तुम कौन हो ! (कहानी) : कमलेश्वर
Tum Kaun Ho ! (Hindi Story) : Kamleshwar
रात तूफानी थी। पहले बारिश, फिर बर्फ की बारिश और बेहद घना कोहरा। अगर
हवा तेज न होती तो शायद इतनी मुसीबत न उठानी पड़ती। पर हवा और हवा
में फर्क होता है। यह तो तूफानी हवा थी जो तीर की तरह लगती थी। गाड़ी
वह खुद ही ड्राइव कर रहा था। उसका ब्लोअर खराब था, नहीं तो गाड़ी कुछ
तो गर्म हो जाती। दूरी के हिसाब से वह शाम चार बजे तक जिनीवा पहुँच जाता,
फिर कम्यून खोजने में आधा घण्टा लगता और हद से हद वह कम्यून के दोस्तों
के साथ पाँच बजे बैठा हुआ चाय पी रहा होता। लेकिन बर्फ के तूफान ने उसे
मुसीबत में डाल दिया था। दोस्तों ने बताया था कि रास्ता बहुत खूबसूरत है। वह
था भी, पर बेमौसम आये तूफान ने सब चौपट कर दिया था। जिनीवा जाने वाली
सड़क तो बहुत शानदार है। वैसे यूरोप के सभी देशों की सड़कें शानदार हैं पर
तूफान का कोई क्या करे। फॉग लाइट्स न होतीं, तब तो ड्राइव करना सम्भव
ही न होता। दिन में ही घना अंधेरा छाया हुआ था। उसे लग रहा था कि ऐसे
तूफान में जिनीवा पहुँचना शायद मुमकिन नहीं होगा, इसलिए ड्राइव करते-करते
वह लगातार किसी मोटल की तलाश में भी था। पेट्रोल भी लेना ही था।
आखिर एक मोटल-सा नजदीक आता लगा। वह मोटल ही था। उसने
गाड़ी रोकी। गैस पम्प पर रोशनी थी, पर आदमी कोई नहीं था। उसने कई बार
हॉर्न बजाया, तो काफी देर बाद एक आदमी निकलकर आया।
उसने चाबी दी और कहा, “बीस लीटर पेट्रोल !”
"गैस!"
“हाँ! रात-भर के लिए यहाँ मोटल में कमरा मिल जाएगा?"
"हाँ, औरत भी मिल जाएगी।"
“औरत की जरूरत नहीं है।'!
“तो फिर उन्हें तुम्हारी जरूरत भी नहीं है!”
इस उत्तर से उसने अपमानित महसूस किया था, पर कर क्या सकता था?
अपनी बेबसी और मजबूरी को देखते, उसने अपमान का वह घूँट पीते हुए भी पूछा
था।
“अगला मोटल कितने किलोमीटर पर मिल सकता है?''
“यही कोई सत्तर किलोमीटर पर...लेकिन औरतों वाली बात वहाँ भी
होगी...इस सर्द तूफानी शाम में तुम औरतों से बचकर क्यों निकलना चाहते
हो ?"
वह चुप रहा। पेमेण्ट किया और गाड़ी स्टार्ट करके चल दिया। उसके जूते
और मोजे पूरी तरह से भीग गये थे। पैर ठण्डे हो रहे थे। तृफान बदस्तूर जारी
था। रुकने की जगह का कोई अता-पता नहीं था। सर्दी एकाएक बढ़ रही थी
और जिनीवा अभी डेढ़ सौ किलोमीटर दूर था। और फिर जिनीवा पहुँचकर भी
तो कम्यून का पता करना था, जहाँ उसे ठहरना था। वह बहुत परेशान था, पर
चलते जाने के अलावा कोई चारा नहीं था। सड़क खाली थी। ट्रैफिक था ही
नहीं। उससे गलती यह हुई थी कि उसने चलने से पहले मौसम का बुलेटिन
नहीं सुना, इसलिए इस तूफान में फँस गया था...
