तिजारत का नया तरीका (कहानी) : भगवतीचरण वर्मा

Tijarat Ka Naya Tareeka (Hindi Story) : Bhagwati Charan Verma

मुंशी उल्फतराय के शराब के नशे में तिमंजिले से उड़ने की कोशिश करने पर वहाँ से गिरकर मर जाने की सूचना तार द्वारा जिस समय उनके एकमात्र सुपुत्र तथा उत्तराधिकारी मुंशी खुशबख्तराय उर्फ मिस्टर के. राय के पास आई उस समय वे एक एंग्लो-इंडियन गर्ल के कारण एक टामी से पिटने के बाद अस्पताल से मरहम-पट्टी करवाकर अपने कमरे में दर्द से कराह रहे थे।

इतवार का दिन था । मैं अपने मित्रों के साथ बैठा हुआ ब्रिज खेल रहा था। नौकर ने आकर इत्तला दी कि मिस्टर के. राय ने मुझे सलाम भेजा है, और मुझे उठना ही पड़ा । वहाँ से उठना कुछ अखरा अवश्य पर करता क्या, खुशबख्तराय मेरे सबसे घनिष्ठ मित्र थे ।

मुझे देखते ही खुशबख्तराय ने तार मेरे सामने फेंक दिया। तार मैंने पढ़ा, मुख कुछ गम्भीर हो गया, स्वर कुछ भारी मैंने कहा- “ अरे ! दोस्त, मुझे सख्त अफसोस है । "

एक हल्की मुस्कुराहट खुशबख्तराय के मुख पर आई - " अफसोस की कोई ऐसी खास बात तो नहीं है। जो होना था वही हुआ; आखिर बाबूजी को मरना तो था ही, बीमार होकर महीनों चारपाई पर कराह कर तिल-तिल कर मरने की जगह कुछ क्षणों में ही उनके प्राण निकल गए, यह उनके लिए ही अच्छा हुआ।"

मैंने कहा- "यह तो ठीक है; पर तुम अनाथ हो गए - सारा उत्तरदायित्व अब तुम्हारे ऊपर आ पड़ा। पिता की मृत्यु तो लड़के के लिए बहुत बड़ी विपत्ति है।"

पर खुशबख्तराय पर उसका भी कोई असर न हुआ - " ठीक कहते हो; पर किया क्या जाय। आखिर एक दिन तो घर का उत्तरदायित्व मुझ पर आना ही था - कल की जगह वह आज मुझ पर आ गया। और देखो सुरेश, उत्तरदायित्व एक अयोग्य आदमी से उतरकर योग्य आदमी पर आ गया है, यह भी कुछ बुरा नहीं है ।"

खुशबख्तय ने जो कुछ कहा, उसमें सत्य का कुछ अंश अवश्य था । मुंशी उल्फतराय ने अपने पिता से दो गाँव सोलह आने, एक बड़ी हवेली, एक फिटन और पन्द्रह हजार रुपए नकद पाए थे। अपने बीस वर्ष के शासनकाल में उनके दोनों गाँव बिक गए थे, पन्द्रह हजार रुपया उड़ गया था तथा फिटन टूट गई थी। पर मुझे इसमें शक था कि उल्फतराय और खुशबख्तराय इन दोनों में अधिक योग्य कौन है। मैं एक कुर्सी पर बैठ गया सर झुकाए हुए उसी तरह जिस तरह कोई भी मातमपुर्सी करनेवाला बैठता है । थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद खुशबख्तराय ने कहा—“भाई सुरेश, मैं समझता हूँ कि मुझे घर जाना चाहिए। और तुम देखते हो कि मैं उठने के काबिल नहीं हूँ - इसीलिए तुम्हें बुलाया है कि तुम मेरे घर तक मुझे पहुँचा दो ।"

यह बात मेरी समझ में जरा कम आई, मैंने कहा - "भाई, देखो यूनिवर्सिटी का अभी . बहुत काम-काज करना है, फिर आज शाम को मिस...का डांस है और कल लोफर्स मनलाइट में बोटिंग क्लब की बैठक है और परसों है- हाँ, स्टेशन तक चलकर तुम्हें गाड़ी पर लाद अवश्य दूँगा।”

