उन्माद की चिकित्सा (कहानी) : गुरुदत्त

Unmad Ki Chikitsa (Hindi Story) : Gurudutt

यह घटना वाराणसी की है। महात्मा परमानंद योगी के रूप में प्रख्यात थे। यह ख्याति कानोकान फैल रही थी। उनके विषय में यह कहा जा रहा था कि वह योगी हैं और सिद्धि प्राप्त किए हुए हैं।

वह व्याख्यान भी योग, ध्यान तथा तपस्या पर ही दिया करते थे। पवित्र गंगा के तट पर दशाश्वमेध घाट पर खड़े हुए वह अपने भक्तों को बताया करते थे कि एक योगी चाहे तो पृथ्वी को भी अपनी धुरी से उलट सकता है। वह चाहे तो आकाश में सूर्य को बाँध सकता है। इतनी बड़ी बात पर उनके भक्त विश्वास भी करते थे। ऐसा कहा जाता था कि स्वामीजी चकित कर देनेवाले चमत्कार कर चुके हैं। ख्याति इतनी अधिक थी कि नित्य के व्याख्यान के अनंतर सहस्रों की संख्या में नर-नारी, बाल-वृद्ध उनका आशीर्वाद लेने आ जाया करते थे। स्त्रियाँ अपने रुग्ण बच्चों के लिए स्वास्थ्य माँगने आती थीं। धनी-मानी दीर्घायु के लिए याचना करते थे और निर्धन धन-धान्य के लिए।

महात्माजी का जीवन-वृत्त तो वाराणसी भर में ज्ञात था। वे बिहार के एक संपन्न जमींदार के इकलौते पुत्र थे, नाम था अशोक। बहुत ही लाड़-प्यार में उनका लालन-पालन हुआ था। छोटी अवस्था में ही विवाह हो गया। पत्नी अभी पति के घर में नहीं आई थी कि अशोक ने एक तपसी बाबा की कथा सुनी। यह कहा जा रहा था कि वह इच्छानुसार आकाश में उड़ सकता है, भूमि के भीतर के रहस्यों को जान सकता है, जो कहता है, हो जाता है। इस कथा ने बालक अशोक के मन पर इतना प्रभाव जमाया कि वह तपसी बाबा के दर्शन की लालसा करने लगा और एक दिन उससे मिलकर योग और सिद्धि प्राप्त करने के लिए घर से निकल गया। पत्नी, धन-संपद्, वह समझता था, सिद्धि के पश्चात् तो उसके पाँव में लोट-पोट होने लगेंगी। उसके मन में बहुत बड़ी-बड़ी महत्त्वाकांक्षाएँ थीं और वह समझता था कि सिद्धि-प्राप्त करने पर वे सहज में ही पूरी हो जाएँगी।

तपसी बाबा तो मिले नहीं, परंतु अनेकानेक साधु हिमालय की कंदराओं में मिले और उन्होंने उसको आशीर्वाद दे दिया तथा योग का मार्ग बता दिया। वह स्थान-स्थान पर, जहाँ किसी सिद्ध का समाचार मिलता, जा पहुँचता और जो कुछ उससे मिलता, श्रद्धा तथा भक्ति से ग्रहण कर, उस पर अभ्यास करने लगता।

वर्ष-पर-वर्ष व्यतीत होते गए और अशोक, जो तब तक महात्मा परमानंद बन चुका था, भारतभूमि के कोने-कोने में भ्रमण कर चुका था। उसने योग के विषय में कुछ सीखा भी था, कुछ कहीं से, कुछ कहीं से और अभ्यास भी किया था। वह समाधिस्थ हो जाने की प्रक्रिया का अभ्यास करने लगा था। इस पर भी उस अवस्था से कहीं दूर था, जिसकी आकांक्षा लेकर घर से निकला था।

अब उसे निराशा और अरुचि होने लगी। वह जीवन व्यर्थ गया समझने लगा था। जितनी आशा से वह घर से निकला था, उसके अनुमान में निराशा ही हुई थी। एक दिन वह उत्तरकाशी में गंगा के तट पर खिन्न मन एक पत्थर पर बैठा था और अपने पर्यटनों पर सोच रहा था और उस व्यर्थ गए जीवन पर पश्चात्ताप कर रहा था। वह अपने को अत्यंत क्लांत अनुभव कर रहा था।

