उलझी-सुलझी एक कथा (कहानी) : विभा देवसरे

Uljhi-Suljui Ek Katha (Hindi Story) : Vibha Devsare

"जानती हूँ सावित्री को।"

"क्या थी उसकी कहानी, तुम्हें पता है ?"

"हाँ, पता है । अपने मरे पति को यमराज से माँग लाई थी और सती सावित्री कहलाई थी। "

" और तुम अपने पाँच बच्चों सहित अपने पति को छोड़ना चाह रही हो ? अगर ऐसा था तो तुमने शादी ही क्यों की ?"

"जिस समय शादी हुई, हमने प्रेम का मतलब नहीं समझा था।"

"और शादी के बाद प्रेम करना, क्या यह वफादारी है? अपने नादान बच्चों को छोड़ना क्या तुम्हारी..."

उसके चेहरे का आक्रोश यथावत् था और आँखों में उमड़ते प्रश्नों का सैलाब बह जाने को था। फिर भी अपनी ओर से अपनी सच्चाई को किसी भी तरह का नकाब पहनाने को वह राजी नहीं थी। मेरी समझदारी पर उसके चेहरे पर तरस खाने जैसा भाव था। मेरे और कुरेदने पर बोली, "प्रेम के एहसास से मैंने अपने अंदर के हर बंद ताले को खुलते हुए महसूस किया है। उससे ऊपर मैं कुछ नहीं जानती। आप प्रेम को खानों में मत बाँटिए, उसे खुला छोड़ दीजिए। उसकी महक को अपनी हर साँस से एक बार तौलकर तो देखिए, प्रेम हर साँस से ऊपर है।"

"तुमने प्रेम को अगर इतनी गहराई से जाना है तो तुम्हें यह भी जानना चाहिए कि प्रेम का दूसरा नाम त्याग भी होता है। जब हम किसी को पूरे मन से चाहते हैं तो उसके लिए सबकुछ त्याग भी सकते हैं; लेकिन तुम तो...."

"मैं यह सब कुछ नहीं मानती।"

उसने गुस्से से अपनी पूरी असहमति जताई, "आप क्या समझती हैं, मैं ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हूँ तो कुछ समझती नहीं हूँ ?"

"मैंने ऐसा तो नहीं कहा।" मैंने अपनी सफाई दी, “मैं तो बस तुम्हें यह समझाना चाहती थी कि उस शादीशुदा आदमी के पीछे तुम अपनी और अपने पाँच बच्चों की जिंदगी क्यों बरबाद कर रही हो?"

"आपसे मैं कह तो चुकी हूँ कि जब मैंने उससे प्यार किया तब वह शादीशुदा नहीं था।"

"लेकिन तुम्हारी शादी तो हो चुकी थी, फिर भी..."

"हाँ, मेरी शादी हो चुकी थी। मेरी उम्र सिर्फ दस ग्यारह साल की थी, जब मैं कपड़े से हुई - तो मेरा गौना हुआ। मैंने बहुत ध्यान से अपने पति को देखा। वह मुझे पसंद नहीं था। मर्द का जो खाका मैं अपने दिल-दिमाग में खींच चुकी थी उसमें वह कहीं भी सपा नहीं रहा था। वैसे ही जैसे मेरी भद्दी, काली और मोटी चचेरी बहन मेरे जीजा को पसंद नहीं आई थी और शादी के दो दिन बाद ही वह उसे मायके पटक गया था।"

"यहाँ तुम यह क्यों भूल रही हो, वह आदमी था और तुम एक औरत ।"

"बस, मैं इसी पत्थर पर लकीर खींचना चाहती हूँ। क्यों नहीं है मुझे यह हक ? मशीन की तरह इस्तेमाल होते रहना ही अगर औरत होना है तो मैं वह औरत नहीं हूँ। यह सच है कि मैं अपने पति के लिए मशीन बनी, लेकिन औरत तो मैं अपने प्रेमी के लिए ही बनी। मुझे वह दिन अच्छी तरह याद है, जब मैंने उसकी आँखों में अपने हजार-हजार सपनों को रंगीन होते देखा था। आज भी जब कभी आईने में अपने को देखती हूँ तो उसकी छवि में ही अपने को पाती हूँ। मैं उसे कैसे छोड़ दूँ?"

