टूटा पंख : कोरियाई लोक-कथा
Toota Pankh : Korean Folk Tale
एक समय की बात है। एक बूढ़े के तीन बेटे थे।
उसके बड़े बेटे कुरूप और आलसी थे। पर सबसे
छोटा बेटा बड़ा रूपवान, भला और मेहनती था।
उसका नाम इल-चुंग था। असल में इल-चुंग
मेहनत करने से सूखकर काँटा हो गया था। बूढ़ा
बाप अपने तीनों बेटों में से इल-चुंग को ही सबसे
ज्यादा प्यार करता था। इससे इल-चुंग के बड़े
भाई उससे चिढ़ते और ईर्ष्या करते थे।
अचानक एक दिन बूढ़े की मृत्यु हो गई। अब
इल-चुंग अपने दोनों दुश्ट भाइयों के आश्रय पर
रह गया। पिता की मृत्यु से बेचारे इल-चुंग को
इतना धक्का लगा कि वह फूट-फूटकर रोने लगा।
इस पर उसके सबसे बड़े भाई टोंग-टोंगी ने
चिढ़कर कहा, ‘‘अब यह झूठ-मूठ का रोना-धोना
बंद कर!’’
इल-चुंग के दूसरे भाई साल-सारी ने भी बड़े
भाई की हाँ-में-हाँ मिलाते हुए कहा, ‘‘हाँ-हाँ,
झूठ-मूठ का रोना-धोना बंद कर...।’’
साल-सारी निपट बुद्धू था । उसके दिमाग में
भूसा भरा था। इसलिए हमेशा अपने बड़े भाई की
हाँ-में-हाँ मिलाता था।
टोंग-टोंगी ने फिर अधीर होकर इल-चुंग से
कहा, ‘‘मैं अब और ज्यादा तेरी रोनी सूरत नहीं
देख सकता ! समझे...!’’
‘‘मैं अब और ज्यादा...’’ साल-सारी ने भी
टोंग-टोंगी की हाँ-में-हाँ मिलाते हुए कहा। पर
पूरी बात वह कह भी नहीं पाया था कि टोंग-टोंगी
ने इल-चुंग को गर्दन से पकड़ा और घर से
निकाल बाहर किया। फिर सूखी रोटी का एक
टुकड़ा निकालकर उसके मुँह पर मारा और कहा,
‘‘ले जा यह रोटी का टुकड़ा और दफा हो जा!
बाप की जायदाद में से, बस यही तेरा हिस्सा है।’’
फिर दोनों बड़े भाइयों ने एक-दूसरे का हाथ
पकड़ा और घर के भीतर चले गए और अपने छोटे
भाई इल-चुंग की दुर्दशा पर बैठे खीसें निपोरते
रहे।
इल-चुंग भली-भांति जानता था कि उसके
दोनों भाई दुष्ट और द्वेषी हैं। इसलिए उनसे दया
की भीख माँगना व्यर्थ था। बस, इल-चुंग वहाँ से
उठा और निकट के एक जंगल में चला गया।
समझदार तो था ही, जंगल से वह कुछ लकड़ियाँ
और थोड़ा घास-फूस बटोर लाया । इस तरह
उसने सिर छिपाने के लिए एक कुटिया बना ली
और जल्दी ही उसकी चारदीवारी और छत मज़बूत
कर ली।
इल-चुंग असल में हमेशा खुश रहता था और
विपदा में भी मुस्कुराना जानता था। इसलिए कुछ
समय तक वह जिस किसी तरह निर्वाह करता
रहा। जंगल से कंद-मूल बटोरकर उन्हीं से पेट
भरता। परंतु जाड़ा निकट आ रहा था और वह
जानता था कि जंगल में इस छोटी-सी कुटिया में
जाड़ा बिताना बड़ा कठिन होगा।
एक दिन उसे बड़ी भूख लगी। बेर बटोरते
हुए वह जंगल में भटक रहा था। तीसरा पहर चढ़
आया। तब तक वह मुट्ठी-भर बेर ही जुटा पाया
था जो उसकी भूख मिटाने के लिए पर्याप्त नहीं
थे। हाथ में बेर लिये वह बड़ा उदास-उदास
अपनी कुटिया की ओर चल पड़ा।
अचानक रास्ते में उसे एक घायल चिड़िया
पड़ी मिली।
इल-चुंग ने झुककर चिड़िया की तरफ हाथ
बढ़ाया ही था कि चिड़िया छटपटाते हुए पंख
