अंकल को विश नहीं करोगे (कहानी) : प्रकाश मनु

Uncle Ko Wish Nahin Karoge (Hindi Story) : Prakash Manu

1

यह कहानी शुरू करने से पहले एक निवेदन कर दूँ। डॉक्टर की जो भी कल्पना आपके जेहन में है, पहले उसे अच्छी तरह झाड़ दें। और जो इस कहानी का खासमखास डॉक्टर है, यथासंभव उसी के आसपास रहें—यानी अपनी दिलचस्पी उसी तक महदूद रखें। क्योंकि इसके अलावा शायद ही दुनिया का कोई और डॉक्टर यहाँ चल सके, कम से कम मैंने तो देखा नहीं अपनी लंबी जिंदगी के ऊबडख़ाबड़ ग्राफ में।

यों जैसा कि आप आगे चलकर देखेंगे, किसी ऊबडख़ाबड़ ग्राफ से भी ज्यादा ऊबडख़ाबड़ है उस डॉक्टर का कैरेक्टर!...मगर वो डॉक्टर है ही कहाँ? वह तो...खैर छोड़िए। कहानी पढ़ रहे हैं तो खुद ही जान जाएँगे। मैं क्यों इस झमेले में पड़ूँ?

देखने में तो वह साधारण-सा ही है—पिद्दी सा। हालाँकि नाक-नक्श बुरे नहीं। बातचीत में और भी धीमा, कमजोर। उसकी बेसिर-पैर की बातचीत में मजा लेना मुश्किल है और बहुत देर में पता चल पाता है कि वह असल में कहना क्या चाहता है। हालाँकि एक बात अच्छी है उसमें जो शुरू-शुरू में थोड़ी अटपटी भी लग सकती है—नोट्स लेने की आदत! आप यों समझ सकते हैं कि अपनी इस आदत का वह करीब-करीब गुलाम है। उसकी जेब में कुछ और हो न हो, एक डायरी और पेन हर वक्त मिलेगा। बातचीत में जो भी सूचना या मिसरा उसे अच्छा लगता है, वह तुरंत उसकी डायरी में दर्ज हो जाता है। और उसकी पसंद कुछ बुरी नहीं, यह आप उसके निकट हों तो जान जाएँगे। आखिरी सूचना यह कि कभी-कभी आप उसे रजनीश मार्का आदर्शवादी प्रवचन घोकते देखें, तो उसकी आँखों में उभर आई अजीब-सी चमक से डरें नहीं। यह क्षण भर के लिए कौंधती है, फिर किसी उदास दरिया में बिला जाती हैं।

शुरू में पत्नी ने बताया कि डॉक्टर मिलना चाहता है तो थोड़ी हैरानी, थोड़ी असुविधा महसूस हुई थी। क्यों मिलना चाहता है मुझसे? आखिर क्या कॉमन फैक्टर हो सकता है मुझमें और उसमें? उसकी तमाम चारित्रिक विशेषताएँ जो ऊपर लिख आया हूँ, तब तक मालूम नहीं थीं। मैं डॉक्टर को सिर्फ डॉक्टर समझता था—यानी पैसा ऐंठने वाली क्रूर और हिंस्र मशीन। फायदे-नफे की दुनिया की बातें वैसे भी मुझसे सध नहीं पातीं और मैं चिढ़ जाता हूँ। लिहाजा मैं किसी डॉक्टर-वाक्टर से मिलने को उत्सुक नहीं था।

लेकिन यहाँ बात कुछ और ही थी। शायद पत्नी ने बता दिया था कि मैं लेखक हूँ और बच्चों की पत्रिका में काम करता हूँ। तभी उसने मिलने की इच्छा प्रकट की थी, “भाईसाहब से कहिएगा, कभी आएँ तो मिलें। या फिर मैं ही चला आऊँगा कभी आपके घर। एक कप चाय तो पिलाएँगे न!”

कुछ भी हो, बात चौंकाने वाली तो थी ही। आज के जमाने में किसी लेखक या बच्चों की पत्रिका में काम करने वाले पत्रकार से भला कौन मिलना चाहता है! और फिर डॉक्टर क्यों? डॉक्टरों के बारे में मेरा अपना अनुभव यह है कि उनमें से आधे से ज्यादा तो खुद बीमार होते हैं। चिड़चिड़े, घमंडी और एक किस्म के तानाशाह! इस हद तक हृदयहीन कि वे दूसरों का दर्द महसूस ही नहीं कर सकते। यानी उनमें से आधों को तो आप एकबारगी खारिज कर सकते हैं कि वे आदमी ही नहीं हैं। और दिलचस्प बात यह है कि फिर भी वे दूसरों का इलाज करने का दम भरते हैं। खैर...

पत्नी रोज सुबह बेटी को स्कूल बस के स्टैंड तक छोड़ने जाती थी। बस डॉक्टर की दुकान के पास ही रुकती थी। लिहाजा वहीं डॉक्टर से मुलाकात हो जाती होगी। ऐसी मैंने कल्पना कर ली थी।

अगले दिन सुबह मैंने ऋचा के साथ चलने का इरादा बनाया। झूठ क्यों कहूँ, डॉक्टर से मिलने की उत्सुकता भी थी। देखा, बच्चे डॉक्टर की दुकान के पास ही घेरा बनाए खड़े हैं। कुछ वहाँ पड़ी कुर्सियों और बेंचों पर जम चुके हैं। उनकी मम्मियाँ पास ही गंभीर स्टेचू की तरह मुँह लटकाए खड़ी थीं। इस कदर गंभीर कि उन्हें देखकर सिर्फ हँसी आ सकती थी।

मेरी बेटी ऋचा भी दौड़ती हुई गई और खाली पड़ी बेंच के एक कोने पर बस्ता पटककर खड़ी हो गई। शायद वह डॉक्टर से कुछ ज्यादा हिलमिल गई थी, इसलिए काफी कुछ अधिकार जैसा भाव उसमें आ गया था।

डॉक्टर कुर्सी के सहारे एक ओर खड़ा अखबार पढ़ रहा था। मैंने उचटती निगाहों से उसकी ओर देखा, फिर सड़क पर नजर दौड़ा दी। बस आज लेट थी, इसलिए बच्चों की मम्मियाँ ‘तार सप्तक’ में भुनभुना रही थीं।

कुछ देर बाद डॉक्टर का ध्यान टूटा। अखबार परे सरकाकर इधर-उधर देखने लगा। उसकी आँखों में विचित्र चौकन्नापन था। ऐसा चौकन्नापन जो बड़ी तेजी से संवाद के लिए किसी को खोजता है। उसके माथे पर उलझी हुई रेखाओं का पूरा एक जाल था।

मैं कुछ कहना ही चाहता था कि तब तक ऋचा के पास मुझे खड़ा देख, डॉक्टर मुसकरा दिया। पास आकर बोला, “तो आप हैं न, ऋचा के पापा...?”

