वो गुज़रा जमाना (आत्मकथा) : स्टीफन ज्विग (अनुवाद : ओमा शर्मा)

The World of Yesterday (Autobiography) : Stefan Zweig

अनुवादक का कथ्य

हमारे समकालीन साहित्य में स्टीफन स्वाइग बहुत चर्चित नाम नहीं है हालांकि बीती सदी के मध्यांतर तक इस जर्मन - भाषी ऑस्ट्रियाई लेखक की लगभग पूरे विश्व साहित्य में तूती बोलती थी हर भाषा के कुछ हलकों में स्टीफन स्वाइग का नाम अलबत्ता बेहद सम्मान के साथ लिया जाता रहा है कथा साहित्य के स्तर पर स्वाइग ने दोस्तोवस्की और टॉल्सटॉय की तरह न तो वृहत दस्तावेजी उपन्यास लिखे और न चेखव और ओ हेनरी की तर्ज पर समाज पर कटाक्ष करती चुस्त कहानियां फिर भी कहना होगा कि एक मनोवैज्ञानिक पडताल की मार्फत कहानी को एक कला की सरहद तक ले जाने का श्रेय इसी लेखक को जाएगा । "अनजान औरत का खत", "एक औरत की जिन्दगी के 24 घंटे", "डर", "रॉयल गेम", "अमोक" और "बर्निंग सीक्रेट" जैसी लम्बी कहानियां इसके जीवन्त प्रमाण हैं ठीक उसी तरह जैसे दो-दो विश्व युद्धों की विभीषिका को झेलती मानवता की त्रासदी (और उसकी खिलाफत) को "अतीतजीवी", "भगोड़ा" और "किताबी कीड़ा" जैसी कहानियों, "जेरेभिहा" जेसे नाटक और "बिवेयर ऑफ पिटी" जैसे उपन्यास में गहरे, सार्थक और खास अन्दाज में दर्ज किया गया है

बहुत कच्ची उम्र में कविताओं से अपने लेखकीय जीवन की धमाकेदार शुरूआत करने वाले इस लेखक का विश्व साहित्य में विपुल और बहुआयामी अवदान है नाटक, कहानी और उपन्यास लेखन के अलावा जीवनी लेखन के क्षेत्रों में स्वाइग की पहचान अद्वितीय है फ्रायड, रोमां रोलां, टॉल्सटॉय, दोस्तोयेव्स्की, डिकन्स और बाल्जाक जैसे सर्वकालिक लेखकों - विचारकों पर लिखी उसकी आलोचनात्मक जीवनियाँ सतत बारीक मनोवैज्ञानिक अध्ययन के अलावा दरअसल जीवनी लेखन का विधागत विस्तार हैं

स्वाइग एक यहूदी था और पैदाइश से एक ऐसे देश (ऑस्ट्रिया) का नागरिक जो लम्बे अरसे तक विश्व की सांस्कृतिक राजधानी रहने के बावजूद प्रथम विश्व युद्ध के बाद हिटलर (जर्मनी) की फासिस्टवादी ताकतों की गिरफ्त का शिकार हो गया एक कमजोर लाचार देश और प्रताडित कौम से सम्बद्ध होने के कारण, विश्वव्यापी लेखकीय सफलता के बावजूद उसे कौम के लाखों मासूमों की तरह दर-बदर ठोकरें खानी पडीं, मगर शुक्र है उस रूप में जान नहीं गंवानी पडी हालांकि इन्हीं ठोकरों को झेलते-झेलते उसने एक परदेशी जमीन (ब्राजील) पर 1942 में अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली । द वर्ल्ड ऑफ यसटर्डे (आत्मकथा) को आत्महत्या से कुछ महीने पूर्व ही पूरा किया था इसका प्रकाशन तो उसके मरणोपरांत ही हो सका स्वाइग की दूसरी चर्चित और लोकप्रिय रचनाओं की तरह यह भी विश्व स्तर पर खूब चर्चित और अनूदित हुई यह कई अर्थों में एक विरल पुस्तक है मसलन, आत्मकथा होने के बावजूद यहां लेखक या उसके निज का कोई भी पहलू केन्द्र में नहीं है लेखक की आदतों या संघर्ष पर रोशनी का एक भी कतरा यहां अनुपस्थित है इसके केन्द्र में कुछ है तो वह है लेखक का समय और वैश्विक चेतना जिसमें लेखक जी रहा है या अपनी प्रेरणा ग्रहण कर रहा है कई अर्थों में यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज भी है क्योंकि बीती सदी के पूर्वार्ध्द के एक दशक के भीतर विश्व व्यवस्था का फासिस्टवादी-नाजीवादी शक्तियों ने जो कायाकल्प कर दिया, यह उसके सूत्रों को व्यापक फलक पर पूरी तटस्थता से पेश करती है रचनात्मकता और साहित्य को समर्पित एक विदग्ध प्रतिभा जीवन में किन सरोकारों (कलात्मकता) और मूल्यों (स्वतन्त्रता, अन्तर्राष्ट्रीयवाद) के साथ अपना रास्ता चुनती है, कह सकते हैं, यह आत्मकथा इसकी बेहतरीन मिसाल है आत्मकथा लेखक यहां एक सूत्राधार की भूमिका में है कभी तो एक नादान प्रशिक्षार्थी की भूमिका में भी और उसी भूमिका में वह कभी अपने दिग्गज समकालीनों रिल्के, रोदां, गोर्की, हर्जल, रोमां रोलां, वेरहारन, रिचर्ड स्ट्रॉस, हाफमंसथाल, शॉ, वेल्स और फ्रायड की रचनात्मकता के बरक्स उनकी निजी खूबियों की बेदाग तस्वीर पेश करता है तो कभी रूसी, ब्रितानी, ऑस्ट्रियाई या अमरीकी समाज की बुनियादें उघाडता है अपने समय और समाज की पडताल करते हुए कोई रचना कैसे सार्वभौमिक और सर्वकालिक हो सकती है, यह इस आत्मकथा को पढक़र ही समझा जा सकता है फासिस्टवादी शक्तियों के इधर बढते उभार के मद्देनजर, बिना किसी कटुता के यह हमें बोध करा देती है कि शैशव में फुटकर और नामालूम दिखने वाली मानसिकता कितनी क्रूर, विद्रूप और संहारक हो सकती है लेखक स्वाइग की रचनात्मकता के सूत्रों-अन्तरसूत्रों को समझने के लिए तो यह परोक्ष खदान है ही। पूरी पुस्तक के दौरान पल भर भी यह एहसास नहीं होता है कि लेखक अपनी किसी अतृप्त इच्छा, सफल-असफल प्रेम-प्रसंगों या वैचारिक ग्रन्थी को वैधता देने या उसका रोना पीटने में लगा है जैसा पिछले दिनों हिन्दी की एकाधिक आत्मकथाओं में गोचर हुआ बल्कि हैरत होती है कि दूसरे विश्व युद्ध के आसपास, यहूदी होने के कारण, हिटलर द्वारा स्वाइग को जिस तरह खदेड़ा गया, उस दौर में साहित्य, जीवन, कला, लेखकों-कलाकारों और स्थितियों की ऐसी निष्पक्ष और कलात्मक पडताल मुमकिन कैसे हुई? जिन्दगी का तमाम हासिल भाषा, मुल्क, परिवार-समाज, रचनाएं और कला-संग्रह छिन जाने के बाद, शोहरत के शिखर से दुरदुराया लेखक टॉल्सटॉय की मजार की खूबसूरती, रिल्के के गुमसुमपने, गोर्की के ठेस हाव-भावों, स्ट्रॉस की तुनकमिजाजी, स्कूली दिनों की मनहूसियत, पेरिस के फक्कड दिनों और वियना शहर के कला रूझानों को एक साथ इतनी निर्मम निष्पक्षता से कैसे दर्ज कर पाया। मगर हलचल-चकाचौंध से परहेज करने वाला स्वाइग जैसा उस्ताद लेखक जब अपने समय के साथ मुठभेड करता है तभी एक बडी कलाकृति सम्भव हो पाती है।

बानगी के लिए द वर्ल्ड ऑफ यसटरडे (वो गुजरा जमाना) के हिन्दी रूपान्तर के चुनिन्दा अंश यहां प्रस्तुत हैं सन्दर्भित टिप्पणियां मेरी हैं ताकि परिप्रेक्ष्य समझने में आसानी रहे।

ओमा शर्मा

पहला अंश : पेरिस के दिन : रिल्के, रोदां और एक चोर का वाकया

अपनी गुजरी जिन्दगी पर जब नजर ड़ालता हूं तो लगता है ऐसे कुछ महापुरूषों के साथ हुए मानवीय नैकट्य (जिनके प्रति मेरा शुरूआती श्रद्धाभाव उम्र भर की दोस्तियों में तब्दील हो गया) के सौभाग्य से ज्यादा बेशकीमती सौगात और कुछ नहीं है।

इन सबमें रिल्के ऐसा था जो सबसे ज्यादा शालीनता, चुपचाप और नामालूमपने से रहता था लेकिन ऐसा वह जान-बूझकर या जबरन नहीं करता था, और न ही जर्मनी के स्टीफन जॉर्ज की तर्ज पर, किसी महात्माई तन्हाई के खोल का जश्न मनाता था वह जहां भी होता, जहां भी जाता, खामोशी उसके चारों तरफ उगने-सी लगती चूँकि वह हर तरह के शोर, यहां तक कि खुद की शौहरत (जो उसके मुताबिक ''एक नाम के ऊपर जमी गलतफहमियों का ढेर थी'') से भी बचता था इसलिए उसकी उमडती निठल्ली जिज्ञासा की लहर उसके व्यक्ति को कभी नहीं छू पाती, सिर्फ उसके नाम को छूकर निकल जाती। रिल्के की पार पाना मुश्किल था उसका कोई ठौर या पता-ठिकाना नहीं था जहां उससे मिला जा सके न उसका कोई दफ्तर या स्थायी ठीया था वह हमेशा दुनिया को नापने की जुगत में रहता किसी और को क्या जब उसे ही खबर नहीं होती कि वह किधर जायेगा उसकी बेलौस संजीदा रूह को हर फैसला, तमाम इन्तजाम और हरेक घोषणा बोझा लगती उससे हमेशा, इत्तफाकन ही मिला जा सकता था आप किसी इतालवी दीर्घा में खडे हैं और यकबयक लगे (जिसे आप जान भी न पायें कि कैसे) कि आपकी तरफ एक नरम दोस्ताना मुस्कराहट मुखातिब है आप तब उसे पहचानतेउसकी नीली आंखें जो मिलने पर उसकी अन्यथा प्रभावहीन भंगिमा पर जोत-सी जगा देतीं मगर यह प्रभावहीनता ही उसके वजूद का सबसे पुख्ता राज थी उस नौजवान को देखकर हजारों लोग यूं ही निकल गये होंगे। हल्के अवसाद में ढली रेशमी मूंछें और कुछ-कुछ स्लेवियाई नैन नक्श दिखने में एक भी खासियत ऐसी नहीं कि किसी को लगे कि वह कवि है और वह भी हमारी पीढी क़े महानतम कवियों में एक ! उसकी शख्सियत और उसका असामान्य आचरण केवल नजदीकी ताल्लुकात के बाद जाहिर हो पाते उसकी चाल-ढाल और बोलचाल की नजाकत का क्या कहिए कभी वह उस कमरे में आये जहां चार लोग साथ बैठे हों तो वह इस कदर बेआवाज आता कि कोई गौर ही न कर पाये वहां चुपचाप बैठकर वह सुनता रहता। कोई चीज उसकी सोच को जब कुरेदती तो अनायास अपना सिर ऊपर उठा लेता कभी बोलना शुरू करता तो बिना किसी लाग लपेट या ऊंची आवाज के ऐसे सहज और सरल ढंग से बोलता जैसे कोई मां अपनी लाडली को परीकथा सुना रही हो (और उतने ही दुलार से) उसे सुनते हुए ऐसा आनन्द आता कि बेहद मामूली-सा विषय भी सुरम्य और अहम हो उठता लेकिन उसे भनक हो जाये कि चार लोगों के बीच सभी की निगाहें उसी पर टिकी हैं तो वह तुरन्त अपनी खामोशी की केंचुल में (ध्यान लगाकर सुनने के लिए) दुबक जाता। चाल-ढाल और हाव-भाव में नजाकत थी। वह जब हूंसता भी तो एक आवाज की सुरसुराहट की प्रतीति से अधिक कुछ नहीं होता। उसके लिए आवाज की मंदी जरूरी थी शोर उसके बर्दाश्त बाहर था, भावना के स्तर पर ठीक ऐसे जैसे हिंसा ''ये लोग मुझे निचोड देते हैंये जो अपनी भावनाओं के लिए खून की कै करते हैं'' एक बार उसने कहा था, ''शराब की तरह तभी मैं रूसियों को थोड़ा-थोड़ा करके ही निगलता हूं''। उसके नपे-तुले आचरण, सुघडपन, सफाई पसंदगी और शान्त चित्त की तरह ही उसकी भौतिक जरूरतें थीं वह ठसाठस भरी खुली कार की सवारी कर ले या शोर-शराबे के सार्वजनिक स्थल पर उसे बैठना पड ज़ाये, तो घटों तक वह परेशान रहता कोई भी गंवारू चीज उसे सहन नहीं होती हालांकि वह तंग हालात में रहता था मगर उसके कपडों से ही उसकी नजाकत, स्वच्छता और सलीके का सबूत मिल जाता साथ ही वे उसकी सोच और काव्यात्मक संकल्पनाओं को भी खूब बता देते। वे उसकी अनाडम्बरता के उत्कृष्ट गवाह होते हमेशा अपनी बेलगाम निजता में रचा रहता। उनके साथ वह कोई अतिरिक्त चीज, जैसे कलाई में एक पतला चाँदी का कड़ा जरूर पहनता जिससे उसे अलग सुख मिलता। सम्पूर्णता और संतुलन की खातिर उसका सौन्दर्यबोध बहुत अन्तरंग और निजी से निजी विवरणों में चला जाता एक दफा मैंने उसे, कहीं बाहर जाने से पहले, उसी के कमरे में बक्सा तैयार (पैकिंग) करते देखा मदद करने की पहल उसने गैरजरूरी कहकर ठुकरा दी लग रहा था कोई पच्चीकारी हो रही है ।हर सामान, बडे हौले-से अपनी नियत जगह पर टिकाया जाता फूलों की तरह संवारकर रखने के उसके इन्तजाम में कोई मदद, मुझे लगा उसे किसी अत्याचार की तरह बेचैन कर ड़ालती सुन्दरता की सोच का उसका पैमाना, एक से एक बारीकी को पकडता जाता न सिर्फ अपनी पांडुलिपियों को ही वह बढिया से बढिया कागज पर, पंक्ति दर पंक्ति घुमावदार सुलेख में पिरोता (हर पंक्ति एक-दूसरे से ऐसी सटी होती कि आप फुटे से उनका मिलान कर लें), किसी को भी कभी-कभार खत लिखने के लिए भी उम्दा से उम्दा कागज इस्तेमाल करता (और उतनी ही साफ घुमावदार लिखावट में) कभी भागते-दौडते कुछ लिखना पड ज़ाये तब भी किसी शब्द की काटपीट करना उसे नामंजूर था यदि कोई वाक्य या भाव सही नहीं जँच रहा है तो अपने अद्भुत धैर्य के साथ पूरे खत को ही वह दोबारा लिखता कोई चीज जो मुकम्मल नहीं हो, रिल्के की कलम से गुजरकर कभी नहीं आ सकती थी।

उसके व्यक्तित्व का यही प्रच्छन्न, मगर फिर भी सिलसिलेवार पहलू उसके नजदीक आने वाले हरेक व्यक्ति को प्रभावित करता जैसे यह कल्पनातीत था कि रिल्के शोर मचा सकता है, उसी तरह, रिल्के के सानिध्य में, उसकी निस्तब्धता से निकले कम्पनों के असर तले, कोई अपना समूचा बडबोलापन और अहूं नहीं त्याग देगा, यह भी कल्पनातीत था उसका आचरण चुपके-से, लगातार बडी सोद्देश्य नैतिक शक्ति उडेलता जाता था। उसके साथ हर लम्बी बातचीत के कई घंटे या दिनों बाद तक आप कोई टुच्चापन करने लायक नहीं बचते थे उधर उसका यही शान्त-स्वभाव (और अपने को कभी पूरी तरह न खोलने की इच्छा) उसके साथ खास ताल्लुकात बनाने में अडंग़ा ड़ालती थी मैं समझता हूँ बहुत कम लोग होंगे जो रिल्के के दोस्त होने का गुमान भरते होंगे। उसके पत्रों के प्रकाशित छह संकलनों में इस तरह का सम्बोधन शायद ही कहीं हो स्कूल के दिनों के बाद से उसने शायद ही किसी को बिरादराना तू कहा हो दूसरे को किसी प्रकार की नजदीकी देने से उसकी आला दर्जे की संजीदगी पर बोझा चढ ज़ाता था कोई ऐसी चीज जिसमें पुरूषवत धौंस धंसी हो, उसे शारीरिक कष्ट देती जाती महिलाओं के संग बातचीत में वह ज्यादा सहज रहता उन्हें वह अक्सर और खुशी से चिट्ठियां लिखता और उनके सान्निध्य में ज्यादा खुलाखुला महसूस करता। कंठ में कर्कशता की अनुपस्थिति के कारण उनका स्वर उसे भाता था क्योंकि आवाज में, कर्कशपन उसे सहन नहींहोता था मुझे अभी भी याद है कि किसी पुरूष के साथ बातचीत में, उस पुरूष के पैदाइशी दंभी उच्च स्वर के कारण, उसकी आभिजात्य भंगिमा पूरी तरह निचुड ज़ाती, कन्धे पीड़ा से कराहते और नजरें, हो रहे शारीरिक कष्ट से दगा न करने की कोशिश में, जमीन में गडने लगतीं लेकिन किसी की तरफ जब वह मुरव्वत से मुखातिब होता तो कितना दिलकश लगता! और तब उसकी अन्दरूनी सदाकत का पता चलताथोडे-बहुत हावभावों के सहारे वह कम ही बोलता मगर, लगता किसी दिव्यज्ञान से, तह तक आत्मा पर मरहम लगा रहा है

दब्बू और शर्मीले रिल्के को पेरिस जैसा जिन्दादिल शहर सबसे ज्यादा चहकाता था, शायद इसलिए कि उसके नाम और काम को यहां अभी कोई नहीं जानता था अज्ञात रहकर ही वह सबसे ज्यादा मुक्त और प्रसन्न महसूस करता। किराये पर ली हुई दो अलग-अलग लॉजों में मैं उससे मिलने गया था दोनों ही बडी सादगी भरी किसी भी तामझाम के बगैर मगर, उसके गहरे सौन्दर्यबोध के कारण फिर भी बहुत कुलीन और शान्त लगतीं। उसका घर कभी भी बड़ा या चिल्लपों करते पड़ोस में नहीं होता पुराने, चाहे कम आरामदायक, घर में वह ज्यादा सहज रहता वह कहीं भी रहे, उसके सुघडपन के कारण उसके वजूद से एकाकार होकर वह जगह नये मायने अख्तियार कर लेती उसके आसपास चीजें बहुत कम ही होतीं मगर किसी कलश या फूलदान में रखे फूल उसके पास जरूर महक रहे होते हो सकता है वे फूल किसी महिला मित्र की भेंट रहे हों या स्नेहवश वह खुद ले आया हो सुन्दर जिल्दों या सावधानी से गत्ते में कसी किताबें दीवार में रखी मुस्कराती रहतीं डेस्क के ऊपर एक सीध में रखे पेन-पेंसिल होते सलीके से जमा-कसा कागजों का बंडल होता एक रूसी और सलीब पर चढे सा मसीह की प्रतिमा जो मैं समझता हूं उसकी यात्राओं में भी उसके साथ रहती। उसके अध्ययन कक्ष को थोड़ा मजहबी रंग देती जाती हालांकि उसके मजहबीपन का किसी खास मत से कोई वास्ता नहीं था महसूस होता कि हर चीज कितने ध्यान से चुनी और सहेजकर रखी गयी है। अगर आप उसे कोई ऐसी किताब उधार दे दें जो उसने नहीं सुनी-पढी हो तो वह उसे बेतोड-मोडे, झिल्लीदार कागज में लपेटकर किसी तोहफे की मानिन्द, रंगीन रिबन से बांधकर लौटाता। मुझे अच्छी तरह याद है कि ''मौत और मोहब्बत की राह'' (द बीस फॉर लीब उंट टोड) की पांडुलिपि को वह कैसे एक कीमती उपहार की तरह मेरे कमरे में लाया था। उसके गिर्द बंधा रिबन मैंने आज भी संभालकर रखा हुआ है लेकिन पेरिस में रिल्के के साथ घूमने की बात ही निराली थी क्योंकि इसका मतलब था मामूली से मामूली चीज को उसके दिव्य स्वरूप के साथ देखना हर बारीकी पर उसकी नजर होती किसी पट्टे पर लिखे नामों में उसे कोई लय नजर आती तो वह उन्हें जोर से पढता पेरिस की रग-रग को जानने की उसमें खुमारी थी (इसके सिवाय मुझे उसमें दूसरा कोई उन्माद नहीं दिखा) किन्हीं दोस्तों के घर मुलाकात पर मैंने उसे बताया कि एक रोज पहले ही मैंने इत्तफाकन पुरानी ''आड'' बारिए(Barriere) देखी जहां गला घोंटकर मारे गये कैदियों की कब्रें हैं, उन्हीं में एक आन्द्रे शैनिये की भी है। मैंने उस छोटे-से खूबसूरत मैदान को भी बताया जहां इधर-उधर फैली कब्रें हैं (जिन्हें आगन्तुकों ने शायद ही देखा हो) साथ ही मैंने उसे बताया कि लौटते वक्त एक कॉन्वेट के खुले दरवाजे से मुझे ऐसी गली दिखाई दी जो बिल्कुल बिगून (beguine)सी लग रही थी (गोया अपनी गुलाब वाटिका को कोई पवित्र सपना सुना रही हो) उन गिने-चुने मौकों में यही एक मौका था जब उस तहजीब पसन्द, सर्द मिजाज शख्स को मैंने लगभग बेताब होते हुए देखा वह आन्दे शैनिये की कब्र और कॉन्वेंट देखने को उतारू हो गया मुझे ले चलोगे वहां? दूसरे दिन हम वहां गये निर्जन कब्रगाह के सामने वह किसी समाधिस्थ मौनावस्था में खड़ा रहा जो उसे पेरिस में सर्वाधिक लयात्मक लगी जब तक हम लौटे, कॉन्वेंट का फाटक बन्द हो गया मेरे सामने उसके प्रशान्त धैर्य (अपने जीवन में जिस पर उसने, अपने लेखन की तरह, महारत पा रखी थी) के इम्तहान की घडी थी ''ठहरते हैं, शायद कुछ बात बने'' उसने कहा सिर थोड़ा झुकाकर वह वहीं खड़ा हो गया ताकि कॉन्वेन्ट का फाटक खुलने पर वह उससे झांक सके कोई बीस मिनट तक हम वहां इन्तजार करते रहे मठ की एक संचालिका (सिस्टर) नीचे आयी और उसने फाटक की घंटी बजा दी ''अब'' वह उत्तेजना में फुसफुसाया लेकिन वह संचालिका उसके मौन इन्तजार को पहले ही भांप गयी थी (मैंने कहा न कि उसके रोम-रोम की महक दूर तक पहुंचती थी) उसके पास आकर वह पूछने लगी कि क्या उसे किसी का इन्तजार है वह अपनी उसी शरीफाना हूंसी में मुस्कराया जिससे आत्मविश्वास एकदम जाग उठता है और गर्मजोशी से बोला कि वह कॉन्वेन्ट के उस गलियारे को देखना चाहता है संचालिका ने भी हूंसी बिखेरी, मगर अफसोस जताया कि वह उसे अन्दर जाने की इजाजत नहीं दे सकेगी। मैंने उसे सलाह दी कि बगल वाले माली के घर के पहले माले की खिडक़ी से भी सब कुछ दिख सकेगा और इस तरह ढेर सारी दूसरी चीजों की तरह, उसकी यह मुराद भी पूरी हो गयी। इसके बाद हम कई दफा मिलते रहे मगर जब भी मैं रिल्के के बारे में सोचता हूं, उसे पेरिस से जोडक़र ही देखता हूं इसके सबसे दारूण वक्त को देखने से वह बच गया।

