उन आँखों की कथा (कहानी) : रावुरी भारद्वाज

Un Aankhon Ki Katha (Telugu Story in Hindi) : Ravuri Bharadwaja

बहुत दिन हो गये कहानियां लिखे। उसमें भी सेक्स की कथा लिखे लगभग पच्चीस साल हो गये । उन दिनों चलम, चौडेश्वरी देवी, धनिकोण्डा, मैं... इस प्रकार की कहानियाँ खूब लिखा करते थे। उससे पहले चलम् और कोडवटिगंटि कुछ-कुछ इस प्रकार की कहानियाँ लिख चुके थे। उसके बाद कुटुम्बराव इस मार्ग को छोड़कर, दूसरे मार्ग पर चले गये। हम भी धीरे-धीरे भटकते चले गये।

यह सब आपके सामने पेश करने का एक कारण भी है। लगभग पच्चीस साल के बाद सेक्स की कहानी लिखने की मुझे क्यों सभी? आज के मार्केट में उसकी अधिक मांग या मुझ पर स्वयं मेरी परीक्षा ?

सामान्यतः सेक्स कहानियों में लड़का प्रधान नहीं होता, लड़की ही प्रधान होती है। लड़की का खूबसूरत होना जरूरी है। उस खूबसूरती का मन भर वर्णन करना जरूरी है। हमारे प्राचीन कवियों ने प्रबन्ध-काव्यों में या अन्य काव्यों में जिस प्रकार नख-शिख वर्णन किया है, उसी प्रकार का वर्णन होना चाहिए । छन्दों में किया गया वर्णन कुछ की समझ में आता है, कुछ की समझ में नहीं आता। वह पद्य की लय, गति, अलंकार आदि पर ज्यादा निर्भर करता है। हमारे सभी महाकवियों ने यही काम किया है। किसी भी नायिका के अंगांग वर्णन को छोड़ा नहीं। काव्य-लक्षण, काव्य-प्रयोजन, व्यंजना, अभिव्यक्ति आदि को एक साथ गंगा में फेंक दें तो फेंक दें, लेकिन नायिका का अंगवर्णन आवश्यक है। उसमें भी सर्वावयव-वर्णन, तिस पर पाठक के मन में... खैर, इसे छोड़ दें।

गद्य में तो ऐसा नहीं किया जा सकता। जो थोड़ा-बहुत पढ़ा-लिखा है, उसकी भी समझ में आ जाना चाहिए । ऐसा कुछ नहीं कहना होता जो उनकी समझ में न आये। अथवा कहना भी चाहें तो उसी भाषा में कहना होगा जो उसकी समझ में आये। पढ़ते ही पाठक को पगला जाना चाहिए । दुबारातिबारा पढने के लिए वह लालायित हो जाये । ऐसी ही कहानियाँ पत्रिकाएँ छापती हैं। इसलिए सेक्स कहानियों में पहले नायिका का वर्णन कर, उसे किसी नायक के साथ मिलाकर, उसके बाद श्रृंगार का जी भर वर्णन करना चाहिए। यह है रीति सेक्स कहानियों की।

नायिका के सौन्दर्य वर्णन को आँखों से शुरू करना हमारी परिपाटी है। मैं भी उसी परम्परा का अनुसरण कर रहा हूँ। सुनिए...

उस (नायिका) की आँखें..।

उन आँखों में देखा। वे आँखें मेरे लिए चिर-परिचित हैं। अब तो यहाँ देख रहा हूँ, लेकिन उन्हें कई-कई जगह देखा है। जब कभी, यहाँ-वहाँ देखा है लेकिन अब तो यहीं देख रहा हूँ।

आप मुझे पल भर सोच लेने देंगे? एक क्षण बस, एक ही, एक क्षण । उतने में अपनी यादों की परतों को खोलकर, उन परतों में छिपी यादों को, उनकी निशानियों को आपके सामने रख दूंगा।