पर खुशबख्तराय को उस समय तुलसीदास की एक चौपाई याद आ गई, जो मैंने उनसे दस रुपए माँगने के समय ये दस रुपए मैं ब्रिज में हारा था और अगर उसी समय मैं न दे देता तो मेरी इज्जत जाती रहती, और दुर्भाग्यवश मेरे पास रुपए थे नहीं - उनको सुनाई थी और जिसको सुनते ही उन्होंने दस रुपए का नोट मुझे दे दिया था। उन्होंने मेरे ही स्वर में चौपाई पढ़ी :

धीरज धर्म मित्र अरु नारी,
आपत काल परखिए चारी ।

इस चौपाई को सुनते ही मैं निरुत्तर हो गया। मुझे उनके साथ उनके घर तक जाना ही पड़ा ।

मुंशी उल्फतराय की बीवी अथवा यों कहिए कि मिस्टर के. राय की माता क देहान्त बहुत दिन पहले हो चुका था, और खुशबख्तराय की बीवी अपने मायके में थी । घर में मुंशी उल्फतराय की मृत्यु पर रोनेवालों में सिवा एक चमारिन के, जिसको पाँच वर्ष पहले मुंशी उल्फतराय ने घर में डाल लिया था, और कोई न था, और वह चमारिन भी मुंशी उल्फतराय की मृत्यु पर रो रही थी, या उस घर से अपने निकाले जाने की आशंका पर रो रही थी, यह कहना कठिन है ।

मैं दूसरे दिन सुबह ही लौट आया और अपने काम-काज में लग गया। हाँ, खुशबख्तराय की अनुपस्थिति मुझे ही क्या, हम लोगों की पार्टी को बुरी तरह अखर रही थी : पर करते क्या, मजबूरी थी। इतना निश्चय था कि तेरह दिन तक वे किसी तरह नहीं आ सकते ।

और तेरह दिन भी बीत गए। मुंशी खुशबख्तराय तो नहीं आए। उनका एक पत्र अवश्य आया। उसमें उन्होंने लिखा था कि जायदाद का हिसाब वे समझ रहे हैं, अभी कुछ दिन घर में और ठहरना होगा। यह घटना जनवरी की थी। फरवरी आई और निकल गई, मार्च आया और निकल गया। एम.ए. की परीक्षा शुरू होनेवाली थी, हम लोगों की पढ़ाई-लिखाई जोरों पर थी। एक दिन क्या देखते हैं कि मिस्टर के. राय का ताँगा बोर्डिंग के फाटक पर रुका। दौड़ कर हम लोगों ने उनका स्वागत किया, बहुत दिनों से बिछुड़े हुए मित्र गले मिले ।

सुचित्त होकर जब मिस्टर खुशबख्तराय बैठे, तब मैंने उनसे पूछा - " कहो भाई, क्या इस साल परीक्षा देने का विचार नहीं है ?"

"नहीं।"

"क्यों ?"

खुशबख्तराय मुस्कुराए - "परीक्षा देकर क्या करूँगा ? एम.ए. पास करके कौन सी नौकरी मेरे वास्ते रखी है ? चालीस-पचास रुपए की क्लर्की से तो भूखे मरना अच्छा है।” "तो फिर करोगे क्या ?"

एक अजीब शान के साथ मिस्टर खुशबख्तराय ने अपनी जेब से अपना पर्स निकालकर अपने सामने रख लिया- “हम करेंगे क्या ? तिजारत जनाब जो हवेली मेरे बालिद साहब ने मेरे वास्ते छोड़ी थी, वह भी कर्ज से लदी हुई थी। बीस हजार में मैंने वह बेच दी। बीस हजार में से दस हजार तो कर्जवाले ले गए और दस हजार में से पाँच हजार मेरी बीवी ले गई। रह गए पाँच हजार, सो जनाब वह मेरे पर्स में हैं, तिजारत करने निकला हूँ !”

