उदासी : फ़्रेंज़ काफ़्का
Udasi : Franz Kafka
नवंबर माह में शाम के समय जब वह असहनीय होता जा रहा था , तब मैं अपने कमरे के बिछे गलीचे पर इस तरह से दौड़ पड़ा मानो दौड़ का मैदान हो, जगमगाते चौराहों की रोशनी से दूर कमरे के अंदर की तरफ मुड़ा तथा शीशे की गहराई में नया लक्ष्य मिल गया, तभी मैं जोर से चिल्ला या । मेरी चीख वापिस मेरे पास ही आई, बिना उत्तर पाए; न ही इसे कोई ऐसी चीज मिली , जो इसकी शक्ति को छीन सके, इसलिए यह तीव्रतर होती ही गई, यहाँ तक कि जब यह सुनाई पड़ना बंद हो गई तब तक भी यह नहीं रुकी । दीवार में लगा दरवाजा तेजी से मेरी ओर खुला, बहुत तेजी से, क्योंकि तेजी की जरूरत थी, यहाँ तक कि नीचे पथरीली पगडंडियों पर गाड़ी वाले घोड़े, हवा में ऐसे उछल रहे थे जैसे युद्ध के मैदान में शत्रुओं के पीछे भागते घोड़े।
घुप अँधेरे, छत से एक छोटा बच्चा एक छोटे प्रेत की तरह तेजी से अंदर आया , जहाँ पर कि चिराग अभी जला भी नहीं था तथा चुपचाप जमीन पर रखे तख्त पर खड़ा हो गया जो धीरे से हिला । कमरे में हुई मद्धिम प्रकाश की चकाचौंध से बचने के लिए उसने तेजी से अपने हाथों से अपना चेहरा ढक लिया , लेकिन खि ड़की से बाहर देखते हुए अप्रत्याशि त रूप से स्वयं को तसल्ली दी , जहाँ कि चौराहे पर लगी रोशनी से निकलता ऊपर उड़ता वाष्प भी अंततः क्रॉसवार के पीछे इसके अंधकार में गायब हो गया । खुले दरवाजों में दाएँ हाथ की कोहनी के सहारे उसने स्वयं को दीवार के सहारे थामा तथा हवा के झोंके को बाहर से अंदर अपनी कनपट्टियों , गले आदि से खेलते हुए जाने दिया ।
मैंने उस पर एक नजर डाली और कहा, ’‘आपका दिन अच्छा हो !’’ तथा स्टोव के हुड पर से अपना जैकेट उठाया, क्योंकि मैं वहाँ अर्धनग्न खड़ा होना नहीं चाहता था । कुछ देर तक मैंने अपना मुँह खुला रखा , ताकि भीतर का आक्रोश बाहर निकल सके। मेरे मुँह का स्वाद खराब हो गया था । मेरी बरौनियाँ मेरे गालों पर झपझपा रही थीं । संक्षेप में, यह आगमन, जिसकी कि मुझे प्रत्याशा थी , की जरूरत थी ।
बच्ची अभी भी उसी जगह दीवार के सहारे खड़ी थी । उसने अपने दाएँ हाथ से प्लास्टर को दबाया तथा उसमें वह पूर्णतः तल्लीन थी , उसके गाल गुलाबी हो रहे थे तथा दीवार की सफेदी खुरदुरी हो रही थी , क्योंकि उसने उसे उँगलियों से कुरेद दिया था । मैंने कहा, ‘‘क्या सचमुच में तुम्हें मेरी तलाश थी ? कुछ गलती तो नहीं है? इस बड़ी सी इमारत में गलती करने से आसान कोई काम नहीं है। मेरा नाम अमुक है तथा मैं तीसरी मंजिल पर रहता हूँ। क्या मैं वही व्यक्ति हूँ, जिसकी तुम्हें तलाश थी ?
‘‘धीरे, धीरे,’’ बच्ची ने उसके कंधे पर आकर कहा , ‘‘यह सही है।’’
‘‘तब कमरे के अंदर आओ, क्योंकि मैं दरवाजा बंद करना चाहता हूँ।’’
‘‘मैंने अभी ही इसे बंद कर दिया है। आप तकलीफ न करें तथा हो आएँ।’’
‘‘इसमें तकलीफ की कोई बात नहीं है। इस छत पर बहुत सारे लो ग रहते हैं, तथा मैं उन्हें निश्चि त रूप से जानता हूँ। ज्यादातर लोग अभी काम पर से वापिस आ रहे हैं। उन्हें अगर कमरे के भीतर से किसी के बात करने की आवाज सुनाई पड़ेगी तो वे सीधा यह सोचेंगे कि उन्हें कमरे का दरवाजा खोलकर भीतर क्या हो रहा है, देखने का पूरा अधिकार है। ये लोग ऐसे ही हैं। अब वे काम से वापिस आ गए हैं तथा शाम के खाली समय में वे किसी की परवाह नहीं करते। इसके लिए आप भी यह जानती हैं तथा मैं भी जानता हूँ। मुझे दरवाजा बंद करने दो ।’’
‘‘क्यों , आपको क्या परेशानी है? अगर पूरा घर भी आ जाए तो मैं परवाह नहीं करती । जो भी हो , मैंने तो आपको बता ही दिया है कि मैंने दरवाजा बंद कर दिया है। आपको क्या लगता है कि आप ही अकेले व्यक्ति हैं, जो दरवाजा बंद कर सकते हैं। यहाँ तक कि मैंने ताला भी लगा दिया है।
‘‘फिर तो ठीक है। मैं इससे ज्यादा नहीं पूछ सकता । तुम्हें ताला लगाने की जरूरत भी नहीं थी । अब जबकि तुम यहाँ हो , शांत हो जाओ। तुम मेरी मेहमान हो तथा मुझ पर पूरा भरोसा कर सकती हो । डरो मत और इसे अपना ही घर समझो । मैं तुम्हें न तो रुकने और न ही जाने के लिए वि वश करूँगा । क्या मुझे तुम्हें ऐसा कहना पड़ेगा ? क्या तुम मुझे थोड़ा भी जानती हो?’’