सत्तर किलोमीटर के बाद भी कोई मोटल नहीं आया, तो वह पस्त हो
गया। आखिर पार्किंग लेन में गाड़ी खड़ी करके वह सुस्ताने बैठ गया। और राहत
की बात यह थी कि वहीं एक नीग्रो जोड़ा भी गाड़ी रोके खड़ा था।
सड़क के दोनों ओर चीड़ के जंगल थे। तूफानी बारिश में वे जैसे हवा
से बातें कर रहे थे...उनकी सरसराहर की तेज़ आवाजें और बर्फ में भीगने की
मिली-जुली ठण्डी महक आ रही थी। महक तो उसे अच्छी लगी पर उस तेज
हवा को बर्दाश्त करना मुश्किल था। उस नीग्रो जोड़े को एहसास था कि कोई
गाड़ी पास आकर रुकी है। उसने क्रास करते हुए उन्हें देखा था। वे दोनों भी
सिकुड़े हुए बैठे थे।
तभी सायरन बजाती ट्रैफिक पुलिस की एक गाड़ी उसकी और नीग्रो की
गाड़ी के बीच में रुकी...उन्होंने गेस्टापों की तरह तेज लाइट डालकर तीनों को
देखा और ऊपरी खिड़की का शीशा थोड़ा-सा उतारकर उसमें बैठे आदमी ने
कहा, “गो! गो!”
“पर इस तूफान में-हाऊ गो? हाऊ?'” नीग्रो चीखा था।
"नो स्ते...गो...'' ट्रैफिक वाला और जोर से चीखा था।
“ओके... .ओके...पाँच मिनट बाद!'' नीग्रो शान्त पड़ गया था। ट्रैफिक
पुलिस की गाड़ी पाँच मिनट की मोहलत देकर आगे चली गयी थी। उस नीग्रो
ने अपनी गाड़ी मेरी गाड़ी के बराबर में लगा दी थी और पूछा था, “कहाँ?"
“जिनीवा! एण्ड यू?''
“लूजान...दीज बास्टर्ड्स...ये तुम्हारा पैसा तो निचोड़ लेते हैं लेकिन अपने
देश में टिकने नहीं देते!” उस नीग्रो ने अंग्रेजी में कहा था, “सारी नफरत और
कल्चर की बातें करते हुए ये हमें और तुम्हें बर्दाश्त नहीं करते। तुम एशिया से
हो? शायद इण्डियन या पाकिस्तानी... ''
"इण्डियन !"
“हम अमेरिकन हैं, पर ये हमें अमेरिकन नहीं मानते-ये हरामजादे हमें
जबान दबाकर निगर्स पुकारते हैं और नीग्रो ही मानते हैं...मुझसे पूछ रहे थे, इस
औरत को कहाँ से पकड़ लाये? पर यह औरत नहीं, मेरी बीवी है...ये हरामजादे
औरत और बीवी में फर्क नहीं करते...औरत की इज्जत नहीं करते। ये सिर्फ पैसे
वाली औरतों और आर्मी की औरतों की थोड़ी-बहुत इज्जत करते हैं...अच्छा है
कि इन्हें अँग्रेजी नहीं आती--'' वह बोला था और बहुत तेजी से अपनी गाड़ी
सड़क पर लाकर कोहरे और बर्फ की बारिश में आगे चला गया था।
उसकी हिम्मत पस्त थी। बर्फ, कोहरे और सर्दी ने उसे लगभग लाचार-
सा कर दिया था। वह उस नीग्रो जोड़े के साथ निकल जाना चाहता था, पर गाड़ी
के इंजन ने धोखा दे दिया था। वह स्टार्ट ही नहीं हुआ। शीशे चढ़ाकर बैठे रहने
के अलावा अब कोई चारा नहीं था...यहाँ तो एक-सी परेशानी में पड़े आदमी
की जान-पहचान का भी कोई मतलब नहीं था, वह नीग्रो जोड़ा भी उसी उलझन
में था, जिसमें वह खुद फंसा हुआ था, पर यह जोड़ा अमरीकन था, इसलिए वह
समान अपमान सहते हुए भी उससे अलग हो गया था। देश के हिसाब से
अपमान का दंश और अपमान को सहने का अनुपात भी अलग-अलग था, यही
उसे लगा था। वह अमेरिकन नीग्रो तो गाली भी दे सकता था। वह तो खुद को
और भी गया-गुजरा पा रहा था...उसे लगा कि वह दूसरा तूफान तो इस बर्फीले
तूफान से भी ज्यादा भयानक है! और तब उसे पेरिस के सोबोर्न इलाके का वह
रेस्टोरेण्ट याद आया था, जहाँ वह इण्डियन रेस्टोरेण्ट नाम सुनकर अपने लोगों से
मिलने, अपनी पहचान पाने के लिए गया था। “रेस्टारेण्ट इण्डियन' के सभी
कर्मचारी हिन्दुस्तानी ही थे और म्यूजिक सिस्टम पर रविशंकर का सितार बज
रहा था। उसने राहत की साँस ली थी। मछली की करी के साथ उसने भात
खाया, पर जब उसने भारतीय बेयरे से हिन्दी में बात करनी चाही थी, पता चला
था कि वे भारतीय तो हैं पर पाण्डिचेरी के हैं, इसलिए फ्रेंच बोलते हैं...वह
कसमसा के रह गया था। उसने रेस्टारेण्ट के मैनेजर से भी मिलने की इच्छा
जाहिर की थी पर मैनेजर भी उससे बिना मिले भाग गया था...
