कप्तान की बेटी (रूसी उपन्यास) : अलेक्सान्द्र पूश्किन

The Captain's Daughter (Russian Novel) : Alexander Pushkin

जवानी में अपनी
इज़्ज़त की लाज रखो ।
-(कहावत)

पहला अध्याय : गार्ड-सेना का सार्जेंट

- गार्डों की सेना में वह तो हो जाता कप्तान ।
- नहीं ज़रूरत, लेकिन सैनिक बने जवान ।
- सैनिक के जीवन की उसको
हो अच्छी पहचान ...
- और पिता है उसका कौन ?
कन्याजनिन1

1. या० ब० क्न्याजनिन के सुखान्त नाटक 'शेखीखोर' (१७८६ ) से । – सं०

मेरे पिता अन्द्रेई पेत्रोविच ग्रिनेव अपनी जवानी के दिनों में काउंट मीनिख1 के अधीन सेना में काम करते रहे थे और सन् १७ ... में मानद मेजर के रूप में सेवानिवृत्त हुए । तब से वे सिम्बी गुबेर्निया के अपने गांव में रहते थे और यहीं उन्होंने इस क्षेत्र के एक निर्धन कुलीन की बेटी अब्दोत्या वसील्येव्ना यू० से शादी कर ली । मेरे नौ भाई-बहन हुए, किन्तु सभी बचपन में चल बसे ।

1. सेनापति और सार्वजनिक कार्यकर्त्ता (१६८३ - १७६७) जो येकातेरीना द्वितीय के शासन परिवर्तन के समय पीटर तृतीय के प्रति निष्ठावान रहा । - सं०

मैं अभी मां के पेट में ही था कि मुझे हमारे नज़दीकी रिश्तेदार प्रिंस ब० की मेहरबानी से, जो गार्ड सेना में मेजर थे, सेम्योनोव्स्की रेजिमेंट में सार्जेंट की हैसियत से दर्ज कर लिया गया । यदि आशा के विरुद्ध मां बेटे के बजाय बेटी को जन्म देती, तो पिता ने सैन्य-सेवा के लिये हाज़िर न होनेवाले सार्जेंट की मृत्यु की उचित स्थान पर सूचना दे दी होती और इस तरह मामला ख़त्म हो गया होता। मेरी पढ़ाई समाप्त होने तक मुझे छुट्टी पर माना गया। उस ज़माने में हमारी शिक्षा-दीक्षा आज की तरह नहीं होती थी । मैं पांच साल का था, जब समझदारी और सदाचार का परिचय देनेवाले सावेलिच नामक सईस को मेरा शिक्षक बना दिया गया । उसकी देख-रेख में बारह साल का होने पर मैंने रूसी भाषा के लिखने-पढ़ने का ज्ञान प्राप्त कर लिया और शिकारी कुत्ते के लक्षणों को बहुत अच्छी तरह जान-समझ गया । इसी समय मेरे पिता जी ने बोप्रे नाम के एक फ़्रांसीसी महानुभाव को मुझे पढ़ाने के लिये नियुक्त किया, जो साल भर के लिये शराब और ज़ैतून के तेल का भण्डार अपने साथ लेकर मास्को से हमारे यहां आया । सावेलिच को उसका आगमन बहुत ही अखरा ।"भगवान की कृपा से," वह बड़बड़ाया, "लगता है कि लड़का अभी तक ढंग से नहलाया- धुलाया जाता रहा है, उसके बाल भी संवारे जाते रहे हैं और उसे खिलाया - पिलाया भी जाता रहा है। फ़ालतू पैसा खर्च करने और इस महानुभाव को नियुक्त करने में भला क्या तुक है मानो अपने लोग ही न रहे हों !"

बोप्रे अपने देश में हज्जाम था, बाद में वह प्रशा की फ़ौज में सैनिक रहा और इसके पश्चात pour être outchitel1 रूस आ गया । वह शिक्षक शब्द का महत्त्व अच्छी तरह से नहीं समझता था । वह भला, किन्तु चंचल और अत्यधिक व्यसनी आदमी था । औरतों के पीछे भागना उसकी सबसे बड़ी दुर्बलता थी, इस तरह की हरकतों के लिये अक्सर उसकी ठुकाई -पिटाई हो जाती थी और वह कई-कई दिन तक हाय-वाय करता रहता था । इसके अलावा ( उसी के शब्दों में ) "बोतल से भी उसकी दुश्मनी नहीं थी" यानी शराब में कुछ अधिक ही गोते लगाता था । किन्तु हमारे घर में चूंकि शराब सिर्फ़ दोपहर के खाने के वक़्त, और सो भी केवल एक-एक जाम ही दी जाती थी, और शिक्षक की इसके लिये भी अवहेलना कर दी जाती थी, इसलिये मेरा शिक्षक बोप्रे बहुत जल्द ही रूसी पेय यानी वोदका का आदी हो गया और उसे पाचन के लिये अधिक अच्छी मानते हुए अपने देश की शराबों की तुलना में तरजीह देने लगा । हम दोनों की फ़ौरन पटरी बैठ गयी और यद्यपि अनुबन्ध के अनुसार उसे मुझे फ़्रांसीसी और जर्मन भाषा तथा अन्य सभी विद्याएं सिखानी थीं, किन्तु उसने यही बेहतर समझा कि मुझसे जल्दी-जल्दी रूसी में बोलना - बतियाना सीख जाये । इसके बाद हम अपनी-अपनी दुनिया में मस्त रहते थे । हमारे बीच गहरी छनती थी । मेरा कोई दूसरा शिक्षक हो, मैं यह नहीं चाहता था । किन्तु भाग्य ने शीघ्र ही हमें अलग कर दिया । यह कैसे हुआ, मैं बताता हूं।

1. शिक्षक बनने के लिये ( फ़्रांसीसी ) ।

एक रोज़ मोटी और चेचकरू धोबिन पालाश्का और कानी ग्वालिन अकूल्का आपस में सलाह करके एकसाथ ही मेरी मां के पैरों पर जा गिरीं, उन्होंने अपनी पापपूर्ण दुर्बलता को स्वीकार किया और रो-रोकर मेरे शिक्षक के विरुद्ध इस बात की शिकायत की कि उसने उनकी अनुभव- हीनता से लाभ उठाया है। मेरी मां ऐसी बातों के मामले में बड़ी सख़्त थीं और उन्होंने पिता जी से शिकायत कर दी । पिता जी ने झटपट कार्रवाई की। उन्होंने लम्पट फ़्रांसीसी को उसी वक़्त अपने पास बुलवा भेजा । उन्हें बताया गया कि शिक्षक मुझे पढ़ा रहा है। पिता जी मेरे कमरे में आ गये । शिक्षक इस समय भोले-भाले बच्चे की तरह पलंग पर सो रहा था। मैं अपने काम में व्यस्त था। यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि मेरे लिये मास्को से भूगोल का मानचित्र मंगवाया गया था। किसी प्रकार के उपयोग के बिना वह दीवार पर लटका हुआ था और अपनी चौड़ाई तथा बढ़िया काग़ज़ के कारण एक अर्से से मुझे अपनी ओर खींचता रहा था। मैंने उसकी पतंग बनाने का फ़ैसला किया और चूंकि बोप्रे सो रहा था, इसलिये इस काम में जुट गया । मैं जिस समय केप आफ़ गुड होप के साथ स्पंज की पूंछ लगा रहा था, पिता जी उसी समय कमरे में आये । भूगोल के मेरे इस अभ्यास को देखकर पिता जी ने मेरा कान उमेठा, फिर लपककर बोप्रे के पास गये, किसी तरह की शिष्टता के बिना झकझोरकर उसे जगाया और भला-बुरा कहने लगे। बोप्रे ने घबराकर उठना चाहा, मगर ऐसा नहीं कर सका - क़िस्मत का मारा फ़्रांसीसी नशे में गड़गच्च था । सब गुनाहों की एक ही सज़ा काफ़ी होती है। पिता जी ने कालर पकड़कर उसे पलंग से उठाया, दरवाज़े से बाहर धक्का दिया और उसी दिन अपने यहां से उसकी छुट्टी कर दी । सावेलिच को इससे इतनी खुशी हुई कि बयान से बाहर । इस तरह मेरी शिक्षा-दीक्षा का अन्त हो गया ।

कबूतरों के पीछे दौड़ते और हमारी जागीर के छोकरों के साथ मेंढक-कूद का खेल खेलते हुए मैं एक गंवार की तरह बड़ा हुआ । इसी तरह मैं सोलह साल का हो गया । अब मेरे भाग्य ने पलटा खाया ।

पतझर के एक दिन मां मेहमानखाने में शहदवाला मुरब्बा बना रही थीं और उबलते हुए भाग को देख-देखकर मेरे मुंह में पानी आ रहा था । पिता जी खिड़की के क़रीब बैठे हुए राज दरबार की वह रिपोर्ट-पुस्तक पढ़ रहे थे, जो हर वर्ष उनके पास आती थी । इस पुस्तक का उन पर हमेशा बहुत प्रभाव पड़ता था, वे उसे बड़ी दिलचस्पी से बार-बार पढ़ते थे और पढ़ते हुए सदा ही बहुत उत्तेजना अनुभव करते थे । पिता जी की रुचियों- अरुचियों और आदतों से परिचित मां इस मुसीबत की मारी रिपोर्ट- पुस्तक को, जितना सम्भव होता, कहीं दूर छिपा देने की कोशिश करतीं और इस तरह वह कई बार महीनों तक पिता जी को दिखाई न देती । किन्तु जब संयोग से वह उन्हें फिर मिल जाती, तो वे घण्टों तक उसे लिये बैठे रहते। इस तरह पिता जी राज दरबार की इस रिपोर्ट - पुस्तक को पढ़ रहे थे, जब-तब कंधों को झटकते थे और धीरे से यह दोहराते थे – “ लेफ्टिनेंट जनरल !.. मेरी कम्पनी में तो वह सार्जेंट था !.. दो उच्चतम रूसी पदकों से सम्मानित ! बहुत समय हो गया क्या कि जब हम ..." पिता जी ने आखिर यह रिपोर्ट - पुस्तक सोफ़े पर फेंक दी और विचारों में खो गये, जो इस बात का संकेत था कि अब कोई न कोई मुसीबत आयेगी ।

अचानक उन्होंने मां को सम्बोधित करते हुए पूछा -

“ अब्दोत्या वसील्येव्ना, पेत्रूशा कितने साल का हो गया है ?"

"सत्रहवां साल चल रहा है उसे," मां ने जवाब दिया, "पेत्रूशा उसी साल जन्मा था जब नास्तास्या गेरासिमोव्ना की एक आंख जाती रही थी और जब ..."

"बस, ठीक है, " पिता जी ने मां को बीच में ही टोक दिया, "उसे फ़ौज में भेजने का वक़्त हो गया । बहुत दिनों तक दौड़ लिया वह नौकरानियों के घरों और कबूतरखानों के इर्द-गिर्द ।"

जल्द ही मैं दूर चला जाऊंगा, इस विचार से मां को ऐसा झटका - सा लगा कि उनके हाथ से चम्मच छूटकर पतीले में गिर गया और गालों पर आंसू की बूंदें लुढ़क आईं। दूसरी ओर, मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। फ़ौज में जाने का विचार आज़ादी के विचार, पीटर्सबर्ग की ज़िन्दगी के मज़े के विचार से घुल-मिल गया । मैंने गार्ड सेना के अफ़सर के रूप में अपनी कल्पना की और मेरे मतानुसार, इससे बढ़कर और कोई खुशी नहीं हो सकती थी ।

पिता जी न तो अपना इरादा बदलना और न ही यह पसन्द करते थे कि उसे अमली शक्ल देने का काम टाल दिया जाये । चुनांचे मेरे जाने का दिन निश्चित कर दिया गया। उसके एक दिन पहले पिता जी ने कहा कि मेरे भावी बड़े अफ़सर को पत्र लिखना चाहते हैं और उन्होंने मुझसे क़लम-दवात तथा काग़ज़ लाने को कहा ।

"अन्द्रेई पेत्रोविच," मां बोलीं, मेरी ओर से प्रिंस ब० को प्रणाम लिखना मत भूलना। लिखना कि वे पेत्रूशा पर अपना कृपा - भाव बनाये रखें।"

"यह क्या बेकार की बात है !" पिता जी ने नाक-भौंह सिकोड़ते हुए जवाब दिया।"किसलिये भला मैं प्रिंस ब० को पत्र लिखूंगा ?"