‘‘नहीं, आपको ऐसा कहने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं थी । यहाँ तक कि आपको मुझे कहना भी नहीं चाहिए। मैं तो एक बच्ची ही हूँ, मेरे साथ इतना तमाशा क्यों ?’’
‘‘यह उस जैसा बुरा नहीं है। निश्चित रूप से एक बच्ची , लेकिन इतनी भी छोटी नहीं । तुम अच्छी -खासी बड़ी हो । यदि तुम एक जवान युवती होती तो तुम कभी भी मेरे साथ एक कमरे में खुद को बंद करने की हिम्मत नहीं करती ।’’
‘‘हम लोग इसकी परवाह नहीं करते। मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूँ—मेरा आपको अच्छी तरह जानना मेरे लिए सुरक्षा का विशेष कारण नहीं है, यह आपको मेरे सामने किसी प्रकार का दिखावा करने की कोशिश करने से रोकता है। फिर भी आप मेरी प्रशंसा कर रहे हैं। इसे बंद कीजिए, मैं आपसे विनती करती हूँ इसे बंद कीजिए। जो भी हो हर स्थिति में आपका आचरण कैसा होगा यह मैं नहीं जानती , कम-से-कम इस अँधेरे में आप किस प्रकार प्रतिक्रिया करेंगे यह तो मुझे बिल्कुल भी मालूम नहीं है। अच्छा हो ता यदि आप रोशनी जला देते। नहीं , शायद नहीं। जो भी हो यह बात हमेशा मेरे दिमाग में रहेगी कि आप मुझे धमकी दे रहे थे।’’
‘‘क्या ? मैंने तुम्हें धमकी दी है। इधर देखो , मैं इतना खुश हूँ कि आखिरकार तुम आ गई। मैंने ‘आखिरकार’ कहा, क्योंकि पहले ही अपेक्षाकृत काफी देर हो चुकी है। मुझे नहीं मालूम तुम इतनी देर से क्यों आई हो । यह संभव है कि तुम्हें यहाँ देखकर खुशी में मैं अनर्गल बोलता जा रहा हूँ, जिसे तुमने गलत अर्थ में ले लिया । मैं दस बार यह स्वीकार करता हूँ कि मैंने इस तरह की कुछ बातें कीं , मैंने हर तरह की धमकियाँ दीं , तुम जो चाहो कह सकती हो। लेकिन ईश्वर की सौगंध बस कोई झगड़ा नहीं । लेकिन इस तरह की बातें तुम्हारे मन में कैसे आईं? तुमने मुझे इतना आहत कैसे किया ? अपनी मौजूदगी के थोड़े से समय को तुम बरबाद करना क्यों चाहती हो । एक अजनबी तुम से ज्यादा तुम्हारे करीब आना चाहता है।’’
"इस बात का तो मुझे पूरा विश्वास है, यह कोई नई खोज नहीं है। कोई भी अजनबी तुमसे इतना करीब नहीं हुआ होगा , जितना कि मैं स्वभावतः पहले से ही हूँ। आप भी यह बात जानते हैं, फिर भी यह भावनात्मकता क्यों ? यदि आप कॉमेडी शो करना चाहते हैं, तो मैं तुरंत भाग जाऊँगी ।’’
‘‘क्या ? तुम्हें मुझे यह कहने का साहस कैसे हुआ? तुमने क्या ज्यादा ही साहस दिखाया है। जो भी हो , यह मेरा कमरा है और तुम इस कमरे के भीतर हो। यह मेरी दीवार है, जिस पर तुम पागल की तरह अपनी उँगलियाँ रगड़ रही हो । मेरा कमरा , मेरी दीवार! इसके अलावा जो तुम कह रही हो , वह सरासर हास्यास्पद और दुस्साहस है। तुम कहती हो कि तुम्हारा स्वभाव मुझसे तुम्हें ऐसी बातें करने को विवश करता है। क्या यह ऐसा है? तुम्हारा स्वभाव तुम्हें विवश करता है? यह तो तुम्हारे स्वभाव की कृपा है। तुम्हारा स्वभाव मेरे जैसा है और यदि तुमसे मित्र जैसा व्यवहार करूँ, तो तुम्हें कुछ और तरीके से प्रतिक्रिया नहीं करनी चाहिए।’’
‘‘क्या यह दोस्ती है?’’
