उद्दंड बेटे का जीवट : हिंदी लोक-कथा

Uddand Bete Ka Jeevat : Folktale in Hindi

एक चक्रवर्ती सम्राट के चार रानियाँ थीं। चारों रानियों के एक-एक बेटा था। सम्राट का जीवन आमोद-प्रमोद और सुख-ऐश्वर्य से परिपूर्ण था। उसे बड़ी-बड़ी उपाधियाँ मिली हुई थीं। चौबीस राजा उसके आधीन थे। उसका राज्य बहुत विशाल था।

एक पूनम की रात वह रानियों के संग झूला झूल रहा था और हास-परिहास कर रहा था कि एकाएक उसके दिमाग़ में एक विचार कौंधा। उसने चारों राजकुमारों को बुलवाया और बड़े राजकुमार से पूछा, “बेटे, तुम युवराज हो, देश के होने वाले सम्राट। भविष्य के बारे में तुम्हारी क्या योजना है?”

युवराज ने शिष्टता से उत्तर दिया, “पिताजी, मैं प्रयास करूँगा कि आपके पदचिह्नों पर चलूँ और आपकी तरह महान सम्राट बनूँ।”

सम्राट ने दूसरे राजकुमार से भी वही प्रश्न पूछा, “बेटे, तुम्हारी क्या योजना है?”

“पिताजी, मैं राजनीतिविज्ञ बनूँगा और युवराज को शासन में सहायता करूँगा।”

तीसरे राजकुमार से पूछा गया तो उसने कहा, “मैं महान सेनापति बनूँगा और राज्य की रक्षा में युवराज की सहायता करूँगा।

चौथे राजकुमार की बारी आई तो उसने उनसे भिन्न उत्तर दिया, “पिताजी, आप चक्रवर्ती सम्राट हैं। चौबीस राजा आपके आधीन हैं। मैं आपसे भी श्रेष्ठ बनना चाहता हूँ। मैं अनेक राज्यों को जीतूँगा, चार अलौकिक स्त्रियों से विवाह करूँगा और नई नगरी बसाऊँगा।”

सम्राट फट पड़ा, “क्या? मुझसे श्रेष्ठ बनेगा? धरती का प्राणी होकर अलौकिक स्त्रियों से विवाह करेगा? मुझसे श्रेष्ठ बनेगा?”

सम्राट आपे से बाहर हो गया। उसने चिल्लाकर आदेश दिया, “इसे नगर के बाहर वन में फेंक दो, जाओ!”

छोटे राजकुमार की माँ ने पति को शांत करने की कोशिश की, पर बूढ़े सम्राट ने उसकी एक न सुनी। सो वह भीतर से भात की पोटली लेकर आई और आँखों में आँसू लिए हुए बेटे को विदा किया।

छोटा राजकुमार राजधानी को छोड़कर चल पड़ा। चलते-चलते वह एक जंगल में पहुँचा। वहाँ शेरों की दहाड़, हाथियों के चिंघाड़ और सूअरों की घुरघुराहट के अलावा और कोई आवाज़ नहीं थी। वह एक पेड़ पर चढ़कर बैठ गया और वहीं रात काटी। सुबह नीचे उतरकर उसने तालाब में स्नान किया और कुलदेवता नंदी से अपनी सुरक्षा के लिए प्रार्थना की। प्रार्थना के बाद वह जंगल में घूम रहा था कि उसकी एक काले साँप पर नज़र पड़ी। साँप एक मेढ़क के बिलकुल पास पहुँच गया और उसे निगलने जा ही रहा था कि राजकुमार ने उसे छड़ी से भगा दिया। मेढ़क के प्राण बच गए। उसे आश्चर्य हुआ जब मेढ़क ने उसका आभार मानते हुए कहा, “कभी आवश्यकता पड़े तो मुझे याद करना!” और पानी में कूदकर ग़ायब हो गया।

फिर राजकुमार ने माँ की दी पोटली में से थोड़ा भात खाया। उसके पश्चात सूरज डूबने तक वह जंगल में इधर-उधर डोलता रहा। अँधेरा घिरने पर उसने दूर एक दीया जलते देखा। वह उस तरफ़ खिंचा चला गया, जैसे मधुमक्खी फूल की तरफ़ खिंची चली जाती है। थोड़ी देर बाद उसने ख़ुद को एक झोंपड़ी के सामने पाया। वह ज़ोर से बोला, “कोई है?” शीघ्र ही एक बुढ़िया बाहर आई और उसे भीतर ले गई। बोली, “तुम थके हुए लगते हो। हाथ-मुँह धोओ और विश्राम करो!”