लेकिन क्यों ?...वह क्यों एक भारतीय से मिलना नहीं चाहता था? तब
एक बेयरे ने बड़ी शालीनता से बताया था, “कि साहब! हम पाकिस्तानी हैं...पर
हमारे पास पाकिस्तानी म्युजिक और पाकिस्तानी फूड के रूप में परोसने के लिए
कुछ भी नहीं है, इससीलिए हम हिन्दुस्तानी म्युजिक और फूड के नाम पर अपना
कारोबार चलाते और अपना पेट भरते हैं...इसी मजबूरी को छिपाने के लिए मैनेजर
साहब आपसे बिना मिले भाग गये हैं...!"
उसने तब आदमी की जड़ों के उस सांस्कृतिक संकट को पहचाना था, और
उससे सहानुभूति महसूस की थी। वह खुद इसी बात का जगह-जगह शिकार
था। उसे लग रहा था कि आगे भी शायद लगातार उसे इसी संकट से गुजरना
है...पहचान और मानवीय सम्मान की तलाश में!
उसने यों ही गाड़ी स्टार्ट की तो इंजन चालू हो गया। यह भी आश्चर्य की बात
थी। नहीं तो इतनी ठण्डक में बन्द पड़ी गाड़ी कब स्टार्ट होनेवाली थी!
तूफान अभी भी जारी था, पर वह जैसे-तैसे एक मोटल से आ लगा था।
"गैस? कितनी ?'' पम्प के आदमी ने आकर पूछा था।
"नहीं, गैस नहीं, मोटल में रुकने के लिए एक कमरा मिल सकता है?''
“पूछता हूँ!” कहते हुए वह भला आदमी भीतर चला गया और एक
मिनट बाद ही फोन पर बात करके खुशखबरी लाया, “यस...रूम फॉर यू! कमरे
खाली हैं तुम्हें जगह मिल जाएगी...गो...!"
वह मोटल के रिसेप्शन पर पहुँचा। बर्फीले तूफान से राहत देनेवाली गर्म
हवा का झोंका लगा तो वह लगभग उनींदा हो गया।
“पासपोर्ट !'' उसे लगभग न देखते हुए रिसेप्शन वाले ने पासपोर्ट तलब
किया।
उसने पासपोर्ट देकर राहत की साँस ली, पर तभी रिसेप्शनिस्ट ने कहा,
“सॉरी...नो रूम!"
“पर अभी तो आपने पम्प स्टेशन वाले को..."
“नो आर्गुमेण्ट...नो रूम...”
“मुझे मालूम है...रूम तो बहुत-से खाली पड़े हैं!”
“सॉरी, नो आर्गुमेण्ट...नो रूम...!"
“क्या यह रंगभेद है?” वह चीखा था...
“डोण्ट शाउट...नो रूम!"
और वह बेहद-बेहद अपमानित होकर बाहर निकल आया था। बाहर
बर्फीली हवा के तीर उसे भेद रहे थे...जूते और मोज़े ज्यादा भीग चुके थे। उसने
जो ओवरकोट निकालकर पहना था, वह भी अब तक काफी गीला हो चुका था,
खून का घूँट पीते हुए वह अपनी गाड़ी तक आया था। गाड़ी ने साथ दिया, स्टार्ट
हो गयी।
और तब वह सुबह तीन बजे जिनीवा पहुँचा था। अब वह कहाँ जाए?
