उपसंहार (रूसी कहानी) : इवान तुर्गनेव
Upsanhar (Russian Story) : Ivan Turgenev
भोजन के दौरान में, मानो पहले से ही यह मन-ही-मन तय हो, दोनों ने अपनी ख़ामोशी तोड़ी, लेझ़नेव और रूदिन ने बोलना शुरू किया - उन दिनों के बारे में जब कि वे छात्र थे। अनेक घटनाओं की उन्हें याद आयी, अनेक लोग उनकी आँखों के सामने उभरे, जो मर गये थे वे भी और जो जीवित थे वे भी। शुरू-शुरू में रूदिन कुछ चुप था, लेकिन कई गिलास ढालने के बाद उसके ख़ून की रवानी तेज़ हुई, और उसमें भी गरमायी आ गयी। बैरा ने आखि़री तश्तरी लाकर रखी। लेझ़नेव उठा, दरवाज़े को बन्द किया, ठीक रूदिन के सामने वाली सीट पर जम गया और निश्चल भाव से, अपनी ठोड़ी को हथेलियों पर टिकाकर बैठ गया।
"हाँ, तो अब," उसने कहना शुरू किया, "पिछली बार जब हम मिले थे, तब से अब तक क्या-क्या तुम पर गुज़री, सब बताओ।"
रूदिन ने लेझ़नेव की ओर देखा।
"देखो न," लेझ़नेव ने मन-ही-मन फिर सोचा, "कमबख़्त क्या से क्या बन गया है!"
रूदिन का नाक-नक़्श अभी भी बहुत कुछ वैसा ही था, हालाँकि ढलती हुई उम्र ने उन पर अपनी छाया डालनी शुरू कर दी थी; लेकिन उनका भाव बदला हुआ था। उसकी आँखों में अब वह चमक नहीं थी और उसका समूचा अस्तित्व - उसके हरकत करने का ढंग, कभी गिरा-मरा-सा और कभी झटके खाता हुआ, उसका बोलना-चालना जिसमें अब वह पहले वाली आग नहीं थी और ऐसा मालूम होता था मानो वह खण्डित हो गया हो - एक निपट थकान और ऊब का, एक ऐसे निश्चल और छिपे हुए शोक का परिचय देता था जो आशा और अनगढ़ आत्मगौरव की भावना में पगे अन्य सभी युवकों की भाँति उस अध-बनावटी उदासी से सर्वथा भिन्न था जिसकी कि वह एक समय नुमाइश किया करता था।
"तुम वह सब सुनना चाहते हो जो मेरे साथ बीती," रूदिन ने कहा, "लेकिन मैं तुम्हें वह सब नहीं बता सकता, न ही इसकी ज़रूरत है... मैंने बहुत कुछ सहा है, बहुत दूर-दूर तक मैं भटका हूँ, केवल शारीरिक रूप में ही नहीं बल्कि आत्मिक रूप में भी। भगवान ही जानता है, कितनी निराशाओं का मैंने सामना किया है, लोगों और चीज़ों से टकराकर कितनी बार मेरी आशाएँ, मेरे भ्रम, चकनाचूर हुए हैं। अन्तहीन लगाव - हाँ, अन्तहीन!" उसने दोहराया, यह जानकर कि लेझ़नेव असाधारण सहानुभूति से उसकी आँखों में देख रहा है। "न जाने कितनी बार मुझे ख़ुद अपने शब्दों से घृणा हुई है, केवल उन शब्दों से ही नहीं जो मेरे होंठों पर उभरे थे, बल्कि उन लोगों के होंठों पर भी जो मेरे विचारों के भागीदार थे। बच्चों की भाँति उत्साह में उबलने-उफनने के बाद न जाने कितनी बार उस घोड़े की-सी संज्ञाहीन निश्चेतनता ने मुझे ग्रस-ग्रस लिया है जो चाबुक पड़ने पर भी अब अपनी दुम तक नहीं हिलाता। न जाने कितनी बार मैंने ख़ुशियाँ मनायी हैं, आशाओं के तूमार बाँधे हैं, लड़ाइयाँ लड़ी हैं और अपने को बेकार ही हीन अनुभव किया है। न जाने कितनी बार साहसी बाज़ की भाँति आगे बढ़कर उस घोंघे की भाँति रेंग कर मैं पीछे हटा हूँ जिसका बाहरी खोल कुचल दिया गया हो। कोई जगह ऐसी नहीं है जहाँ मैं न भटका हूँ, कोई पथ ऐसा नहीं है जिसे मैंने अपने डगों से नापा न हो। और इनमें," नज़र बचाने के लिए रूदिन ने अपना मुँह कुछ फेर लिया था, "गन्दे पथ भी शामिल हैं, श्रीमान..."
"यह श्रीमान क्या बला है?" लेझ़नेव ने बीच में ही टोका। "श्रीमान और श्रीमती पहले कभी इस तरह हमारे बीच में नहीं आते थे, खुलकर हम मिलते और बातें करते थे... आओ, उन दिनों को फिर लौटा लायें, भाईचारे के नाम पर गिलास खनकायें।"
रूदिन चेता, उठकर खड़ा हो गया और उसकी आँखों ने एक ऐसी उड़ती हुई नज़र से देखा जिसकी बोली के सामने शब्द फीके पड़ जाते हैं।
"धन्यवाद, बन्धु, धन्यवाद," उसने कहा, "तुम ठीक कहते हो। आओ भाईचारे के नाम पर जाम उठायें!"
लेझ़नेव और रूदिन ने अपने गिलास ख़ाली कर दिये।
"मालूम है तुम्हें?" मुस्कुराते और श्रीमान सम्बोधन को ताक पर रखते हुए रूदिन ने फिर कहना शुरू किया, "मेरे भीतर एक तरह का कीड़ा है जो बराबर मुझे खरोंचता और खाता रहता है। एक घड़ी के लिए भी वह मुझे चैन नहीं लेने देता। यह मुझे उन्हीं लोगों के खि़लाफ़ उकसाता है जो शुरू में मेरे असर में थे और इसके बाद..." रूदिन ने इस तरह हाथ हिलाया मानो इसके बाद की बात को काटकर दफ़ा कर रहा हो। फिर बोला, "उस समय जब आखि़री बार तुमसे भेंट हुई, श्रीमा... तुमसे अलग होने के बाद मैंने बहुत कुछ देखा और बहुत-सी चीज़ों पर हाथ आज़माया... बार-बार मैं जीवन का नया सूत्र पकड़ता, नये सिरे से उसे शुरू करता - और अब तुम ख़ुद देख सकते हो कि उस सबका हश्र क्या हुआ!"
