उमनो और झुमनो : बांग्ला/बंगाली लोक-कथा

Umno Aur Jhumno : Lok-Katha (Bangla/Bengal)

दुर्गापुर नामक एक गाँव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। उसकी दो बेटियाँ थीं-उमनो और झुमनो। ब्राह्मण बहुत पेटू था। हमेशा कुछ-न-कुछ खाने की ताक में रहता। एक दिन उसे पीठा (एक पकवान) खाने की इच्छा हुई। उसने अपनी पत्नी को अपनी इच्छा बताई। पत्नी ने कहा, "सो तो ठीक है, पर पीठा के लिए घर में चावल का आटा, गुड़, नारियल आदि तो कुछ भी नहीं है।"

ब्राह्मण ने कहा, "तुम चिंता न करो। मैं सब चीजों का जुगाड़ करता हूँ।" यह कहकर वह भिक्षा माँगने के लिए निकल पड़ा। दिनभर इधर-उधर से भिक्षा माँगकर वह देर रात घर लौटा। उसकी पत्नी ने पीठा बनाना शुरू किया। एक भी पीठा इधर-उधर न हो जाए, इसलिए वह जमकर बैठ गया। उसके हाथ में रस्सी का एक बड़ा टुकड़ा था। हर पीठे के लिए वह रस्सी में एक गाँठ लगा देता। इस तरह प्रत्येक पीठे का वह हिसाब रख रहा था, ताकि एक भी पीठा कम न हो।

उमनो-झुमनो सो रही थीं। पीठा बनने के क्रम में आवाज होने से उमनो की नींद खुल गई। वह माँ के पास आकर बोली, "मुझे भी एक पीठा दो न माँ !"
ब्राह्मण की पत्नी जानती थी कि ब्राह्मण जितना पेटू है, उतना गुस्सैल भी। उसने कहा, “बेटी यह तुम्हारे लिए नहीं है।"
"क्यों?" उमनो ने पूछा।
माँ ने कहा, "इनमें से अगर तुमने एक भी पीठा खाया, तो तुम्हारे पिता तुम्हें जंगल में ले जाकर छोड़ देंगे।"
"जंगल भेजेंगे, तो भेजने दो। मुझे तो एक पीठा चाहिए, उमनो ने मचलते हुए कहा।

मजबूरन माँ को एक पीठा देना पड़ा। पीठा खाकर उमनो सो गई। कुछ देर बाद झुमनो की भी नींद खुल गई। वह भी माँ के पास आकर पीठा माँगने लगी। माँ ने जब उसे टालना चाहा तो उसने भी प्रश्न किया। माँ ने कहा, "पीठा खाने से तुम्हारे पिता तुम्हें जंगल में ले जाकर छोड़ देंगे।"
झुमनो ने कहा, “भेजने दो।"
अंततः झुमनो को भी माँ ने चुपके से एक पीठा दे दिया। पीठा खाकर झुमनो अपनी दीदी उमनो के पास जाकर सो गई।

ब्राह्मण की पत्नी सारी रात पीठा बनाती रही और ब्राह्मण छिपकर पीठों का हिसाब रखता रहा। सारा पीठा बनते-बनते सुबह हो गई। पीठा खाने के लिए ब्राह्मण इतना उतावला था कि बिना हाथ-मुँह धोए, बिना नहाए, बिना पूजा-पाठ किए केले का एक बड़ा पत्ता बिछाकर पत्नी को सारा पीठा लाने को कहा। ब्राह्मण की पत्नी ने सभी पीठे को केले के पत्ते पर रख दिया।

ब्राह्मण एक-एक पीठा खाता जाता और रस्सी की एक-एक गाँठ खोलता जाता। दो पीठे कम पाकर उसने चिल्लाकर पत्नी से कहा, "समझ गया तुम्हारी चालाकी! तूने दो पीठे दोनों लड़कियों को दे दिए हैं न? ये दोनों लड़कियाँ एक दिन मेरी जान लेकर रहेंगी।"

दूसरे दिन सुबह ब्राह्मण ने दोनों बेटियों को बुलाकर कहा, “चलो, तुम्हें तुम्हारे बुआ के घर लेकर चलते हैं।"
यह सुनकर दोनों अवाक् रह गईं। आश्चर्य से उन्होंने पूछा, "हमारी कोई बुआ भी है? यह तो हमें मालूम नहीं था।"
"हाँ भई, हाँ! तुम्हें पहले बताया नहीं था। अब चलो, जल्दी करो।"

