उदात्त मन की आखिरी कमजोरी (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई

Udaatt Man Ki Aakhiri Kamjori (Hindi Satire) : Harishankar Parsai

एक किंचित् कवि, किंचित् समाजसेवी को मकान की जरूरत थी। मकान कलेक्टर आवंटित करता है। कलेक्टर के बारे में यह आम राय थी कि वह खुशामदपसन्द नहीं है । वैसे जिसे खुशामद पसन्द नहीं है, उसकी खुशामद यह कहकर की जा सकती है कि आप खुशामद पसन्द नहीं करते। ऐसा शेक्सपीअर के किसी नाटक में है । बहरहाल, इन सज्जन को मालूम हुआ कि कलेक्टर कुछ वह लिखता है, जिसे कविता कहते हैं। उसने एक काव्यगोष्ठी आयोजित की जिसमें कलेक्टर को आमन्त्रित करने पहुँच गया। कलेक्टर ने कहा- नहीं, मैं कोई कवि नहीं हूँ । इन्होंने कहा- - आप स्वयं तो अपने काव्य का महत्त्व पहचानेंगे नहीं । आप कवियों-आलोचकों तक अपनी कविता आने दीजिये ।

कलेक्टर ने गोष्ठी में दो कविताएँ पढ़ीं। जब चर्चा हुई तो दूसरे शहर से संयोग से आ गये दो आलोचकों ने कलेक्टर की कविताओं की धज्जियां उड़ा दीं । वे दूसरे जिले के थे, वरना यह बेवकूफी नहीं करते ।

कलेक्टर ने ऊपर से संयम जताया, पर भीतर बहुत कुढ़ गया। इस किंचित् कवि की हिम्मत कुछ दिन मकान मांगने की नहीं हुई। फिर एक दिन वह गया । कहने लगा- - उस गोष्ठी में वे दो अनाड़ी आ गये थे । वे आपकी कविता का मर्म ही नहीं समझे । उनकी बात कोई नहीं मानता। इस इतवार को गोष्ठी कर रहे हैं । उसमें शरीक होइये। मैं आपको लेने आऊंगा ।

उसने अपने दोस्तों को गोष्ठी में इकट्ठा किया। उनसे कलेक्टर की कवि- ताओं की तारीफ करने का तय किया। कलेक्टर ने कविताएँ पढ़ीं। खुद मका- नेच्छु ने और उसके दोस्तों ने तारीफ की। एक ने तो बड़ी चतुराई से कहा- देखिए, हम सुखन फहम हैं, ग़ालिब के तरफदार नहीं । मैं आपकी कविता की तारीफ इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि आप कलेक्टर हैं । अरे साहब, कलेक्टर तो आते-जाते रहते हैं । मगर आपमें वह सहृदयता और प्रतिभा है जो कला को जन्म देती है ।

मकानेच्छु ने उनकी दो कविताएँ स्थानीय अखबार में छपा दीं । तीन-चार दिन बाद कलेक्टर से मिला। कलेक्टर ने कहा- आपने तो मुझे कवि बना दिया। उसने कहा - मेरी क्या हैसियत कवि बनाने की। मैंने तो कवि खोजा है । कोलम्बस ने अमेरिका बनाया नहीं था, खोजा था। थोड़ी देर बाद कलेक्टर ने कहा- आपकी वह मकान एलाट कराने की दरख्वास्त है । खोजी ने कहा- मकान छोड़िये साहब ! हम अपनी झोपड़ी में ही अच्छे हैं। कलेक्टर ने कहा- नहीं-नहीं, आपको मकान मिलना ही चाहिए। आपका हक है। तमाम ऐरे-मेरे मकान ले जाते हैं । आप सोमवार को आ जाइये। मैं आर्डर कर दूंगा ।

कलेक्टर की कोई चापलूसी नहीं की। यह नहीं कहा- आपने कानून और व्यवस्था बहुत अच्छी संभाली है, गुंडा गिरोह खत्म कर दिये, कोई दंगा नहीं होने दिया, शासकीय मशीनरी चुस्त कर दी। यह कहा कि आप अच्छी कविता लिखते हैं । कविताएँ सुनवा दीं और छपवा दीं। कलेक्टर जिस क्षेत्र में है, उसमें अच्छे शासक के यश के अलावा, दूसरे क्षेत्र में भी यश चाहता है । उसे सबसे उत्तम ओर सुलभ कविता का यश दिखता है ।

