उज्रदारी (कहानी) : मैत्रेयी पुष्पा

Ujradari (Hindi Story) : Maitreyi Pushpa

अर्जी!

आखिरी तारीख!!

लम्हा-लम्हा कलेजे में धड़क रहा है। चाल तेज और तेज। आगे-आगे प्रधान चल रहा है। लंबा-चौड़ा, रंग-रूप से सुंदर, तीस साला जवान, पहनने-ओढ़ने से सलीकेदार, कंधे पर चमड़े की काली पट्टी के सहारे बंदूक लटकी हुई है। घर से निकला था तो उसे देखकर वह हँस पड़ी थी, ‘‘कचेहरी जा रहे हो या थाने की गश्त…?’’

‘‘भाभी, इसकी जरूरत तो घर के आँगन में भी पड़ जाती है। कैसा मौका, कैसी बात!’’ कहकर प्रधान मुसकराया। उसकी आँखों में चमक थी, रगों में हौसला। वह आश्वस्त हुई मन ही मन। यह हँसी, यह बंदूक, यह दबदबा और यह हिम्मत उसने खुद कमाई है। प्रधान का इरादा जानती है–नया खून अर्जी दिलवाने नहीं, धमाका करने जा रहा हो ज्यों। धमाके के कारण बरसों की साजिश पीली पड़ जाए–बेरक्त। उसके भीतर खून नहीं, बारूद सुलग रहा है। प्रधान न आता तो? तो क्या? शांति ने अपनी पैंतीस वर्ष की अवस्था में ऐसी सनसनाहट अनुभव नहीं की–

मैं आती, हर हालत में आती, काम मेरा है। प्रधान क्या कंधे पर बिठाकर ले जा रहा है? साथ चल रहा है–साथी लग रहा है। रिश्ता तो मेहनत और मेहनताने का ही है। दो वर्ष में जो संबंध कमा लिया है, उसी के चलने यह सदभाव…या कि इसी गैल चलते-चलते आज का दिन…सवेरे का सूरज नहीं निकला। पूरब की ओर ललामी-सी उठ रही है, बिलकुल उसी तरह…पिछली तसवीरें फड़फड़ाती हैं मन में। रह-रहकर उड़ती हैं, बेबात ही…सोचना नहीं चाहती फिर भी। गाँव के जवान रँड़ुआ भोलाराम कुम्हार के संग भागकर आई थी। बेहयाई की हद से गुजरकर स्वर्गवासी पति का घोंसला छोड़ा था कि जेठ की जागीर?

उस बसेरे को नहीं भूलती मैं, नहीं भूलूँगी, भले सौ लांछनों का भंडार…भले घर का काम नहीं, ढोरों का जिम्मा, घेर में पड़े रहना, लोहे की मशीन पर चारा काटते हुए दिन-भर देह झुलाना। थकने पर सुस्ताना, सुस्ताकर छोटे-से बेटे के संग मुसकराना। काम और खेल साथ-साथ–सोमू अपनी छोटी-सी देह उचका-उचकाकर लोहे के पनारे में मूठा देता। फिर थोड़ी ही देर में चिल्ला उठता–‘अम्मा, रोक, रोक अम्मा!’’ पर सोमू की आवाज से कई गुना ज्यादा जरूरी था मशीन चलाते रहना। वह नादान नहीं समझता था यह बात।

पर लड़के का छोटा-सा गुस्सा! नकुआ फुला-फुलाकर माथे पर बल डाल लेना!

वाह रे मेरे छोटे-से गुस्सेबाज! मशीन को छोड़कर उसे बाँहों में भर लेती। गालों और माथे पर पुचकारती। अम्मा पर बड़ा दुलार लुटाता है! सचमुच उसकी भोली चमकीली निगाहों को छूकर एक बयार-सी आती जो पसीने-भरी गर्दन और तपते सीने पर लहराने लगती; कि सोमू की ही बाँहें लिपट जाती थीं गीले गले के गिर्द।

दुनिया की मालकिन। सोमू अनमोल खजाना।

‘‘अम्मा री, तू मसीन है? पहिए के संग घूमती रहती है।’’

‘‘चल बदमास!’’

‘‘अम्मा री, तू ताई की तरह रोटी बनाया कर न! मैं तेरे चूल्हे के पास बैठकर खाया करूँगा, बीरू भइया की तरह। अम्मा री, मैं पढ़ने भी जाया करूँगा झोला लेकर। हरी कह रहा था, तेरी अम्मा मजूरिन है। मजूरों के बालक पढ़ते नहीं, मजूर बन जाते हैं।’’

‘‘हुँह! हरी बड़ा चटसार पढ़ रहा है, दिन-भर कंचे खेलता है। तू हरिया की बातों में न आया कर, वह बड़ा ऊताताई (ऊधमी) है। झूठा है।’’ बच्चे को इस तरह समझा देना बड़ा आसान था, लेकिन अपने ही आपको धोखा देना नहीं था क्या यह?

…पर बेटे से कहने की बात तो नहीं थी यह कि तेरे बाप के मरते ही घर की औरत के कामकाज छीनकर घर से हक मिटाने का सिलसिला चला दिया था जेठ-जेठानी ने। चूड़ी, बिछिया और रंग-बिरंगे कपड़ों को पाप बताकर विधवा औरत की जिंदगी पर होने वाले खर्च और चढ़ने वाले रूप को खारिज करने लगे थे घर के लोग। रंगीन सपने मत देखो, दिल मोहने वाली बातें मत सुनो, पति के दुःख की कटारी से सारे सुखों के तार-तार काट डालो। इन बातों को सोमू समझेगा भी नहीं।

बेटा, तेरे पिता के सामने यह घर रंगीन तसवीर-सा ही था–जो मशीन हम-तुम खींचते हैं, नितुआ मेहनती खींचता था। तेरे पिता लाए थे नितुआ को। जेठ तेरे बाप से उनकी तरनख्वाह लेते थे तो आधे झुक जाते थे–मानो किसान और मास्टर का अंतर बरत रहे हों भइया! पक्का मकान उन्होंने ही बनवाया था अपनी देखरेख में। जेठ जी राम-सरीखे और तेरे पिता भरत-सम भाई। ऐसा ही तो होता है सुख। इसी सुख को जिंदगी-भर पैदा करते रहते हैं लोग।

दुःख है नितुआ की जिंदगी, जिसमें हम आ गए। तसवीरें स्याह हो गईं। घर की देहरी पर बैठी मैं भूखी कुतिया की तरह, जो घर की रखवाली के बाद मालिक से दो टुकड़े डालने की आशा रखती है। फिर नितू ही कहाँ रहता? उसकी खुराक और मेहनत के दाम कौन देता?

जेठ जी ने यों ही नहीं निकाल दिया था। वह हल की मूठ तोड़ने का कसूरवार था। कमर पर लात देकर भगा दिया। पीछे से एक भद्दी गाली दी, ‘‘साला सोमू की महतारी गुटर-गुटर…’’ पड़ोस में रहने वाली बड़ी-बूढ़ियों की जुबान बेहिसाब चलती है। वे घर तोड़ने वाली बातें करती हैं। किसी के घर रण छिड़ जाय तो अपना पोपला मुँह हिला-हिलाकर मजा लेती हैं, मानो काकी के दाँत नहीं थे, होंठ थे केवल। होंठों से ही जहर भरती मेरे भीतर, ‘‘बाबरी, कब तक करेगी इनकी बेगार? चार मेहनतियों का काम डाल दियौ है कनास बद्री ने। छोरा अलग बागड़-बिल्लू…। मेरी-तेरी चिलम भरतौ फिरे।’’

मैं जानती थी सब कुछ। इसमें नया क्या था? हर औरत की आदमी मरने के बाद यही दशा होती है। गाँव में क्या दो-चार विधवाएँ नहीं? वे विधवा स्त्री नहीं, फिर ढोर-पशुओं में मिला दी जाती हैं–मुछीका (मुँह ढकने की जाली) बाँधकर बैल की तरह काम करने का साधन…। मैं आदमी थी तब तक, जब तक आदमी का हाथ सिर पर था। जब तक श्यामनरायण की पत्नी थी। अब इसमें गुरेज भी क्या मानना?

जिठानी ने समझा नहीं दिया था पंद्रह दिन बाद ही, ‘‘आदमी मरा है, दुःख तो है, पर यह बात कि तुम महतारी-बेटा के पेट तो नहीं बाँध ले गया संग? और ऐसे बिठाकर कौन खिला देगा री जिंदगी-भर?’’

मैं मन मारकर उठ खड़ी हुई। दुनिया का दस्तूर भूल गई। क्यों?