"असल में अन्तर्बल का तुममें अभाव था," लेझ़नेव ने यह बात इस तरह कही मानो वह सस्वर सोच रहा हो।
"हाँ, अन्तर्बल का अभाव, जैसा कि तुम कहते हो। विधाता ने मुझे निर्माता बनने के लिए नहीं गढ़ा था। फिर, यह तो बताओ, जिस आदमी के पाँव के नीचे कोई ठोस ज़मीन ही न हो, जब आदमी पहले ख़ुद अपनी नींव डालने के लिए मजबूर हो, ऐसी हालत में भला वह निर्माता क्या बन सकता है? अपने सारे कारनामों का - बल्कि यों कहिये कि असफलताओं का - मैं यहाँ बखान नहीं करूँगा। केवल दो या तीन घटनाओं का ही वर्णन करूँगा - अपने जीवन की उन घटनाओं का जब ऐसा मालूम होता था कि आखि़र मेरा सौभाग्य अब खिलना और मुस्कुराना चाहता है, अथवा यह कि जब मैं यह आशा करने लगा था कि अब सफलता दूर नहीं है - लेकिन आशा करना एक बात है, और सफलता मिलना दूसरी..."
रूदिन ने अपने सफ़ेद और छिदरे पड़ चले बालों को हाथ की उसी हरकत से पलटकर सीधा किया जिससे कि वह पहले अपने काले और घने बालों को सीधा किया करता था।
"अच्छा तो सुनो," उसने कहना शुरू किया, "मास्को में एक अपेक्षाकृत अजीब रईस से मेरा वास्ता पड़ा। वह सरकारी नौकरी नहीं करता था, धन की उसके पास बहुतायत थी और बड़ी-बड़ी जागीरों का वह मालिक था। उसकी गहरी धुनों में से एक यह भी थी कि वह विज्ञान से प्रेम करता था - किसी ख़ास विज्ञान से नहीं, बल्कि आमतौर पर विज्ञान-मात्र से। इतने दिन हो गये, लेकिन मैं आज तक नहीं समझ सका कि उसकी इस धुन का आखि़र आधार क्या था - कैसे यह धुन उसमें पैदा हुई। विज्ञान से उसका उतना ही सम्बन्ध हो सकता था जितना कि गाय का ज़ीन से। जिस मानसिक स्तर को वह छूना चाहता था, उसके वह सर्वथा अनुपयुक्त था। वह अच्छी तरह से बोल भी नहीं सकता था। अपनी आँखों को प्रभावशाली ढंग से नचाने और गम्भीर अन्दाज़ में सिर हिलाने के सिवा और कुछ उसके बस का नहीं था। सच कहता हूँ मित्र, उस जैसा ठस और कमज़ोर दिमाग़ मैंने और कहीं नहीं देखा... स्मोलैन्स्क गुबेर्निया (ज़िले) में कई स्थल ऐसे हैं जहाँ रेत और भूली-भटकी घास के सिवा और कुछ नज़र नहीं आता। घास भी ऐसी कि कोई जानवर उसकी ओर रुख़ नहीं करेगा। उस आदमी ने कोई कोशिश बाक़ी नहीं छोड़ी, लेकिन हर बार गहरी निराशा के सिवा और कुछ पल्ले नहीं पड़ा। ऐसा मालूम होता था मानो हर चीज़ उसे चकमा देने और उसकी पकड़ में न आने के लिए क़सम खाये बैठी हो। और यह ठीक भी था। इसलिए और भी अधिक कि हर सीधी चीज़ को जटिल बनाने का पागलपन उसके सिर पर सवार था। अगर उसका वश चलता तो, विश्वास करो, वह लोगों को एड़ियों से खाना खिलाकर छोड़ता। उसने श्रम किया, लिखा और बिना थके पड़ा। कभी न हार मानने वाले हठ और भयानक लगन से वह विज्ञान के प्रति अपना उत्कट प्रेम-निवेदन करता रहा। उसके दम्भ की कोई सीमा नहीं थी और इच्छा-शक्ति तो उसने लोहे की-सी दृढ़ पायी थी। वह एक निराला, सबसे अलग, जीवन बिताता था और लोगों में एक विचित्र जीव के रूप में विख्यात था।
"मैंने उससे जान-पहचान की - और उसकी मेरे साथ पटरी बैठ गयी। सच पूछो तो उसकी असलियत पकड़ने में मुझे देर नहीं लगी, लेकिन उसकी अन्धी धुन हृदय को छूती थी। इसके अलावा, वह बेहद साधन-सम्पन्न था, और उसके सहारे बहुत कुछ भला तथा वस्तुतः उपयोगी काम किया जा सकता था... सो उसी के साथ मैंने अपना बोरिया-बिस्तर जमाया और अन्त में उसके देहाती इलाक़ों में भी गया। मेरी योजनाओं का, मित्र, कोई वारापार नहीं था, अनेक सुधार करने और नयी लीकें डालने के मैं सपने देखता था..."