"तुम्हीं ने तो कहा था कि पेत्रूशा के अफ़सर को पत्र लिखने जा रहे हो।"

"कहा था, तो क्या हुआ ?"

"लेकिन पेत्रूशा का बड़ा अफ़सर तो प्रिंस ब० ही है । पेत्रूशा का नाम तो सेम्योनोव्स्की रेजिमेंट में ही दर्ज है।"

"दर्ज है ! दर्ज है, तो मुझे इससे क्या मतलब ? पेत्रूशा पीटर्स- बर्ग नहीं जायेगा। पीटर्सबर्ग में फ़ौज में रहते हुए भला यह क्या सीखेगा ? उल्टी-सीधी बातें और पैसा उड़ाना ? नहीं, यही अच्छा है कि वह सही तौर पर फ़ौज में रहे, फ़ौजी की मुश्किल ज़िन्दगी का सामना करे, बारूद की गंध सूंघे, फ़ौजी बने, छैला - बांका नहीं । गार्डों की रेजिमेंट में नाम दर्ज है इसका ! पासपोर्ट कहां है ? मुझे ला दो ।"

मां ने मेरा पासपोर्ट ढूंढ़ा जो मेरे नामकरण के समय की कमीज़ के साथ उन्होंने अपनी मंजूषा में रखा हुआ था और कांपते हाथों से उसे पिता जी को दे दिया । पिता जी ने उसे बड़े ध्यान से पढ़ा, मेज़ पर अपने सामने रख लिया और पत्र लिखने लगे ।

मेरी जिज्ञासा मुझे बेहद परेशान किये दे रही थी- अगर पीटर्सबर्ग नहीं, तो कहां भेजा जा रहा है मुझे ? पिता जी की क़लम पर ही, जो काफ़ी धीरे-धीरे चल रही थी, मेरी नज़र टिकी हुई थी । आखिर उन्होंने पत्र समाप्त किया, एक लिफ़ाफ़े में पासपोर्ट और ख़त डालकर उसे मुहरबन्द किया, चश्मा उतारा और मुझे अपने पास बुलाकर कहा, "यह पत्र मेरे पुराने साथी और दोस्त अन्द्रेई कार्लोविच र० के नाम है। तुम उसके मातहत फ़ौज में काम करने के लिये ओरेनबर्ग जाओगे ।"

इस तरह मेरी बहुत ही मधुर आशाओं पर पानी फिर गया ! पीटर्सबर्ग की मौज-मस्ती से भरी हुई जिन्दगी के बजाय कहीं बहुत दूर की सुनसान - वीरान जगह पर ऊब - उदासी मेरी राह देख रही थी। एक मिनट पहले तक जिस फ़ौजी नौकरी के बारे में मैं इतने हर्षोल्लास से सोच रहा था, वह अब मुझे बहुत बोझल दुर्भाग्य प्रतीत हो रही थी । किन्तु पिता जी से बहस करना व्यर्थ था । अगली सुबह को लम्बे सफ़र की छतवाली घोड़ा गाड़ी दरवाज़े के सामने आकर खड़ी हो गयी, मेरा सूटकेस, चीनी के बर्तनों की पेटी, घर के लाड़-प्यार की आखिरी निशानी के रूप में मीठी पाव रोटियों और कचौडियों आदि की पोटली उसमें रख दी गयी। मेरे माता-पिता ने मुझे आशीर्वाद दिया। पिता जी ने कहा, “ तो विदा प्योतर । जिसकी अधीनता की क़सम खाओगे, वफ़ा- दारी से उसकी सेवा करना, अपने अफ़सरों की बात मानना, उनका स्नेह पाने का प्रयास नहीं करना, खुद आगे बढ़कर अपनी सेवा पेश नहीं करना और जब ऐसा करने को कहा जाये, तो मुंह नहीं मोड़ना, यह कहावत याद रखना - नई पोशाक को सहेजो और जवानी में अपनी इज़्ज़त की लाज रखो।" मां ने आंसू बहाते हुए मुझसे अनुरोध किया कि मैं अपनी सेहत का ध्यान रखूं और सावेलिच को मेरी देख-भाल करने को कहा । मुझे खरगोश की खाल का कोट और उसके ऊपर लोमड़ी का फ़र-ओवरकोट पहना दिया गया । मैं सावेलिच के साथ घोड़ा-गाड़ी में बैठ गया और आंसू बहाता हुआ अपने सफ़र पर रवाना हो गया।

उसी रात को मैं सिम्बीसर्क पहुंच गया, जहां ज़रूरी चीजें खरीदने के लिये हमें एक दिन ठहरना था । चीजें खरीदने का काम सावेलिच को सौंप दिया गया था । मैं होटल में ठहरा । सावेलिच सुबह से ही दुकानों के चक्कर लगाने चला गया। खिड़की से गन्दे कुचे को देखते-देखते ऊब महसूस होने पर मैं कमरों के गिर्द चक्कर काटने लगा । बिलियर्ड कक्ष में गया। वहां मुझे लम्बे क़द और लम्बी काली मूंछोंवाला कोई पैंतीस साल का एक महानुभाव ड्रेसिंग गाउन पहने दिखाई दिया। उसके हाथ में बिलियर्ड खेलने का डंडा और मुंह में पाइप था । वह खेल की बाज़ियों का हिसाब रखनेवाले के साथ खेल रहा था जिसे जीतने पर वोदका का एक जाम पीने को मिलता था और हारने पर चौपाये की तरह मेज़ के नीचे रेंगना पड़ता था । मैं उनका खेल देखने लगा । जितनी अधिक देर तक चलता गया, प्वाइंट गिननेवाले का चौपाये की तरह मेज़ के नीचे रेंगना भी उतना ही बढ़ता गया और आखिर वह मेज़ के नीचे ही रह गया । महानुभाव ने मानो मुर्दे का मातम करते हुए कुछ ज़ोरदार शब्द कहे और फिर मुझसे बाज़ी खेलने को कहा । मैं खेलना नहीं जानता था, इसलिये इन्कार कर दिया । उसे सम्भवतः यह अजीब-सा लगा । उसने मानो बड़े अफ़सोस से मेरी ओर देखा, लेकिन जल्द ही हम बातचीत करने लगे। मुझे पता चला कि उसका नाम इवान इवानोविच जूरिन है, कि वह हुस्सार-रेजिमेंट का कप्तान है, सिम्बीसर्क में फ़ौजियों की भर्ती के लिये आया है और इसी होटल में ठहरा हुआ है। जूरिन ने मुझे अपने साथ दोपहर का भोजन करने को आमन्त्रित किया और कहा कि जो कुछ रूखा-सूखा हो, फ़ौजियों की तरह वे दोनों उसे मिलकर खा लेंगे। मैं खुशी से राज़ी हो गया। हम मेज़ पर बैठ गये। जूरिन बहुत ज़्यादा पीता था और यह कहकर मेरा जाम भी भरता जाता था कि अपने को सैन्य सेवा के लिये तैयार करना ज़रूरी है। वह मुझे फ़ौज के क़िस्से- चुटकले सुनाता रहा जिनके कारण मैं हंसी से लोट-पोट होता रहा और हम पक्के दोस्त बनकर मेज़ पर से उठे। इसके बाद उसने मुझे बिलियर्ड का खेल सिखाने का सुझाव दिया । 'हम फ़ौजियों के लिये तो यह एकदम ज़रूरी है। मान लो कि कूच के वक़्त तुम किसी छोटी-सी जगह पर पहुंच जाते हो, भला क्या करोगे वहां ? हर वक़्त यहूदियों की ही पिटाई तो नहीं करते रहोगे । चाहे - अनचाहे किसी सराय या होटल में जाकर बिलियर्ड खेलने लगोगे | इसके लिये ज़रूरी है कि तुम्हें खेलना आये !” उसने मुझे पूरी तरह इस बात का यक़ीन दिला दिया और मैं बड़ी लगन से खेल सीखने लगा । जूरिन खूब ऊंचे-ऊंचे मेरा हौसला बढ़ाता, मेरे इतनी जल्दी-जल्दी कामया- बी हासिल करने पर हैरान होता रहा तथा कुछ पाठों के बाद उसने मुझसे बहुत ही छोटा-सा दांव लगाकर खेलने को कहा। सो भी पैसे हारने - जीतने के लिये नहीं, बल्कि इसलिये कि बेकार ही न खेला जाये, जिसे उसने सबसे बुरी आदत बताया। मैं इसके लिये भी राजी हो गया। ज़रिन ने पंचमेली शराब का आदेश दिया और यह दोहराते हुए मुझसे पीने का अनुरोध किया कि मुझे अपने को फ़ौजी नौकरी के लिये तैयार करना चाहिये, कि पंचमेली शराब पिये बिना फ़ौजी नौकरी में भला क्या तुक है ! मैंने उसकी बात मान ली। इसी बीच हमारा खेल चलता रहा। मैं जितनी अधिक शराब पीता था, उतना ही अधिक दिलेर होता जाता था । बिलियर्ड के गोले हर क्षण ही मेज़ पर से उछलकर नीचे गिरते थे, मैं आपे से बाहर होता जा रहा था, बाजियां गिननेवाले को, जो ख़ुदा जाने कैसे गिनती करता था, कोसता था और लगातार दांव बढ़ाता जाता था। थोड़े में यह कि माता-पिता की लगाम से मुक्त हो जानेवाले छोकरे जैसा व्यवहार कर रहा था । इसी बीच अनजाने ही बहुत-सा समय बीत गया। जूरिन ने घड़ी पर नज़र डाली बिलियर्ड खेलने का डंडा नीचे रख दिया और मुझसे कहा कि मैं एक सौ रूबल हार गया हूं। यह सुनकर मुझे थोड़ी परेशानी हुई। मेरे सारे पैसे सावेलिच के पास थे । मैं क्षमा-याचना करने लगा। जूरिन ने मुझे टोकते हुए कहा, “ कोई बात नहीं ! परेशान होने की ज़रूरत नहीं । मैं इन्तज़ार कर सकता हूं और फ़िलहाल तो आओ अरीनुश्का के यहां चलकर खाना खायें ।"

"कहा ही क्या जाये ?" अपना दिन वैसे ही बेवक़ूफ़ी से ख़त्म किया जैसे शुरू किया था । हमने अरीनुश्का के यहां रात का खाना खाया। ज़रिन लगातार यह कहते हुए मेरा जाम भरता रहा कि फ़ौजी ज़िन्दगी की आदत डालनी चाहिये । मेज़ से उठने पर मैं बड़ी मुश्किल से ही खड़ा रह पाया । आधी रात को जरिन मुझे होटल में छोड़ने आया ।

सावेलिच हमें ड्योढ़ी में ही मिला। सैनिक सेवा के लिये मेरे विशेष उत्साह के स्पष्ट लक्षण देखकर वह स्तम्भित रह गया ।"यह क्या हुआ है तुम्हें, छोटे मालिक ?” उसने दयनीय स्वर में कहा, " कहां तुमने इतनी अधिक चढ़ा ली ? हे भगवान! आज तक कभी ऐसी बुरी हरकत नहीं हुई थी !" - " चुप रह बुड्ढे तोते !" मैंने हकलाती ज़बान से जवाब दिया, " तुम ज़रूर नशे में हो, जाकर सो रहो और मुझे बिस्तर पर लिटा दो।"

अगले दिन मैं जागा तो मेरे सिर में दर्द था और पिछले दिन की घटनाओं की बहुत धुंधली सी याद थी मुझे । सावेलिच ने, जो चाय का प्याला लिये हुए कमरे में दाखिल हुआ था, मेरी इस विचार - श्रृंखला को तोड़ा।"बहुत जल्द ही प्योतर अन्द्रेइच, " उसने सिर हिलाते हुए मुझसे कहा, "बहुत जल्द ही शराब में डुबकियां लगाने लगे हो । किस पर गये हो तुम ? न तो तुम्हारे पिता और न दादा ही पीते थे । रही मां, तो उन्होंने क्वास1 के अलावा कभी कुछ पिया ही नहीं । कौन इसके लिये दोषी है ? वही, दुष्ट फ़्रांसीसी । जब-तब वह भण्डारित अन्तीप्येव्ना के पास भागा जाता था और कहता था, मदाम, जे वु प्री वोद्क्यु2 तो यह नतीजा है जे वु प्री का ! निश्चय ही उसने, उस कुत्ते के पिल्ले ने तुम्हें ऐसी शिक्षा दी है। और बड़ी ज़रूरत थी ऐसे काफ़िर को शिक्षक रखने की मानो मालिक के पास अपने लोगों की कमी हो !"

