दस फार एंड नो फर्दर : हरिशंकर परसाई
Thus Far And No Further : Harishankar Parsai
गुरुनिंदा मैं काफी कर चुका। पुराना विश्वास है कि गुरु निंदा से कोढ़ होता है । तो शिष्य का अंगूठा कटवाने से कैंसर होता होगा । द्रोणाचार्य को हुआ होगा । सामंत पुत्र के लिए जो गरीब के पुत्र का अंगूठा कटवा ले, ऐसे गुरु को युद्ध में वीरगति से नहीं मरवाना था। व्यास ने न्याय नहीं किया ।
अच्छे गुरुओं का मैंने आदर भी किया है । इसलिए मुझे कोढ़ नहीं हुआ, 'प्लूरिसी' हुई थी। आगे चलकर मैं खुद अध्यापक हुआ और मैं अध्यापकों का पहला संगठन बनानेवालों में हूँ। मैं अध्यापकों का नेता रहा हूँ। गुरुओं के जुलूस निकलवाए हैं, हड़तालें करवाई हैं - और स्कूलों से नौकरियाँ खोई हैं। मैं कर खड़ा हूँ अध्यापकों के हितों के लिए, अधिकारों के लिए, बेहतर ज़िंदगी के लिए। यह कथा आगे कहूँगा ।
मगर इनसे शिकायतें चालीस साल पहले भी थीं और अब भी हैं। अब ज़्यादा हैं । तब चालीस साल पहले नीचे की कक्षाओं के अध्यापक बच्चों को पीते थे, यह सही है । पर यह एक 'रिफ्लेक्स' जैसा था । अन्यथा वे छात्रों को चाहते थे । उनमें दिलचस्पी लेते थे । उनकी उन्नति चाहते थे । वे नैतिक दायित्व भी अनुभव करते थे और शिक्षण को एक पवित्र कार्य भी मानते थे । आदर्शवादिता थी उनमें । यह बात अब बहुत कम है।
मैं ऐसा नहीं कहता कि पुराना ज़माना बेहतर होता है। नहीं, असल में आज़ादी के बाद से मूल्यों में लगातार गिरावट आती गई है। मूल्य-पद्धति बहुत बदल गई है। इस मूल्य-पद्धति के केंद्र से मनुष्यता हट रही है ।
लोग अभी भी अध्यापकों से उच्चतर नैतिक मूल्यों की अपेक्षा करते हैं । कॉलेज और विश्वविद्यालय को सरस्वती के पवित्र संस्थान मानते हैं । वहाँ की कोई शिकायत हो, तो अखबारों में लोग पत्र लिखकर ग्लानि बतलाते हैं - सरस्वती के पवित्र मंदिर में तो ऐसा अनैतिक कृत्य नहीं होना चाहिए। तो अनैतिक कृत्य कहाँ शोभा देते हैं ? हमने क्या यह मान लिया कि इन इन जगहों में अनैतिक कृत्य होंगे, भ्रष्टाचार होगा। और यह जायज होगा। पूरी तरह न्यायसंगत । अनैतिकता इन जगहों में शोभा देगी। मगर हाय ! सरस्वती के पवित्र मंदिर विश्वविद्यालय में ऐसा अनैतिक काम नहीं होना चाहिए। मैंने एक विश्वविद्यालय में भाषण देते समय अध्यापकों और छात्रों से कहा था : 'लोग आप लोगों से बहुत अधिक आशा करते हैं। आप में से अधिकांश अध्यापक यहाँ सरस्वती की भक्ति के कारण नहीं आए, विद्यादान को पवित्र मानकर नहीं आए। आप सिर्फ नौकरी कर रहे हैं। यहाँ नौकरी न करते तो पुलिस या आबकारी या इनकमटैक्स विभाग या सेल्सटैक्स विभाग में करते या जुआ सट्टा खिलाते । अभी भी आप में बहुत से ऐसे लोग यहाँ बैठे हैं, जिन्हें पुलिस थानेदारी मिल जाए, तो वे फौरन सरस्वती की गोद छोड़कर थानेदार की कुर्सी पर बैठ जाएँ। आपसे विशिष्ट नैतिकता की माँग होती है। समाज में संपूर्ण मूल्य-पद्धति (टोटल वैल्यू सिस्टम) होती है, खंड-खंड नहीं । विश्वविद्यालय हिंद महासागर में स्थित कोई दूर का द्वीप नहीं है, जहाँ बंबई के सट्टे की हवा न पहुँचती हो । जो नैतिक मूल्य राजनीति में, बाजार में, पुलिस में, आबकारी में होंगे, वही विश्वविद्यालय में होंगे। आप लोग बदनाम कम हैं, सो इसलिए कि इस जगह मौके कम हैं । पर जो भी मौके हैं, उनका उपयोग आप भी करते हैं । पुलिस विभाग सरीखे मौके यहाँ होते तो आप भी थानेदार सरीखे जुए का हफ्ता बटोरते और बदनाम होते। मगर मेरा यह मतलब कतई नहीं है कि विश्वविद्यालय भी भ्रष्ट हो जाएँ। वे न हों !