"श्रीमती लासुन्स्काया के यहाँ भी तो तुम्हारा यही हाल था," लेझ़नेव ने कहा। उसका चेहरा भली मुस्कुराहट से खिला था।
"अरे नहीं, वहाँ मैं अपने हृदय के अन्तर्तम में जानता था कि बेकार ही मैं अपने शब्द नष्ट कर रहा हूँ, लेकिन यहाँ... यहाँ तो सचमुच मुझे एक शानदार मौक़ा मिला था... खेती सम्बन्धी पुस्तकें मैंने भारी संख्या में बटोरीं - सच तो यह है कि उनमें से एक को भी मैं अन्त तक पढ़ नहीं सका - और काम में जुट गया। शुरू-शुरू में कुछ परेशानी हुई, जैसा मैं चाहता था वैसा नहीं हुआ, लेकिन बाद में गाड़ी ठीक से चलती मालूम होने लगी। मेरा नया मित्र बस चुपचाप देखा करता, कुछ कहता नहीं - मेरे काम में कोई बाधा नहीं देता, कम से कम इस हद तक बाधा तो नहीं ही देता कि उससे मेरे काम को नुक़सान पहुँचे। मेरे सुझावों पर वह अमल भी करता, लेकिन बेमन से, हृदय में एक हठीला और अप्रकट अविश्वास छिपाये हुए और अन्त में अदबदाकर फिर अपने ही रास्ते पर चलने लगता। अपने हर विचार को वह अफ़लातूनी समझता था, और उससे इस तरह चिपका रहता था जैसे ललबुँदिया गुबरैला घास के एक तिनके से चिपका रहता है, उस पर बैठकर अपने पैरों को खुजलाता है, मानो उड़ने की तैयारी कर रहा हो, इसके बाद वह फड़फड़ाकर धरती पर गिर पड़ता है और फिर, नये सिरे से, यही सिलसिला शुरू कर देता है... इन तुलनाओं को ज़रा भी अटपटा न समझना, ये उन्हीं दिनों से मेरे हृदय में चुभन बनकर सताती रही हैं और आज तक दूर नहीं हुई हैं। पूरे दो साल तक मैं वहाँ एड़ियाँ रगड़ता और जुझता रहा। मैं लाख कोशिश करता, लेकिन काम आगे बढ़ने का नाम ही न लेता। आखि़र मैं इस सबसे ऊब चला। अपने मित्र को देखकर अब मैं झुँझला उठता। मैंने अपना तरकश सँभाला और व्यग्यं बाण छोड़ने शुरू किये। परों की भरन वाले गद्दे में लेटने पर जिस तरह दम घुटता है, उसी तरह वह मेरा दम घोंट रहा था। मुझमें उसके अविश्वास ने एक गूँगे विक्षोभ का रूप धारण कर लिया था। पारस्परिक शत्रुता की एक भावना ने हम दोनों को जकड़ लिया था और किसी भी चीज़ पर शान्ति के साथ बातें करना अब हमारे लिए सम्भव नहीं रहा था। लुके-छिपे तरीक़े से, मेरी योजनाओं को बिगड़ा रूप देकर या उन्हें एकदम रद्द करके, मेरे असर के प्रति अपना विक्षोभ प्रकट करने की वह बराबर कोशिश करता। अन्त में यह चीज़ खुलकर मेरे सामने आ गयी कि मैं उसका एक लटकन-मात्र हूँ जिसे भोजन और पनाह देकर इसलिए रख छोड़ा गया है कि वह ज़मींदार मोशाई की दिमाग़ी कसरत के लिए सामग्री जुटाता रहे। इससे अधिक तीखी और कटु अनुभूति और क्या होगी कि मैं अपना समय और शक्ति नष्ट करता रहा, और यह कि मेरी आशाएँ एक बार फिर टकराकर चकनाचूर हो गयीं। यह मैं जानता था - ज़रूरत से ज़्यादा अच्छी तरह जानता था - कि यहाँ से जाने का मतलब अपने लिए मुसीबत मोल लेना है, लेकिन मेरे लिए और अधिक बर्दाश्त करना सम्भव नहीं था, और एक दिन, एक दुखद और घिनौने दृश्य के बाद, जो मुझे देखना पड़ा और जिसने मेरे मित्र की कलई खोलकर रख दी, आखि़री बार और हमेशा के लिए मेरा उससे झगड़ा हुआ और उसे छोड़कर चला आया - रूसी आटे और जर्मन शीरे से बने विज्ञान के अवतार उस रईस को धता बताकर..."
"उसे नहीं, बल्कि ऐसा कहो कि अपनी रोटी-रोज़ी को धता बताकर - क्यों?" लेझ़नेव बुदबुदाया और अपने दोनों हाथ उसने रूदिन के कन्धों पर रख दिये।
"हाँ, फिर वही नंगपन और भूख, और आज़ादी से चाहे जहाँ उड़ने के लिए सिर पर सूना आकाश.... लेकिन छोड़ो, आओ, गिलास खनकायें!"
"तुम्हारे स्वास्थ्य के नाम पर!" लेझ़नेव ने उठते हुए और रूदिन का माथा चूमते हुए कहा। "तुम्हारे स्वास्थ्य और पोकोरस्की की स्मृति के नाम पर। वह ग़रीबी सिर लेने का साहस रखता था।"
"हाँ तो यह थी मुहिम नम्बर एक," कुछ देर की ख़ामोशी के बाद रूदिन ने कहा। "लेकिन तुम उकता तो नहीं रहे?"
"नहीं, कहे जाओ!"
"क्या कहूँ, मित्र, कुछ कहने की अब इच्छा ही मर गयी है। बोलते-बोलते मैं थक गया हूँ। अनेक जगहों में भटकने-टकराने के बाद... चाहो तो मैं तुम्हें, यों ही प्रसंगवश, बता सकता हूँ कि किस प्रकार एक भले शाही पदाधिकारी का मैं सचिव बना और क्या-क्या उसके ग़ुल खिले, लेकिन इस तरह हम बहुत दूर भटक जायेंगे... हाँ तो अनेक कामों का बीड़ा उठाने के बाद मैंने अन्त में निश्चय किया - हँसो नहीं, मित्र - मैंने एक व्यापारी, एक व्यावहारिक आदमी, बनने का निश्चय किया। मैंने कुर्बेयेव नामक एक व्यक्ति से - शायद तुमने उसका नाम सुना हो - जान-पहचान की। क्यों कुछ जानते हो कुर्बेयेव के बारे में?"
"नहीं, मैंने तो उसका नाम कभी नहीं सुना। लेकिन, अचरज होता है रूदिन, कि अपनी इस बुद्धि के बावजूद तुम यह क्यों नहीं समझ सके कि व्यापार करना - इस श्लेषोक्ति का बुरा न मानना - तुम्हारा व्यापार नहीं है?"
"मैं जानता हूँ कि यह मेरा व्यापार नहीं है; और यदि यह मेरा व्यापार नहीं है तो फिर मेरा व्यापार है क्या? लेकिन छोड़ो - ओह, अगर तुमने कुर्बेयेव को देखा होता! यह मत समझना कि वह यों ही कोई ऐरा-ग़ैरा नत्थू-ख़ैरा था। लोग कहते हैं कि मैं बहुत अच्छा बोलता था, लेकिन उसके मुक़ाबले में मैं कुछ नहीं था। उसकी जानकारी देखकर अचरज होता था। बहुत ही पढ़ा-लिखा और, सच कहता हूँ मित्र, व्यापार तथा उद्योग के क्षेत्र में रचनात्मक सूझबूझ का धनी। उसका मस्तिष्क क्या था, अत्यन्त साहसपूर्ण और चकित कर देने वाली योजनाओं का ज़ख़ीरा था। हम दोनों ने अपनी शक्तियाँ एकत्र कर लीं और सार्वजनिक उपयोग के एक काम में जुटने का निश्चय किया..."
"बता सकते हो कि वह काम क्या था?"
रूदिन ने अपनी आँखें नीची कर लीं। बोला:
"सुनकर हँसोगे!"