इस आड़े और बेहूदे वक्त में। सोचा स्टेशन पर रुक जाए, फिर सुबह सात-आठ
बजे कम्यून को फोन करके वह अपना ठिकाना खोज लेगा।
जिनीवा के रेलवे वेटिंग रूम में वह जाकर लेट गया था। थका और पस्त। गाड़ी
उसने पार्किंग आइलैण्ड में खड़ी कर दी थी। वेटिंग रूम में बर्फीली बारिश की
ठण्डक के कोई आसार नहीं थे। वह माँ की गोद की तरह गर्म था...वह लेटा
तो लेटते ही नींद आ गयी।
पर पाँच बजे सुबह ही सफाई कर्मचारी ने उसकी कमर में डण्डा ठोंकते
हुए कहा, “यू निगर...गेट अप! गेट अप...”
और तब उसे उठना पड़ा था। और क्या करता! रात वाला तूफान अब थम
चुका था। वह वेटिंग रूम की घटना सहकर भी अब वीतराग था। उसे पता था
कि उसके साथ यही होना था...यह तूफान तो लगातार जारी रहेगा...
वह इधर-उधर घूमता रहा और जब सात बज गये तो उसने कम्यून में फोन
किया। बहुत मुश्किल हुई यह बताने में कि वह कहाँ है, क्योंकि फोन रिसीव
करनेवाली जूनिया को अँग्रेजी नहीं आती थी। बहुत मुश्किल से वह उसकी बात
समझा। वह सिर्फ तीन शब्द बोली, “इन्डियन...स्तेशन...इआह !”
और जूनिया करीब आधे घण्टे बाद उसे खोजते हुए आयी थी। इन्दियन
को पहचानना उसके लिए मुश्किल नहीं था। उसने भी जूनिया की तलाशती
आँखों को तत्काल पहचान लिया था। जूनिया ने उससे हाथ मिलाया और
बोली--गो...यानी आओ।
उसने अपनी गाड़ी के बारे में बताया तो वह कुछ समझी नहीं। वह अपनी
सित्रों कार लेकर आयी थी, फिर इशारे से उसने उसे समझाया कि उसके पास
भी गाड़ी है और वह ट्रेन से नहीं, बाई रोड आया है। उसे वहीं रोककर वह
कुछ देर के लिए कहीं चली गयी। लौटी तो उसके हाथ में एक पर्ची थी। वह
पर्ची स्टेशन पर कार पार्किंग की थी।
जूनिया ने अपनी छोटी सित्रों गाड़ी में उसे बैठाया और चल पड़ी। कुछ
ही देर बाद वे ठहरने के स्थान पर पहुँच गये। उसे तो मेरियाने एन्किल के कम्यून
में ठहरना था, पर यह जयह तो उसे कम्यून जैसी नहीं लग रही थी। पर मुश्किल
यह कि वह जूनिया से ज्यादा बातचीत भी नहीं कर सकता था, क्योंकि वह
अँग्रेजी नहीं समझतो थी। वह फ्रेंचभाषी थी और थोड़ी इटालियन और जर्मन
बोल-समझ लेती थी।
सीढ़ियाँ चढ़कर जब वह ऊपर पहुँचा तो दरवाजे का ताला खोलते हुए
जूनिया इतना ही बोली, “'स्तूदियो...माई... ''
और वह पेरिस के दो-चार दिनों के अनुभव से समझ गया था कि यह
जूनिया का अपना कमरा था...यही उसने बताया भी था। कुछ देर के लिए वह
कुछ भी समझ नहीं पाया था...कि कम्यून में पहुँचने के बजाय वह जूनिया के
कमरे में क्यों और कैसे पहुँच गया है...फोन तो उसने सही नम्बर पर किया था।
स्टूडियो यानी कमरे के एक कोने में फोन भी रखा हुआ था...लेकिन उस पर फोन
नम्बर नहीं लिखा था। कमरे के दूसरे कोने में छोटे-से पार्टीशन से सटा हुआ
जूनिया का एक चूल्हे बाला किचिन था।
वह वहाँ खड़ी शायद चाय बना रही थी। पर वह हर गुजरते पल के साथ
और भी गहरे रहस्य में फँसता जा रहा था...आखिर...ये जूनिया...ये उसका
कमरा...फोन... उसका स्टेशन आकर उसे ले आना...
