टोकरी के साथ जुड़ा जीवन (नेपाली कहानी) : बी० बी० लकान्द्री
Tokri Ke Saath Juda Jiwan (Nepali Story) : B. B. Lakandri
आषाढ़ की झड़ी निरन्तर बरस रही है। काले बादल सम्पूर्ण आकाश पर
छा गए हैं। मेघों के भीषण गर्जन और बिजली की नागबेल की-सी चमकाहट
से वातावरण भयावह प्रतीत होता है। मनज्योति एक बाँस के पत्तों से बनाए छाते
पर आश्रित, सात बच्चों की माँ, रनवीरे की पत्नी, बाबुल की मनु, पड़ोसियों
की बड़ी माँ आदि अनेक प्रकार की भूमिकाएँ निभाती चाय के पत्ते तोड़ने में
तल्लीन है। पीठ पर पालने में बच्चा उठा रखा है। मानो अनेक कठिनाइयों और
दुःखों से निचुड़े, झंझटों से भरे उसके जीवन की सम्पूर्ण आशाएँ-निराशाएँ आस्था
और अस्तित्व यहीं कहीं चाय के गाछ में टिके हुए हैं।
उसके पुरखों द्वारा जंगल साफ करके, बाघ और भालुओं से लड़कर
बोए गये चाय के गाछ उसके और रनवीरे के जीवन-यापन का साधन हैं।
अभी-अभी जूना (भार उठाने वाली रस्सी) से बोझिल उसके मस्तिष्क में
यह बात घुसी है। तितेपाती और घुमरिंग की शहतीरों पर एक अंजुली फूस
बिछाकर, चीथड़ों से ढकी उसकी जिन्दगी क्या इन्हीं गाछों के नीचे समर्पित हुए
पराक्रमी पुरखों की सन्तान है ? आधे पेट बिजली की तरह हाथ चलाती,
तकलीफें झेलती हुई मजबूर जीवन को घसीट रही है। वीर बलभद्र की
बेटी--मनज्योति ! चन्द्रमा पर उस सरीखी माताओं के बेटों के पहुँचने का
समाचार सुनने में समर्थ--मनज्योति ! पालने में पड़े आठ महीने के गोलमटोल
बेटे को पीठ पर लादकर गाछों में बिखरी 'आशा' को चुनने वाला विश्व का
एक मानव ! इसी तरह आशा की कोपलें तोड़ते हुए उसे लगभग पच्चीस वर्ष
हो गए हैं। बिच्छू उसकी कठोर और खुरदुरी चमड़ी में अपने तीक्ष्ण डंक नहीं
घुसा सकते। कँटीली झाड़ियाँ भी उसके लोहेनुमा पैरों के नीचे मसली जाती हैं।
साँप और छिपकलियों के विषाक्त सिर वह अपनी एड़ियों से कुचल डालती है।
आषाढ़ की झड़ी, शरद की तुषार, जेठ की गर्मी और ओले उसे तनिक भी
विचलित नहीं कर सकते।
उचित रोजी-रोटी की माँग के लिए वह कई बार पेट के बच्चे के साथ
भूखी रही है। क्रान्ति में भाग लिया है। अब वह समझने लगी है कि गाय को
देने वाली खली की तरह उसकी खाद्य सामग्री से अपना पेट भरने में अपने
पत्ती तोड़ने के कर्त्तव्य को सीमित नहीं रखा जा सकता। उसकी मोटी बुद्धि
में कुछ नए विचार उत्पन्न होने लगे हैं। हाथ गाछों के साथ व्यस्त रहने पर भी
उसे कुछ दिन पहले की बात याद आती है। उस दिन आठ बागान के जनरल
सेक्रेटरी की कही बात ही ठीक है। उसने कहा था-.."अब हमें पशुओं की तरह
पेट भरने में व्यस्त नहीं रहना है। अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए भी
कमर कसनी है। हमें सर्वपक्षीय अधिकार प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
एक वास्तविक नागरिक का अधिकार हमें भी प्राप्त करना है। तब ही हम एक
मनुष्य के रूप में एक स्वाधीन राष्ट्र के नागरिक के रूप में जी सकते हैं। अब
प्रत्येक बागान-बस्ती को, जहाँ अस्सी प्रतिशत नेपाली वास करते हैं, इस जातीय
माँग के महत्त्व को समझना चाहिए। विभिन्न दलों और गुटों में बँटकर अपने ही
दाजु-भाइयों के साथ मतभेद होने से लड़ाई-झगड़ा करने से हमारा अपना