बुढ़िया ने उससे पूछा कि वह वन में क्या कर रहा है। राजकुमार ने उसे सारी बात बताई और पूछा कि वह वन में अकेली क्यों रहती है। बुढ़िया ने कहा, “मेरा नाम हंसिया दादी है। मेरी कहानी बहुत लंबी है। अभी तुम विश्राम करो, फिर कभी बताऊँगी।”

पर उत्सुक राजकुमार ने उसी समय उसकी आपबीती जानने की इच्छा प्रकट की। सो बुढ़िया उसे आपबीती सुनाने लगी—

“मैं एक महान ऋषि की बेटी हूँ। हो सकता है मैं ऐसी लगती न होऊँ। मेरे पिता कठोर तप के लिए विख्यात थे। पर एक दिन वह वासना में अंधे हो गए और मेरी माँ के पीछे पड़ गए। माँ नहीं चाहती थी कि उसके पति वासना के आगे घुटने टेक दें और उनकी जीवन भर की तपस्या पर पानी फिर जाए। माँ ने उन्हें बहुत समझाया, पर पिताजी जैसे वासना में पागल हो गए थे। उन्होंने उससे बलात सहवास किया और अपनी वासना को तृप्त किया। उस संयमभंग के फलस्वरूप मेरा जन्म हुआ—पाप जैसी कुरूप। मेरे जन्म के कुछ समय पश्चात पिताजी वन में फल लेने गए, उसी वन में जिसमें से होकर तुम अभी आए हो। वहाँ एक बाघ ने उन के चिथड़े-चिथड़े कर दिए। कुछ दिन उपरांत मेरी माँ का भी देहांत हो गया। मैं अनाथ हो गई। मैं जानती थी कि मैं बहुत कुरूप हूँ। इसलिए मैं वन में ही रही, कभी बस्ती में नहीं गई। मेरा अधिकांश समय तप, ध्यान, संध्या और पूजा में बीतता था। कठोर तप से मुझे कई शक्तियाँ प्राप्त हुईं। कई अद्भुत बातें मैंने देखीं। कहने को और भी बहुत कुछ है, पर अभी रहने दो। रात बहुत हो गई है, जाओ, सो जाओ!”

राजकुमार उसके साथ रहने लगा। वह उसकी गायें चराने ले जाता था। बुढ़िया ने उस पर केवल एक रोक लगाई, “गायों को लेकर कभी उत्तर दिशा में मत जाना!” राजकुमार ने कहा, “ठीक है, नहीं जाऊँगा।” पर एक दिन वह अपने कुतूहल को रोक न सका। ऐसा उत्तर में क्या है जो उसे नहीं देखना चाहिए? वह गायों के झुंड को लेकर उत्तर की ओर चल पड़ा। उधर अनूठा दृश्य था। स्टफिक की सीढ़ियाँ और सोने की ईंटों से बना सुंदर स्नानकुंड देखकर वह चकित रह गया। कुंड में हरी, लाल, गुलाबी, नीली और पीली मछलियाँ किल्लोल कर रही थीं। कुंड के पास एक जामुन का पेड़ था। वह जामुन की छाया में बैठा ही था कि सहसा चार अलौकिक स्त्रियाँ वहाँ प्रकट हुईं, मानो आकाश से उतरी हों। राजकुमार जामुन की ओट से उन्हें देखने लगा। पीतांबर कौशेय साड़ियाँ उतारकर वे कुंड में कूदीं और जलक्रीड़ाएँ करने लगीं। जाने किस अंतःप्रेरणा से राजकुमार ने एक साड़ी उठाई और भाग खड़ा हुआ। वह साड़ी इंद्र की बेटी की थी। उसने राजकुमार को उसकी साड़ी उठाकर भागते देख लिया। वह तेज़ी से पानी से बाहर निकली और उसके पीछे भागी, “ए लड़के, रुको! तुम बहुत रूपवान और वीर हो। मैं तुम्हीं से विवाह करूँगी। रुको और मुड़कर मुझे देखो!”

राजकुमार को अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ। वह रुक गया। इंद्र की बेटी ने तुरंत उसके हाथ से साड़ी छीनी, उसे पत्थर में बदला और ओझल हो गई।

राजकुमार सांझ को घर नहीं लौटा तो बुढ़िया को चिंता हुई। सो छड़ी और दीया लेकर वह उसे खोजने निकली। दक्षिण, पूर्व और पश्चिम दिशा में उसे उसका कोई चिह्न नहीं मिला। वह समझ गई कि वह निश्चित ही उत्तर की ओर गया है। वह उत्तर में गई तो राजकुमार उसे चट्टान के रूप में धरती पर पड़ा मिला। बुढ़िया ने उस पर छड़ी से वार किया। पाषाण में प्राणों का संचार हुआ और राजकुमार उठ खड़ा हुआ। फिर कोई विपत्ति न आ जाए, अतः वे तेज़ी से घर की ओर चल पड़े। रास्ते में बुढ़िया ने उसे डांटा, “मैंने तुमसे कहा नहीं था कि उत्तर में कभी मत जाना?”