फड़फड़ाने लग गई, जैसे एकदम डर गई हो कि
लड़का उसका अनिष्ट करने आया है। परंतु
इल-चुंग दयापूर्वक धीरे-धीरे उसके सिर पर हाथ
फेरते हुए पुचकारने लगा। जब उसने ध्यान से
देखा तो पाया कि चिड़िया का एक डैना टूटा हुआ
था।
इल-चुंग तुरंत घायल चिड़िया को उठाकर
अपनी कुटिया में ले आया। वहाँ एक कोने पर
उसने घास-फूस से कोमल गुदगुदा-सा बिस्तर
बनाया और उस पर चिड़िया को रख दिया। अपने
सारे बेर भी उसने चिड़िया को खिला दिए।
इसके बाद इल-चुंग ने घायल चिड़िया की
इतनी सेवा की कि वह जल्दी ठीक होने लग गई
और एक दिन सुबह-सवेरे ही उड़ गई। यह
देखकर इल-चुंग उदास हो गया, क्योंकि सारे
जंगल में केवल यही चिड़िया उसकी साथी थी
और इल-चुंग को उससे बड़ा स्नेह हो गया था।
परंतु अगले दिन सुबह-सवेरे ही इल-चुंग
को किसी पक्षी की चहचहाहट सुनाई पड़ी। स्वर
जाना-पहचाना था। वह लपककर बाहर आया तो
क्या देखता है कि वही चिड़िया आकर बैठी है।
चिड़िया की चोंच में एक नन्हा-सा बीज था।
चिड़िया ने बीज इल-चुंग के पैरों पर गिराते हुए
कहा, ‘‘तुमने दया करके इतने दिनों तक मेरी सेवा
की। तुम्हें धन्यवाद देने आई हूँ। लो, यह छोटा-सा
बीज, इसे कहीं बो दो। तुम्हारा भाग्य चमक उठेगा।’’
इल-चुंग कुछ कहे कि इससे पहले ही चिड़िया
फुर्र से उड़ गई। उसने वह बीज उठाया और
अपनी कुटिया के बाहर बो दिया।
अगले दिन जब इल-चुंग की नींद खुली, तो
क्या देखता है कि कुटिया में अंधेरा-अंधेरा-सा है
पहले तो उसे भ्रम हुआ कि शायद आज बहुत
जल्दी नींद खुल गई । फिर बिस्तर छोड़कर वह
खड़ा हो गया - यह देखने के लिए कि सूरज
निकला है या नहीं। जब कुटिया के दरवाजे में से
झाँकने के लिए उसने बाहर सिर निकालना चाहा,
तो एक बहुत ही कोमल पत्ता उसके मुख पर
सरसराया। उसे हटाकर वह बाहर निकला, तो
क्या देखता है कि चारों ओर अनगिनत हरे पत्ते
फैले हुए हैं। उसने दोनों हाथों से पत्तों को हटाया,
पर पत्ते इतने घने थे कि उसके मुँह-सिर पर
गुदगुदी करते प्रतीत होते थे। इल-चुंग एकाएक
विस्मित होकर चिल्लाया, ‘‘अरे, यह तो कुम्हड़े
(पेठे) की बेल है।’’
इतनी बड़ी बेल उसने पहले कभी नहीं देखी
थी। सारी कुटिया के ऊपर और उसके आस-पास
यह बेल फैल गई थी। जहाँ तक दृष्टि जाती थी,
बेल के पत्ते ही दिखाई पड़ते थे। पत्तों के बीच न
जाने कितने रसीले कुम्हड़े चमक रहे थे।
इल-चूंग खुशी में नहीं समाया, खुशी तो उसे इस
बात की थी कि अब पेट भरने के लिए उसे
जंगल-जंगल भटकना नहीं पड़ेगा। उसने एक
कुम्हड़ा तोड़ा और उठाकर कुटिया के भीतर ले
आया।
ज्योंही इल-चुंग ने कुम्हड़े को काटा, कुम्हड़े
के भीतर से जैसे प्रकाश फूट पड़ता था। फिर जब
उसने कुम्हड़े को काटकर उसके दो हिस्से किए
तो उसमें से झनझन करती सोने की मुहरें बिखर
गई। इल-चुंग अचरज से आँखें फाड़े देखता रह
गया। कुम्हड़े में सोने की मुहरें। और बाहर ढेरों
कुम्हडे़ बेल में लगे थे। क्या सबमें ऐसी ही मुहरें
हैं?
इल-चुंग का मन बल्लियों उछलने लगा।
फिर उसने दो बड़े-बड़े कुम्हडे़ तोड़े और भागा-भागा
अपने भाइयों के घर पहुँचा। हालांकि दोनों भाइयों
ने उसके साथ बड़ी नीचता और निर्दयता का
व्यवहार किया था, फिर भी वह यह खुशी अपने
भाइयों में ही बाँटना चाहता था।
पर जब इल-चुंग हाथों में कुम्हड़े उठाए
अपने भाइयों के द्वार पर पहुँचा, तो टोंग-टोंगी
और साल-सारी लंबी ताने खर्राटे भर रहे थे।
दोनों कुम्हड़े उसने एक चौकी पर रख दिए।
फिर जैसे चहकते हुए बोला, ‘‘उठो देखो, मैं तुम्हारे
लिए क्या उपहार लाया हूँ।’’
टोंग-टोंगी ने जरा आँख खोलकर देखा।
कुम्हड़ों पर नजर पड़ते ही उसकी भवें तन गई।
अपने छोटे भाई को डाँटकर बोला, ‘‘नालायक!
यह कुम्हड़े...।’’
टोंग-टोंगी ने इल-चुंग से कहा, ‘‘ले जाओ
अपने कुम्हड़े। हमें नहीं चाहिए। हमारे खेतों मे ढेरों
कुम्हड़े लगते हैं...।’’
इस पर घोंघा बसंत साल-सारी ने भी अपने
बड़े भाई की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, ‘‘ले जा
अपने कुम्हड़े....’’ वह बिल्कुल वही बात बोलना
चाहता था जो टोंग-टोंगी ने कही थी। पर
बोलते-बोलते गड़बड़ा गया। इतनी अकल जो
नहीं थी उसमें।
इल-चुंग ने अपने बड़े भाई टोंगटोंगी से
कहा, ‘‘भइया! ये कोई मामूली कुम्हड़े नहीं है।
उठकर देखो तो सही...’’ और यह कहने के साथ
ही उसने एक कुम्हड़े को काटा और खनखनाती
हुई सोने की मुहरें लुढ़कने लगीं।
टोंग-टोंगी और साल-सारी ने सोने की मुहरें
देखीं, तो इकट्ठा करने के लिए एकदम ऐसी
फुरती दिखाई जैसी जीवन भर देखने में नहीं
आयी थी। देखते ही देखते उन्होंने दूसरा कुम्हड़ा
भी काट डाला। सोने की मुहरों का ढेर लग गया।
इतनी मुहरें देखकर वे खुशी से नाच उठे और
उछल-उछलकर कहने लगे, ‘‘अब काम करने की
क्या जरूरत है। मजे से बैठकर खाएँगे, नाचेंगे
कूदेंगे...।’’
तब इल-चुंग ने उन्हें जंगल में पड़ी एक
घायल चिड़िया की सारी बात बताई।
सारी बात सुनकर दोनों भाई ईर्ष्या से जल
उठे। टोंग-टोंगी सिर खुजलाते हुए कुछ सोच
रहा था। इल-चुंग चुपचाप खड़ा था। इस पर
टोंग-टोंगी ने एकदम उसे धक्का मारा और डपटकर
कहा, ‘‘चल भाग यहाँ से। दफा हो जा। हमारे घर
में तेरी कोई जगह नहीं।’’
बेचारा इल-चुंग अपना-सा मुँह लेकर लौट
पड़ा। वह इस आस से अपने भाइयों के पास गया
था कि वे उसे गले लगाएँगे। पर दोनों भाइयों ने
उसे दुत्कार कर निकाल दिया था।
इल-चुंग ने साल-सारी को पुकारा,
‘‘साल-सारी।’’
परंतु उत्तर न पाकर टोंग-टोंगी गुस्से से
चिल्ला पड़ा, ‘‘साल-सारी! कहाँ मर गया रे।’’
तभी नीचे जमीन पर उसे धीमी घुरघुराहट-सी
सुनाई पड़ी। टोंग-टोंगी ने देखा तो उसका आलसी
भाई सोने की मोहरों में सर छिपाए ऊँघ रहा था।
बस, टोंग-टोंगी ने गुस्से में भरकर उसे लात
मारी। साल-सारी छटपटाकर उठ खड़ा हुआ।
टोंग-टोंगी ने कहा, ‘‘अरे, घोंघा बसंत ! मेरी
बात ज़रा ध्यान से सुन।’’
साल-सारी जैसे घुरघुराकर बोला- ‘‘बोल!’’
टोंग-टोंगी ने आदेश भरे स्वर में कहा, ‘‘थोड़ा
नीचे झुककर मेरी बात सुन।’’
टोंग-टोंगी मोटा और ठिंगना था। साल-सारी
लंबा और दुबला-पतला। वह अकसर कहता था
कि टोंग-टोंगी जो बात करता है, वह उसके पल्ले
ही नहीं पड़ती, क्योंकि वह इतनी दूर से बोलता था।
जब टोंग-टोंगी ने उससे झुककर सुनने को
कहा तो साल-सारी जैसे हाथ बाँधे गुलाम की
तरह झुक गया। पर ज्योंही वह झुका कि टोंग-टोंगी
ने उसकी नाक पर चुटकी ली। इस पर भी
साल-सारी ने चूँ तक नहीं की, क्योंकि टोंग-टोंगी
अकसर ऐसा किया करता था। और साल-सारी
भी इसका आदी हो गया था। अब असली बात यह
थी कि टोंग-टोंगी और साल-सारी में से टोंग-टोंगी
में ही थोड़ी-बहुत अक्ल थी। साल-सारी को
दिमाग लगाने में बड़ी तकलीफ होती थी, इसलिए
वह अपने दिमाग से कोई काम नहीं लेता था और
हमेशा टोंग-टोंगी की हाँ-में-हाँ मिलाता था। पर
टोंग-टोंगी अकसर उसकी नाक पर घूँसा जड़
देता था। इस सबके बावजूद, दोनों भाइयों में खूब
पटती थी।
अब टोंग-टोंगी ने अपने मूर्ख भाई को आदेश
दिया, ‘‘जा, जंगल में कोई घायल चिड़िया पकड़कर
ला।’’ फिर धमकाते हुए बोला, ‘‘और ध्यान से
सुन। यदि तू खाली हाथ लौटा तो तेरी वह दुर्गति
करूँगा कि...’’
साल-सारी अपने भाई का आदेश पालन करने
निकल पड़ा। पीछे टोंग-टोंगी बैठकर सोने की
मुहरें गिनने लगा ।
तलाश करते-करते साँझ घिर आई। पर
साल-सारी को टूटे पंख वाली कोई चिड़िया नहीं
मिली। यह सोच-सोचकर वह घबराया कि यदि
खाली हाथ लौटता है तो भाई घूँसे मार-मारकर
उसकी नाक तोड़ देगा। बस, इसी डर से उसकी
आँखों से पानी बह निकला और नाक भी दर्द
करने लगी।
आखिर, उसे एक उपाय सूझा। झपटकर उसने
एक चिड़िया को पकड़ा और उसका पंख तोड़कर
वह घर की ओर ऐसे दौड़ा जैसे कोई मैदान मार
लाया हो। घर आकर उसने अपने भाई को सारी
बात बताई कि यह चिड़िया उसने किस तरह
पकड़ी। और किस तरह अपने हाथ से पंख तोड़ा।
यह सब बताकर वह खीसें निपोरते हुए बोला,
‘‘भइया, अब ऐसा करते हैं कि इसका दूसरा पंख
भी तोड़ देते हैं...।’’
यह बात उसके मुँह में ही थी कि टोंग-टोंगी
ने खींचकर एक घूँसा उसकी नाक पर जमाया।
घूँसा मारने के लिए उसे ऊपर तक उछलना पड़ा
और जब वह उछला तो जानते हो क्या हुआ!
उसका पेट देर तक हिचकोले खाता रहा।
खैर! दोनों भाइयों ने घायल चिड़िया का
इलाज शुरू किया। उन्होंने उसे जड़ी-बूटी और
बेर तो खिलाए, पर वे उसे कोसते और फटकारते रहे
कि वह ठीक होने में इतनी देर क्यों लगा रही है।
आखिर, चिड़िया उड़ने लायक हुई और एक
दिन अपने आप पंख फैलाकर उड़ भी गई। यह
देखकर दोनों भाइयों की खुशी का ठिकाना न
रहा। अगले ही दिन चिड़िया चोंच में एक बीज
लेकर आई और टोंग-टोंगी के पैरों पर डालकर
उड़ गई ।
दोनों भाइयों ने बड़ी होशियारी से बीज बोया।
बीज बोकर वे लेट गए। पर सारी रात उनकी
आँखें में नींद नहीं थी। यही सोच-सोचकर करवटें
बदलते रहे कि कैसी बेल निकलती है और फिर
कितनी मुहरें मिलती हैं।
अगले दिन उठकर उन्होंने देखा तो उछल
पड़े। घर के बाहर सचमुच, बहुत बड़ी बेल उग
आई थी। इतनी बड़ी बेल उन्होंने पहले कभी नहीं
देखी थी।
बस, जल्दी-जल्दी वे कुम्हड़े एकत्र करने
लगे। जब सारा घर कुम्हड़ों से भर गया तो एक
बड़ा-सा छुरा लेकर उन्होंने एक कुम्हड़ा काटा।
जानते हो क्या हुआ!
कुम्हड़े के कटने की देर थी कि उसके भीतर
से सोने की चमचमाती मुहरों की जगह चिपचिपे
साँप, छिपकलियाँ और मेंढ़क निकल पड़े। यह
भयानक, दृश्य देखकर दोनों भाई थर-थर काँपने
लगे। किसी तरह उस कुम्हड़े को उठाकर उन्होंने
बाहर फेंका और दूसरा कुम्हड़ा काटा। पर उसमें
से भी वैसे ही साँप, छिपकलियाँ और मेंढ़क निकले।
इसके बाद उन्होंने जो भी कुम्हड़ा काटा, सबमें से
वही साँप, छिपकलियाँ और मेंढ़क निकले।
सारे घर में साँप रेंग रहे थे। जब वे उनकी
टाँगों से लिपटने लगे तो दोनों भाई चीखते हुए
भागे और जंगल में पहूँचे । पर साँपों ने वहाँ भी
उनका पीछा नहीं छोड़ा ।
वहाँ से भागते हुए दोनों भाई शायद उस देश
से भी भाग गए, क्योंकि उसके बाद किसी ने
उनकी शक्ल नहीं देखी।
(बैलिंदर धनोआ)