उलझन (कहानी) : महीप सिंह
Uljhan (Hindi Story) : Maheep Singh
कॉलेज से आते ही प्रोफ़ेसर महेंद्र सिंह ने अपना कोट और टाई उतार कर पलंग पर फेंक दी । पप्पी पलंग पर सोई हुई थी और सुरजीत कौर पास ही बैठी खाना गर्म कर रही थी । आँ! हां! अभी पगड़ी न उतारिएगा।' वह वहीं बैठीबैठी चिल्लाई, 'दो मिनट बैठकर साँस ले लीजिए । बाहर से गर्म-गर्म आते हैं और आते ही पगड़ी उतार देते हैं, सिर में सीधी हवा लगती है और फिर जुकाम हो जाता है। ... कितनी बार कहा मेरी तो कोई सुनता ही नहीं।'
महेंद्रसिंह अब तक पगड़ी उतारकर मेज़ पर रख चुके थे और शीशे के सामने खड़े अपने केशों पर कंधा फेर रहे थे । सुरजीत कौर ने खाना मेज़ पर लगा दिया और कोट और टाई को हैंगर पर टाँगते हुए झुंझलाए स्वर में कहा- 'इतना भी नहीं होता कि आकर अपने कपड़े तो हैंगर पर टाँग दें । बस पलंग पर फेंक दिया । क्रीज खराब हो जाती तो कल कालेज पहनकर क्या जाते?'
महेंद्रसिंह कुछ बोले नहीं, थोड़ा मुस्करा भर दिए और तौलिए से अपने हाथ पोंछते हुए खाने की मेज़ पर बैठ गए । पानी के गिलास भरकर सुरजीत भी बैठने को ही थी कि पलंग पर पतले दुपट्टे के अंदर लेटी हुई पप्पी थोड़ी-सी कसमसाई ।
'और मुसीबत ।' कहती हुई सुरजीत झट से पलंग की ओर बढ़ी और उसे सुलाने के लिए थपकियां देने लगी।
'अब आओ भी न।' महेद्रसिंह चम्मच से सब्जी का रसा पीते हुए बोले,' दो बज रहे हैं और मुझे बड़े जोर से भूख लग रही है । तुम यह क्या ले बैठी?'
'भूख क्या मुझे नहीं लगी है?' सुरजीत जरा झुंझलाकर बोली, 'पप्पी जाग जाएगी तो दोनों का खाना हराम हो जाएगा-आप शुरू कीजिए।'
किंतु पप्पी को सुलाने के सभी प्रयत्न असफल रहे और आखिर उसे साथ लेकर बैठना पड़ा। उसने प्लेट से रोटियाँ निकालकर नीचे फेंक दीं, सब्जी की कटोरी को मेज़ पर उलट दिया । महेंद्रसिंह अरे। अरे। करते रहे, सुरजीत खीझती झुंझलाती रही और दोनों किसी प्रकार खाते रहे।
महेंद्रसिंह को कालेज में प्राध्यापक हुए दो वर्ष ही हुए थे । अपने घर से काफी दूर बंबई जैसे नगर में उन्हें नौकरी मिली । पहले वर्ष तो वह अकेले एक होटल में रहते रहे क्योंकि लगातार प्रयत्न करते रहने पर भी उन्हें रहने योग्य कोई उचित स्थान नहीं मिल सका । दूसरे वर्ष बड़ी चेष्टा करने पर उन्हें अपने कॉलेज से लगभग दस मील दूर एक खोली मिली, अर्थात् एक कमरा जिसमें लकड़ी का पर्दा लगाकर एक रसोई बनाई गई थी । किराया छह मास का पेशगी देना पड़ा था । कुशल इतनी ही थी कि कुछ पगड़ी नहीं देनी पड़ी । महेंद्रसिंह का बस चलता तो ऐसे मकान की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते किंतु वह अनुभव कर चुके थे कि उनके जैसे वेतन पाने वाले व्यक्ति को बंबई जैसे नगर में इससे अच्छे स्थान की आशा नहीं करनी चाहिए।