“हाँ।” और क्या कहूँ, मेरी समझ में नहीं आया।

“इनकी मम्मी बता रही थीं, प्रभात टाइम्स में हैं न आप? भई, अखबार वाले ही हैं आज वक्त में जिन पर सारी उम्मीदें टिकी हैं मुल्क की। अच्छा, कैसे खबरें बनाते हैं आप? कभी समझाइएगा मुझे।”

वह शायद अब तक भूल गया था कि मैं बच्चों के लिए कहानियाँ लिखता हूँ। समाचार बनाना मेरा काम नहीं है। पर मैंने मुसकराकर टाल देना उचित समझा। डॉक्टर उसी रौ में बोले जा रहा था, “मैं तो रोज नियम से अखबार देखता हूँ साहब, लेकिन सच कहता हूँ, देखने की इच्छा नहीं होती। रोज कत्ल, हत्याएँ, बलात्कार...और अब तो आत्मदाह। अजीब सिलसिला चल निकला है साहब, जैसे किसी जिंदा आदमी का जलना कोई बात ही नहीं, कोई घटना...! ये नेता जो हैं न, ये बदमाश हैं साले। मैं आपसे ठीक कहता हूँ, ये लोगों को मरवा देंगे, देखना आप! फिर आजकल के लड़के भी तौबा-तौबा। ये वैसे लड़के नहीं है, जैसे हमारे-आपके जमाने में हुआ करते थे या जैसे हम हुआ करते थे। हालात भी आप देखते हैं साहब, दिन-ब-दिन बिगड़ते जा रहे हैं। एक तो अनएंप्लायमेंट है इतना, फिर फ्रस्ट्रेशन...! इन्हीं सारी चीजों ने तो अ...वो...वो क्या कहते हैं, दुस्साहसी बना दिया है लड़कों को। वर्ना कोई हिम्मत कर सकता है खुद आग में जलने की। कोई खेल तो नहीं है आत्मदाह! कोई न कोई तो बड़ा कारण है इसके पीछे—क्यों साहब?”

डॉक्टर ने अचानक यह सवाल उछाल दिया था मेरी तरफ! मैं खुद इसी मसले को लेकर बहुत उत्तेजित था। लेकिन कोई दूसरा उत्तेजित हो, तो मेरी आदत है शांत हो जाना। खुद पर काबू पाते हुए धीरे से कहा, “मंडल कमीशन मेरे ख्याल से बुरा नहीं था। लेकिन वह जिस चिढ़ाने वाले अंदाज में पेश किया गया—राजनीतिक अस्त्र के रूप में, वह गलत था। कोई हथियार आप चलाते हैं और उलटकर वह आपकी ही गरदन काटने लगता है, तो हाय-तौबा क्यों?”

“तो आप मंडल समर्थक हैं या...?” डॉक्टर थोड़ा अचकचा गया।

“देखिए, इसका कोई बना-बनाया जवाब तो है नहीं मेरे पास। इतना जरूर लगता है कि इसे थोड़ा और बैलेंस्ड किया जा सकता था। और लागू करने से पहले इसके सभी पहलुओं पर डिबेट होती, तो शायद ऐसे हालत न बनते।”

2

कुछ देर बाद शायद उसे खुद-ब-खुद ख्याल आ गया कि मैं बच्चों की पत्रिका में काम करता हूँ। शरमाकर उसने बताया कि दस-बारह बरस पहले तक वह भी बच्चों की यह पत्रिका नियमित रूप से पढ़ता रहा है और अब भी मिल जाए तो देख लेता है। फिर बोला, “बच्चों के लिए जो आप कर रहे हैं, वह बड़ा पुण्य का काम है। बच्चों को बनाना, उन्हें नए-नए ख्यालात देना बहुत जरूरी है, वरना...”

“वरना...क्या...? जिस जगह वह रुक गया था, वहाँ मेरे मुँह से अपने आप मुड़े-तुड़े से ये शब्द निकले।”

“वरना...देश वैसे ही हो जाएगा जैसी मेरी हालत है। आप देख रहे हैं न मुझे! मैं कहीं से लगता हूँ कि डॉक्टर हूँ? मैं तो एक सहज आदमी तक नहीं हूँ, सच्ची!”

मैंने देखा, उसकी आँखें मेरे देखते ही देखते सूखे कुएँ में बदल गई थीं, जिसमें जंगली घास और झाडिय़ों की झुरमुराती गंध थी और तड़कता हुआ बीहड़ अंधकार!

मैं चौंक गया।

कुछ और गौर से देखना, समझना चाहता था उसे। लेकिन तब तक सब फैला हुआ तिलिस्म समेट लिया था उसने। यानी कि पट-परिवर्तन! यह आदमी एक कुशल अभिनेता भी है—ऐसा मुझे लगा।

फिर वह एकाएक सब भूल-भालकर स्कूल बस का इंतजार कर रहे बच्चों से बोलने-बतियाने लगा। बल्कि बच्चों में जरूरत से ज्यादा रुचि लेने लगा। यह भी शायद कुछ छिपाने की प्रक्रिया का ही कोई हिस्सा हो—मैंने सोचा।

वह जोकर जैसा मुँह बनाकर हँस-हँसकर सब बच्चों से जबरदस्ती बात करने की कोशिश कर रहा था, “किस क्लास में पढ़ते हो बेटा? नाम क्या है तुमाला? अले, अंकल को विश नहीं कलोगे? अंकल प्रजेंट देंगे तुम्हारे बर्थ डे पर! अच्छा...डेट आफ बर्थ क्या है तुमाला? लिखवा दो मुझे...जल्दी!” और उसने सचमुच अपनी डायरी निकाल ली थी। पेन खोलकर लिखना शुरू कर दिया था।

हालाँकि बच्चों से ज्यादा तो बच्चों की मम्मियों में हलचल मची थी, जिसे वे चालाक कनखियों में छिपाने में लगी थीं। अभी तक स्टेचू बनी मम्मियाँ अब हरकत में आ गई थीं और चंचल आँखों से ध्वनि-तरंगें एक-दूसरे की ओर सरकाने लगी थीं। वे ध्वनि तरंगें थोड़ी-थोड़ी देर बाद एक सवाल में बदल रही थीं कि ऐसा आदमी क्या ठीक-ठाक लगता है? ठीक-ठाक माने मानसिक रूप से...खि खि खि!