मेरे जैसे नौसिखिये को ऐसी विरल सोच-समझ के लोगों का बड़ा फायदा रहा लेकिन एक ऐसा बुनियादी सबक जो मेरी पूरी जिन्दगी पर असर करता हो, अभी होना बाकी था। यह सौगात इत्तफाकन मिली वेटहारन के यहां एक कला-इतिहासकार से हमारी बहस हो गयी। उसका मानना था कि महान मूर्तिकला और कला के दिन लद गये हैं। मैंने इसका जोरदार प्रतिवाद किया क्या रोदां(rodin) जैसा शख्स हमारे बीच नहीं है? अतीत के किस महान शिल्पी से वह दोयम है? उसकी रचनाओं को गिनाते-गिनाते, जैसा तकरार के वक्त होता है, मेरी आवाज कडक़ हो गयी वेटहारन खुद पर मुस्कराये, ''किसी को यदि रोदां इतना पसन्द है तो उसे उससे जरूर मिलना चाहिए'' और आखिर में बोले, ''मैं कल उनके स्टूडियो जा रहा हूं,, तुम्हारी मर्जी हो तो चलना मेरे संग''।

''मेरी मर्जी'' खुशी से मेरी नींद हराम हो गयी मगर उनके यहां जाकर मेरी जुबान पर ताला पड ग़या मैं उनसे एक हरफ नहीं बोल पाया और उनके बुतों के बीच उन्हीं की तरह खड़ा रहा मगर क्या अजीब बात कि उन्हें मेरा शर्माना-लजाना पसन्द आ गया क्योंकि विदा लेते समय उस उम्रदराज ने मुझसे पूछा कि क्या मैं, मिडोन स्थित उनके असल स्टूडियो को देखना चाहूंगा? उन्होंने रात के खाने की भी मुझे दावत दे दी। मेरा पहला सबक यह था कि महानतम लोग सबसे ज्यादा रहमदिल होते हैं और दूसरा यह कि अपने रहन-सहन में अमूमन वे बडे साधारण होते हैं। दुनिया भर में उनकी शोहरत थी हमारी पीढी क़े लोगों को उनके कृतित्व की हर लकीर के साथ किसी पुराने दोस्त-सी पहचान थी। इस आदमी के घर हमने बडी सादगी से किसी किसान का सा खाना खायाएक मांस की बोटी, थोडे-से आंवले और ढेर सारे फल साथ में देसी शराब (वें दयू पेई) इससे मेरी हिम्मत बढ ग़यी और अन्त तक बुढउऔर उनकी बीवी से मैं खुलकर यूं बतियाने लगा जैसे उन्हें बरसों से जानता था।

रात्रि भोज के बाद हम स्टूडियो चले गये एक बड़ा कमरा था जिसमें उनकी अधिकांश कृतियों की नकलें थीं वहां छोटी-छोटी सैकडों बहुमूल्य अधूरी कृतियां रखी थीं। एक हाथ, एक बांह, घोडे क़ी अयाल, एक स्त्री का कान ज्यादातर मिट्टी के मॉडल थे। उनमें से कुछ नमूनों की आज भी मुझे खूब याद है और मैं उनके बारे में घंटों बतिया सकता हूं। इन्हें रियाज के लिए बनाया गया था। आखिर में उस्ताद मुझे एक चौंतरे पर ले गये जहां उनकी सबसे ताजा कृति, एक औरत का पोर्टरेट, गीले कपडे से ढकी रखी थी। अपने भारी-भरकम काश्तकारी हाथों से उन्होंने लिबास हटा दिया और दो कदम पीछे हट गये। ''वाह, क्या बात है'' मेरे होंठों से अनायास निकल पड़ा मगर इस घिसेपिटे आकलन पर मैं फौरन ही शर्मसार हो गया। बडी मौन तटस्थता से जिसमें गर्व का एक भी कतरा नहीं था अपनी कृति को देखकर वे बुदबुदाये, ''ये ठीक है न (नेस्पां)'' फिर वे ठिठक गये। ''सिर्फ उस कन्धे के थोड़ा……बस एक मिनट'' कहकर उन्होंने अपना कोट उतार फेंका और चुन्नटवाली सफेद कमीज पहन ली एक चमस (Spatula) उठाई और प्रतिमा के नाजुक पदार्थ (कन्धे) पर यूं दबाकर मारी कि वह एक सांस लेती, जिन्दा औरत की त्वचा लगने लगी, फिर दो कदम पीछे हटे और ''अबकी यहा'' बुदबुदाये। उस मामूली करतब से प्रभाव एक बार फिर बढ ग़या उसके बाद वे बोले कुछ नहीं। कभी थोड़ा आगे जाते, कभी पीछे प्रतिमा को आइने में निहारते और कुछ अटरम-सटरम बर्राते हुए प्रतिमा में बदलाव-सुधार करते रहे खाना खाते वक्त जो निगाहें बडी अजीज लापरवाह-सी थीं, अब बहुत अजीब रोशनी में चौंध रही थीं। वे ज्यादा बडे और जवां हुए जा रहे थे। अपनी भारी-भरकम काया की तमाम ताकत और भावाकुलता से वे काम ही काम पर जुटे रहे। जब भी वे आगे कदम बढाते या पीछे हटते, दरवाजा चरमराता लेकिन उनके कानों पर जूं नहीं रेंगी न उन्होंने यह गौर किया कि उनके पीछे एक नौजवान चुपचाप खड़ा है जिसका दिल इसलिए बल्लियां उछले जा रहा था क्योंकि एक बेमिसाल उस्ताद को उसने अपने काम में रमे देखा था। वह मुझे पूरी तरह भूल गये थे गोकि उनके लिए मैं वहां था ही नहीं। उन्हें मतलब था तो बस उस प्रतिमा, उस आकृति और अपने सृजन से और उसके जरिये परम सम्पूर्णपना हासिल करने की उस अदृश्य निगाह से मुझे याद नहीं पडता कितनी देर।। पर यह सिलसिला कोई चौथाई या आधा घंटे चलता रहा। महान लम्हे हमेशा वक्त के दायरे के पार ही होते हैं। रोदां अपने सृजन में इस कदर एकाग्र होकर खोये हुए थे कि किसी वज्रपात से भी उनकी पलक नहीं झपक सकती थी उनकी चाल-ढाल कडक़ और गुस्सैली-सी हो गयी किसी जुनून या मदहोशी के आगोश में आकर वे और फटाफट काम करने लगे उसके बाद उनके हाथ सकुचा गये, शायद इसलिए कि उन्हें आभास हो गया था कि उनके लायक करने को कुछ और अब बचा ही नहीं था। एक दफा, दो दफा, तीन दफा बिना कोई तब्दीली किये वे पीछे लौटे फिर उन्होंने चुपके से अपनी दाढी में कुछ कानाफूसी की और लिबास को उस बुत पर यूं ओढा दिया मानो कोई अपनी माशूका की शालपोशी कर रहा हो एक गहरी सांस लेकर वे निढाल हो गये। उनकी प्रतिमा और वजनदार लग रही थी। आग बुझ चुकी थी और तब एक ऐसी अबूझ बात हुई जो बहुत बड़ा सबक थी। अपना चुन्नटदार झबला उतार उन्होंने फिर अपना घरेलू कोट चढाया और चलते बने चरम एकाग्रता के उस क्षण में उन्होंने मुझे पूरी तरह बिसरा दिया था। उन्हें होश ही नहीं था कि एक नौजवान जिसे वे खुद अपना स्टूडियो दिखाने लाये थे, उनके पीछे, उनके ही किसी बुत की तरह सांस थामे खड़ा है

वे दरवाजे पर पहुंचे जैसे ही उसे खोलने को हुए तो मुझे खड़ा देखा लगभग चढी हुई त्योरियों से उन्होंने मुझे घूरा । कौन है यह अजनबी छोकरा जो चोरी-चुपके उनके स्टूडियो में घुस आया है? मगर अगले ही पल उन्हें याद आ गया तो शर्म से पानी होकर मेरे पास आये, 'माफ करना दोस्त'। उन्होंने और भी कहना चाहा मगर मैंने नहीं कहने दिया। कृतज्ञता में बस मैंने उनका हाथ भींच लिया। दिल तो उसे चूमने को मचल रहा था उस वक्त सभी कलाओं का, हां हरेक दुनियावी उपलब्धि को फलीभूत करने का, मर्म मेरे हाथ लगा यानी एकाग्रता सभी शक्तियों, सम्वेदनाओं के पुंज का वह परमानन्द जो हर कलाकार को दुनियां से परे की सैर कराता है मैंने जिन्दगी भर का सबक ले लिया था

मैंने सोचा था कि मई के आखिर तक लंदन चला जाऊंगा मगर एक अप्रत्याशित परिस्थिति के कारण, जिसकी वजह से मेरा वह मनोहर कमरा तकलीफदेह हो गया, मुझे अपना कार्यक्रम दो हफ्ते पहले ही बनाना पड़ा यह ऐसा अजीब प्रसंग था जिसने न सिर्फ मुझे खूब गुदगुदाया बल्कि तरह-तरह के रंगों में रंगे फ्रांसीसी समाज की मानसिकता जानने-समझने के लिए बड़ा हिदायती सबक भी दिया

पेरिस को छोड दो दिन की छुट्टियां मनाने मैं व्हिट्सन्टाइड (whitsuntide) गया हुआ था शार्त्रा (chartres) (दरअसल यह एक गांव है जो पेरिस से बीस किमी दूर है मगर इसकी प्रसिध्दि गिरजाघर के कारण है जिसकी खिडक़ी दुनिया में सबसे नीली मानी जाती है। नीले रंग की इन्तहां जैसी) के खूबसूरत गिरजों को (जो अभी तक मेरे अनदेखे थे) दोस्तों के साथ देखना चाहता था। मंगलवार की सबेरे जब अपने होटल के कमरे में पहुंचा और कपडे बदलने चाहे तो पता लगा कि मेरा सूटकेस (पोर्टमेंटो) जो इतने दिनों से एक कोने में रखा था, नदारद है। मैं उस छोटे से होटल के मालिक के पास गया वह और उसकी पत्नी सामान वाले कमरे में दिन में बारी-बारी से बैठते थे। वह छोटा, गलफुला गुलाबी चेहरे वाला मारसीलियाई (मारसील फ्रांस का तटवर्ती कस्बा है जहां के लोग हट्टे-कट्टे होते हैं) था जिसके साथ मैं अक्सर हूंसी-मजाक कर लेता था और उसके पसंदीदा खेल बैकगैमोन (पन्द्रहखाडी) क़ो, कभी-कभार कॉफी हाउस में बैठकर खेल लिया करता था। फौरी उत्तेजना से वह चूर हो गया और मेज पर मुट्ठी की थपक के साथ रहस्यपूर्ण ढंग से चीखा, ''तो ये बात है'' अपनी बांह वाली कमीज, (जिसे पहनकर बैठे रहना उसकी आदत थी) पर उसने जल्दी से कोट चढाया, चप्पलों की एवज में जूते ड़ाले और पूछने लगा कि माजरा क्या है? यहां पेरिस के घरों और होटलों की एक अजीब खासियत बतलाना जरूरी है ताकि बात समझ में आ जाये। छोटे किस्म के होटल और ज्यादातर निजी घरों में मुख्य दरवाजे की सिटकनी की चाबी देने का रिवाज नहीं है। जब बाहर से घंटी बजती है तो चौकीदार या पल्लेदार अपने कमरे से ही स्वचालित दरवाजा खोल देता है। छोटे होटलों और घरों के मालिक या चौकीदार पूरी रात पल्लेदार वाले कमरे में नहीं बैठते हैं। वे अपने कमरे से ही, अक्सर नीम खुमारी में, एक बटन दबाकर दरवाजा खोल देते हैं। मकान छोडक़र जाने वाले को बन्द कर लो(ली कार्डन सील वू प्ली) की गुहार देनी होती है और अन्दर आने वाले को अपने नाम की ताकि, कागजी तौर पर, रात को कोई अनजान आदमी न घुस जाये। एक अलसुबह दो बजे जब मेरे होटल की घंटी बजी और घुसने के बाद किसी ने जो नाम बताया तो सुनने में वह वहां रह रहे किसी मेहमान का-सा ही लगा। अन्दर घुसकर उसने पल्लेदार के कमरे में टंगी चाबियों में से एक उठा ली। कायदे से तो तैनात प्रहरी को शीशे के पार्टीशन से झांककर उस लेट-लतीफ की शिनाख्त कर लेनी चाहिए थी मगर जाहिर है वह थका-मांदा रहा होगा लेकिन घंटे भर बाद ही किसी ने जब बन्द कर लो (सील वू प्ली) की गुहार लगाई तो उसे अजीब लगा कि अभी दो बजे रात को तो उसके लिए दरवाजा खोला था फिर इतनी जल्दी चला भी गया? वह उठा गली में बाहर एक आदमी को उसने भारी-सा बैग ले जाते हुए देखा। अपने रात्रि-लिबास और चप्पलों में ही उसने तुरन्त उसका पीछा किया मगर जब उसने देखा कि मुडने के बाद वह शख्स एक छोटे-से होटल (क्यू दे पटित शां, यानी बच्चों की गली) में चला गया है तो उसके चोर-उचक्का होने का ख्याल ही उसके जेहन से निकल गया और वह वापस अपने बिस्तर पर आकर पसर गया।

अपनी गलती पर क्षुब्ध होकर तुरन्त ही मुझे वह नजदीकी थाने ले गया बच्चों वाली गली (क्यू दे पटित शां) के उस होटल में तुरन्त ततीश करायी गयी मालूम हुआ कि मेरा सूटकेस तो वहां था मगर चोर महाशय नहीं थे गालिबन वे पडोस की किसी मधुशाला (बार) में सुबह की कॉफी चुसकने गये हुए थे। दो जासूस मुलजिम पर निगाह रखने के लिए पल्लेदार के कमरे में तैनात कर दिये गये। कोई आधा घंटे बाद जब वह बेखबर लौटकर आया तो उसे धर दबोच लिया गया। मुझे और मकान मालिक दोनों को अब सरकारी तफ्तीश में हाजिरी बजाने थाने जाना था। हमें थानेदार (प्रिफैक्ट) के कमरे में ले जाया गया। वह असामान्य-सी मजबूत कद-काठी का खुशमिजाज मुच्छडधारी था जो कागजों से ढकी एक मेज पर बिना बटन का कोट पहने बैठा था। पूरा दफ्तर तम्बाकू से गंधा रहा था मेज पर ही रखी शराब की बडी बोतल बताए दे रही थी कि थानेदार साहब पवित्र बन्धुत्व (Harmandad) के बेरहम और खूनी रहबरों की जमात से नहीं थे। उनके इशारे पर बैग को मेरे सामने पेश कर दिया गया ताकि मैं सुनिश्चित कर सकूं कि कोई काम की चीज तो गायब नहीं हुई है। उसमें कोई कीमती चीज थी तो दो हजार फ्रैंक का मेरा क्रेडिट कार्ड था जो पांच महीने के मेरे प्रवास के कारण बुरी तरह कट-फट गया था किसी अजनबी के लिए वैसे भी वह किसी काम का नहीं था बैग के तले की जेब में वह अनछुआ रखा था जब इस बात की एक रपट दर्ज हो गयी कि मैंने अपने सूटकेस की शिनाख्त कर ली है और उसमें से कोई चीज चोरी नहीं हुई है तो थानेदार ने चोर को हाजिर करने का फरमान किया उसे देखने के लिए मेरा मन हिलोरें ले रहा था

और लो, मेरा इनाम भी क्या खूब! दो कद्दावर जवानों की गिरत में दबा वह गरीब और ज्यादा मरियल लग रहा था। लुंज-पुंज लिबास, बेकॉलर, छोटी ढलवां मूंछें और फीका, नीम भूखा चूहेनुमा चेहरा कहना न होगा कि चोर काफी भोंदू था जिसका सबूत ये था कि अन्यथा तो सुबह ही सुबह, माल को लेकर वह कब का चम्पत हो गया होता। थानेदार के सामने उसकी नजरें जमीन में गडे ज़ा रही थीं और वह ऐसे कँपकँपा रहा था मानो सर्दी से जम जाएगा। मुझे यह कहते हुए शर्म आ रही है कि उसे देखकर, मुझे न सिर्फ अफसोस हुआ बल्कि हमदर्दी भी होने लगी। तलाशी के बाद उसके पास से मिली चीजों को जब पुलिस ने सामने बिछाकर रख दिया तब तो मुझे उस पर और ज्यादा तरस आया बडी अजीबोगरीब चीजों का जखीरा था उसके पास एक बेहद गन्दा और फटा रूमाल, चाबियों का एक छल्ला जिसमें चाबियाँ और चाबियों के कंकाल एक-दूसरे से टकराकर आवाज करते थे, एक गली-फटी-सी पॉकिट बुक सौभाग्य से हथियार एक भी नहीं था जिससे पता लग रहा था कि यह चोर महाशय अपने धन्धे को प्रवीणता मगर शान्ति से चलाते हैं।

हमारे सामने सबसे पहले उस पॉकिट बुक की दरयाफ्त शुरू हुई नतीजे ने हक्का-बक्का कर दिया इसलिए नहीं कि उसमें हजार या पाँच-सौ की फ्रैंक मुद्रायें थीं (वह तो एक भी नहीं थी) उसमें मशहूर नर्तकों और अभिनेत्रियों के गर्दन और कन्धों को उघाडे क़म से कम सत्ताईस चित्र थे और तीन-चार तो नग्न भी थे। इससे कोई संगीन गुनाह बनता भी नहीं था तो क्या हुआ गर यह छोकरा हुस्न का मुरीद हैपेरिस के थियेटर की जिन हस्तियों से यह अन्यथा नहीं मिल सकता था, उन्हें तस्वीरों की बदौलत दिल से लगाये फिरता था ऊपरी तौर पर हाला/कि थानेदार उन तस्वीरों का बडी सख्ती से मुआयना कर रहा था मगर उस किस्म के अपराधी के बच्चों-से फितूर पर उसे मेरी तरह हँसी भी आ रही थी सौन्दर्यपरक खूबसूरती की जानिब उस गरीब चोर के रूझान ने मेरे तईं और हमदर्दी जगा दी कलम हाथ में थामकर थानेदार ने जब मुझे तलब किया कि क्या मैं उस चोर के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज कराना चाहता हूँ तो मैंने बेहिचक ना कह दी।

हालात को समझने के लिए एक और चीज का खुलासा जरूरी है। ऑस्ट्रिया या दूसरे कई मुल्कों में जब गुनाह होता है तो शिकायत खुद-ब-खुद दर्ज हो जाती है क्योंकि इंसाफ को सरकार अपने हाथों ले लेती है। फ्रांस में यह फरियादी की मर्जी पर निर्भर करता है। किसी बंधे-कसे इंसाफ की बनिस्वत यह तरीका निजी तौर पर मुझे ज्यादा इंसाफ-पसन्द लगता है क्योंकि इसमें आदमी के गुनाह को माफ करने की गुंजाइश रहती है। मिसाल के तौर पर, जर्मनी में, कोई औरत अपने प्रेमी को जलन की जद में यदि चोट पहुँचा देती है तो उसकी लाख सफाई उसे सलाखों के पीछे भेजने से नहीं रोक पायेगी, जबकि हो सकता है, अपनी करतूत के कारण, अपने प्रेमी को हकीकत में वह और ज्यादा चाहने लगी हो फ्रांस में जबकि मुमकिन था कि सुलह की हालत में दोनों गलबहियाँ करते निकल जायें क्योंकि मामला तो रफा-दफा हो ही गया।