पता नहीं क्यों, जिस पति के लिए जार-जार रोती रही पूरे पंद्रह दिन, रोटी-पानी का ध्यान छोड़कर उसकी छाया में लीन रही अब तक, उसी आदमी के लिए गालियाँ निकलीं मुँह से–इन निरदइयों में छोड़ गया सत्यानासी। कमाई कर-करके इनकी जेबें भरता रहा और बड़ाई लूटता रहा। कुछ कहती तो उछल जाता कि बड़े भाई से हिस्सा-बाँट करूँ? वे मेरी गृहस्थी नहीं देखते क्या? फूट पड़वाने में औरतें माहिर होती हैं।

–अब देख ले कि तेरे बड़े भइया को हमारी रोटी भी कसकती है। मँझधार में दगा दे गया बैरी! पूत पैदा हुआ था तो गाँव-भर जिंवाया था, अब वही बालक भूखा रोता रहता है। लोग कहते हैं, भाग की खोटी शांति। पर मैं कहती हूँ कि मैं तुम दोनों भाइयों की सताई हुई हूँ…तू तो संत बनकर चला गया, हमारी राह में काँटे बोकर…

कड़ाके की ठंड थी। अँधेरी रात। अगिहाना सुलग रहा था द्वार पर कि छाती में? लोग बैठे ताप रहे थे। हवाएँ तेज हो गईं। चिनगारियाँ उड़ने लगीं। आँच पर राख डाल दी जेठ ने। लोग उठ गए। घरों के द्वार बंद होने लगे। मैं थी कि अँधेरे में आँखें गाड़े बैठी राख झाड़कर अपने ही सीने में जलते अलाव के उजियारे में सब कुछ देख रही थी।

सोमू अभी तक नहीं आया।

ग्यारह साल का बच्चा खेत में पानी काट रहा है। पच्चीस साल का नितुआ तक नहीं रुकता था इतनी रात गए तक। ये कसाई इतना तक नहीं सोचते कि कोई सियार-जिनावर…बच्चे का बूता कितना? चीख-चिल्ला भी नहीं पाएगा। पर रोज-रोज यही हालत…

पेड़ पर कोई पाँखी फड़फड़ाया–फट्ट-फट्ट…देह की रग-रग हिल गई। द्वार खोलकर निकल पड़ी खेतों की ओर। पर्दा-लिहाज त्यागकर चिल्लाने लगी–‘‘सोमूऽऽऊ…ओ सोमूऽऽ…!’’

मानो काकी की बातें कान कुरेदने लगीं, ‘‘न्यारी हो जा! तेरौ क्या हिस्सा नहीं?’’

‘बड़े भइया से हिस्सा-बाँट!’ पति की आवाज आई स्वर्ग से।

–तू तो मर ही गया। हमें जीते-जी मार गया। लाज-लिहाज और मरजाद की कटार घोंप गया हमारी छाती में। इस कटार को निकालकर जिंदा रहूँगी तो न्यारी ही हूँगी। होगा तेरा बड़ा भइया, मेरा तो हिस्सेदार है। हिस्सा खाने वाला बेईमान हिस्सेदार।

पता नहीं कौन-सी औरतें मरे हुए पति को रोती हैं, मैं पंद्रह दिन से ज्यादा भरम नहीं रख पाई। रिश्तों के खिलाफ आग बड़ी जल्दी ही भड़कने लगी। शायद पेट में जलती लौ ने लुत्ती लगा दी थी कि आग फैलती ही गई…

सवेरे लड़के को नहीं जाने दिया खेत पर। खुद गई फावड़ा उठाकर।

एकांत में कितना कुछ सोचा!

चुपचाप रहकर मन की दुनिया बदलती गई…जेठ की आन-मरजाद ने अदावत का रूप ले लिया। पर अदावत करके इस घर में रह पाऊँगी? जेठ और उनका जवान बेटा सह लेंगे मेरे किए-धरे को? उनको भोलाराम कुम्हार से मेरा बतियाना ही जहर लगता है। नितुआ से मन-गुन की बातें बताई थीं, जेठ जी ने उस संबंध को बिगाड़कर गंदा-गलीच कर दिया। मेहनती मातहत को सजा दे सकते थे, दी।…लेकिन अबकी बार खतावार भोलाराम को नहीं, मुझे ही ठहराया जाएगा, क्योंकि गाँव में कुम्हार-खटीकों में कायापलट बदलाव आया है। वे बराबर बोलने के हकदार हैं। भोलाराम के संग कुम्हारों का मोहल्ला उमड़ आएगा। अबकी बार दंड की भागीदार केवल मैं हूँगी, मैं। क्योंकि मेरी जैसी अनाथ औरत क्या, किसी भी औरत को जेठ-ससुर के आगे बोलने का हक नहीं। आदमियों की बिरादरी ऊँची है, बड़ी है। वे आदर के जोग हैं, हम सिर नवाने वाली बहुएँ। घर की मरजाद–उनके बड़प्पन और हमारे गूँगे घूँघट से है।

–घूँघट में ही रहो शांति! ठाड़े-बैठे बैर। माँद में कितने दिन रह पाओगी? फाड़कर खा जाएँगे नरसिंह। अपने आपको समझाती रही थी। मानो काकी तो होंठ हिलाकर चली गई, फिर आगे? ढर्रा भी बदल लिया। नरम-नरम बोलने लगी।

जेठ जी घी-गुड़ हो गए। हर बात मीठी ही मीठी।

जेठानी की धोती के संग मेरे लिए भी सफेद धोती खरीद लाए थे। साल में दो धोती की जगह तीसरी यह? खुशी हुई और अचरज भी। मेरे मन की बात समझ गया है यह ज्ञानी आदमी! कैसे? मैंने तो ऐसा एक भी तेवर नहीं दिखाया। अपनी और अपने बच्चे की खैर मना रही हूँ। सोचते ही सुकून-सा मिला। भूख-प्यास तो जैसी-तैसी, प्राणों को खतरा तो नहीं।

…पर मैं माँ थी–बकरे की माँ। कब तक परसाद बाँटती? मेरा दोष नहीं…

सोमू की सूखी-सी गर्दन पर दस किलो मूँग बाँधकर गठरी धर दी। बीरू के दो मास्टरों को देनी है। टूसन पढ़ाने की एवज। पूरे चार मील की पैदल चलाई। बताओ?

‘‘तू इगलास नहीं जाएगा रे सोमू!’’ बेटे को डपटकर कह दिया मैंने।

ताऊ ने आवाज में रौब मिलाकर पुकारा, ‘‘सोमुआऽऽ! चल रे! लौटकर भी आना है। रात हो जाएगी गैल में ही। फिर महतारी बेचैन होगी। चल जल्दी!’’

सोमू ने माँ की बात मान ली थी, पर ताऊ का हुकुम बजाने की उसे आदत है। सब कुल भूलकर मूँग की गठरी के पास पहुँच गया, बोला, ‘‘अम्मा, उठवा जल्दी।’’

मैं होती तो बोलती। मना करती। मैं तो खुद ही जेठ जी के कहने पर खेत में पानी काटने चली गई। सवेरे की सानी-पानी बैलों-भैंसों को देकर।

अगर वे गर्मी के दिन न होते तो शायद…अगर चिलचिलाती धूप ने विचलित न कर दिया होता तो शायद…अगर बच्चे के नंगे पाँव धधकती रेत में न भुन गए होते तो शायद…अगर देह को फाड़ती हुई जलन भीतर न उठी होती तो शायद मैं चुप, शांत रह जाती। रात में बेटे की कमजोर गर्दन को सहला-सहलाकर खुद को समझा लेती। सलामती की खातिर बहुत कुछ पी जाती।

प्यार से कंठ तड़कता हो तो क्या जहर पीएगा कोई? जहर पीकर मरने से अच्छा है, प्यासा ही मर जाए आदमी।

मैंने क्रोध में, घृणा में, अदावत में मर जाने की ठानी। ठंडी ऋतु किस काम की? आदमी का कलेजा सिकुड़कर चिड़िया का-सा हो जाए।

मेरा कलेजा गर्म हो उठा है, भस्म होने की हद तक जल रहा है।

खेत की परेहट का पानी छोड़कर, रेत-भरी डगर पर भाग ली। सब्र नहीं हुआ तो वहीं से चिल्लाकर आवाज दी, ‘‘सोमुआ, मैं आ रही हूँ। रुक रे, रुक जाऽऽ…!’’

सोमू छोटे-छोटे, मगर तेज कदम बढ़ाता हुआ चला जा रहा था। ताऊ की तय की हुई गैल…वह माँ के कहने से रुक पाएगा?

मैं खिसियानी-सी देखती रह गई–बच्चा अपनी माँ की औकात समझ गया है। उसी के हिसाब से चलने भी लगा है।

बेटे का नजरिया गड़ गया कलेजे में। तड़प उठी और भागने लगी तीर खाई घायल हिरनी की तरह गिरती-पड़ती हुई…

पास आकर बोली, ‘‘पटक! पटक दे गठरिया। तू गधे की तरह लदैनी करने को पैदा हुआ है?’’

सोमू गठरी के भार से दबा था, माँ की ओर सीधा होकर नहीं देख पाया। माँ क्या कह रही है, धरती से पूछ रहा हो जैसे।

‘‘सोमू, तू डर रहा है रे? कैसा डर?’’

वह कह नहीं पाया कि मैं दूसरा कोई डर नहीं जानता माँ! ताऊ का हुकुम बजाना निडरता है और उसे टालना बाघ से भी बड़ा डर।

सोमू के सिर से गठरी उतारकर खुद लाद ली अपने सिर पर, जैसे उसमें मूँग नहीं, बेटे की बँधुआगीरी बँधी हो। आकर आँगन में पटक दी–ऐन जेठ के आगे। कैसा अच्छा गुस्सा था! गुस्सा न होता तो हिम्मत न जुटती। मरने वाला साथी नहीं था, दुश्मन था। सदा मेरे गुस्से को कीलता ही रहा–कभी प्यार से, कभी हमदर्दी से तो कभी सहने की ताकत की दाद देकर। अपने पिता और भइया के पाँवों में अपनी औरत को फेंककर श्रवणकुमार बनता रहा।…आज मुझे डर नहीं। जेठ का लिहाज नहीं। ताज्जुब है, आज क्या हो गया है ऐसा? शरमीली बहू कहाँ गई? पति के रहते उँगली न देखने वाले जेठ को अँगूठा दिखाने की सोच रही है? सोमू, तू बदल रहा है मुझे, कि मेरे ही भीतर बेसरम बेल उगी चली आ रही है। मैं खुद नहीं पहचान पा रही अपने आपको कि किस परलय पर उतरी हूँ। आँगन में पड़ी गठरी मूँग का ढेर नहीं, जेठ के हुकुम का बोझ है जिसे उतारकर फेंकना…क्या करने पर तुली है शांति तू? मरने वाला तुझे अपनी ताकत सौंप गया है? वैसे तो बार-बार कलह मिटाने की कोशिश करती।

जेठ हर बार माफी दे रहे थे। गठरी उन्होंने इगलास जाते हुए दूधिया की साइकिल पर किसी तरह लदवा दी। सोमू को अकेला पाकर बीरू ने केवल इतना कहा, ‘‘साले, जान से…’’

बच्चा भी सब कुछ समझ रहा था। लड़ाई-झगड़े से डरता था। ताऊ की आँखों से दहशत खाता था। बीरू भइया से दूर-दूर रहता था।

जाड़े के दिनों में सवेरे ही सवेरे नदी में नहा आया सोमू।

मैं गुस्से के मारे आगबबूला हो गई। मुँह से गालियों की झार छूटी।

‘‘डूब मर नदिया–ताल में। मेरी छुट्टी हो और इन बैरियों के मन की…’’ ताई ने आँखें तरेरकर देखा। सोमू सहम गया।

‘‘हम बैरी हैं तो रह काहे को रही है? जहाँ मीत हों तहाँ चली जा!’’

