उच्चाटन : फणीश्वरनाथ रेणु
Uchchatan : Phanishwar Nath Renu
ठीक वही हुआ, उसी तरह शुरू हुआ, जैसा उसने सोचा था।
बरसों से मन में गुनी हुई बात अक्षर-अक्षर फल गई।
रात की गाड़ी से वह गाँव लौटा-दों साल के बाद।
और “मरकट-महाजन' बूढ़े मिसर को रात में ही खबर मिल गई।
“किरिन” फूटने के पहले ही वह “बाभन-बनिया” खड़ाऊँ खटखटाता हुआ आया और उसके दरवाजे पर उकासी करके कफ थूकने लगा।
पहले तो उसको ऐसा लगा कि वह भोर का सपना देख रहा है।...दो साल से, भोर में आनेवाले सपने का 'सिरगनेश” ठीक इसी तरह होता!
कफ से बच्ची हुई कंठ-नलीं से एक गिलगिलाती हुई “गिटकारी-भरी” बोली निकली - “बिलस-वा-वा-वा!..आ य-हँ-क-थो-ह !”
बेसुध, चित्त होकर सोई हुई उसकी अधनंगी बीवी हड़बड़ाकर उठी और कपड़े सहेजने लगी - मिसर महाराज ?”
महाराज ? नहीं, सपना नहीं। बुढ़वा साला सचमुच ही आया है।
उसे अचरज हुआ...ठीक वैसा ही हो रहा है। ठीक इसी घड़ी की प्रतीक्षा और इससे जीवट बाँधकर जूझने की तैयारी वह पिछले चौबीस महीने से कर रहा था।
इसके बावजूद उसका दिल धड़का।
हड्डी के अन्दर एक पुराने डर का तार कॉँप गया। गाल और कनपटी दहकने लगीं-“डरामा” में परदा उठते ही अचानक “पाट' भूल गया, मानो।
उसने देखा, उसकी बीवी की आँखों में नींद के बदले भय समाया हुआ था। वह आँखों से ही पूछ रही थी - महाराज को क्या ?”
अपनी बीवी की घबराई हुई सूरत को देखकर वह सँभला। मद्धिम आवाज में बड़बड़ाया-“तेरे महराज की...! तू इस तरह क्या देख रहीं है ? अचम्भा का बच्चा ?”
बाहर, मिसर ने खाँसी के पहले वेग को झेल लिया था। इस बार उसकी आवाज में स्वाभाविक खनक' थी-“बिलसि या-या-या!
उसने आँगन में निकलकर देखा, बूढ़ी माँ एक कोने में दुबक गई है-गठरी-जैसी! डर के मारे हाथ का हुक््का नहीं पी रही...कहीं गुड़गुड़ाहट न सुन लें मिसर महाराज!
सुनहले बटनवाला “'टीसाट' पहनते हुए उसने आँगन से जवाब दिया - “कौन है जी ?...इस तरह हल्ला काहे कर रहे हैं साहेब ?”
ऐसा नुकीला जवाब सुनकर उसकी माँ - बीवी ही नहीं, बाहर खड़ा बहत्तर साल का बूढ़ा इस गाँव का मालिक मिसर भी अवाक् हो गया-नशा-पानी खाया है क्या ?
उसकी बीवी हाथ में छोटी मचिया लेकर दरवाजे की ओर बढ़ी । उसने डॉट दिया-- “कहाँ चली मचिया लेकर मटकती हुई उधर ? आँच सुलगाकर पानी गरम कर ।”
आँगन से बाहर निकलकर उसने बीड़ी का धुआँ फेंका ।...नहीं, इतने दिन का रटा हुआ 'पाट' अब वह नहीं भूलेगा। बोला, “कहिए, क्या बात है ?”
मिसर के लिए इतना ही काफी था।...न प्रणाम, न पाँवलागी? मुँह पर बीड़ी का जूठा धुआँ फेंक दिया!
“अरे, तू तो एकदम बदलः* गया है, बिलसिया!”
अचरज की बात! मिसर ने ठीक वही बात कही!
उसने अपना 'तैयार-जवाब' दिया, “बिलसिया-बिलसिया क्या बोलते हैं? मेरा नाम रामबिलास है...रामबिलास सिंघ।”
रामबिलास ने अपनी माँ को पुकारकर कहा, “माय, जरा एक टोकरी गोबर और एक झाड़ू लेकर इधर आना तो..!”
रामबिलास की बीवी ने अपनी बूढ़ी सास की ओर देखा...। पहले पानी गरम करने को कहा, अब गोबर और झाड़ू माँगता है !
बूढ़ी आँगन से ही बोली, डरती-डरती, “झाड़ू-गोबर का क्या होगा, बेटा ?”
मिसर की आँखें गोल हो गई। दम फूलने लगा-सशब्द! अपमान, क्रोध और भय के मारे मिसर के गले में फिर खसखसाहट शुरू हुई। खाँसी को रोकने की चेष्टा करते उसका “थुथना' विकृत हो गया। पेट में कुपित वायु... !