‘‘मैं तो पहले की बात कर रहा हूँ।’’
‘‘क्या आप जानते हैं कि बाद में मेरा व्यवहार कैसा होगा ?’’
‘‘मैं तो कुछ भी नहीं जानता ।’’
फिर मैंने पलंग से लगे टेबल पर रखी मोमबत्ती को जला दिया । उस समय मेरे कमरे में न तो गैस और न ही बिजली की रोशनी थी । फिर मैं कुछ देर के लिए टेबल पर बैठ गया और तब तक बैठ गया , जब तक कि मैं थक नहीं गया , फिर मैंने अपना लंबा कोट पहना , सोफे पर से अपना टोप उठाया और मोमबत्ती बुझा दी । जैसे ही मैं बाहर जाने लगा , मुझे वहाँ रखी कुरसी के एक पाए से ठो कर लगी और मैं लड़खड़ा गया ।
सीढि़यों पर मेरी भेंट इसी मंजिल पर रहने वाले एक अन्य किराएदार से हुई।
‘‘कमीने, तुम फिर बाहर जा रहे हो?’’ दो सीढि़यों के नीचे पहुँचकर रुककर उसने मुझसे पूछा ।
‘‘मैं क्या कर सकता हूँ?’’ मैंने कहा, ‘‘मेरे कमरे में अभी -अभी एक प्रेत आ गया था ।’’
‘‘तुम यह बात बिल्कुल ऐसे कह रहे हो जैसे कि तुम्हें अपने सूप में बाल मिला हो ।’’
‘‘तुम तो इस बात का मजाक बना रहे हो। लेकिन तुम्हें बताऊँ कि प्रेत, प्रेत ही होता है।’’
‘‘अच्छा ; तुम्हें क्या लगता है कि मैं प्रेतों में विश्वा स करता हूँ। लेकिन मेरे इसमें विश्वास न करना किस प्रकार मेरी मदद कर सकता है।’’
‘‘बहुत आसान है। यदि सचमुच में कोई प्रेत आ जाए तो तुम्हें डरने की जरूरत बिल्कुल नहीं है।’’
‘‘ओह, वह तो बाद का डर है। वास्तविक डर तो यह डर है कि वह प्रकट क्यों हुआ? और वह डर खत्म नहीं होता । यह डर तो मेरे भीतर काफी मजबूती से बैठ गया है।’’ घबराहट के मारे मैं इधर-उधर अपनी जेबें टटोलने लगा ।
‘‘लेकिन, चूँकि तुम्हें प्रेत से डर नहीं लगता तो तुम प्रेत से ही यह बात आसानी से पूछ सकते थे कि वह वहाँ कैसे आया ?’’
‘‘जाहिर है, तुमने कभी प्रेत से बात नहीं की है। किसी को भी उनसे कभी सीधी ब त पता नहीं चलती । यह बस इधर-उधर ही होता रहता है। ये प्रेत अपने अस्तित्व के बारे में हमसे ज्यादा संदेहास्पद प्रतीत होते हैं, और कोई आश्चर्य नहीं जब यह सोचें कि वह कितने कमजोर हैं।’’
"लेकिन मैंने सुना है कि उन्हें खाना खिलाया जा सकता है। तुम्हें तो बहुत जानकारी है उनके बारे में, यह सही है, लेकिन क्या कोई ऐसा करने वाला है क्या ?’’
‘‘क्यों नहीं? उदाहरण के लिए यदि यह महिला प्रेत होती तो ;’’
ऊपर की सीढि़यों पर झूलते हुए उसने कहा।
‘‘आहा,’’ मैंने कहा, ‘‘लेकिन फिर भी यह सही नहीं है।’’
मैंने कुछ अन्य चीज के बारे में सोचा । मेरा पड़ोसी मुझसे इतना दूर था कि मुझे उसे देखने के लिए सीढि़यों पर झुकना पड़ा , ‘‘एक ही बा त है,’’ मैंने जोर से कहा , ‘‘यदि तुम मेरे प्रेत को मुझसे चुराते हो तो हमारे बीच संबंध हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा ।’’
‘‘ओह, मैं तो मजा क कर रहा था ,’’ उसने कहा और वापस सामान्य स्थिति में चला गया ।
‘‘फिर तो ठीक है,’’ मैंने कहा। और अब सही में मैं चुपचाप टहलने जा सकता था । लेकिन मैं इतना महसूस कर रहा था , इसलिए मैंने वापस ऊपर अपने कमरे में जा कर सोना बेहतर समझा ।
(अनुवाद: अरुण चंद्र)