तब तक जूनिया ने चाय के मग्गे सामने रख दिये। वह चाय पीने लगा।
चाय पीते-पीते ही उसने फोन नम्बर का रहस्य जानना चाहा। जूनिया ने नम्बर
बताया...वह फ्रेंच गिनती नहीं समझ पाया तो जूनिया ने रोमन गिनती में, एक
कागज पर अपना फोन नम्बर लिखकर बताया और इशारे से उसे आश्वस्त किया
कि वह ठीक जगह आया है...चिन्ता की कोई बात नहीं है।
किचिन की तरफ से तभी कुछ चिट-चिट की आवाज़ आयी तो जूनिया
उठी उसने एक प्लेट में भुने हुए सॉसेज लाकर रख दिये...और इशारा
किया...खाओ! एक सॉसेज उसने भी उठा लिया था।
यानी अब उसका चाय-नाश्ता समाप्त हो गया था। वह समझ ही नहीं पा
रही थी कि अब वह क्या कहे या क्या करे...काम तो कई थे और फिर उसे आगे
भी जाना था। लूजान जाकर उसे “त्रिब्यू द लूजान' के रिपोर्टर पियरे कोल्ब से
भी मिलना था। साथ ही उसे जिनीवा में भी एक-दो काम थे, पर भाषा की
परेशानी के कारण सब कुछ जैसे अटका हुआ था। पर इन कार्यों से ज्यादा उसे
थकान सता रही थी और सबसे पहले पिछली रात के तमाम जलते और सुलगते
अपमानों को भूलकर वह सोना चाहता था।
चाय-नाश्ते के बाद जूनिया ने टूथपेस्ट, एक नया ब्रुश और छोटा टॉविल
उसके सामने बढ़ा दिया और दरवाजे के बाहर गैलरी में बने बाथरूम की ओर
इशारा किया और इशारों से यह भी जाहिर किया कि उसे मालूम है कि उसका
सामान स्टेशन पर खड़ी कार में बन्द है..और यह भी कि वह ओवरकोट, जूते-
मोजे उतारकर ब्रुश आदि कर ले और चाहे तो कुछ देर आराम भी कर ले। तब
तक वह एक काम से कहीं जाएगी और तीन-चार घण्टे बाद लौट आएगी।
दोनों चाबियाँ थमाकर जूनिया अपने काम से चली गयी।
वह लौटी तब वह गहरी नींद में सो रहा था। उसी ने उसे कन्धे से
हिलाकर जगाया और घड़ी दिखाते हुए बताया कि अब लंच का समय हो गया
है इसलिए--गो! यानी चलो!
वह अपनी उसी सित्रों कार में उसे जिनीवा लेक पर ले गयी। वहीं एक
बेहद खूबसूरत रेस्तराँ में उसने खाना खिलाया...फिर उसने झील में तैरते काले
हंस दिखाये...और शैले-शैले कहा। उसने अन्दाज लगा लिया कि वह अंग्रेजी
कवि शैली की बात बताना चाहती थी, जो इसी झील में एक तूफानी दिन अपने
प्राण खो बैठा था। उसने आत्महत्या कर ली थी।
फिर वह उसे पतझड़ से भरे सुनसान जंगलों को दिखाने ले गयी
थी...पतझड़ का दृश्य देखकर वह विमुग्ध रह गया था...शायद छुट्टी के कारण
बहुत से सैलानी झील पर और जंगलों में भी मौजूद थे। पर वहाँ भीड़ के बावजूद
एकान्त भी था।
वह जूनिया को लेकर भी विमुग्ध था। कैसी लड़की है यह...कितनी
विचित्र और कितनी अलग। जूनिया जैसे उसकी जन्म-जन्मान्तर की बन्धु बनी
उसके साथ उन्मुक्त भाव से पेश आ रही थी...
और तभी जूनिया एक आजाद-उन्मुक्त पंछी की तरह पतझड़ के सफेद
कालीन पर दौड़ती चली गयी और कोहरे में अदृश्य हो गयी...उसके जैसे पंख
लग गये थे।
कुछ पुकारने जैसी आवाज तो आयी थी, पर उसे यहाँ पुकारने वाला कौन
था...लेकिन उसके मन में अनुगूँज उठी थी कि कहीं जूनिया ने तो उसे नहीं
पुकारा था...उसने मन ही मन उस आवाज का उत्तर दिया था-जूनिया! जूनिया!!