खाना खाकर महेंद्रसिंह पलंग पर लेट गए और एक पत्रिका के पन्ने उलटने लगे । सुरजीत ने पप्पी को उनके पास बैठा दिया और स्वयं जूठे बर्तनों को समेटने में लग गई । महेंद्रसिंह कई बार कह चुके थे कि क्यों न एक नौकर रख लिया जाए, तो बर्तन माँजने, कपड़े धोने और पप्पी को खिलाने में मदद कर दिया करे । किंतु सुरजीत सदा यही कहकर टालती रही कि इतने वेतन में बंबई जैसे नगर में नौकर रखने की गुंजाइश कैसे हो सकती है? आखिर दस बीस पीछे भी तो डालने चाहिए । समय कुसमय में कुछ पास न होगा तब किसके सामने हाथ फैलाएंगे? महेंद्रसिंह इस तर्क पर चुप हो जाते । फिलहाल एक बाई काम करती थी जो दोनों समय बर्तन मौज जाती और कमरे में झाडू, कटका कर जाती । बंबई में कटका का अर्थ होता है गीले कपड़े से कमरे के फर्श को साफ कर देना।
सुबह महेंद्रसिंह की नींद खुली तो उन्होंने देखा कि सुरजीत नहाई धोई रसोई में बैठी स्टोव जला रही है। वह पलंग से उठकर कुर्सी पर बैठ गए और बोले, 'एक गिलास पानी देना ।' सुरजीत ने चाय का पानी स्टोव पर चढ़ा दिया था । उसने उठकर एक गिलास बासी पानी, जो उनके नित्य प्रात: पीने की आदत थी, उनके सामने रख दिया और कहा, 'जल्दी नहा धो आइए, काफी देर हो गई है ।' महेंद्र सिंह ने पानी पीकर मेज़ पर रखी टाइमपीस की ओर देखा । साढ़े छह बजनेवाले थे । उन्होंने दैनिक पत्र उठाया और वह उसकी मोटी-मोटी सुर्खियाँ देखने लगे । सुरजीत ने रसोई में से ही कहा, 'चाय तैयार है । फिर कालेज को देर हो जाए तो मुझे न कहिएगा।'
महेंद्रसिंह जमुहाई लेते हुए उठे और इधर-उधर हुए बोले, 'तौलिया कहाँ है,'
'तार पर नहीं टँगा है क्या?'
उन्होंने कमरे में आर-पार बंधे हुए तार पर दृष्टि डाली और उस पर से तौलिया उतार लिया । फिर उन्होंने कमरे के एक कोने के आले से साबुनदानी और पेस्ट उठाया पर देखा कि वहाँ ब्रुश नहीं है । 'मेरा बुश कहां है?' वह जोर से चिल्लाए ।
'वहाँ आले में नहीं है?' सुरजीत ने रसोई में ही बैठे-बैठे उत्तर दिया।'
'यहाँ तो कहीं नहीं।'
'वहीं कहीं इधर-उधर होगा । देखिए न ।'
महेद्रसिंह ने इधर-उधर देखा किंतु उन्हें कहीं दिखाई न दिया । बोले, 'आओ जरा ढूँढ़ दो, मुझे तो नहीं मिलता।'
इधर पप्पी भी जाग गई । सुरजीत ने उसे पलंग से उठाया और उनकी गोद में देते हुए कहा, 'पकड़िए, मैं देखूँ ।' महेंद्रसिंह ने पप्पी को ले लिया । वह अपने छोटे से हाथ से उनके मुँह की ओर ताकती हुई उनकी लंबी नाक को पकड़ने की कोशिश कर रही थी और महेंद्रसिंह बुत बने खड़े थे।
'यह लीजिए ।' सुरजीत ने ब्रुश अपने हाथ में लेते हुए कहा, 'उस कोने में पड़ा था । मगर यह नहीं हुआ कि जरा कमर झुकाकर ढूँढ़ लें । एक आदमी तो खाली आपके कामों के लिए होना चाहिए।'
महेंद्रसिंह हँस दिए, बोले, 'तुम्हारे सामने तो सचमुच मेरी सारी चलत-फिरत मारी जाती है । पता नहीं पिछला साल कैसे कट गया । अब तो तुम्हारे बिना मुझ से तिल भर भी करते धरते नहीं बनता । देखो न जरा-जरा सी बात के लिए तुम्हारे सहारे पड़ा रहता हूँ।'
सुरजीत जब कभी महेंद्रसिंह के मुख से इस प्रकार के शब्द सुनती उसे एक प्रकार का आत्मिक आनंद मिलता । यह अनुभूति उसे एक अजीब-सा सुख देती कि कोई उस पर इतना आश्रित है कि अपनी छोटी-से-छोटी बात के लिए उस पर निर्भर रहता है । फिर भी वह नाराजगी भरे स्वर में बोली, 'अच्छा जाइए और जल्दी निपटिए। ऐसा भी क्या आलस?'