मेरे मुँह से जैसे ही ना निकली तो तीन बातें एक साथ हुईं दो पुलिसियों के बीच फँसे उस मरियल प्राणी ने मुझे जिस एहसानमंदी से देखा उसे मैं कभी नहीं भूल सकता (उसे बताना तो खैर नामुमकिन है ही)। थानेदार ने तसल्ली में आकर अपनी कलम रख दी। चोर की हजामत करने की मेरी नामंजूरी ने जाहिरन उसे ढेर सारी कागजी फजीहतों से निजात दिला दी थी इसलिए यह सौदा उसे माफिक आ रहा था लेकिन मेरा मकान मालिक बिल्कुल दूसरी तरह पेश आ रहा था। उसका चेहरा बैंगनी हो गया वह मुझ पर गर्म होने लगा कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिएकि इन नामुराद टुच्चों का खात्मा करना जरूरी हैकि मुझे भनक ही नहीं है कि उसकी जमात ने समाज का कितना नुकसान किया हैरात-दिन शरीफ लोगों को सतर्क रहना पडता है और यदि एक चोर को छोड दिया जाये तो दूसरे सैकडों को शह मिलती है। व्यवसाय में आये व्यवधान के कारण एक बुर्जुआ की ईमानदारी और शिष्टता ही नहीं, उसका टुच्चापन भी बिफर पड रहा था। वारदात के कारण उसका जो नाम खराब हो गया था, उसके चलते उसने मुझे फटकार-सा दिया कि उसे (चोर को) अता की गयी माफी को मैं रद्द कर दूँ मगर मैं अपनी राय पर अड़ा रहा मैंने शिद्दत से अर्ज किया कि मेरा माल-सामान मुझे मिल गया है, कोई नुकसान हुआ नहीं है इसलिए बात आयी-गयी हो जानी चाहिए मैंने जिन्दगी में कभी किसी पर इल्जाम नहीं ठोंका। मेरी वजह से कोई हवालात की चक्की पीसने से बच जाये तो इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है मेरे मकान मालिक का पारा तो चढता ही गया मगर थानेदार ने हस्तक्षेप किया कि फैसला वह (मकान मालिक) नहीं, मैं करूँगा और मेरी मनाही से मामले का निपटान हो गया है। इस पर वह उठ खड़ा हुआ और दरवाजे को धड़ाम से मारकर कमरे से कूच कर गया। थानेदार उठकर उस शख्स के आग-बबूला होने पर मुस्कुराया और एक खामोश समझौते के तहत मुझसे हाथ मिलाया। सरकारी कार्यवाही पूरी हो गयी थी मैं अपने सूटकेस को घर ले जाने के लिए जा ही रहा था कि चोर फुर्ती से मेरी तरफ आया और सज्जनता से बोला, ''नहीं साहब, आपके घर तक इसे मैं लेकर चलूँगा'' और उस तरह उस एहसानमन्द चोर के साथ जो बैग उठाये मेरे पीछे था, सडक़ पार करके मैं होटल आ गया।

इस तरह एक वाकया, जिसकी शुरूआत थोडी ख़टासभरी थी, मुझे लगा, बडे तसल्लीबख्श और मजेदार ढंग से निपट गया है मगर इसकी वजह से दो चीजें, ऐसे आगे-पीछे घटीं कि मैं उनका शुक्रगुजार हूँ क्योंकि फ्रांसीसी मनोविज्ञान को समझने में उन्होंने मेरा काफी ज्ञानवर्धन किया हुआ यूँ कि अगले रोज जब मैं वेटहारन से मिलने गया तो वे एक कुटिल-सी मुस्कान से मेरा स्वागत करते हुए बोले, ''तुम पेरिस में अजीबोगरीब कारनामे करते हो''। फिर मजाक में, ''मगर मुझे यह नहीं पता था कि तुम इतने धन कुबेर हो''। उनकी बात मेरे सिर के ऊपर से निकल गयी। उन्होंने अखबार मेरी तरफ बढाया जिसमें गये रोज का वाकया छपा था, सिवाय इसके कि तथ्यों का रूमानियत भरा जो हिसाब वहाँ जाहिर किया गया था, मेरी जानकारी के परे था पत्राकारिता के कलात्मक मेहराब से बताया गया था कि कैसे एक फैशनेबल (मजेदार था ना कि मैं फैशनेबल भी हो गया था) अजनबी का सन्दूक, जिसमें ढेर सारी कीमती चीजों के साथ-साथ बीस हजार फ्रैंक का क्रैडिट कार्ड (दो हजार दस गुनी छलाँग मारकर बीस हजार हो गये थे) और दूसरी अक्षतिपूर्ण चीजें (दरअसल कुछ कमीज और टाइयों के अलावा उसमें कुछ था नहीं थीं), चोरी हो गया था पहले तो इसका सुराग लगाना ही नामुमकिन था क्योंकि चोर ने अपना काम, इलाके के सही मालूमात होने की वजह से, बडी सफाई से किया था लेकिन जिले के थानेदार ने अपनी सुपरिचित फुर्ती और जबरदस्त सूझबूझ (ग्रांद परसपीकासिते) से सभी जरूरी कदम उठा लिये घंटे भर में ही पेरिस के सभी होटलों और यात्री निवासों को आदतन अचूकपन से सूचित कर दिया गया। जिसकी वजह से अपराधी को बहुत छोटे अन्तराल में ही गिरफ्तार कर लिया गया थानेदार द्वारा मुस्तैदी से किये गये। इस काम के लिए पुलिस अध्यक्ष ने उसे खास इनाम देने की घोषणा की थी क्योंकि उसकी दूरदर्शी नजर और कार्यवाही ने फिर यह साबित कर दिया था कि पेरिस का पुलिसतन्त्र कितना ठोस और सचेत है। रिपोर्ट में धेले-भर सच नहीं था क्योंकि थानेदार महाशय ने तो निमिष मात्रा को भी अपनी गद्दी नहीं छोडी थी। चोर और बैग को पकडक़र हमीं उसके दफ्तर ले गये थे लेकिन वारदात से भरपूर नाम कमाने के मौके को वह गँवाने देना नहीं चाहता था।

पुलिस और चोर दोनों के लिए सब कुछ हरा-भरा हो गया था मगर मेरे लिए चीजें इतनी खुशगवार नहीं थीं। अभी तक हँसी-ठठ्ठा करते मेरे मकान मालिक ने मेरा होटल में और रहना दुश्वार कर दिया मैं सीढियों से उतरकर पल्लेदार के कमरे में बैठी उसकी पत्नी को शालीनता से सलाम करता तो वह जवाब भी नहीं देती, और ऐसे मुँह फिरा लेती मानो उसकी तौहीन हो गयी हो। वहाँ का अर्दली मेरे कमरे की ढंग से साफ-सफाई न करे। बडे अजीब ढंग से मेरी चिट्ठियाँ गायब होने लगीं पडोस के बाजार और तमाखू की दुकान (ब्यूरो द तबाक) में जहाँ अमूमन सभी मुझे देखकर, मेरी खूब सिगरेट पीने की आदत के कारण, ''कोपेन'' कहकर मुस्कुरा उठते थे, वहाँ भी मुझे बर्फीले चेहरे पेश आने लगे। उस घर और गली की ही नहीं बल्कि पूरे जिले की मध्यवर्गीय नैतिकता इस बात से आहत होकर मेरी जान के पीछे पड ग़यी कि मैंने आखिर एक चोर की मदद कैसे की। मेरे पास कोई चारा ही नहीं था, सिवाय इसके कि छुड़ाये गये उस सूटकेस को लेकर उस आरामदायक होटल से अलविदा कर लूँ जो मुझे जलावतन करने पर यूँ आमादा था गोया मैं कोई खूनी था।

दूसरा अंश : राज़े कामयाबी और एक खास कामयाबी

उन बरसों में, मेरी जाती जिन्दगी का सबसे मौजूँ वाकया एक मेहमान की मौजूदगी थी जो बड़ा मेहरबान होकर पसर गया था एक ऐसा मेहमान जिसकी मैंने कतई उम्मीद नहीं की थी: कामयाबी यह जाहिर बात है कि अपनी किताबों की कामयाबी का जिक्र करना मुझे अच्छा नहीं लगता है। उनके चलताउ जिक्र से भी, जिसे दम्भ या शेखी माना जा सकता है, मैं अमूमन कन्नी काट लेता मगर मेरे पास इसकी एक खास वजह है और, अपनी जिन्दगी की कहानी बतलाते वक्त, यह मजबूरी भी है कि मैं इसे नजरअन्दाज न करूँ क्योंकि, नौ बरस पहले हिटलर के आगमन से, यह कामायाबी भी तारीख में दफन हो गयी है मेरी सैकडों, हजारों और यहाँ तक कि लाखों किताबें, जर्मनी के जिन अनगिनत घरों और किताब की दुकानों में महफूज रहती थीं, आज एक भी नहीं मिलती किसी के पास गर हो भी तो वह बडे एहतियात से उसे छुपाकर रखता है पब्लिक लाइब्रेरियों में वे तथाकथित विष पेटी में कैद रहती हैं ताकि, वे चन्द लोग जिन्हें हुकूमत की खास इजाजत हो, वैज्ञानिक तरीके से ज्यादातर बदनाम करने के लिए उनका इस्तेमाल कर सकें मेरे वे पाठक और दोस्त जो मुझे लिखा करते थे, अरसे से किसी ने मेरे बद नाम को लिफाफे पर लिखने की जुर्रत नहीं की है और यही नहीं, फ्रांस, इटली और उन तमाम देशों में जो आज गुलाम हैं और जहाँ अनुवाद के जरिये मेरी किताबें खूब पढी ज़ाती थीं, वहाँ भी हिटलर के हुक्म ने इसी तरह उन पर पाबन्दी ठोक रखी है ग्रिलपार्जर के लफ्जों में कहूँ तो एक लेखक के तौर पर मैं जीते जी अपनी ही लाश की परछाईं बन गया हूँ पिछले चालीस बरसों से दुनिया में मेरे लेखन को दर्शाती हरेक या तकरीबन हरेक रचना इसी इकलौते मुक्के ने नष्ट कर दी है इसलिए अगर मैं अपनी कामयाबी का उल्लेख करता हूँ तो मेरा मतलब उससे नहीं है जो मेरी है, बल्कि उस चीज से है जो कभी मेरी हुआ करती थी जैसे मेरा मकान, मेरा घर, मेरी सलामती, मेरी आजादी, मेरा बेफिक्र बर्ताव। दूसरे बेशुमार मासूमों समेत मैं जिस गर्त में जाकर गिरा उसका आख्यान इसलिए जरूरी है ताकि पता चले कि इस कामयाबी की हद कितनी उँची थी साथ ही पता चले कि इतिहास के इस बेनजीर वाकये, यानी पूरी साहित्यिक पीढी क़ी एकमुश्त तबाही के क्या परिणाम हुए।

यह कामयाबी किसी अलसुबह मेरे घर नहीं आ धमकी थी यह बहुत गाहे-गाहे, सोचते-विचारते आयी मगर वफादारी से लगातार तब तक साथ रही जब तक कि हिटलर ने अपने फरमानों की छडी से इसे मुझसे खदेड नहीं ड़ाला साल दर साल इसकी गन्ध बढती रही।जेरेमिहा के बाद मास्टर बिल्डर्स की पहली कडी ‘तीन महारथी (थ्री मास्टर्स) की त्रयी ने मेरा रास्ता सरपट कर दिया। अभिव्यक्तिवादी, क्रियावादी (एक्टिविस्ट) और प्रयोगवादियों के दिन लद गये। संयम और जतन से लोगों तक जाने का रास्ता फिर से प्रशस्त हो गया। अर्मोका और अनजान औरत का खत जैसी मेरी कहानियों को ऐसी शौहरत मिली जो आम तौर पर पूरे-पूरे उपन्यासों को ही मिल पाती है उनके नाटय रूपान्तर हुए सार्वजनिक पाठ किये गये उन पर फिल्में बनीं एक छोटी किताब स्कूल में लगा ली गयी थोडे ही समय में इंसल संग्रहालय में उनकी बिक्री 2,50,000 पहुँच गयी थोडे ही बरसों में मैंने वह मकाम बना लिया जो मेरे जैसी मानसिकता के लेखक के लिए सबसे कीमती कामयाबी होती है : एक वर्ग, भरोसेमन्द लोगों के एक गुट का निर्माण जो मेरी हर नयी किताब आने का इंतजार करता, हर नयी किताब खरीदता जिसे मुझ पर यकीन था और जिस यकीन को नाउम्मीद करने की मेरी हिम्मत नहीं होती थी वक्त के साथ यह बड़ा और ज्यादा बड़ा होता गया मेरी हरेक किताब जिस दिन छपकर आती, अखबारों में छपे एक भी इश्तिहार से पहले, बीस हजार प्रतियाँ तो जर्मनी में उसी रोज बिक जातीं कभी तो जानबूझकर भी मैंने कामयाबी से नजरें चुराने की कोशिश की, मगर किसी हैरतन जिद की तरह यह मेरे पीछे पडी रही जैसे अपने निजी सुख के लिए मैंने “फाउश की जीवनी लिखी।

मैंने जब इसे प्रकाशक को भेजा तो उसने लिखा कि पहले संस्करण की वह दस हजार प्रतियाँ छापेगा मैंने फौरन उससे गुजारिश की कि इतनी ज्यादा न छापे। मैंने उसे समझाया कि फाउश की शख्सियत बेरहम थी, किताब में औरतों से सम्बन्धी एक भी वाकया नहीं था और गालिबन बहुत ज्यादा पाठकों को जँच भी नहीं पायेगी इसलिए बेहतर हो शुरू में पाँच हजार ही छापें। साल भर के अन्दर-अन्दर जर्मनी में पचास हजार प्रतियाँ बिक गयीं। उसी जर्मनी में जहाँ आज मेरी लिखी एक भी लाइन पढने की मनाही है अपनी लगभग बीमार खुद-बदगुमानी के चलते मेरे साथ ऐसा ही कुछ वोलपोन के संस्करण के वक्त हुआ। इसे मैंने छन्दों में लिखने की सोची थी। “मार्शलीज में नौ दिन के अन्दर मैंने इसके विभिन्न अध्यायों की मोटी रूपरेखा खींच ली थी। गद्य में ड्रैसडेन के कोर्ट थियेटर का मैं एहसानमन्द था क्योंकि मेरा पहला नाटक थरसाइटीज उन्होंने ही मंचित किया था मेरी हाली योजनाओं पर जब उनसे बात चली तो मैंने उन्हें वही गद्य रूप भेज दिया, इस बात की माफी माँगते हुए कि यह इस रचना का पहला ही खाका है जो अन्ततः छन्दों की शक्ल लेगा लेकिन थियेटर वालों ने तुरन्त मुझे तार किया कि खुदा के वास्ते मैं उसकी एक भी चीज इधर-उधर नहीं करूँ और यह बात भी सही है कि नाटक के उसी संस्करण-प्रारूप को दुनिया भर में मंचित किया जा चुका है। उन दिनों मैंने जो कुछ किया, कामयाबी और जर्मन पाठकों की बढती तादाद ने मुझसे खूब वफादारी निभायी।

एक जीवनीकार और निबन्ध लेखक होने के नाते हमेशा मेरी इच्छा होती है कि अपने वक्त पर किताबों या शख्सियतों के पडने वाले प्रभाव (या उसकी गैर मौजूदगी) के कारणों की पडताल करूँ। मनन के पलों में अपने आपसे मैं यह सवाल किये बिना नहीं रह सका कि मेरी किताबों में ऐसी क्या खूबियाँ थीं जिनकी वजह से उन्हें इतनी मेरी जानिब बिला उम्मीद कामयाबी मिली मेरी निगाह में इसका लब्बोलुआब, मेरी वह निजी खराब आदत है कि मैं एक बेसब्र और तुनकमिजाज पाठक हूँ। किसी उपन्यास, जीवनी या बौद्धिक विमर्श में खटकने वाली कोई भी चीज हर डन्ठल, टीका-बिन्दी, मलिन-सा भी अतिरेक, हरेक झिलमिल और ढुलमुल बात मुझे चिढा ड़ालती है। मेरी नजर से गुजरने वाली नब्बे फीसदी किताबें फालतू की तफसीलों, बेबात की बातों और अनावश्यक चिरकुट चरित्रों से मुटियायी होती हैं, इसीलिए अपना सम्मोहन और धार खो बैठती हैं जाने-माने खास क्लैसिक्स में भी कई रूखे और ढुल-ढुल उद्धरण मुझे खटकते हैं कई दफा मैंने प्रकाशकों को, विश्व साहित्य होमर से लेकर बाल्जाक और दोस्तोव्स्की से लेकर “मैजिक माउन्टेन” तक की अपनी दिलेर शृंखला पेश की है जिसमें हरेक कृति की फालतू तफसीलों की कसकर छँटनी कर दी जाये। वक्त के पैमाने पर जिन रचनाओं की अमरता असंदिग्ध है, वर्तमान के लिहाज से फिर एक नया जीवन और अर्थ ले उठेंगी।

दूसरों की रचनाएँ पढते वक्त हर फालतू और आढे-टेढे ब्यौरों से नापसन्दी की आदत, मेरे अपने लेखन में भी उतरनी थी। इसने मुझे एक खास एहतियात बरतने का प्रशिक्षण दिया आमतौर पर मैं बडी सहजता और प्रवाह से लिख लेता हूँ किसी किताब के पहले ड्राफ्ट में अपने साथ अपनी कल्पना को मैं खुला छोड देता हूँ। कलम पर कोई रोक नहीं लगाता हूँ इसी तरह, किसी जीवनी के लिए, शुरू में मैं हर किस्म की उपलब्ध दस्तावेजी विगत का इस्तेमाल करता हूं “मैरी एंटोइनेट” की तैयारी के समय मैंने उसके एक-एक खाते की जांच की ताकि उसके निजी खर्च का पता लगे। मैंने तत्कालीन अखबारों और चौपन्नों को छान ड़ाला, कानूनी दस्तावेजों का एक-एक हरफ चट कर गया मगर प्रकाशित पुस्तक में उसकी एक भी पंक्ति नहीं है क्योंकि इस पहले प्रारूप का जब सब कुछ हो जाता है, तब तो उस किताब का मेरा असल काम शुरू होता है। लिखने और संक्षिप्त करने का और यह काम है ऐसा कि मैं इसे, गहनता से, एक प्रारूप से दूसरे प्रारूप तक किए बगैर नहीं रह सकता हूं। यह सन्तुलन बनाए रखने के लिए पोत पर रखी उस बजरी-रोडी को हवा में उछालने जैसी जिद है जो अन्दरूनी ढाँचे को हमेशा कसती, साफ करती जाती है और जहाँ ज्यादातर लोग (लेखक), जितना वे जानते हैं उसी तक अपने को नहीं सम्भाल पाते हैं। हर घुमावदार पेंच के प्रति जुनून से, वे अपने से ज्यादा दिखाने-बतलाने की कोशिश करते हैं जबकि मेरी हमेशा कोशिश होती है कि, जितना सतह पर दिखता है, उससे ज्यादा जानूं।

काट-छांट और नाटकीकरण की यह प्रक्रिया एक दफा, दो दफा और फिर तीसरी दफा, प्रूफ शीटों पर दोहरायी जाती है। अन्त होते तक तो यह किसी वाक्य या एक शब्द की ऐसी आनन्दमय खोज-सी हो उठती है जिसकी अनुपस्थिति दंश कम किये बगैर ही, रफ्तार बढा दे। काट-छांट करने का यह काम मुझे वाकई सबसे ज्यादा आनन्द देता है। मुझे याद है कि एक बार जब मैं काम करके उठा तो मुझे चहकता देख पत्नी ने टोका कि आज मैंने जरूर कुछ बहुत बढिया लिखा होगा। ''बिल्कुल, मैंने एक और पूरे के पूरे पैरे को उड़ा ड़ाला, जिससे कहीं ज्यादा प्रवाह हासिल कर लिया'' मैंने शान से जवाब दिया इसलिए मेरी किताबों की पठनीयता को कभी सराहा जाता है तो इस खूबी का, किसी देसी मिजाज या अन्दरूनी आवेग से कोई वास्ता नहीं होता है बल्कि हर फिजूल किन्तु-परन्तु को लगातार हटाने का सिलसिलेवार तरीका है। मेरे पास यदि अपनी कोई कला है जिसे मैं जानता हूं तो वह मेरी छोडने की काबलियत है क्योंकि एक हजार पृष्ठ की पांडुलिपि में आठ सौ पृष्ठ यदि कूडेदान की राह पकड लें तो मुझे कोई गम नहीं, बशर्ते छँटाई किये उन दो सौ पृष्ठों में उसका अर्क बच जाये अभिव्यक्ति की गिनी चुनी शैलियों में खुद को सीमित करने का सख्त अनुशासन और हमेशा एकदम जरूरी बात ही कहने की जिद, कुछ हद तक ऐसा कुछ है मेरी किताबों के प्रभाव का राज ! हमेशा महाद्वीपों और परा-राष्ट्रीयता के अर्थ में सोचने वाले मेरे जैसे लेखक को यह जानकर बहुत खुशी हुई कि विदेशी प्रकाशक फ्रैंच, बुल्गारियाई, अरमानियाई, पुर्तगाली, अर्जेंटिनियाई, नोर्वोवाले, लतवियाई, फिनलैंड और चीनी मेरी किताबें प्रकाशित करना चाहते हैं। जल्द ही, इतने सारे अनुवादों को सम्भालने के लिए मुझे एक बडी अलमारी खरीदनी पडी । एक रोज जिनेवा के लीग ऑफ नेशंस के 'कोआपरेशन इंटलैक्च्यूल के आंकडों में मैंने पढा कि तब मैं दुनिया का सबसे अनूदित लेखक था (मगर अपनी फितरत के मुताबिक उस रिपोर्ट की शुद्धता पर मुझे तो संदेह हुआ)। एक रोज लेनिनग्राड में मेरे रूसी प्रकाशक का खत आया मेरी सभी रचनाओं के सम्पूर्ण संस्करण प्रकाशित करने की उसने इच्छा जतलाई थी और पूछा था कि मैक्सिम गोर्की उसकी भूमिका लिखें तो क्या मुझे माफिक आयेगा क्या मुझे माफिक आयेगा! स्कूल में एक बच्चे की तरह मैंने गोर्की की कहानियाँ पढी थीं। डेस्क के भीतर छिपाकर बरसों मैंने उन्हें चाहा और सराहा था। मेरी कोई चीज पढने की बात तो दूर, मैंने तो कभी भरम भी नहीं पाला था कि उन्होंने मेरा नाम भी सुना होगा और यह तो यकीनन नहीं कि ऐसे उस्ताद को मेरी रचनाएँ इतनी महत्वपूर्ण लगेंगी कि वे उनकी भूमिका लिखें। ऐसे ही एक बार एक अमरीकी प्रकाशक साल्जबर्ग वाले घर में किसी का सिफारिशी खत लेकर आये गोकि ऐसे सिफारिशी खत की जरूरत थी और प्रस्ताव रखा कि वे मेरी सभी रचनाओं के अधिकार चाहते हैं, भविष्य में नियमित प्रकाशित करने के लिए ये वायकिंग प्रैस के बैंजामिन ह्यूब्श थे जो तब से ही सबसे भरोसेमन्द दोस्त और सलाहकार बने हुए हैं। हिटलर के कीलदार जूतों तले जब सब कुछ नष्ट हो गया तो अभिव्यक्ति के मेरे आखिरी घर को उन्होंने ही बचाकर रखा है क्योंकि जर्मनी और यूरोपवाला जो मेरा अपना पुराना घर था, वह तो मैं खो ही चुका हूं