“बहू पूछती है कि गरम पानी का क्या होगा ?”
रामबिलास कुढ़ गया-“बस, लगी जिरह - बंहस करने। पानी कया होगा तो झाड़ू क्या होगा ? आकर देखो, किस तरह मारे कफ-थूक के दरवाजा 'घिना' गया है।...ए!
मिसर ने सँभालने की कोशिश की, लेकिन उनकी गमछी गन्दी हो गई।
रामबिलास ने घृणा से मुँह-नाक सिकोड़ते हुए कहा, “ऐसी “बेसभाल” खाँसी है तो गाँव-घर में “चल-फिर' क्यों करते हैं? इस बीमारी को पोसे हुए हैं, इलाज क्यों नहीं करवाते ?...फोटो करवाकर देखिए, 'टीबी-उबी” न हो गया हो!”
किन्तु मिसर की इस खाँसी-उकासी ने सारा खेल ही बिगाड़ दिया मानो। जैसा कि रामबिलास ने सोच रखा था रामबिलास के 'टीबी-उबी” वाले संवाद के बाद, मिसर को बोलना था-““चुप साला बेटीच्...टीबी हो तुम्हें और तुम्हारी औलाद को...!
लेकिन मिसर 'पाट” छोड़कर 'बेपाट” की बात बतियाने लगा। बोला, “बबुआ! अब क्या इलाज और क्या डागडर, कया बैद! टीबी हो या दमा। अब तो चलाचली की बेला है।”
“पिछले साल, महेन्द्रपुर मोहल्ला दुर्गापूजा के 'डरामा' में जुगल महतो पनवाड़ी ने इसी तरह खेला चौपट किया था। जल्लाद का 'पाट' लेकर उतरा और तलवार उठाकर मारते समय रटा हुआ “'पाट' ही भूल गया और बेपाट की बात बोलते-बोलते तलवार फेंककर रोने लगा ।...मिसर भी रोता है क्या ? नहीं, नाक पोंछ रहा है।
मिसर समझ गया...'राड़' की बाढ़! जब देखो राड़ की बाढ़, मुँह सँभालकर बोली काढ़ !
रामबिलास की बूढ़ी माँ हाथ में झाडू लेकर बाहर आई-“'पाँव लागी महराज!”
“बूढ़ी ने हाथ में झाड़ू लेकर ही पाँवलागी की ?
“प्रभु हो! प्रभु हो!! अब तो बिल...रामबिलास बबुआ, इज्जत-आबरू के साथ चले जाएँ, यही मना रहा हूँ। इधर से जा रहा था तो सुना कि रात को बिल...रामबिलास बबुआ लौटा है तो बड़ी खुशी हुई ।...वाह! खूब उन्नति किए हो। वाह!!”
अब रामबिलास क्या जवाब दे!...बेपाट की बात!
“हम तो समझे कि आप बकाया रुपए का तकादा करने आए हैं। रात में तो आया ही हूँ। भागा जा रहा हूँ क्या? खैर, जब आ गए हैं तो लेते जाइए अपना बकाया ।”
बूढ़ी ने पूछा, “बहू पूछती है कि पानी गरम हो गया। अब क्या... ?”
“हर बात में जिरह! पानी गरम करने कहा है चा बनाने के लिए।”
मिसर बोला, “बाकी-बकाया का हिसाब-किताब होता रहेगा। जल्दी क्या है ?”
नहीं... ।” उठकर आते समय भी बिलसिया ने पॉँवलागी नहीं की!
रामबिलास अपने नए सूटकेस से चाय-चीनी-प्याली निकालने लगा। बहू बोली, “अभी तो मिसर महराज मैदा के हलुवा-जैसा नरम हो गए। मैया से पूछो, किस तरह महीने में दो बार भैंस 'कुरुक” करने की धमकी देते थे दोनों-बाप-पूत मिलकर ”
“तो उस समय बोली क्यों नहीं ? मुँह में क्या था, केला ?”
रामबिलास को याद आई। मिसर की बेबात की बात सुनकर ही वह “'परन' ठानकर घर से भागा था-शहर, रुपया कमाने !...“साले, रुपया लेकर “बिहा-गौना' किया। अब बीवी की टाँग पर टाँग चढ़ाकर सोते हो और मेरे रुपए की बात भूल गया ? एँ ?...मैं यदि रुपया नहीं देता तो अभी “गुलगला' कैसे खाते रोज, एँ ?”
साला! कान गरम हो जाता है अब भी, याद करके।
“बेटा! अब क्या बताऊँ? अभी उस दिन मिसर का बड़ा बेटा दूध लेने आया। दूध बिक गया था, सब। कहाँ से देती? तो बर्तन उठाकर जाते समय जीभ ऐंठकर बोला-“जमाना ही उलट गया है। नहीं तो इसी टोले से भैंस के बदले औरत का दूध दूहकर ले गए हैं हमारे सिपाही बरकंदाज!”