मैंने उसे फिर समझाने की कोशिश की, "तुम मुझे इतना समझा दो- तुम्हारा प्रेमी अब शादीशुदा है, दो बच्चों का बाप है, अपनी जवान बीवी के संग रंगरलियाँ मना रहा है और तुम हो कि नाहक अपने और अपने बच्चों की जिंदगी बरबाद करने पर तुली हो।"

उसने अपनी पूरी शक्ति और उसमें सराबोर आत्मविश्वास को उड़ेलते हुए कहा, "मुझे अपने प्रेम पर पूरा भरोसा है। वह मेरा है और मेरा ही रहेगा।"

"अगर मैं तुम्हारे पति को न भी गिनूँ तब भी तुम छह जिंदगियों को दाँव पर लगा रही हो। पैंतीस की तुम्हारी उम्र हो गई। जिस यौवन और आकर्षण से तुम अपने प्रेमी से बँधीं, वह भी अब उतार पर है और अभी भी तुम..." फिर मैंने एक क्षण रुककर पूछा, "अच्छा, यह बताओ कि यह तुम्हारी जिद है या तुम्हारे प्रेम का पागलपन है ? अगर ऐसा सोच रही हो तो तुम गलत सोच रही हो। समय और परिस्थिति आदमी को कहाँ से कहाँ पहुँचा देते हैं। हम सब उसी के वश में हैं।"

उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में विवशता थी। आँखों में पानी भरा था, पर वह कुछ भी मानने को तैयार नहीं थी। उसी विश्वास और पूरी दृढ़ता से बोली, "मैंने प्यार किया है, कोई गुनाह नहीं किया और मेरा प्रेमी, आपसे कैसे कहूँ, उसके प्रेम को और उसके एक-एक स्पर्श को मैं कैसे भूल सकती हूँ। उसकी एक निगाह के लिए मैं कितना तरसी हूँ, बिना किसी ऊँच-नीच की परवाह किए मैंने उसे पाया है। आप कहती हैं कि मैं उसे भूल जाऊँ, समय से समझौता कर लूँ। मुझे कौन राधा समझेगा? उस बेमतलब की ऊँचाई को मैं नहीं छूना चाहती। मुझे तो मेरा प्रेमी चाहिए, अपने प्रेम का पूरा हक चाहिए। मैं क्यों नहीं हो सकती हूँ उसकी। और क्या यह हक उसकी ब्याहता को सिर्फ इसलिए दिया जाता है कि उसने मंडप में अपने पति के साथ सात फेरे लिये हैं? मेरी पीठ का यह नील देख रही हैं।" उसने ब्लाउज को पीछे सरकाकर मुझे दिखाया। उसकी गोरी पीठ पर नीले चकत्ते पड़े थे।“आप जानती हैं, यह मार मेरे पति ने नहीं, मेरे प्रेमी ने दी है, क्योंकि मैं उसके घर चली गई थी। मैंने सुना था कि उसकी पत्नी मायके गई है। पर मेरी चोरी पकड़ी गई। मेरे प्रेमी ने अपना दामन झट से झाड़ लिया और अपनी बीवी के सामने ही मुझे खूब पीटा। वह भी मजबूर था। अपनी पत्नी की निगाह में नीचा तो नहीं हो सकता था।"

"अरे, अजीब औरत हो तुम! जिस प्रेमी को पाने के लिए तुम अपना सबकुछ छोड़ने को तैयार हो, उसी की पत्नी के आगे पिटकर क्या तुम अपमानित नहीं हुई?"

"कैसा मान और कैसा अपमान ?" उसने एक गहरी साँस ली, "जब शुरू- शुरू में मैं उसके प्रेम बंधन में फँसी थी और मेरे पति ने मेरे माता-पिता के आगे मुझे मारा था तो मेरे माता-पिता ने भी मेरा तिरस्कार किया। मुझे मेरे मायके की देहरी लाँघने नहीं दी। मैंने अपनी माँ की ओर बड़ी उम्मीद से देखा था। उसकी आँखों में मेरे लिए आँसू थे, पर वह विवश थी। उसने मुँह फेर लिया था। तभी मैं समझ गई थी कि प्रसव-पीड़ा झेलना और संतान का दर्द, और वो भी लड़की का दर्द, महसूस करना दो अलग चीजें हैं।

"मेरे भाइयों ने मिलकर मेरे प्रेमी को बहुत मारा था। उस दिन मैं अपने छह महीने के बच्चे को छोड़कर सारी रात अपने प्रेमी के घाव को सहलाती रही। आप भले इसे गलत समझें, पर उसके घाव का दर्द मेरा दर्द था। मैं कैसे आपको यह समझाऊँ कि प्रेम की सबसे बड़ी लकीर खींचकर बाकी दुनिया की हर चीज को मैं बौना बना देना चाहती हूँ।"

"अच्छा, यह बताओ, तुम्हारा प्रेमी तो शादीशुदा नहीं था, फिर तुमने उसे क्यों शादी करने दी ? इसका मतलब तो साफ यही हुआ कि तुम जिस गहराई से उसे प्यार करती हो, वह शायद..."