1. एक रूसी पेय, जिसका कुछ-कुछ कोका-कोला जैसा ज़ायका होता है । - अनु०
2. मदाम, कृपया वोदका दें ( फ़्रांसीसी ) ।

मुझे शर्म आ रही थी। मैंने मुंह फेर लिया और उससे कहा, "चले जाओ यहां से, सावेलिच, मुझे चाय नहीं चाहिये । ” किन्तु सावेलिच जब उपदेश देने लगता था, तो उससे पिण्ड छुड़ाना मुश्किल होता था। “देखते हो न, प्योतर अन्द्रेइच, शराब पीने का क्या नतीजा होता है। दर्द से सिर फटता है, कुछ खाने को मन नहीं होता । पीनेवाला आदमी किसी काम का नहीं रहता ... शहद मिलाकर खीरों के अचार का नमकीन पानी पी लो या फिर सबसे अच्छा तो यह होगा कि वोदका का आधा गिलास पीकर नशे का असर दूर कर लो। ले आऊं क्या ?"इसी समय एक छोकरा इ० इ० ज़रिन का रुक़्क़ा लेकर आया । मैंने उसे खोलकर पढ़ा। उसमें लिखा था-

"प्यारे प्योतर अन्द्रेइच, कृपया इस लड़के के हाथ मुझे वे एक सौ रूबल भेज दीजिये जो आप कल हार गये थे। मुझे पैसों की बेहद ज़रूरत है।

आपकी सेवा को प्रस्तुत
इवान जूरिन ।"

मेरे लिये कोई चारा नहीं था । मैंने मुंह पर उदासीनता का नकाब ओढ़ लिया और सावेलिच को सम्बोधित किया 'जिसके पास मेरे सारे पैसे और कपड़े-लत्ते थे तथा जो मेरा सारा हिसाब-किताब रखता था,'1 कि वह छोकरे को एक सौ रूबल दे दे ।

1. देनीस फ़ोनवीज़िन ( १७४५ - १७९२ ) 'मेरे नौकरों को सन्देश' कविता से । - सं०

"क्यों ! किसलिये ?” सावेलिच ने हैरान होकर पूछा ।"मुझे उसके देने हैं ।" मैंने यथासम्भव शान्ति से उत्तर दिया ।" देने हैं !" सावेलिच ने अधिकाधिक हैरान होते हुए मेरे शब्दों को दोहराया, " कब तुम ऋणी भी हो गये, छोटे मालिक ? ज़रूर मामला कुछ गड़बड़ है। जो चाहे करो, लेकिन पैसे मैं नहीं दूंगा ।"

मैंने सोचा कि अगर इसी निर्णायक क्षण में इस ज़िद्दी बुड्ढे पर हावी नहीं हो जाऊंगा, तो बाद में मेरे लिये इसकी सरपरस्ती से निजात पाना मुश्किल हो जायेगा और मैंने बड़े गर्व से उसकी ओर देखकर कहा, " मैं तुम्हारा मालिक हूं और तुम मेरे नौकर हो । पैसे मेरे हैं। मैं उन्हें हार गया, क्योंकि मैंने ऐसा चाहा । तुम्हें यही सलाह देता हूं कि ज़्यादा अक्लमन्दी न दिखाओ और तुम्हें जो कहा जाता है, वही करो ।"

मेरे शब्दों से सावेलिच ऐसा आश्चर्यचकित हुआ कि उसने हाथ झटके और बुत बना खड़ा रह गया ।" तुम बुत बने क्यों खड़े हो !" मैं गुस्से से चिल्लाया । सावेलिच रो पड़ा ।"मेरे प्यारे, प्योतर अन्द्रेइच," उसने कांपती आवाज़ में कहा, “ इतना दुख नहीं दो कि मेरी जान निकल जाये। मेरी आंखों की रोशनी ! मुझ बूढ़े की बात मानो - इस बदमाश को यह लिख भेजो कि तुमने मज़ाक़ किया था, कि हमारे पास तो इतनी रक़म है ही नहीं। एक सौ रूबल ! हे मेरे भगवान ! लिख दो कि माता- पिता ने तुम्हें सिर्फ़ अखरोटों से खेलने की इजाज़त दी है ..." -"बस, काफ़ी झूठ बोल चुके,” मैंने कड़ाई से उसे टोका, "पैसे इधर दे दो वरना तुम्हें यहां से निकाल बाहर करूंगा।"

सावेलिच ने बहुत ही दुखी नज़र से मेरी ओर देखा और मेरे ऋण की रक़म लाने चला गया । मुझे बूढ़े पर तरस आया, किन्तु मैं आज़ाद होना और यह दिखाना चाहता था कि मैं बच्चा नहीं हूं। ज़रिन को पैसे भिजवा दिये गये । सावेलिच ने मुझे इस मनहूस होटल से ले जाने की उतावली की। वह यह खबर लेकर आया कि घोड़ा गाड़ी तैयार है । कचोटती आत्मा और मौन - मूक पश्चाताप की भावना के साथ मैं शराब और जुए के अपने गुरु से विदा लिये बिना और उससे फिर कभी न मिलने की आशा करते हुए सिम्बीसर्क से रवाना हुआ ।

दूसरा अध्याय : पथ-प्रदर्शक

ओ री धरती, क्षेत्र पराये
जहां आज मैं आया !
अपनी इच्छा से आ पहुंचा
या घोड़ा ले आया :
मुझे जवानी ले आयी है
औ' यौवन मतवाला,
मुझे नशा भी, हाला ।
(पुराना गीत)

रास्ते में मेरे दिमाग़ में आनेवाले विचार कोई बहुत सुखद नहीं थे। उस समय के मूल्यों को ध्यान में रखते हुए मैंने जितने रूबल हारे थे, वे कुछ कम नहीं थे। मन ही मन मैं यह माने बिना भी नहीं रह सकता था कि सिम्बीसर्क के होटल में मैंने काफ़ी बेवकूफ़ी की हरकत की थी और सावेलिच के सामने मैं अपने को दोषी अनुभव करता था। यह सब कुछ मुझे यातना दे रहा था । बूढ़ा मुंह फेरे और मुंह फुलाये हुए घोड़ा गाड़ी के बाक्स पर चुपचाप बैठा था, कभी-कभार खूं-खां कर लेता था। मैं उससे सुलह करने को बेचैन था और नहीं जानता था कि बात कहां से शुरू करूं । आखिर मैंने उससे कहा -

“सुनो सावेलिच ! बस, काफ़ी नाराज़ हो लिये, आओ सुलह कर लें, मैं दोषी हूं, खुद देख रहा हूं कि दोषी हूं। मैंने कल शैतानी की और तुम्हारे साथ बेकार गुस्ताखी से पेश आया । वचन देता हूं कि आगे अधिक बुद्धिमत्ता से काम लूंगा और तुम्हारी बात पर कान दूंगा । तो अब गुस्सा थूक दो, आओ, सुलह कर लें ।"

"ओह, छोटे मालिक, प्योतर अन्द्रेइच !" उसने गहरी सांस लेकर उत्तर दिया, “ मुझे तो खुद अपने पर गुस्सा आ रहा है, मैं ही पूरी तरह दोषी हूं। किसलिये मैंने तुम्हें होटल में अकेले छोड़ दिया ! क्या किया जाये ? दिमाग़ में यह ख्याल घुस गया कि गिरजाघर के पादरी की बीवी से जो मेरी रिश्तेदार है मिल आऊं। वहां गया कि जैसे जेल में जा बैठा । बस, मुसीबत आ गयी ! मालिक- मालकिन को मैं कैसे मुंह दिखाऊंगा ? जैसे ही उन्हें यह पता चलेगा कि बेटा पीता और जुआ खेलता है, तो वे क्या कहेंगे ?"

बेचारे सावेलिच को तसल्ली देने के लिये मैंने वचन दिया कि भविष्य में उसकी सहमति के बिना मैं एक पैसा भी खर्च नहीं करूंगा । वह धीरे-धीरे शान्त हो गया, यद्यपि अभी भी बीच-बीच में सिर हिलाकर बड़बड़ाता जाता था,
"एक सौ रूबल ! कोई मामूली-सी बात थोड़े ही है !"

मैं अपनी मंज़िल के क़रीब पहुंच रहा था । मेरे सभी ओर सुनसान-वीरान मैदान फैला हुआ था जिसमें जहां-तहां टीले और गड्ढे थे। सभी कुछ बर्फ़ से ढका हुआ था। सूरज डूब रहा था । हमारी घोड़ा- गाडी संकरी राह या अधिक सही तौर पर कहा जाये तो किसानों की गाड़ियों द्वारा छोड़े गये निशानों पर चल रही थी । अचानक कोचवान एक तरफ़ को देखने लगा और आखिर टोपी उतारकर उसने मुझे सम्बोधित करते हुए कहा-

"साहब, क्या हम लौट न चलें ?"

"किसलिये ?"

"मौसम भरोसे का नहीं - हवा चलने लगी है, देखो तो वह ताज़ा गिरी हुई बर्फ़ को कैसे उड़ा रही है।"

"तो इसमें क्या मुसीबत है ! वहां देख रहे हो, क्या है ?" ( कोचवान ने चाबुक से पूरब की ओर संकेत किया । )

"सफ़ेद स्तेपी और साफ़ आसमान के सिवा मुझे तो कुछ भी नज़र नहीं आ रहा।"

“वह, वह, छोटा-सा बादल ।"

वास्तव में ही मुझे गगन के छोर पर छोटा-सा सफ़ेद बादल दिखाई दिया जिसे मैंने शुरू में दूर का टीला समझा था। कोचवान ने मुझे स्पष्ट किया कि यह बादल तूफ़ान का सूचक है।

मैंने इन इलाक़ों में आनेवाले तूफ़ानों के बारे में सुना था और जानता था कि गाड़ियों की पांतों की पांतें बर्फ में दब जाती हैं। कोच - वान के विचार से सहमत सावेलिच ने भी लौटने की सलाह दी । किन्तु मुझे हवा बहुत तेज़ प्रतीत नहीं हुई । मुझे आशा थी कि अगली घोड़ा चौकी तक ठीक समय पर पहुंच जायेंगे और इसलिये मैंने घोड़े तेज़ करने को कहा ।

कोचवान घोड़ों को सरपट दौड़ाने लगा, किन्तु वह लगातार पूरब की ओर देखता जाता था। घोड़े हिल मिलकर दौड़ रहे थे। इसी बीच हवा अधिकाधिक तेज़ होती जा रही थी। छोटी-सी बदली बड़े सफ़ेद बादल में बदल गयी, बादल उमड़-घुमड़कर ऊपर उठा और धीरे-धीरे आकाश पर छा गया । हिमकण गिरने लगे और सहसा उन्होंने बर्फ़ के बड़े-बड़े फाहों का रूप धारण कर लिया। हवा चीखने लगी - तूफ़ान आ गया था। आन की आन में काला आकाश हिम- सागर से घुल-मिल गया । सब कुछ आंखों से ओझल हो गया । "तो साहब" कोचवान चिल्ला उठा, "मुसीबत - तूफ़ान आ गया ! .. "

मैंने घोड़ा गाड़ी में से बाहर झांककर देखा - सभी ओर अंधेरा और तूफ़ान था । हवा किसी प्राणी की भांति भयावह ढंग से चीख रही थी । वर्फ़ ने मुझे और सावेलिच को ढक दिया। घोड़े क़दम क़दम चल रहे थे और जल्द ही रुककर खड़े हो गये । "तुम रुक क्यों गये ?" मैंने झल्लाकर कोचवान से पूछा । "चलते जाने में क्या तुक है ?" उसने अपनी सीट से नीचे उतरते हुए उत्तर दिया, “ जाने अब ही कहां पहुंच गये हैं, रास्ते का कुछ पता नहीं और सभी ओर घुप्प अंधेरा है।"

मैं उसे कोसने लगा, किन्तु सावेलिच ने उसका पक्ष लिया – “ इसकी बात माननी चाहिये थी," उसने बिगड़कर कहा, "सराय में लौट चलते, वहां चाय पीते, सुबह तक आराम करते, तूफ़ान शान्त हो जाता और हम आगे चल देते । आखिर हमें जल्दी भी क्या है ? क्या कहीं शादी में पहुंचना है !" सावेलिच की बात बिल्कुल सही थी । हमारे सामने कोई चारा नहीं था। बर्फ़ बहुत ज़ोर से गिरती जा रही थी । घोड़ा गाड़ी के आस-पास बर्फ़ का टीला- सा बन गया था। घोड़े सिर झुकाये खड़े थे और जब-तब सिहर उठते थे। कोचवान गाड़ी के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहा था, कोई काम न होने के कारण घोड़ों के साज को ठीक-ठाक कर रहा था । सावेलिच बड़बड़ा रहा था। मैं इस आशा से सभी ओर नज़र घुमाकर देख रहा था कि कहीं कोई घर या रास्ता दिखाई दे जाये, मगर चक्कर काटती बर्फ़ के सिवा मुझे और कुछ नज़र नहीं आया अचानक कोई काली- सी चीज़ दिखाई दी । "ए कोचवान!" मैंने चिल्लाकर कहा, देखो तो, वहां वह काला- सा क्या है ?" कोचवान बहुत ग़ौर से देखने लगा । "भगवान जाने, मालिक, " उसने अपनी सीट पर बैठते हुए कहा, “न तो कोई गाड़ी है और न कोई पेड़ और वह हिलता डुलता भी लग रहा है। ज़रूर कोई भेड़िया या आदमी होना चाहिये।"

मैंने इस अज्ञात चीज़ की ओर, जो उसी समय हमारी ओर आने लगी, गाड़ी बढ़ाने का आदेश दिया। दो मिनट बाद हम एक व्यक्ति के निकट पहुंच गये । "ए भले मानस !" कोचवान ने ऊंची आवाज़ में उसे सम्बोधित किया, “ यहां का रास्ता जानते हो ?" "रास्ता तो यही है, मैं ठोस पट्टी पर खड़ा हूं," राहगीर ने उत्तर दिया, "मगर इससे लाभ क्या है ?"