अब वह मेरी बेटी से मुखातिब था, “अच्छा बेटे, नाम बताओ? विश नहीं किया अंकल को!...शाब्बाश! मनु जी की बेटी हो न। मैं समझ गया था, समझ गया... अच्छा, डेट आफ बर्थ बताओ बेटे! मैं तुम्हारे बर्थ डे पर ग्रीटिंग कार्ड भेजूँगा। क्यों, ठीक है न?”

लेकिन जब तक डॉक्टर नोटबुक को आगे सरकाए, ऋचा शिकायत दर्ज करने वाली मुद्रा में आ गई, “पर अंकल, आप पहले भी पूछ चुके हैं।”

और डॉक्टर का पेन ठिठका-सा रह गया।

“ऐं! अच्छा, लेकिन लिखा नहीं होगा मैंने, खाली सुन लिया होगा। तो वह भूल गया। मैमोरी जरा वीक है न मेरी, इसलिए तो डायरी पास रखता हूँ।” डॉक्टर के चेहरे पर हलकी झेंप है।

“नहीं अंकल, लिखा भी था। दो बार लिखा था, मम्मी के सामने।” ऋचा भी हार नहीं मानना चाहती थी।

“तब तो जरूर रजिस्टर में दर्ज हो गया होगा। मैं रोज रात को डायरी का मैटर रजिस्टर में उतारकर ही सोता हूँ।”

डॉक्टर ने फिर चौंका दिया है मुझे। भला, इसे क्या जरूरत है यह सब गोरखधंधा करने की? पहले डायरी में नोट करेगा, फिर रजिस्टर... अजीब आदमी है!

इतने में बस आ गई, तो बच्चे उधर लपके। बच्चों की मम्मियाँ ड्राइवर पर भुनभुनाईं। खूब हंगामा-सा मचा।

बस के जाने के बाद डॉक्टर ने कहा, “आइए, आपको दुकान दिखा दूँ।”

अब के मैंने गौर किया—बाहर से वह डिपार्टमेंटल स्टोर था जहाँ रोजमर्रा के इस्तेमाल की सारी चीजें मिल जाती थीं, बिंदी-कंघी से लेकर गारमेंट्स तक। बच्चों के स्कूल बैग, बॉटल, पैन-पेंसिल, कापियाँ भी मिल जाती थीं। छोटी-मोटी डायरियाँ और ग्रीटिंग काड्र्स भी। और अभी हाल में दाल-चावल-चीनी, पनीर और सूखे मेवे भी मिलने शुरू हो गए थे। डॉक्टर बता रहा था, “दो काउंटर हैं। उन पर दोनों बेटे बैठते हैं...और मिसेज आ जाती हैं दोपहर में। मेरा तो कभी-कभार का चक्कर लगता रहता है, जब इनमें से कोई न हो या फिर किसी फालतू आदमी की जरूरत हो।”

मैं ‘फालतू’ शब्द की अर्थ-व्यंजना पर विचार कर ही रहा था कि डॉक्टर मुझे उस दुकान के भीतर एक छोटे से केबिन में ले गया, जिसमें मुश्किल से दो-तीन लोगों के बैठने की जगह थी। धूल में सनी मेज पर स्टेथोस्कोप, दवा की शीशियाँ और कुछ सिरिंज बिखरी पड़ी थीं। कुछ दवा की शीशियाँ साथ वाली अलमारी में—बेतरतीब।

डॉक्टर अब भी उसी तरह अपनी आदत के मुताबिक बोलता जा रहा था। लेकिन मुझे जाने क्या हुआ कि कुछ सुनाई पड़ता था, कुछ नहीं। मैं जाने क्या-कुछ सोचने लग गया था।

तभी पता चला कि डॉक्टर पंजाब सरकार की अच्छी-खासी लगी-लगाई नौकरी छोड़कर चला आया, जरा सी बात पर। अफसर से मामूली झगड़ा हो गया था। डॉक्टर ने कहा, “तू क्या समझता है? तू मेरा मुकद्दर तो नहीं बदल सकता।” यह भी पता चला, यहाँ फ. नगर में उसके भाई हैं। सबकी अपनी अपनी फैक्टरियाँ हैं। खूब अच्छे खाते-पीते हैं, पर डॉक्टर पंजाब से उजड़कर आया तो किसी से कुछ नहीं लिया और अपने बलबूते पर यह दुकान खोल ली। अब तक किसी से हार नहीं मानी थी, लेकिन अब...

तब तक डॉक्टर का शायद बड़ा वाला बेटा भी दुकान में चला आया था। एक लंबा, स्वस्थ युवक, जिसके चेहरे से भरा-भरा आत्मविश्वास फूट रहा था। डॉक्टर ने परिचय कराया, “ये लेखक-पत्रकार हैं बेटा। इनके साथ खास रियायत करनी है, जितनी भी हो सके।”

“जी अच्छा!” लड़के ने ओढ़ी हुई विनम्रता से कहा, जो दूसरों की उपस्थिति में मजबूरी की तरह ढोई जाती है।

“अच्छा, मैं चल रहा हूँ। कोई मरीज आ जाए तो घर भेज देना...या मुझे बुला लेना।” डॉक्टर ने चलते-चलते कहा, तो लड़के के चेहरे पर अजीब-सी मुसकान उभर आई। बड़ी ही काँइयाँ मुसकान सामने वाले को उसकी तुच्छता का अहसास करा देने वाली।

3

घर आकर मैंने पत्नी से कहा, “डॉक्टर तो एकदम सीधा है...”

“और विचित्र भी?”

“नहीं, उस रूप में नहीं, पर मेरा मतलब है...एक अलग कैरेक्टर तो है। दूसरों से इस कदर अलग कि...”

“सिर्फ अलग, एब्नार्मल नहीं?” लगता है, पत्नी ने भी उस पर विचार किया था। अपने नतीजों से मेरे नतीजे का मिलान करना चाहती थी।

“नहीं, एब्नार्मल नहीं।” कुछ सोचते हुए मैंने कहा, “लेकिन प्रैक्टिस चलती होगी क्या? मुझे तो संदेह है। धूल, इस कदर धूल जमी पड़ी थी सब चीजों पर। चलते-चलते लड़के को कहकर गया कि कोई मरीज आए तो घर भेज देना।”

“बेचारा!” पत्नी के मुँह से यह शब्द इस कदर अनायास निकला कि मैं तड़पकर रह गया, “क्यों...बेचारा क्यों?”

