ट्रेडिल (कहानी) : दंडपाणी जयकांतन

Tredil (Tamil Story in Hindi) : Dandapani Jayakanthan

ट्रिंग...ट्रिंग...ट्रिंग...
-ट्रेडिल मशीन का इंक-ब्लेड घूम रहा है।
चर्...चर्...चाक्...
-इंक रोलर ऊपर-नीचे गतिशील है।
टँग...टटक् !
-कागज पर इम्प्रेशन!
टटक...टटक्...टटक्...

बाँस की तीली की तरह एक टाँग पेडल को एक लय में दबाती रहती है। जी हाँ, इसे उस मशीन की प्राण-शक्ति कह सकते हैं।

इस नाद-वृन्द-मेल से कुल जमा मतलब क्या निकलता है?-यही कि अँधेरी गुफा सरीखा एक छोटा-सा मुद्रणालय-हाँ, छापाखाना-यहाँ क्रियाशील है।

उस छापाखाने की उम्र बीस साल और चन्द महीने की होगी। वहाँ छपाई के जितने किस्म के काम होते हैं उनमें विवाह-निमन्त्रण पत्र की छपाई सबसे ज्यादा होती है। समय-समय पर कैश-बिल, लेटर-पैड, विजिटिंग कार्ड इत्यादि के आर्डर भी मिलते हैं। उस कोठरी में ट्रेडिल मशीन के अलावा चार-पाँच जॉब-टाइप केस और एक छोटी-सी कटिंग मशीन भी है। इतने छोटे छापाखाने से कौन-सा बड़ा मुनाफा मिलता होगा? जायज सवाल है।

लेकिन इस प्रिंटिंग प्रेस के मालिक मुरुगेश मुदलियार ने बीस साल बाद जैसे-तैसे करके अपने लिए एक छोटा-सा मकान बनवा लिया है।

यहाँ पर कम्पोजिटर-कम-बाइण्डर-कम-मशीनमैन के सम्पूर्ण दायित्व को निभानेवाला एकमेव कर्मचारी विनायकमूर्ति है-वही, जो ट्रेडिल के पास खड़े होकर ताबड़तोड़ पाँव मार रहा है।

माहवार बीस रुपये की पूरी गारण्टी है। काम की भीड़ और मुदलियार के 'मूड' के मुताबिक चाय पीने या नाश्ता करने के लिए समय-समय पर मिलने वाली फालतू आमदनी को जोड़ लें तो तनख्वाह तीस रुपये तक पहुँच जाए।

बारह साल पहले की बात है, एक शुभ दिन पर विनायकमूर्ति ने हाथ में 'स्टिक' पकड़कर यहाँ कम्पोजिंग कार्य का श्रीगणेश किया था। उसने पहले पहल जिस सामग्री का अक्षर-योजन किया. वह थी शभ लग्नपत्रिका, हाँ, विवाह का निमन्त्रण-पत्र। उस दिन से उसने कितने ही भाग्यवानों के विवाह निमन्त्रण छाप दिये हैं। किन्तु अपनी शादी का कार्ड?...

'अजी कितने लोगों के लिए अपने इन हाथों से शादी के कार्ड छाप दिये हैं...हुँ'-यों लम्बी साँस भरनेवाले विनायकमूर्ति की उम्र फिलहाल तीस साल की है।
-इस ढाबे में मिलनेवाले छह आने का दाल-भात कब तक खाता रहूँगा?...
विनायक के हाथ ने रैक दबाया। 'पेडल' मारता पैर स्थिर हो गया। ट्रेडिल मशीन भी रुक गयी।

वहीं पास में स्याही-डब्बों के स्टैण्ड में उसकी उँगलियों ने कोई चीज टटोली। उँगली में फँसी सूंघनी की पोटली खोलकर एक चुटकी खींच ली। उसके बाद नाक पर लगी सूंघनी पोंछते हुए हाथ ने उसकी नाक पर स्याही का लेपन कर दिया।
इस बात से अनभिज्ञ विनायक ने उधर पास में सूखने के लिए रखे निमन्त्रण-पत्रों में से एक को उठाकर देखा।