कटोरी में दूध की एक बूंद ? भूख से तड़पती नन्हीं चींटी ने दीवार से रेंगकर, कटोरी पर पहुंचकर, झांककर देखा। दूध की बूंद कटोरी में है, भूख अपने पास है। उस एक बूंद के लिए नन्हीं चींटी धीरे-धीरे उतरने लगी। सम्पन्नों का परिवार है न ! कटोरी चाँदी की थी। कटोरी का भीतरी भाग इतना चिकना था कि रोशनी पड़े तो वह भी फिसल जाये। नन्हीं चींटी के अगले पैर फिसल गये तो डर के मारे कांपती उसकी आँखों की याद आ गयी।

एक बार नदी में बाढ़ आयी । किनारों को काटता-गिराता बाढ़ का पानी उफन रहा था । किनारे के झाड़ बाढ़ की मार से झुककर, गिरते जा रहे थे। एक शमी का पेड़ था, जिसपर मैं अकसर बैठकर खेला करता था। मैं और बल्लेम्मा छिपा-छिपाकर मूंगफलियाँ लाकर, बातें करते खाते रहते थे। आधी खाकर बाकी उस पेड़ की शाखाओं में छिपाकर रख दिया करता था। छिपाकर कई बार, पाशुपतास्त्र को वखने वाले अर्जुन के समान उन शाखों में देखता था। लगा, यदि वह पेड़, बाढ़ के कारण गिरकर न बहता तो कितना अच्छा होता! ॐ हुँ, बाढ़ का एक थपेड़ा और वह पेड़ धीरे-धीरे झुक गया था। बह जाने के पहले डर के मारे दीन बनकर उसकी पत्ते रूपी आँखें मेरी ओर देखने लगी थीं। उन आँखों की याद आ गयी।

छोटा कठघरा...उसमें खोपरे का छोटा टुकड़ा। उसकी सुगन्ध कमरे में फैल रही थी। इधर-उधर, कूद फांदकर, संघकर, चारों तरफ वक्कर लगाकर, उसमें जाकर, खोपरे के टुकड़े को छककर खा लिया एक चुहिया ने। तब...बाहर आने का रास्ता न पाकर, डर कर, दीन बनी उस चुहिया की आँखों की याद आ गयी।

गर्मियों के दिन । नहर में पानी सूखता जा रहा था। कहीं-कहीं मिट्टी दिखाई पड़ रही थी। पतली धार थी। जगह देखकर मछियारे ने जाल फैला रखा था। पानी को इधर-उधर हिलाता रहा। बहुत-सी मछलियाँ आकर जाल में फंस गयीं। तीन-चार घण्टे के बाद मछियारिन भी आ गयी, बड़ी बोरियां लेकर । मछियारा पानी में उतरा, मछलियों को दोनों हाथों में भर कर किनारे पर फेंकने लगा और मछियारिन मछलियों से बोरियां भरने लगी। फिसलकर पानी में जाने वाली मछलियों को पकड़-पकड़कर वह फिर किनारे फेंक देता । आखिर एक नटखट मछली बच गयी। वह तीन-चार बार हाथ से छूट गयी, फिसलकर फिर से पानी में आ गयी। मछियारे को गुस्सा आ गया। अबकी उसे पकड़कर जोर से दे मारा। मछली का मुंह आधा फट गया। फिर भी सारी ताकत बटोर कर, उसने शरीर को हिलाने का प्रयत्न किया । अपने प्रयास में असफल मछली की दीन आँखों की याद आ गयी।

इसी तरह छिपकली की दबोच में आने वाले तिलचट्टे की आँखें, जाल में फंसकर छटपटाने वाले खरगोश की आँखें...ओंफ...

अंगारों-सी मुस्कान लिये जानकी की वे आँखें...

छह बज चुके थे। दफ्तर के सभी लोग जा चुके थे। लेकिन अफसर अभी नहीं गया था। उसके जाने तक जानकी को छुट्टी नहीं। जानकी की नौकरी उसकी 'इच्छा' पर निर्भर है। उसकी 'इच्छा' जानकी के शरीर पर...