"क्यों? नहीं, मैं नहीं हँसूँगा।"
"हमने निश्चय किया कि क-आया गुबेर्निया (ज़िले) में एक नदी को जहाज़रानी के उपयुक्त बनाया जाये।" रूदिन ने संकोच भरी मुस्कुराहट के साथ कहा।
"तुमसे ख़ुदा ही बचाये! तो तुम्हारा यह कुर्बेयेव पूँजीपति था?"
"वह मुझसे भी ज़्यादा कंगाल था," रूदिन ने जवाब दिया और सफ़ेद बालों से भरा अपना सिर निराशा से नीचे लटका लिया।
लेझ़नेव ज़ोरों से हँस पड़ा। लेकिन उसने तुरन्त अपने को रोका और रूदिन का हाथ अपने हाथ में लेकर दबोचा।
"मुझे माफ़ करना, मेरे पुराने साथी," उसने कहा, "औचक में मुझसे यह अपराध हो गया। हाँ तो तुम्हारी योजना का क्या हुआ - निश्चय ही काग़ज़ से नीचे नहीं उतरी होगी?"
"एकदम काग़ज़ पर ही तो नहीं रही। हमने उसे अमल में लाना शुरू किया। हमने मज़दूरों से तय किया और, सच, काम में जुट पड़े। शीघ्र ही तरह-तरह की बाधाएँ सामने आयीं। एक तो यह कि मिल-मालिक ने हमारी योजना का साथ नहीं दिया, उससे भी बढ़कर यह कि बिना मशीनों के नदी को सँभालने का काम चल नहीं सकता था, और हमारे पास जो थोड़ी-बहुत पूँजी थी उससे मशीनें ख़रीदी नहीं जा सकती थीं। छह महीने तक हम मिट्टी की झोपड़ियों में रहे। कुर्बेयेव केवल रूखी रोटी खाकर गुज़र करता था, और मेरे पास भी खाने के नाम पर भूँजी भाँग ही थी। जो हो, मुझे इसका दुःख नहीं। प्राकृतिक छटा वहाँ की लाजवाब थी। हमने संघर्ष जारी रखा, अपनी योजना में सौदागरों को खींचने की कोशिश की, चिट्ठियाँ और गश्ती पत्र लिखे। आखि़र योजना के पीछे जेब की अन्तिम कौड़ी तक गँवा बैठा मैं।"
"अन्तिम कौड़ी गँवा बैठना कोई कठिन काम नहीं रहा होगा, इसका मुझे पक्का विश्वास है।" लेझ़नेव ने टीप जड़ी।
"हाँ, कठिन तो सचमुच नहीं था।"
रूदिन ने खिड़की से बाहर की ओर देखा। फिर बोला:
"लेकिन, सच कहता हूँ, योजना बुरी नहीं थी। उससे बहुतों का भला होता।"
"कुर्बेयेव का फिर क्या हुआ?" लेझ़नेव ने पूछा।
"वह अब साइबेरिया में है। सोने की ख़ानों का पता लगाने में जुटा है। और देखना, एक दिन उसका भाग्य चमककर रहेगा, वह सफलता प्राप्त करेगा।"
"हो सकता है, लेकिन तुम्हारा भाग्य कभी चमकने वाला नहीं है।"
"मेरा? ओह, जाने दो! बेशक, तुम मुझे सदा से ही निकम्मा समझते आये हो।"
"तुम - और निकम्मे? बस, रहने दो, मित्र। एक ज़माना था जब मैं केवल तुम्हारी कमज़ोरियों का हिसाब रखता था, लेकिन अब - विश्वास करो - तुम्हारी असली क़द्र करना मैं जान गया हूँ। तुम अपना भाग्य चमका नहीं सकोगे... और ठीक इसी के लिए मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, सचमुच प्यार करता हूँ।"
रूदिन धीमे से मुस्कुराया:
"सच?"
"हाँ, ठीक इसी कारण मैं तुम्हारी इज़्ज़त करता हूँ," लेझ़नेव ने अपनी बात दोहरायी। "निश्चय ही तुम मुझे ग़लत नहीं समझ रहे हो।"
कुछ देर तक दोनों चुप रहे।
"क्या मैं अब अपने कारनामा नम्बर तीन का भी ज़िक्र करूँ?"
"ज़रूर।"
"अच्छा तो सुनो। यह मेरा तीसरा और आखि़री कारनामा है। अभी पिछले दिनों ही मैं उसके क्रिया-कर्म से फ़ारिग हुआ हूँ। लेकिन तुम ऊब तो नहीं रहे हो?"
"नहीं, कहे जाओ।"
"एक दिन," रूदिन ने फिर कहना शुरू किया, "यों ही टल्लानवीसी करते-करते - जिसकी मेरे जीवन में काफ़ी भरमार रही है - मुझे सूझा कि चूँकि मैं - जैसा कि तुम कह सकते हो - पढ़ा-लिखा आदमी हूँ और सबकी भलाई के लिए प्रयत्नशील रहता हूँ - क्यों, क्या तुम यह मानने से इनकार करोगे?"
"हरग़िज़ नहीं!"