इस समय वह पैंतीस वर्ष का युवक था, हट्टा-कट्टा, ब्रह्मचर्य के ओज से परिपूर्ण, परंतु निराशा से शिथिल। एकाएक उसको कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि उसके सामने कोई अति प्रकाशमान वस्तु गंगा के जल से निकल रही है। उस आलोक में से कुछ आकार बनता दिखाई देने लगा। धीरे-धीरे उसे उस प्रकाश-पुंज में शंख-चक्र, जटाधारी भगवान् विष्णु का आकार बनता दिखाई देने लगा। वह सतर्क हो भगवान् की मूर्ति पर मुग्ध इस सबकुछ का अर्थ समझने का यत्न करने लगा। भगवान् के सुंदर चित्ताकर्षक प्रकाशमय विग्रह पर वह अपने आपको भूल गया। उसका शोक और उसकी निराशा विलीन हो गई और वह आशान्वित भगवान् की ओर देखने लगा। प्रकाश इतना अधिक था कि आँखें खुलती नहीं थीं, परंतु वह अनुभव कर रहा कि सबकुछ देख रहा है। अपने को, गंगातट को, प्रकाशवान, परंतु वेग से बहती हुई गंगा की धारा को और उसके ऊपर खड़ी भगवान् की मूर्ति को। भगवान् उसके समीप पहुँचे और उसके सिर के ऊपर हाथ रखकर उसको आशीर्वाद देने लगे। भगवान् के होंठ फड़क नहीं रहे थे, परंतु वह सुन रहा था, भगवान् कह रहे थे, ‘‘जो चाहते थे, पा गए हो। तुम सिद्ध हो, योगी हो। संसार तुम्हारा है।’’

परमानंद इस आशीर्वाद से गद्गद हो गया और कृतज्ञता से भरा झुककर प्रणाम करने लगा। वह भूमि पर लुढ़क गया और अचेत होकर भूमि पर पड़ा रहा।

उसको चेतनता हुई। वह एक साधु के आश्रम में पड़ा था। सब उसको जीवित देख प्रसन्न थे और जब उसने देखनेवालों को बताया कि भगवान् के दर्शन और आशीर्वाद प्राप्त कर चुका है, तो सब मुसकराते हुए उसकी ओर देखने लगे।

वह अपने में अद्भुत शक्ति का संचार पाता था। उसने अपने शारीरिक बल की परीक्षा भी की। वे पत्थर, जिसको दस-दस मनुष्य भी कठिनाई से उलट सकते थे, वह थोड़े प्रयत्न से ही उठाने लगा था। उसमें वाचालता भी बढ़ गई थी। वह कई-कई दिन बिना सोए, बिना खाए-पीए निरंतर चलता दीख चुका था।

हरिद्वार में तो उसको यह भी समझ आया कि लोग उसको देखने, उसके चरण-स्पर्श करने और उसका आशीर्वाद प्राप्त करने पंक्तियाँ बाँध आने लगे हैं। स्वेच्छा से ही लोग उसकी सेवा-शुश्रूषा तथा उसके दर्शनों को आई भीड़ का प्रबंध करने के लिए एकत्र हो जाते थे।

वहाँ एक घटना घटी। कुछ लोग एक लड़के के मृत शव को श्मशान घाट लिये जा रहे थे। महात्मा गंगाघाट की ओर जा रहे थे। उनके भक्तजन उनके साथ थे। महात्माजी ने अरथी को देखा और एक भक्त की ओर देखकर कह दिया, ‘‘यह तो जीवित है। ये जीवित को ही जलाने के लिये जा रहे हैं।’’

भक्तों ने यह बात मृतक के संबंधियों को कही, तो वे सब किंकर्तव्यविमूढ़ की भाँति देखने लगे। अरथी रोक दी गई। डॉक्टर बुलाया गया और लड़का जीवित घोषित हो गया। इस समय तक महात्मा परमानंद तो घाट पर जा पहुँचे थे। लोग, जिसने सुना, भागे-भागे स्वामीजी के दर्शनों को आने लगे। लोगों ने, आशीर्वाद प्राप्त करनेवालों ने और अनेकानेक प्रश्न करनेवालों ने महात्माजी को इतना तंग कर दिया कि वे हरिद्वार छोड़ भाग खड़े हुए, परंतु उनकी ख्याति उनसे आगे-ही-आगे जा रही थी।