उमनो-झुमनो पहले कभी भी कहीं घूमने नहीं गई थीं। बुआ के घर घूमने की बात सुनकर वे झट तैयार हो गईं। ब्राह्मण की पत्नी सब देख-समझ रही थी और आशंकित भी हो रही थी, पर ब्राह्मण के क्रोध के डर से वह कुछ बोल नहीं पा रही थी। विवशतावश उसकी आँखों में आँसू आ गए और उन्हें पीठा देने के कारण वह मन-ही-मन स्वयं को कोसने लगी।

उमनो-झुमनो को ब्राह्मण सारा दिन इधर-उधर घूमाता रहा। फिर उन्हें लेकर एक घने जंगल में पहुँचा। तब तक अँधेरा हो चुका था। दोनों बेटियों ने पूछा, “बुआ का घर और कितनी दूर है पिताजी?"
ब्राह्मण बोला, "बस, अब हम लोग पहुँचने ही वाले हैं।"
"लेकिन हम लोग अब चल नहीं पाएँगे," दोनों ने कहा।
तो फिर तुम लोग उस पेड़ के नीचे थोड़ा आराम कर लो। मेरी गोद में सिर रखकर थोड़ा सो लो, उसके बाद हम आगे चलेंगे," ब्राह्मण बोला।

पिता की बात मानकर दोनों पिता की गोद में सिर रखकर सो गईं। दोनों इतनी थकी थीं कि सोते ही उन्हें गहरी नींद आ गई। सुनहरा अवसर देख ब्राह्मण ने उमनो-झुमनो का सिर गोद से उठाकर उनके सिरों के नीचे दो ईंटें रख दीं। उसके बाद जेब से एक आलते की शीशी निकालकर आलते को इधरउधर छिड़क दिया। उसने सोचा कि जब दोनों बेटियाँ उठेगी तो आलते को खून समझकर सोचेंगी कि कोई बाघ उसके पिता को घायल कर उठाकर ले गया है। वह अपनी बेटियों को जंगल में छोड़कर घर वापस आ गया।

पहले झुमनो की नींद खुली। अपने पिता को वहाँ न पाकर वह घबरा गई। उसने सोचा, निश्चय ही पीठा खाने के अपराध के कारण उसके पिता उन्हें जंगल में छोड़कर चले गए हैं। उसने उमनो को जगाया। उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि उसके पिता उन्हें इस तरह छोड़कर जा सकते हैं! वह चारों ओर फैले आलते को खून समझकर बोली, "लगता है, पिताजी को बाघ उठाकर ले गया है।"

उमनो ने पूछा, "फिर हमारे माथे के नीचे नीचे ईंट कहाँ से आईं?"
"हाँ। यह बात तो है," उमनो ने कहा।

"तुम्हें याद है न दीदी! हम पिताजी की गोद में सिर रखकर सोई थीं। यदि बाघ पिताजी को ले गया, तो हमारे सिर के नीचे ईंट कौन रख गया? निश्चित रूप से पीठा खाने के अपराध में ही पिताजी हमें जंगल में छोड़ गए हैं।" झुमनो ने कहा।

झुमनो की बात उसे सच लगी, परंतु वे क्या करें? चारों ओर घना जंगल! जंगली जानवरों की चीत्कारें! अब वे क्या करेंगी, कहाँ जाएँगी? झुमनो ने कुछ देर तक सोचने के बाद कहा, "दीदी, इस समय हमें धैर्य से काम लेना होगा। चिंता करने, रोने-धोने से कोई लाभ नहीं होगा। पहले हमें किसी सुरक्षित आश्रय की खोज करनी चाहिए। सामने एक विशाल बरगद का पेड़ है। उसकी ओट में हम रात बिता सकते हैं।"

उन्होंने बरगद के पेड़ की ओट में रात बिताई। सुबह होते ही वे जंगल से बाहर निकलने के लिए तेज कदमों से चलने लगीं। कुछ दूर जाने बाद उनकी दृष्टि कुछ देवकन्याओं पर पड़ीं। वे कोई पूजा कर रही थीं। उन्हें देख दोनों ने सोचा, दुर्गा पूजा तो दो माह पूर्व ही हो चुकी है। दीवाली का समय भी अब नहीं है, फिर ये किसकी पूजा कर रही हैं ? तभी किसी की आवाज उन्हें सुनाई पड़ी, "ये लोग सूर्यदेव 'ईतु' की पूजा कर रही हैं।"