महेंद्रसिंह सचमुच बड़े आलसी थे-या यों कहिए कि अब हो गए थे । सुबह उठते ही चिल्लाना शुरू कर देते थे- पानी, तौलिया, ब्रश, पेस्ट। नहाने जाते समय जब कच्छा भूल जाते तब या तो सुरजीत स्मरण कराती या फिर गुसलखाने से कच्छे के लिए पुकार आती और सुरजीत को रसोई घर में जलते हुए स्टोव और उबलते हुए दूध को वैसे ही छोड़कर भागना पड़ता । आगे बढ़ते हुए प्रत्येक कदम पर वह पीछे घूमकर देखती जाती कि इस बीच कहीं पप्पी रसोई घर में घुसकर सब उलट-पुलट न कर दे । महेंद्रसिंह जब नहाकर आते तब उन्हें दाढ़ी फिक्स करने के लिए एक कटोरी पानी खुला हुआ ठाठा (दाढ़ी पर बाँधनेवाला कपड़ा) और काला धागा तैयार मिलता । ऐसे समय जब कभी पप्पी आकर उनसे उलझने लगती तब वह चिल्ला उठते, 'अरे इसे पकड़ो नहीं तो फिक्सों की शीशी उलट डालेगी।'
और तब सुरजीत रसोई से ही उसे आवाजें देना शुरू करती या फिर पकड़ने के लिए स्वयं आती।
एक दिन महेंद्रसिंह कालेज जाने के लिए तैयार हो रहे थे । पगड़ी बांध चुके थे, कपड़े पहन चुके थे । बूट पहनने लगे तो देखा कि उसमें पड़े हुए मोजे कुछ गंदे हैं। उन्होंने इधर-उधर देखा, सुरजीत कहीं पास दिखाई नहीं दी । दूसरे मोजे ढूँढ़ने के लिए उन्होंने दो-तीन संदूकों के कपड़े इधर-उधर पलट डाले किंतु सब बेकार । वह खड़ेखड़े झुंझला ही रहे थे कि सुरजीत हाथ में कुछ घुले हुए गीले कपड़े लिए वहाँ आ गई।
'अरे? क्या खोज रहे हैं आप?' संदूकों के उलटे-पुलटे कपड़ों को देखकर उसने पूछा।
'तुम कहाँ गई थीं? मुझे मोजे चाहिए । सब देख डाला पर कहीं नहीं मिले ।'
'गुसलखाने में पप्पी के दो फ्राक ही तो धोने गई थी। इतनी देर में मानों प्रलय आ गई । 'कहती हुई उसने उखड़े हुए एक संदूक के कोने से मोजे निकाल कर उनके हाथ में दे दिया । फिर कहा, 'जरा ध्यान से देखते तो वहीं मिल जाते मगर आप को तो खाली उलट-पलट करना आता है । सारे कपड़ों की तह खराब करके रख दी।'
देर हो जाने की आशंका से महेंद्रसिंह वैसे ही खीझे हुए थे, सुरजीत की इस बात से उनका पारा और चढ़ गया । बड़े गंभीर स्वर में बोले, 'देखो जब तक मैं कालेज चला न जाया करूँ तब तक तुम एक क्षण के लिए भी मेरे सामने से न हटा करो । तुम्हें मालूम तो है कि तुम्हारे बिना जरा-सी देर के लिए भी, एक क्षण के लिए मेरा काम नहीं चलता।'
महेंद्रसिंह के इस क्रोध में भी सुरजीत को हँसी आ गई, बोली, 'जब मैं नहीं आई थी तब आपका काम कैसे चलता था।'
'तब मैं अपना सब काम स्वयं कर लेता था । तुम्हीं ने तो मेरी आदतें बिगाड़ दी है ।'
