टूटे कपों का कोरस (कहानी) : प्रकाश मनु

Toote Kapon Ka Course (Hindi Story) : Prakash Manu

1

आज सुबह से ही सुमि के पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। खुशी की एक हिलोर-सी उसे उड़ाए लिए जा रही है। कमरा करीने से व्यवस्थित करते हुए अचानक उसके होंठों पर एक अस्फुट मुसकान आ गई है।

आज पहली बार अमित भैया उसके घर आ आ रहे हैं। दो दिन पहले ही उनकी चिट्ठी आई थी, जिसमें उन्होंने अपने दिल्ली के टूर की सूचना दी थी। फैक्टरी के किसी काम से वे कुछ दिनों से दिल्ली में ही रुके हुए हैं। वहीं से गुडग़ाँव आ जाएँगे।...बस थोड़ी देर ही रुकेंगे। सुमि और देवेश से मिलकर लौट जाएँगे।

चिट्ठी के औपचारिक अक्षरों ने उसे कुछ धक्का-सा पहुँचाया।...और एकाएक पुराने दिनों में लौट गई वह।

उसे याद आया, शादी से पहले अमित भैया कितना प्यार करते थे उसे। हर वक्त, उनके होठों पर सुमि का नाम रहता था, ‘सुमि, यह लाओ! सुमि, वह बनाकर लाओ! सुमि, जरा अपनी पेंटिग्स तो दिखाना। भई, पूरी कलाकार हो गई तुम तो, देखना एक दिन...!’

पर शादी के बाद इन सात-साठ महीनों में ही क्या कुछ नहीं बदल गया। भैया ही नहीं, माँ और पिता जी के लिए भी अब वह पहले वाली सुमि नहीं रही। सबकी निगाहें एकाएक बदल गईं। और जहाँ प्यार था, वहाँ संदेह की काली, सर्पिल घटाएँ जैसे फुफकारने लगी थीं। संदेह की एक जाली के नीचे सब धुँधला गया। जैसे अब वह इस घर की बेटी न होकर कोई और हो गई है, जिससे बस एक तटस्थ, औपचारिकता का निर्वाह कर दिया जाता है। जैसे दूर-दराज के रिश्तेदारों से...या अचानक मिल गए परिचितों, अपरिचितों से।...और बस!

2

तो भी...भैया आ रहे हैं, और पहली बार आ रहे हैं। क्या भैया का आना इस बात का गवाह नहीं कि उन्होंने उसे माफ कर दिया है और उसके फैसले को पहली बार मन से स्वीकृति दी है।

भैया के आने पर वह क्या-क्या बनाए, किस तरह उत्साह और उमंगों से उनका स्वागत करे? भले ही उसकी आर्थिक हालत अच्छी नहीं है, भले ही, लेकिन...! हर बार प्रश्न के साथ मन में एक नई उत्फुल्ल लहर। लहर पर लहर। यही सब सोचकर सुबह से वह घर के भीतर और बाहर बीसियों चक्कर लगा चुकी है। उसे लगा कि वह पहले वाली सुमि होती जा रही है।

सुबह देवेश से कहकर उसने कुछ जरूरी सामान मँगवा लिया था, “देव, भैया आ रहे हैं, सो कुछ तो खास बनना ही चाहिए। दो-तीन तरह की सब्जियाँ ले आना। कुछ सेब और केले भी, फ्रूट चाट बना लूँगी। और सुनो, कोई अच्छी सी मिठाई भी ले आना! भैया कलाकंद के शौकीन...!”

