की लिखी हुई किताबें पढ़कर अपना संतोष कर लें। वह इस गौण स्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं और हर आंदोलन जो उर्दू जबान की तरक्की केलिए अमल में आए उसमें हिन्दू अपनी हैसियत से शरीक होने का हक रखते हैं और मुझे यकीन है कि हजरत नियाज जैसे तंग-नजर लोगों को छोड़कर ऐसे मुसलमान बहुत कम होंगे जो हिन्दुओं के इस हक से इंकार कर सकें । एकेडेमी की जिस सब-कमेटी पर उर्दू अनुवादकों का चुनाव करने का दायित्व है उसमें काफी तादाद मुसलमान साहबान की है। अगर वह लोग हिन्दुओं को इस हद तक नालायक नहीं समझते, जितना हजरत नियाज समझते हैं और कुछ हिन्दू लेखकों की पिछली सेवाओं या साहित्यिक रुचि का सम्मान करना उन्हें उचित मालूम होता है तो किसी को शिकायत का मौका न होना चाहिए। मिस्टर निगम ने उर्दू की जो खिदमतें की हैं उनसे इंकार करना साहित्य के प्रति ऐसी निर्लज्ज कृतघ्नता है और हजरत नियाज से ही मुमकिन है। कौन अंदाजा कर सकता है कि मिस्टर निगम ने ‘जमाना’ के प्रकाशन में कितने नुकसान उठाए हैं। उस पर खानदानी जायदाद ही नहीं लुटा दी बल्कि अपनी जिंदगी भी उनको भेंट कर दी और आज एक तंगदिल अखबारनवीस को यह कहने की हिम्मत होती है कि पच्चीस साल की इस साहित्यिक सेवा कुछ ही मूल्य ही नहीं। हजरत खां उर्दू के सिद्धहस्त कवि हैं। उनकी कविता के शायद हजरत नियाज भी कद्रदाँ हों मगर आपकी क़द्रदानी ज्यादा जबानी जमाखर्च तक जा सकती है। रुपये-पैसे का मौका आते ही वह क़द्रदानी उडनघाइयाँ लग जाती है। मैं हजरत नियाज को बड़ी ईमानदारी से मशविरा दूँगा कि वह एकेडेमी के सदस्यों का चुनाव भाषा के आधार पर नहीं संप्रदाय के आधार पर करवाऍं। उस वक्त अगर कोई हिन्दू अनाधिकार हस्तेक्षप करे तो उसके पीछे लट्ठ लेकर दौड़ें। लेकिन जब तक चुनाव भाषा के आधार पर है, और हिन्दू भी उर्दू लिखते हैं, उस वक्त तक वह हिन्दुओं को अमली क़द्रदानी के दायरे से बाहर नहीं रख सकते। मगर यह याद रहे कि संप्रदाय के आधार पर हद से हद एक-तिहाई से ज्यादा रकम उर्दू के हाथ नहीं पड़ सकती। इस तिहाई में ऐतिहासिक महत्त्व और आनबान सब कुछ शामिल है।
यहाँ तक हिन्दू लेखकों के साथ यह क़द्रदानी दिखाई जाती है उधर हिन्दुओं को हिन्दी के मुसलमान कवियों से कितना सच्चा प्रेम है। रहीम और जायसी आदि की कविता के नए-नए संस्करण प्रकाशित होते रहते हैं। उन्हें इतने ही शौक से पढ़ा जाता है जैसे सूर या तुलसी को। पाठ्यक्रम में हिन्दू कवियों के साथ-साथ जगह दी जाती है, हिन्दू या मुसलमान होने का किसी को ख्याल ही नहीं आता। उर्दू के किसी हिन्दू शायर का कलाम किसी मुसलमान ने संग्रह किया हो इसकी मुझे कोई मिसाल नहीं मिलती। हाल में हजरत असगर ने ‘यादगारे नसीम’ का संकलन किया है जिसका भुगतान उन्हें करना पड़ा रहा है। इस साहित्यिक संकीर्णता और द्वेष की भी कोई सीमा है।
[‘जमाना’, दिसंबर, 1930]