कभी-कभी सुरजीत घर के काम से बहुत खीझ जाती थी । महेंद्रसिंह का आलस और पप्पी उसके मुख्य कारण होते। पप्पी जब से बंबई आई थी पहले दिन से ही उसे यहां के दूध से ऐसी अरुचि हो गई थी कि एक बार में पाँच औस पी जाने वाली वह लड़की अब दूध की बोतल को मुँह नहीं लगाती थी । महेंद्रसिंह ने डिब्बे का दूध लाकर दिया । किंतु उसे वह भी नहीं भाया । इसलिए अब वह अधिकतर माँ के दूध पर रहने लगी थी और दिन में एक क्षण के लिए भी सुरजीत का पिंड नहीं छोड़ती थी । महेंद्रसिंह जितनी देर भी घर पर रहते या तो कुछ पड़ते रहते या लिखते रहते । जब कभी सुरजीत तंग आकर पप्पी को उनके हाथ में पकड़ा जाती वह उसे पाँच मिनट से अधिक नहीं टिका पाते । या तो वह उनकी पुस्तकों के पन्ने नोचने शुरू कर देती या फिर रोने लगती और महेंद्रसिंह झुंझला कर किसी काम में लगी सुरजीत के पास उसे बैठा आते । वह झट माँ का कंधा पकड़कर खड़ी हो जाती और उसकी गोद में पहुंचने का प्रयत्न करने लगती।
उस दिन महेंद्रसिंह जब कोलेज से लौटे तब सुरजीत बहुत झलाई और परेशान बैठी थी । पप्पी उसकी गोद में पड़ी दूध पी रही थी । आज उसने उसे बहुत परेशान किया था । खाना बनाते समय वह बार-बार रसोई घर में घुस आती और सुरजीत की पीठ का सहारा लेकर उधम मचाने लगती । एक बार वह बगल से होकर जलते हुए स्टोव के पास पहुंच गई । सुरजीत चमचे से सब्जी हिला रही थी । पप्पी का हाथ जलते हुए स्टोव पर पड़ने ही वाला था कि उसने देख लिया और वह हड़बड़ाहट में सुरजीत की कोहनी स्टोव पर रखे बर्तन से लगी और वह उलटकर नीचे आ गिरा । सारी सब्जी फर्श पर बिखर गई । सुरजीत के कपड़े पीले हो गए । दो चार छीटें पप्पी पर आ पड़े और वह जोर-जोर से रोने लगी । फर्श पर पड़ी हुई सब्जी के रसे में सने हुए कपड़ों और पप्पी की चीखों ने उसे एक साथ पागल-सा बना दिया । किसी प्रकार उसने अपने कपड़े बदले, पप्पी के बदन पर जहाँ छीटें पड़े थे वहाँ नीली रोशनाई लगाई और फिर उसे चुप कराने के लिए वह दूध पिलाने लगी । इस घटना ने उसे इतना भ्रमित कर दिया कि उसे इस बात का ध्यान ही न रहा कि महेंद्रसिंह के आने का समय हो गया है और उसे उनके लिए अब तक कुछ खाना बना लेना चाहिए था ।
महेंद्रसिंह ने आते ही अपनी आदत के अनुसार कोट और टाई उतार कर पलंग पर डाल दी और कमीज उतारते हुए वह बोले, 'जल्दी खाना लगाओ, भूख अपना पूरा जोर दिखा रही है ।'
सुरजीत जैसे नींद से जागी । उसने पप्पी की ओर देखा । वह दूध पीती-पीती गोद में ही सो गई थी । उसे पलंग पर लिटाते हुए सुरजीत ने कहा, 'आज खाने में कुछ देर है । अभी बन नहीं पाया है ।'
'अभी बन नहीं पाया है? क्यों?' महेंद्रसिंह ने जरा तीखे स्वर में पूछा, 'मुझे तो भूख बड़े जोर से लग रही है।'
'अभी बन जाता है' के अतिरिक्त सुरजीत ने और कुछ नहीं कहा । एक गुबार-सा उसके हृदय में भरा हुआ था जिस पर उसके मौन ने आवरण डाल रखा था । वह जैसे ही रसोईघर में जाने को हुई पप्पी जागकर रोने लगी। शायद उसकी जलन की पीड़ा उसे सोने नहीं दे रही थी । सुरजीत ने पप्पी की ओर देखा और फिर महेंद्रसिंह की ओर कुछ तीखी दृष्टि से देखते हुए कहा, 'आप जरा इसे उठा लीजिए।'
