कांच के फूल (रूसी कहानी) : कोंस्तांतीन पाउस्तोव्स्की

The Ruffled Sparrow (Russian Story in Hindi) : Konstantin Paustovsky

पुरानी दीवार घड़ी में दो अंगुल के लोहार ने अपना हथौड़ा उठाया । घड़ी में झनझनाहट हुई और लोहार ने अपना हथौड़ा पीतल की छोटी- सी निहाई पर दे मारा। कमरे में जल्दी से घंटा बजने की आवाज़ गूंज उठी, किताबों की अलमारी के नीचे लुढ़की और धीरे-धीरे लुप्त हो गयी ।

लोहार ने आठ बार निहाई पर चोट की। वह नौवीं बार उस पर चोट करने जा ही रहा था कि उसका हाथ झिझका और बीच में हवा में ही रुक गया। वह घंटे भर हाथ उसी तरह उठाये खड़ा रहा, तब तक जब तक कि निहाई पर नौ बार चोटें मारने का वक्त नहीं आ गया ।

माशा खिड़की के पास खड़ी थी लेकिन वह मुड़ी नहीं । अगर वह मुड़ती तो उसकी आया अवश्य ही जाग पड़ती और उसे ज़बर्दस्ती बिस्तर पर सुला देती ।

आया सोफ़े पर ऊंघ रही थी। माशा की मां, जो बैले नर्तकी थीं, हमेशा की तरह थिएटर गयी हुई थीं। वह माशा को अपने साथ कभी नहीं ले जाती थीं ।

थिएटर बहुत बड़ा था। उसके सामने पत्थर के बड़े-बड़े खंभे थे । छत पर कांसे के चार घोड़े अपनी पिछली टांगों पर खड़े थे; एक आदमी जो अपने सिर पर लॉरेल की पत्तियों का ताज-सा पहने था और जो बहुत ही ताक़तवर और साहसी होगा, रास खींचकर घोड़ों को रोक रहा था। उसने उन्हें बिल्कुल छत की कगर पर रोक लिया था। उनकी अगली टांगें तो कगर के ऊपर हवा में लटकी हुई थीं । माशा कल्पना करने की कोशिश कर रही थी कि अगर वह आदमी कांसे के घोड़ों को रोक न पाता तो कैसा हंगामा मचता : वे नीचे चौक में आ गिरते और खनकती हुई तेज़ आवाज़ के साथ सरपट भागते हुए मिलीशियावालों के पास से गुज़र जाते।

मां इधर कुछ दिनों से बहुत घबरायी हुई रहती थीं। वह पहली बार सिंडरेला की भूमिका में नृत्य करनेवाली थीं और उन्होंने आया और माशा को प्रीमियर के दिन ही अपने साथ ले जाने का वादा कर लिया था ।

प्रीमियेर से दो दिन पहले मां ने एक संदूक़ में से कांच के फूलों का छोटा-सा गुलदस्ता निकाला । यह माशा के डैडी ने उन्हें दिया था । वह जहाज़ी थे और इसे किसी दूर देश से लाये थे ।

इसके बाद माशा के डैडी लड़ाई में गये थे । उन्होंने कई नाज़ी जहाज डुबोये थे, वह दो बार डूबते-डूबते बचे थे, घायल हो गये थे, लेकिन बाद में ठीक हो गये थे। अब वह फिर कहीं दूर गये हुए थे, किसी विचित्र नामवाले देश - कमचातका में, और वह जल्दी आनेवाले नहीं थे; वह वसंत तक लौटकर आनेवाले थे ।

संदूक़ से गुलदस्ता निकालकर मां ने कांच के फूलों से कुछ कहा। यह बड़ी विचित्र बात थी, क्योंकि वह पहले कभी इस तरह चीज़ों से बात नहीं करती थीं ।

"समझ गये ?" उन्होंने कानाफूसी के स्वर में कहा ।

"तुम्हें अब बहुत समय राह नहीं देखनी होगी ।"

"राह किस चीज़ की ?" माशा ने पूछा ।

"तुम अभी बहुत छोटी हो । तुम्हारी समझ में नहीं आयेगा," मां ने कहा । मुझे यह गुलदस्ता देते समय तुम्हारे डैडी ने कहा था : 'जब तुम पहली बार सिंडरेला की भूमिका में नाचो तो बॉल- नृत्यवाले दृश्य के बाद इसे अपनी पोशाक में लगा लेना । तब मुझे पता लग जायेगा कि तुम्हें इस क्षण मेरी याद आयी है ।' "

"लो, समझ गयी मैं," माशा ने चिढ़कर कहा ।

"क्या समझ गयी ?"