“सुनो, भले आदमी" मैंने उससे कहा, “क्या तुम इस इलाके को जानते हो ? मुझे किसी ऐसी जगह पर पहुंचा सकते हो जहां रात बितायी जा सके ?"

"यह इलाक़ा मेरा खूब जाना-पहचाना है," राहगीर ने जवाब दिया, "भगवान की कृपा से पैदल और घोड़े पर मैं यहां बहुत बार आ-जा चुका हूं। लेकिन देखो, मौसम तो कैसा है । रास्ते से भटका जा सकता है । यहीं रुककर इन्तज़ार करना ज़्यादा अच्छा होगा, तूफ़ान रुक जाये और आसमान साफ़ हो जाये - तब हम सितारों की मदद से रास्ता ढूंढ़ लेंगे ।"

इस व्यक्ति के ऐसे शान्त अन्दाज़ से मेरी दिलजमाई हुई। मैंने अपने को भगवान की दया पर छोड़ते हुए स्तेपी में ही रात बिताने का निर्णय कर लिया कि सहसा राहगीर फुर्ती से बाक्स पर जा बैठा और कोचवान से बोला-

“भगवान की कृपा से ठहरने की जगह पास ही में है, गाड़ी को दायीं ओर बढाते चलो।"

"दायें को क्यों बढाऊं गाडी ?" कोचवान ने नाराज़गी से कहा । "कहां रास्ता दिखाई दे रहा है तुम्हें ? यही सोचते हो कि घोड़े पराये हैं, गाड़ी परायी है और इसलिये दौड़ाते चलो।" मुझे कोचवान की बात ठीक प्रतीत हुई ।

"सचमुच तुम ऐसा क्यों सोचते हो कि कोई घर पास में ही है ?" मैंने पूछा ।

“ इसलिये कि हवा उधर से आ रही है, राहगीर ने जवाब दिया," उसमें धुएं की गन्ध है । इसका यही मतलब है कि गांव निकट ही है।"

उसकी तीक्ष्ण बुद्धि और सूझ-बूझ से मैं हैरान रह गया। मैंने कोचवान को गाड़ी बढ़ाने का आदेश दिया । घोड़े गहरी बर्फ़ में धंसते- धंसते चलने लगे। गाड़ी धीरे-धीरे बढ़ रही थी, वह कभी बर्फ़ के टीले पर चढ जाती, तो कभी किसी गड्ढे में धंस जाती और कभी एक, तो कभी दूसरी दिशा में धचका खाती । यह तूफ़ानी सागर में सफ़र करने जैसा लगता था । सावेलिच रह-रहकर मेरी बग़ल से टकराता और हाय-वाय करता । मैंने परदा नीचे गिरा दिया, फ़र का कोट ओढ़ लिया और बर्फ़ीली आंधी की लयबद्ध लोरी तथा गाड़ी के हिलने- डोलने से ऊंघ गया ।

मैंने एक सपना देखा जिसे कभी नहीं भूल पाया और अपने जीवन की अजीब परिस्थितियों के साथ जब उसकी तुलना करके देखता हूं, तो उसमें कुछ भविष्यवाणी - सी पाता हूं । पाठक मुझे क्षमा करे, क्योंकि सम्भवतः वह अनुभव से यह जानता है कि पूर्वाग्रहों के प्रति अधिकतम तिरस्कार की भावना के बावजूद इन्सान में अंधविश्वास के अधीन हो जाने की कैसी जन्मजात प्रवृत्ति विद्यमान है ।

मैं मन और भावनाओं की ऐसी स्थिति में था, जब यथार्थ सपनों के अधीन होकर कच्ची नींद के अस्पष्ट बिम्बों में उनसे घुल-मिल जाता है । मुझे लगा कि बर्फ़ का तूफ़ान अभी अपना पूरा जोर दिखा रहा है और हम इस बर्फ़ीले रेगिस्तान में रास्ते से भटक रहे हैं ... अचानक मुझे फाटक दिखाई दिया और मैं अपनी हवेली के अहाते में दाखिल हुआ। मुझे जिस पहले विचार ने चिन्तित किया, वह यह था कि मेरे मजबूरन घर लौटने पर पिता जी नाराज़ न हो उठें और इसे जान-बूझकर अपनी आज्ञा का उल्लंघन न मानें। मन में इसी प्रकार की चिन्ता लिये हुए मैं गाड़ी से कूदकर बाहर आया और बहुत ही गहरे दुख में डूबी हुई मां को दरवाज़े पर खड़ी पाया ।"शी, " उन्होंने मुझे चुप रहने को कहा, " तुम्हारे पिता जी अपनी अन्तिम सांसें ले रहे हैं और तुमसे विदा लेना चाहते हैं ।" मैं भयभीत - सा होकर मां के पीछे-पीछे सोने के कमरे में गया। देखता क्या हूं कि कमरे में बहुत मद्धिम रोशनी है और लोग मातमी - सी सूरतें बनाये हुए पलंग के क़रीब खड़े हैं। मैं दबे क़दमों पलंग के क़रीब गया मां ने पलंग के सामनेवाला थोड़ा-सा पर्दा हटाया और बोली, “ अन्द्रेई पेत्रोविच, पेत्रूशा आ गया है, तुम्हारी बीमारी की खबर पाकर वह लौट आया है, उसे आशीर्वाद दो ।" मैं घुटनों के बल हो गया और मैंने रोगी पर अपनी नज़र टिका दी । क्या देखता हूं? मेरे पिता जी की जगह काली दाढ़ीवाला एक देहाती बिस्तर पर लेटा हुआ है और खुशमिजाजी से मेरी ओर देख रहा है। मैंने कुछ न समझ पाते हुए मां की तरफ़ देखा और कहा, यह क्या मामला है ? यह तो पिता जी नहीं हैं। इस देहाती से भला मैं आशीर्वाद क्यों मांगूं ?" - "फिर भी ऐसा ही करो पेत्रूशा " मां ने उत्तर दिया, "यह तुम्हारा धर्म- पिता है। उसका हाथ चूमो और आशीर्वाद लो मैं इसके लिये राज़ी नहीं हुआ । तब वह देहाती उछलकर बिस्तर से उठ खड़ा हुआ और अपनी पीठ के पीछे से कुल्हाड़ा निकालकर सभी ओर घुमाने लगा। मैंने भाग जाना चाहा... मगर ऐसा नहीं कर पाया। कमरा लाशों से भरा हुआ था, लाशों से टकराकर मैं खून के डबरों में फिसल रहा था, भयानक देहाती ने मुझे प्यार से पुकारते हुए कहा, “डरो नहीं, मेरी छत्र-छाया में आ जाओ, भय और आश्चर्य मुझ पर हावी हो गये ... इसी क्षण मेरी आंख खुल गयी । घोड़े खड़े थे, सावेलिच मेरा हाथ हिलाते हुए कह रहा था, “छोटे मालिक, बाहर आ जाओ, हम पहुंच गये ।"

"कहां पहुंच गये ?” मैंने आंखें मलते हुए पूछा ।

"सराय में। भगवान ने मदद की, हम सीधे बाड़ के पास पहुंच गये। बाहर आ जाओ, छोटे मालिक, और जल्दी से भीतर चलकर अपने को गर्माओ ।"

मैं घोड़ा गाड़ी से बाहर निकला। बर्फ़ीली आंधी अब भी चल रही थी, यद्यपि उसका ज़ोर कम हो गया था । ऐसा घुप्प अंधेरा था कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था । कोट के पल्ले के नीचे लालटेन छिपाये हुए सराय का मालिक दरवाज़े के पास हमसे मिला और मुझे तंग, किन्तु खासे साफ़-सुथरे कमरे में ले गया। उसमें केवल जलती खपची की हल्की रोशनी थी। दीवार पर बन्दूक और कज़्ज़ाकों की ऊंची टोपी लटक रही थी ।

सराय का मालिक याइक नदी के इलाके का कज़्ज़ाक था, लगभग साठ साल का प्रतीत होता था, किन्तु उसमें ताज़गी और प्रफुल्लता बनी हुई थीं । सावेलिच चीनी के बर्तनों की पेटी लिये हुए मेरे पीछे- पीछे आया, उसने चाय बनाने के लिये आग की व्यवस्था करने को कहा। मुझे पहले कभी भी चाय की इतनी अधिक आवश्यकता नहीं अनुभव हुई थी । सराय का मालिक आग की व्यवस्था करने चला गया ।

"हमारा पथ-प्रदर्शक कहां है?" मैंने सावेलिच से पूछा ।

"यहां हूं, हुजूर," मुझे ऊपर की ओर से आवाज़ सुनाई दी ।

मैंने अलावघर के ऊपर नज़र डाली और वहां मुझे काली दाढ़ी और चमकती हुई दो आंखें दिखाई दीं ।

"क्यों मेरे भाई, ठिठुर गये ?"

“ऐसे घिसे-फटे कोट में ठिठुरूंगा कैसे नहीं ! भेड़ की खाल का कोट तो था, मगर अपने पाप को क्या छिपाऊं ? कल गिरवी रख दिया - पाला कुछ अधिक ज़ोर का नहीं महसूस हो रहा था ।"

सराय का मालिक इसी समय उबलता हुआ समोवार लेकर आया । मैंने अपने पथ-प्रदर्शक को चाय का प्याला पेश किया। देहाती अलावघर से नीचे उतरा। उसकी शक्ल-सूरत मुझे बहुत जंची - उम्र कोई चालीस साल, मझोला क़द, दुबला-पतला और चौड़े - चकले कंधे । उसकी काली दाढ़ी में सफ़ेदी की झलक थी और उसकी बड़ी-बड़ी सजीव आंखें लगातार चंचलता से हिल-डुल रही थीं। उसके चेहरे पर खासा मधुर, मगर धूर्त्ततापूर्ण भाव था । उसके बाल कज़्ज़ाकों के ढंग से कटे हुए थे, वह फटा पुराना कोट और तातारी ढंग की सलवार पहने था । मैंने चाय का प्याला उसकी तरफ़ बढ़ाया, उसने एक घुंट चखकर मुंह बनाया । "हुजूर, मुझ पर इतनी मेहरबानी कीजिये - शराब का एक गिलास लाने का आदेश दे दीजिये, चाय हम कज़्ज़ाकों के पीने की चीज़ नहीं है ।" मैंने बड़ी खुशी से उसकी यह इच्छा पूरी कर दी। सराय के मालिक ने अलमारी में से बोतल और गिलास निकाला, उसके क़रीब गया और उसकी आंखों में झांकते हुए बोला, "अरे, तुम फिर से हमारे इलाके में आ गये ! किसलिये आना हुआ ?" मेरे पथ-प्रदर्शक ने अर्थपूर्ण ढंग से आंख मारी और रहस्यमय शब्दों में उत्तर दिया -

"साग-तरकारी के बगीचे में घुसा, पटुआ चुना, बुढ़िया ने कंकड़ फेंका - बग़ल से निकल गया । तुम्हारे यहां क्या हाल है ?"

