टोकना (सिंधी कहानी) : शौकत हुसैन शोरो
Tokana (Sindhi Story) : Shaukat Hussain Shoro
‘‘तुम अब पहले जैसे नहीं रहे हो...’’
(और उसने सोचा क्या वाकई पहले जैसा नहीं रहा था!)
‘‘क्या हो गया है मुझे?’’
‘‘तुम बदल गए हो। तुम वही नहीं रहे...’’
(और उसने सोचा क्या हो गया है उसे!)
‘‘लेकिन मैं तो वही हूं। मुझे तो खुद में कोई परिवर्तन नजर नहीं आ रहा।’’
‘‘तुम्हें कैसे नजर आएगा! तुम्हें तो यह भी पता नहीं चल रहा कि तुम में कितना परिवर्तन होता जा रहा है। मैं काफी वक्त से देख रही थी कि अब पहले जैसे नहीं रहे हो।’’
उसे चिढ़ आई इस बात पर। वह कौन-सा परिवर्तन था जिसका अनुभव उसे नहीं हुआ था। उसने चिढ़ छुपाते पूछा, ‘‘नहीं साइमा, यह तुम्हारा भ्रम है। मुझे कुछ नहीं हुआ है। यह अलग बात है कि व्यक्ति हर वक्त एक जैसा नहीं रहता। व्यक्ति तो व्यक्ति है, लेकिन दुनिया की कोई भी चीज हमेशा एक जैसी नहीं रहती। व्यक्ति तो वक्त और हालातों के असर के नीचे है। उम्र बढ़ने के साथ व्यक्ति में कुछ परिवर्तन अवश्य आते हैं। अगर कोई बात है तो यही हो सकती है।’’ उसे लगा वह रुखे अंदाज में यह सब कह गया था।
‘‘मैं नहीं जानती। ऐसी बातें करके मुझे उलझाया मत कर। मुझे तुम्हारे व्यवहार में परिवर्तन महसूस हुआ है। बस...’’ साइमा ने गुस्से से कहा।
उसे साइमा के गुस्से से हमेशा डर लगता था। गुस्से में वह कोई दूसरी साइमा लगती थी। इतनी दूर जैसे कभी करीब न रही हो। ज्यादा गुस्से में उसे दौरा पड़ जाता था और पता नहीं क्या क्या कह जाती थी। गुस्से की चरम सीमा पर रो पड़ती थी।
उसने कोशिश की कि बात न बढ़े, उसने ठंडे लहजे में कहा, ‘‘अच्छा तुम ही बताओ, मैं कैसे बदल गया हूं?’’
‘‘तुम्हें नींद से फुर्सत मिले तो पता चले। व्यक्ति की केवल शारीरिक जरूरतें नहीं होती हैं, मानसिक जरूरतें भी होती हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि तुम मुझसे मिलते हो केवल शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए, उसके बाद तुम ऐसे सो जाते हो, जैसे तुम्हारा मुझसे कोई सम्बंध ही नहीं है। मैं चाहती हूं कि तुम मुझे कुछ बताओ, मुझसे बातें करते रहो, लेकिन नींद तुम्हें छोड़े तब न! पहले तो पूरी पूरी रात तक तुम्हें झपकी भी नहीं लगती थी और अब रात के दो बजे के बाद तुम फां करके गिर पड़ते हो!’’ उसका क्रोध बढ़ता गया। ‘‘बस प्यास पूरी हुई! तुम कौन-सा रोज रोज आते हो मेरे पास। महीने में केवल एक दो बार तो मिलते हो, वह भी तुम्हें नींद ज्यादा प्यारी लगती है।’’
(और उसने सोचा : जब तुम नहीं थीं तो नींद भी नहीं थी)।
‘‘तुम्हें पता है कि पहले मैं नींद की गोलियां लेता था, नहीं तो पूरी रात जागते तड़पते गुजारता था।’’
‘‘हां पता है। तुमने ही बताया था। फिर अब क्या हो गया है तुम्हें?’’