इस तरह की ऊपरी कामयाबी उस आदमी को बरगला सकती थी जिसका यकीन, अभी तक, उसकी अपनी काबलियत और रचनाओं की गुणवत्ता से ज्यादा अपनी साफदिली में था प्रचार अपने आप में चाहे किसी प्रकार का हो आदमी के कुदरती सन्तुलन के खिसकने का द्योतक होता है सामान्य हालात में किसी आदमी का जो नाम होता है वह ऐसे ही होता है जैसे सिगरेट की किसी ब्रांड का पहचान का फकत जरिया, एक ऐसी थोथी, लगभग महत्वहीन चीज जो असलियत से केवल मोटा-मोटी जुडी हो, जैसे खालिस अहम कामयाबी के साथ, जिसे कहें नाम फूलने लगता है जिस आदमी का यह होता है, उससे छिटककर यह अपने आप में एक सत्ता बन जाता है। एक शक्ति, एक स्वतन्त्र चीज, एक कारोबारी वस्तु जैसे, कोई पूँजीगत सम्पत्ति मनोवैज्ञानिक तौर से देखें तो एक बार फिर, एक तल्ख प्रतिक्रिया के साथ, यह ऐसी ताकत बन जाता है जो उसी आदमी पर असर दिखाने लगती है, हावी होने लगती है और उसे बदलने लगती है जिसका कि वह नाम है खुश, आत्मविश्वासी लोग अवचेतन में, उस असर से जाने जाते हैं जो वे पैदा करते हैं नाम को तो छोडिए, कोई तमगा, कोई ओहदा या कोई अलंकार जब जाना जाने लगता है तो वह अपने में ज्यादा आश्वस्त करने लगता है, आत्मविश्वास को बल्ल्लियों चढा देता है और लोगों को इस कफस में फुसला देता है कि अपने समाज, राज्य और जमाने में, खास तवज्जो उनका देय है। अनजाने ही, वे अपने में हवा भर लेते हैं ताकि अपनी शख्सियत को वे अपने बाहरी हासिल दिलवा सकें कोई गर स्वभाव से ही खुद-बदगुमा हो, जो ऐसी मुश्किल हालत में खुद को यथासम्भव अपरिवर्तित बनाये रखने में लगा हो, उसे तो हर तरह की बाहरी कामयाबी फालतू का बोझ ज्यादा लगती है।

इससे मैं यह भी नहीं कहना चाहता हूं कि अपनी कामयाबी पर मैं खुश नहीं था।।।। नहीं, मैं बहुत खुश था मगर उसी हद तक जितना इसका ताल्लुक मेरे लिखे, मेरी किताबों से था और जिसके साथ मेरे नाम की परछाईं भर जुडी थी। एक बार जर्मनी में, मैं एक किताब की दुकान में था अनपहचाना देखता हूं कि जिमनेशियम का एक नन्हा-सा विद्यार्थी वहाँ दाखिल हुआ और मेरी 'टाइड ऑफ फॉरच्यून' को माँगकर जेब खर्च के मामूली पैसों से खरीदने लगा यह देख मैं पिघल गया। मेरे अहम को यह देखकर बडी राहत मिली जब पासपोर्ट पर मेरा नाम देखकर वह शयनयान कंडक्टर बडे अदब से पेश आने लगा, या फिर जब उस इतालवी कस्टम ऑफीसर ने बडप्पन में मेरे बैग की तलाशी जाने दी क्योंकि उसने कभी मेरी कोई किताब पढ रखी थी फकत मात्रात्मक रूप से भी लेखकी का बड़ा दिलचस्प पहलू है। एक दफा जब मैं “लीपसिग आया तो उसी रोज मेरी नयी किताब बाहर भेजी जा रही थी। मुझे यह देखकर बड़ा रोमांच हुआ कि अनजाने ही, तीन-चार महीने में लिखे तीन सौ पृष्ठों की मार्फत, हम कितने मानवीय श्रम को जगा देते हैं। कुछ कामगर किताबों को बडे-बडे ड़िब्बों में पैक कर रहे थे, दूसरे उन्हें उन गाडियों पर हाँफते हुए लाद रहे थे जो उन्हें पोतगाडी तक पहुँचा रही थी जहाँ से वे दुनिया के कोने-कोने में चली जाने वाली थीं। दर्जनों लडक़ियाँ जिल्दसाजी के यहाँ मुडे हुए कागज समेटतीं कंपोजीटर, मुद्रक, पोतबाबू, सेल्समैन, सुबह से लेकर रात तक पसीना बहाते एक-दूसरे के साथ र्इंटों की तरह चिनी इन किताबों के बीच की जगह को कोई अच्छा खासा गलियारा समझ बैठे। मैंने इनके आर्थिक पहलू को भी कभी नहीं धिक्कारा। शुरू के बरसों में जीवनयापन की तो दूर, मैं सोचने तक की हिम्मत नहीं कर पाता था कि मैं किताबों से कोई धन कमा सकूँगा और अब अचानक ही उनसे ढेर सारा और दिन-ब-दिन ज्यादा धन आने लगा पहले किसने सोचा था ऐसा भी वक्त आयेगा जो माली चिन्ताओं से मुझे हमेशा-हमेशा के लिए मुक्त कर देगा। इसी की वजह से मैं अपनी जवानी के शौक पांडुलिपियों के संग्रहण को खुली छूट दे सका, और कुछ बेहद खूबसूरत, एकदम मूल्यवान भव्य अवशेष मेरी निगरानी की मुलामियत का अंग बन गये। उन अपेक्षाकृत अल्पकालिक रचनाओं (जो मैंने लिखी थीं) की एवज मैं समय की सरहद चीरती पांडुलिपियाँ ले सका जैसे मोजार्ट बाख, बीथोविन, गेटे और बाल्जाक की पांडुलिपियाँ। इसलिए मेरे लिए यह कहना हास्यास्पद होगा कि लोगों के बीच मिली, अनपेक्षित सफलता ने मुझे उदासीन, या अन्दर से विमुख कर दिया।

मगर मैं पूरी ईमानदारी से कह रहा हूं कि अपनी कामयाबी का मैंने उसी हद तक लुत्फ उठाया। जहाँ तक इसका ताल्लुक मेरी किताबों और लेखक के बतौर मेरे नाम से था। इसकी डोर पकडक़र, उत्सुकता वश जब कोई मेरे व्यक्ति में दिलचस्पी लेने लगता है तो मैं आजिज आ जाता हूं। लडक़पन से ही शिद्दत से मेरी फितरत रही है, और मुझे लगता है, कि फोटोग्राफिक प्रचार के कारण किसी इंसान की निजी आजादी के श्रेष्ठ हिस्से का अधिकांश भाग अवरूद्ध और विकृत हो जाता है। दूसरे, जिस चीज की शुरूआत मैंने शौक की तरह की थी अब एक पेशे की तरह सवार होने लगी। कभी तो धन्धे-सी भी। हर ड़ाक में खतों, न्यौतों, गुजारिशों और ततीशों का अंबार लगा होता, जिनके जवाब देने होते। कभी महीने भर की अनुपस्थिति से लौटता तो उस गट्ठर को समेटने में और उसके बाद धन्धा शुरू करने में ही दो या तीन दिन खप जाते। अनजाने ही और अपनी किताबों के बिकने के कारण मुझे लगने लगा कि मैं एक ऐसे धन्धे में हूं जो व्यवस्था, स्पष्टता, समयनिष्ठा और निपुणता की माँग करता है, यदि उसे कायदे से सम्भालना है तो ये सब बडे सम्मानजनक गुण हैं मगर अफसोस कि ये मेरी फितरत से मेल नहीं खाते हैं बल्कि ये मेरे नादान सीधे-सादे मनन-चिन्तन और कल्पना भ्रमण में रोड़ा अटकाने का संजीदा खतरा बन जाते हैं इसलिए भाषण देने के लिए मुझे जितना ज्यादा बुलाया जाता, जन-जलसों में जितना ज्यादा शरीक होना पडता उतना ही मैं अपने तईं सिमटता जाता। अपने नाम की एवज सबके सामने खुद हाजिर होने की कोफ्त से मैं कभी पार नहीं पा सका आज भी किसी आम सभा, थियेटर या कन्सर्ट में, मेरी दिली तमन्ना पीछे की किसी नामालूम सीट पर बैठने की होती है। किसी मंच के बीचोबीच या ऐसी ही दूसरी खतरनाक जगह पर अपने चेहरे को दिखाने से ज्यादा असहनीय चीज मुझे दूसरी कोई नहीं लगती है। जिन्दगी की हर कतरन में अज्ञातनामी मेरी जरूरत है। जब मैं छोटा था उन दिनों भी, पिछली पीढी क़े वे लेखक-कलाकार मुझे कभी नहीं जमे जो जन-जीवन में पहचान बनाने के लिए क्या-क्या ताम-झाम करते रहते थे।।।मखमली कोट लहरदार जुल्फें, भोंहों के ऊपर बिखरी लटें (जैसा मेरे आदरणीय मित्र आर्थर स्निट्जलर और हरमान बार करते थे)। नुमाइशी कटी दाढी या फिर चरम अन्दाजी लिबास। मुझे यकीन है कि जब किसी आदमी की शारीरिक दिखावट बहुत जानी-पहचानी हो जाती है तो, अनजाने ही, वह अपने अहम का, वर्फेल की एक किताब के नाम के बतौर,मिररमैन बनने को लपलपाता रहता है। हर जगह वही खास अन्दाज ओढने लगता है यह बाहरी फेरबदल अमूमन उसकी भीतरी काया की गर्मजोशी, आजादी और अलमस्ती को छीजने लगती है इसलिए आज यदि मुझे सब कुछ शून्य से शुरू करना पडे तो अपनी साहित्यिक सफलता और निजी गुमनामी से, जिसे कहूं, मुझे दोहरा मजा आयेगा। मैं अपनी रचनाएँ किसी दूसरे, छद्म, आविष्कृत नाम से छपवाऊँगा क्योंकि जिन्दगी यदि दिलकश है और हैरतों से भरी पडी है, तो दोहरी जिन्दगी की तो क्या बात होगी!

इटली के सबसे महत्वपूर्ण शख्स मुसोलिनी से यदि मैं कभी नहीं मिला तो इसकी वजह राजनैतिक उच्चाधिकारियों से मिलने की मेरी अनिच्छा है। अपनी छोटी-सी पितृभूमि, ऑस्ट्रिया में भी जहाँ ऐसा न करना उपलब्धि सरीखा होता था, किसी प्रमुख राजनीतिज्ञ से मैं कभी नहीं मिला न जीपल से न डोलफुस से किसी राजनेता को प्रेषित मेरी पहली अर्जी को जिस सहजता से मंजूरी दे दी गयी उसके लिए निजी तौर पर मुसोलिनी को धन्यवाद देना मेरा फर्ज बनता था हमारे आपसी मित्रों ने मुझे बता रखा था कि इटली में मुसोलिनी मेरे सबसे अव्वल और कद्रदान पाठकों में आते हैं।

यह कुछ यूँ हुआ एक रोज पेरिस के एक दोस्त से मुझे खास खत मिला जिसमें लिखा था कि एक इतालवी महिला किसी खास सिलसिले में साल्जबर्ग में मुझसे मिलना चाहती है इसलिए मैं उससे फौरन मिल लूँ। अगले रोज वह मेरे पास आयी उसकी व्यथा वाकई विदारक थी। गरीब परिवार से आया उसका पति बहुत काबिल डॉक्टर था जिसे समाजवादी नेता मैटिओटी जिसकी फासिस्टों ने जघन्य हत्या कर दी थी, ने पढाया-लिखाया था। वह आखिरी मौका था जब किसी इकलौते गुनाह के खिलाफ पहले से ही थकी-माँदी विश्व चेतना भडभड़ाकर खडी हो गयी थी। सारा यूरोप रोष से भर उठा था। वह वफादार दोस्त उन छह लोगों में एक था जिसने मृतक के ताबूत को खुलेआम रोम की सडक़ों से ले जाने की हिम्मत की थी। उसके फौरन बाद उसका बहिष्कार हो गया धमकियाँ मिलने लगीं इसलिए वह नजरबन्द हो गया मगर मैटिओटी के परिवार के नसीब ने उसे चैन नहीं लेने दिया। अपने हितकारक की याद में इसलिए वह उसके बच्चों को चोरी-छिपे इटली से बाहर भेज देना चाहता था ऐसा करने की जुगत में वह भेदियों के हाथ पड ग़या और गिरतार कर लिया गया मैटिओटी की कोई भी याद चूँकि इटली के लिए बडी शर्मदायक थी इसलिए मुकदमा उसके बहुत ज्यादा खिलाफ नहीं जा सकता था मगर सरकारी वकील ने चालबाजी से उसे दूसरे जुर्म में फँसा दिया जिसका ताल्लुक मुसोलिनी की हत्या करने की साजिश से था इसलिए उस नौजवान डॉक्टर जिसे मोर्चे पर की गयी सेवा के कारण सर्वोच्च युद्ध-तमगों से नवाजा गया था को उम्र कैद सुना दी गयी थी।

वह जवान महिला जाहिरा तौर पर काफी परेशान थी। इस सजा का क्या किया जाये क्योंकि उसका पति इस सजा को झेलने लायक नहीं था। वह चाह यह रही थी कि यूरोप के बडे लेखक एकजुट होकर कोई विशाल मोर्चा निकालें। इसी सिलसिलें में उसे मेरी मदद चाहिए थी। मैंने तुरन्त उसे किसी तरह की मोर्चेबाजी न करने की हिदायत दी। मैं जानता था कि युद्ध के दिनों के बाद से ही यह सब खोमचेबाजी कितनी तार-तार हो गयी है। मैंने उसे याद दिलाया कि किसी देश का राष्ट्रीय गर्व ही इस बात की छूट नहीं देगा कि उसके न्यायतन्त्र को बाहर वाले दुरूस्त करें और यह याद दिलाया कि अमरीका में सैक्को और वैनजैटी को लेकर यूरोप ने जो मोर्चे निकाले, उनसे फायदा कम, नुकसान ही ज्यादा हुआ था। मैंने शिद्दत से उससे गुजारिश की कि ऐसा-वैसा वह कुछ भी न करे इससे वह अपने पति की हालत और ज्यादा खराब कर बैठेगी क्योंकि बाहर वाले उस पर दबाव ड़ालने लगे तो मुसोलिनी अगर चाहे तब भी उसके पति की सजा न कभी कम करेगा, न कर पायेगा। मैं चूँकि सचमुच दहल गया था इसलिए उसे जुबान दी कि मुझसे जो बन पडेग़ा, करूँगा और हुआ ये कि अगले हफ्ते ही मुझे इटली जाना था जहाँ रोब-रूतबे वाले मेरे कई दोस्त-अहबाब थे शायद निजी तौर पर वे उसके लिए कुछ कर पायें।

पहले रोज ही मैंने कोशिश की मगर मैंने देखा कि लोगों की रूह को खौफ ने किस कदर कुतर ड़ाला था। मैंने बमुश्किल नाम लिया नहीं कि उनके चेहरे का रंग उतर जाता सॉरी, इसमें मैं तुम्हारी मदद नहीं कर सकता, सवाल ही नहीं उठता है ,एक के बाद एक, सबसे मुझे यही जवाब मिलता। मैं बड़ा शर्मसार होकर लौटा।क्या वह परेशान औरत शक नहीं करेगी कि यही था हर मुमकिन कर सकने का मेरा वादा? और मैंने किया भी कुछ नहीं था बस, एक गुंजाइश थी : सीधे-सीधे उस आदमी को खत लिखना जिसके हाथों फैसले की डोर थी यानी खुद मुसोलिनी को और मैंने वही किया मैंने एक सीधा सपाट खत लिखा। मैंने लिखा कि मैं उसकी शान में कसीदे नहीं कसना चाहता हूं और यह भी बतला दूँ कि न तो मैं उस आदमी को जानता हूं और न उसके जुर्म की संगीनियत को हाँ, उसकी पत्नी को मैंने जरूर देखा है, जो बेशक, बेगुनाह थी। उसके पति को यदि दस बरस जेल में काटने पडे तो उम्रकैद का पुर-असर उसे भी भुगतना पडेग़ा। सजा की निन्दा करने का मेरा कतई इरादा नहीं है, बस यही इल्तिजा है कि उस औरत की जिन्दगी बच जायेगी अगर उसके पति को सजा के बतौर किसी कारावासी-द्वीप के बजाय ऐसी जगह रख दिया जाये जहाँ औरत और बच्चे, सजायाफ्ता के साथ रहें, न कि किसी सुधारालय में।

मैंने खत लिया, महामहिम बैनिटो मुसोलिनी का पता लिखा और साल्जबर्ग के आम ड़ाकखाने में ड़ाल आया। चार दिन बाद, वियना स्थित इतालवी प्रतिनिधि ने मुझे लिखा कि महामहिम मुझे धन्यवाद देना चाहते हैं और यह बतलाना चाहते हैं कि उन्होंने मेरी अर्जी मंजूर कर ली है और सजा को भी घटाने का हुक्म दे दिया है। उसी समय इटली से इस बात की पुष्टि करता हुआ टेलिग्राम भी आ गया कलम की एकमुश्त घसीट से मुसोलिनी ने निजी तौर पर मेरी अर्जी मंजूर कर दी थी और अति तो यूँ हुई कि उसके बहुत जल्द, कैदी को पूरी माफी भी दे दी गयी। जिन्दगी में दूसरे किसी खत ने मुझे इससे ज्यादा आनन्द और संतोष कभी नहीं दिया है। मैं यदि अपनी किसी साहित्यिक कामयाबी के बारे में सोचता हूं तो इस वाकये को मैं खास आभार से याद करता हूं।

सन्दर्भ

1 आधुनिक ऑस्टिया का निकटवर्ती देश स्लोवेकिया का रहने वाला

2 कवि रिल्के का बहुप्रसिद्ध काव्य संकलन

3 एक क्रान्तिकारी कवि जिसने यूरोप के रूमानी साहित्य पर कडक़ प्रहार किया था आतताई सत्ता के विरूद्ध जमकर लिखने के कारण उसे सलाखों के पीछे सडना पड़ा था

4 फ्रांस में इस संस्था के अन्तर्गत काम करने वाली मठकन्याओं को पारिवारिक जीवन में लौटने की छूट रहती है, इन ननों को सौगन्ध भी नहीं लेनी होती

5 ओगस्त रोदां (1840-1917) विश्व के सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ मूर्ति शिल्पियों में शुमारे जाने वाले फ्रांसीसी कलाकार 'चुम्बन' , 'विचारक'   और 'भगवान का हाथ'  उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।

6 ग्रिलपार्जर फ्रांज, ऑस्ट्रिया के, 19 वीं सदी के प्रमुख नाटककार थे जो नवशास्त्रीय शैली में लिखते थे। नेपोलियन को केन्द्र में रखकर उनके कई नाटक हैं।

7 आलोचनात्मक जीवनी लेखन को अनोखा आयाम देने वाली इस त्रायी में बाल्जाक, डिकन्स और दोस्तोव्स्की शामिल किये गये हैं। इसका प्रकाशन 1919 में हुआ कडी क़े दूसरे भाग में होल्डरलिन, क्लीष्ट और नीत्से थे और यह पुस्तक 1925 में प्रकाशित हुई शृंखला की तीसरी कडी सन 1928 में प्रकाशित हुई जिसमें कैसानोवा स्टेन्टल और टॉल्सटॉय की जीवनियों के आत्म चित्रण हैं। तीन विशिष्ट शख्सियतों को लेकर स्वाइग की 'मनोउपचारक' (मेंटल हीलर्स) नाम की एक किताब सन् 1930 में प्रकाशित हुई थी जिसमें फ्रांज मैसमर, मैरी एडी और सिगमंड फ्रायड की विषय शैलियों को लेकर रचनात्मक जीवनियाँ लिखी गयी हैं मगर वे 'मास्टर बिल्डर्स' शृंखला का हिस्सा नहीं हैं, सम्भवतः साहित्य की विभाजक रेखा के कारण।

8 स्वाइग इन रूझानों का उल्लेख सम्भवतः अपने ही, अभी तक के लेखन के सन्दर्भ में कर रहा है।

9 फाउश जोसफ (1758-1820) फ्रांसीसी राजनीतिज्ञ और पुलिस इज्तजासक पेजो अपनी सक्षमता और अवसरवादिता के कारण 1792 से 1815 तक हर सरकार के साथ रहे स्वाइग की लिखी यह जीवनी 1929 में प्रकाशित हुई थी।

10 फ्रांस का एक तटवर्ती कस्बा।

11 यह स्वाइग के दूसरे समकालीन महान जर्मन लेखक थामस मान के बहुचर्चित उपन्यास का नाम है जो आकार में वस्तुतः बड़ा है। मान को वर्ष 1929 का साहित्य का नोबल पुरस्कार भी मिला था ।

12 साहित्य, मनोविज्ञान और इतिहास की सरहदें फलाँगती यह किताब इन ऐतिहासिक लम्हों के सृजनात्मक विस्फोटों को लामबन्द करती है जो ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक रूप से मानवता के लिए निर्णायक रहे हैं। लगभग दो हजार वर्षों के इतिहास से स्वाइग ने बारह ऐसे समय-बिन्दुओं का अद्भुत मनोविश्लेषण किया है। एक लम्हा नैपोलियन के वाटरलू का है तो एक ज्यूरिख से बन्द रेलों में लैनिव की वापसी का एक गेटे को लेकर है तो एक प्रथम विश्व युद्ध के समय अमरीकी राष्ट्रपति विल्सन को लेकर अमूमन अनुपलब्ध इस पुस्तक का पुस्तकालय न साहित्य में वर्गीकरण करते हैं न इतिहास या मनोविज्ञान में।

13 जर्मनी का एक कारोबारी शहर स्वाइग के प्रकाशक 'इंसल वर्लेग' का मुख्यालय इसी शहर में था।

14 डोलफुस एंजलबर्ट (1892-1943) 1932-34 के दौरान ऑस्ट्रिया के चांसलर थे वहाँ के प्रमुख नेता जिन्होंने ऑस्ट्रिया को तानाशाही में तब्दील कर दिया।

15। कुर्त फॉन श्यूशनिग (1897-1977), ऑस्ट्रियाई नेता और चांसलर थे जिन्होंने ऑस्ट्रिया पर नाजियों के कब्जे के खिलाफ, संघर्ष किया। डोलफुस प्रशासन के मंत्री थे मगर डोलफुस की हत्या (1934) के बाद चांसलर बन गए। नाजियों के समय उन्हें झुकना ही पड़ा।

16। गियाकोमो मैटिओटी (1885-1924) इटली के समाजवादी राजनेता थे जिनकी फासिस्टों ने हत्या कर दी। उनकी लोकप्रियता इतनी अधिक भी कि एकबारगी तो मुसोलिनी के शासन की चूलें हिल गयीं मगर अन्ततः वह सत्ता पर अपना तानाशाही शिकंजा जमाने में सफल रहा।