प्रसिद्धि, यश की इच्छा हर मनुष्य में होती है। यह बहुत स्वाभाविक है और गलत भी नहीं है। महत्त्वाकांक्षा अच्छी चीज है। दर्द तब होता है जब अपनी क्षमता को समझे बिना उससे बहुत ऊपर की महत्त्वाकांक्षा पाल ली जाय । वह पूरी होती नहीं, क्योंकि क्षमता नहीं है । तब घोर हताशा आती है, व्यर्थता का बोध होता है ।

न जाने क्यों कुछ लोग, यश के इच्छुक लोग अपने क्षेत्र के बाहर का क्षेत्र चुनते हैं, तो वह साहित्य का क्षेत्र होता है । नाम तो गर्मी में प्याऊ खोल देने से भी होता है - ' सेठ गोबरधनदास की प्याऊ' । जो पानी पीते हैं वे गोबरधन- दास को बड़ा दयालु आदमी मानते हैं। पता नहीं धनवान लोग सार्वजनिक शौचालय क्यों नहीं बनवाते ।

सेठ गोबरधनदास शौचालय जैसा मैंने कोई नहीं देखा । अधिक प्रसिद्धि शौचालय बनवाने से मिलेगी। श्मशान में तो मैंने किन्हीं सेठ गोबरधन के कुएं और 'शेड' देखे हैं । प्रसिद्धि के लिए छोटे और बड़े लोग साहित्य चुनते हैं । साहित्य में भी कविता | कविता मंच से लोग सुनते हैं, और पत्र में छपती है, साहित्य में तो, कई लोगों की नजर के सामने नाम आता है । कविता लिखना लोग बहुत सरल समझते हैं।

बड़े-बड़े अफसर, सचिव, ओहदेदार, जिनकी ठाठ की जिन्दगी है, रोब- दाब है, चाहते हैं कि उनकी कविताएँ छप जायें । ये जब अपनी कविताएं लेकर किसी कवि या सम्पादक के पास पहुंचते हैं, तो इनके चेहरे पर भूखे भिखारी के चेहरे से अधिक दीनता होती है। जिन साहब से दफ्तर है, जिनके आतंक के कारण कोई उनकी राह में नहीं आता, वे जब अपनी कविताएँ लेकर किसी कवि के पास पहुँचते हैं, तो कितने दीन, दयनीय हो जाते हैं। मुझसे भी ऐसे लोग मिलते रहते हैं, और कई बार उनकी दीनता से मैं द्रवित हो जाता हूँ । मुझसे बनता तो मैं अच्छी कविताएँ लिखकर उनके नाम से छपवा देता । शुरू में मैंने दो-तीन कविताएं लिखी थीं। पर मैं समझ गया कि कविता लिखना मुझे नहीं आता । यह कोशिश बेवकूफी है। कुछ लोगों को यह बात कभी समझ में नहीं आती और वे जिन्दगी भर यह बेवकूफी करते जाते हैं ।

एक बेचारे की हालत मुझे याद है । मैं भोपाल में एक मित्र के यहाँ ठहरा था। वे सवेरे कार से उतरे। मुझे परिचय दिया और कहा- दोपहर का भोजन मेरे घर कीजिए। मैंने इंकार कर दिया। उन्होंने जेब से कविताएँ निकाल कर कहा- मैं कविता लिखता हूँ । इन्हें कहीं छपा दीजिये। मैंने देखा । वे कविताएँ नहीं थीं । उनका परिचय पूछा। वे बीमा कम्पनी में बहुत बड़े अफसर थे । वे शाम को फिर आ गये । बोले- रात का भोजन मेरे साथ कीजिए। मैंने फिर मना किया। वे दीनभाव से बोले- मेरी कविताएँ किसी पत्र में छपा दीजिये । मैंने 'हाँ हूँ' किया। दूसरे दिन फिर वे कविताएँ छपाने आ गये। मैंने उनसे कहा- आपकी अच्छी नौकरी है। बहुत वेतन है । बंगला है. कार है। बीवी- बच्चे हैं। अच्छा खाते हैं, अच्छा पहनते हैं । आपके पास सुखी और सन्तुष्ट रहने के लिए सब कुछ है । पर यह कविता आपको दुखी रखती है । यह आपकी दुश्मन है । इसे छोड़ दीजिये। फिर आप जैसे जमे हुए, सम्पन्न, इज्जतदार आदमी को साहित्य में नहीं पड़ना चाहिए। साहित्य हम जैसे लोग करते हैं, जिनकी न नौकरी, न घर, न बीवी, न बच्चे । कविता - अविता निकम्मे-लफंगे लोगों के लिए है । वे फिर भी कुछ भुनभुनाते रहे, पर मेरा पिंड छूट गया ।