लेकिन उसके उत्तर में कोई आवाज लौटकर नहीं आयी।
पतझड़ से भरा वह सफेद जंगल अब उसे एक तिलिस्म-सा दिखाई दे
रहा था...अगर जूनिया उस कोहरे से लौटकर न आए तो, वह क्या करेगा? चारों
तरफ तो जंगल ही जंगल है।
तभी एकदम अँधेरा छा गया। सफेद जंगल सुरमई हो गया और बारिश होने
लगी। बारिश की सर्द-सुइयाँ बदन के खुले हिस्सों पर चुभने लगीं...धीरे-धीरे
उसका ओवरकोट भी भीग गया...और पतझड़ के सूखे पत्तों के नीचे जमा बर्फीले
कीचड़ ने ठसके सूखे हुए जूतों और मोज़ों को फिर भिगो दिया।
कि तभी एकाएक भीगी तितली की तरह जूनिया उस कोहरे की दुनिया
से निकलकर उसके पास आयी थी। कपड़े भीगकर उसके बदन से चिपक गये
थे। और तब उसने उसे भर आँख देखा था, वह संगमरमर की नंगी मूर्ति की
तरह लग रही थी। एकाएक वह समझ ही नहीं पाया था कि जूनिया किसी
मोटल की औरत थी या संगमरमर की कोई कलामूर्ति!...
और उस सर्द और अँधेरे मौसम में उसका हाथ पकड़कर जूनिया उसे
अपनी सित्रों कार तक घसीटती ले गयी थी और स्तूदियो की तरफ चल दी थी।
बारिश और तेज हो गयी थी पर अभी तक बर्फ की बारिश में नहीं बदली थी।
वह स्टेशन तक जाकर अपने कपड़े लाना चाहता था, पर कुछ संकोच, अड़चन
और जूनिया की उन्मुक्त लय को तोड़ देने का साहस वह नहीं कर पाया था।
एकाएक सर्द हवा चलने लगी थी। उसने अपना भीगा हुआ ओवरकोट
उतार कर जूनिया को देना चाहा था, पर कार में जगह की कमी और संगमरमरी
जूनिया को लगातार देख सकने की इच्छा ने उसे रोक दिया था...
घर पहुँचते ही जूनिया ने इशारे से पूछा कि पहले तुम नहाओगे या
मैं ?...नहाना क्या जरूरी था? पर जूनिया के प्रति एक अजीब-सी आसक्त के
आकर्षण ने उसे खुद पहले नहाने को तैयार कर दिया था। पर कपड़े उसके पास
कहाँ थे? उसकी उलझन को समझकर जूनिया ने अपना एक गाउन उसे दिया
था और समझाकर बताया था कि आज इसे पहनकर ही सो जाओ...कौन
देखनेवाला है कि तुम एक लड़की का गाउन पहनकर सो रहे हो...सुबह तक
तुम्हारे कपड़े सूख जाएँगे...तब तुम उन्हें पहन लेना,
.और जब तक गैलरी के बाथरूम के गर्म पानी से नहाकर वह वापस
आया था, तब तक जूनिया उस सर्दी में उसी संगमरमर की नंगी मूर्ति की तरह
बैठी हुई चाय पी रही थी। वह जूनिया के गाउन में बहुत अटपटा महसूस कर
रहा था।
फिर वह नहाने चली गयी। और जब वह लौटकर आयी, तब तक एक
चूल्हे वाले किचिन में दलिया और पोर्क की खिचड़ी पककर तैयार हो गयी थी।
खिचड़ी खाने के बाद अब उसके सामने सोने का सवाल था। बिस्तर तो
एक ही था और सर्दी हद से ज्यादा बढ़ गयी थी। दोपहर में तो वह अकेला
था, इसलिए शान्ति से सो तो गया था, लेकिन अब इस रात में ?...इस रात में... ?
तब तक जूनिया अपना गाउन उतारकर बिलकुल एक उजागर संगमरमरी
मूर्ति के रूप में उसके सामने थी। उसने उसी एक बिस्तर पर “इलेक्ट्रिक क्विल्ट'
लगाकर उसे पुकारा था-गो! यानी आओ...
बिजली की यह रजाई गर्म हो रही थी और सारे संकोच के बावजूद वह
अब आराम से सोना चाहता था-पर जूनिया का उजागर संगमरमरी शरीर उसे
पुकार रहा था...पता नहीं यह पुकार खुद उसके मन की थी या जूनिया के मन
की...