"हमारे यहां !" मेज़बान ने उसी तरह के रूपक में बात जारी रखी। सन्ध्या की प्रार्थना का घण्टा बजाने का समय हो गया, पर पादरी की पत्नी अनुमति नहीं देती । पादरी मेहमान गया हुआ है, शैतान मौज मना रहे हैं।"

"चुप रहो, चाचा,” मेरे आवारा पथ-प्रदर्शक ने आपत्ति की, "बारिश होगी, तो खुमियां भी होंगी, खुमियां होंगी तो टोकरियां भी। और अब ( उसने फिर से आंख मारी ) कुल्हाड़े को पेटी में टांग लो, वन-रक्षक घूम रहा है। हुजूर ! आपकी सेहत के लिये ! "

इतना कहकर उसने गिलास लिया, अपने ऊपर सलीब बनाई और एक ही सांस में उसे पी गया। इसके बाद उसने मेरी ओर सिर झुकाया और अपने सोने की जगह पर चला गया ।

चोरों की सी इस बातचीत से तब मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा था । किन्तु बाद को मैं यह भांप गया कि याइक कज़्ज़ाकों की फ़ौज1 की चर्चा चल रही थी जिन्हें १७७२ के विद्रोह के बाद उन्हीं दिनों वश में किया गया था। सावेलिच बड़ी अप्रसन्नता प्रकट करते हुए यह बातचीत सुन रहा था । वह कभी तो सराय के मालिक और कभी पथ-प्रदर्शक को सन्देह की दृष्टि से देखता । सराय या स्थानीय रूप से 'उमेत' कहलानेवाली यह जगह एक तरफ़ को हटकर, गांव- पुरवे से बिल्कुल दूर, स्तेपी में थी और चोरों के अड्डे से बहुत मिलती- जुलती थी । किन्तु हमारे लिये और कोई रास्ता नहीं था। सफ़र जारी रखने की बात ही नहीं सोची जा सकती थी । सावेलिच की बेचैनी से मुझे बड़ा मज़ा आ रहा था । इसी बीच मैंने सोने की तैयारी कर ली और बेंच पर लेट गया । सावेलिच ने अलावघर के ऊपर सोने का निर्णय किया और सराय का मालिक फ़र्श पर लेट गया । कुछ देर बाद सभी खर्राटे भरने लगे और मैं गहरी नींद सो गया ।

1. याइक नदी के तट पर अवस्थित क़स्बे में कज़्ज़ाक सेनाओं ने १२ जनवरी १७७२ को विद्रोह किया था जिसे गर्मी में दबा दिया गया था । 'पुगाचोव के विद्रोह के इतिहास' में पुश्किन ने दबा दिये गये कज़्ज़ाकों की मनःस्थिति का यों वर्णन किया है - अभी क्या है - आगे देखना !' क्षमा किये गये विद्रोही कहते थे, 'हम मास्को को हिला डालेंगे न... ' स्तेपियों और दूर-दराज़ के गांवों में गुप्त बैठकें होती थीं। सब कुछ से ऐसा मालूम होता था कि नया विद्रोह होने को है। सरदार की कमी थी। सरदार मिल गया ।"-सं०

सुबह को काफ़ी देर से आंख खुली और मैंने देखा कि बर्फ़ का तूफ़ान थम गया है। सूरज चमक रहा था। असीम स्तेपी में आंखों को चौंधाती हुई बर्फ की चादर फैली थी। गाड़ी में घोड़े जोते जा चुके थे। मैंने सराय के मालिक को पैसे दिये जिसने इतने कम पैसे लिये कि सावेलिच ने भी उससे बहस नहीं की और आदत के मुताबिक़ मोल-भाव नहीं किया। पिछले दिन के सन्देह अब पूरी तरह उसके दिमाग़ से गायब हो गये थे। मैंने रास्ता दिखलानेवाले को बुलाया, मदद करने के लिये उसे धन्यवाद दिया और सावेलिच से कहा कि उसे वोदका के लिये पचास कोपेक दे दे । सावेलिच ने नाक-भौंह सिकोड़ी । वोदका के लिये पचास कोपेक !"

उसने कहा, "यह किसलिये ? क्या इसीलिये कि उसे घोड़ागाड़ी में बिठाकर सराय तक भी लाये ? तुम चाहे कुछ भी क्यों न कहो मालिक, हमारे पास फ़ालतू पचास कोपेक नहीं हैं। सभी को अगर वोदका के लिये पैसे देंगे, तो जल्द ही खुद हमें भूखे रहना पड़ेगा ।" सावेलिच के साथ मैं बहस नहीं कर सकता था । मेरे दिये वचन के अनुसार पैसे पूरी तरह उसके अधिकार में थे । फिर भी मुझे इस बात का खेद हो रहा था कि उस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने में असमर्थ हूं जिसने यदि मुसीबत से नहीं, तो बहुत ही जटिल स्थिति से मुझे बचा लिया था । "अच्छी बात है," मैंने बड़ी शान्ति से कहा, "अगर पचास कोपेक नहीं देना चाहते, तो मेरे कपड़ों में से उसे कुछ निकाल दो। वह बहुत ही हल्के-फुल्के कपड़े पहने है । उसे खरगोश की खाल का मेरा कोट दे दो।"

"सुनो, मेरे प्यारे, प्योतर अन्द्रेइच !" सावेलिच बोला । “ खरगोश की खाल के तुम्हारे कोट को यह क्या करेगा ? यह कुत्ते का पिल्ला अगले ही शराबखाने में इसकी शराब पी जायेगा । "

"बुड्ढे, तुम्हें इसकी फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं, " आवारा ने कहा, "कि पी डालूंगा या नहीं। ये हुजूर मुझे अपना फ़र-कोट देना चाहते हैं, यह उनकी मर्जी है और तुम्हारा नौकर का काम बहस करना नहीं, हुक्म मानना है । "

" तुम्हें खुदा का डर - खौफ़ नहीं है, लुटेरे !" सावेलिच ने झल्लाकर उसे जवाब दिया । "तुम देख रहे हो कि मालिक अभी नादान है, कुछ समझता-बूझता नहीं और तुम उसकी सादगी से लाभ उठाकर उसे लूट लेना चाहते हो । क्या करोगे तुम रईसी फ़र- कोट का ? अपने इन मनहूस कन्धों पर तुम उसे खींच-खांचकर भी नहीं चढ़ा पाओगे ।"

"कृपया बहस नहीं करो,” मैंने अपने इस बुजुर्ग से कहा, “ इसी समय फ़र-कोट यहां ले आओ।"

" हे भगवान!" सावेलिच ने लम्बी सांस छोड़ी।" खरगोश की खाल का कोट लगभग बिल्कुल नया है ! किसी और को दिया जाता तो कोई बात भी बनती, आवारा शराबी को दिया जा रहा है !"

फिर भी खरगोश की खाल का कोट आ गया। देहाती उसी समय उसे पहनकर देखने लगा । वास्तव में ही यह कोट, जो मेरे लिये भी छोटा हो गया था, उसके बदन पर भी कुछ तंग रहा। किन्तु उसने उसकी सीवनें उधेड़कर उसे किसी तरह से पहन लिया । धागों के उधेड़े जाने की आवाज़ सुनकर सावेलिच चीखते- चीखते रह गया । मेरे उपहार से आवारा तो गद्गद हो गया। उसने मुझे घोड़ा गाड़ी तक पहुंचाया और सिर झुकाकर कहा -

"बहुत धन्यवाद, हुजूर ! भगवान आपको आपकी नेकी का फल दे। आपकी इस मेहरबानी को कभी नहीं भूलूंगा ।" वह अपने रास्ते चल दिया और मैं सावेलिच की खीझ की ओर कोई ध्यान दिये बिना अपने सफ़र पर आगे चल पड़ा तथा बहुत जल्द ही पिछले दिन की बर्फ़ीली आंधी, रास्ता दिखानेवाले व्यक्ति और खरगोश की खाल के कोट के बारे में भूल गया ।

ओरेनबर्ग पहुंचते ही मैं जनरल के सामने हाज़िर हुआ । लम्बे क़द के इस व्यक्ति की बुढ़ापे के कारण पीठ झुक चुकी थी और उसके लम्बे-लम्बे बाल एकदम सफ़ेद थे। उसकी पुरानी, बदरंग वर्दी देखकर आन्ना इओआन्नोव्ना के समय के फ़ौजी की याद हो आयी । जनरल के बात करने के अन्दाज़ में जर्मन लहजे की बड़ी अनुभूति होती थी । मैंने उसे पिता जी का पत्र दिया । पिता जी का नाम सुनकर उसने झटपट मेरी ओर देखा ।

" हे पगवान !” उसने कहा । ऐसा लकता जैसा कुछ ही बक्त पहले अन्द्रेई पेत्रोविच खुद तुम्हारे समान था और अब कैसा बांखा जवान फेटा है उसका ! आह, बक्त, बक़्त !” उसने पत्र खोला और जर्मन लहजेवाली रूसी भाषा में अपनी टीका-टिप्पणियां करते हुए उसे धीमे-धीमे पढ़ने लगा ।" "आदरणीय महानुभाव अन्द्रेई कार्लोविच, आशा करता हूं कि आप श्रीमान ... ' यह सब कैसी औबचारिकता है ? थू, सरम आनी चाहिये उसे ! माना- अनुसासन बहुत ज़रूरी है, मगर पुराने कोमराड को कौन ऐसे खत लिखता है ? 'श्रीमान भूले नहीं होंगे ... ' हुं ... ' और ... जब... दिवंगत फ़ेल्डमार्शल मीनिख... कूच ... और कारोलीन्का को भी ' ... ओह सैतान ! उसे हमारी पुरानी सैतानियां भी याद हैं ? ' अब काम की बात ... आपके पास अपने बदमाश को भेज रहा हूं' ...हुं... ' साही के दस्तानों में रखें इसे ' ... साही के दस्तानों में – क्या मतलब इसका ? सायत कोई रूसी कहावत... क्या मतलब है इसका — 'साही के दस्तानों में रखें?' "उसने मुझे सम्बोधित करते हुए इन शब्दों को दोहराया ।

"इसका मतलब है, ” मैंने जहां तक मुमकिन हुआ, ज़्यादा से ज़्यादा मासूम सूरत बनाकर जवाब दिया, “ प्यार से पेश आयें, बहुत अधिक कड़ाई न दिखायें, अधिक छूट दें, साही के दस्तानों में रखें।"

“हुं, समझा... 'और उसे छूट न दें' ... नहीं, साफ़ है, साही के दस्तानों में रखने का वह मतलब नहीं जो तुमने बताया ... ' उसका पाशपोर्ट भी भेज रहा हूं कहां है पाशपोर्ट ? यह रहा ... ' सेम्योनोव रेजिमेंट में उसे भेज देना ।' अच्छी बात है, अच्छी बात है, सब कुछ कर दिया जायेगा ... ' अपने ऊंचे पद की ओर ध्यान दिये बिना पुराने साथी और दोस्त के नाते ... तुम मुझे गले लगाने की अनुमति दोगे ' ... ओह, आख़िर तो अक्ल की बात की ... आदि, आदि ... तो प्यारे, ” उसने पत्र पढ़ने और मेरा पासपोर्ट एक ओर रखने के बाद मुझसे कहा, "सब कुछ हो जायेगा - तुम्हें... रेजिमेंट में अफ़शर बना दिया जायेगा । बेकार बख़्त बरबाद न हो, इसलिये कल ही बेलोगोर्स्क के दुर्ग में चले जाओ। वहां तुम बहुत भले और ईमानदार आदमी, कप्तान मिरोनोव के अधीन काम करोगे, असली फ़ौजी रंग- ढंग देखोगे, अनुसासन सीख जाओगे। यहां ओरेनबुर्ग में तुम्हारे करने- धरने को कुछ नहीं; जवान आदमी के लिये काहिली बुरी चीज़ है । और आज दोपहर का भोजन मेरे शाथ करने की कृपा करो । "

"बद से बदतर !” मैंने मन ही मन सोचा, क्या फ़ायदा हुआ मुझे इससे कि मैं जब मां के गर्भ में था, तभी गार्ड-सेना में सार्जेंट के रूप में मेरा नाम दर्ज करवा दिया गया था ! कहां जा पहुंचा हूं मैं ? ... रेजिमेंट में और सो भी किर्ग़ीज़ - कज़ाख स्तेपी के सुनसान दुर्ग में ! .." मैंने अन्द्रेई कार्लोविच के साथ दोपहर का भोजन किया । हम दोनों के अलावा उसका पुराना सहायक फ़ौजी अफ़सर भी खाने की मेज़ पर मौजूद था । खाने-पीने के मामले में अत्यधिक कड़ी जर्मन मितव्ययता बरती गयी थी । मेरे ख्याल में अपनी छड़े की मेज़ पर कभी - कभी एक फ़ालतू मेहमान की हाज़िरी के डर से ही मुझे फ़ौरन दुर्ग की तरफ़ खदेड़ दिया गया था। अगले दिन जनरल से विदा लेकर मैं अपने नियुक्ति-स्थान की ओर रवाना हो गया ।