रामबिलास की जीभ जल गई। चाय को फूँकते हुए वह बोला-“तो उस समय बोली क्यों नहीं ? मुँह में क्या था, केला ?”
औरत का दूध ? साला, कलेजा काट देनेवाली बात!
रामबिलास ने अपनी बीवी से कहा, “सूटकेस में नई अँगिया है। निकालकर पहन ले।...अंग्रेजी-अंगिया ।”
“राम-राम पालवेत !”
सूरज की रोशनी के साथ गाँव में बात फैलती गई।
बिलसिया घर लौटा है, रात में! ऐ! अब उसको बिलसिया मत कहना कोई! मिसर को "भोरे-भोरे' बेपानी कर दिया। बोला, 'बिलसिया मत बोलिए, रामबिलास कहिए ...मिसर की नाक पर दो सौ रुपए का 'पुलिन्दा' फेंक दिया।...हाँ, उसके कुरता के पाकिट में लैसन्स” है, सरकारी मोहरवाला।
पटना में 'रिक्शा-डलेवरी' करता है तो सरकारी मोहरवाला लैसन्स जरूर मिला होगा जानते हो ? अपनी घरवाली को नाम धरकर बुलाता है-'ए, झुमकी' !”
झुमकी-रामबिलास की घरवाली-लाल अँगिया पहनकर पानी भरने गई। औरतों ने उसे घेर लिया। “देखें जरा अँगरेजी अँगिया; मेमिन लोग पहनती हैं...पेट 'उघारे!।
अरे, इस बित्ते-भर अँगिया का दाम पाँच टका ? बट्टम नहीं है तो खोलती - पहनती हो कैसे ? ऐसा ही 'सकिस्त” रहता है हरदम ? साड़ी भी ले आया होगा ? रात में कब आया ? पहली-पहर रात में ही ?” हे
झुमकी लजाती-हँसती कहती, “मैं तो डर गई कि रात में नालवाला जूता पहनकर कौन आया रे बाप! मैया डरकर “कोठाली' के पीछे छिप गई दम साधकर ।.. .सहर जाकर आदमी की आवाज तक बदल जाती है। मगर, कारी भैंस ने उसकी बोली को ठीक पहचान लिया ।
ऊँय - ऊँय करती रस्सी तुड़ाकर आँगन में दौड़ी आई। सिर से पैर तक चाटने लगी मारे दुलार से।...सो, आते ही उलाहना दे दिया मरद ने-तुम लोगों से भली है मेरी यह कारी भैंस ।...आदमी से बढ़कर ।”
“तब इसके बाद ? खाने को क्या दिया “उत्ती” रात को ?”
“क्या बताऊँ दिदिया, लाज की बात। संजोग ऐसा देखो कि घर में न एक चुटकी चावल, न चूड़ा और न भूजा। मुदा, दही जम गया था तब तक ।...सो, दही खाते समय ही उलाहना दे दिया-'कारी नहीं होती तो घर आकर रात में उपास ही करना पड़ता !”
“तब ? इसके बाद ?”
“चोली रात में ही पहनी ?”
“गुल रोगन का तेल भी लाया होगा ?”
“तब ? और भी कोई उलाहना दिया ?”
'सहर जाकर आदमी की आवाज ही बदली है या...।”
झुमकी मुँह बनाकर मुस्कुराई। पनभरनियाँ हँस पड़ीं, सभी। सभी की आँखों में: झुमकी की लाल अँगिया की लाली तैरने लगी। सचमुच, अँगिया पहनकर झुमकी का रूप खुल गया है।
दोपहर का पानी भरने आई तो झुमकी के दोनों कानों में कुंडल लटक रहे थे।...झुमकी का रूप खुलता ही जाता है।
नहाने के समय औरतों और लड़कियों की भीड़ लग गई। सभी ने झुमकी से 'मुनलैट-साबुन' का झाग माँग-माँगकर देह में लगाया ।...झुमकी अब रोज साबुन लगाकर नहाएगी ? तब तो, एकदम मेमिन-बंगालिनी की तरह गोरी हो जाएगी ? है कि नहीं ?
अबेर में दुकान पर गई-कपाल पर चकमक-बिन्दी लगाकर। राह में ही, बहरी मौसी की गली में शिवधारी खड़ा था। झुमकी को देखकर सिहर गया-“एह! आब जीयब कठिन...अब ? अब मेरा कया होगा ?”
“धेत्त! राह चलते हँसी-दिल्लगी मुझे पसन्द नहीं।”
“हैसी-दिल्लगी पसन्द नहीं ? मुँह बनाकर बड़बड़ाती हुई गई ? कहीं घर जाकर कह न दे!...सुनते हैं कि शहर से नाम में सिंध लगवाकर आया है। अच्छा, देखना है, कितने दिन तक यह गुमान ? शहर का मलीदा खाया हुआ मरद गाँव में कब तक रहेगा ?...इतने दिन का सब लिया-दिया, किया-धिया'-सब फुस ?