'स्याही की सप्लाई एकदम बराबर तो है...मगर कौन-सी कमी रह गयी है...हाँ, नीचेवाले रोलर को बदल दें तो प्रिण्ट चकाचक चमक उठेगा...या इम्प्रेशन कम करना है...म्...इम्प्रेशन ठीक तो है!...अरे रे, यह अक्षर क्यों चपटा छप रहा है...स्याही क्यों फैल रही है?...टाइप के पीछे चेपी लगानी होगी।

तभी मुदलियार के चिल्लाने की आवाज़, "अबे, मशीन क्यों बन्द कर दी? ग्राहक अभी आने वाला ही है। समझे?"
"ठीक है। एक चवन्नी देना मालिक! सुबह नाश्ता नहीं किया। अभी आकर काम पूरा कर दूंगा।"
"जल्दी आ जा, काम बहुत ज्यादा है!" मुदलियार ने चवन्नी निकालकर मेज पर रख दी।
"अच्छा मालिक!" बदस्तूर जवाब दिया और पैसा लेकर आगे बढ़ गया।

एक दिन की बात है।

प्रेस में विनायक को छोड़कर और कोई नहीं था। उस दिन के लिए तयशुदा कार्य में दो काम बाकी थे-पहला, दो निमन्त्रण-पत्र कम्पोज करके उसका प्रूफ निकालना और दूसरा, प्रूफ-शोधन किये अभिनन्दन-पत्र में 'करेक्शन' लगाकर छापना।

'छापने के लिए कागज़ भी तो काटना होगा।' बुदबुदाते हुए जब वह ट्रेडिल में कसे हुए 'चेस' को खोल रहा था, उसके मन में एक 'छोटीसी' आशा अंकुरित हुई-बहुत ही साधारण इच्छा, आप चाहें तो बचपना भी कह सकते हैं।

चेस को खोलकर 'स्टोन' पर रखा। वह भी एक विवाह-निमन्त्रण कार्ड का ही मैटर था। विनायक ने मैटर में वर के नामवाले अक्षरों को ब्रश से पोंछा। स्याही हट जाने पर चाँदी की तरह उजले अक्षर चमक उठे। 'चिरंजीव श्रीधर'-इन अक्षरों के टाइप-दायीं से बायीं ओर-जैसा कि आइने में प्रतिबिम्बित होता है-साफ दिखाई दिये। 'चिरंजीव श्रीधर!' शूटिंग स्टिक को एक छोर पर टिकाकर मल्टी-बार से उसके ऊपर 'चटाक चटाक' दो बार वार किया; बगल में रखी तीलियों को ढीला करने के बाद 'पुंक्चर' लेकर बार्डर के पासवाले क्वाड़ों को दबाया। फिर टाइपों को धीरे से हिलाकर लाइन में गड़बड़ी आये बिना 'चिरंजीव श्रीधर' इन सात अक्षरों को सफाई से उठाकर अलग रखा।
उसके होंठों पर शरारत भरी मुस्कान रेंग उठी।
उसके हाथों ने केस से दूसरे सात अक्षरों को फटाफट चुनकर उँगलियों के बीच में रख लिया।
पट्टे ने चिरंजीव शब्द को हड़प लिया। नया अक्षर-संयोजन देखकर मन-ही-मन हँस दिया।
'चिरंजीव श्रीधर' के बदले अब 'के. विनायकमूर्ति' इन सात अक्षरों ने निमन्त्रण पत्र में जगह पा ली।

स्टोन पर पड़े 'चेस' को फिर से कसकर, दो बार उठा-पटक करके जाँच लेने के बाद ट्रेडिल में लगाया। थोड़ी देर तक उसपर स्याही लगाने के बाद एक 'वेस्ट शीट' ली और ट्रेडिल के 'बेड' पर रखकर सिकुड़न दूर करने के लिए उँगलियों से दो बार सहलाया।
कागज पर सिकुड़न हो या न हो, कागज को 'बेड' पर रखकर ट्रेडिल की लय-गति के अनुसार उसे एक बार सहलाने की उसकी आदत है।
उसके बाद बायें हाथ ने ब्रेक हटा दी। 'टंग...रटंग!' इम्प्रेशन की आवाज।