"सब कुछ !" माशा ने कहा और उसका चेहरा लाल हो गया क्योंकि वह इस बात को सहन नहीं कर सकती थी कि उसका विश्वास न किया जाये।

मां ने कांच का गुलदस्ता अपनी सिंगार - मेज़ पर रख दिया और माशा से मना कर दिया कि वह उसे छुए नहीं, क्योंकि वह बहुत नाजुक था ।

अब रात का समय था । माशा की पीठ के पीछे सिंगार - मेज़ पर कांच के फूल दमक रहे थे। चारों ओर ऐसा सन्नाटा था कि लगता था जैसे सारी दुनिया सो गयी है, घर, नीचे का बाग़, फाटक पर रखवाली करनेवाला शेर जो बर्फ़ की वजह से लगातार ज्यादा सफ़ेद होता जा रहा था । माशा, रैडिएटर और जाड़ा - बस यही तीन ऐसे थे जो जाग रहे थे। माशा खिड़की के बाहर देख रही थी, रैडिएटर सुखद गर्मी पहुंचानेवाला अपना गाना मद्धिम सुरों में सुना रहा था, और जाड़ा निरंतर आकाश से बर्फ़ के सफ़ेद - सफ़ेद गालों की वर्षा कर रहा था । बत्तियों के सामने से उड़ते हुए वे ज़मीन पर आकर टिकते जा रहे थे। माशा को यह देखकर आश्चर्य हो रहा था कि इतने काले आसमान से इतनी सफ़ेद बर्फ़ कैसे गिर रही थी। और उसे इस पर भी आश्चर्य था कि जाड़े के बर्फ़ के तूफ़ानों के बीच मां की सिंगार - मेज़ पर रखी हुई टोकरी में बड़े-बड़े लाल फूल कैसे खिल सकते हैं। लेकिन सबसे ज्यादा तो वह खिड़की के सामनेवाली डाल पर बैठे हुए बूढ़े कौए को देखकर हैरान थी, जो पलक झपकाये बिना माशा को घूरता रहता था ।

कौआ इस बात की राह देखता रहता था कि कब आया कमरे में थोड़ी-सी हवा आने देने के लिए ऊपरवाली छोटी खिड़की खोले और माशा को मुंह-हाथ धोने और दांत मांजने के लिए वहां से लेकर चली जाये ।

ज्यों ही आया और माशा कमरे से चली जाती थीं, कौआ दब- सिकुड़कर ऊपरवाली छोटी-सी खिड़की में से अंदर आ जाता था और जो चीज़ उसे सबसे पास दिखायी देती थी उसे जल्दी से झपटकर फिर बाहर चला जाता था । कौए को हमेशा इतनी जल्दी रहती थी कि वह कालीन पर अपने पंजे पोंछना भूल जाता था और मेज़ पर गीले निशान छोड़ जाता था ।

कमरे में आकर जब आया उन निशानों को देखती थी तो वह दोनों हाथ उठाकर चिल्लाती थी : "चोट्टा कहीं का ! फिर कुछ चुरा ले गया ।"

माशा भी अपनी बांहें उठा देती और दोनों जल्दी-जल्दी यह पता लगाने की कोशिश करने लगतीं कि इस बार कौआ क्या चीज़ चुरा ले गया है। कमरे में खाने की चीज़ों के जो भी टुकड़े उसे पड़े हुए ६ मिल जाते थे, आम तौर पर वह उन्हीं को ले भागता था कभी कोई बिस्कुट का टुकड़ा या शकर का डला या सासेज ।

