उपकार (पंजाबी कहानी) : महेंद्रसिंह जोशी

Upkar (Punjabi Story) : Mohinder Singh Joshi

अपने ही खून की पत्थर चीर देने वाली चीख सुनते ही एक काला-कलूटा मरियल-सा बूढ़ा, कच्ची कोठरी के बेकिवाड़ दरवाजे में से लड़खड़ाता हुआ लपका और उसके शगुन वाले लाल सालू में लिपटे कंधों से चिपट गया। जरी के कसीदे वाली नई जूती लड़की के हाथ से निकलकर उसके मेहंदी रंगे पैरों के पास गिर पड़ी और उसकी बाँहें बाप की टेढ़ी-मेढ़ी उभरी नसों वाली सूखी गर्दन से लिपट गईं। फिर न तो पिता के अस्थि पिंजर को झुलसाती धूप का सेंक लगा और न बेटी के छाले भरे तलवे जलती हुई रेत से उकताए। देर तक कुछ पूछे-बताए बिना फूट-फूटकर वे दोनों रोते रहे। यह घटना उस छोटे-से गाँव ‘फत्ता जलहर' की है, जहाँ खाने वाले मुँह अधिक थे और कमाने वाले हाथ कम। लोगों ने जुताई कर ली, मचानें साफ की, मुँडेरे बाँध लीं, परंतु धरती की भूख में कमी न आई, ऊपर से सेम आ गई, मौत की काली परछाई की भाँति सरकती हुई। धरती पिटी और हड़बड़ाई हुई, वात्सल्य में चाँदी की बजाय रैही को जन्म देने लगी। खेत जिस जल की ईद के चाँद की भाँति प्रतीक्षा किया करते थे, वही पानी उनकी छाती पर नाग की भाँति कुंडली मारकर बैठ गया। भरपूर फसलों का स्थान दो दैत्यों ने रोक लिया-लोहे की उलझी तारों जैसी अड़ियल घास और हल के फल जैसे पत्तों वाली निर्दयी बूटी। बेलों के सींग झुलस गए, थोथे पिंजर से रह गए। छोटे-छोटे किसानों के छोटे-छोटे खेतों ने मिलकर बड़े-बड़े तालाबों का रूप धारण कर लिया और वे मेजर साहब के लिए मुर्गाबियों के शिकार के अतिरिक्त किसी काम के न रहे।

हर एक अपने कुनबे को जीता रखने के योग्य अन्न पैदा करने के लिए गाँव के बड़े सरदार की ओर देखता था और जीवन कहार का तो कहना ही क्या, जिसके पास अपना 'बिल' भी न था। जिन गाय-भैंसों का वह चराने वाला था, वे भूख से सूख-सूखकर मर गईं या फिर अस्थि-पिंजरों की कीमत पर व्यापारियों के खूँटों से बँध गई थीं। किसानों के लट्ठ जैसे अपने पूत बेकार बैठे अंगड़ाइयाँ लेते थे। जीवन को बटाई पर कौन रखता? जिंदगी-मौत के धुंधलके में युगों जैसे कई असीम वर्षों तक भूख अपनी तुन्द चोंच से उसकी आँतों को खाती रही। अंत में गाँव से दूर धरती का एक टुकड़ा देकर मेजर साहब ने उसको आश्रय दिया, और जब कुछ समय पश्चात चार एकड़ धरती जोतने के लिए कह दिया, तो उसने अपनी जवान बेटी उनके घर काम-काज करने के लिए भेजने में एक बार भी चूं-चराँ न की। जीवन को अपनी बेटी पर बहुत गर्व था। “तीतर-मोर लिखती है मेरी कैलो"-यह अक्सर कहा करता और उसे विश्वास था कि जब लडकी सुख देने लगी, तो सरदार मेजर उसके लिए जमीन और बढ़ा देगा।

कैलो का रंग अपने कुल से अलग न था-काला। पर नख-शिख खूब थे। मोटे होंठ, चपटी नाक, चौड़े-औंधे कान, बंद-सी आँखें. नाना-दादा के इस सब कुछ से वह बह रही थी। कैलो, कैल (कोंपल) थी, बेरी की लम्बी और सुडौल-नरमा कपास की नई पत्तियों-जैसी कोमल-कोमल, निखरी उजली ! तिल के तेल की धार-जैसी कोमल, गम्भीर, मूक । पकी हुई मक्का जैसी जवानी थी उसकी।-मीठी-मीठी सहमी-सहमी। जब पानी का घड़ा लेकर वह गाँव से निकलती, लड़कों के हाथ में पकड़े सूत की फिरकियाँ घूमने से रुक जातीं, बारह-गीटी के कंकर वहीं पड़े रह जाते, हुकम के पत्तों पर पान, और ईंट के पत्तों पर चिड़िया गिरने लगतीं।..."