देवेश ने एक चुप नजर उसे देखा था, कुछ सोचते हुए। फिर मुसकराते हुए चला गया था।

फल, सब्जियाँ और मीठा...! गुलाबजामुन और कलाकंद ही नहीं, बजाज स्वीट्स से ताजा बनी इमरतियाँ भी। जितना कुछ उसने कहा था, देवेश उससे ज्यादा ही ले आया था। तो भी उस टोकरी को देखकर कहीं न कहीं एक खालीपन सा उसकी आँखों में आ गया था। क्या भैया ये पसंद करेंगे? भैया को मटर-पनीर की सब्जी बहुत पसंद है, पर कैसे वह देवेश को मटर और पनीर खरीदकर लाने को कहती? मटर आजकल सत्तर-अस्सी रुपए किलो से कम नहीं हैं और पनीर खरीदना तो और भी मुश्किल है महीने के इस आखिरी हफ्ते में। आखिर देवेश की तनख्वाह ही कितनी है, कुल आठ हजार रुपए महीना।

कुल आठ हजार...!

खूब फाइव स्टार सुविधाओं और शान-शौकत से रहने के आदी उसके भैया यहाँ ढेर से अभावों और महज आठ हजार रुपए की बँधी-बँधाई तनख्वाह के बीच चल रही किसी आँखमिचौनी जैसे उसकी गृहस्थी को देखकर कैसा महसूस करेंगे? सोचकर अज्ञात संकोच से वह जड़-सी हो गई थी।

हठात इन ख्यालों से पिंड छुड़ाकर उसने कमरे की सफाई कर लेनी चाही। अलमारियों को झाड़-पोंछकर अखबार बिछा दिए। सामने की अलमारी में उसने कपड़े ठीक से तह करके रख दिए, ताकि बेढंगे न लगें। बीच में अपना और देवेश का फोटो रखकर उसने घर की दूसरी चीजें भी अलमारी में ढंग से जमा दीं। अलमारी में ऊपर वाले खाने में देवेश की किताबें और पत्रिकाएँ करीने से लगा दीं।

कमरे के एक कोने में ही बनी रसोई को भी खूब चमकाकर साफ और व्यवस्थित कर लिया। फिर उसकी निगाह कमरे के उस कोने की ओर गई, जहाँ कुछ दवा की शीशियाँ, डब्बे, अखबार और कपड़े की छोटी-छोटी गठरियाँ पड़ी थीं। उनमें घर के रोजमर्रा के इस्तेमाल की कुछ चीजें थीं। इन्हें रखने के लिए कमरे में कोई और अलमारी नहीं थी, इसलिए ये चीजें एक कोने में पड़ी रहती थीं। उसने झटपट वे डब्बे वगैरह उठाकर चारपाई के नीचे सरका दिए। फिर उस जगह को कपड़े से झाड़-पोंछ दिया।

अब उसने कमरे पर एक आलोचनात्मक नजर डाली। कमरा पहले की तुलना में वाकई कुछ अच्छा लगने लगा था। फिर भी कुल मिलाकर कितना साधारण था यह। दरिद्रता की छाया जैसे छिप नहीं रही थी। जगह-जगह से अभाव और गरीबी की मैली, बदरंग रेखाएँ झाँक रही थीं।

सामने मैले, जर्जर स्टूल को देखकर उसका जी खराब हो आया। उसने जल्दी से वह स्टूल कोने में सरकाया और पड़ोस की रमा जी से उनकी सनमाइका वाली महँगी मेज माँग लाई। अभी तक वह स्टूल से ही जैसे-तैसे काम चला रही थी। देवेश ने कहा था कि अगली तनख्वाह मिलते ही वह एक अच्छी सी मेज लेकर आएगा। पर भैया के सामने वह यह हिलता हुआ, खड़खड़िया स्टूल भला कैसे रख सकती थी? कहीं उनकी तीखी, व्यंग्यात्मक नजरें...!