जिठानी के कहे की एवज में ही चूल्हा जलाकर काँसे के बटुला में पानी गरम करने को चढ़ा दिया था–रहूँगी और अपने बेटे को गरम पानी से नहलाऊँगी। जैसे तुम नहाते-धोते हो। कंडा कौन पाथता है? लकड़ी कौन तोड़कर लाता है? हमारा तो पूरा-पूरा हक है।

मैंने सोमू दोबारा नहलाया।

जानती थी कि नहला नहीं रही, जिठानी को अपनी ताकत बता रही हूँ। हक समझा रही हूँ। पर दृश्य बदल गया। जिठानी ने बटुला औंधा कर दिया। गरम पानी भल-भल करता हुआ रीतने लगा। लपककर बटुला थाम लिया और कुछ पानी बचा ही लिया मैंने।

‘‘तेरे बाप का है?’’ जिठानी ने नाक फुलाते हुए कहा।

‘‘तो क्या तेरे बाप का है?’’ मैं तू-तड़ाक पर आ गई।

जिठानी बड़बड़ाने लगी। रोना-धोना मचाया–नटिनी बाप तक पहुँचती है।

भाड़ में जाए काम-धंधा। गरम पानी तक लेने की औकात नहीं, अपनी देह चूरन क्यों कर रहे हैं हम? कोठे में जाकर पड़ रही। लेकिन अधिक देर तक नहीं साध पाई।

भूखा-प्यासा पड़ा रहना रास नहीं आया। बैठक में ससुर पड़े रहते थे–बीमार। कितने दिनों से नहीं देखी बूढ़े ने। बच्चा से ही पूछताछ कर लेते। परदा न करती होती तो दस बार आती। परदे की छोड़ो, बीरू जो बैठा रहता है पहरे पर कि कहीं बाबा सोमू को न दे जाए दबा-छिपा। बूढ़ा आदमी दबे-गड़े के ऊपर खूब सेवा कराता है। बस, सारा घर लगा रहता था बूढ़े बाबा से।

ले लो थाती तुम ही। मैं सोच लेती।

आज बैठक में जा पहुँची। जिनकी सदा आड़ की हो, बिना कारण परदा खोल देना मेरे बस में नहीं। लिहाज की आदत पीछा नहीं छोड़ रही, कि लाज खून में ही मिल गई थी, जो मौके पर बोलने से बरजने लगती।

आदर में पाँव छुए। परस काम आया।

पाँवों पर हाथ धरते ही बूढ़ी काया में गति आई।

‘‘अरी, छोटी बहू है क्या?’’

मैं मौन हूँ घूँघट में।

‘‘बखत खोटा है री तेरा, और ये हैं बेईमान।’’

मैं अब भी खड़ी थी अभागिन बनी।

‘‘बेटी, मैं उठने जोग होता तो…’’

उसी समय जेठ खाँसे। मैं वापस मुड़ ली। बूढ़े की लाचारी में उसकी ख्वारी कराने से क्या फायदा? आँसू बहाकर तकिया भिगोने के अलावा बाबा के बस का कुछ भी नहीं। रो-रोकर तंग आ चुकी हूँ। रोना अब सहन नहीं होता।

‘‘बीरू!’’ मैंने पूरी ताकत लगाकर कुछ कहने के लिए आवाज दी।

‘‘हाँ चाची!’’ बीरू फरमाबरदार बालक की तरह आया चाची के पास।

बीरू के बलिष्ठ होते शरीर को भर निगाह देखा और हौसला बाँधकर कह डाला, ‘‘अपने पिता जी से कह दे, बगल वाली जमीन पर मैं छप्पर डालूँगी।’’

‘‘हैंऽऽए!’’

‘‘हैंऽऽ क्या? कह दे न अपने पिता से।’’

बीरू कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा। बँटवारे के लक्षण पड़ रहे हैं, वह भी जानता है और यह भी समझता है कि बाप किसके लिए अजगर की तरह जमीन पर कुंडली मारे हुए बैठना चाहता है। चतुर बीरू, पढ़ा-लिखा बीरू चाची के तेवर खूब पहचान गया।

‘‘जा न बेटा!’’ विनय पर आ गई मैं।

बीरू चला गया। लड़का भला लगा मुझे।

कान बीरू के कदमों के साथ-साथ पौर तक गए। सब कुछ सुनना चाहती थी। थोड़ा आगे सरक आई।

‘‘चाची बँटवारे की बात कर रही है पिताजी!’’

अरे वाह रे साँप के सपेलुआ! एक बालिश्त जगह पर छप्पर डालना बँटवारा है?

‘‘हैंऽऽ ए…!’’ बेटे की तरह बाप ने भी ताज्जुब किया।

और मुझे भी ताज्जुब हुआ कि छोटी-सी सुई-भर धरती की माँग पर हैंऽऽ-हैंऽऽ करके घर भर दिया इन लोगों ने!

हाँ-ना कुछ नहीं, लंबे-लंबे हुंकारे फैल रहे हैं। चेहरों पर मुर्दनी छा गई है, जैसे खून माँग लिया हो इनकी देह का।

सोमू बिल्ली के बच्चे की तरह मेरे पीछे आ दुबका। समझ गई कि कुत्ते की-सी खूँखार आँखें किसने दिखाई हैं। बीरू की छाया वहीं डोल रही थी।

तमाकू की फंकी वाला हाथ जेठ जी के मुँह की ओर गया। झटके से सिर की टोपी उलट गई। थूक-मिले स्वर में नरमी थी कि मेरा ही वहम?

‘‘पूछ तो रे बीरू, रोटी-लत्ता में कोई कमी आई है?’’

बीरू क्या पूछता? मैंने बिना पूछे ही किवाड़ की आड़ में खड़े होकर कह दिया, ‘‘रोटी-कपड़ा पर जिंदगी बेचनी होगी तो यही घर नहीं। यहाँ तो मैं आधे की मालकिन हूँ। एक बालिश्त जगह माँगकर अपना ही हक कम कर रही हूँ। इतने में ही समझ लो।’’

जेठ जी हँसे। हँसी थी या रोना? स्वर मिलता-जुलता-सा…बोले, ‘‘बहू, बाहर के लोगों की बातों में न पड़। भगवान् ने भाई उठा लिया। पड़ोसी तुझे बरबाद कर देंगे।’’

मैं समझ गई, इशारा भोलाराम की ओर है।

पीछे से जिठानी बड़बड़ाई–‘‘देख लो, सुसर के जियत ही बाँट-बूँट…’’

तड़ाक-फड़ाक सवाल-जवाब तो कर लिए और उस समय बोलकर सुकून भी बड़ा मिला था, पर सारी रात नींद नहीं आई। नींद कहाँ से आती? कुछ खाया ही नहीं। खाया ही नहीं गया असल में। कभी जिठानी के मुँह की ओर देखती कनखियों से तो कभी बीरू का मुँह जोहती और कभी जेठ का चलना-फिरना। किसमें कितना गुस्सा है? कौन क्या तेवर अपना रहा है? सबके सब खफा हैं तो रहूँगी कहाँ? मेरी औकात कितनी है? सोमू में मच्छर के बराबर भी ताकत नहीं…अकड़कर नहीं चल पाएगी जिंदगी। आज ही चुटिया पकड़कर चौखट के बाहर फेंक दें तो किसके घर में घुसूँगी? पड़ोसी कितने दिन रख लेंगे? सोच तो शांति!

बड़ी गलती हो गई। अलग छप्पर डाल भी लूँगी, तब क्या इनकी मातहत न रहूँगी? इनके शिकंजे से निकलने में तो कई जन्म निकल जाएँगे। शादी-ब्याह की हथकड़ी बातों से कट जाती और आजाद होकर मर्द की तरह जी सकती औरत। फिर आज लड़ाई ही किस बात की थी? आज यही बात सोमू का बाप उठाता तो जेठ जी के आँगन में रातोरात भीत खिंच गई होती चुपचाप। भइया-भइया का बाँट या मर्द-मर्द का बाँट? या बराबर ताकत वालों का बाँट?