'बेड' पर पड़े कागज को उठाकर देखा। 'के. विनायकमूर्ति और सौभाग्यवती अनसूया का शुभविवाह'-इन जुमलों को पढ़कर वह खूब हँसा; हँसते-हँसते लोट-पोट हो गया।
निमन्त्रण-पत्र पर छपे माता-पिता के नाम या कुल-गोत्र इत्यादि पर उसका ध्यान बिल्कुल नहीं गया।

'अच्छा है, हाथों हाथ इसे डिस्ट्रिब्यूट कर दें' -चेस को खोलकर अच्छी तरह पोंछने के बाद मैटर निकालकर ग्येली फलक में रखते हुए 'डिस्ट्रिब्यूट' करने में तल्लीन हो गया विनायकमूर्ति।

"अबे, क्या चल रहा है! आजकल उल्टा-सीधा काम करने लग गया है, क्या बात है? अरे, किसने तुझे डिस्ट्रिब्यूट करने को कहा?...बाहर जाते हुए मैं कौन-सा काम बताके गया और तू क्या काम कर रहा है!...मैंने कहा था कार्ड का काम पूरा करने के बाद अभिनन्दन-पत्र को मशीन पर चढा ले...हाँ, वह बहुत जरूरी है." मुदलियार चिल्लाये।
"अच्छा, मालिक!" बदस्तूर जवाब देकर विनायक काम में मशगूल हो गया।
"चाहे रात हो जाए, आज उसे पूरा करना ही है!" मुदलियार का हुक्म।

घड़ी में तीन बज गये। छप गये निमन्त्रण-पत्र के मैटर को 'डिस्ट्रिब्यूट' करने का काम हो गया। अब अभिनन्दन-पत्र का काम शुरू करना है।
हाथ मुस्तैदी से काम पर लगे थे। मन अपने लिए एक विवाह-लग्नपत्रिका छपने के 'शुभ दिन' के चिन्तन में लीन था।
'चूलै में रहनेवाली दीदी से कहूँ तो अपने ही रिश्ते में कोई लड़की तय कर देगी...'
चूलै में विनायक की एक चचेरी बहन रहती है।
'हुँह...क्या लड़की का कहीं अकाल है? अरे...जीविका का ही तो अकाल है।...पहले सौ रुपये चाहिए; फिर माहवार खर्च के लिए कमअज्ञ-कम चालीस रुपये तो हों ही?...'
विनायक को एकाएक हँसी आ गयी; ठहाका मारकर एक बार हँस पड़ा।
"अब, क्या बात है रे! बावरे की तरह खुद-ब-खुद हँसता जा रहा है?" मुदलियार ने पूछा।
"आप ही देखिए न..." हँसी के बीच में ही उसने अभिनन्दनपत्र का प्रूफ उनकी ओर बढ़ा दिया।
उसे देखकर मुदलियार भी जोर से हँसने लगे।
'सांसारिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए एक जीवन-साथी का होना बहुत आवश्यक है।' इस वाक्य में सुखमय शब्द के 'सु' के स्थान पर-'दु' छप गया था-'सांसारिक जीवन को दुखमय बनाने के लिए।' मुद्राराक्षस की क्रीड़ा भी विचित्र होती है!


मुदलियार को सहसा अपनी 'हैसियत' का ज्ञान हो आया। किसी मजदूर के साथ समान रूप से खड़े होकर 'हास्य' का आस्वादन करना किसी मालिक को शोभा देता है? उनकी 'प्रतिष्ठा' ने सिर उठा लिया। "क्यों हँसे जा रहा है-फूहड़, शोहदों जैसा? चुपचाप काम कर, गधा कहीं का!"
"अच्छा मालिक" बदस्तूर जवाब। मजदूर की 'लघुता' हुकूमत के आगे नतमस्तक हो गयी।
रात के सात बज चुके हैं।