तीसरा अध्याय : दुर्ग

छोटी-सी गढ़िया में रहते हम तो समय बिताते हैं,
हर दिन जीभर पानी पीते, हम तो रोटी खाते हैं,
लेकिन दुश्मन ने यदि चाहा, आये मौज मनाये
यहां कचौड़ी और समोसों की वह दावत खाये :
तो हम भरें तोप में गोले,
उसको मज़ा चखायें, उसका मन बहलायें ।
(सैनिक गीत)

पुराने ज़माने के लोग, मेरे हुजूर ।
(घोंघाबसन्त)

बेलोगोर्स्क का दुर्ग ओरेनबर्ग से चालीस वेर्स्ता दूर था । रास्ता याइक नदी के खड़े तट के साथ-साथ जाता था । नदी अभी जमी नहीं थी और उसकी सीसे के रंग जैसी लहरें सफ़ेद बर्फ से ढके तटों के बीच उदास झलक दिखा रही थीं। तटों के दोनों ओर किग़ज़ स्तेपी फैली हुई थी । मैं ख़्यालों में डूब गया जो अधिकतर उदासीभरे थे । दुर्ग का जीवन मेरे लिये बहुत कम आकर्षण रखता था । मैंने अपने भावी अधिकारी, कप्तान मिरोनोव की कल्पना करने का प्रयास किया । मेरी कल्पना में एक कठोर और चिड़चिड़े बूढ़े के रूप में उसका चित्र उभरा जो अपनी नौकरी के सिवा और कुछ नहीं जानता था तथा हर छोटी-मोटी बात के लिये मुझे हिरासत में लेने तथा सिर्फ़ रोटी और पानी पर रखने का आदेश देने को तैयार था। इसी बीच झुटपुटा होने लगा । हमारी घोड़ा गाड़ी काफ़ी तेज़ रफ़्तार से जा रही थी । "अभी बहुत दूर है क्या दुर्ग ?" मैंने अपने कोचवान से पूछा । “नहीं, बहुत दूर नहीं है, " उसने जवाब दिया । "वह तो दिखाई भी दे रहा है ।" मैंने दहशत पैदा करनेवाले दुर्ग-प्राचीर, बुर्ज और मीनारें देख पाने की आशा से सभी ओर दृष्टि दौड़ाई, किन्तु लट्ठों की बाड़ से घिरे हुए लकड़ी के छोटे-छोटे घरों के अतिरिक्त मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दिया। एक ओर बर्फ से अध- ढकी घास की तीन-चार टालें थीं और दूसरी ओर खस्ताहाल पवन चक्की थी जिसके खिलौने जैसे बेजान पंख नीचे लटके हुए थे । "दुर्ग कहां है?" मैंने आश्चर्य से पूछा । "वह रहा,” कोचवान ने बस्ती की ओर इशारा करते हुए जवाब दिया और इसी समय हमारी गाड़ी ने उसमें प्रवेश किया। फाटक के पास मुझे लोहे की एक पुरानी तोप रखी दिखाई दी, गलियां तंग और टेढ़ी- मेढ़ी थीं, लकड़ी के घर नीचे-नीचे और अधिकतर पुआल की छतों- वाले थे। मैंने दुर्गपति के यहां चलने का आदेश दिया और एक मिनट बाद हमारी गाड़ी लकड़ी के गिरजे की बग़ल में ऊंची जगह पर बने लकड़ी के घर के सामने जाकर खड़ी हो गयी ।

किसी ने मेरा स्वागत सत्कार नहीं किया । मैंने ड्योढ़ी में जाकर प्रवेश-कक्ष का दरवाज़ा खोला । मेज़ पर बैठा हुआ एक अपंग बूढ़ा हरे रंग की फ़ौजी वर्दी की फटी कोहनी पर नीला पैबंद लगा रहा था । मैंने उससे कहा कि वह मेरे आने की सूचना दे दे । “ भीतर चले जाओ, भैया," अपंग ने उत्तर दिया, " वे घर पर ही हैं ।" मैं पुराने ढंग से सजे हुए एक साफ़-सुथरे कमरे में दाखिल हुआ। कोने में रखी हुई अलमारी में चीनी के बर्तन थे, दीवार पर शीशे और चौखटे में जड़ा हुआ अफ़सर का डिप्लोमा तथा उसके निकट ही किस्त्रीन1 और ओचाकोव2 पर रूसियों की चढ़ाई तथा 'दुलहन का चुनाव' एवं 'बिल्ले का दफ़न' की भद्दी -सी तस्वीरें भी लटकी हुई थीं । रूईदार जाकेट पहने और सिर पर रूमाल बांधे एक बुढ़िया खिड़की के क़रीब बैठी थी । वह ऊन का गोला बना रही थी जिसके लच्छे को अफ़सर की वर्दी में एक काना बूढ़ा अपने हाथों पर फैलाये हुए था । क्या बात है, भैया ?" अपना काम जारी रखते हुए उसने पूछा। मैंने जवाब दिया कि सैन्य- सेवा के लिये आया हूं और अपने आने की सूचना देने को कप्तान महोदय के सामने हाज़िर हुआ हूं। इतना कहकर मैंने काने अफ़सर को दुर्गपति समझते हुए उसे सम्बोधित करना चाहा, किन्तु बुढ़िया ने पहले से तैयार किये गये मेरे शब्दों को बीच में ही टोकते हुए कहा, "इवान कुज़्मिच घर पर नहीं हैं । पादरी गेरासिम के यहां गये हैं। खैर, कोई बात नहीं, मैं उनकी पत्नी हूं। तुम्हारा स्वागत है। बैठो, भैया ।" उसने नौकरानी को पुकारा और सार्जेंट को बुलाने का आदेश दिया । बूढ़ा अपनी एक आंख से मुझे जिज्ञासापूर्वक देख रहा था । "मैं यह पूछने की धृष्ठता कर सकता हूं," उसने कहा, "कि आप किस रेजिमेन्ट में थे ? ” मैंने उसकी जिज्ञासा को शान्त कर दिया । "यह पूछने की भी धृष्ठता कर सकता हूं कि गार्ड -सेना से दुर्ग में क्यों आ गये ?" मैंने उत्तर दिया कि बड़े अफ़सरों की ऐसी ही इच्छा थी । सम्भवतः कोई ऐसी हरकत करने के लिये, जो गार्ड- सेना के अफ़सर को शोभा नहीं देती," चुप न होनेवाले मेरे इस प्रश्नकर्त्ता ने अपनी बात जारी रखी । "बस, काफ़ी बेकार की बातें कर चुके, ” कप्तान की बीवी ने उससे कहा "देखते नहीं हो कि नौजवान सफ़र की वजह से थका- हारा हुआ है, उसे परेशान नहीं करो... ( हाथों को सीधे रखो... ) । "और तुम भैया," उसने मुझे सम्बोधित करते हुए कहा, "इस बात के लिये दुखी नहीं होओ कि तुम्हें हमारे इस सुनसान इलाके में भेज दिया गया है। न तो तुम पहले हो और न अन्तिम । यहां रहोगे तो इस जगह को चाहने भी लगोगे । अलेक्सेई इवानोविच श्वाबरिन को किसी की हत्या करने के कारण यहां आये हुए चार साल से अधिक समय हो गया है। भगवान जाने, उसने ऐसा क्यों किया। हुआ यह कि एक लेफ्टिनेंट के साथ वह नगर से बाहर चला गया, दोनों अपने साथ तलवारें ले गये और उन्हें एक-दूसरे के बदन में घोंपने लगे। अलेक्सेई इवानोविच ने उस लेफ्टिनेंट को बींध डाला और वह भी दो साक्षियों की उपस्थिति में ! किया क्या जाये ! किसी से भी ऐसे हो सकता है।"

1. प्रशा का दुर्ग जिस पर रूसी सेना ने १७५८ में अधिकार किया। - सं०
2. तुर्की का क़िला जिसे रूसी फ़ौज़ ने १७३७ में क़ब्ज़े में लिया। - सं०

इसी समय जवान और सुघड़ - सुगठित सार्जेंट भीतर आया ।

"मक्सीमिच !" कप्तान की बीवी ने उससे कहा । "श्रीमान अफ़सर को कोई साफ़-सुथरा फ़्लैट दे दो ।"

"जो हुक्म वसिलीसा येगोरोव्ना " सार्जेंट ने जवाब दिया । "हुज़ूर को इवान पोलेजायेव के यहां ही क्यों न ठहरा दिया जाये ?"

"अरे नहीं, मक्सीमिच," कप्तान की बीवी बोली, "पोलेजायेव के यहां तो वैसे ही घिचपिच है, फिर वह मेरा दूर का रिश्तेदार भी है और उसे यह ध्यान रहता है कि हम उसके अफ़सर हैं । श्रीमान अफ़सर को ... आपका नाम और पितृनाम क्या है ? प्योतर अन्द्रेइच ? .. प्योतर अन्द्रेइच को सेम्योन कूज़ोव के मकान में ले जाओ। उस शैतान ने मेरे तरकारी के बगीचे में अपना घोड़ा छोड़ दिया था। तो मक्सीमिच, और सब कुछ तो ठीक-ठाक है न ?”

"भगवान की कृपा से सब ठीक है, " कज़्ज़ाक ने जवाब दिया ।" सिर्फ़ गर्म पानी के टब के लिये कार्पोरल प्रोखोरोव की उस्तीन्या निकूलीना के साथ गुसलखाने में झड़प हो गयी ।"

"इवान इग्नातिच !” कप्तान की बीवी ने काने बूढ़े से कहा । “ प्रोखोरोव और उस्तीन्या के झगडे की छानबीन कर लो कि उनमें से कौन दोषी है और कौन नहीं। और दोनों को सज़ा दो। तो मक्सीमिच, जाओ, भगवान तुम्हारा भला करे । प्योतर अन्द्रेइच, मक्सीमिच आपको आपके घर पर पहुंचा आयेगा ।"

मैं सिर झुकाकर बाहर आ गया । सार्जेंट मुझे दुर्ग के छोर तथा ऊंचे नदी-तट पर स्थित घर में ले गया। आधे घर में सेम्योन कूज़ोव का परिवार रह रहा था और बाक़ी आधा मुझे दे दिया गया। उसमें एक खासा साफ़-सुथरा कमरा था, जिसे विभाजन - दीवार बनाकर दो हिस्सों में बांट दिया गया था। सावेलिच वहां रहने-सहने की व्यवस्था करने लगा और मैं छोटी-सी खिड़की से बाहर देखने लगा। मेरे सामने उदास-सी स्तेपी फैली हुई थी। एक ओर को लकड़ी के कुछ घर नज़र आ रहे थे और गली में कुछ मुर्गियां घूम रही थीं। हाथ में कठौता लिये एक बुढ़िया सुअरों को बुला रही थी जो हेल-मेल से करते खरु-खरु हुए उसकी ओर जा रहे थे। तो मेरी क़िस्मत में ऐसी जगह पर अपनी जवानी बिताना लिखा था ! उदासी मुझ पर हावी हो गयी। मैं खिड़की से परे हट गया और सावेलिच के समझाने-बुझाने और लगातार यह दुहराने के बावजूद – “हे भगवान! कुछ भी खाना नहीं चाहता अगर बेटा बीमार हो गया तो मालकिन क्या कहेंगी ?"- मैं रात का भोजन किये बिना ही बिस्तर पर चला गया ।

अगली सुबह को मैं कपड़े पहनने ही लगा था कि दरवाज़ा खुला और नाटे क़द का एक जवान अफ़सर मेरे कमरे में दाखिल हुआ । उसका सांवला चेहरा सुन्दर नहीं, मगर बहुत ही सजीव था । "माफ़ कीजिये, ” उसने मुझसे फ़्रांसीसी में कहा, " कि औपचारिकता के बिना आपसे जान-पहचान करने आ गया हूं। आपके आने की मुझे कल खबर मिली और मेरी इस इच्छा ने कि आखिर तो किसी इन्सान का मुंह देख पाऊंगा, मुझे ऐसे वश में कर लिया कि मुझसे रहा न गया । यहां कुछ समय तक और रहने के बाद आप यह सब समझ जायेंगे ।” मैंने अनुमान लगा लिया कि यह द्वन्द्व-युद्ध के लिये गार्ड- सेना से यहां भेजा गया अफ़सर है । हमने झटपट परिचय कर लिया ।