अपनी औकात जानती थी। मन में आया कि बैर लेने की गुंजाइश नहीं तो अपने कहे-सुने की माफी में जिठानी के चरण गह लूँ। विनती कर लूँ कि खतावार हूँ, मेरे बच्चे पर रहम खाकर भूल जाओ मेरी बातें। मैं तुमसे अलग होकर हूँ क्या? रिस-गुस्सा की बात थी सब…कि ससुर के पास जाऊँ, सोमू से कहलवाऊँ, जेठ जी को समझा दें।

…लेकिन सवेरे उठते ही सब भूल गई।

सोमू भैंस खोलकर ले जा रहा था चराने के लिए। बीरू पढ़ने जा रहा था साइकिल पर चढ़कर। पता नहीं क्या हुआ? हालाँकि धीरज धरना चाहा था। सोमू क्या दाखिल नहीं किया स्कूल में? अभागे का मन ही नहीं लगा पढ़ाई में। मंदमति।

मन कैसे लगता? कायदे से उसे जाने कौन देता था मदरसे। दसियों काम–बीज पहुँचा आ खेत पर! अमोनिया खाद ले जा! भैंस दिखा ला इगलास के सपाखाने! खेत में पानी काट ले चार दिन! आगे चलकर बाप की खेती कैसे सँभालेगा?

सुनती और सोचती आगे तक, तुम इसे सही-सलामत रहने दो तब तो!

गुस्सा था सोमू को लेकर और बोली खेती की बाबत।

‘‘जीजी, एक छप्पर के लिए दो हाथ जमीन नहीं दी, तो खेत कैसे बाँटेंगे जेठ जी?’’

जिठानी ने सुना और खा जाने वाली नजरों से देखा। कुछ जवाब नहीं दिया। गहरी साँस छोड़कर फुफकार मारी जहरीली-सी।

जेठ के कान बड़े तेज हो गए थे उन दिनों, या यहाँ-वहाँ खड़े होकर कनसुआ लेने की आदत होती जा रही थी उन्हें। तुरंत आँगन में निकल आए।

‘‘क्या कह रही है बहू?’’

‘‘अब खेत बाँटेगी।’’

‘‘ह-ह-ह-ह! हँस दिए जेठ जी। खोखली-सी हँसी थी कि खिसियाया-सा छोटा ठहाका? उस हँसी की असगुनिया छटा को पहचान गई–मखौल मिला है इस लय में।

‘‘सोमू करेगा खेत? कि खुद हल चलाएगी?’’

फिर वही, वैसी ही हँसी-धारदार…

‘‘बाप-दादों का खेत इस बालक के हाथ में पकड़ा दें? कि औरत जात के हवाले…कल के दिना कोई जबर आदमी धरती में हल गाड़ देगा, फिर? लड़ लेगी जाटों से?’’

सुनती रही। जवाब बहुत-से थे, मगर दिए नहीं। जेठ का सामना करने की ताकत…आमने-सामने बात करने का हौसला किसी जबर घड़ी में ही जुट सकता है–मैंने सोचा।

‘‘आयंदा न सुनूँ ये बेसिर-पैर की बातें। कानून कौन पढ़ा रहा है, हम खूब जानते हैं।’’

ऐसे काम नहीं चलेगा, मैंने सोचा।

इस घर का काम नहीं, अन्न-पानी नहीं। सब चीज का त्यागन…मुँहवाद करके, जुबान लड़ाकर जीतना एकदम बस का नहीं।

सारे दिन पेट में घुटने दिए पड़ी रही। जेठ जी खूब चाल चल लेते हैं। जब भी कोई ऐसी बात होती है, भोलाराम कुम्हार की ओर इशारा जरूर करते हैं, जैसे उससे मेरी देह का नाता हो, कि मैं उसके प्यार-प्रीत में फँसकर जवानी को ठंडा करती हूँ। उनका मतलब तो साफ-साफ यही है न? और मैं यही सोचकर चुप हो जाती हूँ कि एक सज्जन आदमी पर बेकार क्यों कीचड़ उछले? लिहाज के हाथों मरना भाग्य में लिखा है।

दूसरे दिन भी पड़ी रही। किसी ने उस कोठे की ओर मुँह तक नहीं किया। मेरे कान पर आहट पर लगे थे। हक माँगने की लड़ाई को भूख कमजोर करने पर जुटी थी। बासन-बिलिया खनकते ही पेट में कुछ ऐंठता। पानी पी-पीकर जिंदा रह सकता तो काम करने की कोई जरूरत न रहती, कोई झंझट न रहता, दाब-धौंस न होती। बिना रोटी खाए पानी भी नहीं रुचता। होंठ सूखने लगे। आवाज कमजोर पड़ गई। सोमू सवेरे से ही भैंसों के पीछे घूमता। सत्यानासी की कँटीली झाड़ियों के काँटे तोड़ लाया था घुटनों में। बबूल-गोखरुओं के बीच नंगे पाँव…

दूसरे दिन शाम तक निढाल हो गई। कई बार लगा कि जिठानी जाए कहीं तो चुपके से उठकर रोटी खा लूँ। भले आधी-एक ही। भाड़ में गया हक। चूल्हे में जाए हिस्सेदारी। माँ-बेटा मेहनत कर रहे हैं तो खा-पहन नहीं रहे क्या?

घड़ी-घड़ी बदलता मन…

सोमू साँझ ढले आया। अपने हिस्से की रोटी और मठा कोठे में ले आया।

पास आकर मनाता हुआ-सा बोला, ‘‘खा ले अम्मा!’’

इस छोटी-सी जान को मेरी भूख-प्यास की थाह है!

उठ बैठी। एक-दो कौर खाए कि पेट में चैन पड़ता गया। गुस्सा भी ठंडा…

जिठानी ने आँगन में मुनादी कर दी, ‘‘कोप भवन में ही खाना-पीना कर रही हैं केकयी रानी। हाथ से कौर छूट पड़ा या अपनी आन जताने को छोड़ दिया ग्रास?’’

सोमू सारे घर को खुश करने में लगा था।

कभी ताऊ के पाँव दबाता और उनको खुश करके शाबाशी पाता, ‘‘महतारी कंकालिन है, सोमू में कसर नहीं। ओछे खानदान की जो ठहरी।’’

बीरू भइया की किताबें लादकर इगलास रख आया था।

आकर बोला, ‘‘अम्मा, अब हमसे कोई रिस नहीं। बीरू भइया ने अपनी टोपी दी है। खेलने की टोपी, देखो।’’

टोपी पहनकर वह कड़ी धूप में माँ के बदले का खेत निराने पहुँच गया था। चारे की मशीन चला रहा था। मैं कुढ़कर रह गई–इस लड़के ने होश होते ही इनकी चाकरी करना सीख लिया है, मातहती इसके खून में घुल गई है।

जेठ जी को बहू की याद आई।

तीन दिन से ऐन (थन के ऊपर वाला भाग) ताने हुए खड़ी थी भैंस। जो कोई दुहने बैठता, लतिया देती। सदा मैंने दुहा था काली भैंस को। पूरा दस किलो देती थी दोनों छाक (सुबह-शाम)। भैंस खूँटा तोड़ रही थी। पागल हो रही थी। जेठ की छाती में लात मारी थी काली भैंस ने…

एक कोठरी-भर जमीन की मंजूरी मिल गई। जेठ जी राजी हो गए।

सो उठ बैठी थी। हुलस उठी थी। नामालूस-सी ही सही, लेकिन अपने निर्णय की पहली जीत! भैंस दुह लाई। रुका हुआ दूध! हँडिया भर गई।

खुशी में भूल गई कि भोलाराम कुम्हार के लिए क्या-क्या कहा जाता है कि किस रिश्ते से जोड़ा जाता है? जल्दी जो मची थी। छोटी बच्ची की तरह डर भी रही थी कि यह खुशी कोई छीन न ले? इसलिए सोमू के हाथ खबर भेजकर भोलाराम को बुला लिया। बक्से का ताला खोला। सेंतकर रखी हुई धरोहर पाँवों के लच्छे और गले की हँसली–एक चाँदी की, एक सोने की चीज।

‘‘इन्हें बेच देना भइया!’’

‘‘तो अब अलग बजाओ बंसी!’’ भोला हँस दिया।

‘‘मड़इया उठ जाएगी तो भले इनकी ही मजूरी करें, चैन की रोटी तो खा लेंगे अलग बैठकर।’’

‘‘जमीन दी है, तो एक कोठे लायक ईंटों के पइसा भी माँग लेतीं।’’

‘‘बस-बस! जितना मिल गया, बहुत है। भूतों से पूत माँगे हैं मैंने!’’

भोलाराम अपने गधों पर ईंटें लाद लाए। नींव खुदती देखकर मैं बावरी-सी हो गई। अपनी दुनिया अलग बसाऊँगी! उस दुनिया में माँ-बेटा राज करेंगे।

थाली में गुड़-चावल और लोटे में पानी लेकर ‘नींव-पूजन’ को निकली थी। ईंटों का ढूह! मन में छोटा-सा कोठा रूप लेने लगा।

गली से गुजरते लोग पूछते, ‘‘कमरा बनवा रही हो मास्टरनी?’’

मैं खील-मखाने-सी खिलक उठती, ‘‘कमरा कहाँ, बस एक कोठरी।’’

मानो काकी को पहले ही बुला आई थी–नींव-पूजन के लिए। वे आईं तो एक पेड़ रोपने की बात करने लगीं–यहाँ लगाना नीम। हवा साफ रहती है नीम से। पंछी-परेवा बसेरा लेते हैं, आदमी अकेला नहीं रहता।

‘‘चल अब पूज दे चलकर। जिठानी नाराज है। मना लाती। आपसदारी में रिस-गुस्सा कैसी। तू छोटी वारी है, लिवा ला।’’

गई थी आँगन में। महीने-भर से बोलचाल की जगह ताने-उलाहने थे, पर इस शुभ घड़ी में मन का मैल न कटेगा तो फिर कब…

‘‘जीजी, आ जाओ। तुम बड़ी हो, पुजवा दो।’’

वे पीठ फेरे हुए अनाज भर रही थीं बोरे में, भरती रहीं।

मैं बाहर निकल आई। देखती रही बाट।

कोई आया, न गया।

‘‘भोला, पुजवा रे! डाल ईंट-गारा।’’ मानो काकी ने पूजा कराई।

जिठानी बाहर की ओर झाँकी। देखती रही होंठों पर पल्ला धरकर।

कुछ देर बाद सबको सुनाकर बोली मारी, ‘‘बड़ी उतावली मच रही है न्यारे रहने की?’’