कौआ आइसक्रीम बेचने के खोखे में रहता था जो जाड़े भर के लिए बंद कर दिया गया था। वह दोग़ला, कंजूस कौआ था । वह अपनी चुरायी हुई सारी बहुमूल्य चीजें खोखे की दरारों में चोंच से ठूंस देता था ताकि आस-पास की गौरैयां उन्हें लेकर उड़ न जायें ।

कभी-कभी वह सपना देखता था कि गौरैयां चुपके से खोखे में घुस आयी हैं और दरारों में ठुसे हुए सेब के छिलके के टुकड़ों, बर्फ में जमी सासेजों या मिठाई लपेटने के काग़ज़ों पर चोंच मार-मारकर उन्हें निकालने की कोशिश कर रही हैं । तब कौआ सोते में गुस्से से कांव- कांव करता था, और नुक्कड़ पर खड़ा हुआ मिलीशियावाला चारों ओर नज़र दौड़ाता था और ध्यान से सुनता था । वह काफ़ी दिन से रात के वक्त यह कांव-कांव सुन रहा था, और इसे सुनकर वह चक्कर में पड़ जाता था। सड़क की बत्ती से आती हुई रोशनी रोकने के लिए हाथों की आड़ करके उसने कई बार खोखे के पास जाकर अंदर झांका भी था। लेकिन अंदर बिल्कुल अंधेरा होता था । उसे बस फ़र्श पर एक टूटा हुआ बक्सा पड़ा दिखायी देता था ।

एक दिन कौए को खोखे में एक परनुचा चिड़ा मिला जिसका नाम पाश्का था ।

गौरैयों के लिए वे कठिनाई के दिन थे । जई के दाने मुश्किल से ही कहीं दिखायी देते थे, क्योंकि अब बड़े शहर में घोड़े बहुत ही कम रह गये थे। पुराने ज़माने में पाश्का के दादा, जिनका नाम चहकू था, कभी-कभी उस ज़माने को याद करते थे - ऐसा सुख था कि गौरैयां दिन-भर घोड़ागाड़ियों के अड्डों के पास फुदकती फिरती थीं जहां घोड़ों के चारे के थैलों में से जई के दाने ज़मीन पर गिरते रहते थे ।

अब तो शहरों में मोटरों और ट्रकों की भरमार थी। मोटरें जई तो खाती नहीं थीं, उस तरह चबर-चबर की आवाज़ करके चबाते हुए जैसे वे नेक जानवर पहले खाया करते थे। इसके बजाय वे एक बदबूदार ज़हरीला तरल पदार्थ पीती थीं। इसलिए अब शहरों में गौरैयां पहले से बहुत कम रह गयी थीं। कुछ तो उड़कर देहात चली गयी थीं, ताकि वहां वे घोड़ों के पास रह सकें, और कुछ बंदरगाहवाले शहरों में चली गयी थीं, जहां अनाज जहाजों पर लादा जाता है और जिसकी वजह से चिड़ियां वहां सुखी हैं।

“पुराने ज़माने में,” दादा चहकू कहा करते थे, “दो-दो तीन- तीन हज़ार गौरैयों के झुंड जमा हो जाते थे। जब कोई झुंड हवा को चीरता हुआ फुर्र से उड़ता था तो लोग क्या, घोड़े तक चमक उठते थे और हिनहिनाने लगते थे : 'हे भगवान! दीवानियों को रोकनेवाला कोई नहीं है ? '

"और आप सोच भी नहीं सकते कि मंडियों में गौरैयों की कैसी- कैसी घमासान लड़ाइयां होती थीं! उनके पर चारों ओर उड़ते रहते थे । आजकल के लोग तो उस तरह की लड़ाइयां बर्दाश्त भी न करें ...."