जब वे वाराणसी पहुँचे, वे सिद्ध योगी, ईश्वर तक पहुँचे हुए महात्मा प्रसिद्ध हो चुके थे। महात्मा परमानंद भी अब अपने को भगवान् के वर से युक्त एक असीम शक्ति का स्वामी समझने लगे थे। अब वह अपना आशीर्वाद अनायास ही देते रहते थे। किस-किसको उनका आशीर्वाद फलता था, कहना कठिन है, परंतु उनकी ख्याति उत्तरोत्तर बढ़ रही थी।

एक दिन स्वामीजी दशाश्वमेध घाट पर अपना प्रवचन देकर लौट रहे थे कि बाजार में दो साँड़ लड़ते दिखाई दिए। एक श्वेत रंग का था तथा दूसरा कृष्ण वर्ण का। दोनों के सींग परस्पर जुड़े हुए थे और वे एक-दूसरे को धकेल रहे थे। श्वेत साँड़ बलवान था और कृष्ण लगभग पीछे हट रहा था। एकाएक श्वेत साँड़ का पाँव फिसला। वह गिरा और कृष्ण ने उत्साहित हो, उस पर आक्रमण करने के लिए भाँ-भाँ की गर्जना की।

श्वेत साँड़ उठा और अपने बल पर विश्वास से भरा हुआ पुनः भिड़ जाने के लिए फूत्कारें मारने लगा।

इस समय स्वामीजी को एक चमत्कार दिखाने की सूझी। वे दोनों के बीच में खड़े हो गए और उच्च स्वर में कहने लगे, ‘‘अरे मूर्खो, बस करो। लड़ना ठीक नहीं। देखो, मैं कहता हूँ, शांत हो जाओ।’’

श्वेत और कृष्ण दोनों साँड़ों ने समझा कि यह कोई तीसरा साँड़ उनमें आ खड़ा हुआ है। दोनों ने सोचा कि यह उनसे दुर्बल है। दोनों अपना क्रोध निकालने के लिए उस पर पिल पड़े। एक क्षण के लिए तो स्वामीजी ने दोनों के सींग पकड़ उनको रोकने का यत्न किया, परंतु अगले क्षण श्वेत साँड़ ने महात्माजी को सींगों पर उठा और उनको घायल कर हवा में उछाल दिया।

महात्माजी घायल रक्त से लथपथ अचेतावस्था में अस्पताल में पहुँचा दिए गए। कई दिन के पश्चात् उनकी संज्ञा लौटी। उनकी दो पसलियाँ टूट गई थीं और पलस्तर लगा दिया गया था। उनको ठीक होने में दो मास लग गए।

पहले भक्तों को स्वामीजी तक जाने की स्वीकृति नहीं थी। स्वामीजी, जो अपनी शक्ति की सीमा देख चुके थे और जिनका अभिमान अपने सिद्धि-प्राप्त योगी होने का विलीन हो चुका था, लज्जित हो भक्तों को मुख दिखाने से इनकार करते थे।

एक दिन अस्पताल के डॉक्टर ने कह दिया, ‘‘महाराज, आपके भक्त दर्शनों के लिए एक बहुत बड़ी संख्या में बाहर खड़े हैं। अब तो आप सब प्रकार से स्वस्थ हैं। आप उनसे मिल सकते हैं।’’

महात्माजी ने क्षण भर विचार किया और तब कहा, ‘‘उनसे कहो, मैं बाहर ही आता हूँ।’’

डॉक्टर कहने गया, तो स्वामीजी ने अपना कमंडल तथा डोरी उठाई और अस्पताल के पिछवाड़े की ओर चल पड़े। नर्स और नौकरों ने समझा कि लघुशंकादि के लिए जा रहे हैं, परंतु वे गए और लापता हो गए।

दर्शनाभिलाषी खड़े-खड़े प्रतीक्षा में उकता रहे थे और महात्माजी बिहार, अपने पिता के गाँव की ओर जा रहे थे। उनका पागलपन जा चुका था और वह पंडित बालक की भाँति सुधर गए, अनुभव करने लगे थे।