भीतर गई और बीरू को लिवा लाई।

‘‘बीरू, देख तो। तेरे बाप ब्याह में आनगाँव क्या चले गए, यह रंडी तो एकदम ही आजाद हो गई। कमाऊ देवर ने जीते-जी जुबान नहीं खोली। भइया के इशारे पर उठा-बैठा। यह राँड़ क्या हुई, छुट्टा हो गया। अलग न बसेगी तो यार कैसे आएँगे?’’

मैं बहरी बनी रही। गूँगी होकर गुड़ बाँटती रही। कलह नहीं चाहती थी। मुश्किल से हाथ आई सुख की वेला को तकरार से बिगाड़ना कहाँ की अक्लमंदी है?

दीवार हाथ-भर ऊँची नहीं हो पाई कि बीरू और बीरू के पिता, दोनों…

भूचाल-सा आ गया। धमाके होने लगे। जीभ इतनी भी कड़वी हो सकती है!

‘‘सुन, हमने महल चिनवाने को नहीं दे यह जमीन।’’

मैंने घूँघट की आड़ कर ली।

‘‘नाटकबाजी बहुत हो गई। उठवा यहाँ से ईंट-गारा।’’

‘‘काकी, कह दो, अब कैसे उठवा दूँ?’’

‘‘ज्यादा तमाशा मत करे।’’

‘‘काकी, इनने हामी भरी जमीन की तभी तो मैंने ईंटों में पइसा खरचा। अब नाट रहे हैं। इनकी जुबान है कि…’’

‘‘क्या कही? हाँ, दी थी हमने। मना अब भी नहीं कर रहे। पर इसके लिए नहीं दी थी कि तू अटारी चिनवा। आज घर अलग तो कल…’’ आगे के लफ्ज चबा गए जेठ जी। समझ गई–आज घर, कल खेत। डर गए हैं, तभी गला फाड़कर चिल्ला रहे हैं। बढ़ते हुए ईंटों के ढेर की ओर देखा। नींव की ऊँचाई बदस्तूर चल रही है ऊपर की ओर। और मैं पुख्ता होती चली जा रही हूँ। …दीवार के मुकाबले छोटा पड़ जाना नहीं सहन कर पाए जेठ जी।

दूनी तेजी से आगे को लपके। होंठों में झाग भर आया।

‘‘तू मानेगी नहीं! बीरू, कर तो दे इसे ठीक। साली की बोटी-बोटी बिखर जाए। फिर देख लेंगे इसके हिमायती को।’’

सोमू चिल्ला पड़ा, ‘‘नहीं ताऊ, नहीं! अम्मा को मत मारना!’’

बीरू आँखों में ही चबाने लगा बच्चे को और बोला, ‘‘हम कह रहे हैं कि मान जाय अपने आप ही। माँ-समान है, क्या हाथ उठाएँ! नहीं अब तक तो…’’

‘‘आ जा, मार! अन्यायी बाप के कहे से मार! तू तो किताबें पढ़ता है न्याय की, कह, यह जमीन मेरी नहीं? अपने बाबा से पूछकर आओ, मरने से पहले बता जाएँ, मैं उनकी बहू नहीं? इस गाँव के आदमियों से फैसला करा कि वे मेरे ब्याह में बराती बनकर नहीं गए? लाला, न मानोगे तो पंचायत जोड़ूँगी, समझ क्या रहे हो?’’

‘‘जुबान लड़ा रही है बदफरोस!’’ जेठ जी चिंघाड़े।

लोग जुड़ आए, लेकिन बोले कौन? पराए घर के मामले में टाँग अड़ाए कौन?

‘‘हक मार लोगे किसी का? मैं सरकार-दरबार लड़ूँगी, हाँ!’’

जेठ जी का अपने ऊपर काबू न रहा। बीरू की जगह वे ही चढ़ बैठे मारने-पीटने को। सोमू माँ से लिपट गया। मुँह फाड़कर रोने लगा।

तमाशा! लोग तमाशा देख रहे हैं। बीरू ने बाप को रोका, तो दो-चार जने आगे बढ़ आए। मिली-जुली आवाजें, ‘‘अरे अजस मत करो ऐसा! यह भी बाबरी है, कोठरी बनाके ही क्या ले लेगी! बेकार की रार-कलह। भाई, जो कर रही है करने दो, जागीर नहीं माँग रही बद्री से। फिर कल के दिन उसका लड़का भी बड़ा होगा।’’

भोलाराम से न देखा गया। आगे आकर बोल पड़ा, ‘‘सांत रहो लाला! तुम तो रामाइन-भागवत पढ़ते हो।’’

‘‘तू चुप रह ना कुम्हार के!’’ आग में घी पड़ा हो जैसे।

‘‘तुम मारते रहो और हम चुप रहें? कुम्हार-चमार की बात छोड़ो। जाति बखान कर हमें चुप कर देने के जमाने लद गए, हाँ!’’

भोलाराम को देखकर मानो काकी की हिम्मत बँधी। वे गालियाँ देने लगीं।

‘‘तुझे नरक में ठौर नहीं मिलना।’’

‘‘काकी, मुँह बंद करो। हमारे बीच में बोलने वाली तुम कौन? हमने कुछ पूछा है तुमसे? चली आई पंचायत छाँटने।’’ जेठ जी ने अपना सारा रोष काकी पर निकाल दिया।

फिर धरती पर हाथ मारकर बोले, ‘‘काकी, कोठा तो आज बने न कल।’’

मैं हिम्मत बाँधे खड़ी थी, लेकिन टाँगें काँप रही थीं। आँखों के आगे अधबनी दीवार में गीला गारा और ताजा ईंटें खड़ी थीं।…लेकिन कारीगर की कन्नी रुक गई थी।

सूरज छिप गया। अँधेरा उतर आया, मैं दीवार के पास ही बैठी रही। उस घर में कैसे जाए कोई, जहाँ हमें उखाड़ने की साजिश चल रही है। तो फिर कहाँ जाएँ? जो अंदेशा था, वही हुआ। यह नौबत न आ जाए, इसी कारण मुँह में मुछीका-सा दिए दिन काट रही थी। होनी को यही मंजूर था, लेकिन…

सोमू पास ही कच्ची मिट्टी पर बैठा था।

घर नहीं गई। मानो काकी के घर चली गई। वहीं बनाया-खाया। वहीं लेटने-बैठने की बात सोच ली। मजूरी तो यहाँ रहकर भी हो सकती है। हेठी किसकी होगी? पराए घरों की मशीन पर चारा काटूँगी, उनका गोबर डालूँगी, खेत निराऊँगी और जेठ की मूँछों पर भूमर (आग) डालूँगी। होने दो थू-थू!

इस छोर के हाथ आते ही निहायत जहरीली-सी खुशी हुई थी, जिससे मैं जेठ की नाक धरती पर रगड़वा सकती थी।

…लेकिन बद्रीप्रसाद किस मिट्टी के बने हैं, मालूम न था।

ज्यादा रात होते ही मानो काकी के घर आ गए बीरू को लेकर। काकी से प्रेम और आदर की बातें करने लगे आँगन में बैठकर।

‘‘काकी, तू बूढ़ी है, दुनिया देखी है। इस गाँव में किसका मुँह उजला है? पंचायत करा ले शांति, देखें कौन बोलता है? हमें सीख कौन देगा? प्रधान? जो अपनी चाची का पूरा हिस्सा दाबे बैठा है। रामचरन? जिसने ननसार में आकर मामा का खेत कब्जे कर लिया, अब मामा को रोटी देने में भी आलकस मानता है। जगदीश? तेरे सामने है जगदीश की कहानी। खमनी इसका कौन लगता है? खामख्वाह चाचा बनाए फिरता है। कि छिद्दा से क्या रिश्ता-नाता है? सब खेत हड़पने के गुर हैं। खूब सेवा कर रहा है दोनों की। बात यह है कि बूढ़े हैं, बीमार हैं। निर्बल को ठगना आसान है।

‘‘काकी, वे मुझसे क्या कह सकते हैं, बता? अरे, यह तो हमारा घरू मामला ठहरा। बीरू और सोमू का एक ही खून…डंडा मारे पानी नहीं फटता। यह नादान न जाने कब समझेगी? अकेली रहकर देख ले, इस गाँव के ही चार गुंड़ा मिलकर इज्जत खराब कर देंगे। हमने दुनिया देखी है, ऐसे ही नहीं रोक रहे घर बनाने से।’’

मैं घूँघट किए सिर झुकाए बैठी रही। पिता समान जेठ समझा रहे थे। अनजाने ही एक-एक तेवर हथियार की तरह गिरता गया। शायद भविष्य की बातें सुनकर घबरा गई थी। इसी गाँव में पराए घरों में चाकरी करूँ, ऐसे संस्कार न थे।

जेठ के पीछे-पीछे चल दी उठकर।

घर जाकर देखा तो जी हरिया आया। सोमू अपनी ताई के पास बैठा काँसे के बेला में दूध-रोटी खा रहा था।

कोठे में गई तो खाट पर गद्दा और चादर बिछे मिले।

अपना, अपना ही होता है। डपटता-बरजता है तो खयाल भी करता है। जेठ के अलावा इस गांव के और आदमी क्या संत-महात्मा हैं? कोई उठा मेरे पक्ष में? भोलाराम, जो बदनामी की जड़ है, रँडुआ आदमी। बेऔरत का अकेला। जेठ का क्या कर लेगा? खाक? यही सोचकर सोई थी।…लेकिन रात में ही आँख खुल गई, विचार की धारा दूसरी ओर मुड़ गई–तब क्या ऐसे ही कटेगी जिंदगी? आज जेठ-जिठानी की एड़ियों तले मेरे बाल हैं, कल को बीरू और बीरू की बहू का अदला चलेगा हमारे ऊपर!