17। 1908 से इटली से मैसाच्यूशट आये, ये दोनों व्यक्ति गर्मपंथी थे एक जूते के कारखाने में काम करता था, दूसरा मछलियाँ बेचता था। 15 मई 1920 को उन्होंने मिलकर कारखाने के मालिक मिस्टर पारमेन्टर की हत्या कर दी 31 मई 1921 को उनका मुकदमा शुरू हुआ, 14 जुलाई 1921 को अदालत ने उन्हें दोषी भी करार दे दिया। समाजवादी हलकों ने इस पर खूब वबाल किया कि उन्हें सजा अपने गुनाह की नहीं, अपने वैचारिक अतीत के लिये दी गयी है। कई तरह से हस्तक्षेप भी किये गये मगर 23 अगस्त 1927 को उन्हें फाँसी दे दी गयी।

तीसरा अंश : खास मेहमानों की 'गिरफ्त' और पचास की उम्र

उन बरसों कई मनोवांछित और मशहूर मेहमान हमारे घर पधारे मगर तनहाई के लम्हों में कुछ ऐसी अजीम शख्सियतों का जादुई दायरा मेरे आस-पास घिरने लगा जिन्हें जुटाने में मैं धीमे-धीमे कामयाब हुआ था यानी पांडुलिपि संग्रहण (जिसके बारे में मैं पहले भी बता चुका हूं) की मार्फत दुनिया के बडे-बडे उस्ताद अपनी लिखावट के सहारे मेरी अमानत बन गए थे। पन्द्रह बरस की उम्र में शौकिया शुरू की गयी चीज समयांतर में, ज्यादा अनुभव, बेहतर संसाधन और दिनों-दिन बढते आवेग के कारण, महज संचय से बढक़र एक जीवन्त ढाँचे में तब्दील हो गयी थी बल्कि कहना होगा कि वह अपने आप में एक कलाकृति बन गयी थी। किसी भी नौसिखिए की तरह, पहले-पहल तो मैं केवल मशहूर नामों के ही पीछे भागता था मगर बाद में मनोवैज्ञानिक जिज्ञासा के तहत सिर्फ पांडुलिपियों मूल कृतियाँ या उनके हिस्से में ही मेरी दिलचस्पी रह गयी जो उस अजीज उस्ताद के सृजनात्मक तौर-तरीके की भी मुझे झलक देती जाती अनगिनत, अव्याख्येय पहेलियों से भरी इस दुनिया में, सृजन का रहस्य अभी भी सबसे गहरा और सबसे ज्यादा रहस्यमय बना हुआ है यहाँ कुदरत किसी कन-सुनई की छूट नहीं देती है और न अपने उस आखिरे टोटके की किसी को कभी खबर लगने देगी कि पृथ्वी का जन्म कैसे हुआ, कि एक नन्हा फूल कैसे खिलता है, एक कविता कैसे रची जाती है, इंसान कैसे बनता हैइस सब पर वह बडी बेरहमी और सख्ती से पर्दा ड़ाले रहती है(कोई कवि या संगीतकार भी जो उस काव्यकृति को रचता है, प्रेरणा के उन लम्हों को नहीं बता-समझा सकता है एक बार उसकी रचना ने पूरा आकार लिया नहीं कि वह कलाकार उसके सृजन के स्रोतों, उनके पनपने या होते जाने को, नहीं पहचान पाता है वह इस बात को कभी या अमूमन कभी नहीं समझा सकता है कि उस उदात्त अवस्था में, अलग-अलग शब्द मिलकर कैसे कविता बन जाते हैं, स्वर धुन बन जाते हैं और जो सदियों तक फिजां में गुनगुनाते हैं। सृजन की इस दुर्बोध्य प्रक्रिया की थोडी-बहुत भनक यदि मिल सकती है तो उन हस्तलिखित कागजों पर ही, विशेषकर उनसे जो छपने को नहीं दिये जाने हैं। जिनमें सुधारों की काटपीट की गयी हो। ऐसा कामचलाउ प्रारूप जो भक्ति में, आहिस्ता-आहिस्ता वाजिब आकार ग्रहण कर लेगा। महान कवियों के ऐसे पन्नों को इकट्ठा करना, उनके संघर्ष की गवाही देती प्रूफ-शीटें मेरे ऑटोग्राफ संग्रहण का दूसरा और ज्यादा ज्ञानवर्धक दौर था नीलामियों में उनके लिए हाथ-पाँव मारने में मुझे बड़ा सुख मिलता। गंध लगने पर दूर-दराज की कोटरों तक उनका पीछा करना एक तरह का विज्ञान हो गया था। पांडुलिपि संचयन के सिवाय ऑटोग्रास के बारे में अभी तक लिखी किताबें मेरे दूसरे संचयन का हिस्सा बन गयीं अभी तक लिखी इन किताबों की चार हजार से उपर की तादाद का एक भी सानी नहीं था क्योंकि विक्रेता लोग भी अपने इस खास शौक को इतना दुलार और वक्त नहीं दे पाते थे। साहित्य अथवा जिन्दगी के दूसरे किसी क्षेत्रा के बारे में तो मैं यह कहने की हिम्मत नहीं कर पाऊँ मगर कह सकता हूं कि पांडुलिपि संचयन के इन तीस-चालीस बरसों में, इस क्षेत्रा का मैं विशेषज्ञ बन गया था मुझे हर महत्वपूर्ण हस्तलेख का पता होता कि वह कहाँ होगा, किसका रहा होगा और उसके मालिक तक कैसे पहुँचा होगा मतलब एक सच्चा पारखी जो नजर पडते ही असलियत भाँप ले और अपने आकलन में अधिकांश पेशेवरों से ज्यादा तजुर्बेकार था।

रता-रता मेरे संग्रहक की चाहत और भी आगे बढी विश्व साहित्य और संगीत की पांडुलिपियों (जो हजारों किस्म के रचनात्मक तरीकों का प्रतिबिम्ब होती हैं) की गैलरी अपने पास रखने भर से मैं संतुष्ट नहीं था संग्रह में इजाफा करने भर के लिए अब मैं नहीं मचलता था पिछले दस बरसों में अपने संग्रह में मैंने बडे क़ायदे से नक्काशी की जैसे, पहले मैं किसी कवि या संगीतकार की पांडुलिपि के उन पन्नों को लेकर संतोष कर लेता था जो उसके सृजनात्मक पल को उघाडते थे मगर धीरे-धीरे, अब मेरी कोशिश होती कि उसके हरेक सबसे सुखद, सृजनात्मक सर्वोत्कृष्ट उपलब्धिपूर्ण, पल की बानगी ले सकूँ इसलिए अब मुझे किसी कवि की किसी कविता की पांडुलिपि की तलाश नहीं वरन उसकी सबसे सुन्दर कविता और हो सके तो ऐसी कविता जिसमें भीतर की प्रेरणा ने अमरता की राह का पहला दुनियावी कदम भरा था चिर-स्मरणियों से मेरी बडी हौसलामंद उम्मीद होती मुझे उनकी उसी घसीट का कतरा चाहिए था जिसने उन्हें चिर-स्मरणीय बनाया था।

नतीजतन, संग्रह लगातार उमडता बिगडता रहा अपने तय किये मकसद पर कोई वरक पूरा नहीं उतरता तो मैं उसे हटा देता बेचकर या अदला-बदली करके, और उसकी एवज, किसी ज्यादा जरूरी, ज्यादा प्रवृत्तिमूलक, और अगर इस शब्द के उपयोग की छूट हो तो, ज्यादा शाश्वतता भरे वरक को ले आता और हैरानी की बात यह कि ज्यादातर मैं कामयाब हो ही जाता क्योंकि मेरे अलावा कुछ ही लोग थे जो कला की सबसे अहम कृतियों को इतने तजुर्बे, तन्मयता और इतनी जानकारी से संगृहीत करते थे जो चीज शुरू में एक पोर्टफोलियो जितनी थी, होते-होते पूरा बक्सा बन गयी सर्जनात्मक मानव जगत की उन सबसे स्थायी निशानियों या उसके हिस्सों को, इकट्ठे साथ रखने से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए, मैटल और एसबेस्टस का कवच पहना दिया गया था किसी बंजारे से भटकते अपने वजूद को झेलते जाने के कारण मेरे पास बहुत पहले बिसरा दिये गये उस संग्रह की अब सूची नहीं है इसलिए मैं बेतरतीबी से ही उन कुछेक चीजों का हवाला दे रहा हूं जिससे पता चले कि शाश्वतता के पल में दुनियावी मेधा कैसे आकार लेती है।

लेनार्डो 1 की कामकाजी किताब के कुछ पन्ने थे बिम्ब-प्रतिबिम्ब बनाते कुछ चलताउ नोट्स! चार पन्नों पर बिखरे वे बमुश्किल पढने में आते थे रिवोली मैं अपने सैनिकों को हुक्म देता नैपोलियन था प्रूफ के पन्नों पर काट-छांट करता बाल्जाक का पूरा उपन्यास थाहजारों-हजार करेक्शंस का अखाड़ा बना हरेक पेज अनिर्वचनीय सफाई से उसके अतुल संघर्ष की मिसाल देता जाता था (सौभाग्य से, एक अमरीकी विश्वविद्यालय के लिए उसकी फोटो प्रति बचा ली गयी थी) नीत्से की 'बर्थ ऑफ ट्रैजडी अपने पहले अज्ञात प्रारूप में थी जो, प्रकाशन के अरसा पहले उसने अपनी प्रियतमा कोसिमा वैगनर को लिखी थी बाख की एक कथा गायकी थी ग्लूक की लिखी एक धुन थी एक धुन हांडल की लिखी थी जिसकी संगीत पांडुलिपियाँ सबसे विरल हैं कोशिश हमेशा सबसे बेजोड क़ो हासिल करने की होती और अमूमन, वह मिल भी जाती। ब्रहम्स की 'साइग्यूनरलीडर' पिन की 'बारकारोल' , श्यूबर्ट की अमर कृति 'संगीत के समीप' थी और तो और हेडन की 'काइजर चौकडी' की अमर धुन 'खुदा मिल गया' भी थी। कुछ मामलों में तो सृजन के अद्वितीय अभिरूप को मैं सम्पूर्ण जीवन विस्तार देने में भी सफल हो गया जैसे, मोजार्ट का बारह बरस की उम्र में लिखा सिर्फ कच्चा कागज ही मेरे पास नहीं था बल्कि गायन कला की निशानी के बतौर अमर्त्य उसका 'नीलपुष्प' भी था। फिगारो के 'नान पी आन्द्री' के नृत्य-संगीत को बांधती विवरणिका थी और खुद 'फिगारो' के हिस्से की तर्ज थी। अलावा इसके, गिरजाघर के नाम बडे दिलकश, अशोभनीय खत थे (अखंडित और अभी तक अप्रकाशित) और अन्त में, मृत्यु से ठीक पहले उसके द्वारा 'टाइटस' के लिए लिखी एक धुन थी। गेटे की जिन्दगी का जलवा भी कुछ ऐसा ही हरा-भरा था। पहली झलकी नौ साल के छोकरे द्वारा लेटिन से किए अनुवाद की थी तो आखिरी उसके बयासीवें बरस में, मृत्यु से एकदम पहले लिखी कविता की थी इनके बीच उसके चमचमाते सृजन की बलिष्ठ कृतियाँ थीं 'फाउस्ट' का दोहरा पन्ना था। प्राकृतिक विज्ञान की एक पांडुलिपि उसके फैले-पसरे कैरियर की विभिन्न अवस्थाओं के दरम्यान लिखी कई कविताएँ और चित्रकारियाँ थीं। इन पन्द्रह झलकियों में गेटे के पूरे जीवन का जायजा मिल जाता गेटे की सामग्री के मामले में, मेरे प्रकाशक प्रोफेसर किपनबर्ग की मुझसे होड रहती। इस प्रकार स्विटजरलैंड के एक सबसे बडे रईस ने, जिसके पास बीथोविन का बेमिसाल खजाना था, एक बार मेरे खिलाफ बोली लगाई और मुझसे नीलामी मार ली मगर इस शुरूआती पुस्तिका, 'चुम्बन' नामक गाने और एग्मांट संगीत के हिस्सों के अलावा, मैं उसकी जिन्दगी के एक बेहद त्रासद पल को दृश्य रूप में पेश करने में सफल हो गया और वह भी ऐसी परिपूर्णता से जो किसी संग्रहालय के लिए नामुमकिन थी। खुशकिस्मती से मैं उसके कमरे के फर्नीचर के बचे हुए टुकडे हथियाने में कामयाब हो गया। उसकी मृत्यु के बाद वह नीलाम कर दिया गया था और प्रिवी कौंसिलर ब्रयूनिंग ने खरीद लिया था उस बडी ड़ेस्क की दराजों में सबसे ऊपर उसकी दो महबूबाओं काउंटैस जिलीटा गुइकार्डी और काउंटैस ऐरडयूडी की तस्वीरें पोशीदा थीं। उसके बिस्तरे के नजदीक, आखिरी दिनों तक साथ रहने वाली तिजोरी थी, एक हल्की डेस्क थी जिसके ऊपर, बिस्तर में पडे-पडे ही, उसने अपनी आखिरी कविताएँ और खत लिखे थे। मृत्यु शय्या पर कटे बालों की एक सफेद लट थी। उसके अंतिम संस्कार का निमंत्रण पत्र, कँपकँपाते हाथों से लिखी धोबी को दिये जाने वाले कपडों की सूची थी, नीलामी के लिए रखी उसकी चीजों की फेहरिस्त और अपने कंगाल हुए बावर्ची के लिए चन्दे के लिए बनाई दोस्तों की सूची थी और गोकि इस बात की मुझे नजीर दी जा रही हो कि एक सच्चे संग्रहक को इत्तफाक हमेशा खुशकिस्मती बख्शता है,। उसके मृत्यु-कक्ष से ये सब चीजें खरीदने के बहुत जल्द बाद ही मुझे उसकी मृत्युशय्या के तीन रेखांकन और हाथ लग गये। तत्कालीन खबरों के मुताबिक, श्यूबर्ट के दोस्त, युवा चित्राकार जोसेफ टेल्टशर ने 27 नवंबर को, मृत्युशय्या पर संघर्ष करते बीथोविन का रेखांकन बनाने की कोशिश की थी मगर प्रिवी कौंसिलर ब्रयूनिंग ने इसे तौहीन समझते हुए उसे कमरे से बाहर निकलवा दिया। सौ बरस तक ये रेखांकन गायब रहे ब्रूयन की एक फुटकर नीलामी में इस नामालूम चित्रकार की दर्जन भर स्कैच बुक औने-पौने दाम बिकी थीं।यह रेखांकन उन्हीं में था मौका भी मौके की तलाश में रहता है। एक रोज एक डीलर ने मुझे फोन करके पूछा कि क्या बीथोविन की मृत्युशय्या के रेखाचित्रों में मेरी दिलचस्पी है। मैंने उससे कह दिया कि वह तो पहले से ही मेरे पास है मगर बाद में पता चला कि वह तो उसके दान्हयूशर द्वारा बनाए मशहूर मूल शिलाचित्र की बात कर रहा था। इस तरह उस अंतिम यादगार और सच्ची के अमर्त्य क्षण को याद करने के सारे गोचर सबूत मैंने इकट्ठे कर लिये।

कहने की जरूरत नहीं कि खुद को मैंने इन चीजों का कभी मालिक नहीं, हाली हिफाजती ही समझा इन चीजों पर पट्टा जमाने की नीयत की बनिस्वत उनमें कुछ जोड-ज़ुड़ाव करने, संग्रह को किसी कलापूर्ण प्रस्तुति में तब्दील करने का मुझे बड़ा लालच रहा है मैं जानता था कि इस संग्रह की मार्फत मैंने एक ऐसी चीज बना ड़ाली थी जिसमें एक कृति के रूप में, मेरे अपने लेखन से ज्यादा काबिले-कूवत थी कई प्रस्तावों के बावजूद, उनका कैटलॉग बनाने से मैं हिचकता रहा था क्योंकि अभी तो इसका ढांचा ही बन रहा था उसमें कई नाम और सबसे चाहत भरे स्मृतिशेष नदारद थे। मैंने सोच रखा था कि इस बेजोड ख़जाने को मैं ऐसी किसी संस्था को सौपूँगा जो मेरी खास शर्त पूरी करे: खजाने की बढोतरी में दर कुछ रकम उसी भावना से लगाए जो मुझे चहकाती थी, मतलब, एक जड-स्थिर चीज के बजाय यह एक ऐसी जैविक इकाई बन जाये जो सँवरते-सँवरते, मेरी अपनी जिन्दगी के सौ-पचास बरस बाद ज्यादा मुकम्मल खूबसूरती अख्तियार कर ले।

मगर हमारी इम्तहान-परस्त पीढी क़ो तो खुद से परे कुछ सोचने की मनाही थी जब हिटलर के दिनों ने कब्जा जमाया और मैंने अपना घर छोड़ा तो संचयन की ख्वाहिश और, किसी भी शाश्वत चीज को संभालने की निश्चिंतता, खेत हो गयी कुछ दिन तो कुछेक चीजें मैंने तिजोरियों और दोस्तों की हिफाजत में रखीं मगर फिर, गेटे के मशवरे को याद करते हुए कि संग्रह-संग्रहालयों और शास्त्रागारों को यदि लगातार हवा-पानी न दिया जाये तो वे सूख जाते हैं। मैंने उस संग्रह को अलविदा कर दिया जिसे मैं और नहीं पाल-पोस सकता था अलविदा में, इसका एक हिस्सा तो मैंने वियना की नेशनल लाइब्रेरी को दे दिया। मुख्यतः ऐसी चीजें जो अपने समकालीनों से मुझे तोहफे के तौर पर मिली थीं एक हिस्सा बेच दिया। बाकी बचे के साथ क्या हुआ या क्या हो रहा है, उससे मेरा मन अब दुखी नहीं होता है। रचे जा चुके की बनिस्वत मुझे रचने की प्रक्रिया में हमेशा सुख मिलता है इसलिए मैं उन चीजों का गिला नहीं करता जो कभी मेरी हुआ करती थीं हर कला और खजाने का अदावती हुआ वक्त जिस तरह हमें खदेड-पछाड रहा है, ऐसे में गर कोई कला हमें सीखनी हो तो वह उस सबसे बिछुडने की होगी जो कभी हमारी शान, हमारा प्यार हुआ करती थी।

तो इस तरह काम-काज, सैर-सपाटे, पढने-लिखते, संग्रह करते और जिन्दगी का आनन्द लेते हुए साल गुजरते रहे। नवम्बर 1931 की एक सुबह जब मैं उठा तो पता चला मैं पचास बरस का हो गया हूं। दूधिया बालों वाले साल्जबर्ग के उस भलमनजात ड़ाकिये के लिए यह दिन बड़ा मनहूस रहा क्योंकि खतों और टेलिग्रामों के अच्छे खासे जखीरे को लेकर बुढउ को दुर्गम सीढियाँ घिसटनी पडीं उसकी वजह यह थी कि जर्मनी में किसी लेखक के पचासवें जन्मदिन को अखबारों में व्यापक तौर पर मनाने का रिवाज था। उन्हें खोलने-पढने से पहले मैं पल भर रूककर सोचने लगा कि इस दिन की मेरे लिए क्या अहमियत है। पचासवाँ साल एक निर्णायक मोड होता है। मुडक़र देखने लगो तो घबराहट होती है कि कितना सफर तो पूरा हो गया मन में सवाल भी उठा कि क्या अभी और कुछ बकाया है मैं अपनी जिन्दगी का अवलोकन करने लगा। अपने घर से जैसे मैं आल्प्स पर्वत शृंखला और घाटी के ढलान को निहारता था, वैसे ही उन पचास बरसों को निहारने लगा। मैंने कबूल किया कि जिन्दगी का एहसानमन्द न होना बेइमानी होगी आखिर इसने मेरी उम्मीदों या जो मैं अपनी काबलियत समझता था, उससे ज्यादा और बेइन्तहां ज्यादा इनायत मुझे बख्शी थी साहित्य के माध्यम से मैं अपने को विकसित, अपने वजूद का जो इजहार करना चाहता था उसने, लडक़पन में भरे मेरे किसी भी सपने से कहीं ज्यादा पाँव पसार लिए थे मेरे जन्मदिन पर इंसल-वर्लेग ने, सभी भाषाओं में प्रकाशित मेरी किताबों की सूची छापी थी जो खुद एक किताब जितनी थी कोई भाषा तो वहाँ गैर-हाजिर नहीं थी न बुलगारियाई या फिन्नीज, न पुर्तगाली या अरमेनियाई, न चीनी या मराठी मेरी किताबें ब्रेल में, शॉर्टहैन्ड में और जानी-अनजानी हर शक्लो-सूरत और रंग में थीं मेरे विचार और शब्द बेशुमार लोगों तक जा पहुँचे थे। खुदी के चौखटे से खींचकर मैंने अनन्त में अपना अस्तित्व फैला दिया था अपने दौर की बेहतरीन शख्सियतों से मेरी जाती दोस्ती हो गयी थी। मैंने एक से एक मुकम्मल प्रस्तुति का लुत्फ उठाया था। इस धरती के सबसे खूबसूरत नजारे, इसके लाजवाब शहर और बला की पेंटिंग्स को देखने का मैंने आनन्द लूटा था। मैंने अपनी आजादी बरकरार रखी थी। किसी नौकरी-पेशे पर मैं निर्भर था नहीं, अपने काम में मुझे मजा आता था और तो और दूसरों को भी इससे आनन्द मिलता था अब किसकी नजर लग सकती है? वो रहीं मेरी किताबें : क्या वे नष्ट कर दी जाएंगी? (उस घडी मैंने निर्व्याज ऐसा सोचा) मेरे पास घर था : क्या मुझे इससे बेदखल कर दिया जायेगा? मेरे दोस्त थे : क्या कभी मैं उनसे हाथ धो बैठूँगा ? बिना मृत्यु या बीमारी के डर के मैं सोचने लगा। दूर-दूर तक इसका ख्याल किये बगैर कि अभी मुझे क्या कुछ झेलना बकाया था। किसी बेघर शरणार्थी की तरह मुझे फिर से कोने-कोने, सात-समुन्दर, दर-बदर भटकना पडेग़ा, मेरा पीछा किया जायेगा। मेरी किताबें जला दी जाएंगी, प्रतिबंधित हो जायेंगी, जर्मनी में मेरे नाम को किसी खूनी की तरह पुकारा जायेगा और मेरे सामने मेज पर पडे ख़तों और टेलिग्रामों को भेजने वाले मेरे दोस्तों का, खुदा-ना-खास्ता मिलने पर, रंग उतर जायेगा तीस या चालीस बरस की मेहनत-लगन यूँ झपक दी जायेगी कि उसका नामोनिशां नहीं बचेगा ऊपर से पुख्ता और सलामत दिखती जिस जिन्दगी का मैं अवलोकन कर रहा था, उसका ढाँचा भरभरा जायेगा और अपनी जिन्दगी की शाम में जहाँ पहले से ही शक्ति- ह्रास हो गया है और रूह बैचेन है ,मुझे फिर से सब कुछ शुरू करने की मजबूरी उठानी पडेग़ी ।सही बात है, इस दिन भी कोई ऐसी फिजूल, वाहियात बातें सोचता है! मेरे सुकून का सबब था मैं अपने काम और इसीलिए जिन्दगी, से प्यार करता था दीन-दुनिया की चिन्ताओं से मैं बरी था। मैं आगे यदि एक लाइन भी न लिखूँ तब भी मेरी किताबें मेरा गुजारा कर देतीं लग रहा था जिन्दगी में हासिल करने को कुछ बचा ही न हो लग रहा था किस्मत नकेल दी गई है सुरक्षा का कवच, जो मैंने पहले कभी अपने माता-पिता के जमाने में देखा था और युद्ध के दरम्यान जो गायब हो गया था, उसे अपने बलबूते मैंने फिर हासिल कर लिया था और कोई तमन्ना क्या होगी।