अगर कोई यह भ्रम पाले है कि ये आचार्यगण प्रकाश देते हैं, हमें पिछड़ेपन से खींचकर बाहर निकालते हैं, आधुनिक बनाते हैं और वैज्ञानिक दृष्टि देते हैं, तो इस भ्रम को निकाल दें । तुलसीदास के ज़माने में तो कुल ब्राह्मणवाद होगा, पर आज विश्वविद्यालय में कान्यकुब्ज ब्राह्मणवाद और सरयूपारी ब्राह्मणवाद है। यह क्या प्रक्रिया है कि हम जितना ज़्यादा पढ़ते हैं उतना ही पीछे जाते हैं ? जवाहरलाल नेहरू बार-बार 'साइंटिफिक टेंपर' और 'साइंटिफिक एटीट्यूड' अपनाने पर ज़ोर देते थे। मगर यह वैज्ञानिक दृष्टि दे कौन ? नई शिक्षा नीति के संबंध में मुझसे बात करने प्रोफेसर लोग आते रहे हैं। मैं कहता हूँ : आप में जो विज्ञान पढ़ाते हैं, डॉक्टर ऑफ साइंस हैं, वे सिर्फ़ 'लेबोरेट्री' (प्रयोगशाला) में ही वैज्ञानिक दृष्टि रखते हैं । बाहर अवैज्ञानिक हैं। आप प्रयोगशाला से बाहर हुए नहीं कि शास्त्री से जादू-टोनावाले हो जाते हैं। जीवन और जगत के बारे में आपकी दृष्टि अवैज्ञानिक होती है। आप अपनी सफलता के लिए सत्य साईं बाबा, हनुमान जी या किसी भी तांत्रिक की भक्ति करते हैं। आप प्रयोगशाला में ऑक्सीजन और हाइड्रोजन को मिलाकर पानी बना देते हैं। इसी तरह प्रयोगशाला में आप यह सिद्ध करके दिखाइए कि आप रीडर से प्रोफेसर सत्य साईं बाबा की फोटो टाँगने से और भभूत खाने से हुए। उस भभूत का विश्लेषण करके बताइए कि इसमें वे तत्व हैं, जिनसे नौकरी में तरक्की मिलती है । प्रोफेसरी और सत्य साईं बाबा की भभूत में कार्य-कारण संबंध आप सिद्ध कीजिए ।
विज्ञान की ऊँची-से-ऊँची पढ़ाई करके डिग्री ले लेने का यह ज़रूरी निष्कर्ष नहीं है कि दृष्टि वैज्ञानिक हो जाएगी। कृष्ण मेनन ने लिखा है कि यूरोप में मुझे विज्ञान में नोबल पुरस्कार प्राप्त ऐसा वैज्ञानिक मिला, जिसका विश्वास है कि दुनिया कुल ढाई दिनों में वैसे ही बनी जैसा बाइबिल में लिखा है ।
गुरु- रु-शिष्य संबंध आदान-प्रदान का है। गुरु में देने की क्षमता चाहिए और शिष्य में लेने की। लोटे को महासागर में डुबाओ तो भी उतना ही पानी उसमें आएगा जितना डबरे में डुबाने से। और इधर टंकी में पानी नहीं है, तो कितना ही मोटा नल हो, वह सुरसुराएगा पर पानी की एक बूँद नहीं टपकाएगा । तुलसीदास ने दो परस्पर-विरोधी पर दोनों सही बातें कही हैं। कहा है:
सठ सुधरहिं सत्संगति पाई ।
पारस परस कुधातु सुहाई । ।
यह पारस की क्षमता है कि लोहे जैसी घटिया धातु को स्पर्श से सोना बना देता है।
दूसरी जगह कहा है :
मूरख हृदय न चेत जो गुरु मिलहिं विरंचि सम
फूलहि फलहिं न बेंत जदपि सुधा बरसहि जलद ।
बादल चाहे अमृत बरसाएँ, मगर बेंत में फूल और फल नहीं आएँगे ।
मुझे हाईस्कूल में एक पारस अध्यापक मिले और मैं भी कोरा बेंत नहीं था ।
ग्यारहवीं कक्षा के आरंभ में हमें बताया गया कि हमारे अंग्रेजी के नए अध्यापक आ रहे हैं - केशवचंद्र बग्गा । हम लोगों ने कहा - लो, मैनेजर ने पंजाब के म्यूजियम से एक और अजूबा बुला लिया। ऐंजी ! पणजाब दा शेक्सपीअर आरिया है।