इस तरह के लोग मेरे पास आ जाते हैं। वैसे रचना की इच्छा और रचनात्मक ऊर्जा बहुत अच्छी बात है। प्रकाशन और प्रसिद्धि की इच्छा स्वाभाविक है । पर रचनात्मक प्रतिभा से दूसरे तरह की रचना की जा सकती है- जैसे नये तरह के फ्लावर -पाट बनाना या नई तरह की चप्पलें बनाना । यहाँ एक सज्जन कई साल पहले थे। गांधीवादी थे । सूत कातते थे। लकड़ी का काम करते थे । उन्होंने हाथ से सोफासेट बनाया था। मुझे वे घर ले गये । करीब डेढ़ घण्टे हर चीज जो खुद बनाई थी, तफसील से बतलाते रहे । मैंने तारीफ की और सही की। पर वे हर परिचित को घर ले जाते और बड़ी देर तक अपना काम बतलाते । वे मान्यता चाहते थे पर उन्होंने अति कर दी, तो लोग उनसे छड़कने लगे ।

सबसे सरल लोग कविता लिखना समझते हैं। एक दिन दूसरे शहर के दो लोग मिलने आये । वे मामूली नहीं 'लायन' थे। एक लायन ने दूसरे का परिचय देते हुए कहा- ये कवि हैं। लायन बिलकुल मेमने हो गये । पुराने संस्कार की नववधू की तरह शरमाने लगे। उन्होंने दो टुकड़े सुना दिये जिन्हें वे कविता कहते थे। मैंने कहा- अच्छी है। वे दीन भाव से बोले- इन्हें छपवा दीजिये । दो-चार संपादकों को दी, पर किसी ने नहीं छापी । दूकान और ऐजेंसियों वाले उस अतिमानव के दुःख से मैं द्रवित हो गया। पर कठोर कलेजा करके इंकार कर दिया ।

'वसुधा' जिस प्रेस में छपती थी, उसमें एक बड़े सरल और अच्छे कम्पो- जर थे। वे खास ख्याल रखते थे। मुझे तमाखू खिलाते । एक दिन उन्होंने मुझे कविता दी और संकोच से कहा - इसे भी छपवा दीजिए। मैंने कविता ले ली । वह छाप नहीं सका, पर उन्होंने इसका बुरा नहीं माना।

कभी - कभी नाम छपने के मामले में बड़ी करुण स्थिति पैदा हो जाती है। मेरे एक मित्र थे। उनके लड़के को पढ़ाया। बड़ा होकर वह नौकरी पर लग गया । एक दिन वे सड़क पर मिल गये। मैंने हालचाल पूछा तो रोने लगे। बताया-लड़के की मृत्यु हो गई । मुझे बहुत दुःख हुआ । वे बोले – बहू है और एक लड़का है । मैंने कहा- मैं घर आऊँगा । वे चलते-चलते बोले - भैया, इस समाचार को छपा देना ।

एक बड़े नेता के सचिव ने मुझे बताया, भैया साहब को नाम छपाने का पागलपन-सा था । उनके जवान लड़के की मृत्यु हुई। वे शव के पास बैठे रोते रहे । होश खो बैठे थे । कहते थे कि मैं भी बेटे के साथ चिता में जल जाऊँगा । तभी वे उठे और मुझे लेकर दूसरे कमरे में गये। कहा- देखो, जिन-जिन अख- बारों में यह समाचार छपे उन्हें लेकर फाइल बना लेना। शोक सन्देश भी छपेंगे। उन अखबारों की भी फाइल बना लेना। देखना, कोई छूट नहीं जाय ।