दुकान पर उतने लोगों के बीच भी मोदियाइन ने बात को घुमा-फिराकर झुमकी से कहा, “तनि अपनी सास से होशियार रहना। अकेले में बेटा को फुसलाकर बस में करने के लिए इधर-उधर की बात न लगा दे, तुम्हारे खिलाफ! रुपया-पैसा न हथिया' ले बूढ़ी कहीं!”
झुमकी सदा की भाँति नई बहुरिया की रीत निभाते हुए घूँघट के अन्दर से ही बोली, “मौसी, कोई कुछ लगावे-बझावे। ऊपर भगवान तो हैं! टोला-समाज, अड़ोस-पड़ोस के लोग तो हैं! यह भैंस न होती तो न जाने क्या नतीजा होता ? दो-दो बरस किस तरह खेपा है सो सभी जानते हैं!”
झुमकी भी बात को घुमा-फिराकर कहना जानती है। सभी समझ गए, इस बात को शिवधारी की बात पर बैठाई गई है अर्थात्, शिवधारी नहीं होता तो भैंस की चरवाही कौन करता ? रात की चरवाही “ठट्ठा” नहीं।
झुमकी बोली, “पिछवाड़े में दो धूर जमीन 'सर्वे” में हुआ है, लेकिन जमीन होने से ही तो नहीं होता है, उसको जोतना-कोड़ना जनाना का काम तो नहीं !...बीस रुपए की गोभी और प्याज-लहसुन दस रुपए का दो साल से हुआ-सो ऐसे ही नहीं ।...इस गाँव में कैसे-कैसे “जमामार लोग” हैं सो किसी से छिपा है ? लेने के समय दूध-दही मीठा लगता है और दाम लेने के बेर खटूटा! का में कक 'पिठिया' कर
दूध-दही का दाम वसूलते फिरना तो जनाना जात नहीं कर सकती।” दुकान से लौटते समय झुमकी बहरी मौसी के आँगन में गई। शिवधारी मुँह लटकाए, सुतली का ढेरा घुमा रहा था। हा तनिक बिहँसकर बोली-“मैं तुम पर गुस्साई हूँ। सुबह से सभी लोग आए और तुम भैंस दूहकर बथान पर से ही क्यों भाग आए ?...सुबह से तुम्हारे बारे में दस बार पूछ चुका है। नहीं जाओगे तो उसको कैसे
मालूम होगा कि तुमने कैसे-कैसे दिन में क्या-क्या किया है ? अपने जानते, जितना हो सका, मैंने कहा है।...तुमको डर काहे का लगता है ? साँच को आँच क्या ?”
झुमकी ने टोकरी से बीड़ी का एक 'मुट्ठा' निकालकर ओसारे पर रख दिया- “यह रही तुम्हारी बीड़ी-सुपारी ।...मुँहचोर होकर रहोगे तो वह जो कुछ सुनेगा पतिया लेगा।”
शिवधारी का तन-बदन झनझना उठा। लगा, जान लौट आई।...नहीं, उसकी बुद्धि सचमुच थोड़ी मोटी है। झुमकी भौजी का गुस्सा जायज है!
झुमकी के कान के कुंडल...लाल अँगिया...चकमक बिन्दी...महमह महक देह की...जानलेवा हँसी!
शिवधारी की देह तप गई...आग लगा गई हो जैसे!
शिवधारी ओसारे पर रखे बीड़ी के मुट्ठे से एक बीड़ी निकालकर सुलगाने लगा। उसका दिल अचानक बुझ गया...सब दिन ललचाती ही रही ।...'कहीं भागी जा रही हूँ ?
अब तो भेंट-मुलाकात भी चोरी-चोरी ही कर सकता है वह।
शिवधारी बहुत देर तक बीड़ी का धुआँ उड़ाता रहा।
रामबिलास के 'मचान' पर सुबह से ही बीड़ी के धुएँ का गुब्बारा उड़ रहा है। रह-रहकर हँसी की लहरें आती हैं। एक-से-एक दिल को गुदगुदानेवाला किस्सा सुना रहा है, रामबिलास-पटनियाँ किस्सा! दो साल पहले, चैत महीने की आधी रात में गाँव छोड़कर चुपचाप भागा था
रामबिलास-गाँव छोड़कर और मिसर की नौकरी छोड़कर; मिसर का करजा पचाकर।
दूसरे दिन उसके मचान के पास और आँगन में ऐसी ही भीड़ लगी थी। उसकी माँ रो-रोकर लोगों को सुना रही थी, गौना के बाद से ही उसके लाड़ले बेटे बिलसिया की मति फिर गई। पराए घर की बेटी ने आकर उसके पाले हुए सुग्गे को उड़ा दिया।
झुमकी घूँघट के अन्दर से ही बुढ़िया को कोस रही थी और खूँटे पर बँधी मैंस रह-रहकर बहुत करुण सुर में पुकारती जाती थी-ऊँ-यें-यें-यें-यें-यें-हँ-हैँ ! !