थोड़ी देर तक चुप रहकर उन्होंने फिर कहा - " और सुरेश, तिजारत से ही आदमी अमीर हो सकता है। नौकरी करके आप करोड़पति नहीं बन सकते - तिजारत करो। और हम पढ़े-लिखे लोग तिजारत करना नहीं चाहते। इसीलिए तो बेकारी बढ़ रही है । फिर मैं कहता हूँ कि अगर ये निरक्षर मारवाड़ी लाखों रुपए तिजारत से पैदा कर सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं इसमें सफल हो सकता, जब कि मैं काफी शिक्षित हूँ ।"

और तीसरे दिन मिस्टर खुशबख्तराय कलकत्ता के लिए रवाना हो गए।

एम.ए. पास करके मैंने वकालत पढ़ना आरम्भ किया। एक वर्ष बीत गया; पर मिस्टर खुशबख्तराय का कोई पता न चला। पहले तो कुछ दिनों तक पत्र-व्यवहार हुआ और अन्तिम सूचना मुझे यह मिली थी कि उन्होंने किसी विदेशी फर्म की एजेंसी ले ली। इसके बाद क्या हुआ, यह मुझे मालूम न था; पर उसे जानने को मैं बड़ा उत्सुक था ।

और फिर एक दिन मिस्टर खुशबख्तराय लदे-फँदे होस्टल पहुँचे। उन्हें देखते ही मैं उछल पड़ा। नौकर से उनका सामान मैंने अपने कमरे में रखवाया। इस बार मिस्टर खुशबख्तराय कुछ अधिक तन्दुरुस्त थे। कपड़े अधिक कीमती और बिल्कुल अप-टू-डेट थे। मुख पर ललाई थी और आँखों में चमक और मैंने समझ लिया कि मिस्टर खुशबख्तराय व्यापार में फले-फूले हैं।

दिन-भर गपबाजी होती रही। रात के समय एकान्त में हम दोनों अपने सुख-दुख की बातें करने बैठे। मैंने पूछा - "कहो भाई, कलकत्ता में कैसी बीत रही है ?" मिस्टर खुशबख्तराय का मुख उतर गया - “यार, कलकत्ता तो छोड़ आया !” " अरे !” आश्चर्य से मैंने पूछा ।

"हाँ, दुनिया बड़ी बेईमान है और कलकत्ता तो बेईमानों का घर है। एक आदमी के साझे में एजेंसी ली थी। एजेंसी का काम-काज यह देखता था और मैं जरा कलकत्ता की रंगत देखने में लग गया। साल भर बाद उसने जब हिसाब-किताब बताया, तो मालूम हुआ कि आठ हजार रुपया का घाटा आया। उस आठ हजार में चार हजार मेरे और चार हजार उसके थे। अब वह बोला कि चार हजार और दो तो काम चले और मेरे पास तुम जानते ही हो कि कुल पाँच हजार रुपए थे।"

"यार यह तो बुरा हुआ," मैंने गम्भीर होकर कहा ।

खुशबख्तराय मुस्कुराए - "ऐसा कोई बुरा भी नहीं हुआ। साला बेईमानी कर गया; क्योंकि वह अकेले अब एजेंसी लिये हुए है। लेकिन इससे क्या मैं यह जान गया हूँ कि दुनिया में किसी पर विश्वास नहीं करना चाहिए। कुछ सीखा ही। अब जो व्यापार करूँगा उसमें मेरा अनुभव मेरी सहायता करेगा।”

"लेकिन तुम्हारे पास रुपया कहाँ है, जो तुम व्यापार करोगे ?" अपनी मुस्कुराहट दबाते हुए मैंने पूछा। खुशबख्तराय का मुख उतर गया-“हाँ, यार यह तो ठीक कहते हो।" पर एकाएक मुख खिल उठा, “अरे अभी एक हजार तो मेरे पास हैं- कोई छोटा काम आरम्भ करूँगा - वह बढ़ते-बढ़ते बड़ा काम हो जाएगा।"