3

अचानक उसके सामने दरिद्रता की इन परतों को फाड़ता हुआ किसी चकाचौंध की तरह उस घर का नक्शा आ गया जिसे शादी से पहले वह गर्वपूर्वक ‘अपना घर’ कहा करती थी, और जहाँ की शानशौकत और सुविधाओं की वह अभ्यस्त हो चुकी थी। उसके पापा ने आगरा के नई राजामंडी इलाके में चार कमरों वाली खूबसूरत कोठी खरीदी थी, तब आसपास कोई मकान उतना आलीशान नहीं था। और फिर महँगा और बड़ा वाला फ्रिज, शानदार टेलीविजन सेट, कंटेसा कार...सभी चीजें एक के बाद एक आती गई थीं। पापा का व्यापार तेजी से बढ़ता जा रहा था, इसलिए घर में किसी चीज की कमी नहीं थी।

उस आलीशान फ्लैट की तुलना में उसका यह घर, बल्कि एक छोटा कमरा जिसे वह घर कहती है, माचिस की अधजली, बेकार तीलियों की तरह लगता था। हालाँकि उसने देव से कभी किसी दुख, किसी अभाव की शिकायत नहीं की थी। पर क्या वह इस घर और इन हालात को कभी पूरे मन से स्वीकार कर सकी थी?

उसे लगा कि वह ऐसे ही सोचती रही तो उसकी आँखों में आँसू छलछला आएँगे। नहीं, आँसू नहीं आने चाहिए। ‘अच्छा बुरा जैसा भी है, आखिर यह घर मेरा है।’ उसने खुद को समझाने की एक और कोशिश की, ‘और फिर यहाँ प्यार है, देवेश का प्यार, जो मेरे लिए सबसे ज्यादा कीमती है। मेरे और देवेश के दिल में जो प्यार की इमारत है, जो सपना है, उसके आगे ये अभाव कुछ नहीं हैं, कुछ भी नहीं! फिर खुद मैंने ही तो देवेश को चुना है। उसकी फक्कड़ मस्ती और अभावों के बीच खिलखिलाते प्यार को...!’

उसे याद आया, जब उसने पहली बार कॉलेज के एनुअल फंक्शन में देवेश को कविता-पाठ करते देखा था, तो वह किस कदर सम्मोहित-सी हो उठी थी। उसके उलझे हुए घुँघराले बालों और गहरी उदास आँखों के समंदर में वह खो गई थी। हालाँकि देवेश की कविता कतई रोमांटिक नहीं थी। उसमें आज के वक्त की कड़वी सच्चाइयाँ थीं जिन्हें कहना खतरनाक था, तकलीफदेह भी।

जितनी देर देवेश कविता पढ़ता रहा था, वह उसके होठों से झरने वाले शब्दों और उन शब्दों के अर्थ से बेपरवाह भावनाओं की नील झील में डूबती-इतराती रही थी। पता नहीं क्यों उसे लगा था, ‘काश, मैं इन आँखों की उदासी दूर कर पाती और इनमें ढेर सारी खुशियाँ भर देती!’

कार्यक्रम के बाद वह अपनी प्यारी सहेली सुहासिनी के साथ देवेश के पास गई थी। पर उसके पास आकर कुछ अचकचा-सी गई थी। तब सुहासिनी ने ही हँसते हुए ‘अब बोल न, क्या कहना चाहती है!’ कहकर उसे उबारा था। हालाँकि थोड़ी देर के लिए शर्म से उसके कानों की लवें तक लाल हो गई थीं। हलके-से संकोच के साथ उसने अटपटे ढंग से देवेश की कविता और कविता पढ़ने के ढंग की तारीफ की थी। फिर कहा, “क्लास में आपको अक्सर शांत, गुमसुम, कुछ सोचते हुए से देखा था। लगता था कि आप जरूर कुछ लिखते होंगे। पर आप इतना अच्छा लिखते हैं और इतना अच्छा पढ़ते हैं कि...”