समय सरकता गया। मन की उथल-पुथल को शांत रखने में कामयाब हो गई। परिवार के लोगों के राई-राई भरे गुण याद रखती, पहाड़-से दोष भुला देती। पूरी ताकत लगाकर दबा रही थी अपनी कटीली आवाज, कि दाँत पर दाँत चढ़ा लेती।

गरमी के दिन–धूप चिलचिला उठी। सोमू ढोरों के पीछे नहीं, लेखराज ठाकुर का भूसा ढोने भेज दिया था। ठाकुर ने ट्रैक्टर जो दिया था उधार, सोमू को दो दिन उसी के यहाँ काम करना था। गरमी कि प्यास कि उसकी गलती? नादान, भूसा की गठरी खेत में छोड़कर पानी पीने चला गया। कि ध्यान भूल गया, कहीं खेल में रम गया? बालक बुद्धि!

गोला कुआँ से वापस लौटा–खेत में गठरी न थी। भूसा के साथ पिछौरा भी गया।

बच्चे के प्राण सूख गए। मैं चाहती थी, जेठ के आगे न पड़े सोमू। आँचल में दुबका लूँ। पर ऐसा कैसे होता? जिस घर में रहते थे, वहाँ कब तक न जाता वह?

मैंने मान लिया, बेटा बुरी तरह पिटेगा। मन को मना लिया कि देखना है उसको पिटते हुए। शायद खुद भी मारती इस बात पर।…लेकिन जेठ को दुश्मन मान लिया था मैंने। अपने बच्चे को बैरी के हाथों पिटते देखना…हाँ, सोमू भी बैरी है इन लोगों का।

मरदाने मजबूत हाथ हथौड़े की तरह बजने लगे लड़के की कनपटी पर। लगा, जैसे मेरी ही खोपड़ी घूमने लगी है असह्य चोट से। सोमू सफाई भी नहीं दे रहा था। प्यास का कारण भी नहीं बताया। जानता था कि कुछ भी बोलना, जवाब देना माना जाएगा। और सोमू जैसी छोटी उम्र के मजदूरों को जवाब देने की सजा इससे भी बुरी मिलती है। उधेड़ दिया जाएगा।

कुछ न बना तो पानी औंझते समय घड़ा फोड़ डाला मैंने। गुस्सा दिखाने का यही एक उपाय सूझा सोमू की माता को…बाद में अपनी नादानी पर गुस्सा भी आया, उनका क्या कर लिया? पर रात में समझाती रही तरह-तरह से। जिसे खुद ही गलत मान रही थी, उसे ही सही बताती रही, ‘‘ताऊ को रोस आ गया बेटा! ठाकुर तो अपना भूसा धरवा लेता। टैक्टर वापस माँग लेता, काम रुक जाता। मौसम का क्या पता, अभी धूप है, अभी बदरई छा जाए। तेरे ताऊ को खलिहान उठाने की जल्दी है।’’

चाहती थी कि बच्चा पढ़ता-लिखता, लेकिन कहती थी, ‘‘जा, जल्दी जा। दाँय करनी है। दोपहरी हो जाएगी तो धूप चटकेगी। माथा दुखेगा।’’ अनचाही बातें करती रहती।

सगी बुआ ने बुलाया था सोमू। मैं खिल उठी थी।

यहाँ से छुटकारा मिलेगा।

जितने दिन वहाँ रहा, मनचीता सपना देखती रही। लाड़ करती होगी। खाने-पीने को अच्छा मिलता होगा। रत्ती-भर काम न कराती होगी। भतीजे कितने प्यारे होते हैं! कोई नया कपड़ा भी बनवा दिया होगा।

सोमू को मन में उतार लिया–नए कपड़ों में, धूप-ताप से दूर उजला-उजला रंग। चिकनी देह। मुलायम चेहरा।

आया तो हालत यहाँ से भी बुरी थी। अपने बेटों की उतरन देकर विदा कर दिया। इसमें वैसे कुछ बुराई नहीं थी। नया स्वेटर दिया था बड़ा-सा। कहा था, बीरू को दे देना। पढ़इया लड़का है। कहा तो सच था। सोमू को भैंस चरानी थी या खेत में काम करना था, नया कपड़ा पहनकर बिगाड़ता ही।…लेकिन मुझे बड़ा मलाल हुआ, अनपढ़ रखकर सारी खुशियाँ काट दीं! गँवार को अच्छा खाने-पहनने का हक नहीं? उसे भूखा-नंगा रहना चाहिए?

गुस्से के कारण फुफकार उठी थी। ननद के लिए गालियाँ निकलीं–रंडी, भइया मरे पीछे भतीजा मेहनती-मजदूर समझ लिया, इतना ही नाता था तेरा?

फुफकार दबाना मुश्किल होता है, लेकिन उसे भी पी गई।

कारण कि उसी दिन चितकबरा बैल खूँटा उखाड़कर भाग गया था। मैं अपनी और अपने बेटे की स्थिति जानती थी। मजूर का दर्जा क्या होता है, यह भी इलम था नितुआ के रहते हुए। नफा में शामिल नहीं किया जाता वह, नुकसान का जिम्मेदार ठहराया जाता है। गुस्सा निकालने के लिए सबसे ज्यादा सुपात्र।

जिठानी घर सँभालती हैं, जेठ खेतों की देखभाल करते हैं, बीरू पढ़ता है, ससुर बीमार हैं। रह गए सोमू और उसकी महतारी। ढोरों का जिम्मा है उन पर।

बैल खोना मामूली बात नहीं। जेठ जी को होश न था। मौत जैसा मातम मचा था घर-बाहर। बीरू पढ़ने नहीं गया। जिठानी पाँव पटक-पटककर काम कर रही थीं। दाँत कसकर धीरे-धीरे बुदबुदा रही थीं। मेरा जी अधर में टँगा था।

रस्सा ढीला बँधता तो दोषी था सोमू। खूँटा उखाड़ने वाले ढोर किसने बाँध पाए हैं? कहना चाहती थी, पर नहीं कह पाई। आगे क्या होगा यह सोचने की बात नहीं थी। बीरू काँजी हाउस तक घूम आया। जेठ जी खेत-खेत भागे फिरे। गाँव-गाँव गए। हार-थककर घर आ बैठे। अब क्या करें? लोग पूछते, ‘‘मिल गया?’’ जेठ जी गर्दन नीची डाल लेते।

बाप-बेटों ने सोमू घेर लिया। पकड़कर खूब पीटा–तड़ातड़ थप्पड़ पड़ रहे हैं, मैं सुन रही थी। धमाधम लातें मार रहा है बीरू, मैं देख रही थी। बेटा होंठ भींचकर सह रहा है, मैं कराह रही थी। मेरा बच्चा…चितकबरा बैल समझ लिया कसाइयों ने?

झपटकर जेठ का हाथ पकड़ लिया मैंने।

पहली बार ऐसी हिम्मत! खुद भी अचंभे में रह गई। जेठ का हाथ…

रात हो रही थी। अँधेरा घिर आया।

कुछ दिखाई नहीं दे रहा था, अँधेरी पौर में जेठ में बिगड़े हुए मुँह से निकले हुए दाँत! काले अंधकार में दाँतों की भयानक चमक! घर में डटा नहीं गया फिर। कसाईखाना लग रहा था आँगन।

बाड़े की ओर ही चल पड़ी। सोमू बिलखता चल रहा था संग-संग।

जानती थी, घर में रोटी नहीं बनेगी। लोगों की भूख-प्यास गुस्से और दुःख में दब गई होगी। बाड़े में जाकर उसी जगह को टटोल लिया, जहाँ से चितकबरे ने खूँटा उखाड़ा था।

गाँव में रात जल्दी उतरती है। एक पहर बीतते ही सारा गाँव सो गया। गलियाँ सुनसान हो गईं। घरवालों को इलम है कि मैं बाड़े में…हो सकता है, उन्होंने ध्यान न दिया हो। इस समय चितकबरा बैल उनके मन में समाया हुआ है।

पता नहीं मेरे ऊपर कौन-सा देवता सवार हुआ कि बाड़े के सारे ढोर खोल डाले–भैंस, गाय, बछड़े और बैल। डंडा मार-मारकर भगा दिए–एक डेढ़ मील तक पीछे भागी हूँ तो भी अचरज नहीं। लौटकर आई तो बाड़ा खाली था। रस्से किसी गर्दन से टँगे नहीं, नीचे पड़े हुए थे–मरे हुए साँपों की तरह…

फिर झपटकर बेटे को बाँहों में भर लिया, जो चोट खाए घुटनों में मुँह गाड़े बैठा था।

‘‘इन जल्लादों को मैं बताऊँगी कि सोमू की ताड़ना कौन-सा रंग…’’

सवेरे तक ढोर फिर लौट आए। बँधने की आदत वाले ढोर। छुट्टा घूमने में उन्हें खतरा लगता है। हम भी, मानस जनम धरकर भी नहीं…इस घर में पेट भरने का आसरा जो है, मार खाकर भी पड़े रहेंगे। अकेला चितकबरा बगावत कर गया।

गुस्सा हुआ आदमी जब शांत हो जाए तो पिछला क्रोध उसे बेवकूफी लगता है। अच्छा हुआ मैंने रिसियाकर पशुओं के रस्से खोले, खुद का बंधन नहीं काटा इस घर से।

गाय को, भैंस को, बछड़ों को, बैल को बारी-बारी बाँधती रही।

जेठ नहीं आए, अबकी बार जिठानी आई। बदली हुई जिठानी!