फिर यह सोचा गया कि खुशबख्तराय अब कौन काम करें, किसी निर्णय पर हम नहीं पहुँच सके। एकाएक खुशबख्तराय कुर्सी से उछल पड़े- “आ गया, एकबारगी अच्छा काम समझ में आ गया ! क्यों, यूनिवर्सिटी में रेस्तराँ क्यों न खोलें।" और रेस्तराँ खुल गया बड़ी शान से। ओपनिंग सेरीमनी में दावत हुई, गाना-बजाना हुआ और बड़े जलसे रहे । महीने भर के अन्दर ही रेस्तराँ चल निकला। मैंने वकालत पास की और अपने घर चला गया। मिस्टर खुशबख्तराय का रेस्तराँ जोरों के साथ चल रहा था और मुझे प्रसन्नता यह थी कि साल भर के अन्दर ही वे अपने काम में सफल हुए; पर कनवोकेशन के समय जब मैं आया तब अचानक एक अजीब दृश्य देखने को मिला ।

मिस्टर खुशबख्तराय के रेस्तराँ के सामने भीड़ लगी थी। भीतर मिस्टर खुशबख्तराय उदास बैठे थे और उनको घेरे खड़े थे पाँच-छह आदमी बही व एकाउंट बुक के साथ । बाहर एक आदमी डुग्गी बजा रहा था और भीतर दो नौकर दूकान का सामान हटा रहे थे ।

मुझे देखते ही मिस्टर खुशबख्तराय की जान में जान आई। तपाक के साथ वे उठे, मुझे उन्होंने कुर्सी पर बैठाया। मैंने पूछा - "यह क्या है ?"

मिस्टर खुशबख्तराय का स्वर दृढ़ हो गया - " है क्या ? वे लोग सब-के-सब बेईमान । इतना कहा कि भाई, अपना हिसाब-किताब ठीक बनाओ, लेकिन मानते ही नहीं। दूना और चौगुना तो हिसाब बनाए हुए हैं, और मेरा रुपया उधार में फँसा है। भला बतलाओ मैं दूँ तो कहाँ से ? अब आए हैं दूकान नीलाम करवाने ले जाएँ साले, क्या लेंगे, कुछ चीनी के और कुछ टीन के बर्तन ! यही न ! और चलो तुम अच्छे आ गए, मैं तो यहाँ से जाने ही वाला था । यह दूकान है सो लो, क्रेडिटबुक है सो लो और भुगतो बाबा, मैं बाज आया।" और यह कहते हुए उन्होंने शान से अपना हैट लगाया और मेरा हाथ पकड़े हुए दूकान के बाहर आ गए।

मैं उनके घर आ गया, वहाँ बैठकर मैंने उनसे बातें कीं। अपनी सारी कथा आदि से अन्त तक उन्होंने मुझे सुना डाली। किस प्रकार यूनिवर्सिटी के लड़कों ने उनको दाम नहीं दिए, किस प्रकार उन्होंने मुरौवत में रुपयों का तकाजा नहीं किया। किस प्रकार उन पर मुकदमे चले, किस प्रकार उन पर डिगरियाँ हुईं और किस प्रकार उनकी दूकान कुर्क हुई।

" अब क्या करोगे ?” मैंने पूछा।

कुछ सोचकर उन्होंने कहा - " अबकी बार ऐसा व्यापार करूँगा, जिसमें मुझे घाटा हो ही नहीं सकता।”

"ऐसा कौन सा व्यापार है ?"

"यह न पूछो। बस इतना जानना काफी है कि व्यापार करूँगा, नौकरी नहीं ।"

" और व्यापार करने के लिए रुपया ?"

"अरे हाँ, यह तो भूल ही गया था," मिस्टर खुशबख्तराय कुछ विचलित हुए; पर शीघ्र ही वे सुव्यवस्थित होकर बोले - "दोस्त, सौ रुपया तो मेरे पास है चार सौ रुपया और चाहिए। अगर तुम उधार दे सको, तो मैं तीन महीने के अन्दर ही तुम्हें लौटा दूँगा ।"

मैं मुस्कुराया । खुशबख्तराय के कन्धे पर हाथ रखते हुए मैंने कहा – “यार, रुपया वापस करने की तो बात छोड़ो, क्योंकि हम दोनों के बीच कभी वापस करने का अवसर नहीं रहा है, हाँ, चार सौ रुपया मैं तुम्हें अवश्य दे सकता हूँ एक शर्त पर कि फिर तुम आगे मुझसे और कुछ न माँगो ।”

मेरी बात खुशबख्तराय को कुछ बुरी लगी। उनका मुख तमतमा उठा - "सुरेश, तुम बड़े कमीने आदमी हो। तुम्हारे चार सौ की जगह मैं तुम्हें चार हजार रुपया वापस करूँगा, समझे !”