एक दिन हेड मास्टर माथुर साहब केशवचंद्र बग्गा को लेकर आए और कक्षा में उनका परिचय दिया। वे अंग्रेज़ी और इतिहास के एम.ए. . थे । माथुर साहब ने कुछ इस तरह बयान किया गोया बग्गा जी ने इस स्कूल में आकर मेहरबानी की हो । बात यह थी कि बग्गा साहब के बहनोई शर्मा जी हमारे यहाँ अध्यापक थे । उन्होंने बग्गा जी से कहा कि कुछ समय के लिए यहीं आ जाओ । मैनेजर ने उनसे विशेष आग्रह भी किया था ।
माथुर साहब चले गए। हमारे सामने थे मझोले कद के एक 30-32 साल के आदमी । खादी की शेरवानी और चूड़ीदार पाजामा । रंग गोरा । चश्मे के भीतर बहुत सुंदर और भावपूर्ण आँखें, जिनमें बुद्धि की चमक। पूरे व्यक्तित्व में सहज आत्मीयता । बग्गा साहब बोले : 'आई एम योर फ्रेंड एंड एल्डर ब्रदर । शैल लर्न टुगेदर एंड लर्न फ्रॉम ईच अदर ।' यह बात बिलकुल नई थी। हम इस आत्मीयता के आदी नहीं थे । हम आदी थे किसी खीझे हुए अध्यापक के जो कहता : 'यू हैव लर्न्ट नथिंग ! ओपन पेज 57 एंड यू-यू फूल सिटिंग इन लेफ्ट कॉर्नर, बिगिन रीडिंग लाउडली ! '
बग्गा मास्टर साहब ने पढ़ाना शुरू किया । बहुत डूबकर पढ़ाते थे । विनोद- प्रतिभा गज़ब की थी । एक घंटे में हम कितना सीख जाते और कितना मज़ा लेते थे, इसका अंदाज़ इससे लगाया जा सकता है कि जब उनके पीरियड की घंटी बजती तो हम उछल पड़ते और कहते : 'वाह, बग्गा मास्साब का पीरियड आ गया।' बग्गा जी मुसकराते हुए प्रवेश करते और हमारे चालीस मिनिट ज्ञान और आनंद में निकलते । चालीस मिनिट में से पच्चीस मिनिट में कोर्स पढ़ाते और बाकी पंद्रह मिनिट में वे कितनी बातें बताते - इतिहास की, साहित्य की, स्वाधीनता आंदोलन की । उनके पास चुटकुले और लतीफे थे । वे बात-बात में मज़ाक करते । कभी अकबर इलाहाबादी के शेर सुनाते, कभी उनकी नज़्म 'आम भेजिए ।' शेक्सपीयर तो उन्हें शायद पूरा ही याद था । वे उर्दू पढ़े थे । इसलिए उर्दू साहित्य पर उनका बड़ा अधिकार था । इतिहास के पंडित थे । इतनी छोटी उम्र के, इतने कम ज्ञान के हम छात्रों से इस कदर दिलचस्पी और बराबरी से संवाद करते थे ।
एक शाम हम लोग 'हाई जंप' (ऊँची कूद ) कर रहे थे। शायद चार फीट पर रस्सी थी और हम कूद रहे थे। उधर से बग्गा जी चूड़ीदार पाजामा और कुर्ता पहने आए। पूछा : 'कितनी ऊँचाई पर है ? ' हमने कहा: 'चार फीट ! उन्होंने कहा : 'साढ़े चार कर दो।' हमने साढ़े चार फीट कर दिया। बग्गा साहब 6-7 कदम दौड़े और गुड्डे की तरह कूद गए। बोले : 'अब पाँच फीट कर दो ।' पाँच फीट भी वे कूद गए। फिर इंच-इंच बढ़वाते गए और कूदते गए । इसके बाद मैदान में फुटबॉल का ऊँचा-से-ऊँचा 'किक' मारने की स्पर्धा चल रही थी । बग्गा जी ने जितना ऊँचा 'किक' मारा, उतना ऊँचा हमने नहीं देखा था । उन्होंने बताया: 'मैं लगातार दो साल विश्वविद्यालय का चैंपियन रहा हूँ।' उन्होंने यह भी बताया कि मुझे दोनों एम. ए. में विश्वविद्यालय में टॉप करना था। पर मुझे दोनों में दूसरा दर्जा मिला, क्योंकि मैं बहुत धीरे लिखता हूँ । मैंने किसी पर्चे में पूरे सवाल नहीं किए। अब धीरे-धीरे पीएच. डी. के लिए अध्ययन कर रहा है ।