बाँह पकड़ ली, ‘‘शांतिया, घर चल! बेड़ा-घेर में बैठे शोभा देती है घर की बहू?’’

‘‘मैं कहीं शोभा नहीं देती जीजी!’’

‘‘तुझे बीरू की कसम है, चल उठ! हम-तुम रहेंगे तो चार बैल आ जाएँगे। ये भी गुस्सा में पागल हो जाते हैं–ऐसे मारा जाता है बच्चा को?’’

इतना सब काफी था। किसी ने हम माँ-बेटा के लिए इतना सोचा ही न था अब तक। जिठानी के भीतर बैठी माँ का आँचल खुला है, ममता जागी है, आदमी जात के बस का कहाँ यह माया-मोह?

‘‘चल, मेरी बहन! हम ही कौन-से सुख में हैं?’’

मुझे उनकी आँखों में अपनी तसवीर दिखाई दी। हाँ, जेठ जी इस बिचारी को भी कहाँ बोलने देते हैं? बोल, जो वे कहें, उसी को दोहरा दे, बस। वे कहें, वही कर, बस। वही मान, बस।

उठकर घर चली आई।

यह वाकया चितकबरे बैल के खूँटा उखाड़ने के ठीक पंद्रह दिन बाद हुआ…

घर में जिस कोठे में सोया करती थी, वह बदल दिया। जिठानी आ गई उसमें। और उन्होंने अपना कोठा छोड़ दिया मेरे लिए, क्योंकि कोठा बड़ा था। दो खाटें आसानी से आ जाती थीं। सोमू अलग सोना चाहता था, जिद करने लगता। ताई ने सोमू की इच्छा रख ली।

एक दिन, दो दिन, तीन दिन गहरी नींद-भरी रातें और पेट-भर खाने वाले दिनों में आराम के सपनों में डूबती-उतराती रही।

‘‘अम्मा, तू कोठरी बनवा रही थी, न ताऊ ने उसमें फिर काम लगा दिया है।’’

‘‘साँची?’’

‘‘कह रहे थे, कुइया खुदेगी आँगन में कि नल लगवा देंगे, सोमू की माँ को बाहर का काम पसंद नहीं, घर-भीतर कितना ही करा लो। ताऊ कह रहे थे।’’

बच्चे की बात! नादान! खुद गई थी देखने। आदमी डुबान गढ्डा करा लिया था। बोरिंग का सामान लेने जा रहा था बीरू।

मैं काम को पानी की तरह पिए जा रही थी–चारा काटना, खेत पर जाना, गोबर, कंडा, भूसा निकालना। भारी से भारी काम फूल-से हलके लगते, बसावट का सपना जो था आँखों में, देह के रोम-रोम में!

नींद में डूबकर सोती, उठती थी तो बड़ी मुश्किल से एकाध बार पेशाब के लिए–

‘‘गढ्डा तो इतना हो गया है कि दोनों जने…!’’ फुसफुसाहट।

‘‘बीरू, नींद की गोली ले आया है?’’

‘‘हाँ, कल नौ और दस के बीच ये गोली दूध में।’’ बीरू के होंठों से ऊची होकर निकल गई यह बात। ‘‘अम्मा, बड़ी सावधानी से…समझीं? दोनों को एक ही बखत, मैं इशारा…’’

यह मैंने क्या सुना?

गोली किसको और क्यों दी जाएगी? दूध में? हम चार-छह दिन से दूध क्यों पी रहे हैं? ज्यादा मिठाई में कीड़े तो नहीं हैं कहीं?

नहीं, मेरे तो कान ही बजते रहते हैं। खरगोश शेर की माँद में रहे तो कान उठाकर ही सोएगा। मन का पाप चैन नहीं लेने देता। लेकिन…‘‘दोनों के लायक गड्ढा काफी है’’…

सारा दिन अजब हाल रहा–मक्खी की तरह उड़े बेआवाज, कि चींटी की तरह चले?

‘‘गोली एक ही बखत देना कि दोनों संग-संग सो जाएँ’’…

क्यों सो जाएँ? सोकर क्या होगा? बात में कोई घुंडी है जरूर।

वह बोरिंग की जगह देखने गई–कब्र, कब्र, कब्र! कानों में चिल्लाया कोई। तुम्हारी मौत का कुआँ।

सोमू वहाँ न खड़ा होता तो मैं चक्कर खाकर गिर जाती। काल आ गया बेटा! खौफनाक पंजा बढ़ा रहा है! हमारी गर्दनें भर लीं। शिकंजा कसने को है। जायदाद पर दाँत रखने वाला तेरा ताऊ खूँखार जबड़े का मालिक है।

मेरी गर्दन खुद-ब-खुद हिलने लगी–इनकार। मरने से इनकार। हालाँकि देह का तार-तार काँप रहा था–इतनी कमजोरी कभी न व्यापी थी। मरते हुए आदमी का दम इसी तरह खिंचता है? सामने बाघ हो, फिर भी भाग पड़ने की सोचना है आदमी।

‘‘सोमू, जा भोलाराम के पास। लोटा लेकर जा टट्टी के बहाने। सो भी रहे हों तो मेरा नाम बोलना–शांति। जागकर चला आएगा। कहना, उसी के घर के पिछवाड़े बिटोरों के पास।’’ सोमू चल दिया और मैं खुद से ही बतियाती रही–‘‘मौत! भोलाराम, जिंदगी ही थी अपनी, वह भी गई। आखिरी बार मिल जाओ, जी भरकर रो लूँ तुम्हारे आगे, तुमसे बिछड़ने पर। मैंने तुमको अपने कारण इन लोगों का दुश्मन बना दिया, क्या मालूम कि तुम्हें भी…’’

भोलाराम जैसे बैठे थे वैसे ही चले आए। अपने घर लिवा गए दिन डूबे।

फिर क्या, रात के पहले पहर ही भाग लिए। वहम साथ भागता रहा–कोई पिछिया रहा है। कोई रोक रहा है। आवाज दे रहा है। शायद मौत–काल बुला रहा है पीछे से।

मैं भाग रही हूँ, सोमू भाग रहा है–बिलकुल चितकबरे बैल की तरह खूँटा उखाड़कर, खूँटे का गहरा निशान छोड़कर चालीस कोस आ गए, हाथ, पाँव, देह का होश नहीं…

आजादपुर आ गई।

भोलाराम कभी यहाँ गधों की लदैनी किया करते थे। किसान लोग उन्हें जानते हैं। प्रधान मानता है। होगा उनका व्यवहार मानने-जानने लायक। ईमानदार बजते हैं, सो जुबान का विश्वास है लोगों को।

प्रधान को सारी बातें बता दीं।

‘‘भोलाराम भइया, तुम लौटोगे तो पूछेंगे।’’

‘‘क्या पूछेंगे? गधों की लदैनी करने वाला आदमी महीनों में लौटे, तब भी उसे कोई नहीं पूछता., मेरे तो फिर घर, न घरवाली। वे ससुर कौन जात? चिंता मत करो।’’

‘‘आते रहना भइया!’’

‘‘यह भी कोई कहने की बात है?’’ ऐसे बोला कुम्हार ज्यों इस जनम में ही नहीं, जनम-जनम आएगा साथ निभाने। जाते हुए भोलाराम की पीठ दीखती रही, तारे-सा ओझल हो गया फिर।

‘‘सोमू को खोजने की बेवकूफी कौन करेगा?’’ प्रधान मुसकराकर बोला, ‘‘भतीजे में से हिस्सेदार कब निकल पड़े? समझती हो?"

‘‘माँ-बाप के यहाँ क्यों नहीं चली गईं?’’ अपनी बैठक में दरी पर मुझे और सोमू को बिठाकर चाय पीते हुए पूछा था प्रधान ने।

जवाब की जगह गहरा साँस आया मुझे, ‘‘माँ-बाप बहला-फुसलाकर उसी खूँटे बाँध आते। डोली निकाल चुके थे बेटी की। अर्थी उनके घर से नहीं निकलनी चाहिए।’’ कहते-कहते मेरा मुँह कड़वाहट से भर गया, ‘‘दोष उनका नहीं, वे लोगों से डरते हैं।’’

दो बरस बीत गए आजादपुर में। प्रधान जी के घर की टहल है मेरे जिम्मे–गोबर पानी, दाल-नाज छरना, फटकना। मौका पड़े तो खेतों की रखवाली करना। सोमू ढोरों की देख-रेख में माहिर है। अब तो अपने बाबा की तरह ढोरों के रोगों का जानकार बनने लगा है। यहाँ आकर दहशत गुम हो गई। सोमू बातें करना सीख गया है, खूब। सोलह साल का लड़का। मसें भीगने लगी हैं।

प्रधान की दयालुता दिन पर दिन बढ़ने लगी है, वह यही समझता है। नहीं जानता कि–‘‘भाभी!’’ मेरे सिर पर हाथ धरकर प्रधान ने सच्चे प्रेमी की सी प्रार्थना की थी।