"क्यों?" इन दोनों ने पूछा।
उत्तर मिला, "दरिद्रता से मुक्ति पाने के लिए।"
उमनो-झुमनो उस ओर बढ़ीं। वहाँ उनके खड़े होते ही पूजा का कलश उलट गया। देवकन्याएँ चिल्ला उठीं, "कौन हैं ये पापी, क्या चाहती हो तुम दोनों?"
दोनों बोलीं, “हम अत्यंत असहाय हैं। हमारे पिताजी कल रात हमें जंगल में छोड़कर चले गए। घूमते-घूमते हम यहाँ आ पहुँची हैं। हम पर दया कीजिए।"
उनकी कातर वाणी सुनकर देवकन्याओं का मन पसीज गया। उन्होंने कहा, "जाओ सामने के तालाब में स्नान करके आओ, फिर हमारे साथ 'ईतु' की पूजा करना।"

उमनो-झुमनो तालाब में स्नान करने गईं। पानी में पैर रखते ही तालाब का सारा पानी सूख गया। उन लोगों ने वापस आकर देवकन्याओं को सारी बात बताईं। तब तक देवकन्या ने दूब की एक अंगूठी तैयार कर उन्हें दी और कहा, "पहले इसे तालाब में फेंकना, फिर उसमें उतरना। किसी प्रकार की असुविधा नहीं होगी।"

उमनो-झुमनो तालाब के पास पहुँची और दूब की उस अंगूठी को उस तालाब में फेंक दिया। देखतेही-देखते तालाब पानी से भर गया और वे उसमें स्नान कर लौट आईं।

पूजा समाप्त होने पर देवकन्याओं ने उन्हें वर माँगना सिखाया। देवकन्याओं के कथनानुसार दोनों बहनों ने ईतु देवता के सम्मुख अपनी मनोकामना प्रकट की। उन्हें प्रणाम करके ईतु का प्रसाद और कलश लेकर घर की ओर चल पड़ी।

रास्ते में एक जगह दोनों ने देखा कि एक छोटे से तालाब में ढेर सारा कर्मी साग है। उन्हें साग तोड़ने की इच्छा हुई। दोनों ने जैसे ही तालाब की ओर पैर बढ़ाए, एक सोने का सिर उमनो के पैरों में उलझ गया। झुमनो ने उसे उठाकर कपड़ों में छिपा लिया। उसके बाद दोनों घर की ओर चल पड़ीं। घर पहुँचने पर उनके पिता ने उस सोने के सिर को देखा तो वे घबड़ाकर चिल्लाते हुए बोले, “क्या है यह? इसे यहाँ क्यों लेकर आई हो? क्या हमारे हाथों में हथकड़ी लगवानी है?"
"पिताजी आप क्या कह रहे हैं?" हम तो साग तोड़ने गई थीं। हमें तो यह वहाँ अचानक मिल गया।"

"तुम्हारे कहने से कुछ नहीं होता। तुरंत इसे फेंक दो," यह कहकर ब्राह्मण ने खुद ही सोने के सिर को फेंक दिया। लेकिन आश्चर्य, वह सिर फिर लौटकर आ गया ! ब्राह्मण अवाक् ! ऐसी घटना उसने पहले कभी नहीं देखी थी।

उमनो-झुमनो ने जंगल में देवकन्याओं से हुई भेंट और ईतु पूजा की सारी बातें अपने माता-पिता को बताईं। ब्राह्मण की पत्नी ने सारी बातें सुनने के बाद बेटियों द्वारा लाए गए ईतु पूजा के कलश को घर में स्थापित कर दिया और वह उसकी पूजा करने लगी। देखते ही देखते उसके घर का सबकुछ बदल गया। ब्राह्मण की पत्नी को चाँद-सा पुत्र हुआ। ईतु भगवान् की कृपा से उमनो का उस देश के राजा के साथ तथा झुमनो का वहाँ के मंत्री के साथ विवाह हो गया। बेटियों के ससुराल जाने से पहले ब्राह्मण ने उनसे पूछा, "हाँ तो बेटी! तुम लोगों की कोई इच्छा है तो बोलो!"