श्वाबरिन ख़ासा समझदार व्यक्ति था । उसकी बातचीत काफ़ी लच्छेदार और दिलचस्प थी। उसने बड़ी चुटकियां ले लेकर दुर्गपति के परिवार, यहां के दूसरे लोगों और क्षेत्र का वर्णन किया जहां क़िस्मत मुझे खींच लाई थी। उसकी बातें सुनते हुए मैं खुलकर हंस रहा था। इसी समय वही अपंग मेरे पास आया जो दुर्गपति के प्रवेश - कक्ष में बैठा हुआ वर्दी की मरम्मत कर रहा था और उसने वसिलीसा येगोरोव्ना की ओर से मुझे उनके यहां भोजन करने को आमन्त्रित किया । श्वाबरिन खुशी से मेरे साथ हो लिया ।

दुर्गपति के घर के निकट हमें मैदान में लम्बी चोटियोंवाले तथा तिकोणी टोपियां पहने कोई बीसेक बूढ़े अपंग सैनिक फ़ौजी कवायद के लिये क़तार में खड़े दिखाई दिये । रात की टोपी और ड्रेसिंग गाउन पहने ऊंचे क़द के प्रफुल्ल बूढ़े दुर्गपति उनके सामने खड़े थे। हमें देखकर वे हमारे पास आये, उन्होंने मुझसे स्नेहपूर्ण कुछ शब्द कहे और फिर से कवायद करवाने लगा । हम यह कवायद देखने के लिये रुक गये, किन्तु दुर्गपति ने अनुरोध किया कि हम वसिलीसा येगोरोव्ना के पास जायें और कहा कि वे स्वयं भी जल्द ही वहां आ जायेंगे ।" यहां आपके देखने के लिये कुछ नहीं है, " उन्होंने इतना और जोड़ दिया ।

वसिलीसा येगोरोव्ना ने बड़ी सहजता और प्रसन्नता से हमारा स्वागत किया और मुझसे ऐसे मिली मानो एक अर्से से मुझे जानती हो । अपाहिज फ़ौजी और पालाशा नौकरानी मेज़ पर खाने-पीने की व्यव- स्था कर रहे थे। “मेरा इवान कुज़्मिच तो आज कवायद में कुछ ज़्यादा ही खो गया है !" दुर्गपति की बीवी ने कहा । "पालाशा, साहब को भोजन करने के लिये बुला लाओ। और माशा कहां है ?" इसी समय गोल चेहरे, गुलाबी गालों और सुनहरे बालोंवाली कोई अठारह साल की युवती कमरे में दाखिल हुई । घबराहट के कारण लाल हुए कानों के पीछे उसके बाल बड़े अच्छे ढंग से संवरे हुए थे। पहली नज़र में वह मुझे बहुत अच्छी नहीं लगी। मैंने मन में पूर्वाग्रह की गांठ रखते हुए उसे देखा था – श्वाबरिन ने कप्तान की बेटी, इसी माशा को पूरी तरह एक बुद्धू लड़की के रूप में मेरे सामने चित्रित किया था । माशा यानी मरीया इवानोव्ना कोने में बैठकर सिलाई करने लगी। इसी बीच बन्दगोभी का शोरबा परोस दिया गया। पति को अभी तक ग़ायब पाकर वसिलीसा येगोरोव्ना ने पालाशा को फिर से उन्हें बुलाने भेजा । "साहब से कहना कि मेहमान उनकी राह देख रहे हैं, शोरबा ठण्डा हो जायेगा। भगवान की कृपा से कवायद कहीं भाग नहीं जायेगी ; बाद में चीख - चिल्ला लेंगे फ़ौजियों पर ।" कुछ ही देर बाद काने बूढ़े फ़ौजी के साथ कप्तान कमरे में आये । "यह क्या बात है, मेरे प्यारे ?" पत्नी ने उनसे कहा ।" भोजन कभी का परोसा जा चुका है मगर तुम आने का नाम नहीं लेते।" - " सुनो तो वसिलीसा येगोरोव्ना, " इवान कुज़्मिच ने उत्तर दिया, “मैं अपना फ़ौजी काम कर रहा था, सैनिकों को शिक्षा दे रहा था ।"बस, बस, रहने दो।" पत्नी ने आपत्ति की । "यह तो सिर्फ़ कहने की बात है कि तुम सैनिकों को शिक्षा देते हो। न तो वे कभी कुछ सीखेंगे और न तुम खुद ही यह काम अच्छी तरह से जानते हो। घर बैठकर भगवान का नाम जपते, तो ज़्यादा अच्छा होता । प्यारे मेहमानो, मेज़ पर पधारने की कृपा करें।"

हम भोजन करने बैठे । वसिलीसा येगोरोव्ना क्षण भर को भी चुप नहीं हुईं, मुझ पर प्रश्नों की झड़ी लगाये रहीं - मेरे माता-पिता कौन हैं जीवित हैं या नहीं, कहां रहते हैं और उनकी कितनी सम्पत्ति है ? यह सुनकर कि मेरे पिता जी के तीन सौ भूदास हैं, वे कह उठीं, "सच ! कितने अमीर लोग हैं इस दुनिया में ! इधर, हमारे यहां तो ले-देकर यही एक पालाशा नौकरानी है और भगवान की दया से कुछ बुरी ज़िन्दगी नहीं है हमारी। बस एक ही चिन्ता है - माशा शादी-ब्याह के लायक़ हो गयी है, लेकिन दहेज के नाम पर क्या है उसके पास ? फूटी कौड़ी भी नहीं । कोई भला आदमी मिल जाये, तो अच्छी बात है। नहीं तो बैठी रहेगी उम्र भर कुंआरी ही ।" मैंने मरीया इवानोव्ना की ओर देखा - शर्म से वह बिल्कुल लाल हो गयी थी और इतना ही नहीं, आंसू की एकाध बूंद भी उसकी प्लेट में टपक पड़ी थी। मुझे उस पर तरस आया और मैंने झटपट बातचीत का विषय बदल दिया । "मैंने सुना है," किसी प्रसंग के बिना ही मैं कह उठा, "कि आपके दुर्ग पर बश्कीरी लोग हमला करनेवाले हैं ।" "भैया, किससे सुना है तुमने यह ?" इवान कुज़्मिच ने पूछा । "ओरेनबुर्ग में सुनने को मिला था, मैंने जवाब दिया । "बेकार की बात है !" दुर्गपति ने कहा । "हमारे यहां एक अर्से से ऐसा कुछ सुनने में नहीं आ रहा। बश्कीरी लोग डरे हुए हैं और किर्ग़ीज़ियों का भी हमने दिमाग़ ठीक किया हुआ है। वे हमसे नहीं उलझेंगे और अगर उलझेंगे तो उनकी ऐसी तबीयत साफ़ की जायेगी कि दस बरस तक चूं नहीं करेंगे । ” – “इस तरह के खतरों का शिकार हो सकनेवाले दुर्ग में रहते हुए आपको डर नहीं लगता ?” मैंने दुर्गपति की पत्नी को सम्बोधित करते हुए पूछा । "आदत हो गयी है, भैया, ” उन्होंने उत्तर दिया । "बीस साल हो गये जब हमें यहां भेजा गया था और भगवान ही जानता है कि तब इन कमबख़्त काफ़िरों से मैं कितनी डरती थी ! कभी- कभी ऐसा भी होता था कि जैसे ही बन - बिलाव की उनकी टोपियां दिखाई देतीं, उनकी चीख - चिल्लाहट सुनाई पड़ती सच मानना मेरा दिल उसी वक़्त बैठ जाता ! मगर अब ऐसी आदत पड़ गयी है कि अगर कोई आकर यह कहता है कि ये शैतान लोग किसी बुरे इरादे से दुर्ग के आस-पास घूम रहे हैं, तो मैं अपनी जगह से टस से मस भी नहीं होती ।"

"वसिलीसा येगोरोव्ना बड़ी साहसी महिला हैं " श्वाबरिन ने बड़ी शान से कहा । "इवान कुज़्मिच मेरी इस बात की गवाही दे सकते हैं।"

"अरे हां, ” इवान कुज़्मिच बोले, "डरनेवाली औरतों में से नहीं है यह ।"

"और मरीया इवानोव्ना ?" मैंने पूछा, "क्या वह भी आपकी तरह ही साहसी है ?"

"कौन, माशा ?" मां ने उत्तर दिया, "माशा साहसी नहीं, डरपोक है। अभी तक गोली चलने की आवाज़ नहीं सुन सकती, सुनते ही सिर से पांव तक कांप उठती है । दो साल पहले इवान कुज़्मिच को क्या सूझी कि मेरे जन्मदिन पर तोप से सलामी दिलवा दी । मेरी यह बिटिया तो डर के मारे मरते-मरते बची। तब से हम कमबख्त तोप को कभी नहीं चलवाते ।"

हम लोग खाने की मेज़ पर से उठे । कप्तान और उनकी पत्नी सोने चले गये। मैं श्वाबरिन के साथ हो लिया और उसी की संगत में मैंने सारी शाम बितायी।

चौथा अध्याय : द्वन्द्व-युद्ध

कृपा करो, सम्मुख आ जाओ अपना खड्ग उठाये ।
निश्चय, मेरा खड्ग तुम्हारे आर-पार हो जाये !
कन्याजनिन

कुछ सप्ताह बीते और बेलोगोर्स्क के दुर्ग में मेरा जीवन न केवल बर्दाश्त करने के लायक़, बल्कि सुखद भी हो गया। दुर्गपति के यहां मुझे एक तरह से घर का आदमी ही समझा जाता था। पति-पत्नी, दोनों ही बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे । सैनिक का बेटा होते हुए अफ़सर बन जानेवाले इवान कुज़्मिच अनपढ़ तथा सीधे-सादे, किन्तु बहुत ही ईमानदार और दयालु व्यक्ति थे । उनकी पत्नी उन्हें अपने इशारों पर नचाती थीं जो उनकी नम्र तबीयत के बिल्कुल अनुरूप था । वसिलीसा येगोरोव्ना नौकरी के काम-काज को गिरस्ती के काम-धन्धे की तरह ही मानती थीं और दुर्ग का अपने घर की भांति ही संचालन करती थीं। मरीया इवानोव्ना ने जल्द ही मुझसे घबराना-कतराना बन्द कर दिया । हमारे बीच अच्छी जान-पहचान हो गयी। मैंने उसे समझदार और संवेदनशील लड़की पाया। मुझे पता भी नहीं चला और इस भले परिवार यहां तक कि काने लेफ्टिनेंट इवान इग्नातिच से भी मुझे लगाव हो गया, जिसके बारे में श्वाबरिन ने यह कपोल कल्पना की थी कि वसिलीसा येगोरोव्ना के साथ उसके अनुचित सम्बन्ध हैं, जबकि इसमें लेशमात्र भी सचाई नहीं थी । किन्तु श्वाबरिन की बला से ।

मुझे अफ़सर बना दिया गया था । मेरी ड्यूटी कोई ख़ास थकाने- वाली नहीं थी। भगवान ही जिसका मालिक था, इस तरह के इस दुर्ग में तो न कवायद होती थी, न सैनिक शिक्षण और न ही पहरा- रखवाली। दुर्गपति अपनी इच्छा से ही कभी - कभी अपने सैनिकों को कवायद करवाते थे, किन्तु अभी तक इतनी सफलता नहीं प्राप्त कर सके थे कि उन सबको दायें और बायें पहलू की पक्की जानकारी हो जाती, यद्यपि उनमें से अधिकांश दायें या बायें मुड़ने का आदेश मिलने पर इसलिये अपने ऊपर सलीब का निशान बनाते थे कि उनसे ग़लती न हो जाये। श्वाबरिन के पास कुछ फ़्रांसीसी भाषा की पुस्तकें थीं। मैं उन्हें पढ़ने लगा और मुझमें साहित्यिक रुचि जागृत होने लगी । सुबह के वक़्त मैं पढ़ता, अनुवाद करता और कभी-कभी कविता रचता । दिन का खाना लगभग हमेशा दुर्गपति के यहां ही खाता और आम तौर पर दिन का शेष भाग भी वहीं बिताता। किसी-किसी शाम को पादरी गेरासिम भी अपनी पत्नी अकुलीना पम्फ़ीलोव्ना के साथ, जो इस इलाक़े में ख़बरों- अफ़वाहों का भण्डार थी, यहां आते। जाहिर है कि श्वाबरिन के साथ मेरी लगभग हर दिन ही मुलाक़ात होती थी, लेकिन जैसे- जैसे वक़्त बीतता जाता था, उसकी बातचीत मेरे लिये अधिकाधिक अप्रिय होती जाती थी । दुर्गपति के परिवार के बारे में उसके हर दिन के मज़ाक़ मुझे अच्छे नहीं लगते थे, ख़ास तौर पर मरीया इवानोव्ना के सम्बन्ध में उसके तीखे - चुभते व्यंग्य | दुर्ग में ऐसे अन्य लोग नहीं थे जिनसे मिला-जुला जा सकता और मुझे इसकी चाह भी नहीं थी ।