बूढ़े कौए ने ऐन उस वक़्त पाश्का को देखा जब वह तेजी से खोखे के अंदर घुसा था । इससे पहले कि उसे वहां दरारों में ठुसी हुई किसी चीज़ पर चोंच मारने का मौक़ा मिल पाता कौए ने उसके सिर पर एक ठोंग मार दी ।

पाश्का लुढ़ककर नीचे गिर पड़ा और आंखें मूंदकर ऐसा जताने लगा जैसे मर गया हो ।

कौए ने उसे बाहर फेंक दिया और ज़ोर से कांव-कांव करके दुनिया की हर चोर गौरैया को गालियां दीं।

मिलीशियावाला चारों ओर नज़र डालकर खोखे के पास गया । पाश्का बर्फ़ पर पड़ा था । उसका सिर दर्द के मारे फटा जा रहा था । वह बेहद कमजोरी महसूस करते हुए अपनी चोंच बार-बार खोल रहा था और बंद कर रहा था ।

"अरे, बेघर बेचारा," मिलीशियावाले ने कहा और अपना दस्ताना निकालकर पाश्का को उसमें रखा और दस्ताना जेब में रख लिया। “सचमुच, तेरी जिंदगी बड़ी मुसीबत की है ।"

पाश्का जेब में दस्ताने के अंदर लेटे-लेटे रोता रहा, क्योंकि उसे बहुत चोट लगी थी और वह बहुत भूखा था। काश, मिलीशियावाले की जेब में उसे खाने के लिए कुछ टुकड़े मिल जाते, लेकिन उसमें तंबाकू के बेहद बदबूदार कचरे के अलावा कुछ भी नहीं था ।

अगले दिन जब आया माशा को पार्क में खेलने के लिए लेकर गयी तो मिलीशियावाला उनके पास आया ।

"तुम्हें गौरैया चाहिये ? घर पर पालने के लिए?" उसने माशा से कड़े स्वर में पूछा ।

और माशा ने जवाब दिया कि उसका बहुत जी चाहता है कि उसके पास एक गौरैया हो। तब उस आदमी के मौसम के थपेड़े खाये हुए लाल चेहरे पर झुर्रियां ही झुर्रियां उभर आयीं, वह हंसने लगा और उसने अपनी जेब से दस्ताना बाहर निकाला। यह वही दस्ताना था जिसके अंदर पाश्का था ।

"यह लो। उसे दस्ताने में ही रहने दो, नहीं तो वह उड़ जायेगा । दस्ताना बाद में वापस कर देना। मैं यहां दोपहर तक रहूंगा," वह बोला ।

माशा पाश्का को घर ले गयी, उसके परों पर बुरुश फेरा, उसे खिलाया और फिर उसे कमरे में उड़ने के लिए छोड़ दिया । पाश्का एक तश्तरी की कगर पर बैठ गया, उसमें से चाय की कुछ चुस्कियां लीं, फिर उड़कर वह पीतल के बने लोहार के सिर पर बैठ गया । उसे झपकी आनेवाली ही थी कि इतने में लोहार को बहुत गुस्सा आ गया और उसने अपना हथौड़ा घुमाया। ऐसा लग रहा था कि जैसे वह पाश्का पर चोट करनेवाला हो । पाश्का उड़कर कांसे के एक सिर पर जाकर बैठ गया । यह सिर कवि इवान क्रिलोव का था, जिन्होंने इतनी सारी औपदेशिक कहानियां लिखी हैं। क्रिलोव के फिसलने सिर पर अपना संतुलन बनाये रखने में पाश्का को बड़ी कठिनाई हुई । इसी बीच गुस्से से भरे हुए लोहार ने निहाई पर चोटें मारना शुरू किया, कुल मिलाकर ग्यारह बार ।

पाश्का ने पूरा एक दिन और एक रात माशा के कमरे में बितायी। शाम को उसने बूढ़े कौए को ऊपरवाली छोटी खिड़की में से दब - सिकुड़कर अंदर आते और मेज़ पर तश्तरी में रखा नमक लगी मछली का सिर लेकर चंपत हो जाते देखा । पाश्का लाल फूलों की टोकरी के पीछे बिल्कुल चुपचाप छिपा बैठा रहा ।

इसके बाद से पाश्का रोज़ माशा के पास आने लगा । वह उसे खाने को जो टुकड़े और चूरा देती उसे वह चुग- चुगकर खाता और लड़की के इस उपकार का बदला चुकाने की कोई तरकीब सोचता रहता । एक दिन वह उसके लिए बर्फ में जमी हुई रोएंदार इल्ली लाया जो उसे पार्क के एक पेड़ पर मिली थी। लेकिन माशा ने उसे नहीं खाया और आया बहुत नाराज़ हुई और उसने उस इल्ली को खिड़की के बाहर फेंक दिया।