अस्तित्व छिन्न-भिन्न होगा। इस प्रकार हम ठोस कार्य नहीं कर सकेंगे। यह बात
अब अच्छी तरह सोच-विचार करने की है।"
वह सेक्रेटरी कितनी बड़ी बातें कर सकता है। मेरे ठूले और काले भी
यदि पढ़ सकते तो इसो तरह ज्ञानी होते। क्या करें ? साहुकारों के ऋण से सिर
के बाल भी बिकने लगते हैं, रात-दिन जुते रहने पर भी ठूले अठारह साल पार
करके उन्नीस साल में चल रहा है। एक अच्छी कमीज़ तक वह अभी तक नहीं
ले पाया है। मीठी तो दूर रही भूस की रोटी भी पेट भर नहीं मिलती है। मेरे
बच्चों की अँतड़ियाँ भी छलनी हो गईं हैं।
“ख़बरदार ! मिला कर काटो। ताल मिलाओ। पत्ती नरम दुइ पात सुइरा।
बाद में चुनने न पड़े ! कड़ा चुनने वाले के पैसे कट जाने का पता ही होगा।"
चाय बागान के बीच एक चिकने पत्थर पर बड़े काईला कामदार ने सीना तानकर
हुक्म सुनाया।
मनज्योति कुछ चौंकी। सौ में से एक-दो गोटा कड़ी पत्तियाँ मिल जाती
हैं। मिसिन की तरह नाप-जोख कौन कर सकता है ? उसने अपनी टोकरी का
निरीक्षण किया। कुछ कड़ी पत्तियों को निकाल कर फेंक दिया। अब वह कैसे
पैसे काट सकता है ? मूसों की तरह भीगना पड़ रहा है, इसको देखने वाला
कौन है।
झड़ी कुछ थमी है। जल्दी-जल्दी छात्ते को दी गाछों के ऊपर रखकर छत्त
जैसी बनाकर उसने पालने में पड़े दूधा बालक को नीचे झड़ी से बचाकर रखा
और सूखे स्तन उसके मुँह में दे दिये। कुछ क्षण के बाद पतला हलुआ और
चाय पिलाकर बच्चे को वहीं छोड़ पुनः गाछों पर झपटती है। दूधा बालक अपनी
गोलमटोल गालों में उँगलियों गाड़ते चाय के पत्तों से खेलने लग जाता है। मानो
उसकी इन्द्रियाँ अभी से ही पुरखों के छोड़े साधन 'चायपत्ती' को तोड़ने को
लालायित हैं।
मनज्योति दूर से ही कभी जीभ निकालती, कभी बड़ी-बड़ी आँखों से उसे
देखती और कभी दाँत दिखाती, बच्चे के प्रति अपनी ममता व्यक्त करती है।
“कुक्कू हा ! देख मैं कहाँ हूँ ? तेरी माँ पत्ती चुन रही है। है न कान्छा ? थोड़ी
देर ठहर जा बच्चे ! तेरी माँ जल्दी ही आ जाएगी, अच्छा ?''
घंटा बजता है। मनज्योति के साथ सभी काम छोड़कर स्थान से बाहर
आ जाते हैं। अभी तक बँधी बरसातो खोल दी जाती हैं। कमर में बँधी दुपट्टे
की गाँठ ढीली पर कुछ हल्के और सहज होकर लथपथ कीचड़ से निकलते
सभी गोदाम की ओर तौलाई के लिए जाते हैं। मनज्योति अपनी एक साथिन
के हाथ अपनी पत्ती भेजकर स्वयं जल्दी-जल्दी घर की ओर भागती है। इस
झड़ी में गाय के घास का क्या हो ? सूअर का चारा भी खत्म हो गया है। ठूले
का बाबू भी देर से लौटेगा। गोदाम में कोयला ढोना पड़ता है। चिन्ता और
छटपटाहट में ही वह घर पहुँच जाती है। घर की हालत देखकर एक बार उसे
चक्कर आ जाता है। छप्पर से पानी चूने से अन्दर से छप्पड़ बन गया है। बच्चों
के फिसल-फिसलकर खेलते स्थान-स्थान पर कीचड़ लिपा हुआ है। थू ! मुर्दों
के समान चोला। दिन भर बाहर भी भीगते रहो। घर भी उसी तरह का ! चार
पहर रात भी सूखे स्थान पर काटनी नसीब नहीं। हमारा मर्द भी तो ऐसा
है--डरपोक। जिसकी लाठी उसकी भैंस। कोई नेताओं के कान तक इस बात
को पहुँचाए तो कुछ हो। मालिक भी तो गरीबों का खून चूसना ही जानता है।
खुद को तो हवाई जहाज में उड़ना और क्लब में जाना मिल जाता है। एक अच्छी
खासी बिल्डिंग तो है ही उसकी।...
