उजलवती कन्या : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा

Ujalwati Kanya : Lok-Katha (Oriya/Odisha)

साधव के सात बेटे। उनमें सबसे छोटे बेटे का नाम था भातअंतर। वह भात नहीं खाता। खाता केवल मांस। बचपन से शिकारी। हाथ में सदा तीर-धनुष लिये वह वन-जंगल फिरता। देह पर बघेरे की छाल।

एक उजलवती कन्या थी। उससे बढ़कर सुंदर कन्या संसार में कोई न थी। तलवार की धार-सी नाक, पद्मपँखुड़ी-सी आँख, गुलाबी गाल, शिरीष पँखुड़ी-सी होठों की हँसी। उजलवती से विवाह करने को कई राजकुमारों का मन, पर हो नहीं पाता।

उजलवती एक असुरनी के घर में थी। असुरनी के मुँह में राजकुँवर का मांस लगा और कुछ अच्छा नहीं लगता। बूढ़ी असुरनी की जीभ लपलपाती रहे। कब कोई कुँवर आएगा!

बिलंका का राजकुमार बहुत डरपोक। सुना कि कई राजकुमार जाकर असुरनी के मुँह से लौट न सके। कन्या की कमी है? नाम कहने से कई कुंडली, कई फोटो आ जाएँगे। फिर मन छटपट होता। उजलवती जैसी कौन है, उस जैसी कौन हो सकती है, बिजली जैसी, चंद्रमा जैसा उसका शरीर। उसकी बराबरी कौन करेगा? चंद्रमा को देख कई जान दे चुके हैं। वैसे जिसने उजलवती को एक बार देखा, धन्य हो गया जीवन।

राजकुमार इतना सोच गए, पर साहस न हुआ। प्राण रहें तो सब है। मरने पर क्या देखेंगे, भोग कौन करेगा? राजकुमार ने सोचा—सब काम क्या खुद करता हूँ? प्रजा भी कई काम मेरे लिए कर देती है। वैसे कोई और कन्या ला दे तो होगा। इसमें अपने प्राण भी रहें, विवाह भी हो जाए, पर भेजे किसे, मेरे राज में ऐसा बलशाली, बुद्धिमान कौन है? राजकुमार ने सोचा।

मंत्री ने कहा, “महाराज, भातअंतर को भेजें। ऐसा दमखम शक्तिशाली और कोई नहीं।”

बात राजा के मन को भा गई। तुरंत भातअंतर को बुला भेजा।

राजा—“उजलवती कन्या ला दो, वरना शूली पर चढ़ा दूँगा।”

भातअंतर समझ गया। आग में कूद या मर। उजलवती का जो रूप है, आग का गोला है। आग में पड़ जल रहे। मेरे भाग्य में जो है, होगा घोड़े पर चढ़ वह निकला। जाकर पहुँचा एक तालाब के पास। संगमरमर की सीढ़ियाँ, चारों ओर फूलों का बगीचा। साफ पानी। पेड़ों की छाया। एक झुरमुट की ओट में घोड़ा बाँधा। खुद चंपा पेड़ पर जा चढ़ा।

वहाँ उजाले में प्रकाश बिखेरती उजलवती आ पहुँची। उसे देख भातअंतर का मन विचलित हो गया। पेड़ से गिर न जाए। इतना सौंदर्य उसे किसने दिया, किसकी तूली ने इसे बनाया? वहीं उसने चिकनी मिट्टी से उसकी मूर्ति बनाई। उसके लौटने की राह पर वह मूर्ति रख दी।

उजलवती ने देखकर कहा, “कहीं कोई है? डरने की बात नहीं, सामने आ।” वह पेड़ से उतरा। उसे देख उजलवती स्तब्ध! ऐसा सुंदर है। मजबूत देह, बल उफन रहा।

भातअंतर ने कहा, “राजा ने भेजा है। तुझे लेकर जाने पर वह तुझसे विवाह करेगा।”

उजलवती—“वो कौन, कहाँ का राजा? मन का नहीं। वह भीरु है, कमजोर है। असुरनी से डरकर नहीं आया। मैं चाहती हूँ मन का राजा। वह यह भातअंतर आँखों के सामने है।”

भातअंतर—“वह मुझे मार न सके। मैं उसे मार दूँ। बारहहाथी खंडा।”

तभी असुरनी चरफिर लौटी। कहा, “आदमी की गंध? राजकुमार नहीं, पर है आदमी। बता।”

भातअंतर खांडा लेकर सामने खड़ा हो गया। उसके सारे दाँत झड़ गए। दो सामने के दाँत बचे। मुँह फाड़ दौड़ी।

भातअंतर ने चोट की, दोनों दाँत झर गए। अब फिर एक चोट की, दोनों हाथ टूट गए। वह उठकर चली। उसने खांडे से एक पाँव काट दिया, फिर दूसरा। वह लोटकर बढ़ी। भातअंतर ने गला काट दिया। असुरनी खत्म।

उजलवती को लेकर घर आया। राजा को खबर न दी। राजा ने सब सुना। उजलवती ने जादू किया। खबर दी। मैं एक बार उसे देखूँगा। तू कब जीत लाया। कन्या कोई देता है? कन्या सजकर खड़ी हुई, राजा देखने खड़ा हुआ, सिर चकरा गया, गिर पड़ा। वहीं राजा की लाश उठी। दोनों ने सुख से घर बसाया।

(साभार : डॉ. शंकरलाल पुरोहित)

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