इसके बाद बूढ़े कौए को जलाने के लिए पाश्का अपनी चोंच से वे चीजें निकालने लगा जो कौए ने चुराकर उन दरारों में छिपा दी थीं, और माशा को उन्हें वापस करने लगा। एक दिन पाश्का उसके पास एक जमा हुआ मिठाई का टुकड़ा लाया, दूसरे दिन सूखे बिस्कुट का टुकड़ा, और तीसरे दिन मिठाई लपेटने का लाल काग़ज़ ।

वह कौआ दूसरों के यहां से भी चीज़ें चुराता रहा था, क्योंकि कभी- कभी पाश्का ग़लती से माशा के पास ऐसी चीजें ले आता था जो उसकी नहीं होती थीं। एक बार वह उसके पास जेबी कंघा लाया, फिर ताश का एक पत्ता और फिर एक फ़ाउंटेन पेन की सोने की निब ।

पाश्का उन चीज़ों को चोंच में दबाये उड़ता हुआ अंदर आता था, उन्हें फ़र्श पर गिरा देता था, फिर कमरे में कई चक्कर लगाता था और तोप के एक छोटे-से रोएंदार गोले की तरह फिर तेज़ी से खिड़की के बाहर निकल जाता था ।

उस शाम को आया देर तक सोती रही थी । कौए को ऊपरवाली छोटी-सी खिड़की में से दब - सिकुड़कर अंदर आता हुआ देखने की माशा को बड़ी लालसा थी, क्योंकि उसने ऐसा होते कभी देखा नहीं था ।

कुर्सी पर चढ़कर उसने छोटी खिड़की खोल दी और अलमारी के पीछे छिप गयी। पहले तो बर्फ़ के बड़े-बड़े गाले उड़कर अंदर आये और फ़र्श पर गिरकर पिघल गये । उसके बाद ऐसी आवाज़ आयी जैसे कोई किसी चीज़ को खुरच रहा हो । कौआ दब सिकुड़कर खिड़की के रास्ते कमरे में आ गया, उचककर मां की सिंगार - मेज़ पर जा बैठा, आईने में झांककर देखा और अपने पर फुला लिये, क्योंकि वह एक और गुस्सैल बूढ़े कौए को देख रहा था । फिर उसने कांव-कांव की, कांच का छोटा-सा गुलदस्ता झपटकर उठा लिया और खिड़की के बाहर उड़ गया।

माशा चिल्लायी। आया जाग पड़ी और आह भरने व डांटने - फटकारने लगी। जब मां थिएटर से लौटकर आयीं और उन्हें मालूम हुआ कि क्या हुआ था, तो वह इतना फूट-फूटकर रोयीं कि माशा भी रो पड़ी। आया ने यह कहकर मां को तसल्ली देने की कोशिश की कि कांच के फूल शायद मिल जायें, अगर उस बेवक़ूफ़ कौए ने वह गुलदस्ता बर्फ़ में न फेंक दिया हो ।

अगले दिन सबेरे पाश्का माशा के यहां आया। क्रिलोव के सिर पर बैठ गया ; उसने गुलदस्ते की चोरी का दुःखद समाचार सुना, अपने पर खुजाये और सोचने लगा। फिर जब मां रिहर्सल के लिए जाने लगीं तो वह भी उनके साथ हो लिया ।

वह दुकानों के बोर्डों से रोशनी के खंभों पर और रोशनी के खंभों में किसी पेड़ पर उड़ता हुआ थिएटर तक जा पहुंचा। वहां वह छत भर कांसे के एक घोड़े के सिर पर जा बैठा ; वहां बैठकर उसने अपनी चोंच साफ़ की, अपने पंजे से पलक खुजायी, चहचहाया और उड़ गया ।

उस दिन रात को मां ने माशा को उसकी लैस की गोट लगी सफ़ेद फ़्रॉक पहनायी। आया ने भी अपनी बढ़िया रेशमी शॉल ओढ़ी, और वे सब थिएटर चली गयीं ।