‘‘क्या है लाला?’’ गोबर-सने हाथों को धोती हुई मैं पूछ बैठी।

‘‘मैं तुम्हारे किसी काम आऊँ।’’ घेर के एकांत में उसकी आवाज कँपकँपा गई।

‘‘काँपों मत लाला!’’ औरत में सूँघने की आदत बड़ी तेज होती है।

‘‘भाभी!’’ कहकर वह दो कदम पीछे हट गया।

हँसी आ गई मुझे–नादान! फाटक जड़े चौक में दबोच भी लेता तो कौन रोकने वाला था तुझे? यह भी क्या पता कि प्रधानिन का डर न होता तो मैं ही…बाँध उखड़ा जा रहा था। बरसों-बरसों का बाँध…आगा-पीछा भूल गई मैं…

‘‘शरमा रहे हो?’’ न जाने किस लमहे कह गई।

उसने अपनी बाँहें बड़े सलीके से फैला दीं और मुझे समेट लिया।

मर्दों को धीरज नहीं रहता फिर। मैंने ही सुझाया, ‘‘यहाँ नहीं, कोठे में।’’

वह पीछे-पीछे चला आया। मेरी देह दहक उठी, कि देह की पिटारी में मांस-हड्डी के ठौर बैठ गई एक नागिन, लहराने लगी। फन उठाकर खड़ी हो गई। आजाद औरत की आजाद लालसाएँ। जब-जब पति का ध्यान आया, कड़वाहट भर गई छाती में–बैरी खुद तो परमधाम चला गया और हमें थमा गया सती की कंठी कि फेरती रह और पिट घरवालों से। भले जान खो दे। मैं आसमान में तेरी लाश पर फूल बरसाऊँगा। बाजे-दुंदुभी बजाऊँगा। स्वर्ग दिलाऊँगा।

पहले संसार ही तो मिल जाए, स्वर्ग किसने देखा है अन्यायी?

प्रधान का हाथ फिरता गया देह पर, अंग-अंग जाग उठा। रेशा-रेशा चीख उठा कि यही है जीता-जागता स्वर्ग।

‘‘मैं पाप कर रहा हूँ भाभी?’’

‘‘आनंद में डूबकर झूठ बोलते हो लाला?’’ इतना कहकर अपने भीतर उतर गई–तुमने मेरी मरियल काया मजबूत कर दी। कटी-घिसी देह नई बना दी। हो सकता है, उँगलियाँ उठें कल को। पर गर्दन पर खंजर चलने वाला था तब। चाल-चलन की धज्जियाँ उड़ाई जाएँ, लेकिन हमें मरे जीव की तरह गाड़ देना? जिंदगी बड़ी प्यारी होती है। इसे बचाने को ही तो आड़ मरजाद के लबादे उतार फेंके।

पर प्रधानिन? पता नहीं यह आदमी उसे क्या समझाए? हो सकता है, कह दे कि हिस्सा-बाँट कर लाएगी जेठ से, आएगी तो यहीं। खेत न आए, रकम आएगी। वैसे भी हम उनके घर के मजूर हैं। सोमू का पसीना भिगोए रहता है प्रधानिन को। वे भी क्या कम चाहती हैं? ऐसे ही जैसे सोमू के बाप चाहते थे नितुआ को। प्रधानिन बहना, मैं एक-एक हथियार जुटा रही हूँ जिंदगी जीतने के लिए। भले हार जाऊँ, पर जंग की तैयारी…

इन दो वर्षों में अपनी कीमत जानी, जिसे जेठ के टुकड़ों पर गिरवी रखे हुए थी। रोज-रोज मार खाता हुआ अधपगला होता जा रहा सोमू, देखकर नहीं लगता कि यह वही है। कठोर मेहनत करनी पड़ती है, तो हाथ-पाँव भी लोहे में ढल गए हैं।

माना कि घर छोड़कर भाग आई।

डरपोक चिड़िया की तरह रातोरात उड़ी।

अपना जीवट कचोटता तो है–भागकर क्या ले लिया? शरण ही न? मजूरी ही न? पराए मर्द को चुराकर दो पल का सुख ही न? इसमें क्या शक कि कमजोर आदमी चोरी-चकारी करता है, दीन होकर पराई शरण माँगता है। चाहे तो सोमू का बाप स्वर्ग से थूक सकता है मेरी जैसी स्त्री पर। औरत पुजती है घर के भीतर। घर की दहलीज लाँघते ही लुटती है।

मैं लुटी कि लूट लिया प्रधान लाला को?

खैर! सोमू का बाप कुछ भी सोचे, मरे आदमी की इच्छा क्या, अनिच्छा क्या? सब हमारे ही मन के ढोंग हैं। नहीं तो आता न कभी रक्षा करने? आसमान में ही टँगा रहा जोरू की जाँच-पड़ताल को। भइया के पाप नहीं दीखे अंधे को।

चलो, जेठ जी के चलते हम कहीं नहीं, न जाने कहाँ? हिस्सेदार गुम हो जाए तो आदमी राजा अपने आप हो ही जाता है। रास्ता साफ। पर मैंने भी…सोचते ही दाँत कस गए।

लो आ गए भोलाराम!

छह महीने पहले आए थे। कहते थे, ससुर की चला-चली…बचें और न बचें।

देख आऊँ? कई बार सोचा था, पर पाँव नहीं पड़े। नाराज थी भीतर ही भीतर। आँसुओं से रोता था बूढ़ा, कलेजा कसकर चार बीघा खेती नहीं लिखा सका मेरे नाम। दया-तरस कौन न बरसा ले? अंटी खोलकर देने वाली छाती बिरलों की ही होती है।

‘‘भाभी, चले गए डोकर।’’ भोलाराम ने बैठते ही कहा, जबकि मरे की खबर ऐसे नहीं दी जाती।

‘‘ले गए बाँधकर। क्या-क्या ले गए?’’ मैंने पूछा, जबकि बुजुर्ग की मौत पर मुँह से नहीं आँखों से काम लिया जाता है–आँसुओं का जल ढारा जाता है याद में।

सच में मेरा मन पत्थरों का जंगल हो गया है। पिघलना भूल गया है, नमी का क्या काम? नमी रहेगी तो जोत लेगा कोई न कोई, यह बात गहरे पैठ गई है कि जिंदगी में खतरे, आशंका और साजिशों के घुलते रंग बिखर गए हैं यहाँ-वहाँ सब जगह।

‘‘तेरहीं हो गई?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘अब?’’

‘‘अब तो तैसील-कचैरी की भागादौड़ी मची है।’’

‘‘तो जेठ जी की दिली तमन्ना पूरी होने वाली है।’’

‘‘क्या पूछो, दुरजोधन की तरह ठाड़े हो गए हैं, सुई की नोक भर जगह नहीं…’’

‘‘हाँ, हम वनवासी पंडा।’’ कड़ुआहट आ गई होंठों पर।

‘‘एकाध आदमी ने तो ले धरे कि अन्यायी, तुझे सब पता है कि वे माँ-बाप कहाँ हैं। तू जानबूझकर ऐसा दिखा रहा है कि वे..। अरे, इतना तो हम भी जानते हैं कि शांति भाग-बिड़र गई है, बेटे के संग मरेगी नहीं। और न अपने बालक को मरने ही देगी।

‘‘बद्री भइया बिगड़ पड़े–तो लिवा लाओ जाकर। बड़ा पेट ऐंठ रहा है।’’

होंठ भींच लिए मैंने, कोई भद्दी बात निकले।

भोलाराम पास सरक आए, फुसफुसाकर बोले, ‘‘आ तो मैं तब ही जाता, जब वे मरे। पर मरना-जीना तो आगे होने वाला था। सोचा कि पटवारी के बस्ते में दबी किस्मत का जायखा लेता चलूँ। कसर नहीं राखी पटवरिया ने।

‘‘पर साले, ये लोग डाल-डाल तो सिरकार पात-पात। कचैरी से लोटिस आया है कि रामचरन वल्द मिसिरीलाल का बद्री परसाद के अलावा कोई और वारिस हो तो…’’

‘‘तो?’’

‘‘ठाँस दो एक उजिरदारी की दरखास।’’ कहते-कहते भोलाराम की ठोड़ी हिली, नाक तनी और जबड़ा कस गया। कठोर आँखों से ऐसे देखा ज्यों वह मुझे धमाका करने के लिए कोई हथगोला थमा रहा हो।

रास्ता! ठंडे रेत-भरे रास्ते पर सवेरे के सुरमई आसमान की छाया है। पूरब दिशा में दूर को धरती से छूता हुआ आसमान। किनारी से तनिक ऊँचा उठता लाल रंग का सूरज।

अनउगे सूरज की पहली ललामी बिखर रही है गैल-गैल। प्रधान की आवाज बही चली आ रही है जलतरंग-सी-भाभी!

सड़क के किनारे खड़ा पुकार रहा है।

मैं उसे देख रही हूँ आगे बढ़ती हुई कि समाती जा रही हूँ उसमें? तिरिया और पुरुष की माया में लीन दो शरीर या एक संबंध? पाप कमाया या पुन्न? छूत लगी या पाक हुई? सती हूँ या बदचलन? गुत्थमगुत्था होते हुए किस्से का बेदम सिलसिला ढीठ हौसले में बदल रहा है लगातार। ताकत का शंक कौन फूँक रहा है? खून में आग के गोले कि उज्रदारी की अर्जी पर लिखा आखर-आखर छर्रा-गोली…

‘‘मैं आ रही हूँ।’’

यह पुख्ता आवाज? खेतों में, गाँवों में, दिशाओं में, हवाओं में सनसनाती आवाज। धरती से आसमान की ऊँचाई तक उठती, फैलती, गूँजती मेरी आवाज है? पता नहीं, पर मुझे ऐसा ही लगा। बिलकुल ऐसा ही..

बस आ गई।

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