आगे कुछ कहना उसके के लिए संभव नहीं था। और शायद उसके गालों पर तेजी से फैलती लालिमा ने आगे की बात पूरी की थी।

पर देवेश पर इस तारीफ का शायद कोई खास असर नहीं हुआ था। हाँ, जवाब में उसने एक भरी-भरी-सी, चुप्पा निगाह उस पर डाली थी। कितनी सादा, कितनी अर्थपूर्ण और स्नेहिल थी वह निगाह। कहीं कोई बनावट नहीं, काई दुराव नहीं। और जो शायद कह रही थी, ‘तो क्या तुम मेरा साथ दोगी जिंदगी भर के लिए? मन और संपूर्ण व्यक्तित्व की माँग पूरी करने के लिए, सहयात्री बनकर! तैयार हो? या फिर केवल ऊपर-ऊपर के ही शब्द?...लिप सर्विस!’

और देवेश का यही बेबनाव रूप उसे उसके करीब ले आया था। इतने करीब जहाँ आकर शायद प्यार के साथ-साथ जीवन के नए-नए सूक्ष्मतर अर्थ खुलने, जगमगाने लगते हैं। नई से नई छवियाँ।

एम.ए. करने के बाद दोनों ने एक साथ रिसर्च का काम शुरू कर दिया था। दोनों के शोध-प्रबंध का विषय भी आधुनिक साहित्य और उसके सामने दरपेश चुनौतियों को ही लेकर था। इसलिए दोनों अपने-अपने विषयों पर आपस में खूब विचार-विमर्श करते थे। और हर बार उनकी बात यहाँ आकर खत्म होती कि आज की कविता-कहानियाँ हों या उपन्यास, वे आम आदमी की जिंदगी के कितने पास आ गए हैं। यह इस सदी का शायद सबसे बड़ा आश्चर्य है!

कुछ दिनों बाद देवेश को आर्थिक तंगी के कारण एक स्कूल में नौकरी कर लेनी पड़ी थी। इसके बावजूद वे पहले की तरह मिलते रहे थे। देवेश स्कूल से यूनिवर्सिटी आता और यूनिवर्सिटी के खुले लान में वे साथ-साथ चाय पीते हुए बातें किया करते थे।

कितना कुछ उनके पास कहने के लिए था जिसे कहकर वे एक अजानी तृप्ति से भर उठते थे। पर जितना वे कहते, उससे ज्यादा चाय के प्याले और निगाहों की खामोशी के बीच छूट जाता था। इस बीच हर तरह का फासला खत्म करके उनके मन मिल जाने के लिए कसमसा उठते थे। पर वे विवश थे और इंतजार कर रहे थे कि रिसर्च खत्म होने के बाद कहीं कोई अच्छी नौकरी मिले। फिर वे अपना एक छोटा-सा घर बना लें, अपने सपनों को खूबसूरत आकार दें।

पर एक दिन सुमि आते ही फूट-फूटकर रो पड़ी थी, “देवेश, ऐसे कब तक चलेगा? अब और बर्दाश्त नहीं होता!”

“क्यों, क्या हुआ?” देवेश हक्का-बक्का रह गया था।

“देव, घर वाले मेरी शादी की बात चला रहे हैं। अभी तक मैं इनकार करती रही हूँ, पर अब...! अब करीब-करीब तय हो गया है। परसों वे लोग मुझे देखने आ रहे हैं। लड़का इंजीनियर है। घर वाले कहते हैं कि इससे अच्छा लड़का नहीं मिल पाएगा, शादी इसी से करनी है!’

देवेश यह सुनकर किसी पत्थर की मूर्ति की तरह निर्वाक, जड़-सा रह गया था। वह क्या कहे, क्या नहीं, समझ नहीं पा रहा था।

“तो क्या तुम्हें भी वह...?” उसने पता नहीं क्या कहना चाहा था।

पर सुमि सब समझ गई थी, “क्या बात करते हो, देवेश? मेरा तो विवाह बहुत पहले हो चुका है—तुमसे। जब सिद्धि सरोवर के जल को साक्षी मानकर हमने साथ-साथ शपथ खाई थी, कभी अलग न होने की। उस जगह अब कोई और नहीं आ सकता। मैं मर जाऊँगी, पर यह नहीं होगा—कभी नहीं!” वह देवेश के कंधों पर सिर रखकर सिसकने लगी थी।