“हाँ दादी, तुमने कहा था। परंतु मुझे लगा कि यही वह स्थान है जहाँ मेरा मनोरथ पूर्ण होगा। इसलिए मुझसे रहा नहीं गया। सच तो यह है कि मैं उधर फिर जाना चाहता हूँ।”

“अच्छी बात है, जाना चाहते हो तो जाना, पर कुछ बातों का ध्यान रखना। अपने साथ गायों को मत ले जाना और उन अलौकिक छोकरियों के रूप और मीठी बातों के भुलावे में मत आना। अगली बार साड़ी उठाओ तो भागकर सीधे घर आ जाना। शेष मैं संभाल लूँगी।”

अगले दिन सवेरे राजकुमार ने फटाफट पेट में कुछ डाला और घर से निकल गया। वह सीधे सुंदर कुंड के पास गया और जामुन के पेड़ के पीछे छुपकर बैठ गया। आज भी चारों अलौकिक स्त्रियाँ आईं और उसकी विस्फारित आँखों के सामने अपनी साड़ियाँ उतारने लगीं। वह चित्रलिखित-सा उन्हें सर से पाँव तक निहारता रहा। गोरा रंग। साँचे में ढली सुघड़ काया। कजरारी आँखें। चंद्रमा के समान मुखमंडल। नितंब तक लहराते काले बालों का निर्झर। पके ख़रबूज़े के सदृश गोल स्तन। आह, कैसा सम्मोहक कुँवारा यौवन! साड़ियाँ और मोतियों के आभूषण धरती पर रखकर वे पानी में कूद गईं। राजकुमार लपककर छुपे हुए स्थान से बाहर आया और पलक झपकते कल वाली साड़ी उठाकर तेज़ी से भागा। इंद्र की बेटी विद्युतगति से पानी से निकलकर उसके पीछे भागी। उसने बहुत पुकारा, रोई, पर राजकुमार उसके झाँसे में नहीं आया। वह सीधे झोंपड़ी में गया और साड़ी हंसिया दादी को संभला दी। बुढ़िया ने अविलंब राजकुमार को बच्चा बनाया और पालने में सुला दिया। पालने में झुलाते हुए वह लोरी गाने लगी। माया की शक्ति से बुढ़िया ने साड़ी को बच्चे की जंघा में छुपा दिया। कुछ ही पलों में इंद्र की बेटी भी वहाँ आ गई। उसने बुढ़िया से हाँफते हुए पूछा, “आपने किसी को इधर से जाते हुए देखा? एक युवक?”

“युवक? नहीं, मैंने तो किसी को नहीं देख। मैं बहुत समय से यहीं बैठी हूँ।”

“हो सकता है वह यहाँ छुप गया हो!”

“चाहो तो ढूँढ़ लो। पर पहले अपनी लज्जा तो ढक लो। निर्वस्त्र घूमना अच्छी बात नहीं है। लो, यह सूती कपड़ा लपेट लो!”

थोड़ी देर उसे और तंग करने के बाद बुढ़िया ने कहा, “मुझे पता है तुम्हारी साड़ी कहाँ है। यदि तुम उस युवक से विवाह करने को तैयार हो तो तुम्हें साड़ी वापस मिल सकती है।”

इंद्र की बेटी राज़ी हो गई। बुढ़िया ने बच्चे को वापस युवक बनाया और हाथोंहाथ झोंपड़ी में उनका ब्याह रचा दिया। पुरोहित का कार्य बुढ़िया ने स्वयं किया।

कुछ दिन बाद उन्होंने हंसिया दादी से विदा ली। राजकुमार को अभी तीन विवाह और जो करने थे। राजकुमार और उसकी अलौकिक संगिनी एक-दूसरे से बातें करते हुए चलते रहे। उनकी बातें समाप्त होने पर ही नहीं आती थीं। चलते-चलते वे एक नगर में पहुँचे। नगरवासी आँखें मल-मलकर उनका सौंदर्य निहारने लगे। वे उन्हें कृष्ण और रुक्मिणी के समान सुंदर लगे। मानो जगत के समूचे सौंदर्य ने उनकी देह में शरण ली हो। एक गली में कोई छोरा मिसरी की डली खा रहा था। उन्हें देखकर वह ऐसा सम्मोहित हुआ कि वह अपनी अंगुलियाँ चबा गया। एक लकड़हारा का वार चूक गया और कुल्हाड़ी से अपना पाँव काट बैठा। इन परदेशियों को देखकर नगरवासी अपनी सुध-बुध खो बैठे।