“मरीज तो कभी कोई नजर नहीं आया, लेकिन इसका इंतजार जैसे चलता है। उस दिन सुषमा के साथ मैं कुछ सामान लेने गई थी, तो हमारे सामने भी यही बोलकर गया। सुषमा कह रही थी, दीदी, कोई पेशेंट तो दिखाई पड़ता नहीं, जबकि कहकर हमेशा यही जाता है कि...”

“अजीब बात है। तो फिर यह कहता क्यों है?”

“बस, इंतजार...! या फिर अतीत में जीने की आदत। अपने डॉक्टर होने का अहसास छूटता नहीं, इसीलिए पेशेंट जरूरी है। यह चीज लगता है, उसके वजूद से जुड़ी है...”

पता नहीं, क्या हुआ कि लगा, आँखें खुश्क होती जा रही हैं। अजीब सी चिनचिनाहट। “ऋचा के बर्थ डे पर कोर्ड भेजने के लिए कह रहा था। अब पता नहीं, यों ही कह रहा था या भेजता भी है?” मैंने बात बदलने के लिए कहा।

“दो बार मुझसे भी पूछ चुका है। मेरे ख्याल से भेजता ही होगा। दुकान तो अच्छी-खासी चल रही है। कोई कमी तो है नहीं।” फिर जैसे बात खत्म करने का बहाना तलाश रही हो, पत्नी रसोई के काम में जुट गई।

थोड़ी देर बाद—कुछ याद आया, तो बरतन साफ करते-करते बीच में यह बताने के लिए चली आई, “लेकिन लड़के बड़ा अपमान करते हैं बाप का। और माँ की पूरी शह रहती है। खुद रोज लिपस्टिक-पाउडर थोपकर बैठी रहती है दुकान पर। पति की कोई परवाह ही नहीं। मुझे लगता है, सब मिलकर उपेक्षा करते हैं जान-बूझकर...!”

“पर क्यों, मिसेज सोनी क्यों?”

“इसलिए कि आज उसे पति की तुलना में बेटे ज्यादा सबल नजर आने लगे हैं, ज्यादा बड़ा सहारा। पति अव्यावहारिक है, किसी काम का नहीं।” कुछ देर बाद, जैसे खुद-ब-खुद फैसला ले रही हो, वह बोली, “लेकिन पछताएगी यह औरत एक दिन, देख लेना। लड़के इसकी भी कोई कम दुर्गति नहीं करेंगे। आएगा वो वक्त भी जल्दी ही, बस, इसे नजर नहीं आ रहा।”

इसके दो-चार दिन बाद सुबह-सुबह छोटी बेटी के लिए बैग लेने गया तो डॉक्टर को तन्मयता से झाड़ू लगाते पाया। मुझे देखकर उसने झेंप मिटाने के लिए बोलना शुरू कर दिया, “आइए मनु जी, आइए। सुबह-सुबह कैसे? भई सुबह-सुबह झाड़ू-बुहारी की ड्यूटी हमारी रहती है। आजकल के लड़के आठ-नौ बजे से पहले कहाँ उठते हैं? मिसेज को भी घर के कामकाज निपटाने होते हैं। एक मैं खाली होता हूँ तो चला आता हूँ।” फिर जाने क्या तरंग आई कि बात को किसी और दिशा में उछाल दिया, “मैं तो जी फ्री स्टाइल आदमी हूँ। जीवन अपनी मर्जी से जिया और लड़के जो भी करें, अपनी मर्जी से, मैं नहीं टोकता।”

फिर कुछ देर बाद सोचते हुए कहा, “आप लड़कों के लिए लिखते हैं। उन्हें सिखाते हैं, यह तो बहुत अच्छा है। लड़के सँभल जाएँ, तो सब ठीक...कहीं कोई मुश्किल ही नहीं।”

मैंने गौर किया, पिछली दफा भी यही कहा था डॉक्टर ने, पर इस दफा कुछ अलग अर्थ खुलने लगे थे इन्हीं शब्दों के।

कुछ देर बाद डॉक्टर ने जैसे खुद को ही सुनाना चालू कर दिया, “जमाना बदल गया है, साहब। अब वो दिन कहाँ रहे साहब, न वो बात। हमारे वक्त में बाप का डर होता था पूरे घर में। कोई आँख तो मिला ले। बाप आता था तो हम छिप जाते थे, सामने नहीं आते थे। माँएँ डराया करती थीं बच्चों को कि तेरे बापू आएँगे तो ये कहूँगी, वो कहूँगी।...और आजकल? बाप की अपनी इज्जत बची रहे तो बड़ी बात है।”

कहते-कहते डॉक्टर चुप हो गया। पर साफ लग रहा था, वह रुका है, उसका आवेश चुका नहीं। चेहरा आरक्त।

मुझे याद आया, छुटकी के लिए स्कूल बैग लेना है। लग रहा था, खरीदूँ और जाऊँ, पर उसकी अधूरी बात यों छोड़कर...

डॉक्टर ने अब तक झाड़ू लगाकर बुहारी एक ओर रख दी थी। मुझे उत्सुक नजरों से देखता पाकर बोला, “अब लड़के आजकल के अपनी लिमिटेशंस तो देखते नहीं, एंबीशंस बहुत हैं। बड़ा वाला कहता है—कार ले दो। अब पी.एफ. का पैसा तो मैं कार में लगाने से रहा। मैंने कह दिया कि ‘काम फैलाओ। बचत करो। कार लायक पैसे हो जाएँ, तो जरूर खरीदो। मगर यह भी देख लेना, पेट्रोल का खर्चा भी निकलता है कि नहीं?’...क्यों साहब, लड़कों को स्वतंत्रता चाहिए तो अपने बाप की स्वतंत्रता पर हमला करके ही वे इसे हासिल करेंगे?”