बूढ़े मिसर के सिपाही रामसिंघासन सिंघ ने कहा था-“हम खूब समझते हैं। लीला पसार रही हैं दोनों! बिलसिया चुपचाप नहीं भागा है। अपनी माँ-बीवी से सलाह करके 'घसका' है, गाँव छोड़कर । भागकर जाएगा कहाँ?...ई “भैंसिया' तो मालिक के बथान पर जइबे करी, एक-न-एक दिन!”
“वह साला आजकल कहाँ है?...नौकरी छोड़कर चला गया क्या?” रामबिलास के इस सवाल को सुनकर सभी ने एक ही साथ अचरज प्रकट किया-“ओ-ओ-ओ! तुमको नहीं मालूम ?”
पटनियाँ किस्सों के मुकाबले में एक “गँवैया-घरैया” किस्सा सुनाने का मौका मिला है, घोतना को।
“हॉ-हाँ, सुनाओ तुम्हीं, घोतज़ा ।!
“रामबिलास भाय! तुमने आज जैसी बहादुरी की है उससे बढ़कर मर्दानगी का काम किया पिछले साल, पछियाली टोली के मुसम्मात की नई पुतोहू ने ।...जानते ही हो, सिधवा साला कैसा 'घरहुक्का' था! गाँव में कोई नई बहुरिया आई कि उसकी नींद गई।...बिलार की तरह घर में पैठकर, बिना 'छिंका' को हिलाए ही दही के ऊपर की मलाई साफ कर देता था। लेकिन सब मलाई निकाला मुसम्मात की पुतोहू ने!...साले को ऐसा 'कसकसाकर” पकड़ा है कि ऊपर-नीचे दोनों तरफ की हवा गुम!”
एँ ?
“पूछो, सभी से ।...आखिर अररिया-अस्पताल में औपरेसन करके “बधिया” किया तब जाकर होस हुआ। सुनते हैं, अस्पताल का डागडर पूछता था कि कहीं चक्की के दो पाट में पड़ गया था क्या सिंघजी? सो, अस्पतांल से निकलने के बाद इस गाँव की ओर मुँह नहीं किया, फिर। साला, एकदम बधिया! आ-आजहानहा...!
“इस औरत को तो सरकारी तगमा मिलना चाहिए। सहर में होती तो अखबार में खबर “औट' हो जाती, फोटो के साथ... ।”
“फोटो कैसे औट होता ?...कसकसाकर पकड़े हुए ही! हू-ब-हू ?”
फोटो की बात पर रामबिलास को अपनी तस्वीर की बात याद आई। पॉकेट में लाइसेंस निकालकर दिखलाया। सभी ने बारी-बारी से हाथ में लेकर फोटोवाला रिक्शा-डलेवरी-लाइसेंस को देखा ।...नहीं, रामबिलास झूठ नहीं कहता। लोगों ने झूठमूठ खबर उड़ा दी थी कि “क्रस्थान होटिल' में बर्तन माँजता है।...लोगों ने नहीं, उस दूबे के बड़े बेटे ने। जनेऊ की कसम खाकर कहता था कि हम अपने “'चसम' से देखा है, उसको।
शिवधारी को देखकर सभी चुप हो गए ।...रामबिलास को “लाटसाट” का किस्सा मालूम हुआ या नहीं ?...मालूम हुआ कि जान से खतम कर देगा।...बात छिपेगी थोड़ी!
“क्या रे सिवधरिया! सुबह से कहाँ “लापता” थे ?”
“जरा टिसन चला गया था, भैया!”
जरूर घड़े का पानी फेंककर पानी भरने निकली है अभी रामबिलास की बहू... शिवधारी की बोली सुनकर आँगन में कैसे रहे? हे बहू पानी लेकर वापस आई और घूँघट के अन्दर से ही बोली-“अभी सहजो पीसी कह रही थी, तुम्हारे पिछवाड़े ध मुसलमान-टोली की तरह महक क्यों आ रही ? मुर्गी का अंडा पकाया जा रहा कहीं ?” कम हे लक ने जाने क्या समझा। बोला, “कल से यहाँ मुर्गा बनेगा, मुर्गा! ) कौन साला क्या बोलता है!...साला, यह भी कोई जगह है? आलू की तरकारी में
जरा-सा गरम मसाला डलवा दिया तो सारे गाँव में मुर्गी के अंडे की महक फैल गई? बोलो!”
शिवधारी ने कहा, “इस गाँव की बलिहारी है! बिना पर की चिड़िया उड़ानेवाले बहुत लोग हैं।
“सहर में सभी अपनी औरत को नाम लेकर बुलाते हैं। मैं अपनी बीवी को हजार नाम लेकर पुकारूँ, किसी साले का क्या ?”