राजकुमार ने एक छोटा घर भाड़े पर लिया और इंद्र की बेटी के साथ रहने लगा। वहाँ के राजा ने उसे अपनी सेवा में रख लिया। एक दिन जब राजकुमार और इंद्र की बेटी धीरे-धीरे झूला झूल रहे थे, तभी राजा के दो सेवक राजकुमार को उसका मासिक वेतन देने आए। उसकी पत्नी की सुदंरता देखकर वे अवाक हो रहे। वे भागे-भागे राजा के पास गए और हकलाते हुए कहने लगे, “महाराज, परदेशी सेवक की पत्नी इतनी सुंदर है कि वह आप ही के योग्य है। उसका सौंदर्य ऐसा अनुपम है कि वह किसी दूसरे लोक की लगती है।”

राजा उचित-अनुचित का विवेक खो बैठा और स्वप्नलोक में विचरण करने लगा। उसके सौंदर्य का बखान सुनते हुए उसे पाने की राजा की इच्छा तीव्र से तीव्रतर होती गई।

अगले दिन राजकुमार प्रतिदिन की तरह राजसभा में गया तो उसने वहाँ राजा को अनुपस्थित पाया। पूछने पर पता चला कि राजा के पेट में भयंकर पीड़ा है। वह तुरंत राजा के कक्ष में गया और उसका अभिवादन किया, “महाराज की जय हो!”

राजा ने दुर्बल स्वर में कहा, “तुम्हें देखकर मुझे प्रसन्नता हुई। लगता है जैसे मेरा बिछुड़ा हुआ भाई मिल गया हो। मेरे पेट में घाव है। वैद्य कहते हैं इसकी एक ही औषधि है—कोर्कोतका साँप का विष। मेरे लिए यह विष कौन ला सकता है?”

राजकुमार वृद्ध राजा की चाल समझ नहीं पाया। राजकुमार ने उसे वचन दिया कि यदि इससे महाराज के प्राण बचते हैं तो वह उनके लिए कोतका का विष लाएगा। वह यह सोचते हुए घर पहुँचा कि भयंकरतम साँप कोतका का विष उसे कहाँ मिलेगा। सोच में डूबा राजकुमार खाना-पीना तक भूल गया। उसकी ऐसी दशा देखकर इंद्र की बेटी ने पूछा कि वह किन विचारों में खोया है। राजकुमार ने उसे राजा के रोग और उसके उपचार के बारे में बताया।

इंद्र की बेटी ने तुरंत उसकी समस्या हल कर दी, “उत्तर में जंबुशिखर से थोड़ा आगे शेषाद्रि पर्वत शृंखला है। उन पहाड़ियों में तामला के पेड़ के नीचे तुम्हें साँपों का टीला मिलेगा। मैं पत्र लिख देती हूँ। वह पत्र तुम बांबी में डाल देना और प्रतीक्षा करना।”

राजकुमार ने खाना खाया और निश्चित होकर सो गया। सवेरे वह मुँह अँधेरे उठा और अपने अभियान पर निकल गया। रास्ते में उसने एक पेड़ पर मकड़ी का जाला देखा। उस जाले में एक भारनी कीड़ा फँसा हुआ तड़प रहा था। उसने सतर्कतापूर्वक भारनी को जाले से मुक्त किया और उसे मृत्यु से बचाया। वहाँ से वह शेषाद्रि पहाड़ियों से साँपों के टीले पर गया और पत्नी का पत्र बांबी में डाल दिया। शीघ्र ही उसे भीतर कोलाहल सुन पड़ा। बांबी में से कई साँप बाहर आए और उसे भीतर ले गए। वे उसे नागराज के पास ले गए। वह पहुँचा तब नागराज उसी का लाया पत्र पढ़ रहा था—

‘ओ पाताल लोक के नागराज, यह पत्र इंद्र की बेटी का है, जो तुम्हारी अपनी बेटी के समान है। पत्रवाहक मेरे पति हैं। भूलोक पर मेरी कोई संगिनी नहीं है। मेरे पति के साथ अपनी बेटी का विवाह करने का अनुग्रह करें और उसे उनके साथ भेज दें! मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि हम दोनों एक-दूसरे के साथ सुख से रहेंगी। साथ ही मेरे पति की एक और माँग पूरी करें! वह माँग वे स्वयं आपको बताएँगे।’

नागराज को राजकुमार देखने-भालने में अच्छा लगा। उसने उसी दिन अपनी बेटी उसे ब्याह दी। अगले दिन उसने बेटी और जामाता को विदा कर दिया। नागराज के विश्वसनीय अनुचर उन्हें जंबूद्वीप तक पहुँचा गए। कोर्कोतका के विष की शीशी नागराज ने राजकुमार को विदाई के समय दे दी थी। वे घर पहुँचे तो बचपन की सहेलियाँ एक-दूसरे के गले मिलीं।