“शायद दिल्ली से सामान लाने में दिक्कत होती हो।” उसे शांत करने की गरज से मैंने कहा।

“हाँ, सो तो है। लेकिन और कनवेंस भी हैं ही, और लोग करते ही हैं। लड़कों का तो यह काम करने का वक्त है, स्ट्रगल से कैसा घबराना? हमने भी किया है साहब। सुविधा से जीने की बात अभी नहीं सोचनी चाहिए। हालाँकि मेरे सोचने से क्या होता है?” फिर एक पराजित मुसकान।

“लड़के ही लाते हैं सामान? आप नहीं।” मैंने यों ही पूछ लिया।

“हाँ जी, मैं तो अनफिट हूँ।” डॉक्टर का चेहरा विद्रूप हो गया, “सामान लेने जाऊँ तो कहा जाता है, मैं गलत चीज ले आया, गलत दामों में ले आया। बेचने बैठूँ तो कहा जाता है, मैंने सस्ते में सब लुटा दिया। अब झिकझिकबाजी तो मुझे अच्छी लगती नहीं मनु साहब। मेरा तो ये उसूल है कि हर चीज में टेन परसेंट मुनाफा आप ले लो—ज्यादा नहीं। लेकिन हर पीढ़ी का अपना कायदा होता है। हमारा कुछ और था, इनका कुछ और...!”

मुझे लगा, इस तरह तो काफी देर हो जाएगी। मैंने उसे याद दिलाया कि मैं छोटी बेटी के लिए स्कूल बैग लेने आया हूँ। तब तक लड़का भी आ गया था। डॉक्टर ने लड़के से कहा, “बेटे, अंकल को दिखा कोई अच्छा-सा बैग।”

लेकिन लड़के के व्यवहार में उपेक्षा बड़ी साफ थी। वह बड़ी देर तक सामान इधर से उधर रखता रहा। फिर मुझ पर नजर पड़ती तो बोला, “अंकल, आप खुद ही निकाल लीजिए न, जो ठीक लग रहा है।”

साफ लग रहा था कि पिता की उपेक्षा का एक हिस्सा उसने पिता के मित्र के खाते में भी दर्ज कर दिया है। बगैर बैग लिए मैं घर लौट आया।

इस बार डॉक्टर कुछ हिला हुआ सा लगा। मैं रास्ते भर उसी के बारे में सोचता रहा। पता नहीं, कुछ ही दिनों में उसके साथ मेरा यह कैसा रिश्ता बन गया था कि उसका दर्द मुझे विकल कर रहा था। मैं साफ तौर से अशांत था, बेचैन। और इसका कारण उसकी बेचैनी थी। उसके साँवले चेहरे पर रेखाओं का जाल कुछ और कस गया था। हँसी उदास कि जैसे कोई हँसते-हँसते हक्का-बक्का छूट गया हो और आगे की यति-गति भूल गया हो।

डॉक्टर का चित्र मेरे जेहन में बार-बार एक ही तरह से बन रहा था, जैसे धीरे-धीरे कालिख में गुम होता हुआ कोई तारा।

4

इसके बहुत दिनों तक डॉक्टर से भेंट नहीं हुई।

पत्नी से दो-एक दफा पूछा, तो पता चला कि अब वह दुकान पर कम ही आता है। मिसेज सोनी और बच्चे ही ज्यादा बैठते हैं। फिर जैसे कुछ याद आया हो, बोली, “चार-छै रोज पहले शाम को एक दिन देखा था, बड़ा ही बदहवास सा। लड़कों से कुछ कहा-सुनी हो रही थी और मिसेज सोनी दूर बैठे-बैठे देख रही थी।”

“मिसेज सोनी का मन नहीं पसीजता पति की हालत देखकर? क्यों मार रहे हैं एक अच्छे-भले आदमी को ये लोग?”

“पैसा-पैसा...पैसा, एक अंधी दौड़! और क्या? मुझे तो लगता है, मिसेज सोनी की पूरी-पूरी शह है। वरना लड़के, मजाल है जो...” पत्नी ने गुस्से से तिलमिलाते हुए कहा।

इसके कुछ रोज बाद डॉक्टर से मेरी भेंट हुई, तो मैं चौंक गया। उसके चेहरे की आड़ी-तिरछी रेखाएँ जैसे युद्ध-मुद्रा में आ चुकी थी। वह बहुत उत्तेजित था। अपने आसपास से बहस करने, कुछ कर डालने के लिए उद्धत। कुछ-कुछ उस कैदी की तरह, जिसके पैरों में बेडिय़ाँ हों और हाथ हवा में फड़फड़ा रहे हों।

“यह देश, यह कंट्री कैसे चलेगा...बताइए, आप जरा? जब लोगों की नैतिकता का यह हाल है। ये जो नेता हैं, चोर हैं ससुरे! ये मरवा देंगे सबको, मैं आपसे ठीक कहता हूँ। यह देखिए, एक ओर सरकार ने योजना बनाई है कि जो डॉक्टर अपना नर्सिंग होम खोलना चाहे, उसे दस लाख तक का अनुदान मिल सकता है। दूसरी ओर ये नेता! मैं आपको बताऊँ मनु जी, मंत्री तक सीधे-सीधे रिश्वत माँग रहे हैं—कैन यू इमेजिन?”

उसके हाथ में अखबार फड़फड़ा रहा था। जैसे अखबार नहीं, कोई परमाणु अस्त्र हो। वह अखबार सिर्फ पढ़ता ही नहीं था, जड़ और ठस होते समाज में एक नैतिक अस्त्र के रूप में मानो उसे फहरा रहा था।

मैं खामोशी से देखता रहा, देखता रहा—जैसे धुंध साफ हो रही हो। अब मुझे समझ में आ गया उसके उद्वेग का रहस्य। उसके भीतर का ‘डॉक्टर’ जोर मार रहा था। पत्नी और लड़कों का महज सेवक होने की बजाय वह कुछ होना चाहता था। कुछ जो कि उसके वजूद से जुड़ा हो। और उसे एक फालतू आदमी न समझा जाए। लेकिन...