मैंने शेक्सपीअर के शब्द शुरू में लिखे हैं कि प्रसिद्धि या नाम या यश उदात्त मन की आखिरी कमजोरी होती है। गुजरात के युवा हीरा व्यापारी शाह ने दो महीना पहिले संन्यास लिया है । संन्यासी सब त्याग देता है। शाह जी ने सर्वस्व - त्याग कैसे किया ? हीरों से लदे जुलूस के साथ संन्यास लेने गये। रास्ते में हीरे- जवाहरात लुटाते गये । कारों, ट्रकों, बसों का काफिला । सवा लाख आदमियों का भोज । यह बताकर और खूब प्रचार करके संन्यासी हुए, कि मैंने इतना त्याग किया है । देख लो। त्याग में भी यश का लोभ । शायद रहीम कवि ने कहा है - वेश्या बरस घटावहीं, जोगी बरस बढ़ाहि । वेश्या से उम्र पूछो तो वह कम करके बताती है । योगी संन्यासी से पूछो तो वे हों चाहे सत्तर साल के पर कहेंगे - उम्र याद भी नहीं रही। चार सौ सालों से ऊपर का तो होऊँगा ।

जवाहरलाल नेहरू बहुत उदात्त मन के थे। पर जब वे प्रधानमन्त्री थे, तब 'भारतरत्न' सम्मान ले लिया। वह मुझे अच्छा नहीं लगा । 'भारतरत्न' सरकार देती है। नेहरू सरकार थे। उन्होंने अपने को ही 'भारतरत्न' कर लिया। फिर एक रुपये के सिक्के पर उनका चेहरा अंकित था । वह एडवर्ड आठवें के चेहरे का रुपया मालूम होता था। नेहरू इसे रोक सकते थे ।

एक होता है - 'टाइम केप्सूल'। अपने समय का इतिहास लिखवाकर पात्र में रखकर उसे जमीन में गाड़ दिया जाता है। ऊपर संकेत रहता है। हजार दो हजार साल बाद यह खोदा जायेगा । और इस समय के इतिहास की जानकारी होगी । वाशिंगटन में इस सदी के आरम्भ में 'टाइम केप्सूल' गाड़ा गया था। लन्दन में भी गड़ा होगा ।

सन् 1975 में प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने दिल्ली में 'टाइम केप्सूल' `गड़वाया । वह आपातकाल था। 1977 के चुनाव में इन्दिरा जी हार गईं। जनता पार्टी की सरकार बनी । तब यह बात चली - मैडम ने इतिहास में भी अपने को अमर करने के लिए 'टाइम केप्सूल' गड़वा दिया। इसमें नेहरू परिवार का यश-गान होगा । 'टाइम केप्सूल' जनता पार्टी सरकार ने निकलवाया । कुल तीन हजार शब्दों का हमारे युग का इतिहास था । उसमें किसी का नाम नहीं था - महात्मा गांधी का भी नहीं । बात यह उड़ी थी कि लिखने वाले को तीन- चार लाख रुपये दिये गये थे। उससे मनमाना लिखवाया गया था । सब नेहरू, नेहरू, नेहरू, इन्दिरा, इन्दिरा, इन्दिरा लिखवा दिया ।

बाद में मद्रास के उस लिखने वाले प्रोफेसर का लेख छपा। उसने लिखा, डा० एस ० गोपाल ने मुझे दिल्ली बुलाकर यह काम सौंपा। मुझे सिर्फ दिल्ली में रहने का खर्च दिया गया, जो इतना कम था कि मेरे ही रुपये खर्च हो गये । लाखों छोड़िये, मुझे एक रुपया भी नहीं दिया गया । न इन्दिरा जी ने, न उनके किसी आदमी ने मुझसे कुछ कहा । मुझसे तीन हजार शब्द में इतिहास लिखने को कहा गया था, सो मैंने लिख दिया ।

पता नहीं जनता पार्टी के नेताओं ने अपने नाम वाले केप्सूल गड़वाये या नहीं । विश्वनाथ प्रताप के बारे में भी नहीं मालूम । इतिहास में जाने के लिए उदात्त मन के लोग अपना नाम जमीन में गड़वा देते हैं ।

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