उमनो ने कहा, "बहुत दिनों से मागुर मछली का शोरबा नहीं पिया। खूब इच्छा हो रही है।"
झुमनो ने कहा, "आज अगहन माह का रविवार है। मैं ईतु पूजा करना चाहती हूँ। इसके लिए जरूरत का सारा सामान ला दीजिए।"
ब्राह्मण ने सारा सामान लाकर दे दिया। अपना-अपना काम निबटाकर दोनों हाथी पर चढ़कर अपने-अपने पति के घर को रवाना हुईं।

उमनो जिस रास्ते से गुजर रही थी, उसके चारों ओर महामारी फैल गई थी। लोगों के घर-द्वार आग में जलकर गिरने लगे। चोरी-डकैती, खून, राहजनी चारों ओर होने लगीं। दूसरी ओर जिस रास्ते से झुमनो जा रही थी, उसके चारों ओर से खुशी की आवाजें आ रही थीं। पेड़-पौधे फूलों से लदे थे। खेतों में सोने की फसलें लहलहा रही थीं।

उमनो राजा के साथ राजमहल में आई। राजा की माँ द्वार पर ही सोने की चौकी, सोने की डलिया लेकर खड़ी थी। उमनो ने जैसे ही सोने की चौकी पर पैर रखा, वह लोहे में बदल गई। उमनो के सिर पर सोने की डलिया छुआते ही डलिया भी लोहे में बदल गई। सास बड़बड़ाती हुई बोली, “ऐसी कुलक्षणी बहू मैंने कभी नहीं देखी!"

उधर झुमनो के साथ अलग प्रकार की घटनाएँ घटीं। मंत्री राजा की तरह संपन्न नहीं थे। बहू का स्वागत करने के लिए मंत्री की माँ के पास न सोने की चौकी थी, न सोने की डलिया। मंत्री की माँ साधारण सामान लेकर ही खड़ी थी। लेकिन चमत्कार हो गया। झुमनो ने जैसे ही चौकी पर पैर रखा, चौकी सोने की हो गई। डलिया भी सिर से छुआते ही सोने की हो गई। ऐसी सुलक्षणी बहू पाकर सास की खुशी का ठिकाना नहीं रहा।

इतना ही नहीं, उमनो को रानी बनाकर लाने के बाद से ही राजा के मानो बुरे दिन आ गए थे। कभी हाथीखाना में हाथी मरने लगे, कभी घुड़साल में घोड़े। राज्य में चारों ओर महामारी फैल गई। लोगों ने आपस में कहना शुरू किया, “ऐसी कुलक्षणी बहू तो कभी नहीं देखी! एक-एक कर सबको खा जाएगी।"

राजा को खटका लगा। एक तरफ उसके घर का यह बुरा हाल और दूसरी ओर मंत्री की दिन-परदिन उन्नति ! एक दिन राजा ने मंत्री से साफ शब्दों में पूछ ही लिया, “यह सब कैसे हो रहा है भाई?"
मंत्री बोला, “यह तो मैं भी नहीं समझ पा रहा हूँ।"
राजा ने कहा, "चाहे जो हो, कुलक्षणी बहू मुझे नहीं चाहिए। कल ही उसकी गरदन कटवा देना।"

मंत्री धर्मसंकट में पड़ गया। लेकिन राजा का आदेश वह टाल नहीं सकता था। लाचार होकर जल्लाद को बुलाकर उसने राजा के आदेश का पालन करने को कहा। लेकिन जल्लाद को दया आ गई। उसने उमनो को झुमनो के घर के सामने छोड़ दिया और एक कुत्ते को काटकर उसका खून राजा को दिखा दिया।

झुमनो ने बड़े प्यार से उमनो को अपने पास बैठाकर उसकी सारी बातें सुनीं, फिर कहा, "जानती हो दीदी, यह सब ईतु के कोप से हुआ है।"
झुमनो ने उमनो को अपने ही घर में इस प्रकार छिपाकर रखा कि उसके पति को भी इसकी भनक नहीं लग सकी।

इधर ईतु की कृपा से ब्राह्मण ने अपने पुत्र की शादी करने की बात सोची। एक दिन बारात लेकर वह अपने बेटे का विवाह करने निकला। कुछ दूर जाने पर लड़के ने कहा, "ओह ! सरौता लाना तो मैं भूल ही गया!"
ब्राह्मण बोला, "कोई बात नहीं, मैं तुरंत लेकर आता हूँ। तुम लोग यहीं प्रतीक्षा करो।"