‘‘तुम्हें यह भी पता है कि गोलियां खाने के बाद जो नींद आती थी उसमें मैं तड़पता और चिल्लाता था...’’
साइमा ने चिढ़कर उसे देखा।
‘‘हां हां, पता है मुझे। तुम कहना क्या चाहते हो?’’
(और उसने सोचा : मैं क्या कहना चाहता हूं!)
तभी उसे कुछ याद आया...
साइमा जब पहली बार उसके कमरे में आई थी तो उसने कहा था, ‘‘मैं देखना चाहती हूं कि आपका कमरा कैसा है?’’ और फिर यहां वहां देखकर हंसते कहा था, ‘‘कमरा तो पूरी लाइब्रेरी है। इन कपाटों के दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं क्या? मुझे चिढ़ है इस बात पर,’’ उसने कपाट के पास जाकर उसके दरवाजे बंद करने चाहे। अचानक उसकी नजर कपाट में रखी नींद की गोलियों की शीशी पर जा पड़ी। उसने शीशी उठाई और उसकी ओर देखा।
‘‘ये गोलियां आप खाते हैं?’’ साइमा जे अचरज से कहा।
‘‘नहीं, मेरे पास जो मेहमान आता है, उसे खिलाता हूं...’’ उसने बात हंसी में उड़ानी चाही।
‘‘देखिए, मैं सीरियस हूं। मुझे सच बताइए। आप खाते हैं ये गोलियां?’’
‘‘साफ है मैं ही खाता होऊंगा...’’ वह अभी भी मजाक के मूड में था।
‘‘क्यों? आपको क्या जरूरत है इनकी?’’
‘‘आपको क्या लगता है कि मुझे शौक है ऐसी गोलियां खाने का...’’ वह हंसने लगा।
‘‘नींद की गोलियां तो वे लोग खाते हैं जिन्हें नींद नहीं आती है। लेकिन आप ये गोलियां कब से खाते रहे हैं?’’ वह कमेरे में अकेली पड़ी कुर्सी पर बैठ गई। शीशी उसके हाथ में ही थी।
वह खिड़की के पास टेक देकर खड़ा रहा।
मैं इन गोलियों का आदी नहीं हूं। याद नहीं कि कितने वर्ष हुए हैं जब मुझे रातों को जागने की बीमारी हो गई, तब मैंने परवाह नहीं की। नींद नहीं आए तो न आए, रातों को जागना, दोस्तों के साथ भटकना और मिलने जुलने का भी एक अपना चार्म होता है। लेकिन पांच छह वर्ष हुए तो यह यह चार्म भी खत्म हो गया है। अब नींद नहीं आती तो तबियत खराब हो जाती है। मजबूरी में मैंने ये गोलियां लेनी शुरू कीं। लेकिन ये गोलियां मैं रोज नहीं खाता। कभी कभी जब डिप्रेशन हद से ज्यादा हो जाता है और दिमाग की नसें फटने लगती हैं तब मजबूरी में ये गोलियां खाता हूं।’’
‘‘लेकिन आखिर क्यों? आप तो बिल्कुल नार्मल लगते हैं, इतने डिप्रेशन का कोई कारण?’’
तब वह हंसा था और बड़े बड़े ठहाके लगाये थे। साइमा ने पहले तो उसे आश्चर्य से देखा और फिर उसके साथ हंसने लगी।
‘‘मैंने ऐसी कौन-सी हंसी की बात की?’’ साइमा ने हंसते पूछा।
‘‘तुम सवाल वकीलों जैसे करती हो। एक बात कहूं, अगर तुम एल.एल.बी. करो तुम एक सफल वकील बन सकती हो।’’
‘‘इस बात पर तुमने इतने ठहाके लगाये,’’ वह चिढ़ गई।
तब उसे विचार आया कि साइमा की चिढ़ बहुत प्यारी थी और उसने चाहा कि उठकर उसका मुंह चूम ले।
‘‘नहीं भाई, मुझे हंसी इस बात पर आई कि तुम्हें बिल्कुल नार्मल लगता हूं। कोई भी व्यक्ति नार्मल नहीं होता और अगर मैं नार्मल होता तो फिर आराम से सोया न पड़ा रहता।’’
‘‘आराम क्यों नहीं है? कौन-सी कमी है, आपकी ज़िंदगी में?’’