आखिर दोनों ने कोर्ट मैरिज का फैसला किया था। यह एक छोटी-मोटी प्रलय थी। भारी विरोध और उथल-पुथल। याद करो तो सिर अब भी चकराने लगता है। दोनों के घर वालों ने भी हारकर स्वीकृति दे दी थी, पर आधे-अधूरे मन से।

यों मुश्किल सुमि के घर वालों की तरफ से ज्यादा थी। खासकर पापा तो बुरी तरह नाराज थे। तब उसने पहली बार पापा और अमित भैया की आँखों में नागफनी के काँटे देखे थे, जिन्होंने जैसे अब तक के सारे स्नेह-सूत्रों को छलनी कर दिया था।

और फिर वह एक छोटे, बहुत छोटे-से किराए के कमरे में देवेश के साथ रहने लगी थी। देवेश स्कूल से आकर कागजों, किताबों में डूब जाता। रिसर्च के साथ-साथ उसका अपना लेखन भी चल रहा था। वह ग्लोबलाइजेशन के इस जमाने में बेरोजगारी के धक्के खा रहे आज के एक पढ़े-लिखे युवक को केंद्र में रखकर उपन्यास लिख रहा था। बहुत कुछ आत्मकथात्मक उपन्यास, पर उसमें पूरी युवा पीढ़ी का दर्द था। सुमि के शोध-कार्य में वह अपनी ओर से भरसक मदद करने की कोशिश करता था। दोनों रात देर-देर तक रिसर्च के अपने-अपने टॉपिक्स को लेकर डिस्कस करते। और इस बातचीत में काफी अच्छी चीजें सूझतीं।

लिहाजा शादी के बाद के ये दिन उनके लिए बेफिक्री या मौज-मस्ती के नहीं, हाड़-तोड़ मेहनत और कठिन संघर्ष के दिन थे। पर्वत की खड़ी चढ़ाई जैसे। देवेश अपनी मेहनत से अपना घर-संसार बनाना, सँवारना चाहता था।...एक छोटे-से साफ-सुथरे घर से बड़ा उसका कोई पारिवारिक सपना नहीं था और बड़ा आदमी हो जाने की कोई महत्वाकांक्षा तो कतई नहीं। इसलिए किसी की सिफारिश से कोई बड़ी नौकरी लेने की बात उसने कभी सोची तक नहीं।

अपने उस छोटे से घर-संसार में वे दोनों खुश थे। पर कहीं न कहीं, किसी न किसी क्षण वह जैसे उससे अलग या तटस्थ होकर सोचने लगती तो एक अनजाना तनाव उसमें भर जाता। और वह झल्लाकर जैसे अपने आपसे पूछती—क्यों इस घर को वह पूरी तरह अपना घर नहीं मान पा रही है?

उसने कई बार सोचा कि देवेश जिस तरह अभावों को हँसकर झेल जाता है, वह नहीं कर पाती। शायद उसके मन में अब भी उस पुराने आलीशान और नौकरों-चाकरों वाले घर के संस्कार बाकी हैं, जो आड़े आ जाते हैं। देवेश हर पल एक दूसरी ही दुनिया में खोया रहता था। यह नए सपनों और विचारों की दुनिया थी। यह नहीं कि वह इस दुनिया से अपरिचित हो, पर वह उसमें इस कदर खो नहीं पाती थी। सच तो यह है कि बचपन से लेकर बड़े होने तक उसने अभावों को कभी जाना ही नहीं। और इसलिए जब उसने देवेश से ‘साथ निभाने’ का वादा किया था, तो शादी के बाद अचानक आने वाले इन अभावों की उसने ठीक से कल्पना ही नहीं की थी।