बग्गा साहब को ठंड बहुत लगती थी । एक दिन ओले गिरे और ठंड बहुत बढ़ गई। बग्गा मास्साब क्लास में आए तो हमने देखा कि मोटे हो गए हैं। वे मुसकराए । बोले : 'आज मोटा हो गया हूँ न । देखो, मैं कितने कपड़े पहने हूँ ।' वे बटन खोल-खोलकर दिखाते गए - ओवरकोट, उसके नीचे शेरवानी, शेरवानी के नीचे जैकेट, जैकेट के नीचे स्वेटर, स्वेटर के नीचे कुरता, कुरते के नीचे एक और स्वेटर, स्वेटर के नीचे बनियान । इतने लदे हुए थे वे ।
बग्गा साहब पर इतना ज़्यादा इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि उन्होंने मुझमें ज्ञान के लिए उत्कट प्रेरणा जगाई, अध्ययन की आदत डाली और साहित्य के संस्कार दिए। मैट्रिक में कौन अध्यापक अपने प्रिय छात्रों को शेक्सपीयर के नाटक पढ़ाता है । बग्गा साहब ने यह किया । 'जूलियस सीज़र' और 'मर्चेंट ऑफ वेनिस' के तो नाटक खिलवा दिए ।
मेरा मित्र था - मनोहरलाल तिवारी । हम दोनों हमेशा साथ रहते थे । पढ़ते थे, घूमते थे, बातें करते थे। हमने कस्बे की 'अग्रवाल लाइब्रेरी' पूरी पढ़ डाली थी ।
हाई स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक पढ़नेवाले छात्रों का यह सौभाग्य है कि अध्यापक 'अग्रवाल लाइब्रेरी' से पुस्तकें नहीं लेते। इसलिए प्रतिभावान छात्रों को पुस्तकें मिल जाती हैं ।
मैं और मनोहर पुस्तकें 'चाटते' जाते थे । सचमुच चाटते थे। हमारी पढ़ने बहुत तेज़ थी । मैं बहुत तेज़ पढ़ता हूँ। पृष्ठ का ऊपर, मध्य और अंत इन तीनों हिस्सों पर नज़र डालकर पन्ना पलट देता हूँ । मगर उस पृष्ठ का कुछ भी नहीं छटता । दूसरे, मेरी स्मरण शक्ति बहुत तीव्र है। बग्गा साहब ने हमें जवाहरलाल नेहरू की 'ग्ल्म्सेिज़ ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री' के दोनों खंड दिए और मनोहर ने तथा मैंने दोनों पढ़ डाले ।
हम अंग्रेज़ी के दो दैनिक पत्र रोज़ पढ़ते थे- 'फ्री प्रेस जर्नल' तथा 'हितवाद' । कहाँ से पढ़ते थे ? खरीद तो सकते नहीं थे । स्कूल में आनेवाले अखबार अध्यापकों के कमरे में ही रहते थे ।
पोस्ट मास्टर मेरे पिता के बहुत अच्छे दोस्त थे । वे तथा उनकी पत्नी मुझे बहुत चाहते थे । उनके छोटे भाई श्यामलाल रेलवे में असिस्टेंट स्टेशन मास्टर थे । पर उन्हें वैराग्य का दौरा आया और वे नौकरी छोड़कर अपने भाई के पास रहने लगे । हम उन्हें 'काका जी' कहते थे। काका जी बहुत अनुभवी, तीव्र बुद्धि और समझदार आदमी थे। वे मुझे और मनोहर को अखबार पढ़वाते थे। शहर में कुछ लोगों के यहाँ अखबार आते थे। काका जी दो अखबारों की एक डिलीवरी रोक लेते। हम जाते तो वे बड़ी सावधानी से पतेवाले रैपर में से अखबार निकाल लेते और हम तीनों पढ़ते । फिर काका जी उन पर जैसा-का- तैसा रैपर चढ़ा देते ।