मगर क्या अजीब बात कि इसी बात से मुझे मन ही मन घबराहट होने लगी कि इस घडी मेरी कोई ख्वाहिश नहीं है भीतर से किसी ने पूछा नहीं, मैंने खुद नहीं कि क्या वाकई यह ठीक रहेगा कि जिन्दगी यूँ ही चलती रहे ।शान्ति से, करीने से, फलते-फूलते, इत्मीनान से बिना किसी दबाव या इम्तहान के ? जिन्दगी की ये पुर-सलामती और सुख-सुविधाएँ क्या मेरे असल वजूद के बेमेल नहीं थीं? सोचते-विचारते मैं घर में टहलने लगा गये बरसों में यह कितना सुन्दर हो गया था, ठीक वैसा, जैसा मैं चाहता था मगर क्या मुझे हमेशा इसमें रहना पडेग़ा? हमेशा उसी डेस्क पर बैठकर किताबें लिखते हुए। एक किताब के बाद फिर दूसरी किताब, रायल्टी के बाद और ज्यादा रायल्टी लेते हुए अन्ततः एक ऐसा इज्जतदार शरीफ जो सलीके से अपने नाम और काम के लिए जीता है, वक्त के पेचोखम, तमाम खतरों और खटकों से जुदा-जुदा? क्या यह हमेशा ऐसे ही चलता रहेगा, मेरे साठा होने तक, मेरे सत्तर पार करने तक या जब तक भी गाडी चलती है? मेरे अन्तस की आवाज कहती रही कि क्या अच्छा हो अगर जिन्दगी में कुछ ऐसा हो जाये जो मुझे ज्यादा बैचेन, ज्यादा उत्सुक और जवाँ बना दे ।जो मुझे नये से नये, और गालिबन ज्यादा खतरनाक, मुकाबले के लिए ललकारे? हर कलाकार में एक अजीबोगरीब दोकड़ा बसता है : जिन्दगी यदि उसे ताबड-तोड ख़सोटती है तो वह शान्ति के लिए बिलबिलाता है मगर शान्ति मिली नहीं कि वह उन्हीं पुराने हिचकोलों को तरसने लगता है इसलिए इस पचासवें जन्मदिन पर मेरे दिल में बस यही कुटिल इच्छा मरोडे मार रही थी कि काश कुछ ऐसा हो जाये जो एक बार फिर इन गारंटियों और सुख-सुविधाओं को चीरकर मुझसे परे कर दे ताकि मेरा न सिर्फ काम करते रहना अनिवार्य हो जाये बल्कि मैं कुछ नया भी शुरू कर सकूँ । क्या यह बढती उम्र, थका-माँदा या आलसी होते जाने का डर था? या यह कोई रहस्यमयी अंदेशा था जो मेरी रूह की खातिर मुझसे दुश्वार जिन्दगी की तमन्ना करवा रहा था? मैं नहीं जानता।

मैं नहीं जानता क्योंकि बेखुदी के झुटपुटे के इस अजीब लम्हे में कोई बनी-सुघडी तमन्ना तो आकार ले नहीं रही थी। मेरी सोची-समझी इच्छा से जुडी-रमी तो यकीनन नहीं। किसी गुरेजां ख्याल की कौंध से ज्यादा यह कुछ नहीं था शायद ख्याल भी मेरा अपना नहीं था मगर जिस गहराई से इसने दस्तक दी, उसकी मुझे कुछ हवा नहीं थी। शायद इसके गर्भ में वह अज्ञात, अबोध्य शक्ति रही हो जिसने मेरी जिन्दगी में इतनी ज्यादा इनायतें बख्शीं कि मैं कभी सोच भी नहीं सकता था और लो, बडी हुकुम-बरदारी से, मेरी जिन्दगी की नब्ज को नेस्तानाबूद करने का इसने काम भी शुरू कर दिया ताकि मैं इसके घूरे से एक बिल्कुल अलग, मुश्किल और ज्यादा दुश्वार जिन्दगी की नयी इमारत खडी क़रने में लग जाऊँ।

सन्दर्भ

1 यहाँ अभिप्राय लेनार्डो द विंसी (1452-1519) से है जिनकी पेंटिंग्स और शिल्प मूर्तियों का आज भी कोई सानी नहीं है इटली की इस बेमिशाल शख्सियत ने कई वैज्ञानिकों के साथ भी खूब काम किया और चित्राकारी के माध्यम से दृश्य क्षमताओं की पडताल की 'मोनालिसा' के सर्जक।

2 'बर्थ ऑफ ट्रेजडी' नीत्शे (1844-1900) की पहली पुस्तक थी जिसमें ग्रीक पुराण का सहारा लेकर उन्होंने संगीत की बारीकियों की पडताल की थी।

चौथा अंश : रिचर्ड स्ट्रास और खामोश औरत का किस्सा

जर्मनी में अपने लेखकीय अस्तित्व के संपूर्ण विध्वंस के नसीब को थामस मान, हाइनरिख मान, वर्फेल, फ्रायड, आइंस्टीन जैसे उत्कृष्ट समकालीनों के साथ शेयर करने की छूट को मैंने असम्मान के बजाय अपना सम्मान अधिक समझा इन जैसे दूसरे कइयों के अवदान को मैं अपने से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण समझता हूं किसी तरह का शहादताना संकेत देना मेरे गले नहीं उतरता है। इसलिए इन सबके साथ खुद को मैं बडे बेमन से शामिल कर रहा हूं लेकिन क्या अजीब संयोग कि नेशनल सोशलिस्टों और एडोल्फ हिटलर तक को जाती तौर पर शर्मसार स्थिति में ड़ालना मेरे हिस्से ही बदा था बर्शेटेसगार्डन कस्बे के ऊँचे लोगों के बीच लंबी-तगडी और गरमागरम बहसों का छीका, साहित्यिक बहसों में बार-बार मेरे सिर पर ही फूटना था नतीजतन, आधुनिक काल के सबसे ताकतवर शख्स एडोल्फ हिटलर को नाखुश करने का मुझे फुरफुरा संतोष है जिसे मैं जिंदगी की दूसरी खुशगवार चीजों के साथ दर्ज कर सकता हूं।

नयी हुकूमत के बहुत शुरूआती दिनों में, बडे अनजाने ही मेरी वजह से बवाल-सा मच गया मेरी कहानी 'द बर्निंग सीक्रेट' पर उसी नाम की फिल्म बनी थी जिसे पूरे जर्मनी में दिखाया जा रहा था किसी ने उस पर रत्तीभर एतराज नहीं जताया मगर राइशटेग की आग के अगले रोज (नेशनल) सोशलिस्टों ने खामखां ही उसकी जिम्मेवारी कम्युनिस्टों के मत्थे मढने की कोशिश की थी, देखने में आया कि थिएटर में लगे इस्तिहार के नीचे लोग एक दूसरे को धकमपेल कर रहे हैं, नैन मटका रहे हैं, खिलखिला रहे हैं जीस्टेपो को समझने में ज्यादा देर नहीं लगी कि इस नाम में क्या चीज हास्यप्रद है क्योंकि शाम तक तो पुलिस वालों का जमघट हो गया था फिल्म के प्रदर्शन पर पाबंदी लगा दी गई और अगले रोज तो सभी अखबारों, विज्ञापनों और पोस्टरों से मेरी कहानी का शीर्षक 'द बर्निंग सीक्रेट' नामोनिशां छोडे बगैर गायब हो गया। उनके लिए बहुत आसान था कि चिढाने वाले किसी भी लफ्ज पर पाबंदी लगा दें या, उन किताबों को ही जला-फाड दें जिनके लेखक उन्हें नापसंद हों मगर एक खास मामले में वे मुझ अकेले का नुकसान नहीं कर पाये साथ-साथ उस आदमी को भी नुकसान उठाना पड़ा जिसकी दुनिया के सामने अपनी प्रतिष्ठा की खातिर, उन्हें सबसे ज्यादा जरूरत थी यह थे जर्मन राष्ट्र के सबसे बडे ज़ीवित संगीतकार रिचर्ड स्ट्रॉस जिनकी संगत में मैंने तभी एक ओपेरा पूरा किया था।

रिचर्ड स्ट्रॉस के साथ यह मेरी पहली जुगलबंदी थी 'इलेक्ट्रा - 2 ' और 'रोजेनकैवेलियर' के जमाने से ही ह्यूगो फान हाफमंसथाल ने उनके सभी ओपेरा पाठ लिखे थे निजी तौर पर कभी रिचर्ड स्ट्रॉस से मैं तो कभी मिला नहीं था हाफमंसथाल की मौत के बाद उन्होंने मेरे प्रकाशक को सूचित किया कि वे एक नयी प्रस्तुति शुरू करना चाहते हैं और तफतीश की कि क्या उनके लिए ओपेरा पाठ लिखने का मेरा मन है इस पेशकश के सम्मान की मुझे खूब खबर थी मैक्स रीगर द्वारा अपनी शुरूआती कविताओं को संगीतबद्ध किए जाने के जमाने से ही मैं संगीत और संगीतकारों के बीच उठता-बैठता आया था बुसौनी तोस्कानिनी, बू्रनो वाल्टर और अल्बन बर्ग के साथ मेरी करीबी दोस्ती थी हान्डल से लेकर बाख और बीथोविन से चलकर हमारे जमाने के ब्रहम्स तक के सिद्धहस्त संगीतकारों की शानदार परंपरा की वे आखिरी कडी थे। रिचर्ड स्ट्रॉस से बेहतर सृजनात्मक संगीतकार और कौन हो सकता था जिसके साथ मैं खुशी-खुशी काम करना चाहता। मैंने तुरंत हामी भर दी। पहली मुलाकात में ही मैंने बेन जोन्सन की 'द साइलेंट वोमेन' के थीम को ओपेरा का आधार बनाने का मशविरा दिया। जितनी फुर्ती और साफगोई से रिचर्ड स्ट्रॉस ने मेरे सुझावों पर दिल छिडक़ा, उसे देखकर मुझे बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि उनके पास कला के प्रति ऐसी चौकन्नी निगाह और नाटयकला का ऐसा चौंकाने वाला ज्ञान होगा अभी उन्हें चीजों की फितरत समझाई ही जा रही थी कि नाटयांतरण के लिहाज से उन्होंने उसे ढालना-सँवारना और हैरतन ढंग से अपनी काबिलियत जिसके प्रति वे अलौकिक रूप से सचेत थे, की हदों से ताल-मेल बैठाना भी शुरू कर दिया। जिंदगी में मेरा बहुत सारे बडे क़लाकारों से वास्ता पड़ा है मगर ऐसा कोई नहीं था जिसे खबर हो कि अपने प्रति अमूर्त और अचूक वस्तुपरकता कैसे बनाए रखी जाए। हमारी मुलाकात के पहले घंटे में ही स्ट्रॉस ने खुलेआम कबूल किया कि सत्तर की उम्र में उनकी झोली में संगीत की वैसी प्रेरणाएं नहीं बची हैं जिनका कभी जलवा जवान था 'शेखचिल्ली होने तक' (टिल यूलेनस्पीगल) और 'मौत और रूपांतरण' (ट्रांसफिगरेशन) जैसी स्वरलहरियाँ (सिम्फनी) रचने में वे शायद ही कामयाब हो पाएँ क्योंकि विशुद्ध संगीत को चरम सृजनात्मक ताजगी चाहिए होती है लेकिन अल्फाज उन्हें अभी भी गुदगुदाते थे। ठोस शक्ल की कोई चीज, ऐसा पदार्थ जिस पर पाड बँध चुकी हो, उन्हें पूरे नाटयांतरण के लिए ललचाती थी क्योंकि हालात और अल्फाज से खुद-ब-खुद उन्हें संगीत के थीम सूझते थे। बाद के बरसों में इसीलिए वे अपना पूरा वक्त ओपेरा में ही लगा रहे थे। उन्होंने कहा कि वे मानते हैं कि कला-प्रस्तुति के रूप में ओपेरा के दिन लद गए हैं वैगनर तो ऐसा शिखर था कि उससे आगे कोई जा ही नहीं सकता अपनी चौडी बावेरियाई खीस के साथ वे बोले ''मगर मैंने समस्या सुलझाई, उसके आसपास एक घुमावदार रास्ता निकालकर''

जब हम मसौदे पर राजी हो गए तो उन्होंने मुझे छुटपुट हिदायतें दीं वे चाहते थे कि मैं बेखटक होकर लिखूँ क्योंकि विरदी ओपेरा पाठ के बाद किसी बनी-बनाई किताब ने उन्हें कभी नहीं गुदगुदाया उन्हें तो बस ऐसे काम में रस आता है जो काव्यात्मक ढंग से सँवारा गया हो। मैं यदि किसी जटिल प्रभाव की रचना मुहैया करा सकूँ तो भी उन्हें मुफीद रहेगा क्योंकि इससे उन्हें अलग मिजाज इस्तेमाल करने की गुंजाइश मिल जाएगी ''मैं मोजार्ट जैसी लंबी धुनें नहीं बनाता छोटे-छोटे कथानकों से आगे मैं जा ही नहीं सकता मगर मैं इनका इस्तेमाल जरूर कर सकता हूं ।उनके भावानुवाद की मार्फत उनका पूरा अर्क निकाल सकता हूं और मैं नहीं समझता कि इसमें आज कोई मेरे मुकाबिल हो सकता है'' उनकी साफगोई से मैं एक बार फिर हक्का-बक्का रह गया क्योंकि यह बिल्कुल सही है कि स्ट्रॉस की शायद ही कोई धुन चंद तालों से लंबी होगी मिसाल के तौर पर 'रोजेनकैवेलियर' के संगीत को ही लो यही चन्द ताल मिलकर कैसे समृद्ध सुकून का दो-गाना बन जाते हैं

अपनी रचनाओं को वह बुढऊ उस्ताद जिसे निस्संदेह और निष्पक्षता से आँकते थे इस बाबत अगली मुलाकातों ने उनके प्रति मेरी इज्जत और पुख्ता कर दी साल्जबर्ग नाटय उत्सव में उनकी 'मिस्र की हैलेना'की निजी रिहर्सल के मौके पर मैं उनके साथ अकेला बैठा था दूसरा और कोई नहीं निबिड अँधेरी जगह स्ट्रॉस ध्यान से सुनते रहे फिर एकाएक बेसब्री में अपनी ऊँगलियों से उन्होंने कुर्सी के हत्थे पर कानफोडू शोर निकालना शुरू कर दिया फिर मुझसे फुसफुसाए ''खराब, एकदम खराब वह जगह सूनी पडी है''।।।।। कुछ पल बाद फिर बोले ''इसे भी निकाल फेंका जाए, हे भगवान, वह तो एकदम खोखली है लंबी है, बहुत ज्यादा लंबी है'' फिर कुछ देर बाद।।।।। ''तुम देखो, वो ठीक है । अपने ही संगीत का वह ऐसा वस्तुपरक और निरपेक्ष आंकलन करते जैसे उसे पहली दफा सुन रहे हों; गोकि उसके रचयिता से अनजान हों अपनी क्षमताओं के इस विस्मयकारी बोध ने उन्हें कभी दगा नहीं दिया अपनी हैसियत और अहमियत का उन्हें हमेशा मुकम्मल एहसास रहता खुद के बरक्स दूसरे कहाँ ठहरते हैं इससे उन्हें वास्ता नहीं था या था भी तो उतना ही जितना दूसरों को उनसे होगा बस, सृजन से ही उन्हें आनंद मिलता था

और स्ट्रॉस के काम करने का तरीका था भी काफी निराला कुछ भी महिमामंडन नहीं कलाकारों जैसा कोई फितूरी उल्लास नहीं अवसाद और निराशा के जो किस्से हमने बीथोविन और वैगनर के बारे में सुन रखे थे, ऐसा-वैसा भी कुछ नहीं स्ट्रॉस एकटक होकर काम करते हैं और धुन बनाते हैं जॉन सैबस्टियन बाख की तरह 5 अपनी कला के उन तमाम उदात्त शिल्पियों की तरह चुपचाप और सिलसिलेवार सुबह नौ बजे वह गए रोज के अधूरे काम को आगे बढाने बैठेंगे धुन के पहले मसौदे को हमेशा पेंसिल से लिखते हैं और पियानों के गीत को स्याही से यह सब बेनागा दोपहर बारह या एक बजे तक चलता है। दोपहर बाद वे पत्तों का जर्मन खेल 'स्कैट' खेलते हैं, धुन के दो-तीन पन्नों को अंतिम रूप देते हैं और शाम को ओपेरा संचालित करते हैं। तमकना क्या होता है, वे बेखबर हैं दिन हो या रात, उनका कलाकार मन चौकस चहकता रहता है उनका नौकर जब शाम की पोशाकें लेकर दरवाजे पर दस्तक देता है तब वे काम से उठ जाते हैं। कपडे पहने और थिएटर की तरफ गाडी रवाना और वहाँ उसी विश्वास और शांतभाव से संगीत संचालन करते हैं, जिससे दोपहरिया में वे 'स्कैट' के पत्ते खेलते हैं, अगली सुबह अंतःप्रेरणा फिर उनकी गोदी में आ बैठेगी। गेटे के शब्दों में कहूं तो स्ट्रॉस अपनी कल्पनाओं पर 'पकड' रखते हैं। उनके लिए कला का मतलब है जानना, सब कुछ जानना। ठिठोली में उन्होंने जतलाया भी ''कोई अगर सच्ची का संगीतकार बनना चाहता है तो उसमें साग-भाजी के नाम की फेहरिस्त तक को सुरों में साधने की कूवत होनी चाहिए''।

डराने के बजाय मुश्किलें उसकी रचनात्मक उस्तादी को और फुरफुराती हैं। मुझे याद करते हुए खुशी होती है कि किसी मुखडे क़े बारे में बताते हुए उनकी आँखें हुमस से कैसी चमक उठती थीं। ''मैंने गायिका को लोहे का चना चबाने को दे दिया है फोडने के लिए करने दो उसे जमीन-आसमान एक करने की मशक्कत'' ऐसे विरल क्षणों में उनकी आँखें चमक उठतीं तो लगता इस लाजवाब शख्स के भीतर एक अलौकिक एकांत है। उसकी समयनिष्ठा, सिलसिलेवार तरीका, उसकी प्रतिष्ठा, उसका हुनर और काम के दौरान उसकी बेफिक्र भंगिमा को देख पहले-पहल किसी को बदगुमानी हो जाए। वैसे ही जैसे उसके गोल-मटोल मामूली चेहरे के बच्चों से गाल, नैन-नक्स की बेहद मामूली गोलाई और शर्माती सिकुडती भवें पहले-पहल किसी को मोह लें लेकिन उनकी नीली, कान्तिमय इन्हीं चमकीली आँखों में कोई एक बार झाँक ले तो उस बुर्मुआजी मुखौटे के पीछे के किसी जादू का एहसास कर ले। किसी संगीतकार की मेरी देखी वे शायद सबसे भव्य-चैतन्य आँखें होंगी जो अलौकिक न सही पर कहीं न कहीं अलोकदर्शी हैं उस आदमी की आँखें जो अपने सृजन की पूरी अहमियत से वाकिफ हो।

इतनी प्रेरणाप्रद मुलाकात के बाद साल्जबर्ग लौटकर मैंने तुरन्त काम शुरू कर दिया। मेरे लिखे छंदों को उनके विचारों की सम्मति मिल पाएगी, इस बारे में मैं स्वयं उत्सुक था इसलिए दो हफ्ते के अंदर ही मैंने उन्हें पहला भाग भेज दिया 'द मीस्टर सिंगर' को उद्धृत करते हुए उन्होंने फौरन लिखा, ''पहली ॠचा कामयाब हुई''। दूसरे भाग के बारे में उनकी राय और भी तबीयत भरी थी गीत के बोलों ''ओ मेरे दुलारे बच्चे, मिल गया जो तू मुझे'' पर उनके आनंद और उत्साह ने काम करने में मेरे तईं बेशुमार खुशी भर दी। स्ट्रॉस ने मेरे ओपेरा पाठ की एक लाइन भी नहीं बदली बस उसके पूरक के लिहाज से तीन-चार लाइनें और जोडने को कहीं इस तरह हमारे दरमियाँ बडे ज़िगरी ताल्लुक कायम हो गए वे हमारे घर आए और मैं उनसे मिलने गारमिश जाता जहाँ अपनी लंबी पतली उंगलियों से, स्कैच के सहारे, पिआनो पर वे आहिस्ता-आहिस्ता मेरे लिए पूरी ओपेरा धुन बजाते बिना किसी शर्त या बंदिश के हमने यह मान-स्वीकार लिया था कि इस ओपेरा के बाद मैं दूसरे ओपेरा की तैयारी में जुट जाऊँ जिसकी योजना उन्होंने पहले ही मंजूर कर दी थी।