लेकिन उसका आत्मविश्वास छीज चुका था—एक बहुत ही कमजोर आदमी, जिसकी ताकत निचोड़ ली गई हो।

थोड़ी देर बाद वह शांत हुआ तो उसके चेहरे पर मुझे हलका भय उतरता दिखाई दिया।

“मैं अभी आता हूँ।” कहकर हड़बड़ाता हुआ वह चल दिया। सड़क के दूसरी ओर के एक मकान की तरफ। लस्टम-पस्टम चाल।

मैं समझ गया, अखबार किसी और का था। वही लौटाने गया है। नहीं तो उस आदमी के बिगड़ने का डर होगा।

अखबार से न मिसेज सोनी का कोई लेना-देना था, न लड़कों का। जब पढ़ते ही नहीं, तो भला क्यों पैसे खरचें—उस आदमी के लिए जो कुछ कमाता नहीं, जिसकी ‘सेल वेल्यू’ कुछ भी नहीं। वह इस्तेमाल होते-होते इतना घिस चुका है कि अब वह सिर्फ है। वह किताबी भाषा में, कानूनी भाषा में पति है, पिता है। लेकिन जिनका पति है, पिता है, उनके दुनियावी शब्दकोश में तो उसके लिए एक ही टीप लिखी है—‘एक फालतू बोझ’।

मुझे मिसेज सोनी पर गुस्सा आने लगा। वह चाहती तो इस आदमी की यह हालत न होती। पत्नी सम्मान न करे तो लड़कों के दिमाग तो बिगड़ ही जाएँगे।

मैं डॉक्टर की मानसिक स्थिति के बारे में सोचने लगा था। उसमें विक्षेप तो कहीं था नहीं, लेकिन उत्तेजना के कारण थोड़ी-सी असामान्यता जरूर आ गई थी। थोड़ा-सा प्यार, थोड़ा-सा आदर इस आदमी को चाहिए जो शायद दवाओं से भी ज्यादा असर करेगा—मैंने सोचा।

इतने में ही स्कूल बस आ गई और ऋचा भी धक्कामुक्की करती हुई बस में घुसी। अब वह हाथ हिला रही थी। कुछ देर के लिए मैं अपने बचपन में लौट गया, जब चीजों को बदलने की जिद अजीब-सा आवेश भर देती थी और मैं बैठा-बैठा सोचता रहता कि...

5

मैं लौटने ही वाला था। इतने में सामने नजर गई। सड़क के दूसरी ओर डॉक्टर झुका हुआ कुछ कर रहा था। मैंने गौर से देखा, वह बड़ी तन्मयता से कुछ बटोरता हुआ, रूमाल में रखता जा रहा था।

और उसका चेहरा स्याह था। किसी चिथड़ा बादल के टुकड़े की तरह। यह क्या? यह कंकड़ क्यों बीनने लगा? तो क्या यह पागल हो गया? सचमुच!

मेरे भीतर तो चक्की चल पड़ी, दगड़...दगड़...दगड़...दगड़...और फिर कहीं से आकर एक हथौड़ा-सा बजा—द न् न् न् न् न्...न!

इतने में डॉक्टर पास आया, तो मैं तेजी से सोचने लगा, इससे किस तरह बात की जाए? यानी कितना डिस्टेंस रखकर।

मगर डॉक्टर तो डॉक्टर था। एकदम पास सरक आया। आँखों में सतर्क चौकन्नापन।

“साहब, ये देखिए, ये...देख रहे हैं न आप? ये क्या चीजें हैं भला...?” कहकर उसने झट से रूमाल खोला।

जैसे कोई जादू का खेल हो रहा हो।

मैंने देखा, पंद्रह-बीस कीलें थीं, छोटी-बड़ी।

कीलें!...यकीन मानें आप।

मैं चकित होकर उसका मुँह देखने लगा। तो क्या यह शख्स सड़क पर झुका हुआ कीलें ही इकट्ठी कर रहा था। मगर क्यों?

“रोज यहाँ इतनी गाडिय़ाँ बस्र्ट होती हैं...साइकिल-स्कूटर पंक्चर हो जाते हैं। क्यों? कभी सोचा है आपने?” मेरे सवाल की ठीक बगल में उसका यह सवाल आकर बैठ गया था। अब उसकी उत्तेजना को फिर बात करने के लिए रास्ता मिल गया है, “ये बताइए साहब, कि सफाई का महत्व हम लोग कब समझ पाएँगे। क्या हम लोग अपना काम करते हैं पूरी ईमानदारी से? चलिए, सफाई कर्मचारी तो नाम मात्र के हैं, मेहतर नहीं आता समय से—तो क्या हम कुछ नहीं कर सकते? अगर हर कोई अपने घर के आगे का हिस्सा साफ रखे तो गंदगी कहाँ रह जाएगी? मगर हम तो ऐसे मनहूस हैं कि हमारा घर चमकता रहे, बाहर चाहे कूड़े के ढेर विराजमान रहें।...अच्छा बताइए, यह साइकिल, स्कूटर जो यहाँ अभी-अभी खामख्वाह पंक्चर हो गया होता, यह तो किसी का भी हो सकता है न साहब? यह मेरा सोचना है। वैसे आप देखें। आप अखबार वाले तो हमेशा मौलिक आइडियाज ही लाते हैं।”

मैं मुसकरा भर दिया—कहा कुछ नहीं, तो उसे लगा जैसे किसी ने थाप लगा दी हो। वह एक दूसरे बिंदु पर फिसल गया, “अच्छा, एक बात बताइए, यह जो सेल्फ डिसिप्लिन है जिसे क्या कहते हैं हिंदी वाले? आत्मानुशासन—ठीक है न! तो वह आत्मानुशासन कहाँ है हमारे देश में? हर कोई दूसरे का फायदा उठा रहा है। हर कोई दूसरे का इस्तेमाल कर रहा है, और यह सिर्फ बाहर नहीं, अब तो घर में भी होने लगा है। तो क्या ये मौरेल वेल्यूज हैं हमारे मुल्क की जिनका दुनिया भर में डंका पिटता है? मुझे तो लगता है, सिरे से ही गड़बड़ है। चीजें क्यों नहीं सुलझतीं, समस्याएँ क्यों बढ़ती जा रही हैं? क्योंकि कोई दूर नहीं करना चाहता, इच्छा ही नहीं है। कई बार लगता है, गुलाम देश में हम आजाद थे। आजादी ने हमें गुलाम बना दिया...!”

“पापा जी, अब बस भी करिए।” बड़े लड़के ने जो ऊबा हुआ देर से सुन रहा था, अचानक बीच में टोका, “एक बॉटल दे दीजिए इन साहब को। कितनी देर से तो खड़े हैं।” और उसने खुद को तत्क्षण किसी महिला को कार्डीगन दिखाने में व्यस्त कर लिया।

इस हिंस्र हमले में डॉक्टर अकबका गया। अब आजादी और गुलामी के बड़े-बड़े संदर्भों को छूने वाले डॉक्टर के चेहरे पर रिरियाहट थी। वह आजादी और गुलामी के कौन-कौन से भेद खोल गई, क्या उसे कभी शब्दों में कह पाऊँगा?