इससे बदतर नौकरियों के लिए जानकी अपने किये प्रयत्नों को भूल नहीं सकी। कभी-कभी वह सोचती-माता-पिता ने सोच समझकर ही यह नाम रखा होगा। उस जानकी के समान, जीवन काँटों की सेज बन गया।

उसकी डिग्रियाँ, अक्ल, फुर्ती-ये उसका पेट नहीं भर सकीं। इन योग्यताओं की किसी को जरूरत नहीं थी। उन्हें जरूरत थी उसकी देह की। जब योग्यताओं की जरूरत नहीं थी, तो जिस योग्यता को लोग चाह रहे थे, जानकी ने उसी से काम लेने का निश्चय किया। ऐसा निश्चय करने के लिए जानकी ने कई दिन सोच-विचार में बिताये । सोच-सोचकर थक गयी लेकिन कोई रास्ता नहीं मिला।

शादी भी हो गयी होती तो वह यह सब कुछ देख लेता। लेकिन एक मर्द को खरीदने की बिसात जानकी के पिता में नहीं थी। नौकरी करने वाली लड़की के लिए भी यह समस्या होती है, लेकिन इतनी विकट नहीं। जानकी ने नौकरी का शिकार शुरू किया । अब नौकरी ही जानकी का शिकार खेलने लगी।

इस कार्यक्रम में जान की बुरी तरह थक गयी। किसी तरह इस नौकरी को प्राप्त किया । एक महीने भर के लिए 'टेम्परेरी' की शर्त पर । आज तीस दिन पूरे हो जाते हैं । आज 'अन्तिम रिपोर्ट' हेड ऑफिस जायेगी । भविष्य जानकी की आँखों के सामने धुंधला-सा दिखाई दिया।

अपना सुख...अपनी शादी पर, शादी नौकरी पर, नौकरी इस अन्तिम रिपोर्ट पर आधारित है। यह रिपोर्ट अफसर की इच्छा पर, उसकी इच्छा देह पर, जवानी पर...

जानकी को पसीना छूट आया। उसने आँचल से मुंह पोंछ लिया । गला पोंछ लिया। भीतर से आग, आँच, भाप छूट रही थी।

अपने को बहुत सम्हालने पर भी जानकी शान्ति से बैठ नहीं सकी । सात बज गये। सारा दफ्तर सुनसान । दूर पर पुराने फैन के चलने की आवाज, घड़ी के चलने की आवाज...

इतने में स्प्रिंग डोर खुला। नरम बूटों की आवाज नजदीक आकर रुक गयी। जानकी ने सिर उठाकर देखा!

सामने अफसर। उसके हाथ में एक लिफाफा। उस पर हेड ऑफिस का पता। उसके भीतर एक और लिफाफा । उस पर 'गोपनीय' लाल स्याही से । दो टाइप किये हुए कागज ।

उन कागजों को छोटे लिफाफे में जाना है और छोटे लिफाफे को बड़े में। उस बड़े लिफाफे को डाकघर तक जाने के लिए, अफसर जहाँ बुलायें वहाँ जाना होगा।

जानकी ने सोचा जाऊँ या नहीं? पल भर के बाद उसने मुसकुराया। वह मुसकान जैसे अगारों से निकल रही थी । मुसकुरा कर, देखने वाली जानकी की वे आँखें...

क्षमा कीजिए।

वादा किया था, सेक्स की कथा सुनाऊंगा। सोचा था कि नायिका का नख-शिख वर्णन कर, आपको आकृष्ट कर लूंगा। ऐसा सोचकर परम्परा के अनुसार आँखों के वर्णन से शुरू करना चाहा, लेकिन हुआ कुछ और । एक नयी कथा की शुरुआत ।

(अनुवाद : डॉ. भीमसेन 'निर्मल')

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