“ऐ साइली, उस बोरे को यहाँ लगा और बच्चे को देख। सारा घर भीग
चुका है। उसकी जेब से पैसा तो नहीं निकलता है। हमारे नेता ही तो कहते हैं,
हमारा खून, हमारा पसीना देश-विदेश में बिकता है। बूँद-बूँद पसीना, बूँद-बूँद
से चाय पत्ती के बक्से नम्बरी नोटों से भरते हैं। परन्तु कहाँ ? हर साल
आई०टी०ए० घर बनाने की बात चलाती है। कहाँ है पानी, टट्टी का बन्दोबस्त ?
यहीं जन्मे, प्ले और पढ़े कुलियों के बच्चों को काम कहां है ? हेड बाबू
एकेन्टन (एकाउन्टेन्ट) मेन्जर (मैनेजर) सभी काम हमारे आदमी कर सकते हैं
परन्तु कहाँ है भेकेन्ची (वेकेन्सी) ? सभी बाहर के आदमी शासन करते हैं।
क्या कुलियों के लड़के जो इतनी घोर गरीबी में पढ़ते हैं, कहीं काम नहीं पा
सकते ? क्या कुली की सन्तान कुली ही रहे ? इनको किसी दफ्तर में बैठने
का अधिकार नहीं है ? सभी बेरोजगारों को काम मिलना चाहिए। जितनी जल्दी
हो सके, घर, टट्टी, पानी और स्कूल का बन्दोबस्त होना चाहिए। किसी की जेब
से फूटी कौड़ी खर्च नहीं होगी। सब चाय पत्ती की जिम्मेवारी है।...परन्तु (वह
दुविधा में पड़ जाती है) यह डिमांग (डिमांड) मेन्जर (मैनेजर) के पास पहुँचाने
पर भी पूरी नहीं हुई। उल्टा चाय बागान ही लकट (लॉक आउट) कर दी गई।
रात-दिन, साँझ-सकारे न जाने कैसे नेता के दौड़-धूप करने से रज़ामन्दी हुई।
बड़ी मुश्किल से काम खुला। एक सप्ताह तक खर्च-पानी का कोई प्रबन्ध नहीं
हो सका। जो कुछ भी हो, काम चलता रहे तो पेट भरना तो मिल ही जाता है।
नहीं तो इतनी पल्टन को भगवान ही पाले। कुली शोर मचाते आते हैं--यदि कल
तक हमारी डिमांड पूरी नहीं हुई तो हड़ताल होगी।
“क्या कहा रे ?'' मनज्योति चौंकती है।
“हड़ताल ! ठूले, काले और जेठी का शोर फूस की झोंपड़ी के अन्दर
गूँजता है।
“रोजाना किस बात की हडताल ? हड़ताल से पेट भरता है ? छप्पर ढका
जाता है ? सुअरों की माफिक मैली जगह पर रहना पड़ रहा है। इतने दिन
हड़ताल करने से क्या मिला ? बागान को बिगाड़ने के सिवा और कुछ नहीं है।''
“लातों के भूत बातों से नहीं मानते। सुअर से बदतर अवस्था से
उठाने के लिए ही तो हड़ताल हो रही है। सीधी ऊँगली से घी निकल जाय तो
टेढी कौन करेगा ? सभी चुपचाप काम करते रहे। केवल शोषण की ही बात
करते हैं। तो क्यों न हो लड़ाई-झगड़ा ? जैसे को तैसा। कुली कि उली। हमें
किस बात का डर है ? कल कोई भी काम पर नहीं जाएगा। नुकसान केवल
हमारा नहीं होता है ? मालिक सरकार सभी का होता है। हम भी तो मनुष्य हैं।
हम केवल अपनी माँग रहे हैं। किसी बाबूगिरी की माँग तो नहीं कर रहे। तुम्हें
किसी बात की चिन्ता करने को कोई ज़रूरत नहीं है। माँ ! हम जुलूस में जाते
हैं..." ठूले की बात सुनकर मनज्योति हैरान रह जाती है। वह उन्हें गूँगी की
तरह देखतो रहती है। रनवारे एक सूखे मूढ़े पर बैठा चारों ओर बिखरे पानी के,
कीचड़ के धब्बों को देखता, ठूले की बातों के साथ दार्शनिक होता जा रहा है।
ठूले जोश में बाहर निकलता है। मनज्योति इन बातों का सार टपकते उस
छप्पड़ में सड़ चुके फूस के छप्पर और आस-पास बैठे सूखे पीले बच्चों के
चेहरों में ढूँढ़ रही होतो है। अन्त में एक दीर्घ निःश्वास के साथ उसके मुँह से
निकलता है--हड़ताल !