अगले दिन राजकुमार भयंकर विष की शीशी राजा के पास ले गया। राजा ने सेवकों से अहाते में सावचेती से शीशी खोलने को कहा। शीशी का ढक्कन थोड़ा-सा खुलते ही अहाते में खड़ी इमली का पेड़ सुलग उठा। देखते-देखते पेड़ ने आग पकड़ ली और जलकर भस्म हो गया। राजा ने विष को धरती में गहरा गड़वा दिया। राजा की पहली चालाकी सफल नहीं हुई। राजकुमार का बाल भी बाँका नहीं हुआ और वह भयंकर विष ले आया। युवा परदेशी से राजा थोड़ा भयभीत रहने लगा।

एक महीने बाद छुट्टी के दिन राजा के चाकर परदेशी राजकुमार को वेतन देने के लिए उसके घर आए। इस बार उन्होंने परदेशी के संग एक की ठौर दो सुंदर स्त्रियों को देखा। वे उलटे पाँव राजमहल गए और राजा से उनकी सुंदरता का बहुत मोहक वर्णन किया। परदेशी की अपूर्व सुंदर पत्नियों को पाने की राजा की कामना इतनी तीव्र थी कि उसे इहलोक और परलोक का कोई ध्यान नहीं रहा। उसने फिर राजकुमार को बुलवाया और कहा कि उसके सर में भयंकर पीड़ा है, घड़ियाल के पित्त से ही उसका उपचार संभव है। उस जैसा सूरमा ही उसके लिए घड़ियाल का पित्त ला सकता है।

राजकुमार सोच में डूबा हुआ घर पहुँचा। दोनों पत्नियों ने उससे एक स्वर में पूछा, “प्राणनाथ, क्या बात है, आपका मुँह क्यों उतरा हुआ है?” उसने उन्हें बताया कि राजा उससे क्या चाहता है। घड़ियाल का पित्त उसे कहाँ मिलेगा? उसकी पत्नियों को यह बहुत साधारण बात लगी। दोनों तुरंत पत्र लिखने बैठ गईं और कहा कि वह इन्हें समुद्र में फेंक दे।

राजकुमार निश्चित हो गया। उसने भोजन किया और सो गया। सवेरे सूरज निकलते ही वह पत्नियों की बताई दिशा में चल पड़ा। रास्ते में उसने एक तरुण घड़ियाल को सूखी धरती पर असहाय पड़े देखा। पानी के अभाव में वह अधमरा हो गया था। राजकुमार ने उसे सावधानी से उठाया और नदी में छोड़ दिया। पानी का स्पर्श होते ही अधमरे तरुण घड़ियाल में जीवन ठाटें मारने लगा। कृतज्ञ घड़ियाल ने कहा, “भले मानुस, तुमने मुझे बचा लिया। कभी संकट पड़े तो मुझे स्मरण करना!” और गहरे पानी में चला गया।

राजकुमार समुद्रतट पर पहुँचा और दोनों पत्र लहरों को सौंप दिए। कुछ ही क्षणों में चार घड़ियाल आए और उसे समुद्र के राजा के पास ले गए। राजा ने पत्र पढ़े और बहुत उत्साह से अपनी बेटी उसके सुपुर्द कर दी। उसने दहेज में उसे समुद्र के सर्वश्रेष्ठ हीरे दिए। घड़ियाल का सर्वोत्तम पित्त देना भी वह नहीं भूला।

राजकुमार घर आया तो तीनों अलौकिक सुंदरियों के हर्ष का पार न रहा। उन्होंने एक-दूसरे की कुशलक्षेम पूछी। अगले दिन राजकुमार ने घड़ियाल का पित्त राजा को दिया तो राजा की आशाओं पर पानी फिर गया। उसका यह दाँव भी ख़ाली गया।

अगले महीने जब राजा के चाकर राजकुमार को उसका वेतन देने आए तो उसके साथ तीन-तीन अलौकिक युवतियों को प्रफुल्लता से हँसते देखकर उनकी आँखें चुंधिया गईं। तृप्तिकर भोजन के उपरांत चारों झूले पर बैठे हास-परिहास कर रहे थे। पहले की तरह वे फिर सीधे राजा के पास गए। उन्होंने राजा को बताया कि तीनों युवतियाँ इतनी सुंदर हैं कि उनकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती। भूलोक पर ऐसा सौंदर्य किसी ने नहीं देखा होगा। उनकी मोहिनी ने उन जैसे अनाड़ियों को भी वाकपटु बना दिया। उन्हें पाने की कामना से राजा पागल हो गया।

अगले दिन राजा ने राजकुमार को फिर बुलाया और लगा उसकी प्रशंसा करने, “तुम सच्चे सूरमा हो। तुम असंभव को भी संभव कर सकते हो। क्या तुम स्वर्ग में जाकर मेरे माता-पिता और भाइयों का कुशलक्षेम पूछकर आ सकते हो? उनके समाचार तुम्हारे अतिरिक्त कोई नहीं ला सकता।”