"अन्य सभी कामों में विफलता के सिवा और कुछ मेरे पल्ले नहीं पड़ा... क्यों न अब एक बार शिक्षाविद, या सीधे-सादे शब्दों में शिक्षक बनकर देख लिया जाये? जीवन को एक तरह नष्ट करने के बजाय -"
रूदिन की आवाज़ एक आह में खोकर रह गयी। कुछ सँभलकर उसने फिर कहना शुरू किया:
"जीवन को इस तरह नष्ट करने के बजाय दूसरों को अपना ज्ञान देने की क्यों न कोशिश करूँ। कौन जाने वे उससे कुछ लाभ उठा सकें। मेरी योग्यताएँ - मैंने मन ही मन कहा - औसत स्तर से ऊँची हैं और विधाता ने मुझे ज़ुबान भी कुछ कम वाचाल नहीं दी है... सो मैंने इस नये काम में जुटने का निश्चय किया। उपयुक्त जगह पाने में मुझे भारी मुसीबत का सामना करना पड़ा। प्राइवेट स्कूल खोलकर मैं बैठना नहीं चाहता था और निम्न शिक्षा के स्कूलों में जाकर मैं करता क्या! अन्त में यहाँ के हाई स्कूल में शिक्षक की जगह पाने में मैंने सफलता प्राप्त की।"
"किस विषय में शिक्षक की?" लेझ़नेव ने पूछा।
"रूसी-साहित्य के शिक्षक की। सच मानो, अब से पहले अन्य कोई काम मैंने इतने उत्साह से शुरू नहीं किया था। नयी पीढ़ी के दिमाग़ों को ढालने की बात सोचते ही मेरा रोम-रोम उमंग से भर जाता। पूरे तीन सप्ताह लगाकर मैंने अपना प्रारम्भिक लेक्चर तैयार किया।"
"तुम्हारे पास उसकी प्रतिलिपि है?" लेझ़नेव ने बीच में ही पूछा।
"नहीं। पता नहीं कहाँ गुम हो गयी। लेकिन लेक्चर अच्छा बन गया था और काफ़ी सफल रहा। सच्ची लगन, सहानुभूति, यहाँ तक कि अचरज से आलोकित उन युवक श्रोताओं के सहृदय चेहरे इस समय भी मेरी आँखों के आगे नाच रहे हैं। मैंने मंच पर पाँव रखा और एक आवेश में सारा लेक्चर सुना गया। मेरा ख़याल था कि वह एक घण्टा खा जायेगा, लेकिन बीस मिनट में ही वह समाप्त हो गया। इंस्पेक्टर भी उस समय मौजूद था। वृद्ध और दुबला-पतला, आँखों पर रूपहली कमानी वाला चश्मा लगाये हुए। अच्छी तरह सुनने के लिए रह-रहकर वह अपनी गरदन को तान लेता था। लेक्चर ख़त्म करने के बाद जब मैं उछलकर अपनी जगह से उठा तो वह बोला: ‘अच्छा रहा। लेकिन कुछ आडम्बरी और अस्पष्ट है, और विषय को बहुत ही कम छूता है।’ लेकिन, सच मानो, छात्रों की श्रद्धा भरी नज़रें अन्त तक मेरे साथ लगी रहीं। यही तो वह चीज़ है जो युवावस्था को इतना अद्भुत बनाती है! इसके बाद मैंने अपना दूसरा लेक्चर तैयार किया, फिर तीसरा... और आगे चलकर ज़ुबानी ही लेक्चर देने लगा।"
"और इसमें सफलता भी मिली - क्यों?"
"कोई ऐसी-वैसी नहीं, शानदार सफलता मिली। मेरे हृदय में जो कुछ संचित था, वह सब उनके लिए उड़ेलता रहा। उनमें तीन या चार लड़के तो सचमुच ही अद्भुत थे, बाक़ी निरे बुद्धुओं की भाँति बैठे रहते थे। लेकिन यह मैं स्वीकार करूँगा कि उन लड़कों में से भी जो मुझे समझते थे, कुछ एक कभी-कभी ऐसे सवाल करते थे कि मैं चकरा जाता था। लेकिन इससे मैं विचलित नहीं हुआ। वे सब मुझे चाहते थे। परीक्षाओं में मैं उन्हें पूरे नम्बर देता था। इसके बाद मेरे खि़लाफ़ साज़िश शुरू हुई - लेकिन नहीं, मैं यह ग़लत कहता हूँ। वह साज़िश नहीं थी - केवल मेरा ही मिज़ाज ठीक नहीं था। मैंने दूसरों को परेशान किया और बदले में ख़ुद भी परेशान हुआ। हाई स्कूल के छात्रों को मैं ऐसे लेक्चर देता था जैसे कि विश्वविद्यालय के छात्रों को भी बिरले ही दिये जाते हैं। उन लेक्चरों से मेरे श्रोता-छात्रों के पल्ले कुछ नहीं पड़ता था... मैं ख़ुद भी तथ्यों से अधूरे-पूरे रूप में ही परिचित था। इसके अलावा मैं उस कार्य-क्षेत्र से भी असन्तुष्ट था जो मेरे लिए नियत किया गया था - और तुम जानते हो कि यही मेरी कमज़ोरी है। मैं उग्र सुधारों के लिए तड़पता था - ऐसे सुधारों के लिए जो, सच मानो, व्यावहारिक और पूरा हो सकने योग्य थे। मैं उन्हें हेडमास्टर की मदद से अमल में लाना चाहता था। वह एक भला और ईमानदार आदमी था, और शुरू में उस पर मेरा असर भी था। उसकी पत्नी ने मुझे मदद दी। सच कहता हूँ मित्र, उस जैसी स्त्रिायाँ मैंने अपने जीवन में बहुत कम देखी हैं। वह तीस पार कर चुकी थी, लेकिन भलाई में विश्वास करती थी और पन्द्रह वर्ष की युवती की भाँति उमंग-उछाह में भरकर हर सुन्दर चीज़ से प्रेम करती थी। हर किसी के सामने, चाहे वह कोई भी हो, अपने विश्वासों को प्रकट करने का उसमें साहस था। उसके शुभ उत्साह और उसकी आत्मा की निष्पक्षता को मैं कभी नहीं भूलूँगा। उसकी सलाह से मैंने एक योजना तैयार की... लेकिन तभी बदनाम करके उन्होंने मुझे उसकी नज़रों से नीचे गिरा दिया। हिसाब के मास्टर ने, जो कि एक तेज़ तुनुकमिज़ाज पित्री टुइयाँ-सा आदमी था और जो पिगासोव की भाँति किसी चीज़ में विश्वास नहीं करता था लेकिन उससे कहीं ज़्यादा योग्य था, मुझे सबसे ज़्यादा नुक़सान पहुँचाया... लेकिन, जब उसकी याद आ ही गयी, तो पहले, यह तो बताओ कि पिगासोव का क्या हाल-चाल है? अभी जीवित है वह?"
"हाँ जीवित है, और शायद तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि उसने एक शहरी स्त्री से विवाह किया है। अफ़वाह है कि वह उसे ख़ूब पीटती है।"
"वह इसी लायक़ है भी। और हाँ, नटालिया लासुन्स्काया तो अच्छी तरह है?"
"हाँ।"
"और सुखी भी?"