6

इसके बाद महीनों गुजर गए। हम लोग डॉक्टर की शक्ल देखने को तरस गए। उसकी बातें गहरी गूँज-अनगूँज बनाती हुई सिर पर चक्कर काटती सी लगती थीं और सवाल पूछती थीं, पर जवाब नदारद।

लेकिन चिंता तो थी ही।

“हमें पता तो करना चाहिए, चाहे जैसी भी स्थिति हो।” मैंने पत्नी से कहा।

उधर मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे। पता नहीं, कैसी व्यूह-रचना हुई हो और उसमें उलझा-फँसा रह गया हो वह। मुझे महाभारत के अकेले अभिमन्यु और सात-सात महारथियों की कथा याद आ रही थी। और किसने कहा कि औरत महारथी नहीं हो सकती, कम से कम आज के जमाने में? और वह पत्नी भी हो, तो क्या?

पत्नी मेरे स्वर के गीले-गीलेपन को जैसे समझ गई। बोली, “कल मैं मिसेज सोनी से पता करके बताऊँगी।”

अगले दिन पत्नी ऋचा को छोड़कर आ रही थी कि तभी मिसेज सोनी से उसकी मुलाकात हुई। अब वही रोज सुबह-सुबह डॉक्टर की जगह दुकान पर आने लगी थी। लौटकर पत्नी ने बताया, “मैंने पूछा तो था मिसेज सोनी से, वह बोली कि तबीयत ठीक नहीं है उनकी। घर पर आराम कर रहे हैं, पर...मुझे तो यकीन नहीं होता।”

फिर एक बार शाम के समय हम लोग सपरिवार दुकान पर पहुँच गए, कुछ पेंसिलें खरीदने के बहाने। हालाँकि भीतर उथल-पुथल तो वही मची थी।

“डॉक्टर साब नहीं नजर आ रहे, क्या बात है?” मैंने यों ही हवा में सवाल उछाला।

लड़के चुप थे। और उनकी चुप्पी सायास ज्यादा लग रही थी। जवाब मिसेज सोनी ने ही दिया, अपने स्वर को यथासंभव सहज रखते हुए, “अब उनसे नहीं होता भाईसाहब, तो मैंने कहा कि आप आराम करिए, हम लोग हैं ही करने को। तबीयत भी कुछ ठीक नहीं रहती उनकी।”

“तबीयत?...क्यों क्या हुआ?” मैंने बात पकड़ी।

“ऐसे ही, कुछ ढीले से रहते हैं।” कहकर मिसेज सोनी ने चतुराई से बात समेट ली।

हम लौट आए, लेकिन एक उधेड़बुन थी जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थी। मेरे सारे विषय जैसे खत्म हो गए। आफिस से घर आते ही पहला सवाल होता, कुछ पता चला डॉक्टर का? रात में उसी की बातें। सुबह दफ्तर जाने से पहले कमजोर सा अनुरोध, “जरा पता करना, अगर मालूम पड़ता हो किसी से तो...!”

अब पत्नी के नाराज होने की बारी थी, “इसीलिए तो कुछ बताती नहीं हूँ तुम्हें। इस कदर इनवाल्व हो जाते हो कि...”

लेकिन अंदर ही अंदर वह मेरी हालत समझ रही थी। बोली, “अच्छा, करूँगी कोशिश!” और उसने की भी। सोनी के पड़ोस में मिसेज मेहता रहती थीं। टीचर थीं, मॉडल स्कूल में। थोड़ा-बहुत परिचय था। उन्हीं से संपर्क साधा। मिसेज मेहता ने बताया, “मैं खुद सोच रही थी, कई दिन से। कुछ गड़बड़ है। डॉक्टर तो सारे-सारे दिन सोता रहता है। कोई आवाज तक नहीं...”

“पहले भी कभी ऐसा हुआ क्या?” मैंने पूछा।

“नहीं, पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ। हाँ, एक दिन मिसेज सोनी की आवाज आई थी। डाँट रही थी डाक्टर को कि ज्यादा बड़-बड़ की तो बेहोशी का इंजेक्शन लगवा देंगे। फिर पड़े रहना सारे दिन! तब से यही हाल है। डॉक्टर थोड़ी देर चीखता-चिल्लाता है, प्रतिरोध करता है—फिर इंजेक्शन के असर में सो जाता है।”

“लेकिन यह तो ठीक नहीं है। इससे उसकी जान के लिए खतरा हो सकता है। अजीब बात है, परिवार वाले हैं कि दुश्मन...?”

“वो तो इंतजार में हैं कि मरे तो खलासी हो।” मिसेज मेहता बोलीं।

“लेकिन...लेकिन उसका कसूर क्या है?” मैं बदहवास सा खुद से ही यह सवाल पूछ रहा था। और जवाब नदारद था, ठीक वैसे ही जैसे डॉक्टर के सवालों के जवाब अक्सर नदारद होते थे।

7

और यह ‘लेकिन’ बड़ा होता गया। इस कदर कि लगा, मैं खुद इसके घेरे में आ गया हूँ। क्या मैं एक भले आदमी के लिए कुछ नहीं कर सकता, कुछ भी नहीं? एक आदमी—जिसे जान-बूझकर पागल बनाने पर जुट गए हैं उसके घर वाले, क्योंकि वह सोचता है, अपने ढंग से सोचता है। और उसके सोचने और जीने की अपनी शैली है। कैसा वक्त आ गया है? क्या केवल नपी-तुली मुस्कानों वाले मशीनी आदमी ही जाएँगे इक्कीसवीं सदी में और सारे जिंदा आदमी पागलखाने जाएँगे? वहाँ होगा इलाज उनका?

इन दिनों पत्नी भी बहुत भन्नाई हुई रहती थी। मिसेज सोनी की शक्ल तक से नफरत हो गई थी उसे, “कुतिया...! और किसे कहते हैं कुतिया! जो अपने पति तक के साथ धोखा कर सकती है। और मैं कहती थी न, मैंने खुद देखा है, अब लड़के अपनी माँ को डाँट देते हैं। बड़ा वाला परसों ही डाँट रहा था कि मम्मी, आपको समझ नहीं है कि चीजें कैसे रखनी चाहिए तो हाथ मत लगाया करो अलमारी को! यही होना था इसके साथ। और अभी तो शुरुआत है, देखना आगे-आगे...!”