ट्रेडिल चल रही है। अभी तक अभिनन्दन-पत्र की छपाई पूरी नहीं हुई हैं। घर जाने से पहले मुदलियार ने विनायक के पास आकर काम की निगरानी करना जरूरी समझा।

उन्होंने अन्दर आकर देखा-विनायक पसीने में तर-ब-तर है।
टटक् ...टटक् ...टटक् ...टटक् ...
उसका पैर पेडल पर ताबड़तोड़ चल रहा है। कोरा कागज फीड करते और छपा कागज निकालते हुए हाथ की उँगलियाँ वाकई उड़ रही हैं।

'बेचारा बैल की तरह काम करता है' मुदलियार ने मन-ही-मन कहा। "ले, ये पैसे रात के खाने के लिए रख ले...और यह रही चाभी, ताला लगाकर आना!" कहते हुए उसके सामने चाभी के साथ अठन्नी रख दी।

मालिक के मन को पढ़ने में विनायक को वाकई महारत हासिल है।
"मालिक...!" उसने दाँत निपोर दिये।
"क्या है! बोल, और क्या चाहिए?" मुदलियार मुस्कराये।
"इतवार को मैं अपनी दीदी के यहाँ गया था। कहती थी, उसने एक लड़की देख रखी है..."
इसके आगे बोली नहीं निकली। कारण यह नहीं था, कि सरासर झूठ बोल रहा था। उसे शरम आ गयी थी।
"अरे रे...शादी की बात कर रहा है...अच्छी बात है बेटे! गाजेबाजे के साथ करा देंगे।" मुदलियार ने मुदित भाव से कहा।
"मालिक...उसके लिए सौ रुपये की पेशगी..."
"चिन्ता काहे करता है ?...वह सब हो जाएगा। तू पहले बात पक्की कर ले।" मुदलियार से इतना सुनना था कि विनायक फूला न समाया।

बाहर निकलते हुए मुदलियार ने अपने-आपसे कहा-'पढे की उम्र हो गयी...जब हमारे पास आया अठारह साल का छोकरा था...हमारे सिवा इसका अपना कौन है...शादी में कोई कसर नहीं होनी चाहिए।'
प्रेस में ट्रेडिल चल रही है।
टक् ...टक् ...टटक् ...टटक्...टटक्...

अचानक यह क्या हो गया? विनायक की जाँघ के ऊपर, उदर के नीचे, अंतड़ियों में मरोड़...ओफ दर्द हो रहा है। लगता है अंतड़ियाँ घूम रही हैं। अरे रे, जान निकल रही है।
'आ...ह' का चीत्कार निकला। पैर खुद-ब-खुद पेडल से हट गया।
पैर के अचानक हट जाने से तेज गति से चल रहे पेडल में धड़धड़ का कम्पन...फिर वह रुक गया।

विनायक का दम घुटने लगा। केस पर झुककर दाँत भींचते हुए उसने पेट को पकड़ लिया। सीने के अन्दर से कोई चीज सरकते हुए ऊपर गले में आकर अटक गयी। साँस लेने में दिक्कत...धीरे-धीरे सरकते हुए उसने मटके से एक गिलास पानी लेकर पिया।
दर्द कम हो गया...लेकिन गया नहीं।
बड़ी मुश्किल से-दाँत भींचते और साँस रोकते हुए-रुक रुककर जैसे तैसे अभिनन्दन-पत्र की छपाई का काम पूरा कर डाला।

ट्रेडिल से चेस उतारने तक सब्र रखना दुश्वार हो गया। उसे वैसे ही छोड़कर दरवाजे पर ताला लगाने के बाद चल पडा...नहीं, लम्बे डग भरने लगा। पेट के अन्दर कोई अंग स्थानच्युत हो गया, अपनी जगह से फिसल गया। लगता है, वह और किसी अंग की जगह पड़ा हुआ है, किसी और का मार्ग रोके हुए है।
"ओ...माँ!" दर्द बर्दाश्त के बाहर था।
पता नहीं, विनायक पासवाले डाक्टर के घर तक कैसे पहुँचा! द्वार पर जाकर गिर पड़ा।
पता चला, विनायक को हर्निया हो गया है! डॉक्टर और मुदलियार ने उसे सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया।

उसका शरीर डॉक्टरी पढ़नेवाले छात्रों के लिए शोध-खोज का विषय बन गया। डॉक्टरों ने उसके रोग का नहीं, बल्कि नयी-नयी युक्तियों और प्रणालियों का उसपर प्रयोग करके देखा।
बीमारी...दर्द...अपमान...!

दिन बीतते गये। अन्त में एक शुभ दिन की शुभ घड़ी में उसका आपरेशन हुआ। उसके बाद बुखार चढ़ गया। आखिरकार एक महीने के बाद किसी तरह छुट्टी मिली।
अस्पताल से बाहर निकलने से पहले डॉक्टर ने उसे एक सलाह दी। वह डॉक्टरी परामर्श दिल के अन्दर चुपके से एक बम बनकर फूट पड़ा।
डाक्टर ने कहा था-"तुम्हें शादी नहीं करनी चाहिए। अव्वल तो ऐसी इच्छा उठेगी ही नहीं, फिर भी दूसरों के दबाव में आकर कहीं शादी न कर लेना।"
उसके बाद उसके कान ने कुछ नहीं सुना।
विनायक फिर से काम पर लग गया। अँधेरी गुफा सरीखे छापाखाने में घसकर उसने ट्रेडिल देखी। केस देखा और स्टिक देखा-जिनसे उसका एक महीने का वियोग हो गया था।
पता नहीं, क्या सूझ गया उसे...उसने ट्रेडिल को गले लगाकर लम्बी साँस भरी।

"देखो विनायक, वह निमन्त्रण-पत्र चेस पर कसा हुआ है। उसे मशीन पर चढ़ा लेना। तुम्हारे बगैर इधर कोई भी काम ठीक से नहीं हुआ रे...। जितने छोकरे आये, सारे बेकार निकले। तुम्हारी तनख्वाह अगले महीने से दस रुपये बढ़ा दी है। अच्छा! तुमने कहा था न, शादी के लिए पेशगी चाहिए। पन्द्रह तारीख के बाद ले लेना...क्यों रे खुश है न?" मुदलियार ने आँखें मटकाते हुए पूछा।
विनायक ने सिर दूसरी तरफ फेर लिया। अनजाने में ही दोनों हाथों ने मुँह को ढाँप लिया। पूरे शरीर में कम्पन...
क्या वह रो रहा है?...
"पट्ठा...बड़ा लजा रहा है।" मुदलियार हँस पड़े।

वह ट्रेडिल के पास गया। किसी के द्वारा कम्पोज़ किये किसी ऐरेगैरे के विवाह-निमन्त्रण को मन में किसी राग-द्वेष के बिना यन्त्रवत् मशीन पर चढ़ाने के बाद, कागज़ स्टैण्ड पर रखकर स्याही लगाने लगा।
...टटक्..टटक्..
उसके पैर ने पेडल मारा।
"टंग्...टटंग्...!"
-इम्प्रेशन!
मुद्रित होकर आया एक निमन्त्रण-पत्र ।
मशीन रोककर, केसों के बीच में तह करके रखा हुआ एक कागज उठाकर देखा-
के. विनायकमूर्ति और सौभाग्यवती अनसूया का शुभविवाह...
-हाँ, वही 'वेस्ट शीट'!
उस दिन जिस कागज़ ने उसे हँसकर लोट-पोट होने को विवश किया था, वही नकली निमन्त्रण-पत्र...
उस कागज़ पर उसकी आँखों से निकले आँसू की दो खारी गर्म बूंदें टपककर छितर पड़ीं।
"क्यों रे विनायक, मशीन क्यों रुक गयी...वह आनेवाला है न, उससे पहले यह काम पूरा हो जाना चाहिए!" मुदलियार ने कहा।
"अच्छा मालिक!"... टटक्..टटक्...टटक्...टटक्...
-हाँ, दोनों ट्रेडिल मशीनें गतिशील हो गयीं।

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