"हाँ।"
रूदिन कुछ देर के लिए ख़ामोशी में डूब गया।
"हाँ तो क्या कह रहा था मैं? ओह, याद आया। हिसाब के मास्टर का ज़िक्र कर रहा था। उसे मुझसे घृणा थी। मेरे लेक्चरों की वह आतिशबाज़ी से तुलना करता था और मेरे हर उस भाव का जो पूरी तरह से स्पष्ट नहीं होता था, ख़ूब मज़ाक़ उड़ाता था। एक बार सोलहवीं शती के किसी महाकाव्य का हवाला देते हुए मैं कोई ग़लती कर गया। उसने इस ग़लती को पकड़ लिया और ख़ूब उछाला... लेकिन सबसे बुरा तो यह कि उसने मेरी नीयत पर हमला किया। मेरे आखि़री बुलबुले को उसने मानो पिन गड़ाकर फोड़ दिया। इंस्पेक्टर ने, जिसके साथ शुरू से ही मेरी पटरी नहीं बैठी, हेडमास्टर को उकसाया और वह मेरे खि़लाफ़ हो गया। फिर क्या था, टक्कर हो गयी। मैंने झुकने से इनकार कर दिया और ग़ुस्से में कुछ का कुछ कर बैठा। मामला अधिकारियों तक पहँुचा और मुझे मजबूरन इस्तीफ़ा देना पड़ा। लेकिन मैंने इतने पर ही बस नहीं की। मैं उन्हें दिखाना चाहता था कि मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जा सकता... लेकिन हुआ यह कि मैं... अब मैं यहाँ, इस नगर में नहीं रह सकता।"
रूदिन चुप हो गया। दोनों मित्र सिर झुकाये बैठे रहे।
रूदिन ने ही पहले ज़ुबान खोली।
"हाँ तो मेरे मित्र," उसने कहा, "अब मैं भी कॅल्त्सोफ़ के इन शब्दों को दोहरा सकता हूँ: ‘मेरे यौवन, तूने मुझे इतना सताया कि अब मुक्ति का कोई द्वार मेरे लिए खुला नहीं रहा।’(आ.वे. कॅल्त्सोफ़ (1809-1842 ई.) रूस के प्रमुख जनवादी कवि हो गये हैं। ये शब्द उनकी "चैराहा" नाम की 1840 ई. में लिखी कविता से लिये गये हैं।) फिर भी, क्या सचमुच यह कहा जा सकता है कि मैं किसी काम का नहीं हूँ, कि इस धरती पर मैं कुछ नहीं कर सकता? मैंने अक्सर अपने से यह सवाल पूछा है, और अपने-आपको ख़ुद अपनी नज़र में काफ़ी गिरा देने पर भी मैं अपने भीतर ऐसी शक्तियों का अनुभव किये बिना नहीं रह सका हूँ जो कि बिरले ही नज़र आती हैं। तब फिर ये शक्तियाँ क्या बाँझ रहने के लिए हैं? इसके अलावा, तुम्हें याद होगा कि उस समय जब कि हम दोनों विदेश में थे, मैं बनावट और दम्भ से भरा था। यह सच है कि उस समय मैं ख़ुद भी अपनी आकांक्षाओं को पूरी तरह से पहचानता नहीं था, मैं शब्दों का मतवाला था, शब्दों के ही उमंग में उमंगा रहता था, और छायाओं के पीछे भागता था; लेकिन अब - सच मानो - हर किसी के सामने मैं खुलकर ऐलान कर सकता हूँ कि मैं क्या चाहता हूँ। मेरे पास क़तई कुछ भी गोपनीय नहीं है। मैं, गहरे-से-गहरे अर्थों में, पूर्णतया नेक इरादों का आदमी हूँ। परिस्थितियों के सामने झुकने और उनके अनुसार अपने-आपको ढालने के लिए मैं तैयार हूँ। अपने लिए मैं कुछ नहीं चाहता। मैं केवल उस लक्ष्य को पाना चाहता हूँ जो मेरे हृदय के निकटतम है - अर्थात मैं उपयोगी बनना चाहता हूँ, चाहे छोटी-से-छोटी मात्रा में ही क्यों न हो। लेकिन नहीं, यही वह चीज़ है जो मुझसे दूर भागती है। क्यों? वह क्या चीज़ है जो मुझे अन्य लोगों की भाँति जीने और काम-धन्धे से नहीं लगने देती...? ले-देकर यही सपना अब मैं देखता हूँ। लेकिन जैसे ही कोई निश्चित जगह मेरे हाथ लगती है, किसी एक नुक़्ते पर मैं स्थिर होना शुरू करता हूँ, तभी भाग्य ठोकर मारकर मुझे वहाँ से गिरा देता है... और अब तो मैं उससे, अपने भाग्य से, डरने लगा हूँ... ऐसा क्यों है? क्या तुम इस पहेली को मेरे लिए हल कर सकते हो?"
"सचमुच यह एक विकट पहेली है।" लेझ़नेव ने दोहराते हुए कहा। "यही क्या, तुम ख़ुद भी मेरे लिए सदा एक पहेली रहे हो। युवावस्था तक में, उस समय जब तुम किसी ओछी बात से विक्षुब्ध होकर सहसा बोलना शुरू करते थे और मैं मुग्धभाव से तुम्हें देखता रहता था, और इसके बाद फिर वैसे ही... तुम तो सब जानते हो... उस समय भी मैं तुम्हें नहीं समझ पाता था और इसीलिए मैं तुम्हें नापसन्द करने लगा। तुम्हारी शक्तियाँ इतनी बड़ी हैं, आदर्श के लिए तुम्हारी लगन इतनी अडिग और अनथक है..."
"शब्द... निरे शब्द... अमल कुछ नहीं।" रूदिन बीच में ही बोल उठा।
"अमल? अमल के नाम पर उस समय हम कर भी क्या सकते थे...?"
"क्यों नहीं? हम काम कर सकते थे और किसी अन्धी वृद्धा तथा उसके समूचे परिवार का पालन कर सकते थे - वैसे ही जैसे कि, तुम्हें याद होगा, प्रयाझेन्त्सोव करता था। यही है वह जिसे कुछ करना कहा जा सकता है।"
"ठीक है, लेकिन शुभ शब्द भी तो एक कृत्य है।" रूदिन ने ख़ामोश नज़रों से लेझ़नेव की ओर देखा और धीरे से अपना सिर हिलाया। लेझ़नेव कुछ कहने जा रहा था, लेकिन रुक गया और चेहरे पर उसने हाथ फेरा। अन्त में पूछा:
"और अब - क्या तुम अपने गाँव जा रहे हो?"
"हाँ।"
"लेकिन क्या अब भी वहाँ तुम्हारी मिल्कियत है?"
"ओह, थोड़ा-सा हिस्सा बचा है। गिनती के दो-चार या ऐसे ही कुछ दास और मरने के लिए एक कोना। तुम शायद इस क्षण सोचते होगे कि सुन्दर शब्दों के प्रयोग से अब भी मैं बाज़ नहीं आता! सच पूछो तो इन शब्दों ने ही मुझे नष्ट किया है, और आज दिन तक मैं उनसे अपना पल्ला नहीं छुड़ा सका। लेकिन इस समय जो मैंने कहा, वह कोरा शब्द-जाल नहीं है। मेरे ये सफ़ेद बाल, चेहरे की ये झुर्रियाँ, ये चिन्दी-चिन्दी हुई कोहनियाँ - इन्हें क्या निरे शब्द कहा जा सकता है? तुमने हमेशा मुझे कड़ी, लेकिन सही नज़र से जाँचा है। वह सब अब - इस समय जबकि सब कुछ चुक गया है, जब कि दीये में तेल नहीं रहा और बत्ती की आखि़री लौ टिमटिमा रही है... मृत्यु, मेरे मित्र, सब उलझने सुलझा देगी..."