“जैसा आपका आदेश महाराज!” राजकुमार ने कहा और पत्नियों से परामर्श करने के लिए घर लौट आया।

तीनों सहेलियों ने रात भर जागकर पाँच सौ पत्र लिखे। पत्रों को बोरे में भरकर राजकुमार राजा के पास गया और उससे अग्निकुंड तैयार करवाने को कहा। अग्निकुंड तैयार हो गया और उससे लपटें उठने लगीं तो राजकुमार आग़ में कूद गया। आग में कूदते ही अग्निदेवता उसे अपने लोक में ले गए। अग्निदेवता और अन्य देवताओं ने उनके नाम लिखे पत्र पढ़े। अग्निदेवता ने उसको अपनी रूपवती बेटी का कन्यादान किया और पृथ्वी पर वापस भेज दिया। घर लौटते समय रास्ते में राजकुमार ने एक स्थान पर जलधारा को बिमोटे की ओर बढ़ते देखा। वह रुका और चींटियों को बचाने के लिए जलधारा को दूसरी ओर मोड़ दिया। चार अलौकिक पत्नियों से घिरा वह उस रात बहुत अच्छी नींद सोया।

अगले दिन सवेरे वह राजा और उसके परामर्शदाता मंत्री के लिए एक-एक पत्र ले गया। राजा के पत्र में लिखा था—

चिरंजीव,

तुम्हारे संदेशवाहक से तुम्हारे समाचार जानकर बहुत प्रसन्नता हुई। हम यहाँ कुशल से हैं। किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं है। देवताओं के समान हमें यहाँ सारे सुख उपलब्ध हैं। एक बार तुम भी हमसे मिलने क्यों नहीं आ जाते? यदि चाहो तो तुम यहाँ सदा के लिए रुक सकते हो। जिस विधि से तुम्हारा संदेशवाहक आया, तुम भी आ सकते हो। दूसरी कोई विधि है भी नहीं। तुम्हारे आने की हम उत्सुकता से प्रतीक्षा करेंगे।

तुम्हारा
पिता...

राजा और उसका धूर्त मंत्री पत्र पढ़कर रोमाँचित हो गए। सदेह स्वर्ग जाने की कामना उनके रोम-रोम में नृत्य करने लगी। राजा ने सूरज निकलने से पहले विशाल अग्निकुंड तैयार करने का आदेश दिया। बात की बात में यह समाचार घर-घर में फैल गया। अग्निकुंड में कूदने के लिए पूरा नगर उमड़ पड़ा। प्रत्येक स्वर्ग में अपने संबंधियों से मिलने के लिए अधीर हो रहा था। राजकुमार ने उन्हें समझाया, “मित्रो, थोड़ा धैर्य रखो! पहले महाराज और सम्माननीय मंत्री को जाने दो!” भव्य वस्त्र पहने हुए राजा और मंत्री अपने परिजनों और अनुचरों सहित आग में कूद गए और देखते-देखते आग में भस्मीभूत हो गए। राजकुमार ने यह कहकर लोगों को वापस भेजा, “आँखें खोलकर देखो! धूर्त राजा और चरित्रहीन मंत्री मर गए हैं। यह आग तुम्हें स्वर्ग नहीं, यमलोक ले जाएगी। अपने-अपने घर जाओ और सुख से रहो!”

राजा के कक्ष में राजकुमार को एक काग़ज़ मिला। उस काग़ज़ पर एक ब्राह्मण का नाम लिखा था। उसने तत्काल एक कुटिया में उस ब्राह्मण को खोज निकाला और उसे राजा का मुकुट पहना दिया। यद्यपि ब्राह्मण ने उसका भरसक प्रतिरोध किया, “मैं एक दरिद्र ब्राह्मण हूँ और ऐसा ही रहना चाहता हूँ। मैं राज्य लेकर क्या करूँगा? इसका शासन तुम स्वयं संभालो।”

राजकुमार ने उसे समझाया, “नहीं, यह सब आपका है। मेरा निवेदन है कि मैं भविष्य में कभी इधर आऊँ तो आप मुझे आश्रय दें। और मुझे कुछ नहीं चाहिए।”

उस नगर को छोड़कर अपनी चारों पत्नियों के साथ वह जंगल में चला गया। वहाँ उनकी सहायता से उसने एक विशाल नगर बसाया।