वह तड़प उठी, "ऐसा नहीं है, ऐसा मैं सुन भी नहीं सकती। वह शादी नहीं करना चाहता था। एक रात हम दोनों उस शहर से दूर, बहुत दूर एक दूसरे शहर में चले गए। वहाँ हमने एक-दूसरे को बहुत प्यार किया। एक-दूसरे के लिए कसमें भी खाईं, वादे भी किए; लेकिन मेरा प्रेमी मुझे खुश करने के लिए जो कुछ भी कर रहा था, वह कानूनन जुर्म था। उसे अपने पकड़े जाने का डर हर समय बना हुआ था। और ऐसा ही हुआ, एक दिन वह पकड़ा गया। पुलिस इंस्पेक्टर ने कई शर्तें रखीं। पुलिस इंस्पेक्टर की कई बहनें थीं। बाप की मौत हो चुकी थी। पुलिस की ऊपरी कमाई में भी अपनी गृहस्थी, बच्चों और कुँआरी बहनों की जिम्मेदारी निभा पाना उसके लिए संभव नहीं था। मेरा प्रेमी और वह पुलिसवाला एक ही बिरादरी के निकले । बस, समझौता हो गया। आज की बाजारू दुनिया में आपसी खरीद- फरोख्त से सब मामले सुलझ जाते हैं। मेरा प्रेमी इस बात के लिए राजी हो गया कि वह पुलिस इंस्पेक्टर की बहन से शादी करेगा। पुलिस इंस्पेक्टर की दूसरी शर्त बड़ी विचित्र थी। उसे मानने पर ही वह मेरे प्रेमी को छोड़ता। पुलिस इंस्पेक्टर मेरे संग एक रात बिताना चाहता था। मैंने थाने में बेरहमी से पिटते मुजरिमों को देखा था। मैं अपने प्रेमी की मार से सिहर उठी और मेरी भी सहमति से सारा सौदा तय हो गया।"

उसकी यह ऊल-जलूल दास्तान मुझे किसी बॉक्स ऑफिस पर पिटी हुई फिल्म से ज्यादा और कुछ नहीं लग रही थी। अजीब सिरफिरी औरत है यह और उससे भी अजीब है इसका प्यार और प्रेमी। आखिर में जाते-जाते जो कुछ वह कह गई, वह कहीं बहुत गहरा था, जिसने मुझे सोचने पर मजबूर किया।

जाते हुए वह बोली, "आप सोचेंगी कि मैंने आपकी बात क्यों नहीं मानी ? मेरा प्रेमी बड़े विश्वास से मुझे आपके पास छोड़ गया था कि मैं किसी तरह उसका पीछा छोड़ दूँ। खुद भी अपने पति और पाँचों बच्चों के बीच चली जाऊँ और उसे भी मुक्त कर दूँ। पर एक बात तो आप भी मुझे अगर समझा सकें कि क्या औरत और मर्द का प्यार किसी रिश्ते से ऊपर नहीं हो सकता ?

"रिश्ते तो मुझे सींखचों जैसे लगते हैं- दमघोंटू और लिजलिजे । ये जब बँधते हैं तो इनका प्रवाह अपने आप रुक जाता है और वहाँ सड़ांध आने लगती है और आप देखें, मैं अपने प्रेमी से कहाँ कुछ ज्यादा माँग रही हूँ! मैं तो चाहती हूँ कि वह मुझे वह सबकुछ लौटा दे, जिसके लिए मैं औरत जाति से नीचे समझी गई। अपने मान-अपमान का होश गँवा बैठी, अपने ही जने बच्चों की आँखों में तिरस्कार पाया और पति के लिए मशीन बनी रही। क्या मेरा प्रेमी यह सबकुछ मुझे लौटा सकेगा? अगर नहीं तो मैं भी उम्र भर उसकी परछाईं बनी रहूँगी। आप खुद सोचें, किसको क्या मिल जाता है, कौन क्या ले जाता है! यह सब यहीं धरती और खुले आकाश के नीचे ही समझ लेने में बुराई क्या है? ये भगवान् के बनाए जो पुतले आदमी और औरत हैं न, ये जिस नाजुक डोर से बँधे हैं, वह प्रेम नहीं तो और क्या है ?"

मैं उसकी किसी भी बात को उसके अर्थ की तह तक समझने में असमर्थ थी। उसकी कहानी न सुलझी थी, न उलझी । आखिर क्या है यह प्रेम ? यह औरत-मर्द का संबंध और परस्पर सुरक्षा, जो औरत को औरत नहीं रहने देता और मर्द को बहुत सारे एहसास दे जाता है ?

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