रामबिलास ने अपनी बहू को पुकारकर कहा, “ए झुमकी! सिवधरिया आया है। इसके लिए एक कुलफी चा भेज दो।”
आँगन में बहू ने सास से कहा, “माई! सुनते हैं इस मरद की बोली-बानी !”
कमाऊ पूत की मस्ती देखकर, मसाले की गन्ध सूँघकर बूढ़ी प्रसन्न है। कहती है, “बोली-बानी क्या सुनूँगी? आदमी जहाँ रहेगा, चाल वहीं का चलेगा!”
“साला! हम दिन-भर चा पीयें या रात-भर दारू पीयें, इससे लोगों का कया? ... सिवधरिया, टिसन की कलाली में पचास दारू असली मिलता है या पानी मिलाया हुआ! आज दो बोतल चढ़ेगा।”
शिवधरिया दारू का हाल क्या जाने! वह गाँजा के बारे में कह सकता है।
“ए झुमकी! इधर आ!...तू एक हाथ घूँघट क्यों काढ़ती है ?”
झुमकी लजाकर आँगन की ओर भागी।
सबकुछ हुआ। रामबिलास ने पटना में बैठकर जो-जो सपने देखे थे, सभी सच हुए।...मिसर का जहरदाँत” उसने उखाड़कर फेंका। गाँव में इस बात को लेकर रामबिलास का जै-जैकार हो रहा है। गाँव के हर घर में उसका नाम दिन में दस बार लिया जा रहा है। बेटा हो तो ऐसा!...मरद हो तो ऐसा!
उसका मचान गाँव के मालिक मिसर का चौपाल हो गया है, मानो। अब बाँभन-राजपूतटोले के जवान भी आकर बैठते हैं। दिन-भर चाय-बीड़ी, ताश और रात में अंग्रेजी ताश' !
उस दिन मिसर का बड़ा बेटा दिन-भर रामबिलास के मचान पर तास खेलता रहा। साँझ हुई तो रामबिलास ने कहा, “अब यहाँ अंग्रेजी ताश का खेल होगा... खेलिएगा...। एक ही घूँट!”
मिसर का बड़ा बेटा अब रोज साँझ को पाव-भर पी जाता है और दाम पूरे बोतल का देता है।
गाँव के सभी नौजवान रामबिलास के साथ पटना जाना चाहते हैं, इस बार। रामबिलास के मुँह से चटकदार पटनियाँ किस्सा सुनकर गाँव कौन रहना चाहेगा, भला !
रजिन्नरनगर ? अब क्या बताबें कि कैसा है ? लगता है कि सरकारी इंजिनियर इन्दरासन में जाकर फोटो खींच लाया है, हू-ब-हू वैसा ही सहर बसा दिया ...सड़क के दोनों ओर रंग-बिरंग के फूल। और हर फूल की झाड़ी में एक लड़की बैठी
हुई...गीत गाती हुई!”
“ए! तब तो सचमुच इन्दरासन की इन्दरसभा...?”
“अजी, जहाँ की जमादारिन...जमादारिन माने पुलिस-जमादार की बहू नहीं,
सड़क पर झाइू देनेवाली...पटना की जमादारिन को देखोगे तो लगेगी किसी बड़े जमींदार की बहू है।”
“ऐसी खपसूरती ?”
“देखने में काली होने से क्या होता है? असल चीज है, देह की गठन।...एक है रजबतिया। हमारे 'रिक्सा-खटाल” के पास ही रहती है। साली, सुबह-सुबह छापेदार साड़ी पहनकर, कन्धे पर झाड़ू-डंडा का झंडा लेकर इस तरह ऐंठती हुई निकलती है जैसे राज जीतने जा रही है, झाड़ू देने नहीं।”
“छह!”
“भला कौन जवान रहना चाहेगा, इस मनहूस गाँव में ?
रामबिलास भैया, इस बार आपके साथ मैं भी जाऊँगा ।...मैं भी !...मैं भी!!..मैं भी!!!...यहाँ साल-भर हलवाही करते हैं सिरफ एक सौ आठ रुपए में। वहाँ, एक महीना में दो सौ ?
रामबिलास काका, मैं भी !...रामबिलास पाहुन, मुझे मत भूलिएगा। रिक्शा-डलेवरी नहीं तो किसी होटल में रखवा दीजिएगा। साला, हम चिनियाँ-बादाम बेचेंगे।...मामा, आप उस दिन कह रहे थे कि रद्दी कागज-सीसी-बोतल का कारबार भी खूब नफावाला होता है...।
एक शिवधरिया को छोड़कर सभी ने शहर जाने का इरादा पक्का कर लिया है। शिवधरिया ने कभी चर्चा भी नहीं की।
सबकुछ हुआ, लेकिन रामबिलास के मन में एक छोटा-सा काँटा कई दिनों से “खच-खच” कर गड़ जाता है-समय-असमय। उस रात झुमकी ने वैसा क्यों कहा ? क्यों ?...सब ठीक है। मुदा... !