उसी वक़्त पाश्का ने दादा चहकू की बात पर अमल करते हुए, आस-पास की सारी गौरैयों को जमा किया। उन्होंने उस आइसक्रीम के खोखे पर हमला किया जिसमें बूढ़े कौए ने कांच का गुलदस्ता छिपा रखा था।

पहले तो यह सारा झुंड आस-पास के पेड़ों पर बैठकर कौए को दो घंटे ताने देता रहा । गौरैयों को उम्मीद थी कि ताने सुनकर कौआ नाराज़ होगा और उनसे टक्कर लेने के लिए उड़कर बाहर आ जायेगा । तब वे बाहर खुले में उस पर हमला करेंगी, जहां बहुत खुली जगह थी और वे चारों ओर से उड़कर उस पर झपट सकती थीं। लेकिन कौआ बूढ़ा और चालाक था । उसे गौरैयों की चालें अच्छी तरह मालूम थीं, इसलिए वह आइसक्रीम के खोखे के अंदर ही रहा ।

आखिरकार गौरैयों ने हिम्मत जुटाकर एक-एक करके खोखे में घुसना शुरू किया। वहां इतना हंगामा मचा कि बाहर भीड़ जमा हो गयी ।

मिलीशियावाला भागा-भागा वहां आ पहुंचा। उसने खोखे के अंदर झांककर देखा, लेकिन वहां उसे गौरैयों के परों के एक बादल के अलावा कुछ भी दिखायी नहीं दिया।

"अरे, यह तो बाक़ायदा लड़ाई हो रही है !" उसने कहा और दरवाज़े पर जड़े हुए तख़्ते उखाड़ने लगा, क्योंकि वह इस लड़ाई को रोकना चाहता था ।

उसी समय थिएटर में आर्केस्ट्रा में वायलिन और सेलो बजानेवालों ने अपने गज़ उठाये ।

कंडक्टर ने अपना गोरा हाथ उठाया और उसे बहुत धीरे से हिलाया । मखमल के भारी परदे में लहरें उठीं और संगीत की बढ़ती हुई ध्वनि के साथ वह खुलने लगा । माशा ने एक बड़ा-सा धूपदार कमरा देखा और उसने दोनों कुरूप और सजी बनी सौतेली बहनों, दुष्ट सौतेली मां और अपनी मां को भी देखा, जो इतनी सुडौल और सुंदर थीं, लेकिन मैले-कुचैले चीथड़े पहने हुए थीं ।

"सिंडरेला !" माशा ने दबे स्वर में कहा और इस क्षण के बाद वह मंच की ओर से अपनी आंखें किसी तरह हटा ही नहीं पायी । अगले दृश्य में चांदनी में घुली मिली नीली, गुलाबी और सुनहरी रोशनियों के बीच महल दिखायी दिया। आधी रात का घंटा बजते ही मां जब जल्दी-जल्दी जाने लगीं तो उनकी छोटी-सी कांच की जूती खो गयी।

जब मां के दुःखी या खुश होने पर संगीत भी दुःखी या खुश हो जाता था तो वह बहुत अच्छा लगता था, बिल्कुल ऐसा लगता था कि सारे वायलिन, ओबो, बांसुरियां और ट्रोम्बोन बहुत प्यारे, दयालु, जीते-जागते प्राणी हों। वे सभी और कंडक्टर भी मां की मदद करने की कोशिश कर रहे थे। कंडक्टर तो इतना दत्तचित्त होकर कोशिश कर रहा था कि उसने एक बार भी मुड़कर दर्शकों की ओर नहीं देखा ।

सचमुच यह बड़े अफ़सोस की बात थी, क्योंकि दर्शकों में चमकीली आंखों और दहकते गालोंवाले कितने ही बच्चे थे ।

दर्शकों को थिएटर के अंदर पहुंचानेवाले बूढ़े गेट-कीपर भी जो कभी तमाशा नहीं देखते थे बल्कि कार्यक्रम की छोटी-छोटी गड्डियां और दूरबीनें लिये गलियारे में खड़े रहते थे, वे भी दबे पांव अंदर आ गये थे, उन्होंने अपने पीछे दरवाज़े बंद कर दिये थे और माशा की मां को देख रहे थे। उनमें से एक तो अपने आंसू तक पोंछ रहा था। और इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं थी, क्योंकि उसके एक स्वर्गीय मित्र की बेटी, जो उसी की तरह थिएटर में गेट-कीपर था, इस समय इतने सुंदर ढंग से नाच रही थी ।