‘‘आदमी जो कुछ चाहता है वह सब तो उसे नहीं मिलता है, लेकिन कुछ व्यक्ति तो बहुत बदनसीब होते हैं, उन्हें तो बिल्कुल कुछ भी नहीं मिलता। मिलते हैं तो केवल दुःख, केवल अकेलापन जो कीड़ों की तरह मन पर चिपके रहते हैं। कोई वक्त आता है जब यह सब सहन करने से बाहर हो जाता है,’’ वह कमरे में पड़े लोहे के खाट पर बैठ गया था।
‘‘आपने तो शादी भी की थी, फिर तो आप अकेले न थे!’’
‘‘व्यक्ति भीड़ में भी खुद को अकेला क्यों महसूस करता है? मैं रास्ते से किसी को भी पकड़कर इस कमरे में लाकर बिठा दूं तो क्या मेरा अकेलापन दूर हो जायेगा? ऐसे तो और ज्यादा बेचैनी होगी। ऐसी मौजूदगी उल्टे मुसीबत है, इससे तो अच्छा यह अकेलापन है।’’
‘‘और नींद की गोलियां...’’ साइमा ने उसकी गंभीरता को तोड़ना चाहा।
‘‘हां, नींद की गोलियां ज्यादा अच्छा है।’’
‘‘आप ये गोलियां छोड़ नहीं सकते?’’
‘‘मुझे कोई शौक नहीं इन गोलियों का।’’
‘‘तो फिर वायदा कीजिए कि आज के बाद ये गोलियां अपने पास नहीं रखेंगे।’’
वह कुछ देर तक साइमा को देखता रहा।
‘‘देख क्या रहे हैं? मेरा इतना भी अधिकार नहीं है आप पर? मेरे लिए इतनी भी तकलीफ सहन नहीं कर सकते!’’
‘‘मैं तुम्हारा अधिकार मानता हूं,’’ और वह हंसा।
‘‘ठीक है, आगे से मैं ये गोलियां नहीं खाऊंगा।’’
उसने देखा कि साइमा की पीठ उसकी ओर थी। उसने आवाज दी। लेकिन साइमा हिली भी नहीं, उसने कंधा हिलाकर कहा, ‘‘साइमा, मेरी ओर देख।’’
‘‘छोड़, मुझे नींद आ रही है,’’ साइमा ने उसके हाथ को हटाने की कोशिश की।
उसने जबरदस्ती खींचकर साइमा का चेहरा अपनी ओर किया।
‘‘नहीं, मुझे पता है कि तुम्हें नींद नहीं आ रही है, देख साइमा, बेवजह गुस्से में आकर अपना खून मत जला।’’
‘‘तुम्हें तो बहुत परवाह है मेरी। तुम इतनी देर तक कहां थे?’’
‘‘तुम्हारे पास ही तो था।’’
‘‘तुम्हारे पास ही तो था!’’ साइमा ने गुस्से में नकल की। ‘‘मेरे पास तो केवल तुम्हारा शरीर है। मानसिक तौर पर तुम पता नहीं कहां थे!’’ (और उसने चाहा कि उठकर चला जाए।)
‘‘तुम इतनी शकी क्यों हो गई हो! भाई, मैं यहीं पर था।’’
‘‘तुम यहां थे! झूठ क्यों बोल रहे हो, तुम इतनी देर तक क्या सोच रहे थे?’’
‘‘कोई खास बात नहीं थी,’’ उसने तंग होकर कहा।
‘‘खास बात नहीं थी, तो आम बात ही बताओ कौन-सी थी?’’