यहाँ तक कि घर में एक छोटा-सा कलर टीवी भी नहीं था और उसका मन कई बार मसोसता। पर देवेश अपने छोटे-से ट्रांजिस्टर के साथ खुश था। कभी सुमि को उदास देखता तो कह उठता, “जरा देखो तो, हमारा छोटा-सा ट्रांजिस्टर कहीं ज्यादा खुशी दे सकता है। कम से कम उलटे-सीधे और भौंडे धारावाहिक देखने से तो बचे।”

उसके घर में हर काम के लिए अलग-अलग नौकर थे। कार, टेलीविजन, फ्रिज, कूलर, आधुनिकता की किसी भी सुविधा से वह कभी वंचित नहीं रही। यहाँ तक कि खुद सब्जी लाने की बात भी कभी उसके घर में सोची ही नहीं जा सकती थी। पर यहाँ तो सब्जी-दाल ही नहीं, आटा तक खुद पिसवाकर लाना पड़ता था।

यहाँ तक कि एक बार खाना बनाते-बनाते कुकिंग गैस खत्म हो जाने पर वह खुद उसे लेने गई। और कोई तीन-चार मील दूर गैस एजेंसी ‘आनंद फ्लेप्स’ से रिक्शे पर सिलेंडर को लाने-ले जाने के झंझट और शर्म से वह पानी-पानी-सी हो गई। फिर महँगाई इतनी अधिक थी कि देवेश की थोड़ी-सी तनख्वाह घर की जरूरतों के सामने मजाक जैसी लगती थी। अभाव मुँह खोले खड़े थे और उनका मुँह चौड़ा होता जा रहा था। और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसे में वह करे क्या?

यों उसे देवेश से कोई शिकायत नहीं थी। देवेश ने कभी उसे सुख-सुविधाओं का सब्जबाग नहीं दिखाया, बल्कि वह हर बार उसे समझाता रहा था कि अपने आपको अच्छी तरह तोलकर, परखकर देख लो। मेरे साथ रहने से अभाव और संघर्ष ही साथी होंगे, दुनियावी सुख-सुविधाएँ नहीं।...शायद कभी नहीं।

और देवेश के प्यार में उसने एक क्षण के लिए भी कहीं कोई विचलन या कमी महसूस नहीं की थी। वह आज भी वैसा है, वैसा ही स्नेहिल और स्फूर्तिमय। उसी तरह उसकी ठहाका लगाने और हर मुश्किल को बातों-बातों में हवा में उड़ा देने की आदत है।

तो भी यह क्या है जो उसे असंतोष और तनाव से भर देता है? क्यों उसे अपने घर की दीवारें हिलती हुई नजर आती हैं?...भला क्यों?

4

‘पिऊँ...पिऊँ...पिऊँ...!’

जरूर भैया की कार का म्यूजिकल हॉर्न है। बिलकुल कोयल का सा सुर। वह जल्दी से पैरों में चप्पलें डालकर भागी-भागी बाहर आती है—भैया ही हैं। वह ‘भैया...भैया...’ कहकर उनसे लिपट जाती है। अमित भैया प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हैं, “भई, बड़ा चक्कर काटना पड़ा गलियों में। तुमने भी कहाँ कमरा ले रखा है?”

“बस, भैया, जहाँ मिल गया आसानी से। यह तो इन बातों के बारे में ज्यादा कभी सोचते नहीं हैं।” उसने अटकते हुए कहा था।

“और कोई कमी तो नहीं है? तुम लोग ठीक से हो न!” भैया दुलार से पूछते हैं।

“जी।” कहते हुए न चाहे भी उसकी आँखें डबडबा आईं। भैया से उन्हें छिपाने के लिए वह दूसरी ओर देखने लगी थी। उसे लगा था कि वह भैया से आँख नहीं मिला पा रही है।

एक अँधियारे गलियारे को पार करने के बाद कोने के इस छोटे-से कमरे को देखकर भैया चौंककर खड़े हो गए थे। जैसे हँफनी चढ़ गई!