“क्या मुदा ? बोल!”
झुमकी आँखें मूँदकर हँसती है।
“आँख क्यों मूँद रही है ?”
“लालटेन क्यों जलाकर रखे हो ? बुझा दो।”
रामबिलास ने लालटेन की रोशनी मद्धिम कर दी। झुमकी बोली, “नहीं, एकदम बुझा दो।”
साली! औरत है या चमगादड़ ? शिवधारी गाँजा पीता है। बहुत जिद्द करने भी उसने किसी दिन दारू का एक
घूँट नहीं लिया। चखने के लिए एक बूँद भी नहीं! सुबह, नींद खुलने के बाद ही रात की बात मन में खचखचा' कर गड़ गई-
“सबकुछ ठीक है। मुदा...!' अब चार ही दिन रह गए हैं।...रमाँ-आँ रहा एक दिन अबधि अधारा-आ-आ-आ रम्माँ हो रमाँ-आँ!...रामबिलास. के मन में आजकल हमेशा एक विदाई गीत- समदाऊन-गूँजता रहता है...मिलीं लेहु सखिया, दिवस भेल रतिया कि चिंत भेल जग से उदा-आ-आ-आ स!!
गाँव के सभी जानेवाले नौजवान कल स्टेशन-हाट से बाल कटवांकर आए हैं।... रामबिलास बोला था कि शहर में केश के फैशन से ही लोग समझ जाते हैं कि कहाँ का आदमी है।...सभी की देह की बोटी-बोटी में “उछाह” है, लेकिन रामबिलास के मन में रह-रहकर काँटा गड़ जाता है।
आज रात में वह झुमकी से फिर पूछेगा।
“झुमकी, अब तो यहाँ चार ही दिन रहना है।”
“हूँ ऊँ ऊँ!”
रामबिलास बहुत देर तक चुप रहा। तब बहू ने पूछा, “फिर कब आओगे ?”
“आने का क्या ठिकाना!”
आज रामबिलास ने दारू नहीं पी है। स्टेशन हाट की पचास-दारू एकदम खाँटी होता है, गाँव के'खाँटी दूध की तरह ।...एक ही प्याली में नशा सिर पर सन्न से सवार हो जाता है।...आज अंग्रेजी-ताश नहीं होगा, भाई!
रामबिलास की “निरगुनियाँ-बोली” का कोई जवाब नहीं दिया झुमकी ने, लेकिन है जगी हुई ही।
“झुमकी !”
हूँ!...आज तुम दारू क्यों नहीं पीये ?”
“आज सारी रात जगा रहूँगा।”
“सैचमुच, सारी रात जगा रहा रामबिलास। भोर को जब कौआ-मैना बोलने लगा तो झुमकी ने कहा, “जरा मद्धिम आवाज में बोलो!”
अब तीन दिन 'फक्कत”! चौथे दिन साँझ की गाड़ी से-बरौनी पंसिंजर से बीसों जवान रवाना हो जाएँगे, एक शिवधारी को छोड़कर। कई दिन से वह भैंस भी दूहने नहीं आता है। रामबिलास खुद दूहता है।
“झुमकी !”
“क्या है ?”
“आज मैंने दारू नहीं, गाजा पीया है। लगता है, आसमान में उड़ रहा हूँ।”
“सिवधारी अब रात में मैंस नहीं चरावेगा। उसकी बहरी मौसी आकर कह गई हैं ।
“मारो साले को गोली! कल एक मैंसवार ठीक कर दूँगा ।”
“मैंसवार कौन चरावेगा तुम्हारी मैंस?
क्यों ?
“सभी गिरस्तों के हलवाहे-चरवाहों को तुम भगाकर सहर ले जा रहे हो ।”
“किसने कहा कि मैं भगाकर ले जा रहा हूँ ?”
“गाँव के सभी गिरस्त॑ बोलते हैं!”
“सभी गिरस्त नहीं। बोलता होगा, तुम्हारा वह सिवधरिया!”
झुमकी चुप रही। रामबिलास ने घुटने से ठोकर मारते हुए कहा, “क्यों? ठीक कहता हूँ न ?”
“जो कहो तुम।”
“मैं जो कहता हूँ, ठीक कहता हूँ।'”
झुमकी ने एक लम्बी साँस ली।
“ठीक कहता हूँ न ?”
हूँ ?
“चौथे दिन से खूब मौज करना।”
“मैं मौज करूँ या दुख से मरूँ, तुमको क्या? मौज करेगी रजबतिया-डोमिनियाँ तुम्हारे साथ ।”
“क्या बोली ?”
झुमकी चुप रही। रामबिलास ने फिर घुटने से एक ठोकर लगाकर पूछा, “क्या बोली ?”