एक तो महेंद्रसिंह वैसे ही पप्पी को बहुत कम लेते थे और अक्सर सुरजीत को उसे गोद में लिए ही खाना बनाना पड़ता था । पर आज तो महेंद्रसिंह की मन:स्थिति भी ठीक नहीं थी । कुर्सी पर बैठे और एक पत्रिका के पन्ने उलटते हुए वे बिगड़कर बोले, 'ना बाबा यह काम मुझ से नहीं होगा।'
पप्पी तथा घरेलू कार्यों के प्रति महेंद्रसिंह के ये उद्गार सुरजीत के लिए नए नहीं थे । किंतु आज के उनके इन शब्दों ने उसे वह ठेस पहुँचाई कि उसका अंतरतम तिलमिला उठा । हृदयागार में चिरसंचित कुछ मानो अब फटकर बाहर निकल आना चाहता था। उसके नेत्र डबडबा आए और उसके मुख से कुछ अस्फुट शब्दों के निकलते न निकलते आँसुओं की धारा वेगवती होकर बह चली । पप्पी को पलंग से उठाते हुए उसने कहा, 'आप इसे नहीं लेंगे तो आज मुझसे खाना नहीं बन सकेगा।'
महेंद्रसिंह ने मूक दृष्टि से सुरजीत की ओर देखा । वह अपनी आँखें पोंछती हुई कह रही थी, 'आप पुरुष लोग यह समझते हैं कि जीविका कमाने के लिए आप तो मेहनत करते हैं और ये स्त्रियाँ घर में बेकार बैठी रोटियां तोड़ती हैं । इसलिए घर गिरस्ती का और अपना जितना भी बोझ इन पर डाला जाए उतना ही ठीक। किंतु हम औरतें घर में अपना दिन किस तरह गुजारती हैं यह हमें ही पता है। आपकी नौकरी तो कुछ घंटों की होती है किंतु हम चौबीस घंटे नौकर हैं और ऐसे नौकर कि जिनके काम को काम नहीं समझा जाता । आप अपने मालिकों से दया और सहानुभूति की आशा रखते हैं किंतु हम पर आप शायद भूलकर भी दया दिखाना नहीं चाहते । आज मेरा जरा-सा ध्यान चूक जाता तो पप्पी स्टोव से जल जाती और पता नहीं कितनी मुसीबतें उठानी पड़ती। इसको बचाने में सारी सब्जी जमीन पर गिर गई । मेरे कपड़े खराब हो गए और इस पर भी कई जगह गर्म छींटे पद गए। तब से यह लगातार रो रही है।'
महेंद्रसिंह ने खेद और उत्सुकता मिली दृष्टि से पप्पी की ओर देखा । उसकी बाँहों पर दो तीन जगह नीली दवा लगी हुई थी । महेंद्रसिंह क्रोध से उबल पड़े और बोले, 'मैंने तुमसे कई दफा कहा कि एक नौकर रख लो लेकिन तुम हो कि मेरी बात सुनती ही नहीं।'
सुरजीत बोली, 'मुझे क्या नौकर से कोई चिढ़ है? अगर मैं यह खर्च बचाना चाहती हूँ तो क्या अपने लिए? कल अगर हमारे पास दो चार पैसे न हुए तो आपके माता-पिता आप को नहीं, मुझे दोष देंगे कि इसने समय-कुसमय के लिए चार पैसे भी बचाकर नहीं रखे।'
सुरजीत ने देखा पप्पी उसके कंधे पर सिर रखे सो गई है। उसने उसे धीरे से पलंग पर लिटा दिया और अपना मुँह पोछती हुई रसोईघर में चली गई।