उधर उसके पिता को बहुत बुरे दिन देखने पड़े। चक्रवर्ती सम्राट अपने राज्य और संपत्ति से हाथ धो बैठा। यहाँ तक कि आजीविका के लिए उसे लकड़हारे का काम करना पड़ा। किसी ढंग के काम की तलाश में राजा और उसका परिवार यहाँ-वहाँ भटकने लगा। भटकते-भटकते एक दिन वे इस नई नगरी में आए। राजकुमार ने महल के झरोखे में से उन्हें नीचे गली में जाते देख लिया। उसने उन्हें अंदर बुलाया और सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ उपलब्ध कराईं।

कुछ दिन पश्चात राजकुमार और उसके तीनों बड़े भाइयों ने आखेट पर जाने का निश्चय किया। आखेट पर जाने से पहले उसने अपनी पहली पत्नी की पीतांबर कौशेय साड़ी माँ को संभालकर रखने के लिए दी। उसने माँ को ज़ोर देकर कहा कि वह इस साड़ी को दृष्टि से ओझल न होने दे और न ही इसे किसी को दे। इस समय राजकुमार की चारों पत्नियाँ नहा रही थीं। जाने कैसे उसकी पहली पत्नी को साड़ी के बारे में पता चल गया! उसने सास से अत्यंत मीठे स्वर में कहा, “माँ, वह नई वाली कौशेय साड़ी तनिक दिखाओ न! कैसी सुंदर है! आपकी आज्ञा हो तो एक दिन मैं पहन लूँ?”

सास ने कहा, “नहीं, यह मैं नहीं दे सकती। तुम्हारे पति ने इसे किसी को देने के लिए मना किया है।”

“क्या? मुझे भी नहीं? बहू ने मुँह फुलाकर कहा। आख़िर उसने सीधी-सादी बुढ़िया को अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से फुसला लिया और साड़ी ले ली। इसके पहले कि कोई कुछ समझ पाता चारों अलौकिक सुंदरियों ने साड़ी में अपने को लपेटा और आकाश में उड़ चलीं। उनके साथ ही उनकी रची नगरी भी अलोप हो गई। नगरी की ठौर पुराना जंगल फिर प्रकट हो गया।

बेचारी बुढ़िया रो पड़ी।

उधर जंगल में शिकार को गए राजकुमार और उसके भाइयों को अचानक ऐसा लगा कि वे किसी अज्ञात प्राचीर से घिर गए हों या मानो जंगल सहसा और घना हो गया हो! भाइयों ने उससे पूछा, “यह क्या हुआ?” राजकुमार ने कहा, “यह सब माँ का किया-धरा है।” तलवारों से झाड़ियाँ और लताएँ काटकर रास्ता बनाते हुए वे जैसे-तैसे उस स्थान पर पहुँचे जहाँ उनकी निराश माँ बैठी आँसू बहा रही थी। राजकुमार सबको उस राज्य में ले गया जहाँ अब ब्राह्मण का शासन था। उनकी सेवा का अवसर पाकर ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ। घरवालों को वहाँ छोड़कर राजकुमार अपनी चंचल पत्नियों की खोज में निकल पड़ा। देवलोक में कुछ दिन बाद ही राजकुमार की पत्नियों को उसकी याद सताने लगी। उन्हें उसकी छेड़छाड़ और क्रीड़ाएँ याद आतीं। उससे मिलने के लिए वे छटपटाने लगीं। वे वापस धरती पर आईं। उन्होंने राजकुमार को यहाँ-वहाँ निरुद्देश्य भटकते देखा और राजकुमार को उनके साथ चलने का अनुरोध किया।

इंद्र की बेटी ने कहा, “चलकर मेरे पिता से मिलो। उनकी अनुमति से तुम हम चारों को पुनः प्राप्त कर सकते हो। मेरा अपहरण करते समय तुमने उनकी अनुमति नहीं ली थी।”

“ठीक है, मैं चलूँगा और तुम्हारे पिता से अनुमति लूँगा।”

उन्होंने राजकुमार को मछली में बदला और उसे पानी के बर्तन में रखकर अपने साथ देवलोक ले गईं। देवलोक में पहुँचकर उन्होंने उसे वापस उसके मूल रूप में रूपांतरित किया और ओझल हो गईं।”ओ भली स्त्रियाँ!” राजकुमार बुदबुदाया और पूछता-ताछता इंद्र की राजधानी पहुँचा। पृथ्वी के वासी को वहाँ देखकर सब चकित रह गए। शीघ्र ही वह इंद्र के पास पहुँच गया। उसका वृतांत सुनकर इंद्र मुस्कुराया। कहने लगा, “यदि तुम इन कन्याओं को चाहते हो तो तुम्हें स्वयं को इनके योग्य सिद्ध करना होगा। जो मैं कहूँ वे चार कार्य तुम्हें करके दिखाने होंगे। यदि तुम उनमें सफल हो गए तो चारों पुनः तुम्हारी हो जाएँगी।”