“बस, यही एक छोटा-सा कमरा है तुम्हारे पास?...बड़ा अँधेरा-सा है। कमरे में कोई ढंग का वेंटिलेटर तक नहीं!” भैया को जैसे वहाँ बैठने में असुविधा हो रही थी। उसने चुपचाप ‘हाँ’ में सिर हिला दिया था।

“कोई ज्यादा सामान भी नहीं दिखाई पड़ रहा।” भैया कमरे में हर ओर अपनी आलोचनात्मक निगाहें दौड़ाते हुए बोल रहे थे।

वह क्या कहती? चुप रही। थोड़ी देर बाद जैसे बोलने की कुछ तैयारी करके उसने कहा, “भैया, इनके जीवन के कुछ अपने उसूल हैं। ये कहते हैं कि जितनी कम से कम चीजों में गुजारा हो सकता है, करना चाहिए। हम एक गरीब मुल्क के रहने वाले हैं, जहाँ लोग...”

“जहाँ लोग भूखे और नंगे रहते हैं, यही न? तो फिर सभी भूखे-नंगे रहने लगें क्या? कैसी वाहियात बातें हैं! मैं कहता हूँ कि मुझे ऐसे आदमी कभी अच्छे नहीं लगते, कोरे हवाई! क्या मिला तुम्हें इससे शादी करके? क्या मिला, बोलो, क्या मिला...?” अचानक भैया गरज पड़े थे।

जैसे बहुत समय का उनका जबरन रोका हुआ गुस्सा अब एक साथ सौ बमों की लडिय़ों की तरह फट पड़ा हो और...

उसे लगा था कि भैया के क्रोध का विस्फोट इतना ज्यादा है कि उसके छोटे-से घर की दीवारें, खिड़की, दरवाजे थरथरा उठे हैं। जैसे यह घर अभी टूटकर बिखरने ही वाला है।

प्रलय...! फिर एक और प्रलय! उफ, पहली प्रलय तो शादी के तुरंत बाद ही झेलनी पड़ी थी।

तभी अचानक—जादू! किसी जादू-मंतर की तरह उसकी निगाह सामने अपने और देवेश के उस फोटो की ओर गई जिसमें देवेश आँखों में बेहिसाब प्यार लिए उसकी ओर देख रहा है। वह अनथक, उद्दाम प्यार जैसे उसकी दुर्बलता को दूर करके उसे बड़ा बनाता जा रहा है।

उसके चेहरे पर एक क्षण के लिए आहत स्वाभिमान और क्रोध की हलकी-सी लाली आई। फिर वह एक अलग किस्म की दृढ़ता में बदल गई। उसने भैया की ओर सीधे देखते हुए एकदम शांत, निष्कंप आवाज में कहा, “पर भैया, मैं यहाँ खुश हूँ, बहुत खुश। मुझे तो कोई शिकायत नहीं है। फिर मैंने तो आपके बड़े, आलीशान घर से अपने लिए कभी किसी चीज की अपेक्षा नहीं की न! आपसे कभी कुछ माँगा तो नहीं? तो फिर...आपको मेरी इंसल्ट करने का हक क्या है?”

भैया को जैसे अचानक अपनी गलती महसूस हुई थी। वे उससे आँख नहीं मिला पा रहे थे। इसलिए अखबार उठाकर वे उस पर नजर दौड़ाने लगे थे। इस बीच वह चाय बनाकर ले आई। साथ ही अलग-अलग प्लेटों में बिसकुट, नमकीन, कलाकंद...भैया की पसंदीदा मिठाई!