महेंद्रसिंह की दृष्टि तो पत्रिका के पृष्ठों पर लगी थी किंतु विचारों का झंझा कहीं और चल रहा था। अपने तीन चार वर्ष के विवाहित जीवन में उन्होंने सुरजीत के नेत्रों में इस प्रकार के आँसू कभी नहीं देखे थे । आज की उसकी बातों ने उन्हें झकझोर दिया था और वह सोच रहे थे-क्या कालेज के अलावा घर के लिए मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है? क्या सुरजीत ने ठीक नहीं कहा कि हम पुरुषों के काम के घंटे तो सीमित होते हैं पर स्त्रियाँ चौबीस घंटे की गुलाम होती हैं? हमें सप्ताह में एक दिन की छुट्टी मिलती है लेकिन उस दिन इन्हें और दिनों से ज्यादा काम होता है ।
पता नहीं वह इसी प्रकार कितनी देर सोचते रहे । उनकी विचार श्रृंखला तब टूटी जब सुरजीत ने उन्हें खाने के लिए बुलाया ।
उस दिन के बाद से महेंद्रसिंह के व्यवहार में एक विचित्र-सा परिवर्तन दिखाई देने लगा । उन्होंने मन-ही-मन निश्चय कर लिया था कि अब वे अपने छोटे-मोटे व्यक्तिगत कार्य स्वयं कर लिया करेंगे और जितना हो सकेगा घर के काम में सुरजीत का हाथ बटाएंगे । सुबह उठते ही उन्होंने स्वयं घड़े से एक गिलास पानी लेकर पिया । स्नान करने गए तो वहीं से अपना बनियान और कच्छा धोते लाए । कालेज जाने के पहले जूतों पर उन्होंने स्वयं ही पालिश कर ली । सुरजीत उनके इस व्यवहार पर चकित अवश्य हुई किंतु बोली कुछ नहीं ।
दो चार दिन ऐसे ही बीत गए । अब महेंद्रसिंह कालेज से आकर अपने कपड़े पलंग पर फेंकते नहीं बल्कि व्यवस्थित रूप से हैंगर पर टाँग देते थे । शाम को सुरजीत जब खाना बनाने लगती तब वह पप्पी को लेकर छज्जे पर निकल जाते । एक दिन जब सुरजीत ने पूछा तब उन्होंने कहा, 'मैंने सोच लिया है कि अब मैं अपने छोटे-मोटे काम स्वयं करूंगा और घर के काम में भी तुम्हारी मदद करूंगा।'
सुरजीत ने हँसते हुए कहा, 'हो चुका आपसे ।'
'देख लेना।'
'तब तो बडी अच्छी बात है।'
उस दिन इतवार था, छुट्टी का दिन । इतवार को केश धोना महेंद्रसिंह का नियम था । साधारणत: सुरजीत प्रात: उठते ही उनसे केश धोने के लिए कहना शुरू कर देती थी पर वे छुट्टी के मूड में अपने सभी काम खूब बेफिक्री के साथ करते रहते थे । शौचादि से निवृत्त होकर वह चाय पी लेते, अख़बार पढ़ते रहते और पड़ोसियों से गप्पे लगाया करते । जब सुरजीत कहते-कहते परेशान हो जाती और बिगड़ने लगती तब वह तौलिया, साबुन और दही आदि लेकर गुसलखाने में जाते। आज भी उस क्रम में कुछ विशेष अंतर नहीं पड़ा । किंतु जब वह केश धोकर बाहर आए और उन्हें सुखा चुके तब स्वयं ही तेल लगाने लगे । सुरजीत पप्पी को गुसलखाने में नहला रही थी । लौटकर आई तो उसने देखा कि वह केशों में तेल लगा, कंघा कर जूड़ा बाँध रहे थे।
सुरजीत के हृदय को गहरी चोट लगी । जब से उसका महेंद्रसिंह से विवाह हुआ था और जब भी वह उनके निकट रही थी रविवार को केश धोने के बाद उन पर तेल लगाने का कार्य वह स्वयं ही करती थी । महेद्रसिंह के अन्य व्यक्तिगत कार्यों की अपेक्षा इस कार्य में शायद वह अधिक सजग रहती थी । आज उन्होंने स्वयं तेल लगा लिया है यह देखकर उसे बड़ी ठेस लगी। किंतु वह बोली कुछ नहीं।