इंद्र ने विशाल मैदान में एक टोकरी तिल बिखेरे और कहा, “इन्हें एक पहर एकत्र कर दिया तो अग्निदेवता की पुत्री पुनः तुम्हें मिल जाएगी।”

राजकुमार घबरा गया। सहसा उसने उन चींटियों को याद किया जिन्हें उसने बहने से बचाया था। याद करते ही चींटियों का पूरा दल प्रकट हुआ और उसकी इच्छा के अनुसार मैदान में से एक-एक तिल बीनकर एक ठौर ढेर लगा दिया। यों उसे उसकी सबसे छोटी पत्नी वापस मिल गई।

फिर इंद्र ने अपनी अंगूठी को गहरे कुएँ में फेंका जो तलविहीन लगता था और उससे अंगूठी ढूँढ़ लाने को कहा। अगले ही पल राजकुमार को मेढक की याद आई। और लो, मेढक उपस्थित हो गया। उसके कहते ही मेढक कूएँ में कूद गया। पर अगले ही क्षण वह वापस आ गया। वह बुरी तरह डरा हुआ था, क्योंकि कुएँ के तल पर साँपों का झुंड पहरा दे रहा था। मेढक ने अपने छोटे बेटे बेंगची को बुलाया और उसे कुएँ में अपने साथ ले गया। वहाँ उसने बेंगची को साँपों की ओर भेजा। साँप उसे निगलने के लिए ऊपर आए। मेढक ने तल की ओर गोता लगाया और इंद्र की अंगूठी लेकर ऊपर आ गया। इस तरह राजकुमार को जललोक की राजकुमारी वापस मिल गई।

फिर इंद्र ने उसे केले का पेड़ दिखाते हुए कहा, “एक प्रहार में इसके तीन टुकड़े करो और नागराजनंदिनी तुम्हारी!”

राजकुमार ने तुरंत उस घड़ियाल को चितारा जिसे नदी में डालकर उसने उसके प्राण बचाए थे। उसके चितारते ही घड़ियाल आ उपस्थित हुआ। राजकुमार का अभिवादन करके उसने पूछा कि वह उसके लिए क्या कर सकता है।

“इस कदली को देख रहे हो? अपनी पैनी पूँछ से एक प्रहार में इसके तीन टुकड़े करने हैं। कर सकोगे?” उसने बात पूरी भी नहीं की थी कि पेड़ तीन बराबर टुकड़ों में उसके सामने पड़ा था। नागकन्या को भी उसने जीत लिया।

अब इंद्र ने उसकी अंतिम परीक्षा ली। माया से उसने तीन अप्सराओं को सोलहो आना अपनी बेटी के जैसा बनाया और कहा, “बताओ, इनमें तुम्हारी पहली पत्नी कौन-सी है?”

राजकुमार के कुछ समझ में नहीं आया। उसे लगा कि इस परीक्षा में वह हार जाएगा। उसके सामने शतप्रतिशत एक जैसी चार युवतियाँ खड़ी थीं। पास से देखने पर भी उसे उनमें एक बाल का भी अंतर नहीं दिखा। सहसा उसे भारनी कीड़े का स्मरण आया। जाने कहाँ से भारनी उड़ता हुआ आया, इंद्र की बेटी की साड़ी को छूआ और उसके सर के ऊपर मंडराने लगा। राजकुमार चिल्लाया, “यह रही, यह है मेरी पहली पत्नी!” और उसने उसका हाथ पकड़ लिया। उसने उसे भी जीत लिया था।

देवतागण यह देखकर चकित रह गए कि कैसे मृत्युलोक से विनीत प्राणी आए और उन्होंने इस नश्वर मनुष्य की रक्षा की। यह सब इंद्र को भी बहुत मनोरंजक लगा। उसने विवाहानुष्ठान का भव्य प्रबंध करवाया और दिव्य परंपराओं के अनुसार धूमधाम से उनका विवाह किया।

चारों पत्नियों के साथ राजकुमार पृथ्वी पर आया और सीधे अपने पिता की मूल राजधानी पहुँचा। उस राज्य पर अब दूसरे राजाओं का उपाधिपत्य था। उसने सबको मार भगाया, आस-पास के छोटे राज्यों को भी अपने राज्य में मिलाया और वहाँ का राजा बन गया। फिर अपने माता-पिता और भाइयों को भी उसने अपने पास बुला लिया।

एक पूनम की रात को वह चारों पत्नियों के साथ झूले पर बैठा था। उसे बीता हुआ एक दिन याद आ गया। उसने पिता को बुलवाया और पूछा, “जो मैंने कहा वह मैंने कर दिखाया कि नहीं?”

पिता ने कहा, “हाँ, बेटे तुमने कर दिखाया। बेटा हो तो तुम्हारे जैसा!”

(साभार : भारत की लोक कथाएँ, संपादक : ए. के. रामानुजन)

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