भैया ने अनमने ढंग से चाय का कप उठा लिया है।

5

इसी बीच मानो आपातकाल में बड़ी राहत की तरह देवेश आ गया। भैया को देखते ही वह बड़े जोश और उत्साह से मिला।

“अरे वाह भैया, आपका आना बड़ा अच्छा लगा। सुमि तो सुबह से इस घर में नाच रही है, जैसे छोटी बच्ची बन गई हो!” उसने हँसते हुए कहा।

उसके खुले और बेबनाव व्यक्तित्व को देखकर भैया का संकोच कुछ कम हो गया। अब वे भी खूब खुलकर हँसते हुए बातें कर रहे थे।

देवेश के लिए वह एक कप चाय बनाकर दे गई है। मेज पर रखे तीनों कप अलग-अलग तरह के हैं। देवेश यह देखकर मजाक कर उठता है, “देखो भैया, हमारा घर बिलकुल हमारे देश की तरह है। यानी अनेकता में एकता...! कोई दो कप एक जैसे नहीं मिलेंगे।”

सुनते ही भैया के साथ-साथ अचानक उसकी भी हँसी छूट जाती है। देवेश के इस प्रफुल्ल और अभावों में भी खिलखिला सकने वाले स्वाभिमानी चेहरे की एक छवि वह चुपके से आँखों में बंद कर लेती है।

6

कुछ देर बाद भैया उठे हैं। उसे और देवेश को आशीर्वाद देकर जाने लगे, तो सुमि ने धीरे से हाथ जोड़ दिए।

तभी भैया को अचानक कुछ याद आया। वे बैग खोलकर माँ-पिता जी का भेजा हुआ सोने का हार और चूडिय़ाँ निकलते हैं। गुलाबी काँच की पारदर्शी डिबिया में दूर से ही उनकी चमक ध्यान खींचती है। भैया वह डिबिया उसकी ओर धीरे से सरकाते हैं, “लो सुमि, मम्मी ने भेजा है तुम्हारे लिए।”

पर सुमि का साफ इनकार, “नहीं भैया, इन्हें पसंद नहीं।...और इस बार तो मैं ले ही नहीं सकती। जब आप बगैर दया दिखाए मेरे घर आएँगे, तब देखूँगी।”

उसने देखा, भैया के चेहरे का रंग उतर गया है। वे कुछ कहना चाहते हैं, पर कह नहीं पा रहे।

फिर वह और देवेश उन्हें कार तक छोड़ने जाते हैं। कार स्टार्ट कर अब भैया पीछे देख रहे हैं। सुमि ने देखा, उनकी आँखें कुछ गीली हैं या...या शायद...!

पर सुमि कुछ समझ पाती, उससे पहले ही भैया का चेहरा तेजी से घूम गया है।

चलने से पहले उन्होंने सुमि के सिर पर हाथ फेरा था। और शायद कहना चाहा, “सुमि, किसी चीज की जरूरत हो तो बताना...!” पर जाने क्या था सुमि के चेहरे पर कि ये शब्द उनके मुँह से निकल ही नहीं पाए।

पर हाँ, उनके जाते ही सुमि को लगा, अलग-अलग रंग-आकार वाले उसके कप एक साथ मिलकर खिल-खिल हँसे हैं। उस मीठी खिल-खिल में उसे सुनाई दी अपनी ही आवाज, “मैं बहुत सुखी हूँ भैया, मेरी चिंता न करना। और आगे कभी आओ तो मुझ पर दया दिखाने के लिए नहीं, इस घर को घर समझकर आना!”

7

रात का अँधेरा फिर आया था। काफी काली, स्याह रात। पर उसमें बीच-बीच में कौंध उठते थे अलग-अलग रंग-आकार के कप, एकदम तुकबंदी विहीन। एक अभावों भरी गृहस्थी का सुख।

अचानक उसे लगा, धोने के बाद फर्श पर कोने में रखे गए उन कपों के कान एकाएक किसी जादू से गायब हो गए हैं। और टूटे कानों वाले वे कप जलतरंग के प्यालों में बदल गए हैं। अभी-अभी उनमें से एक जल-तरंग सी फूटी है। मीठी, बहुत ही मीठी—निनादमय!

और अनजाने ही वह मुसकरा दी है।

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