लेझ़नेव बैठा नहीं रह सका। अचकचाकर उठ खड़ा हुआ।
"रूदिन!" उसने चिल्लाकर कहा, "इतनी कड़वी बात तुम कैसे कह सके? क्या मैं इसी के योग्य हूँ? और मैं कैसा पारखी माना जाऊँगा, कैसा आदमी समझा जाऊँगा, अगर घँसे हुए गालों और झुर्रियों को देखकर ‘सुन्दर शब्दों’ की बात सोचने लगूँ? तुम अपने बारे में मेरी राय जानना चाहते हो? सुनो, मैं बताता हूँ। तुम्हारा चित्र मेरी आँखों के सामने है और मैं सोचता हूँ कि अपनी योग्यता के बल पर यह आदमी अगर चाहे तो सभी कुछ पा सकता है, दुनिया-भर की धन-सम्पदा का स्वामी बन सकता है। लेकिन वह चाहे तब न? उसे तो भूखों मरना पसन्द है, बेघरबार भटकना पसन्द है..."
"मुझे देखकर तुम्हें तरस आता है - क्यों?" रूदिन ने पूछा।
"नहीं, तुमने ग़लत समझा। मैं तुम पर तरस नहीं खाता, तुम्हारा आदर करता हूँ - और बस। वह क्या चीज़ थी जिसने तुम्हें साल-हा-साल उस ज़मींदार के पास टिकने नहीं दिया जो, मेरा निश्चित विश्वास है कि थोड़ी-सी लल्लो-चप्पो करने पर तुम्हें मज़े की ज़िन्दगी बिताने योग्य बना देता? हाई स्कूल में तुम्हारी पटरी क्यों नहीं बैठ सकी और क्यों, अजीब आदमी, तुम्हारी हर योजना ने जिसमें तुम जुटे - चाहे जिस नीयत से भी जुटे - तुम्हें नंगा-भूखा ही बनाया, अपने निजी हितों का ही तुमने बलिदान किया, और ग़ैर धरती में - चाहे वह कितनी ही ज़रखेज़ क्यों न रही हो - तुम बराबर जड़ें जमाने से इंकार करते रहे?"
"मेरे पाँव में सनीचर है, मित्र!" उदासी से मुस्कुराते हुए रूदिन ने कहा।
"भटकने के लिए ही मैंने जन्म लिया था।"
"माना, लेकिन इसका कारण यह नहीं है कि तुम्हारे भीतर कोई कीड़ा है - जैसा कि तुम ख़ुद कहते हो... कोई कीड़ा नहीं, काहिली में पनपने वाली बेचैनी की कोई भावना नहीं, बल्कि तुम्हारे हृदय में सत्य के प्रति अग्निमय पे्रम की लौ जल रही है, और उन लोगों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा तेज़ी से जल रही है जो अपने अहम् को नहीं देख पाते और तुम्हें शायद दुस्साहसी की संज्ञा देते हैं। अगर तुम्हारी जगह मैं होता तो अपने भीतर के उस कीड़े को बहुत पहले ही मैंने ख़त्म कर दिया होता और हर चीज़ से मैं समझौता कर लेता। लेकिन तुम हो कि तुम्हारे हृदय में इस सबके प्रति कड़वाहट तक ने सिर नहीं उभारा, और मेरा विश्वास है कि आज भी, युवकों जैसी तत्परता और उमंग से तुम फिर किसी नये काम का बीड़ा उठाते नज़र आ सकते हो।"
"नहीं मित्र, अब मैं थक गया हूँ," रूदिन बुदबुदाया। "बस, बहुत हो चुका।"
"थक गये हो! और कोई होता तो कभी का टें बोल गया होता। मृत्यु, तुम कहते हो, सभी उलझनों को सुलझा देगी। लेकिन यही बात क्या जीवन के लिए भी सच नहीं है? वह जो जीवित रहा है और जिसने अपने सहजीवियों के प्रति सहनशील होना नहीं सीखा है, ख़ुद भी सहनशीलता की आशा नहीं रख सकता। और कौन कह सकता है कि वह दूसरों की सहनशीलता को ताक़ पर रखकर चल सकता है? तुम जो कर सकते थे, तुमने किया। अन्त तक तुम जूझे और जूझते रहे. .. इसके सिवा तुम और क्या करते? हमारे रास्ते जुदा हुए और - "
"तुम, मेरे मित्र, सर्वथा भिन्न कैण्डे के आदमी हो," रूदिन ने एक गहरे निःश्वास के साथ बीच में ही टोका।
"हाँ, हमारे रास्ते जुदा हुए," लेझ़नेव कहता गया, "और यह शायद ठीक इसीलिए कि अपने वैभव, कुनकुने रक्त तथा अन्य भाग्यवान परिस्थितियों की बदौलत आराम से गोदी में हाथ रखे मैं दर्शक के आसन पर बैठ सकता था - कोई चीज़ ऐसी नहीं थी जो मुझे ऐसा करने से रोकती। इसके प्रतिकूल तुम्हें मैदान में उतरकर, अपनी आस्तीनें चढ़ाकर काम करना पड़ा। हमारे रास्ते जुदा हुए... लेकिन देखो न, हम दोनों एक-दूसरे के कितने निकट हैं। क़रीब-क़रीब समान भाषा का हम प्रयोग करते हैं, एक-दूसरे की बात को तुरन्त समझ लेते हैं, और एक-से आदर्शों को लेकर बड़े हुए हैं। पुराने चावलों में गिने-चुने ही अब हम बाक़ी बचे हैं; तुम और मैं ही तो पुराने जाँबाज़ों में से अब बचे रह गये! पुराने दिनों में हम मतभेद भी रखते थे और आपस में एक-दूसरे से टकरा तक जाते थे। तब समूचा जीवन हमारे सामने फैला हुआ था। लेकिन, अब जब कि हमारी पाँतें छीज रही हैं, और भिन्न आदर्शों से अनुप्राणित नयी पीढ़ियाँ हमें छोड़कर आगे बढ़ी जा रही हैं, हमें पहले से कहीं ज़्यादा मज़बूती से एक-दूसरे का हाथ पकड़ना चाहिए। आओ, पुराने साथी, हम गिलास खनकायें, और आओ, ख़ुशी मनायें, अपना वही पुराना तराना छेड़ें।"
दोनों मित्रों ने अपने गिलास खनकाये और गहरी भावुकता के साथ, बेसुरी आवाज़ तथा श्रेष्ठतम रूसी अन्दाज़ में, छात्रों का पुराना तराना गाया।
"तो अब तुम अपने गाँव जा रहे हो!" लेझ़नेव ने कहा। "लेकिन एक घड़ी के लिए भी मैं यह विश्वास नहीं कर सकता कि तुम अधिक दिनों तक वहाँ टिकोगे। साथ ही यह कल्पना करना भी मेरे बूते से बाहर है कि कहाँ और कैसे तुम्हारा अन्त होगा। लेकिन एक बात याद रखना। वह यह कि चाहे जो भी घटना तुम्हारे साथ घटे, तुम्हारे लिए एक जगह, एक घोंसला, मौजूद है जहाँ तुम शरण ले सकते हो। मेरा मतलब अपने घर से है... क्यों, सुन रहे हो न, पुराने साथी! ज्ञान के क्षेत्र में भी तो थके-हारे लोग होते हैं; उनके लिए भी तो कोई ठिकाना होना ही चाहिए।"
रूदिन उठकर खड़ा हो गया।
"धन्यवाद, मेरे पुराने मित्र, धन्यवाद!" उसने कहा। "तुम्हारी यह बात कभी नहीं भूलूँगा। कहना केवल इतना ही है कि मैं इस योग्य हूँ नहीं। ग़लत ढंग से मैंने अपने जीवन को व्यय किया, और ज्ञान की जितनी और जैसी सेवा मुझे करनी चाहिए थी, कर नहीं सका..."