काका जी मस्त आदमी थे । तरह-तरह के किस्से सुनाते थे । दूसरे महायुद्ध के शुरू होने से रेलों में फौजियों का आना-जाना बहुत बढ़ गया था। हम इन गाडियों को देखने रेलवे स्टेशन जाते थे । काका जी ने अपना अनुभव सनाया: "स्टेशन पर मैं ड्यूटी पर था। बड़े कस्बे का स्टेशन था। मिलिटरी स्पेशल वहाँ रुकी। पूरी अंग्रेज फौज थी। एक कैप्टन दो-तीन सिपाहियों के साथ स्टेशन मास्टर के कमरे में घुसा। वहाँ मैं कुर्सी पर था। कैप्टन ने एकदम माँगें रख दीं : 'इतना बर्फ, इतने अंडे, इतना मक्खन, इतनी सिगरेटें।' मैंने कहा : 'यह छोटी जगह है । यहाँ ये चीजें नहीं मिलेंगी। तीन स्टेशन बाद जंक्शन है । वहाँ मिल जाएँगी ।' कैप्टन ने गुस्से से कहा: 'बट माई कर्नल टोल्ड मी दि स्टेशन मास्टर विल अरेंज ऐवरी थिंग । व्हाट काइंड ऑफ ए ब्लडी फूल स्टेशन मास्टर आर यू !'
"मैं ज़रा देर तो इस रिमार्क से विचलित हुआ। फिर मैंने धीरज से कहा : 'कैप्टन, आई डू नॉट नो दॅ काइंड्स ऑफ ब्लंडी फूल्स । बट आई डू. नो दैट दॅ इंग्लिश आर कल्चर्ड एंड रीजनेबल पीपल ।' इससे कैप्टन का पानी उतर गया। उसने फौरन कहा: 'आयम वेरी सॉरी मिस्टर स्टेशन मास्टर फॉर माई बिहेवियर । प्लीज फॉरगिव मी। हैव ए सिगरेट ।' वह शर्मिंदा होकर चला गया। "
बग्गा साहब के साथ मैं और मनोहर घूमने जाते। रास्ते में वे बहुत-सी बातें बताते । उदाहरण उन्हें हज़ारों याद थे । शेक्सपीयर को अक्सर उद्धृत करते । ए. जी. गार्डनर के 'आल्फा ऑफ द प्लग' और 'फीबल्स ऑन द शोर' में से नाते । डिकिन्स की बात करते । उर्दू के अच्छे शेर तो बात-बात में बोलते । एक खास पुलिया पर आकर वे रुकते और कहते : 'दस फार एंड नो फर्दर' और लौट पड़ते ।
जब मैं लेखक हो गया तो दिल्ली से मुझे उनकी चिट्ठी मिली-
My dear Harishankar,
I have read some articles under your name. I am told, you have quite a reputation. Are you the same Harishankar, whom I taught in Radha Swamy High School, Timarni, in 1938-39? If you are the same, see me when you are in Delhi next. I do not know your standard of living now, but you can comfortably stay with me.
आखिरी पत्र में उन्होंने लिखा कि मेरी एक टाँग की हड्डी टूट गई थी। वह जुड़ी और मैं बैसाखी से चलने लगा, तो दूसरे पाँव की तीन अँगुलियों में 'इनफेक्शन' हो गया और उन्हें काटना पड़ा। और आगे : When sorrows come they come not single spies but in battalions (जब दुख आता है तो एक अकेले सैनिक की तरह नहीं, दुखों की पूरी फौज आती है ।) बगा साहब ने ही मुझे साहित्य के संस्कार दिए और ज्ञान की अनंत पिपासा दी । उन्होंने मुझे इतिहास - चेतना दी और इतिहास-बोध दिया। पर मैंने तब एक पंक्ति भी नहीं लिखी बल्कि आठ साल बाद लिखना शुरू किया। लेकिन प्रेरणा वही थी ।
मैं खुद अध्यापक रहा हूँ, सैकड़ों अच्छे अध्यापक भी देखे हैं। पर केशवचंद्र बग्गा सरीखा कोई नहीं ।
दस फार एंड नो फर्दर !