दलिये का बर्तन : बेल्जियम लोक-कथा

The Porridge Pot : Lok-Katha (Belgium)

यह मज़ेदार लोक कथा यूरोप के बेल्जियम देश की लोक कथाओं से ली गयी है। वहाँ के बच्चे इसको बड़े शौक से कहते सुनते हैं। तो लो तुम भी पढ़ो बेलजियम की यह लोक कथा हिन्दी में और आनन्द लो उसका।

हर एक को उन बूढ़े और बुढ़िया के बारे में मालूम था। वे दोनों हमेशा ही लड़ते रहते थे और दोनों ही बहुत जिद्दी थे। किसी भी दिन उन दोनों में से एक भी आदमी दलिया बनाने को तैयार नहीं था।

बूढ़ा चिल्लाता — “मुझे भूख लगी है मेरे लिये दलिया बनाओ।”

बुढ़िया कहती — “मैं नहीं बनाती अपने आप बना लो।”

बूढ़ा कहता — “क्या? इसका क्या मतलब है कि तुम मेरे लिये दलिया नहीं बनातीं?”

बुढ़िया जवाब देती — “मेरा मतलब वही है जो मैंने कहा और अगर तुमको यह भी जानना है कि मैं क्यों नहीं बनाती तो मैं वह भी बता दूँगी।”

बूढ़ा बुड़बुड़ाता — “मुझे नहीं याद मैंने कभी तुमसे यह पूछा कि तुम दलिया क्यों नहीं बनातीं।”

बुढ़िया बोली — “कोई बात नहीं तुमने नहीं पूछा तो न सही फिर भी मंै तुमको बता देती हूँ। मैं आज दलिया इसलिये नहीं बना रही क्योंकि मुझे दलिये का बर्तन कल साफ नहीं करना।”

बूढ़ा बोला — “वह तो मुझे भी नहीं करना।”

अब अगर तुम यह सोच रहे हो कि यह बूढ़े पति पत्नी उस दिन शायद खराब मूड में होंगे या केवल उसी दिन ही ऐसा कर रहे होंगे तो तुम गलत हो। ऐसा भी नहीं था।

यह तो उनका रोज का प्रोग्राम था और आज तो यह उनके अभी झगड़े की शुरूआत थी और हमेशा की तरह से यह बहुत देर तक चलती रही।

जब सब कुछ कहा सुना जा चुका तो उस बुढ़िया ने बूढ़े के लिये दलिया बनाया पर इसलिये नहीं कि उसको वह दलिया बूढ़े के लिये बनाना था बल्कि इसलिये कि उसको खुद को भूख लग रही थी।

अब दलिया बन तो गया पर दोनों में से किसी ने दलिये का बर्तन साफ नहीं किया। वह बर्तन ऐसे ही पड़ा रहा सो दलिया खाने के बाद फिर झगड़ा शुरू हो गया।

आखीर में यह निश्चय हुआ कि अब जो कोई पहले बोलेगा वही उस बर्तन को साफ करेगा। सो कोई आश्चर्य की बात नहीं कि सारा दिन दोनों नहीं बोले और रात होने पर दोनों एक दूसरे को बिना गुड नाइट कहे ही सोने चले गये।

अगले दिन जब सुबह मुर्गा बोला तो बस वही बेचारा अकेला आवाज कर रहा था। दोनों पति पत्नी जागे तो पति ने देखा कि उसकी पत्नी उसकी तरफ देख रही थी। उसने भी अपनी पत्नी की तरफ देखा पर दोनों में किसी ने भी एक दूसरे को गुड मौर्निंग नहीं कहा।

गुड मौर्निंग ही नहीं बल्कि दोनों में से कोई अपने बिस्तर से भी नहीं उठा। सुबह के सात बज गये, आठ बज गये, और फिर नौ भी बज गये। और फिर नौ ही नहीं दोपहर के बारह भी बज गये, एक भी बज गया, दो भी बज गये।

उनके पड़ोसी उनका झगड़ा सारा दिन सुनने के आदी थे पर आज की यह शान्ति तो उनके लिये बहुत अजीब थी।

दोनों बूढ़े एक दूसरे की तरफ बिना कुछ बोले देखते रहे और उनके पड़ोसी उनके बारे में चिन्ता करने लगे।

उनके बराबर में रहने वाली पड़ोसन ने अपने पति से पूछा —
“क्यों जी, ये लोग आज कुछ बीमार हैं क्या?”