ब्राह्मण दौड़ते-दौड़ते घर पहुंचा। ब्राह्मण की पत्नी उस समय दरवाजा बंद कर ईतु की पूजा कर रही थी। ब्राह्मण प्रतीक्षा नहीं कर सका। दरवाजा तोड़कर घर में घुसा। गुस्से से वह थर-थर काँप रहा था। लाठी के प्रहार से उसने ईतु के कलश को चकनाचूर कर दिया। उसके बाद सरौता लेकर तेजी से उस ओर चल पड़ा, जहाँ उसका बेटा और बाराती इंतजार कर रहे थे। लेकिन वहाँ कोई नहीं था। न बाराती, न गाजा-बाजा! केवल उसका बेटा खड़ा-खड़ा रो रहा था। बहुत दु:खी होकर ब्राह्मण घर लौट आया, परंतु यह क्या? विशाल घर के स्थान पर पहले जैसा फूस का घर ! ब्राह्मण हतप्रभ रह गया। उसकी पत्नी रोती हुई बोली, “ईतु ने जो दिया था, सब ले लिया।"

ब्राह्मण शांत भाव से बोला, "जो होना था, वह हो गया। सब भूलकर तुम फिर ईतु की पूजा करो।"
ब्राह्मण की पत्नी दुःखी होकर बोली, “कैसे करूँगी पूजा? कुछ भी तो घर में नहीं है।"
ब्राह्मण बोला, "चिंता मत करो, मैं सारी व्यवस्था करता हूँ।"

ब्राह्मण सहायता पाने की आशा में झुमनो के घर गया। बेटी के ठाठ-बाट देखकर वह दंग रह गया। उसने देखा, दासियाँ सोने के घड़े में जल डालकर झुमनो को नहला रही हैं। ब्राह्मण ने दासियों को अपना परिचय दिया, लेकिन उन्हें उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ। तब ब्राह्मण ने घास की एक अंगूठी बनाकर पास रखे एक घड़े में फेंक दी।

जब दासियाँ झुमनो के सिर पर जल डाल रही थीं, तब एक घड़े से वही घास की अंगूठी गिर पड़ी। झुमनो ने पूछा, “क्या है यह ? किसने इसमें डाला है ?"

एक दासी बोली, “एक आदमी ने। वे बता रहे हैं कि वे आपके पिता हैं।"
झुमनो ने आदेश दिया, "उन्हें जल्दी यहाँ ले आओ।"

दासियाँ शीघ्र ब्राह्मण को अंदर ले गईं। झुमनो ने अपने पिता का आदर-सत्कार किया। फिर बहुत सारा रुपया-पैसा, सामान देकर ससम्मान उन्हें विदा किया। लेकिन रास्ते में ही डाकुओं ने उसका सबकुछ लूट लिया। बेचारा ब्राह्मण खाली हाथ घर लौटा। पति को खाली हाथ लौटा देख उसकी पत्नी ने पूछा, “क्या बेटी ने कुछ भी नहीं दिया?"

ब्राह्मण बोला, "दिया तो था, लेकिन डाकुओं ने सबकुछ लूट लिया।"
"अब क्या होगा?"
"इस बार तुम जाओ", ब्राह्मण बोला।

ब्राह्मण की पत्नी झुमनो के घर गई। वहाँ उसका बहुत आदर-सत्कार हुआ। उसने अपने आने का कारण बताया। झुमनो अपनी माँ को सलाह देती हुई बोली, “तुम यहीं ईतु की पूजा करके घर जाना।"

ब्राह्मण की पत्नी मान गई। उसके बाद पूजा का वही दिन आया। झुमनो ने अपनी दीदी उमनो को उपवास रखने एवं ईतु की पूजा करने को कहा। पूजा के अंत में रविवार के दिन झुमनो ने माँ एवं दीदी को ईतु पूजा करके इच्छित वर माँगने को कहा।

ब्राह्मण की पत्नी ने माँगा, "मेरा सभी कुछ पहले जैसा लौट आए।"
उमनो ने माँगा, "मेरा घर जैसा था, फिर से वैसा हो जाए। मुझ पर पति की कृपा हो।"

देखते-ही-देखते उमनो और ब्राह्मण की पत्नी की इच्छाएं पूर्ण हो गईं। उनके जीवन में किसी भी चीज का अभाव न रहा।

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