1933 की जनवरी में जब हिटलर ने सत्ता संभाली तो हमारे ओपेरा ''खामोश औरत'' की धुन पूरी हो चुकी थी। उसका पहला भाग लगभग मंचित हो चुका था। चंद हफ्ते बाद जर्मनी के थिएटरों को सख्त आदेश जारी किया गया कि वे किसी गैर आर्य की कोई रचना मंचित नहीं करें कोई यहूदी उसमें शामिल-भर हो, तब भी नहीं। यह व्यापक पाबंदी मुर्दों तक पहुँच गयी। हर तरफ संगीत-प्रेमियों को बेइज्जत करते हुए मेंडलसॉ के बुत को लीपसिग में गेवनहाउस के सामने से हटा दिया गया। मुझे लगा, अब तो हो लिया। अपना ओपेरा कहने की जरूरत नहीं थी कि उस पर आगे के काम को रिचर्ड स्ट्रॉस खारिज कर देंगे और किसी और के साथ दूसरा शुरू करेंगे। उल्टे उन्होंने मुझे चिट्ठियाँ लिख-लिखकर गुहार की कि मुझे क्या हो गया है। उन्होंने बतलाया कि वह पहले की प्रस्तुतियों में लगे हुए हैं इसलिए चाहते हैं कि मैं अगले ओपेरा के लेखन में लग जाऊँ। वह किसी को इजाजत नहीं देंगे कि हमारी जुगलबंदी नहीं हो और मैं मानता हूं कि पूरे वाकये के दौरान जहाँ तक बन पड़ा उन्होंने मुझ पर यकीन बनाए रखा इसी के साथ उन्होंने ऐसे कदम भी उठाए जो मुझे कम-पसंद थे यानी उन्होंने सत्तासीन लोगों की पैरवी की। कई बार हिटलर, गोरिंग और गोएबल्स से मिले और ऐसे वक्त जब फूर्तव्यूंगलर तक में विद्रोह भडक़ा हुआ था, उन्होंने खुद को नाजियों के संगीत सदन का अध्यक्ष बन जाने दिया।

इस मकाम पर स्ट्रॉस की खुलेआम भागेदारी नेशनल सोशलिस्टों के लिए बडे अहम की चीज थी। अव्वल लेखकों और बडे-बडे संगीतकारों ने उन्हें सरासर दुत्कार दिया था। जो थोडे बहुत उनके साथ चिपके रहे या चौहद्दी पर बैठने आए, जन-साधारण के लिए तो अनजान ही थे। ऐसे शर्मसार वक्त में, ऊपरी साज-सज्जा के लिहाज से, जर्मनी के सबसे मशहूर संगीतकार को अपने पाले में लेना गोएबल्स और हिटलर की बहुत बडी ज़ीत थी। स्ट्रॉस ने मुझे बताया कि अपनी आवारगी के दिनों में हिटलर ने इतना धन जोड लिया था कि ग्राज में 'सलोम' का प्रीमियर देखने आया था हिटलर दिखा-दिखाकर उनका सम्मान कर रहा था। बर्शेस्टगेडन की उत्सव-संध्याओं पर वैग्नर के अलावा स्ट्रॉस के गाने ही तकरीबन पूरी तरह बजते थे मगर स्ट्रॉस का सहयोग ज्यादा मतलबपरक था जिसे अपने कला अहूं के बावजूद वह खुले तौर पर स्वीकारते थे हुकूमत चाहे कोई हो, उसके प्रति वह अंदर से बेमने ही रहते वादक के तौर पर उन्होंने जर्मन काइजर को अपनी सेवाएँ दी थीं उसके लिए फौजी रवायतों का इंतजाम किया था। बाद में उन्होंने ऑस्ट्रिया बादशाह के सरकारी वादक के तौर पर वियना में भी काम संभाला। ऑस्ट्रिया और जर्मनी, दोनों ही गणराज्यों में उन्हें एक-सा सरकारी संरक्षण हासिल था। इसके अलावा नेशनल सोशलिस्टों की सोहबत उठाना उनके बडे अहम हित की बात थी क्योंकि नेशनल सोशलिस्टों के हिसाब से तो उँगली उनकी तरफ भी उठ सकती थी, उनके बेटे ने एक यहूदी लडक़ी से ब्याह किया था। उन्हें डर था कि उनके पोतों को स्कूल में मैल की तरह अलग न छिटक दिया जाए, उन्हीं को तो वे दुनिया में सबसे ज्यादा चाहते थे। उनका नया ओपेरा मेरी वजह से दागी हो गया था और इसके पहले वाला ओपेरा नीम¬यहूदी ह्यूगो फान हाफमंसथाल की वजह से।

इसलिए किसी तरह का संबल और कवच खड़ा करना उनके लिए और भी लाजमी हो गया था बडी ज़ी-तोड मेहनत से उन्होंने किया भी यही जहाँ-जहाँ उनके हाकिम उनसे संगीत प्रस्तुतियाँ करवाना चाहते थे, वहाँ-वहाँ उन्होंने की उन्होंने ओलंपिक खेलों की धुन बनाई मगर साथ-साथ इस भूल की सफाई में बिना किसी जोश के मुझे खरे-खरे खत भी लिखे। दरअसल अपने स्वांतः सुखाय के चलते उन्हें एक ही चीज की परवाह थी, अपने सृजन को बचाए रखना और अपनी दिली चाहत के काम यानी ओपेरा प्रस्तुति को सर्वोपरि रखना।

कहने की दरकार नहीं कि नेशनल सोशलिस्ट पार्टी को इस तरह की रियायतें बख्शना मेरे लिए बड़ा तकलीफदेह था इससे लोगों पर बडी अासानी से यह छाप पड सकती थी कि मैंने उनसे साठ-गांठ की या इस बात के लिए तैयार हुआ कि उनके शर्मनाक बॉयकाट से मुझे बरी रखा जाए सारे दोस्त मुझे समझाने लगे कि नेशनल सोशलिस्टों की जर्मनी में की जाने वाली प्रस्तुति के खिलाफ मुझे सार्वजनिक विरोध दर्ज करना चाहिए लेकिन सार्वजनिक और दयनीय दिखावों से मुझे बडी चिढ है अलावा इसके, मैं उन जैसे जीनियस की मुश्किलों की वजह बनने से कतरा रहा था। आखिर स्ट्रॉस महानतम जिंदा संगीतकार थे। सत्तर की उमर।।। इस काम पर तीन बरस खपा चुके थे इस दौरान उन्होंने हमेशा ही सबसे दोस्ताना जज्बात और नीयत (यहाँ तक कि हिम्मत भी) का परिचय दिया था इसलिए मैंने सोचा कि चुपचाप बैठकर इंतजार करूँ जो होगा देखा जाएगा। दूसरे, मुझे खबर थी कि पूरी तरह निष्क्रिय रहकर मैंने जर्मन संस्कृति के नए सिपहसालारों की दिक्कतों में इजाफा कर दिया था ।

नेशनल सोशलिस्ट चैम्बर के लेखक और सूचना मंत्रालय तो थे ही इस फिराक में कि किस वजह या बहाने की आड में अपने सबसे बडे संगीतकार के खिलाफ जमकर प्रतिबंध लगा सकें और हुआ ये कि हर ऐरा-गैरा दतर और शख्स, कोई न कोई बहाना खोजने की पोशीदा उम्मीद में उस ओपेरा पाठ की कॉपी माँगने लगा। 'खामोश औरत' में 'रोजनकैवेलियर' जैसा कोई दृश्य होता जिसमें एक नौजवान, विवाहित औरत के बैडरूम से बाहर निकलता है तो उनके लिए बडी सहूलियत रहती क्योंकि तब वे जर्मन नैतिकता के बचाव की दुहाई दे सकते थे मगर उनकी बदनसीबी कि मेरी किताब में वे कुछ भी अनैतिक नहीं खोज पाए। तब मेरी सभी किताबें और जीस्टेपो की सभी फाइलें खंगाल मारी गईं मगर वहाँ भी ऐसा कुछ हाथ नहीं लगा जिससे लगे कि मैंने जर्मनी (या धरती के दूसरे किसी मुल्क) के खिलाफ एक लफ़्ज भी कहा हो या कि मैं राजनीतिक रूप से सक्रिय था। मगर उन्होंने चाल चली, फैसला तो उन्हीं के हक में आना था। जिस बुजुर्ग उस्ताद के हाथों उन्होंने खुद नेशनल सोशलिस्ट की परचम थमाई थी, क्या उसी को वे ओपेरा मंचित करने की मनाही कर सकते थे? या कितने राष्ट्रीय अपमान की बात होगी अगर स्टीफन स्वाइग का नाम ओपेरा पाठ की प्रस्तुति में चला जाए? रिचर्ड स्ट्रॉस ने तो अपनी जिद पकड रखी थी खैर, जर्मनी के थिएटरों में यह तो पहले भी न जाने कितनी बार हो चुका था। उनकी इन चिंताओं और सरदर्दी ने मन ही मन मुझे कितना सुकून दिया मुझे लगा कि मेरे बिना कुछ करे-धरे या इधर-उधर कुछ किए बगैर भी मेरी संगीत-प्रहसनिका अंततः दलगत राजनीति का अखाड़ा बन गई। जब तक मुमकिन रहा, पार्टी फैसला करने से कन्नी काटती रही। मगर 1934 की शुरूआत में इसे फैसला करना था कि अपने कानून के खिलाफ जाए या दौर के सबसे बडे संगीतकार के ओपेरा की तारीख को और टालना मुमकिन नहीं था ओपेरा पाठ का पिआनो संस्करण छप गया था ड्रेसडन थिएटर ने पोशाकों के आर्डर दे दिए थे किरदार न सिर्फ बँट चुके थे बल्कि तह तक समझ लिए गए थे मगर विभिन्न सत्ता केन्द्र, गोरिंग और गोएबल्स, लेखक संघ, संस्कृति परिषद, शिक्षा मंत्रालय और प्रहरी-प्रभाग (स्ट्राइशर गार्ड) राजी ही नहीं हो पा रहे थे13 इनमें से कोई विभाग हाँ या ना कहने की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहा। जब कोई रास्ता नहीं बचा तो मामले को जर्मनी और पार्टी के सर्वेसर्वा, एडोल्फ हिटलर के निजी फैसले के लिए छोड दिया गया नेशनल सोशलिस्टों के बीच मेरी किताबें खूब पढी ज़ाती थीं। राजनीतिक इखलाक के लिए 'फाउश' को पढक़र उन्होंने खास सराहा था मगर सच, मैंने कभी यह उम्मीद नहीं रखी थी कि मैं निजी तौर पर एडोल्फ हिटलर को अपने छन्दबद्ध ओपेरा पाठ के तीन भागों को पढने की जहमत उठवाऊँगा। उसके लिए भी फैसला आसान नहीं था। मुझे बाद में पता चला कि इस मामले में घूम-फिरकर कई बैठक हुईं। अंत में, रिचर्ड स्ट्रॉस की सर्वशक्तिमान हिटलर के सामने पेशी हुई। हिटलर ने उनसे रूबरू कहा कि इस प्रस्तुति की अनुमति वह एक अपवाद के तौर पर देगा। हालांकि नए जर्मनी के सारे कानूनों के मुताबिक यह गुनाह बनता है यह फैसला उसने संभवतः उसी अनिच्छा और बदनीयती से लिया था जिसके साथ उसने स्तालिन और मोलोतोव के साथ करारों पर दस्तखत किए थे।

ओपेरा प्रस्तुति के पोस्टरों पर जैसे ही स्टीफन स्वाइग का मनहूस नाम दिखा, नेशनल सोशलिस्ट जर्मनी में कहर बिफर गया। मैं तो खैर उस प्रस्तुति में नहीं गया था क्योंकि पता था उसमें कत्थई वर्दीधारी दर्शकों की भरमार होगी। खुद हिटलर एक शो देखने आने वाला था। ओपेरा खूब कामयाब रहा। संगीत पारखियों की शान में कहना होगा कि नब्बे फीसदियों ने इस मौके पर नस्ली सिद्धान्त की अंदरूनी खिलाफत करने का सबूत पेश करते हुए एक बार फिर और आखिरी बार मेरे ओपेरा पाठ के बारे में हर मुमकिन दोस्ताना लज लिखे। जर्मनी के सभी थिएटरों बर्लिन, हमबर्ग, फ्रैंकफर्ट, म्यूनिख ने अगले सत्रा में ओपेरा प्रस्तुति की तुरंत घोषणा कर दी।

दूसरे शो के बाद अचानक ही आसमान टूट पड़ा। रातों-रात हर चीज रद्द कर दी गई। डेसडन और पूरे जर्मनी में ओपेरा पर पाबन्दी लगा दी गई और तो और, लोग पढक़र सकते में आ गए कि रिचर्ड स्ट्रॉस नये संगीत के राइखचेम्बर से इस्तीफा दे दिया है। सबको खबर थी कि जरूर कोई खास बात हुई होगी मगर थोडे समय बाद मुझे सारी सच्चाई पता चल गई स्ट्रॉस ने एक बार फिर मुझे खत लिखकर गुजारिश की कि मैं नए ओपेरा पाठ लिखने की शुरूआत कर दूँ। अपने निजी मिजाज के बारे में उन्होंने कुछ ज्यादा साफगोई से अपने ख्याल जाहिर कर दिए थे। यह खत जीस्टेपो के कारिन्दों के हाथ पड ग़या। स्ट्रॉस की पेशगी हुई। उन्हें तुरंत इस्तीफा देने को कहा गया और उनके ओपेरा पर पाबंदी लगा दी गई। जर्मन भाषा में इसे सिर्फ स्वतंत्र स्विट्जरलैंड और प्राग में ही दिखाया गया है। बाद में, मुसोलिनी की विशेष अनुमति से, इसे मिलान के स्काला में इतालवी में भी पेश किया गया क्योंकि तब तक मुसोलिनी को हिटलर के नस्ली विचारों को मानने की मजबूरी नहीं थी। जर्मन जनता को मगर यह इजाजत नहीं मिली कि वह अपने महानतम जीवित संगीतकार द्वारा बुढापे में बनाए इस मुग्धकारी ओपेरा की एक भी धुन दोबारा सुन ले, इसमें मेरा कसूर नहीं है।

पाँचवां अंश : फ्रायड का साथ और वे स्याह दिन

माहौल कितना ही गमगीन हो, किसी बडे शख्स से उदात्त नैतिक फलक पर बात करने से दिल को सुकून मिलता है और मन मजबूत हो सकता है। युद्ध से पहले, सिगमंड फ्रायड के साथ बिताये उन यादगार दोस्ताना घंटों ने मुझे यह खुशनसीबी मुहैया करवा दी। हिटलर के वियना में खट रहे उस तिरासी वर्षीय अपाहिज का खयाल कई महीने से मेरे दिमाग में चकरघिन्नी कर रहा था आखिर में राजकुमारी मारिया बोनापार्ट (उसकी सबसे वफादार शार्गिद) इस मनुष्य-श्रेष्ठ को, दमित वियना से निकाल लंदन ले जाने में कामयाब हो गयी1। उस दिन को मैं अपनी जिन्दगी के खुशी के दिनों में शुमार करता हूं जिस रोज मैंने अखबार में पढा कि वे आ गये हैं। मौत के मुँह से लौटे अपने इस परम आदरणीय मित्र को मैं तो कब का खोया हुआ मान बैठा था।

जिस शख्स ने इन्सान की रूह के बारे में हमारे ज्ञान को, दौर में किसी और की बनिस्बत ज्यादा वृहत्तर और गहरा किया, उस महान और सादगी भरे शख्स, सिगमंड फ्रायड के साथ मेरा वियना के उन दिनों से उठना-बैठना था जब उसकी अभी पैमाइश ही की जा रही थी एक अक्खड और दुरूह बौद्धिक इक्लखुरे के रूप में तब उनका विरोध होता था। तमाम सत्यों की सीमाओं से पूरा चैतन्य होते हुए भी वे सत्य के मुरीद थे (एक बार उन्होंने मुझसे कहा ''परम सत्य तक पहुँचना परम शून्य तापक्रम हासिल करने की तरह ही असम्भव है'')। सहजवृत्ति के भीतर-बाहर अभी तक के अछूते और निषिद्ध क्षेत्रों में (वही जिन पर दौर ने पावन प्रतिबन्ध लगा रखा था) साहसिक ढंग से हाथ ड़ालने की अपनी निर्विकार आदत के कारण उन्होंने विश्वविद्यालय और उसके अकादमिक आकाओं को अपने से अलग-थलग कर लिया था। आशावादी, उदारवादी दुनिया को अनजाने ही यह लगने लगा कि इस हठीले आदमी का सुभाषित मनोविज्ञान तो सहजवृत्ति को 'तर्क' और 'तरक्की' के मार्फत आहिस्ता-आहिस्ता दबाने-ढकने की उनकी अवधारणा को ही फिजूल करके रख देगा। सहजवृत्ति में जो चीजें खटकती हैं, उन्हें नजरअन्दाज करने के उनके तरीके को वह हर हालत में उभारने-उजागर करने की अपनी तरकीब से चुनौती दे रहा था मगर सिर्फ विश्वविद्यालय या पुरातनपंथी तंत्रिका-विशेषज्ञों (न्यूरोलोजिस्ट्स) का ही गुट नहीं था जो कबाब की हड्डी बने इस ''आउटसाइडर'' का विरोध कर रहा था, बल्कि गये जमाने की सोच, ''मर्यादा'' और पूरी दुनिया ने ही उनके खिलाफ मोर्चा खड़ा कर रखा था। पूरे दौर को ही डर था कि वह उन्हें बेपर्दा कर देगा। डॉक्टरी बहिष्कार के कारण धीरे-धीरे उनका कारोबार2 घटने लगा। मगर उनकी अवधारणाएँ और साहसपूर्ण सिध्दान्त चूँकि वैज्ञानिक तरीके से अखंडनीय थे तो सपनों के बारे में बनाये उनके सिध्दान्त को, वियना के चलन के मुताबिक, उन्होंने व्यंग्योक्ति या सस्ती नुक्क्ड ठिठोली के सहारे रफा-दफा करने की कोशिश की। इस तन्हा शख्स के घर चन्द वफादार लोगों के एक गुट की हफ्ते में एक बार बैठक होती थी। उन्हीं शामों के विमर्श में मनोविश्लेषण का एक नया विज्ञान आकार लेता था फ्रायड के शुरूआती आधारभूत श्रम से धीमे-धीमे निकलने वाले बौध्दिक आन्दोलन के निहितार्थों को समझने से बहुत पहले मैं इस बेमिसाल शख्स की नैतिक ताकत और मेहनत का लोहा मान चुका था। उनमें मुझे किसी नौजवान की कल्पनाओं में बसा विज्ञान का ऐसा चितेरा नजर आता था जिसे बिना सच्चे सबूत के कुछ भी बोलना गवारा नहीं था। मगर अपनी अवधारणा की प्रामाणिकता के बारे में एक बार यदि वह आश्वस्त हो जाये तो फिर पूरी दुनिया के विरोध को ठेंगा दिखा दे। एक ऐसा इन्सान जिसकी निजी तौर पर एकदम मामूली जरूरतें थीं मगर अपने रचे सिद्धान्तों के एक-एक कतरे के लिए अपनी जान पर खेल जाये, उनके अन्तरनिहित सत्य से ताउम्र बन्धा रहे बौद्धिक रूप में उनसे ज्यादा निर्भीक इन्सान अकल्पनीय था जो वह सोचते हमेशा उसी को कहने की हिम्मत करते थे, चाहे पता हो कि उनकी सीधी सपाट बात किसी को खराब लगेगी या अखरेगी। औपचारिक रियायतों में भी उन्हें कभी पगडंडियों की तलाश नहीं होती। मुझे पक्का यकीन है कि अपने विचारों को फ्रायड थोडी सावधानी से परोसने को राजी हो जाते जैसे ''लैंगिकता'' (सेक्सुअलटी) की जगह ''कामुकता'' (इरोटिसिज्म), ''कामलिप्सा'' (लिबीडो) की जगह ''श्रृंगार'' (इरोज) का इस्तेमाल करते और हमेशा अपने निष्कर्षों से चिपके रहने की जिद के बजाय उनकी तरफ इशारा-भर करते, तो उनकी अस्सी फीसदी उपपत्तियों को किसी भी अकादमिक संस्था के समक्ष बेहिचक पेश करना सम्भव हो जाता मगर सिद्धान्त और सत्य की बात आते ही वह जिद पकड लेते विरोध जितना ज्यादा, उनका हौसला उतना ही बुलन्द। मैं अगर नैतिक साहस के एक प्रतीक को खोजने चलूँ ऐसा सांसारिक नायकत्व जो केवल अकेले ही सम्भव है तो मेरे सामने टकटकी लगी थिर, कजरारी आँखोंवाले फ्रायड का ही सुन्दर, पौरूषपूर्ण निष्कपट चेहरा नजर आता है।अपनी जन्मभूमि, जिसे पूरी दुनिया में उन्होंने हमेशा के लिए मशहूर करवा दिया था, से पलायन कर लंदन आते समय वे काफी बूढे हो चले थे काफी बीमार भी थे लेकिन थके-माँदे या ढुलमुल हर्गिज नहीं।