अंततः, जब बैले समाप्त हो गया और संगीत की उल्लासमय धुन इतनी ऊंची उठकर सुख के उस क्षण को इस तरह व्यक्त कर रही थी कि सभी चेहरों पर मुस्कराहट आ गयी थी और उन्हें सिर्फ़ इस बात पर आश्चर्य हो रहा था कि सिंडरेला की आंखों में आंसू क्यों थे उसी क्षण एक छोटा-सा परनुचा चिड़ा सीढ़ियों पर और गलियारे में भटकता तेज़ी से उड़ता हुआ मंच पर आया । उसे देखने से ही लगता था कि किसी के साथ उसकी भीषण लड़ाई हुई थी ।

चिड़ा मंच पर मंडलाता रहा। उसकी चोंच में कोई चीज़ थी जो चमक रही थी और देखने में बिल्लूरी कांच की बनी हुई टहनी जैसी लगती थी ।

दर्शकों में कानाफूसी की लहर दौड़ गयी फिर वह शांत हो गयी । कंडक्टर ने अपना हाथ ऊपर उठाया और ऑर्केस्ट्रा बजना बंद हो गया । पिछली पंक्तियों में बैठे हुए लोग उठकर देखने लगे कि मामला क्या है। चिड़ा उड़कर सिंडरेला के पास गया। उसने अपने हाथ बढ़ा दिये और चिड़े ने कांच के फूलों का छोटा सा गुलदस्ता उनमें गिरा दिया । सिंडरेला ने गुलदस्ता कांपते हाथों से अपनी चोली में लगा लिया ।

कंडक्टर ने अपनी छड़ी उठायी, थिएटर में एक बार फिर संगीत गूंज उठा और दर्शकगण अचानक तालियां बजाने लगे, जिसकी वजह से रोशनियां झिलमिलाने लगीं । चिड्डा उड़कर छत की ओर गया और बिल्लूर के बड़े-से फ़ानूस पर बैठकर अपने नुचे हुए परों को सहलाने लगा ।

सिंडरेला झुककर दर्शकों के प्रति आभार प्रकट कर रही थी और मुस्करा रही थी। अगर माशा को मालूम न होता कि वह उसकी अपनी प्यारी मां है तो वह भी कभी उसे पहचान न पाती ।

बहुत रात गये, जब माशा ओढ़े- लपेटे बिस्तर पर लेटी थी और उसे धीरे-धीरे नींद आ रही थी, तो उसने अपनी मां से पूछा :"मां, जब तुमने वह गुलदस्ता अपनी चोली में लगाया था तब क्या तुम्हें डैडी की याद आयी थी ?"

"हां," मां ने एक क्षण चुप रहने के बाद कहा ।

"तो फिर तुम रो क्यों रही हो?"

"क्योंकि मैं बहुत खुश हूं कि इस दुनिया में तुम्हारे डैडी जैसे लोग हैं ।"

"यह बात सच नहीं है !" माशा ने बुदबुदाकर कहा । "लोग जब खुश होते हैं तब वे हंसते हैं ।"

"थोड़ी-सी खुशी से आदमी हंसता है," मां ने कहा ।

"ज़्यादा खुशी होने पर आदमी रो पड़ता है। अब सो जाओ ।"

माशा सो गयी। आया भी सो गयी। मां खिड़की के पास चली गयीं। पाश्का बाहर एक डाल पर बैठा हुआ था । वह भी सो रहा था। हर चीज़ बिल्कुल निश्चल थी । आसमान से गिरते हुए बड़े-बड़े बर्फ़ के गोलों की वजह से यह निस्तब्धता और भी गहरी हो गयी थी। मां वहां खड़ी सोचती रही कि सुखद सपने और परियों की कहानियां उसी तरह धीरे-धीरे मंडलाती हुई नीचे उतरती हैं जैसे रात को बर्फ़ गिरती है।

अनुवाद : मुनीश सक्सेना

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