दूसरे दिन महेंद्रसिंह स्नान करने जाने लगे तब वह बोली, 'कच्छा बनियान धोने की जरूरत नहीं है, वहीं छोड़ दीजिएगा, मैं बाद में धो दूंगी।'
'क्या फर्क पड़ता है?' कहते हुए महेंद्रसिंह गुसलखाने की ओर चले गए और जब वह लौट कर आए तब उनके हाथ में धुले हुए कच्छे बनियान के अतिरिक्त दो ठाठे भी थे ।
जब से महेंद्रसिंह अपने व्यक्तिगत कार्यों को करने में स्वयं रुचि दिखने लगे थे सुरजीत को एक विचित्र प्रकार का असंतोष-सा रहने लगा था । वह स्वयं नहीं समझती थी कि यह कैसी उलझन है, किंतु उसे लगता था कि जैसे उसकी कोई मूल्यवान निधि प्रतिदिन लुटती जा रही है। जब महेंद्रसिंह अपने सारे काम उसी पर डाले रहते थे तब कई बार वह खीझ उठती थी किंतु उसकी उस खीझ में भी उसे एक सुख की अनुभूति होती थी । अब भी उसके कान इसी प्रतीक्षा में रहते कि महेंद्रसिंह कब उसे किसी चीज के लिए पुकारेंगे । किंतु अब वह उससे कुछ नहीं कहते थे । ठाठा, बनियान, कच्छा, टाई और रूमाल आप ही ढूँढ़ लेते थे । पप्पी को स्वयं ही लेकर छज्जे पर घूमने लगते थे । घर के वातावरण में एक विचित्र-सी मूकता आने लगी थी । अब न महेंद्रसिंह की चिल्लाहट ही सुनाई देती थी न सुरजीत की खिझलाहट ही।
अगले इतवार को महेंद्रसिंह केश धोकर छज्जे पर सुखाने लगे । थोड़ी देर में उन्हें पप्पी के रोने का स्वर सुनाई दिया और वह उसे घुमाने ले जाने के लिए अंदर गए।
'रहने दीजिए, अभी इसे दूध पिलाना है ।' सुरजीत ने कहा और महेंद्रसिंह चुपचाप बाहर आकर फिर बाल सुखाने लगे । थोड़ी देर में उन्होंने हाथ लगाकर देखा केश सूख गए थे । वह कमरे में आए और अल्मारी में से तेल की शीशी निकालकर कुर्सी पर बैठकर उसका ढक्कन खोलने लगे।
सुरजीत बैठी यह सब देख रही थी । वह धीरे से उठी और पास आकर तेल की शीशी पकड़ते हुए बोली, 'लाइए मैं लगा दूं ।'
'मैं लगा लूंगा।'
'लाइए न लगा दूँ ।' सुरजीत ने जरा आग्रह से कहा।
'नहीं, मैं स्वयं लगाऊंगा।'
कहकर महेंद्रसिंह उसके हाथ से तेल की शीशी खींचने लगे । किंतु उन्होंने अनुभव किया कि सुरजीत की पकड़ कुछ कड़ी हो गई है । उन्होंने उसकी ओर देखा । सुरजीत की स्थिर दृष्टि उन पर गड़ी हुई थी । उनकी भी दृष्टि स्थिर हो गई । देखते-ही-देखते सुरजीत के नेत्र डबडबा आए और आँसुओं की एक अविरल धार बह निकली।
'अरे ? क्या हुआ?' महेद्रसिंह ने अचंभे में पूछा ।
'कुछ नहीं ।' सुरजीत ने आँखें पोछते हुए कहा, 'तेल मैं लगाऊंगी।'
महेंद्रसिंह हँस पड़े और बोले, 'तुम स्त्रियों को समझना तो शायद भगवान के भी बस में नहीं।'
और यह कहते हुए उन्होंने तेल की शीशी सुरजीत के हाथ में देकर सिर आगे बढ़ा दिया।