मैंने मन ही मन सोचा था कि वियना में झेली तमाम पीड़ा-प्रताडना ने उन्हें निराशा और कडवाहट से भर दिया होगा। मगर वे मुझे पहले से भी कहीं ज्यादा खुश और खुले-खुले नजर आये वे मुझे लंदन के सीमाने पर बने अपने घर के बगीचे में ले गये और चमकती हँसी बिखेरकर बोले ''क्या मेरे पास इससे बढिया घर कभी था?'' उन्होंने मुझे मिस्र की अपनी वे प्रिय मूर्तियाँ3 दिखायीं जो मारिया बोनापार्ट की बदौलत छुडवायी गयी थीं। ''यह भी तो घर है'' उनकी मेज पर बंडल बँधे कागजों की एक पांडुलिपि रखी थी जिसे तिरासी बरस की उम्र में, अपनी जानी-पहचानी साफ वर्तुल लिखावट में वे हर रोज लिखते थे। आला दिनों के अपने जेहन की तरह ही लकालक और चुस्त बीमारी4, उम्र और कैद को धता बताता उनका मनोबल इन सब चीजों पर इक्कीस पडता था। बरसों की जद्दोजहद से भोंथरी हुई उनकी रहमदिली पहली बार उनके वजूद से खुलकर रिसने लगी थी। उम्र ने उन्हें और नरम दिल कर दिया था इम्तहानों की आँच झेल-झेलकर वे और ज्यादा सहनशील हो गये थे। किसी जमाने में वे मितभाषी थे मगर अब वे अपने जाने-पहचाने अन्दाज में बतियाते अपने बाजू को वे मेरे कन्धे पर टिका देते चश्मे के भीतर से ही उनकी नजरों की चमक और प्रखर हो उठती। गुजरे बरसों के दौरान फ्रायड के साथ हुई गुफ्तगू मुझे हमेशा सुकूनदेह लगती रही थी। उनसे सीखने में भी क्या खूब मजा आता था यह निर्मल विराट आदमी आपके कहे एक-एक शब्द को गले उतारता उनके साथ आप मन का कुछ भी बाँट लो, कुछ भी कह दो, वे न चौंकते न हडबड़ाते दूसरे लोग बेहतर ढंग से चीजों को समझ सकें, महसूस कर सकें, यही उनकी जिन्दगी की चाहत बन गयी थी मगर उस स्याह बरस (जो उनकी जिन्दगी का आखिरी5 था हुई बातचीत की नायाबी का मैं खास तौर से एहसानमन्द था उनके कमरे में घुसते ही लगता जैसे दुनिया का सारा पागलपन तिरोहित हो गया हो हर घोर-दारूण चीज छिन्न-भिन्न होने लगती परेशानी खुद-ब-खुद छँटने लगती बची रहती तो बस मुद्दे की बात किसी वास्तव के महात्मा से यह मेरा पहला साबका था वे अपने से भी बडे हो गये थे दुख या मृत्यु उनके लिए निजी अनुभव की चीज नहीं बल्कि निरीक्षण और चिन्तन का निजतम माध्यम बन गयी थी उनके जीवन की तरह उनकी मृत्यु भी कोई कम बड़ा नैतिक हासिल नहीं थी वे पहले ही उस बीमारी से बुरी तरह पीडित थे जिसने जल्द ही उन्हें हमसे छीन लिया उन्हें देखने से ही लगता था कि मुँह में लगे कृत्रिम तालू से उन्हें बोलने में कितना कष्ट होता है। उनके बोले हर लफ्ज पर हम शर्मसार से हो उठते क्योंकि इससे उन्हें थकान होती थी। मगर वे किसी को खाली नहीं जाने देते अपनी फौलादी रूह के गर्व से, दोस्तों के बीच वे इस बात की मिसाल थे कि शारीरिक कष्टों के मुकाबले उनकी संकल्प शक्ति कहीं ज्यादा ताकतवर थी। दर्द से उनका मुँह विकृत हो जाता। आखिरी दिनों तक वे अपनी डेस्क पर बैठकर लिखते रहे। दर्द ने जब रात की उनकी नींद हराम कर दी वह खूब गहरी नींद जो अस्सी बरस तक उनकी ताकत का प्रमुख जरिया थी, तब भी नींद की गोलियाँ या नशीली दवाएँ लेना उन्हें गवारा नहीं हुआ। पल भर के लिए भी अपने दिमाग की प्रांजलता को वे ऐसे उपचारों से शिथिल नहीं होने देना चाहते थे। चौकन्ना रहने पर दर्द होता है तो हो। कुछ न सोचने की बजाये दर्द बर्दाश्त करते हुए सोचना मन्जूर। मन के आखिरी कतरे तक जांबाज उनका संघर्ष बड़ा विकराल था जो दिनोंदिन और भव्य होता जा रहा था। उनके चेहरे पर मौत की परछांई हर रोज गहराती जा रही थी। गाल पोपले हो गये थे कनपटियाँ पिचक आयी थीं मुँह टेढा पड ग़या होंठों से बोल निकलने में तकलीफ होती बस आँखों की पुतलियाँ ही थीं जिनके सामने मौत बेबस थी और यही वह अविजेय स्तम्भ था जहाँ से वह सिद्ध दिमाग दुनिया पर नजर फेरता था। उनसे हुई अपनी किसी आखिरी मुलाकात में मैं सल्वाडोर ड़ाली6 को अपने साथ ले गया जो मेरे खयाल से युवा पीढी क़ा सबसे प्रतिभासम्पन्न चित्रकार हैं। फ्रायड का बहुत मुरीद मैं जब फ्रायड से बोल-बतिया रहा था तो वह उनका रेखांकन करता रहा। उस रेखांकन को फ्रायड को दिखाने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी क्योंकि बडी अलोकदर्शिता से उसने चित्र में मृत्यु भी दिखा दी थी।

हमारे वक्त के इस कुशाग्र मस्तिष्क की पुख्ता संकल्प-शक्ति का विनाश के विरूद्ध संघर्ष और ज्यादा क्रूर होता गया। जब उन्हें अच्छी तरह एहसास हो गया (स्पष्टता उनकी सोच का सबसे बड़ा गुण थी) कि अब वे न लिख पायेंगे और न कुछ दूसरा काम कर सकेंगे तो, एक रोमन योद्धा की तरह दर्द से निजात के लिए उन्होंने डॉक्टर को इजाजत दे दी7। एक गौरवपूर्ण जीवन का यह एक गौरवपूर्ण पटाक्षेप था। उस खूनी वक्त में हो रहे जन-संहारों के बीच भी यह एक यादगार मौत थी। हम दोस्तों ने उनका ताबूत जब इंग्लैंड की मिट्टी को सौंपा तो हम जानते थे कि अपने वतन के मुताबिक जो हमसे हो सकता था, हमने किया है।

हिटलर की दुनिया के संत्रास और युद्ध को लेकर उन दिनों अकसर मेरी फ्रायड से बातें होतीं। एक मानवतावादी के तौर पर पाशविकता के प्रस्फोट ने उन्हें गहरे दहलाया था मगर एक विचारक के तौर पर वे कतई हैरान नहीं थे, बताने लगे कि उन्हें हमेशा निराशावादी कहकर फटकारा जाता रहा क्योंकि सहजवृत्ति के ऊपर संस्कृति के आधिपत्य का उन्होंने खंडन किया था। मगर उनके इस विचार की बडे ख़ौफनाक ढंग से पुष्टि हो गयी थी कि आदमी के भीतर की बर्बर और मूलतः विनाशकारी वृत्तियों को उखाडक़र नहीं फेंका जा सकता है और ऐसा भी नहीं था कि अपने को सही साबित करने में उन्हें कोई संतोष मिलता था। कम-से-कम लोगों की आम चिन्ताओं के मद्देनजर, आने वाली सदियाँ शायद उन वृत्तियों पर काबू पाने का कोई फार्मूला निकाल लें मगर रोजमर्रा के जीवन और आदमी के भीतर यही सहजवृत्तियाँ पैठी रही हैं, हो सकता है उनकी कोई उपयोगी भूमिका भी हो। यहूदी समस्या और उसकी हाली दुर्दशा से उन दिनों वे और भी परेशान रहते थे मगर उनके विज्ञान के पास इसका कोई फार्मूला नही था। उनके सुलझे दिमाग को इसका कोई समाधान नहीं दिखता था। कुछ दिनों पहले ही मोजेस8 पर लिखी उनकी किताब छपी थी जिसमें उन्होंने उसे एक गैर¬यहूदी मिस्रवासी की तरह पेश किया था। इस कारण धार्मिक यहूदियों और राष्ट्रवादी विचार रखने वाले लोगों में उनकी वैज्ञानिक उपादेयता के प्रति शंकाएँ और भडक़ उठी थीं। यहूदियत के सबसे दारूण वक्त के दौरान ही वह किताब छपवाने पर उन्हें अफसोस होने लगा था। ''उनकी हर चीज छीनी जा रही है तो मुझे भी उनका सबसे आला आदमी लेना पड़ा''। उनकी इस बात से मेरा पूरा इत्तफाक था कि उस मोड पर हर एक यहूदी की सम्वेदना सात गुनी बढ ग़यी थी क्योंकि दुनिया में हो रही तबाही का हर तरफ से असली शिकार तो वही थे। विनाश से पहले ही मारे-मारे फिर रहे उन लोगों को खबर थी कि अनिष्ट चाहे कुछ भी हो, सबसे पहले गाज उन्हीं पर गिरेगी (और वह भी सात गुनी ताकत से)। नफरत की सनक से सना एक आदमी खासकर उन्हीं का मान-मर्दन करना चाहता है, उन्हें उजाडक़र दुनिया से नेस्तनाबूद कर देना चाहता है। हर सप्ताह और महीने, शरणार्थियों की तादाद बढने लगी। उनका हर जत्था पिछले की तुलना में और ज्यादा दरिद्र और भयाकुल होता। जिन लोगों ने आनन-फानन में ही जर्मनी और ऑस्ट्रिया को छोड दिया था, वे तो फिर भी अपने साथ कुछ लत्ते-कपडे और घर-बार का माल-सामान ले आये थे, कुछ लोग रोकड़ा भी बचा लाये थे मगर जिन लोगों ने जर्मनी पर जितनी ज्यादा देर भरोसा किया, खुद को अपनी प्यारी जन्मभूमि से छिटकने में जितनी ज्यादा अनमन की, उसे उतनी ही ज्यादा सख्त सजा भुगतनी पडी। यहूदियों को पहले उनके काम-काज से बेदखल किया गया। थिएटर, सिनेमाघर और संग्रहालयों के दरवाजे उनके लिए बन्द हो गये। उनके पढे-लिखे लोगों की लाइब्रेरियाँ हराम हो गयीं वे फिर भी रूके रह गये थे तो केवल अपनी वफादारी, सुस्ती, बुजदिली या शान के कारण परदेश में भिखारियों की तरह अपने को बेइज्जत कराने से अच्छा उन्हें यही लगा कि अपनी ही धरती पर बेइज्जत हों। वे नौकर-चाकर नहीं रख सकते थे। उनके घरों से रेडियो-टेलिविजन छीन लिये गये और बाद में घरों को ही छीन लिया गया। उन्हें डेविड का स्टार9 पहने रहना होता ताकि उन्हें अलग से पहचाना जा सके, कोढियों की तरह उनसे बचा जा सके, उनकी खिल्ली उड़ायी जा सके, उन्हें दुत्कारा-फटकारा जा सके। उनका हर हक छीन लिया गया। हर तरह की मानसिक और शारीरिक क्रूरता उन पर बडे चुहुल परपीडन से आजमाई जाती। ''भिखारी की गठरी और जेल से कोई बच न पायेगा''।यह पुरानी रूसी कहावत अचानक ही हर यहूदी का क्रूर सत्य बन गयी जो कोई वहाम् से नहीं गया, उसे यातना शिविर में झोंक दिया गया, जिसका जर्मन अनुशासन ऊँची से ऊँची नाकवाले की भी कमर तोड ड़ालता। उसके बाद सब तरफ से लुटे-पिटों को बिना कुछ सोचे सीमा के बाहर खदेड दिया जाता उनकी कमर पर लदी होती एक अटैची और जेब में होते दस क्राउन वे दूतावासों पर गुहार करते मगर हमेशा खाली हाथ लौटते क्योंकि रग-रग तक लुटे-पिटे नवागंतुकों, भिखारियों को कौन देश घास ड़ालता? लंदन की एक ट्रेवल ब्यूरो में दिखे एक नजारे को मैं कभी नहीं भूल पाता। वहाँ शरणार्थियों का ताँता लगा था तकरीबन सारे यहूदी हरेक को जाने की पडी थी, जगह चाहे कोई हो सहारा के टुंड्रा प्रदेश से लेकर धु्रवीय शीत प्रदेश, कुछ भी चलेगा बस दूसरा प्रदेश हो, वे कहीं भी जाने को तैयार क्योंकि कामचलाऊ वीजा की म्याद खत्म हो जाने के बाद उन्हें अपने बीवी-बच्चों को लेकर कहीं तो जाना था जहाँ दूसरी जुबान बोली जाती थी उन लोगों के बीच जो उन्हें जानते तक नही और जो उन्हें अपनाने को राजी नहीं वहाँ मुझे वियना से आया एक समय खूब समृद्ध रहा उद्योगपति मिला। कभी वह हमारा एक समझदार कला संग्रहक हुआ करता था। वह इतना बूढा, भदैला और मरियल लग रहा था कि पहले तो मैं उसे पहचान ही नहीं पाया। निस्तेज हाथों से वह मेज से सटा पड़ा था। मैंने उससे पूछा कि वह कहाँ जा रहा है तो उसने कहा ''पता नहीं इन दिनों हमारी मर्जी को पूछता कौन है जहाँ जगह मिल जायेगी, चले जायेंगे। कोई बता रहा था कि यहाँ से मुझे शायद हैटी10 या सेन डोमिनगो का वीजा मिल जाये'' एक पल को तो मेरा दिल बैठ गया अपने पोतों-परपोतों को साथ लिये एक निचुड़ा-मुचड़ा बुढऊ दिल थामकर किसी ऐसे देश जाने की उम्मीद कर रहा है जिसे कल तक वह नक्शे में नहीं ढूँढ सकता था और वह भी किसी अजनबी की तरह बेमकसद भटकने और भीख माँगने के लिए। उसके बगलगीर ने बडी ज़िज्ञासु हताशा में पूछा कि शंघाई कैसे जाया जाये क्योंकि उसे खबर लगी थी कि शरणार्थियों के लिये चीन के दरवाजे अभी भी खुले थे। अभी तक रहे विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, बैंकर्स, कारोबारी, जमींदार, संगीतकार वहाँ सभी का जमघट था। अपने अस्तित्व के दयनीय घूरे को जल-थल में कहीं भी घसीटने को तत्पर मगर जाना बाहर है, यूरोप के बाहर बड़ा दारूण जमघट था मगर मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ इस बात से हो रही थी कि ये पचासेक पीडित तो पीछे आ रहे पचास-सौ लाख लोगों के हुजूम की चोंच भर हैं जो आगे चलने के लिए पीछे कहीं तंबू ताने पडे होंगे। वे बेशुमार लोग जिन्हें पहले लूटा गया, फिर युद्ध ने रौंदा वे जो आस लगाये थे कि धर्मार्थ संस्थाएँ कुछ मदद कर देंगी, अधिकारिक परमिट मिल जायेंगे और गुजारा करने का जुगाड बैठ जायेगा। हिटलरी जंगली आग से बचने के लिए लोगों का हुजूम बदहवास भागे जा रहा था। हर यूरोपिय सरहद के रेलवे स्टेशन खचाखच हो गये, जेलें भर गयीं। यह निष्कासित जाति वही थी जो किसी राष्ट्रीयता से वंचित थी मगर एक ऐसी जाति जिसने दो हजार वर्ष, दर-बदर की भटकन रोकने से ज्यादा और कुछ नही माँगा ताकि वह इस धरती पर अमन-चैन से बसर कर सके।

बीसवीं सदी की इस यहूदी त्रासदी की सबसे त्रासद बात यह थी कि इसके भुक्तभोगी जानते थे कि इसकी कोई तुक नहीं है और वे बेकसूर हैं। मध्यकाल में उनके दादों-परदादों को कम से कम यह खबर तो थी कि उन्हें किस बात की सजा मिल रही है। उनकी आस्था के लिए, उनके कानून के लिए उनके पास अपनी आत्मा का वह ताबीज यानी उन्हें अपने भगवान में वह अटूट आस्था तो थी जिसे आज की पीढी कब का गँवा चुकी है। वे इस गर्वित तृष्णा में मर-जी रहे थे कि भगवान ने उन्हें खास नियति और खास मकसद के लिए चुना है बाइबल का वायदा ही उनके लिए कानून की कमान थी। चिता पर चढते वक्त भी वे अपने पवित्र ग्रंथ को सीने से लगाकर जपते रहते अपनी अन्दरूनी आग के बरक्स बाहर की खूनी लपटें उन्हें कम चुभती थीं जमीं दर जमीं दुरदुराए उन लोगों का अभी एक ठिकाना तो महफूज था ही भगवान का ठिकाना जहाँ से कोई दुनियावी ताकत, कोई राजा-बादशाह, कोई अदालत उन्हें बेदखल नहीं कर सकती थी। जब तक उनके बीच धर्म की डोर बँधी थी, वे एक बिरादरी के थे और यही उनकी ताकत थी। जब वे अलग-थलग हो गये और निष्कासित कर दिये गये तब वे अपनी गलती का प्रायश्चित करने लगे कि अपने धर्म और रीति-रिवाजों के चलते क्यों वे एक-दूसरे से अलग हो गये। मगर बीसवीं सदी के यहूदी तो अरसे से ही एक-दूसरे के साथ नहीं रह रहे थे, उनकी कोई आस्था साझी नहीं थी। किसी शान की बजाये यहूदी धर्म उन्हें एक बोझ अधिक लगता था। न ही वे उसके किसी मिशन से बाखबर थे। अपने पवित्र धर्मग्रंथ की शिक्षाओं से वे कोसों दूर रहते अपने आसपास के लोगों के साथ खूब मिल-जुलकर उन्हीं की तरह बसर करना उनका मकसद था ताकि उत्पीडन से निजात मिल सके इसलिए एक समुदाय के सरोकार दूसरे के पल्ले नहीं पडते थे। दूसरों की जिन्दगी में वैसे ही घुलमिलकर अब वे यहूदी कम, फ्रांसीसी, जर्मन, अंग्रेज और रूसी ज्यादा हो गये थे। वो तो अब कहीं जाकर जब गली के गन्द की तरह समेटकर उनका ढेर लगा दिया गया बर्लिन के महलों के बैंकर्स और सिनेगॉग में घंटी बजाने वाले पंडे, पैरिस में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर और रूमानिया के टैक्सी चालक, शवयात्रा संचालक के सहायक और नोबेल पुरस्कार विजेता, कन्सर्ट गायक और भाडे क़े मातमी, लेखक और मद्य-आसवक , अमीर और गरीब, बडे और छोटे, धार्मिक और उदारवादी, हडपखोर और ज्ञानी, इकलखुरे और मिलनसार, अस्कीनाजिम और सीफार्डिम, कायदेसर और बेकायदेसर के अलावा बपतिस्मा किये और नीम¬यहूदी लोगों का ऐसा गड्डमड्ड झुंड भी था जो बरसों से ही इसके अभिशाप से बचता आया था तब जाकर सैकडों बरस बाद यहूदियों को अपनी एक बिराददी के रूप में रहने का मजबूरन खयाल आया मगर यह बदनसीबी केवल और हमेशा उन्हीं के मत्थे क्यों? इस वाहियात उत्पीडन का कोई कारण, अर्थ या उद्देश्य? उन्हें दूसरा वतन मुहैया कराये बगैर ही जलावतन किया जा रहा था। उन्हें एक जगह से बेदखल तो किया जा रहा था मगर यह नहीं बतलाया जा रहा था कि वे कबूल कहाँ होंगे? उन्हें दोषी तो ठहराया जा रहा था मगर उन्हें प्रायश्चित करने की छूट नहीं दी जा रही थी। इसलिए पलायन के अपने रास्ते में वे एक-दूसरे को टीस भरी नजरों से देखते, मानो कह रहे हों : मैं ही क्यों? तुम ही क्यों? आपस में हम एक-दूसरे को जानते नहीं, हमारी जुबान अलग, सोच अलग, हमारे बीच कुछ भी तो एक-सा नहीं फिर हम ही क्यों इस नियति को भुगत रहे हैं? जवाब मगर किसी के पास नहीं होता इस दौर को सबसे होशियारी से समझने वाले फ्रायड भी भौचक थे जिनसे उन दिनों मेरी खूब बातें होती थीं, निरर्थक से वे भी क्या अर्थ निकालते और कौन जाने कि यह यहूदीवाद के रहस्यमय ढंग से बचे रहने के पीछे जोब 12 की भगवान के आगे की गयी उस शाश्वत रूदाली की पुनरावृत्ति ही हो ताकि उसे दुनिया में कोई बिसरा न दे।

संदर्भ

1. इस मिशन में फ्रांस में जर्मनी के तत्कालीन राजदूत ने भी काफी मदद की थी फ्रायड के परिवार के कई सदस्यों को यह सुविधा नहीं सुलभ हुई नतीजतन वे यातना शिविरों में मार दिये गये।

2. कहने की आवश्यकता नहीं कि फ्रायड एक पेशेवर डॉक्टर के रूप में दीक्षित थे और एक मनोचिकित्सक के रूप में अपनी जीविका चलाते थे।

3. फ्रायड एक बडे क़ला संग्रहक भी थे। त्रासद, बीमारी, बुढापे की कमजोरी और नाजियों द्वारा यहूदियों पर बरपायी जाने वाली बर्बरताओं के बावजूद वे अपने अध्ययन कक्ष में सजी देवताओं की प्राचीन मूर्तियों को साथ ले जाना नहीं भूले थे। कहते हैं बिना उन मूर्तियों के वे सहज नहीं रह पाते थे।

4. 1919 में ही फ्रायड को जबडे क़ा कैन्सर हो गया था मगर उन्हें सिगार पीने का शौक था लिखते समय तो वे जरूर ही पीते थे सख्त डॉक्टरी हिदायत के बावजूद उन्होंने सिगार नहीं छोड़ा

5.1939 में फ्रायड की मृत्यु हो गयी थी

6. सल्वाडोर ड़ाली (1904-1989) स्पेन के विश्वविख्यात चित्राकार थे जिन्होंने अतियथार्थवादी चित्राकारी को जन्म दिया उनके चित्रांकन में अवचेतन के पीछे छिपे यथार्थ का असल कारण उन पर फ्रायड के लेखन का असर है

7. 23 सितम्बर 1939 को फ्रायड की जीवन लीला पूरी हुई थी

8. ''मोसेज एण्ड मोनोथिस्म'' नाम की यह किताब जर्मन में 1938 में और अंग्रेजी में 1939 में प्रकाशित हुई थी मोसेज को यहूदियों का सबसे बड़ा पैगंबर माना जाता है यहूदियों की कानून की किताब ''तोराह'' की शिक्षाएँ कही मानी जाती हैं।

9. दो त्रिभुजों को एक-दूसरे पर आड़ा रखने से बनी छह कोनों की आकृति को यहूदियों ने अपनी पहचान का चिन्ह माना है जो ईसाइयों के क्रॉस चिन्ह से अलग है। डेविड का यह चिन्ह उन्हें बुराई से बचाता है, ऐसी मान्यता है नाजियों ने उन्हें पीले रंग का यही चिन्ह पहनने के लिए बाध्य किया था।

10. क्यूबा के निकट उत्तर अमरीकी महाद्वीप में स्थित दो टापूनुमा देश।

11. जर्मनी और पोलैंड में रहने वाले यहूदियों को पहले अस्कीनाजिम कहा जाता था जबकि स्पेन और पुर्तगाल में रहने वाले यहूदियों को सीफार्डिम इस क्षेत्रीय विभाजन का आधार सम्भवतः वह मानसिक ग्रंथी है जिसमें एक दूसरे से खुद को बेहतर समझता है।

12. बाइबल में जोब का एक अध्याय है ''बुक ऑफ जोब'' के नाम से दुख बर्दाश्त करने के अपने दर्शन से लैस ईश्वर में पूरी आस्था रखने वाला जोब बहुत सुखी-समृद्ध जीवन जी रहा था। कहते हैं कि शैतान के भडक़ावे में आकर भगवान ने उसका सब कुछ छीन लिया। उसका धन खत्म हो गया, बच्चे मर गये, शरीर जर्जर हो गया मगर वह दुख सहता रहा। सब कुछ खो-लुट जाने के बावजूद भगवान पर उसकी आस्था पूर्ववत अडिग बनी रही।

(अनुवाद : ओमा शर्मा)

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