पति बोला — “हो सकता है या फिर लगता है कि इन लोगों को कुछ हो गया है।”

पत्नी बोली — “मुझे तो ऐसा लगता है कि अगर ये लोग इतने शान्त हैं तो लगता है कि दोनों ने एक दूसरे को मार दिया है।”

पति बोला — “अच्छा हो कि हम जा कर उनको देख कर आयें।”

सो वे दोनों उनके घर गये और जा कर उनका दरवाजा खटखटाया पर अन्दर से किसी ने जवाब नहीं दिया। क्योंकि वे बूढ़े अगर आपस में बात नहीं कर रहे थे तो वे अपने पड़ोसियों से कैसे बात कर सकते थे।

पर उस घर की खामोशी बाहर खड़े पड़ोसी पति पत्नी को डरा रही थी। वे उन दोनों के बारे में इतने ज़्यादा चिन्तित हुए कि उन्होंने दरवाजा ही तोड़ दिया।

पर वहाँ भी जो कुछ उन्होंने अन्दर देखा उससे उनको शान्ति नहीं मिली। उन्होंने देखा कि दोनों पति पत्नी अभी भी बिस्तर में ही लेटे हुए हैं और एक दूसरे को घूर रहे हैं।

पड़ोसन ने पूछा — “अरे भाई अब तो उठने का भी समय हो गया और तुम लोग इतनी देर तक बिस्तर में पड़े हो। क्या बात है?” पर दोनों में से कोई भी पड़ोसी से नहीं बोला बस वे तो एक दूसरे की तरफ ही देखते रहे।

पड़ोसी फिर बोला — “हमें नहीं मालूम कि तुम्हारी क्या समस्या है पर मुझे लगता है कि हमें पादरी को बुलाना चाहिये। शायद तुममें से किसी को कनफैशन करना हो।”

पड़ोसन बोली — “और शायद अन्तिम संस्कार।”

फिर भी कोई नहीं बोला तो पादरी बुलवाया गया पर उसके आने से भी कोई फायदा नहीं हुआ क्योंकि उससे भी कोई कुछ नहीं बोला।

उन बूढ़े पति पत्नी ने न तो उस पादरी की तरफ देखा और न ही अपने पड़ोसियों की तरफ। वे तो बस एक दूसरे की तरफ ही देखते रहे।

पादरी बोला — “ठीक है, मैं बाद में दिन में इनको देखने के लिये फिर आऊँगा। तुम लोग ज़रा इन पर निगाह रखना।” पड़ोसियों ने कहा “ठीक है।”

और वह पादरी वहाँ से चला गया।

बाद में जब वह पादरी उनको फिर से देखने आया तो भी कहानी वही थी। पड़ोसन ने बताया कि तब से वे लोग कुछ बोले ही नहीं हैं। सारे दिन वे बिस्तर में ही पड़े रहे और एक दूसरे को देखते रहे।

पादरी बोला — “यहाँ किसी को रहने की जरूरत है जो इनकी देखभाल कर सके। क्या तुम लोग ऐसा कर सकते हो?”

पड़ोसन बोली — “हाँ हम कर तो सकते हैं पर , , , ,”

पति आगे बोला — “पर हमको इसका पैसा मिलना चाहिये।”

पादरी बोला — “ठीक है। तुमको पैसा मिल जायेगा। इन बूढ़े पति पत्नी के पास पैसा तो ज़्यादा होगा नहीं पर मुझे मालूम है कि इस बूढ़े की पत्नी के पास एक बहुत ही अच्छा कोट है। तुम उस कोट को बाजार में ले जा कर बेच दो और उससे जो पैसा मिले वह तुम रख लो।”

यह सुन कर पत्नी का ध्यान अब पादरी की तरफ गया। उसने अपने पति की तरफ देखना छोड़ा और अब अपने पड़ोसी की तरफ देखा और बोली — “तुम जा कर अपनी चीज़ें बाजार में बेचो पर मेरे कोट को हाथ भी नहीं लगाना। अगर किसी ने उसे छुआ भी तो मुझसे बुरा कोई न होगा।”

पड़ोसियों ने उसकी तरफ देखा तो उस बुढ़िया का पति भी अब बोल उठा — “आहा। मुझे मालूम था कि पहले तुम बोलोगी। अब उठो और जा कर दलिये का बर्तन साफ करो।”

वह बुढ़िया उठी और जा कर दलिये का बर्तन साफ करने लगी। पर जितनी देर में बुढ़िया ने वह बर्तन साफ किया उतनी देर में बूढ़े ने पड़ोसी और पादरी को अपनी कहानी सुनायी – पर वह कनफैशन नहीं था।

(साभार सुषमा गुप्ता जी, जिन्होंने लोक-कथाओं पर उल्लेखनीय काम किया है.)

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