"बस करो!" लेझ़नेव चिल्लाया। "प्रकृति जैसा जिसे बनाती है, वैसा ही रहता है वह। उससे अधिक की आशा नहीं की जा सकती। तुम अपने को घुमक्कड़ यहूदी कहा करते थे - क्या पता, तुम्हारे भाग्य में अन्तहीन घूमना ही बदा हो, और शायद तुम अनजाने में किसी दैवी उद्देश्य को पूरा कर रहे हो। बडे़ बूढ़ों का यह कहना बेकार ही नहीं है कि हम सब ख़ुदा की हाथों में हैं। लेकिन यह क्या - जा रहे हो तुम?" रूदिन को अपना टोप उठाते देखकर लेझ़नेव ने पूछा। "क्या आज की रात भी यहाँ नहीं बिताओगे?"
"नहीं, मैं जा रहा हूँ। अच्छा तो अब विदा दो, मित्र, तुम्हें बहुत-बहुत धन्यवाद। मेरा अन्त बुरा होगा, यह मैं साफ़ देख रहा हूँ।"
"ख़ुदा के सिवा यह और कोई नहीं जानता। लेकिन तुम इसी समय, अभी, जाने पर तुले हो?"
"हाँ। अब विदा दो। प्यार से याद करना मेरी।"
"अच्छी बात है। तुम भी मुझे भूलना नहीं, स्नेह देना... और मैंने जो कहा, वह याद रखना।"
दोनों मित्र एक-दूसरे से गले मिले। रूदिन तेज़ी से बाहर चला गया।
लेझ़नेव, बड़ी देर तक डगों से कमरे को नापता रहा, इसके बाद खिड़की के पास खड़ा हो गया, विचारों की गहराइयों में डूबा हुआ, और बुदबुदाया:
"बेचारा...!"
इसके बाद वह मेज़ पर आकर बैठ गया और अपनी पत्नी को पत्र लिखने लगा।
बाहर हवा तेज़ हो आयी थी, बुरी तरह चीख़ और सनसना रही थी, और खड़खड़ाती हुई खिड़कियों पर थपेडे़ मार रही थी। जाड़ों की काटे न कटने वाली रात गहरी हो रही थी। भाग्यवान हैं वे जिनके पास ऐसी रातों में सिर छिपाने के लिए उनके घरों की छत या कोई गरम कोना मौजूद हैं... और ख़ुदा मदद करे उनकी जो बेघरबार ख़ानाबदोशी का जीवन बिताते हैं!
पेरिस में छब्बीस जून सन् 1842 को दोपहर के समय, जबकि दमघोंट गरमी पड़ रही थी और ‘राष्ट्रीय वर्कशापों’ के विद्रोह के दमन का कार्य अपने आखि़री दौर में था, पैदल सेना की एक नियमित टुकड़ी फ़ौबूर सेन्तान्त्वान (सन्त आन्त्वान के पड़ोस) की तंग गली की बैरीकेड पर आक्रमण कर रही थी। तोप के कुछ गोले बैरीकेड को पहले ही तोड़ चुके थे; उसके बचे-खुचे रक्षक उसे छोड़कर जा रहे थे, अपनी जान बचाकर निकल भागने के सिवा इस समय उनके दिमाग़ में और कुछ नहीं था। सहसा बैरीकेड की एकदम चोटी पर, एक उलटी हुई बस के तोड़े-मरोड़े ढाँचे के ऊपर, लम्बे क़द का एक आदमी प्रकट हुआ। वह लाल गोट लगा एक पुराना चोग़ेदार कोट और अपने बिखरे हुए सफ़ेद बालों पर सींकों का टोप पहने था। उसके एक हाथ में लाल झण्डा था, और दूसरे में एक खुट्टल तलवार। तनी हुई तेज़ आवाज़ में जाने क्या चिल्लाता हुआ वह ऊपर, और ऊपर, चढ़ रहा था और अपने झण्डे तथा तलवार को फहरा रहा था। एक विनसेन्नी पैदल सैनिक ने उसकी सीध में निशाना साधा - और गोली दाग़ दी... लम्बे आदमी के हाथ से झण्डा छूट गया और वह बोरे की भाँति मुँह के बल इस तरह गिर पड़ा मानो किसी के चरणों पर लोटा जा रहा हो... गोली उसके हृदयस्थल को भेदकर पार हो गयी थी।
"त्येन!" (सुन रे!) बचकर भागता हुआ एक विद्रोही सैनिक दूसरे से कह रहा था, "ओं वियें द्यत्वी ल्य पोलोने!" (देख, उस पोल का वध कर डाला उनने!)
"बिग्र!" (जहन्नुम में जाये, हमें क्या पड़ी है!) दूसरे ने जवाब में कहा और दोनों एक घर के तहख़ाने में, जिसकी खिड़कियाँ बन्द थीं और दीवारें गोलियों और तोप के गोलों की मार से छलनी हो चुकी थीं, तेज़ी से घुस गये।
वह पोलोने (पोलैण्डवासी) दिमित्री रूदिन ही था!
(अनुवाद नरोत्तम नागर)