“मारना है तो जान से मार दो।”
“साली! जाने के पहले तुमकों और तुम्हारे सिवधरिया को खतम करके ही... ।”
रामबिलास के सिर पर कोई भूत सवार है। आज वह दो चिलम गाँजा पीकर आया है।
“चिल्लाओ मत, इस तरह।”
“साली! पटना का बड़ा-से-बड़ा बालिस्टर हमारी बोली को बन्द नहीं कर सकता और तुम कहती हो, चिल्लाओ मत!”
“तो चिल्लाते रहो ।”
“आज तो मैंने दारू नहीं पी है। तू उधर मुँह फिराकर क्यों सोई है? इधर पलट, तेरी...!!”
“नहीं ।”
“सू-सू-सा-ली !”
“आज रामबिलास खून कर देगा। चीर-फाड़कर रख देगा झुमकी को। “...क्या समझ लिया है?...ऐं?...रिक्शा-डलेवरी करने से आदमी जनखा हो जाता है?...ऐं? बोल ?...कहती है, सब झूठ है!...मिसर से चौगुने सूद पर करजा लेकर उस सिवधरिया ने तुमसे बिहा किया था?...ऐं? बोल! चौप साली!...खा कसम !...क्या समझ लिया है? सहर में रहने से, दारू पीने से आदमी...चौप साली! हम सब समझते हैं।”
झुमकी बहुत देर तक रोती रही। रामबिलास जब बिछावन छोड़कर उठने लगा तो झुमकी ने उसकी गंजी पकड़ ली।
“क्या है?”
“तुम पटना मत जाओ।”
“क्या बकती है?”
“हाँ, मैं पैर पड़ती हूँ, मत जाओ।”
“हूँ।...सहर नहीं जाऊँगा तो काम कैसे चलेगा ?”
“इतने लोगों का काम कैसे चलता है ?”
ऊँहु !
“तब मुझे भी साथ लेते चलो।”
“और सिवधरिया ?”
झुमकी रोने लगी फूट-फूटकर। सूरज, बाँस-भर ऊपर उग आया। बूढ़ी ने पुकारा-““बहू-ऊऊऊ !!”
गाँव के सभी जवान एक ही साथ आसमान से गिरे। रामबिलास आज मिसर के दरबार में कह रहा था कि घर की आधी रोटी भली । शहर में क्या है? जितनी आमदनी होती है उससे चौगुना लहू खर्च होता है। गाँव आखिर गाँव है।...मिसरजी ने बाकी करजे का एक पाई भी सूद नहीं लिया। शहर में इस तरह कोई सूद छोड़ देता ?...पटना कहो या दिल्ली, जो मजा अपने गाँव में है, वह इन्द्रासन में भी नहीं।
“सुना है, मिसर का बड़ा बेटा आँटा-धानी का मिल बैठावेगा। रामबिलास मैनेजरी करेगा उसका !
सुना है, गाँव के गृहस्थों ने मिलकर चुपचाप रामबिलास को 'घूस” दिया है। सभी के हलवाहे-चरवाहे भागे जा रहे थे न!
सुना है, रामबिलास पटना में एक डोमिन से फैंस गया था, इसलिए अब नहीं जाना चाहता । डोमिन को बच्चा होनेवाला है।
और चौथे दिन सभी ने सुना, शिवधारी गाँव छोड़कर भाग गया ।...कल स्टेशन-हाट में दारू पीकर धुत्त था।
उसकी बहरी मौसी कह रही थी कि रामबिलास की बहू साँझ से आकर न जाने क्या फुसुर-फुसुर कह गई और रात में ही शिवधरिया हवा हो गया।
रामबिलास ने कहा, “झुमकी, सुना वह सिवधरिया साला भाग गया!”
“दो कोड़ी रुपया मेरा लेकर भागा है।”
“तू पहले ही क्यों न बोली? मुँह में क्या केला था ?”
“ऐसी नमकहरामी करेगा वह, सो कौन जानता था ?”
“तू आदमी को नहीं पहचानती !”
“कभी तो आवेगा मुँहझौंसा! तब पूछूँगी ।”
रामबिलास ने झुमकी को खींचकर छाती से लगा लिया। बाँहों में उसके सिर को भरकर बोला, “मारो साले को गोली! वह साला सहर से बचकर कभी वापस नहीं आवेगा!...साले को दारू खा जाएगा! देखना!”
झुमकी हठात उठ बैठी-“बैंस क्यों 'डिकर' रही है इस तरह?”
रामबिलास ने कहा, “सुबह मैंसा की खोज में जाना होगा। भैंस 'उठ” गई है, लगता है।”
आज झुमकी फिर नई बहुरिया की तरह लजाकर मुस्कुराती है। बिना पीये ही रामबिलास मतवाला हो गया।
“ऐश! जरा दारू चखेगी?...बस, एक घूँट।”
झुमकी हँसने लगी-“नहीं !...नहीं !!...नहीं!! मुझे दारू की बास...उयेक्...