पर चिंता तो डॉक्टर की थी। पत्नी ने मिसेज मेहता से बात की। मिसेज मेहता ने मिस्टर मेहता से। आखिर तय हुआ कि कुछ करते हैं।

एक दिन हम लोग सुबह-सुबह पहुँच गए तो मिसेज सोनी हक्की-बक्की। लड़के दुकान पर गए हुए थे।

“क्या हालचाल है डाक्साब का?” पूछते हुए हम लोग भीतर आ गए।

“यों ही जरा ढीले से रहते हैं।” कहकर मिसेज सोनी बात पलटतीं, तब तक हम भीतर वाले कमरे में पहुँच गए थे जहाँ डॉक्टर लेटा हुआ था। और ठीक-ठाक था। कम से कम न दवाइयों की गंध थी और न ऐसा वातावरण जो बीमार आदमी के आसपास होता था।

मिसेज सोनी को इस हमले की उम्मीद न थी। बदहवासी में उन्हें बात बदलनी पड़ी थी, “सच बात तो यह है कि भाईसाहब, इनका दिमाग चल गया है। घर वालों को तो तंग करते ही हैं। दूसरों को तंग न करें, इसलिए...”

“तो क्या बेहोशी के इंजेक्शन लगवा रहे हैं?” मिस्टर मेहता ने पूछ लिया।

मिसेज सोनी चुप। चेहरा तमतमाया हुआ।

“पर यह तो कोई इलाज न हुआ। आप डॉक्टर को दिखा सकती हैं, मानसिक चिकित्सा भी हो सकती है आजकल तो...” मैंने बात बढ़ाई।

“हो तो सब जाता है भाईसाहब, पर कौन कराए? लड़कों को तो आप जानते हैं, दुकान पर फुर्सत नहीं है!” मिसेज सोनी अब अपनी मजबूरियों का बखान करने लगी थी।

और मैं सोच रहा था, निर्लज्जता जब फटती है तो उसकी सड़ाँध झेल पाना कितना मुश्किल...

“ठीक है, कल मैं लिए जाऊँगा। जी.बी. पंत हॉस्पीटल में मेरे एक डॉक्टर परिचित हैं। वहाँ दिखा दूँगा।” मैंने गंभीरता का कवच पहन लिया।

अब मिसेज सोनी कुछ-कुछ लाचार नजर आ रही थीं।

डॉक्टर सो रहा था। उसे उठाना बेकार था। हम लोग चले आए।

8

अगले दिन डॉक्टर को मैं साथ ले गया। मेरे मित्र नीलमणि ठाकुर ने जो मानसिक चिकित्सक हैं, ठीक से देखा और कहा, “कुछ नहीं, थोड़ा नर्वस डिसआर्डर है। ज्यादा तनाव से हो जाता है। कोई चिंता की बात नहीं। दवाएँ लिख दी हैं, देते रहिए। जो मन में खाए, चलें-फिरें। ज्यादा स्ट्रेस न लें, बस।”

नीलमणि ठाकुर ने मुझे अलग बुलाकर एक बात और बताई जो उसने खोद-खोदकर डॉक्टर से पूछ ली थी। वह यह कि पी.एफ. का पैसा निकलवाने के लिए बडे़ लड़के ने डॉक्टर को छड़ों से पीटा था। छोटे लड़के और मिसेज सोनी ने हाथ-पैर कसकर पकड़ रखे थे। डॉक्टर उस वक्त इस कदर भौचक्का रह गया था कि चीख तक नहीं पाया। कई दिनों तक यों ही लानत-मलानत चलती रही और मिसेज सोनी का पत्थर चेहरा हर बार घुड़कता, “चुपचाप, वरना...!” लड़के अलग घूरते रहते। डॉक्टर को भयानक सदमा पहुँचा, जैसे अच्छे-बुरे, स्याह-सफेद सभी चित्रों के एक-दूसरे में गड्डमड्ड होने के बाद शायद होता हो। पर भीतर कहीं कोई चेतावनी दे रहा था, “खबरदार, डॉक्टर! पी.एफ. का पैसा नहीं देना। जो इस समय तेरे साथ जानवर की तरह पेश आ रहे हैं, वे बाद में तो...! तब तो तू भिखारी हो चुका होगा डॉक्टर। और भिखारी को कौन पूछता है, चाहे वह पिता हो, पति हो, कोई भी!”

अब मेरी समझ में कुछ-कुछ आ गया था, डॉक्टर की यह स्थिति कैसे बनी और आगे मेरी भूमिका क्या होगी।

मैंने डॉक्टर को घर छोड़ा। मिसेज सोनी से कहा, “यह बिलकुल ठीक-ठाक हैं। बस, मन बदलाव की जरूरत है। कल से मैं रोजाना सुबह-शाम आ जाया करूँगा।”

मेरे आखिरी शब्दों का धमकी जैसा असर हुआ मिसेज सोनी पर। आसपास के लोग सब जान गए हैं, कहीं यह आशंका भी थी। अब वह पति-भक्ति का नाटक कर रही थी। दवा मैंने डॉक्टर को पकड़ाई और चला आया।

9

दस-पंद्रह दिनों से ऐसा हुआ कि जब भी मौका मिलता, मैं डॉक्टर के घर पहुँच जाता हूँ। डॉक्टर भी जैसे मेरा इंतजार ही कर रहा होता है। खूब बोलता-बतियाता रहता है, विषय चाहे कद्दू की भाजी हो या नए रूस के निर्माण में गोर्बाचौफ की भूमिका। मिसेज सोनी को जाहिरा तौर पर कोई परेशानी नहीं है, लेकिन उसके माथे पर बराबर सलवटें पड़ी रहती हैं। डॉक्टर के बेटे कतराते हुए निकल जाते हैं। अक्सर सामने नहीं पड़ते।

डॉक्टर ने अपनी अलग दुकान जमाने का फैसला कर लिया हैं। एक परिवर्तन उसमें और हुआ है, वह खूब बोलता है और फटकारती हुई भाषा में अपनी बात कहता है, खासकर मिसेज सोनी को। और खीजकर ही सही, मिसेज सोनी और लड़के इस परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं।

मैं सोचता हूँ, अब रोज न भी जाऊँ तो भी चलेगा। रोशनी जब खंजर की तरह तीखी हो जाए, तो डरना तो अँधेरे को चाहिए।

मुझे कल्पना में डॉक्टर फिर छोटे-छोटे स्कूली बच्चों से खेलता नजर आने लगा है, “अले बेटा, तुमाला नाम क्या है...अंकल को विश नहीं करोगे? तुमाला डेट ऑफ बर्थ...?”

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