किसी तरह मैंने खुशबख्तराय को शान्त किया। चार सौ रुपए मैंने उन्हें दे दिए।

कचहरी से लौटते समय मैंने अपनी कार सराफे में बढ़ा दी। मेरी बीवी जिद पकड़ गई थी कि अपनी कमाई से एक गहना मैं उसे बनवा दूँ ।

और वहाँ मैंने देखा कि एक दूकान पर भीड़ जमा है। एक अप-टू-डेट जेंटिलमैन को पकड़े हुए चार-पाँच आदमी बैठे हुए हैं और बीच-बीच में लोग उस जेंटिलमैन के एक-आध धप भी रख देते हैं। मैंने कार रोक दी और पूछा - " क्या है ?"

एक आदमी बोला - "वकील साहब, जाली सिक्के चला रहा है, पुलिस में खबर तो भिजवा दी है; लेकिन पुलिस के आने तक इनकी थोड़ी सी मरम्मत हमीं लोग कर रहे हैं ।"

मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब मैंने देखा कि जो सज्जन पिट रहे थे, वे मेरे सबसे घनिष्ठ मित्र मिस्टर खुशबख्तराय थे। मैं कार से उतर पड़ा, खुशबख्तराय मुझे देखते ही उछल पड़े। एक झटके में उन्होंने अपने को चार-पाँच लोगों से छुड़ा लिया, तन कर वे खड़े हो गए। उन्होंने कहा- “मिस्टर सुरेश आप हैं ! देखिए ये लोग एक शरीफ परदेशी की इज्जत बिगाड़ रहे हैं। एक तो मेरे रुपयों को जाली कहकर छीन लिया और ऊपर से मुझे मार रहे हैं।"

दूकानवाले ने मुझसे कहा - " वकील साहब, देखिए ये जाली रुपए हैं या नहीं ?" यह कहकर उसने दो सौ रुपए मेरे सामने रख दिए ।

खुशबख्तराय गरज उठे - "ये रुपए मेरे नहीं हैं, खुद जाली रुपए बनाता है और मेरे रुपए दूकान में रखकर कहता है कि मैंने जाली रुपए दिए। आने दो पुलिस को !” और इतना कहकर तेजी के साथ अंग्रेजी में वे मुझसे मेरी क्षेम-कुशल पूछने लगे ।

दूकानवाला घबराया। मैंने भी अब मौका देखकर कहा - "अच्छा, अब क्या है ? पुलिस को बुलाना बेकार है, तुम दोनों ही फँसोगे ।"

दूकानवाले ने सकपकाते हुए कहा- "तो वकील साहब, अब बतलाइए क्या हो ?”

"हो क्या ? तुम उनके रुपए उनको दे दो और वे चले जाएँ।”

काफी कहा-सुनी के बाद खुशबख्तराय, अपने जाली रुपए लेकर वहाँ से हटे । कार पर उन्हें बिठलाकर मैं अपने घर पर लाया ।

कार पर मैंने खुशबख्तराय से कहा- "ये जाली रुपए लेकर क्यों घूम रहे हो ? जानते हो कि उसमें तुम्हें क्या सजा हो सकती है ?"