‘‘मैं पानी पीकर आऊं,’’ उसने उठकर बाहर जाने की कोशिश की। साइमा ने उसे खींचकर फिर से लिटा दिया।
‘‘पहले मुझे बताओ कि तुम क्या सोच रहे थे?’’
‘‘जहनुम...’’ उसकी चिढ़ बाहर धमाके से आई।
‘‘मेरा अंदाजा सही निकला, तुम यही सोच रहे थे कि इस मुसीबत में क्यों आ फंसा हूं, जो नींद भी नहीं करने दे रही।’’
‘‘ओ साइमा भगवान के लिए! तुम्हें क्या हुआ है, तुम ऐसी बातें क्यों कह रही हो, जो मैं कभी सोचता भी नहीं।’’
‘‘नहीं नहीं, तुम तो बड़े मासूम हो। अब सो जाओ, शाबास।’’ साइमा ने पुचकारकर उसके सर पर हाथ फेरा। ‘‘तुम्हारी आंखें फिर से बंद हो रही हैं,’’ साइमा ने उससे दूर हटते कहा।
वह भी चुपचाप लेटा रहा गुस्से से।
(और उसने सोचा : यह मुझे इतना गलत क्यों समझ रही है!)
काफी देर बीत जाने के बाद भी साइमा में कोई हलचल नहीं हुई। उसे पता था कि साइमा को जल्दी नींद आ जाती थी।
वैसे तो वह रुठती भी थी तो मनाती भी खुद थी और कहती थी, ‘‘तुम में थोड़ी भी शर्म नहीं, गुस्सा भी मेरे ऊपर, तो मनाऊं भी मैं तुम्हें।’’ लेकिन इस बार उसे लगा कि साइमा ज्यादा गुस्से में थी।
उसने अपना चेहरा साइमा के कंधे पर रखा और कहा, ‘‘क्या है भाई! व्यक्ति इतना रूठता है क्या?’’ उसने साइमा का कंधा खींचकर उसका रुख अपनी ओर करना चाहा।
‘‘छोड़ मुझे, मैं सोई हुई हूं,’’ साइमा ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की।
‘‘तुम्हें छोड़कर मैं कहां जाऊंगा।’’
साइमा ने एकदम से आंखें खोलकर उसे देखा और फिर चिढ़कर कहा, ‘‘क्यों, तुम्हारे लिए तो यह नई बात नहीं है, तुम्हारे लिए तो यह आसान बात है...’’
‘‘तुम्हें छोड़ना चाहता तो मैं यहां न होता।’’
‘‘यह तुम अपना मुंह धोकर आओ कि कोई तुम्हें छोड़ देगा ऐसा करने के लिए..’’
उसे हंसी आ गई और उसने देखा कि साइमा भी हंस पड़ी थी।
‘‘मेरे पास होकर भी पता नहीं तुम कहां होते हो! या तो सोए रहते हो या पता नहीं क्या सोचते रहते हो!’’ उसने रूठे स्वर में कहा।
‘‘तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं?’’
‘‘तुम पर विश्वास! मुझे तुम्हारे कामों का पहले ही पता है।’’ साइमा ने दूसरी ओर करवट बदलने की कोशिश की, लेकिन उसने उसे खींचकर अपने करीब किया।
‘‘रहने दो अब...’’ उसने मनाने के लिए कहा।
‘‘मुझे जहर लगती है तुम्हारी यह पंक्ति... मैंने तुम्हें कितनी बार कहा है कि मुझे ऐसा मत कहा कर। यह कोई तरीका है मनाने का!’’ साइमा ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन उसने उसे मजबूती से पकड़ा था।
‘‘अच्छा बाबा माफी, तौबा की मैंने...’’
‘‘दिल से कहते हो।’’
‘‘हां, सच्ची दिल से।’’
‘‘बिल्कुल गंदे...’’
(और उसने जबरदस्ती सोचा : मुझे चाहिए...)
और उसके बाद वे समा गए एक दूजे में।
(अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी)