त्रास की कथा (ब्रिटिश कहानी) : थॉमस हुड
Traas Ki Katha (British Story) : Thomas Hood
यह कहानी मैंने एक प्रसिद्ध वायुयान चालक के मुँह से सुनी थी और लगभग उन्हीं शब्दों में है।
वोक्सहाल से मेरी उड़ानों में से यह एक थी और मेरी इस साहसिक हवाई-यात्रा में मेवर नामक भद्र पुरुष ने मेरे साथी के रूप में अपने आपको लगा लिया था, परंतु जब समय आया तो वह साहस खो बैठा और वायुयान की खाली सीट के लिए निरर्थक ही किसी अन्य व्यक्ति को ढूँढ़ने लगा। संभवतः अंतिम क्षणों की प्रतीक्षा के बाद और बाग में लोगों को अधीर होते देखकर मैंने अकेले ही उड़ान की तैयारी कर ली। अंतिम रस्सी, जिसने मुझे पृथ्वी से जोड़ रखा था, हटाई जानेवाली थी। तभी एकाएक एक विचित्र भद्र पुरुष धक्का देकर आगे आया और मेरे साथ बादलों में जाने के लिए अपने आपको पेश किया। उसने अपनी प्रार्थना पर इतनी तत्परता से जोर दिया कि मैंने उसकी कुलीनता के बारे में कुछ प्रश्न पूछकर अपने आपको संतुष्ट कर लिया और उससे वचन ले लिया कि वह मेरे हर आदेश का पालन करेगा। मैंने अनुपस्थित व्यक्ति का स्थान उसे देने की स्वीकृति दे दी। इसपर वह उत्सुकता और शीघ्रता से कदम भरता हुआ मशीन पर चढ़ गया। दूसरे ही पल हम वृक्षों से ऊपर उठ रहे थे और अपने साथी से न्याय करते हुए मुझे यह कहना होगा कि किसी भी व्यक्ति ने अपनी पहली उड़ान में इतनी शांति और चित्त की सावधानी का परिचय नहीं दिया था। मशीन का एकाएक ऊपर उठना, स्थिति का कौतुक, यात्रा के वास्तविक और अनुमानित खतरे तथा देखनेवालों को उत्साहित करना आदि घबराहट की शीघ्रता का कारण बन सकते हैं अथवा किसी-न-किसी तरह साहसी व्यक्तियों में भी उत्तेजना उत्पन्न कर सकते हैं। ऐसी अवस्था में वह विचित्र आदमी शांत और सुखी था जैसे वह अपने घर के पुस्तकालय की कुरसी पर बैठा हो। एक पक्षी को भी उसके मूल तत्त्वों में इतने आराम में नहीं देखा गया। फिर भी उसने गंभीरता से कसम खाकर मुझे बताया कि इससे पहले वह अपने जीवन में कभी भी ऊपर नहीं गया था। इसके विपरीत पृथ्वी से इतनी ऊँचाई पर किसी प्रकार का भय दिखाने की बजाय उसने भरपूर आनंद लिया। मैंने अपने रेत के थैले को खाली किया और एक या दो बार उसने भी अन्य थैलों को खाली करने के लिए मुझे कहा। इतने में हवा, जो बहुत हलकी थी, ने हमें नरमी से उत्तर-पूरब की दिशा में मोड़ दिया और दिन साफ तथा चमकीला होने के कारण हमने बड़े-बड़े नगरों और आस-पास के देहातों को ऊपर से देखकर भरपूर आनंद का अनुभव किया। जब मैंने उसे कई वस्तुओं के बारे में बताया, जिनके ऊपर से हम उड़े थे, तो मेरे साथी ने उनमें काफी रुचि ली; तब तक मैंने दैवयोग से देखा कि हमारा गुब्बारा ठीक होक्सटन के ऊपर था। मेरे साथी ने पहली बार अपनी थोड़ी व्याकुलता का भंडा फोड़ा और मुझसे उद्वेग से पूछा, ‘‘पृथ्वी से इतनी ऊँचाई पर भी क्या कोई उसे पहचान सकता है।’’
मैंने उसे बताया—‘‘यह बिल्कुल असंभव है।’’
फिर भी वह बहुत व्याकुल होता रहा और बार-बार दुहराता रहा—‘‘मुझे लगता है कि वे देख नहीं रहे हैं।’’ और मुझसे बार-बार प्रार्थना करता रहा कि मैं रेत के और थैले गिरा दूँ। फिर पहली बार मेरे मन में विचार आया कि मेरे साथ उड़ने की उसकी पेशकश मात्र उसकी क्षणिक चपलता थी और वह डरता था कि उसके अपने परिवार का कोई सदस्य उसे इतनी संकटपूर्ण ऊँचाई पर देख न ले। इसलिए मैंने उससे पूछा कि क्या वह होक्सटन में रहता है तो इसका उत्तर उसने ‘हाँ’ में दिया और बाकी रेत के थैले खाली करने की मुझसे याचना की।
गुब्बारे की ऊँचाई, हवा की दिशा और सागर-तट की निकटता का ध्यान रखते हुए इसका प्रश्न ही नहीं उठता था, परंतु मेरा साथी इन कारणों के प्रति नासमझ था। वह और ऊँचा जाने के लिए जोर देता था। रेत के और थैले खाली करने से मेरे इनकार पर उसने जान-बूझकर अपनी टोपी, कोट एवं वास्कट उतारे और उन्हें गुब्बारे के बाहर फेंक दिया।
‘‘वाह-वाह, अब यह हलका हो गया है!’’ वह चिल्लाया—‘‘परंतु यह काफी नहीं है।’’ और उसने अपने गले में बँधे कपड़े को ढीला करना शुरू कर दिया।
‘‘निरर्थक।’’ मैंने कहा, ‘‘मेरे अच्छे साथी, इतनी ऊँचाई पर कोई भी तुम्हें पहचान नहीं सकता, दूरबीन से भी नहीं।’’
‘‘इतने आश्वस्त मत हो।’’ उसने प्रत्युत्तर दिया—‘‘माईलज में उनकी दृष्टि बहुत तेज है।’’
‘‘कहाँ पर?’’
‘‘माईलज के मैड हाउस पर!’’
परमात्मा भला करे, मेरे अंदर सच्चाई एकदम कौंध गई। मैं पृथ्वी से लगभग एक मील ऊँचे गुब्बारे की दुर्बल गाड़ी में एक पागल के साथ बैठा था। एक मिनट के लिए स्थिति के त्रास ने मेरे होश उड़ा दिए। रोग से पीडि़त, कल्पनाशक्ति की आकस्मिक तरंग, नश्वर क्रोध और थोड़ा सा संघर्ष भी हम दोनों को एक क्षण की चेतावनी पर अनंतकाल में भेज सकते थे। इतने समय में वह उन्मत्त पागल अपना शोर दोहराता रहा, ‘‘ऊँचे, ऊँचे और ऊँचे!’’ और उसने अपने बाकी कपड़े भी आसानी से उतारकर हवा में फेंक दिए। इन सब कार्यकलापों के बीच प्रतिवाद की व्यर्थता अथवा प्राणनाशक क्रोध को उत्पन्न करने की आशंका ने मुझे चुप रखा; परंतु मेरे त्रास का अनुमान लगाइए, जब उसने अपनी जुराबें बाहर फेंककर कहा, ‘‘हम अभी दस हजार मील ऊपर नहीं पहुँचे, हममें से किसी एक को बाहर फेंकना पड़ेगा।’’
यहाँ अपनी भावनाओं को व्यक्त करना असंभव है। केवल मेरी स्थिति के भय के कारण नहीं, अपितु मुझे व्याकुल करने के नए षड्यंत्र के कारण, क्योंकि यह वास्तव में कल्पना की केवल उड़ान नहीं थी, न ही किसी निरर्थक दुस्स्वप्न जैसी निराशा में अथवा अनाश्रित स्थिति में डाला था। यह भयानक, अति भयानक! शब्द, याचनाएँ तथा प्रतिवाद—सब व्यर्थ गए और प्रतिकार का अर्थ था विनाश। इससे अच्छा था कि मैं निस्शस्त्र अमरीका के मरुस्थल में किसी जंगली इंडियन की दया पर होता। अब विरोध में हाथ उठाने का साहस न करते हुए मैंने देखा कि पागल ने जान-बूझकर पहला और फिर दूसरा रेत का थैला गुब्बारे से बाहर फेंका। गुब्बारा शीघ्रता से उसी अनुपात से ऊपर उठता गया। ऊँचे, और ऊँचे! वह उड़ा और इतनी ऊँचाई पर पहुँचा, जिसका विचार करने का साहस मैंने कभी नहीं किया था; मेरी आँखों से पृथ्वी ओझल हो गई और हमारे नीचे केवल बड़े-बड़े बादल घुमड़ रहे थे। संसार समाप्त हो गया। मैंने हमेशा के लिए ऐसा महसूस किया। पागल अभी भी हमारी उड़ान से असंतुष्ट था और बार-बार वही रट लगाए जा रहा था।
‘‘क्या तुम्हारे बीवी-बच्चे हैं?’’ उसने एकाएक पूछा।
स्वाभाविक सहज ज्ञान से प्रेरित होकर और सच्चाई से क्षमायोग्य अतिक्रम करके मैंने उत्तर दिया कि मैं विवाहित हूँ और मेरे चौदह बच्चे हैं, जो अपनी रोटी के लिए मुझ पर निर्भर हैं।
‘‘हा, हा, हा!’’ अपनी चमकती आँखों के साथ पागल जैसा हँसा। इस हँसी ने मेरी हड्डियों के गूदे को सुन्न कर दिया। ‘‘मेरी तीन सौ पत्नियाँ हैं और पाँच हजार बच्चे; और यदि दो आदमियों को ले जाने से गुब्बारा इतना भारी न होता तो मैं कभी का उनके पास समय पर पहुँच गया होता।’’
‘‘और वे सब कहाँ रहते हैं?’’ जो पहला प्रश्न मुझे सूझा, उससे मैंने पूछा।
‘‘चाँद पर।’’ पागल ने उत्तर दिया और अब जब मैंने गाड़ी को हलका कर दिया है, हम जल्दी वहाँ पहुँच जाएँगे।’’
मैंने आगे कुछ नहीं सुना; क्योंकि उसने एकाएक मेरे पास आकर अपनी बाँहें मेरे शरीर के इर्द-गिर्द डाल दीं।
अनुवाद : भद्रसेन पुरी