जैसे सफलता लेकर वह मेजर साहब के पास गई हो-कुछ ही दिनों में कैलो ने सब के मन मोह लिए। थक कर चूर होने के लिए वहाँ चूल्हे-चौके के बिना भी बहुत कुछ था। (घर के पाँच छोटे-बड़े लाडले बच्चे काम ही तो पैदा करने के लिए थे।) मैले कपड़े, गंदे फर्श, जूठे बरतन, बिखरी हुई वस्तुएँ...और तो और...सरदार के अपने छोटे-छोटे काम ही समाप्त न होते थे। कभी शीशा लाओ, कभी पान बनाओ, कभी व्हिस्की पकड़ा दो और कभी बिस्तर लगाओ और वह हर समय लगी ही रहती, बे-शिकायत, बे-शिकवा'। झिड़कियाँ मिलतीं गालियाँ भी। वह ऊँचा साँस न लेती, आँसू न गिराती। जब प्रातःकाल वह सरदारनी की चाय बनाने के लिए उठती, तो सब सो रहे होते, और जब रात को सरदार अपने लिए दूध का लोटा माँगता तो सारा गाँव सो चुका होता। जैसे-जैसे महीने गुजरते गए उसका सलोना रंग सूखते हुए खून के साथ फीका पड़ गया, और नमक की तरह घुलते हुए उसके गुथे हुए अंग सूक्ष्मता की ओर ढलते गए। जीवन सरदार यहाँ के फसल का हिस्सा डालने गया, तो वह उसे नज़र आ गई...हारी हिरासी...जैसे कोई निरीह कपिला कसाई के खूटे से बँधी हो।...'हाय रे बापू' की आवाज़ उसके कंठ से निकलने से पहले ही हिचकियों में बदल गई। भयभीत हुए जीवन की टाँगें काँपने लगी, भरी धुंधलाई आँखों से वह आगे बढ़ा। कैलो बाँहें पसारे दौड़ती हुई सीढ़ियाँ उतर गई। इतने में मेजर साहब न जाने कौन-सी दीवार से निकल आए। कैलो के पैर शिला-पत्थर से होकर रह गए। मेजर साहब ने जीवन का कंधा थपथपाते हुए कहा-“लौंडिया की चिंता मत करना जीवन राम...इसे तो सरदारनी ने धरम की बिटिया बना लिया है।"

जीवन अकेला था, जिसने अपनी उमर खा ली हो। बेटी के सहायक हाथों के बगैर खेत उसके बस के बाहर था। कड़कती झुलसती धूप में कैलो ने कमर से ऊँची कपास में से घास-फूस साफ किया था। सर्दी की बर्फीली रातों में पानी काट-काटकर सिंचाई की थी। कठोर खुरपे की टक्करें जीवन की छाती में लगती थीं। बर्फीले जल में उसका शरीर घुल-घुलकर बहता था। जला-भुना तो वह बहुत, पर कुछ न कर सका जैसे भूख ने उसके ढल चुके शरीर से इतनी-सी हार तो मनवा ही ली थी। परंतु अब बेटी के भाग्य का सितारा चमक उठा था। जो हवा बेटी की ओर से आती उसमें शहतूत के हरे पत्तों की ठंडक थी, और नीम के ताज़ा बूर की सुगंध।...जीवन में वह पहली बार चुपड़ी हुई खा रही थी, और झाड़कर पहन रही थी। अमीरी ने हाथ पकड़ा था, और अब उसकी नाव किसी अच्छे घाट पर लगने वाली थी। सुख में रह रही बेटी की ओर ध्यान जाते ही जीवन को वे दुःख-क्लेश प्यारे लगते, जो कैलो के जाने पर उसके पल्ले पड़ गये थे और उसकी आँखें किसी अनुपम भावुकता से सजल हो जातीं।

दिन-दिन करके साल व्यतीत हो गया। जीवन का साँस फूलता गया, उसकी शक्ति कम होती गई। उसके सूजे हुए घुटने-टखने आँच की भाँति चमकने लगे। उसके जोड़ों की पीड़ा शूलों जैसी तीव्र हो गई-जैसे त्वचा हड्डियों को छोड़ गई हो। उसकी आत्मा भी शरीर से पृथक् होने को तत्पर थी। बस दिल में एक आशा लिए वह जी रहा था-...कहीं मेरी आँखों के सामने ही बेटी का काज हो जाय।...'

जब मेजर साहब ने एक दिन कह दिया कि निर्जला एकादशी को कैलो की बारात आयेगी तो उसकी यह इच्छा भी पूरी होने को आई। सरदार के बोल घुटे-घुटे, बोझ से दबे हए से थे। 'यह क्या धन है बेटी का भी'-जीवन ने सोचा। 'न रखी जाय, न भेजने में चैन।"...मेजर साहब ने दूसरे की ओखली में सिर दिया था और अब होश भूली हुई थी। ब्याह तो पूरा झंझट होता है और फिर लड़की का।...जीवन के 'अच्छा जी' में आँसूओं का मौन था। मेजर साहब के कहने से वह जैसे हल्का-सा हो गया हो-जैसे किसी ने उसे धरती से उठाकर चाँद पर रख दिया हो।

कैलो का काज क्या हुआ बस कमाल हो गया। कहारों की बारात का कोठी में आगमन हुआ। निवार बुने पलंगों पर धोबी से धुली चादरें और तकियों वाले बिस्तर।...पानी के प्यासों को बरफ वाले दूध।...मेज़ों पर मुर्गे की प्लेटें।...सोडे में व्हिस्की।...घर-घर चर्चा हुई। 'सरदार ने धर्म का एक ही काम किया है।'...

डोली वाले रथ के अभी चिह्न भी सड़क से न मिटे थे, जब कैलो उल्टे पाँव गाँव लौट आई। ससुराल उसे बसाने के लिए तैयार न थी-उस कई महीनों की गर्भवती को।...

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