“यार क्या बतलाऊँ, तौल में कुछ गलती हो गई।"

"कैसी तौल ?” मैंने आश्चर्य से पूछा ।

बड़े इत्मीनान के साथ मि. खुशबख्तराय ने कहा- “ आजकल मैं रुपया बनाने का रोजगार कर रहा हूँ ।"

"कुछ पैदा किया ?” मैंने पूछा ।

“नहीं, अभी तक तो सिर्फ मेरा ही खर्च निकल रहा है, और वह भी बड़ी मुश्किल से। इन रुपयों को निकालनेवाला एजेंट जब तक नहीं मिलता, तब तक वह काम अधिक नहीं चल सकता।” थोड़ी देर तक रुककर उन्होंने फिर कहा - " और अगर आज तुम न आ गए होते, तो मैं बड़ी मुसीबत में पड़ जाता। भाई, आज के अनुभव के बाद से यह काम भी छोड़ना जरूरी हो गया।"

" फिर अब क्या करोगे ?" मैंने पूछा ।

"कुछ समझ में नहीं आता, कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा।"

एक हफ्ते बाद मि. खुशबख्तराय मेरे मकान पर आए। उस दिन वे बड़े प्रसन्न दिखते थे। बातचीत होती रही । एकाएक उन्होंने मुझसे कहा- “सुरेश, पैसा पैदा करने का एक बड़ा सुन्दर तरीका मैंने ढूँढ़ निकाला है।"

"वह क्या है ?"

"देखो, कल यहाँ के सबसे बड़े सेठ... से मैं मिला। मैंने उससे कहा कि एक हफ्ते के अन्दर पाँच हजार रुपया मुझे दे दो, नहीं तो उसके बाद शहर के किसी भी चौराहे पर मैं तुम्हारे पाँच जूते मारूँगा।”

" तो तुम क्या समझते हो कि वह तुम्हें पाँच हजार रुपया दे देगा ?” "क्यों नहीं, अगर उसे इज्जत बचानी है, तो वह शर्तिया देगा ।"

" और अगर न दे तो ?"

"तो मैं उसके पाँच जूते जरूर मारूँगा और वह भी ठीक चौराहे पर, जहाँ सब लोग देख सकें।"

" तो उसके लिए तुम्हें जेल जाना पड़ेगा ।"

“अरे जेल जाने से क्या हुआ ? जहाँ महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल जैसे बड़े आदमी जेल जाते हैं, वहाँ मुझे जेल जाने में क्या आपत्ति ?”

"वे लोग तो राजनीतिक कारणों से गए हैं ?"

"और मैं भी तो राजनीतिक कारणों से ही जाऊँगा। जानते हो कि मैं सोशलिस्ट हूँ। मैं धन के बराबर बँटवारे में विश्वास करता हूँ । सेठ के पास अधिक रुपया है और उसे इतना रुपया रखने का अधिकार नहीं है।"

"तुम्हारी सफलता के लिए मेरी शुभकामना !” यह कहकर मैं हँस पड़ा ।

और पन्द्रह दिन बाद मिस्टर खुशबख्तराय कचहरी में हाजिर किए गए। उन पर अभियोग था कि...चौराहे पर उन्होंने सेठ... के पाँच जूते मारे। अपने सबसे घनिष्ठ मित्र की पैरवी मुझे ही करनी पड़ी।

अदालत में मिस्टर के. राय ने सोशलिज्म पर एक लम्बा-चौड़ा व्याख्यान दिया और मजिस्ट्रेट ने उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें छह महीने के लिए सरकारी मेहमान बना लिया।

जिस समय मिस्टर खुशबख्तराय जेल जा रहे थे, उन्होंने मुझसे कहा - "सुरेश, देखना छह महीने बाद जब मैं उस सेठ से कहूँगा कि अबकी रुपया दो या बीच चौराहे पर फिर पाँच जूते मारूँगा, तो इस बार वह शर्तिया रुपए दे देगा। समझ और देखो पत्रों में मेरा बयान प्रकाशित करवा देना ।"

तीन महीने बीत चुके हैं, और तीन महीने बाद मिस्टर खुशबख्तराय जेल से बाहर आयेंगे। मैं उनकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ: देखूँ कि इस बार उनको सफलता मिलती है या नहीं । यदि उनको सफलता मिल गई, तो दुनिया को रुपया पैदा करने का एक बहुत ही नया और सरल उपाय मालूम हो जाएगा।

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