उपहार : नागा लोक-कथा

Uphar : Naga Folktale

बहुत पुरानी बात है। जीलिआँग गाँव में एक लड़का रहता था। अभी वह छोटा ही था कि माता-पिता की मृत्यु हो गई । बालक के चाचा उसे अपने घर ले आए। बालक वहाँ बड़ा होने लगा। अपने परिश्रम और अच्छे स्वभाव के कारण चाचा तो उसे बहुत प्यार करते थे, परंतु उसको मिलने वाले प्यार-दुलार के कारण चाचा की बेटी मन-ही-मन उससे ईर्ष्या करने लगी। समय अपनी गति से चलता रहा। घर की आर्थिक स्थिति धीरे-धीरे बिगड़ गई। कोई और चारा न देख उस लड़के ने अपने मित्रों से बात की तो मित्रों ने अनाज और अन्य साधनों से उसकी सहायता की। बालक के संपन्न मित्र कठिनाई पड़ने पर उसकी सहायता करते रहते थे। परिस्थितियाँ ऐसी बनी, धोरे-धीरे उनके परिवारों का कर्ज बढ़ता रहा।

मित्रों के परिवारों से लिया कर्ज उस बालक को व्यथित करता था। एक दिन उस बालक ने अपने चाचा से बात की और कर्ज चुकाने के लिए क्या किया जाए, इसके संबंध में विचार-विमर्श किया। चाचा अपनी अस्वस्थता को घर के बुरे समय के लिए कारण मानते थे, इस कारण बालक की चिंता से बहुत परेशान हुए। बालक ने उनको सांत्वना दी और समझाया, “परिवार पर जब कष्ट आता है तो उसे दूर करने की जिम्मेदारी घर के हर सदस्य की होती है। अब चाचाजी मैं तो आपके अतिरिक्त किसी को अपना पिता नहीं मानता। अगर आप मुझे अपना मानते हैं तो अपने इस बेटे को बताइए कि मैं क्या करूँ कि घर की स्थिति सुधर जाए।'' बालक की बात सुनकर चाचा भावविह्वल हो उठे और उसके सिर पर हाथ फेरकर बोले कि अगर ज्वार की खेती करना संभव हो तो एक ही बार में कर्ज का बड़ा हिस्सा चुका सकते हैं। बालक ने चाचा से ज्वार की अच्छी फसल पाने के उपाय पूछे और भरपूर फसल उगाने का दृढ़ निश्चय कर काम में जुट गया।

उस दिन से उसका अधिकांश समय खेतों में ही व्यतीत होता था। ठंड-धूप, आँधी-पानी, रात-दिन किसी की भी परवाह नहीं थी उसे । वह तो बस पूरी मेहनत करने में जुटा रहता था, ताकि खेतों से जब वह ज्वार की फसल घर लाए तो अनाज का गोदाम इस तरह भर जाए कि चाचा अपने सारे कष्ट भूल जाएँ और सारा कर्ज चुकता हो जाए।

कितना समय बीत गया, इसका पता उस बालक को तब चला जब उसके खेतों में ज्वार की फसल पककर तैयार हो गई। खेतों में जहाँ तक दृष्टि जाती थी, पकी फसल का सुनहरी रंग दिखाई देता था। पूरे गाँव में किसी के भी खेतों में ऐसी फसल नहीं थी। चाचा भी अपने बच्चे के परिश्रम की प्रशंसा सुनकर गर्व से भर उठता था। पकी फसल खेतों में अधिक समय तक नहीं रखी जा सकती। आँधी- पानी के साथ-साथ जंगली जानवरों द्वारा भी फसल नष्ट होने का खतरा था, परंतु अकेले सारा अनाज काटकर खलिहानों तक लाना। कोठार में अन्न- भंडारण कर पाना बालक के लिए अत्यंत कठिन कार्य था। गाँव में सब अपने-अपने कार्य में जुटे थे, यूँ भी इनके खेतों में उपजे अनाज को देखकर सभी में ईर्ष्या का कुछ न कुछ अंश तो दिखाई दे रहा था, इसलिए बहुत आग्रह करने पर भी सबने “बाद में देखेंगे, अभी अपना काम तो कर लें। हमारे तो खेतों में काम यूँ भी कम है, तुम्हारे लिए तो बहुत समय चाहिए,'' कहकर लगभग न में उत्तर दे ही दिया। निरुपाय होकर उसने अपनी चचेरी बहन से खेतों में चलकर सहायता करने के लिए कहा। बहन ने निरादरपूर्ण स्वर में मना कर दिया और अपने संपन्न मित्रों को ही सहायता के लिए बुलाने और स्वयं से किसी भी प्रकार की सहायता की अपेक्षा न रखने को कहा। बहन के कलहप्रिय स्वभाव को वह जानता था, इसलिए उसने चुपचाप सिर झुकाया और “जी अच्छा,” कहकर मित्रों को बुलाने चला गया।

उसके 'जी अच्छा' में बहन को उस लड़के के घमंडी होने का आभास लगा। वास्तव में हर व्यक्ति अपने स्वभाव और दूसरों के प्रति अपनी धारणा के अनुसार ही अपने आसपास के लोगों के व्यवहार, उनके कथन का अर्थ लगाता है, इसीलिए तो हर कहे गए शब्द का सुनने वाले के लिए कई बार अलग ही अर्थ होता है। खेतों में लहलहाते फसल को अपने अनाज भंडार में लाकर लोगों के ऋण से मुक्त होकर एक अच्छा जीवन जीने का सपना देखने वाले उस लड़के ने मन-ही-मन नाप-तौलकर जान लिया था कि उसकी बहन कितनी भी विवाद-प्रिय हो, पर उसने ठीक ही कहा कि मित्रों की सहायता लेकर काम को निपटाए, क्योंकि हम दोनों भाई-बहन मिलकर फसल काटेंगे और अन्न-भंडार में रखेंगे तो लगभग बीस-पच्चीस दिन लग जाएँगे, शायद अधिक भी लग जाएँ, परंतु हम पाँचों मित्रों को दस दिन से अधिक समय नहीं लगेगा। हाँ, सभी मित्रों तक पहुँचकर उनको बुलाने में अवश्य चार-पाँच दिन लग जाएँगे।

गाँव वापस पहुँचने में उसे चार दिन लगे, मगर वह प्रसन्‍न था, क्योंकि सभी मित्र खेतों में काम करने वाले अपने कुशल कार्यकर्ताओं को भी साथ ले आए थे। वह जानता था अब तो पूरे कार्य में सप्ताह भी नहीं लगेगा। अत्यंत प्रसन्‍न मन से वह सीधा अपने खेतों की ओर गया, क्योंकि उसके मित्र भी उसके परिश्रम का परिणाम अपनी आँखों से देखना चाहते थे और अनाज भंडारण का काम भी जल्दी प्रारंभ करना चाहते थे। वह लगभग दौड़ता हुआ अपने खेतों की ओर गया, परंतु खेतों के निकट पहुँचकर जोर से चीख मार फूट-फूटकर रोते हुए वहाँ बैठ गया। साथ आए सभी लोग भयमिश्रित आश्चर्य से जैसे जड़ हो गए। सभी की हँसी, सभी की प्रसन्‍तता एक भयानक सन्‍नाटे में बदल गई थी, क्योंकि सामने लहलहाते अनाज की सुंदर बालें नहीं थीं, वहाँ सब ओर फैली थी जली हुई फसल की राख। लड़के के रोने का स्वर धीरे-धीरे मौन हो गया, वह स्तब्ध सा फटी-फटी आँखों से खेतों को देखते हुए राख को मुट्ठी में उठाकर अधजले दानों को अलग करने लगा। मित्रों ने उसे उठाया। सभी पास की चट्टान पर बैठे ही थे कि कुछ गाँव वाले उनके पास आकर बोले, “बेटा! तुम्हारे रोने की आवाज सुनकर हम इथर आए हैं। जो होना था सो हो गया, अब हिम्मत रखनी होगी तुमको, क्योंकि उस ईश्वर ने जाने तुम्हारे भाग्य में क्या लिखा है। कैसे रात-दिन एक कर दिया था तुमने, इन खेतों में नए प्राण भरकर पूरे गाँव में सबसे अच्छी फसल उगाई थी तुमने, पर इस आग ने सबकुछ भस्म कर दिया।"

मित्रों ने सहानुभूति प्रकट करते हुए अपने साथी को समझाया कि प्रकृति की शक्तियों के आगे हम सब बेबस हैं, इसलिए अब धीरज रखने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है। उनकी इस बात को सुनकर गाँव का एक नवयुवक बोल पड़ा कि प्रकृति की शक्तियों के आगे हम जितने बेबस होते हैं, उतने ही बेबस दुष्ट स्वभाव के लोगों के आगे भी हो जाते हैं मेरे भाई। 'दुष्ट स्वभाव के लोगों' के बारे में पूछने पर पता चला कि आग का कारण उसके चाचा की लड़की उसकी अपनी चचेरी बहन थी। पिता द्वारा चचेरे भाई को प्रतिदिन की जाने वाली प्रशंसा ने उसे इतना ईर्ष्यालु बना दिया कि क्रोध के उन्माद में उसने खड़ी लहलहाती फसल को आग लगा दी। बहन के इस दुष्कृत्य ने उसे स्तब्ध कर दिया। मर्मांतक पीड़ा के प्रभाव ने जैसे उसकी विचार-शक्ति को, उसे चेतनाशुन्य कर दिया। रात के गहरे अंधकार में अचानक वह जागा और सबको सोता छोड़ बिना कुछ कहे चल पड़ा। उसे सुख-दु:ख, थकान, भूख-प्यास किसी का आभास ही नहीं था। वह चल रहा था। कहाँ जाना है? क्या करना है ? कोई भी विचार उसके मन में नहीं था। बस वह तो चलता जा रहा था| चलते-चलते नागालैंड की ऊँची चोटी जापफू की पर्वत श्रेणियों को पार कर अपने गाँव से बहुत दूर निकल गया।

जापफू पर्वत शृंखलाओं के इस पार किगवेमा गाँव में दो मित्र रहते थे-- पफुखा और सीखा। दोनों मित्रों में पफुखा के दो पुत्र और एक पुत्री थी। सीखा के अपनी कोई संतान नहीं थी, वह और उसकी पत्नी पफुखा के बच्चों को ही अपनी संतान मानते थे। दोनों मित्र प्रत्येक कार्य में एक दूसरे का हाथ बँटाते थे, सुख दुःख में एक-दूसरे का साथ देते थे। पफूखा और सीखा लकड़ी काटने के लिए जंगल में गए तो बातें करते हुए घने पेड़ों के बीच पहुँच गए। वहाँ दोनों मित्रों ने खाना खाया, फिर थोड़ी देर सुस्ताने के बाद दुबारा लकड़ी काटने में जुट गए। लकड़ी काटते-काटते उन्होंने सुना, कोई बहुत ही सुरीले स्वर में दर्द भरा गीत गा रहा है। घने जंगल में गीत के मीठे उदास स्वरों ने उन्हें बाँध सा दिया था। दोनों मित्रों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा, फिर मौन-स्वीकृति ले अपने-अपने काम को वहाँ रोक उस सुरीली आवाज की ओर चल पड़े। लकड़ी काटने की 'ठक- ठक' की ध्वनि के रुकते ही गीत के स्वर भी घने जंगल में गुम हो गए। दोनों मित्रों ने आसपास बहुत खोजा पर कहीं भी कोई नहीं मिला । शाम हो गई थी, दोनों मित्र जंगल से वापस लौट आए।

उस दिन के बाद वे दोनों मित्र जंगल के उसी भाग में लकड़ी काटने जाते, रोज उन्हें दर्द भरे सुरीले स्वर सुनाई देते, परंतु आवाज के स्रोत को वे नहीं खोज पाते थे, क्योंकि बड़ा अजीब सा संयोग था कि जब तक वे दोनों लकड़ी काटते रहते गीत के स्वर भी पूरे जंगल में गूँजते, परंतु कार्य रुकते ही वे स्वर भी लुप्त हो जाते। लगभग चार दिन इसी तरह बीत गए। पाँचवें दिन दोनों मित्रों ने आपस में सलाह की। उस दिन एक मित्र ने लकड़ियाँ काटना प्रारंभ किया, जब सुरीले गीत के स्वर वातावरण में गूँजने लगे, तब दूसरा मित्र चुपचाप उस गीत के गायक को खोजने निकल पड़ा । आखिरकार वह उस बड़े पेड़ के नीचे आकर खड़ा हुआ, उसने ऊपर देखा तो वहाँ एक किशोर बालक आँखें बंद किए पूरी तन्‍मयता से गाने में मगन था। 'बेटा नीचे आओ' कहते ही वह गीत रोककर चुपचाप नीचे आ गया। यह वही जीनिआँग गाँव का परिश्रमी बालक था जो अपने साथ घटी घटनाओं के कारण चेतनाशून्य सा हो गया था।

अपने सामने बड़ी आयु के व्यक्ति को देखकर किशोर अपने स्वभाव के अनुसार सिर झुकाकर आज्ञा का पालन कर रहा था, पर उसकी स्मृतियों में अब केवल अपने माता-पिता की यादें ही उभर रही थीं। वे यादें जिनको किशोर होते- होते कहीं पीछे छोड़ आया था। जंगल में प्रकृति की इस गोद में उसे अपने बचपन के वे आनंद भरे, स्वतंत्र, निश्चिंतता भरे दिन फिर से याद आ गए थे। पफुखा और सीखा ने उसे प्यार से पूछा कि वह कौन है? यहाँ कहाँ से आया है ? परंतु जिन प्रश्नों का उत्तर उसे स्वयं ही नहीं मालूम, उनका उत्तर वह क्या देता। दोनों मित्रों ने उसकी यह अवस्था देखी तो उसके अनमने भाव को बालक के मन का भय मानकर फिर कोई प्रश्न नहीं किया। जंगल से गाँव तक का मार्ग उन्होंने मार्ग के फूल, पौधे, पेड़ों की बातें करते बिताया। दोनों मित्रों ने निर्णय लिया कि वे उसे अपने घर ले जाएँगे। सीखा ने उसे अपना पुत्र बनाने की बात मन में रखते हुए कहा, “यह प्यारा बच्चा हम दोनों में से जिसे भी पिता कहेगा, उसी का पुत्र कहलाएगा ।” किगवेमा गाँव की सीमा तक आते-आते बालक चुपचाप सिर झुकाए चलता रहा, पर जैसे ही गाँव के घर दिखाई दिए, वह पूरी शक्ति लगाकर चिल्लाया “पिताजी" और पफुखा के घर की ओर दौड़ पड़ा। घर पहुँचकर उसने घर के सभी सदस्यों, पफुखा की पत्नी और तीनों बच्चों को देखा और फिर चुप हो गया। पफुखा और सीखा दोनों मित्रों के परिवार के सभी सदस्य उस किशोर की प्रसनता का पूरा ध्यान रखते थे। वह भी धीरे-धीरे घर के कामों में हाथ बँटाने लगा था, परंतु न तो हँसता न ही कुछ बोलता था।

दोनों मित्रों ने अगर जंगल में उसका मधुर गीत न सुना होता तो उसे गूँगा ही समझते, पर वे दोनों जानते थे कि बालक बोल सकता है। घर की स्त्रियों के प्रति उसका व्यवहार, विशेषतः पफुखा की बेटी के प्रति जैसा भयमिश्रित था, उससे पफुखा को अनुमान हो गया था कि इस बालक के साथ कुछ ऐसा घटा है, जिसका आघात इसके बाल मन के लिए असहनीय था, अतः इसे सहज होने में समय लगेगा। दोनों मित्र बच्चों के लिए खिलौने, खाने की चीजें, नए वस्त्र लाते तो इसे भी देते । बच्चों में से कोई अगर इस बालक की चीजें छीन लेता तो ये किसी को कुछ नहीं कहता था, न लड़ता-झगड़ता, न रोता, न रोष प्रकट करता, न ही शिकायत कहता। इस सबको देखकर पफुखा की बेटी अपने भाइयों के व्यवहार के लिए उनको डॉँटती और इस बालक की वस्तुएँ सँभालकर उसको वापस लौटाने को कहती। इसी प्रकार कई महीने व्यतीत हो गए। बालक का स्वभाव बदलने लगा था, उसकी आँखों और चेहरे से भय का असमंजस का भाव मिटने लगा था, परंतु बोलता वह अब भी नहीं था। घर के बच्चों और स्त्रियों के प्रति वह विनम्र हो गया था, पर लाख प्रयत्न करने पर भी किसी के प्रश्न का उत्तर नहीं देता था। घर के सभी लोग उसकी आवाज सुनने के लिए कई प्रकार के प्रयत्न करते थे, पर अंततः निराशा ही हाथ आती थी।

एक दिन जब पफुखा और सीखा गाँव की हाट से लौटे तो अपने घर पहुँचकर पफुका चुपचाप जाकर आँगन में बैठ गया। बच्चे उसे इस तरह चुपचाप बैठे देखकर आश्चर्यचकित हो गए, क्योंकि हर बार जब पफुखा हाट से लौटता था तो घर के द्वार पर पहुँचकर ही आवाज लगाता था कि आओ सब दौड़कर आओ, देखो हाट से मैं क्या लाया हूँ तुम्हारे लिए। पर आज सामान तो लाए हैं, परंतु बोल नहीं रहे । शायद कुछ बुरा, कोई दुर्घटना तो नहीं घटी। इस सोच ने सभी को परेशान कर दिया। पफुखा की पत्नी जलपान लेकर पति के पास गई तो चारों बच्चे भी डरते-डरते उसके पीछे पीछे आँगन में आ गए। पफुखा ने जलपान किया और पत्नी से बोला, “मैं हर बार हाट से अपने चारों बच्चों के लिए चुन-चुनकर उनकी मनपसंद चीजें लाता हूँ और ये सब लेकर अपनी दुनिया में मगन हो जाते हैं, मुझे इतना बोझा ढोने, इतना थकने के बाद क्या मिलता है। कुछ भी नहीं, इसलिए मैंने निर्णय किया है कि मेरे बच्चों में जो भी यह कहेगा कि आप हमारे लिए क्‍या लाए? मैं उसे ही उसको मनपसंद वस्तु दूँगा, पर अंत में उसे यह भी कहना होगा कि “पिताजी, आपका ये उपहार पूरी दुनिया का सबसे प्यारा उपहार है।" पत्नी ने भी पति की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, “आप बिलकुल ठीक कहते हैं, चलो बच्चो, अपने पिताजी की बात आपने सुन ली, अब अपना काम करो।"

माँ की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि उनकी बेटी दौड़कर पिता के गले से लिपटकर बोली, “पिताजी, आप दुनिया के सबसे अच्छे पिता हैं और आपके लाए हुए उपहार दुनिया के सबसे अच्छे उपहार हैं।” पिता ने बेटी के माथे को चूमकर उपहार में खिलौने और फल दिए। इससे पहले कि पफुखा के दोनों बेटे आगे आते, वह किशोर दौड़कर पफुखा के गले से लिपटकर रोते हुए बोला, “पिताजी आप हमारे लिए क्या लाए हैं ?” पूरा घर उसकी आवाज सुनकर आनंद से भर गया, पूरे दस महीने बाद सबने उसकी आवाज सुनी थी। किशोर वहीं पफुखा और उसको पत्नी के पास बैठकर फफक-फफककर रो उठा, क्योंकि इस एक वाक्य 'पिताजी, आप हमारे लिए क्या लाए हैं' ने उसकी पुरानी स्मृतियाँ वापस लौटा दी थीं, उसे पफुखा और उसको पत्नी में अपने माता-पिता दिखाई दे रहे थे। पफुखा के परिवार के सभी सदस्यों ने उसे घेर लिया। माता-पिता और भाई-बहनों का प्यार पाकर वह गद्गद हो उठा और बोला, “माँ-पिताजी, आप तो सदा ही हम बच्चों को उपहार देते हैं। आज आपका ये बेटा भी आपको एक छोटा सा उपहार देना चाहता है। आप स्वीकार करेंगे क्या ?'' सभी एक स्वर में बोल उठे--''स्वीकार करेंगे।”

किशोर का सुरीला गीत पूरे घर में गूँजने लगा, अब उसके गीत में दर्द नहीं केवल आशा और विश्वास के स्वर थे। वह पूरी तन्‍मयता से गा रहा था, उस गीत में अपनों से मिलने का आनंद था, उल्लास था। गीत के स्वर सीखा के घर तक भी पहुँचे, सीखा ने उस स्वर की मिठास को पहचान लिया और अपनी पत्नी के साथ लगभग दौड़ता हुआ सा पफुखा के घर पहुँचा। वहाँ का दृश्य देखकर वे दोनों भी आनंदविभोर हो उठे।

जीनिआँग गाँव के उस किशोर के पास उसके बचपन की स्मृतियाँ लौट आई थीं। किसी भी दुष्कर्म की याद उसे नहीं थी। सारी बुरी यादें जापफू पर्वत शृंखलाओं के दूसरी ओर कहीं पीछे छूट चुकी थीं। अब वह किगवेमा में पफुखा परिवार का बेटा था। उसके गीतों की मिठास सबको आशा और विश्वास का संदेश देती थी और सीखा चाचा द्वारा सिखाई टोकरियों और डलिया बनाने की कुशलता उसकी कल्पनाओं के रंगों से रंगकर इतना अद्वितीय रूप ले लेती थीं कि घरों में उसकी बनाई टोकरियों का होना गौरव की बात समझी जाने लगी थी।

पफुखा और सीखा द्वारा एक अनजान बच्चे को स्नेह और अपनेपन के उपहार द्वारा नया जीवन मिला। ऐसा जीवन, जिसने दो परिवारों को ही नहीं, पूरे समाज को अपने गुणों की मधुर सुगंध के पावन उपहारों से भर दिया । पफुखा और सीखा के उस पुत्र की कथा आज भी नागा समाज के बड़े-बुजुर्ग प्रेम से सुनाते हैं ।

(स्वर्ण अनिल)

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