बिजली की उसी एक रजाई में आखिर वह भी जूनिया के साथ घुस गया
था और करवट लेकर उसने उसके लिए तीन चौथाई जगह छोड़ दी थी...वह
आधी से अधिक जगह पार करके भी जूनिया की तरफ नहीं खिसक पाया था
और न जूनिया ने आधे बिस्तर की यह लक्ष्मण रेखा पार की थी।
सुबह आँख खुली तो चाय तैयार थी। साथ में उबले अण्डों का नाश्ता था।
उसके बाद जूनिया ने पिछले दिन की तरह पेस्ट और ब्रुश उसके सामने रख दिया
था...आज उसे इशारा करके कुछ बताने ककी जरूरत नहीं थी। उसे पता था कि
बाथरूम की चाबी कहाँ लटकी हुई है।
बाथरूम से वह लौटा तो जूनिया तैयार होकर अब एक खूबसूरत पेण्टिंग
की तरह उसके सामने मौजूद थी। उसने भर आँख उसे देखा। जूनिया मुस्करायी
और बोली-गो! यानी चलें!
और तब उसे स्टेशन पर खड़ी गाड़ी तक पहुँचाने के लिए वह जिनीवा
की स्विस बैंकों वाली स्ट्रीट से होती हुई पहले एक बहुत बड़े डिपार्टमेण्ट स्टोर
में पहुँची थी। उसने अपनी गाड़ी पेवमेण्ट पर चढ़ा कर पार्क की और उसे
डिपार्टमेण्ट स्टोर के लाऊंज में बैठाकर वह खुद भीतर चली गयी थी। उसने
समझा जूनिया को कुछ खरीदना होगा।
काफी देर बाद जब वह लौटी तो उसके साथ एक बहुत खूबसूरत नौजवान
था। उसने हलो किया और पास बैठ गया। जूनिया उसके उस पार बैठी हुई थी।
और तब बहुत शालीनता से उस नौजवान ने अँग्रेजी में बात शुरू की थी...
"मेरा नाम फिलिप है...मैं इस डिपार्टमेण्ट स्टोर में नौकर हूँ, जूनिया मेरी
मंगेतर है...हम जल्दी ही शादी कर लेंगे। इसने मुझे बताया कि तुम कल सुबह
आये थे...तुम बहुत थके हुए थे।'”
जूनिया का मंगेतर अंग्रेजी में बात कर रहा था, इसलिए उसने सोचा कि
एक अजनबी की तरह इस तरह आने और ठहर जाने का रहस्य साफ कर दे।
उसने कहा, “जी हाँ, मैं बर्फ का तूफान पार करता हुआ आया था...और असल
में मुझे 'मेरीयाने कम्यून' में ठहरना था...मैंने वहीं फोन किया था... "
“हाँ, तुमने ठीक ही फोन किया था...हाँ...क्या...हाँ, और देखो जूनिया
कह रही है कि वह कम्यून अब वहाँ नहीं है, पर वह फोन तो अब भी वहीं
है...क्या यह एक खूबसूरत बात नहीं है?''
और जूनिया की बहुत खूबसूरत हँसी उसे फिलिप के कन्धे के उस पार
से सुनाई दी थी...
“कल मेरी छुट्टी थी इसलिए जूनिया तुम्हें मुझसे मिलवा नहीं पायी...आज
लेकर आयी है...” फिलिप बोला।
“मैं...मैं जूनिया को बहुत...बहुत धन्यवाद देना चाहता हूँ...बहुत-बहुत!'”
उसके मुँह से अनायास निकला था।
“अरे, इसमें धन्यवाद की क्या बात है...हाँ क्या...हाँ...हाँ...जूनिया कह
रही है, कल रात भी तेज तूफान आया था...शायद तुम उसमें कहीं भटक
जाते...इसलिए उसने सुबह तक का इन्तजार किया...हाँ...हाँ..एक और बात,
जूनिया जानना चाहती है कि तुम कौन हो?''
“तुम कौन हो! तुम कौन हो!...' जूनिया का यह सवाल एक आदिम
सवाल की तरह उसकी पूरी चेतना में कौंधने और गूँजने लगा था।
(दिल्ली : 1992)