भविष्यवाणियों के बावजूद बश्कीरियों ने कोई हंगामा नहीं किया । हमारे दुर्ग के सभी ओर शान्ति का बोलबाला था । किन्तु अप्रत्याशित आपसी झगडे से यह शान्ति भंग हो गयी ।

मैं पहले कह चुका हूं कि कुछ साहित्य-सृजन करने लगा था। उस समय को देखते हुए मेरे प्रयोग कुछ बुरे नहीं थे और कुछ वर्ष बाद अलेक्सान्द्र पेत्रोविच सुमारोकोव1 ने उनकी बड़ी प्रशंसा भी की ।

1. १८वीं शताब्दी ( १७१८ - १७७७ ) के एक नाटककार, १७१८-१७७७) और रूसी क्लासिकी साहित्य के एक प्रतिनिधि । सं० कवि

एक दिन मैंने एक ऐसा गीत रचा जिससे मुझे काफ़ी सन्तोष हुआ । यह तो सर्वविदित है कि सर्जक कभी-कभी सलाह लेने की आड़ में हमदर्द श्रोता को ढूंढ़ा करते हैं। चुनांचे अपने गीत की साफ़ नक़ल तैयार करके मैं श्वाबरिन के पास ले गया । दुर्ग में वही एक ऐसा व्यक्ति था जो कविता का मूल्यांकन कर सकता था। छोटी सी भूमिका बांधने के बाद मैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और उसे यह रचना सुनाई -

व्यर्थ यत्न करता हूं मैं तो
अपने मन से प्यार भुलाऊं,
प्यारी माशा से कतराकर
मुक्त हृदय को अपने पाऊं !

जिन आंखों ने मुग्ध किया है,
सम्मुख रहतीं मेरे हर क्षण,
लूट लिया है चैन हृदय का,
विह्वल, विकल किया मेरा मन ।

मर्म - वेदना तुमने जानी,
माशा, मुझ पर दया करो तुम,
मुझ पर जादू करनेवाली
मेरी पीड़ा, व्यथा हरो तुम ।

"कहो, कैसा लगा तुम्हें मेरा यह गीत ?” मैंने अधिकार के रूप में प्रशंसा की आशा करते हुए श्वाबरिन से पूछा । किन्तु मेरा दुर्भाग्य कहिये कि सामान्यतः बड़े शिष्ट श्वाबरिन ने दो टूक कह दिया कि मेरा गीत किसी काम का नहीं । "

"भला क्यों ?" अपनी खीझ को छिपाते हुए मैंने पूछा । " इस- लिये,” उसने जवाब दिया, “ कि ऐसी रचनाएं मेरे अध्यापक वसीली किरीलिच त्रेद्याकोव्स्की1 को शोभा देती हैं और वे मुझे उनके प्रेम- छन्दों की अत्यधिक याद दिलाती हैं ।"

1. १८ वीं शताब्दी के कवि और अनुवादक, रूसी छन्दशास्त्र के जोरदार समर्थक जिनकी कविताओं की उनके समकालीन अक्सर अकारण ही खिल्ली उड़ाते थे । - सं०

इतना कहकर उसने मेरी नोटबुक ले ली और बड़ी निर्दयता से हर छन्द और शब्द की आलोचना करने और बहुत ही चुभते ढंग से मेरा मज़ाक़ उड़ाने लगा । मुझसे यह बर्दाश्त नहीं हुआ, मैंने उसके हाथ से नोटबुक छीन ली और कहा कि भविष्य में कभी भी उसे अपनी रचना नहीं दिखाऊंगा । श्वाबरिन मेरी इस धमकी पर भी हंस दिया।

"देखेंगे, " उसने कहा, "तुम अपना यह वचन निभाओगे या नहीं - कवियों को श्रोता की वैसे ही अपेक्षा होती है जैसे इवान कुज़्मिच को भोजन के पहले वोदका की सुराही की । और यह माशा कौन है जिसके सामने तुमने अपनी कोमल भावनायें और प्रेम-वेदना प्रकट की है ? कहीं मरीया इवानोव्ना तो नहीं ?"

"तुम्हें इससे कोई मतलब नहीं, " मैंने नाक-भौंह सिकोड़ते हुए उत्तर दिया, “ कोई भी क्यों न हो यह माशा । मुझे न तो तुम्हारी राय की ज़रूरत है और न तुम्हारे अनुमानों की ।"

"ओहो ! बड़े आत्माभिमानी कवि और विनयशील प्रेमी हो !" मुझे लगातार अधिकाधिक चिढ़ाते हुए श्वाबरिन कहता गया । "तुम मेरी दोस्ताना सलाह पर कान दो - अगर कामयाबी चाहते हो, तो मेरे मशविरे पर अमल करो और गीतों - कविताओं के फेर में नहीं पड़ो।"

"इसका क्या मतलब है जनाब ? ज़रा समझाइये तो।"

"बड़ी खुशी से । इसका मतलब है, अगर तुम यह चाहते हो कि झुटपुटा हो जाने पर माशा तुम्हारे पास आया करे, तो प्रेम - कविता के बजाय उसे झुमकों की जोड़ी भेंट करो ।"

मेरा खून खौल उठा ।

"उसके बारे में तुम ऐसा क्यों कहते हो ?" बड़ी मुश्किल से अपने गुस्से पर काबू पाते हुए मैंने पूछा ।

"इसलिये, ” उसने बहुत ही क्रूर व्यंग्य करते हुए उत्तर दिया, "कि अपने अनुभव से उसके आचार-विचार और आदतों को जानता हूं।"

"तुम झूठ बोलते हो, कमीने!" मैं गुस्से से पागल होकर चिल्ला उठा, "बहुत ही बेहयाई से झूठ बोलते हो ।"

श्वाबरिन के चेहरे का रंग उड़ गया ।

"तुम्हें इसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी, ” उसने मेरा हाथ दबाते हुए कहा । "बदला लेकर मुझे अपना कलेजा ठण्डा करना होगा ।"

"जब चाहो ।" मैंने खुश होते हुए जवाब दिया। इस वक़्त मैं उसके टुकड़े-टुकड़े कर देने को तैयार था ।

मैं तत्काल इवान इग्नातिच की ओर रवाना हो गया और उसे हाथ में सूई लिये पाया - दुर्गपति की बीवी के कहने पर जाड़े के लिये खुमियां सुखाने को वह उन्हें धागों में पिरों रहा था ।

"अरे, प्योतर अन्द्रेइच ! " मुझे देखकर उसने कहा, “ पधारिये, पधारिये ! कैसे आना हुआ ? यह बताने की कृपा कीजिये कि किस काम के सिलसिले में आये हैं ? "

मैंने बहुत संक्षेप में उसे बताया कि अलेक्सेई इवानोविच के साथ मेरा झगड़ा हो गया है और चाहता हूं कि इवान इग्नातिच द्वन्द्व-युद्ध के समय मेरी ओर से मध्यस्थ रहे । इवान इग्नातिच ने अपनी एक आंख को फैलाये हुए बहुत ध्यान से मेरी बात सुनी ।

"आप यह कहना चाहते हैं, " उसने मुझसे कहा, "कि आप अलेक्सेई इवानोविच के बदन में तलवार घोंपना और मुझे उसका साक्षी बनाना चाहते हैं ? मैं पूछने की जुर्रत कर सकता हूं, यही बात है न ?"

"बिल्कुल यही ।"

"सुनिये तो प्योतर अन्द्रेइच ! यह क्या सूझी है आपको ! अलेक्सेई इवानोविच के साथ आपकी तू-तू मैं-मैं हो गयी ? तो क्या मुसीबत है ! गाली-गलौज से किसी का क्या बिगड़ता है ? उसने आपको गाली दी, आप उसे कोस लीजिये । वह आपकी थूथनी पर घूंसा मारता है, आप उसके कान पर । बस ऐसे ही हिसाब बराबर करके अलग हो जाइये । हम ज़रूर आपकी सुलह करवा देंगे। यह बताने की कृपा करें कि क्या अपने नज़दीकी आदमी के तन में तलवार घोंपना कोई अच्छी बात है ? वैसे यह तो कुछ बुरा नहीं होगा कि आप उसके, अलेक्सेई इवानोविच के तन में तलवार घोंप दें । कोई बात नहीं, खुद मुझे भी वह पसन्द नहीं है । लेकिन अगर उसने आपको बींध डाला तो ? तब क्या होगा ? यह बताने की कृपा करें कि तब कौन उल्लू बनेगा ?"

समझदार लेफ्टिनेंट के तर्क-वितर्क से मैं डगमगाया नहीं । मेरा इरादा ज्यों का त्यों बना रहा ।

"जैसा ठीक समझें, वैसा करें, इवान इग्नातिच ने कहा । मुझे गवाह बनकर क्या लेना है ? किसलिये ? लोग आपस में लड़ते-भिड़ते हैं, कौन-सी अनोखी बात है यह? भगवान की दया से मैं स्वीडों और तुर्कों से लड़ चुका हूं - सब कुछ देख चुका हूं ।"

मैंने इवान इग्नातिच को मध्यस्थ का कर्तव्य समझाने की पूरी कोशिश की, मगर वह उसे किसी भी तरह से समझ नहीं पाया ।

"आपकी मर्जी है," उसने कहा । "अगर मुझे इस मामले में दखल देना ही है, तो अपनी ड्यूटी बजाते हुए इवान कुज़्मिच को यह ख़बर देनी चाहिये कि दुर्ग में एक बुरी बात होनेवाली है जो सरकार के हितों के विरुद्ध है । श्रीमान दुर्गपति को क्या इसे रोकने के लिये क़दम नहीं उठाने चाहिये ... "

मैं डर गया और इवान इग्नातिच की मिन्नत समाजत करने लगा कि वह दुर्गपति से कुछ न कहे। बड़ी मुश्किल से मैंने उसे मनाया । उसने मुझे ऐसा न करने का वचन दिया और मैं वहां से चलता बना ।

सदा की भांति यह शाम भी मैंने दुर्गपति के यहां बिताई । मैंने अपने को रंग और मस्ती में ज़ाहिर करने की कोशिश की, ताकि किसी के दिल में कोई शक - शुबहा न पैदा हो और मुझसे खोद खोदकर सवाल न पूछे जायें। किन्तु मैं अपने पर वैसा संयम नहीं कर सका, जैसे मेरी जैसी स्थिति में होनेवाले लोग कर पाते हैं और जिसकी वे लगभग हमेशा डींग हांकते हैं। इस शाम को मैं कोमल भावनाओं और भावुकता की धारा में बह रहा था । अन्य दिनों की अपेक्षा मरीया इवानोव्ना मुझे कहीं अधिक अच्छी लग रही थी । यह विचार कि शायद आज उसे आखिरी बार देख रहा हूं, मेरी दृष्टि में उसे मर्मस्पर्शी बना रहा था । श्वाबरिन भी यहां आ गया। मैंने उसे एक ओर को ले जाकर इवान इग्नातिच के साथ हुई अपनी बातचीत बतायी । क्या ज़रूरत है हमें मध्यस्थों की ?” उसने रुखाई से कहा, “उनके बिना ही काम चला लेंगे।” हमने तय किया कि दुर्ग के निकट भूसे की टालों के पीछे अगले दिन सुबह के सात बजे द्वन्द्व-युद्ध करेंगे। सम्भवतः हम इतने मैत्रीपूर्ण ढंग से बातचीत कर रहे थे कि इवान इग्नातिच ने खुशी की तरंग में हमारा भंडाफोड़ कर दिया ।

"बहुत पहले से ऐसा होना चाहिये था, उसने प्रसन्न मुद्रा में मुझसे कहा,“ अच्छी लड़ाई से बुरी शान्ति बेहतर है, आदर की तुलना में स्वस्थ होना ज़्यादा अच्छा है ।"

"क्या क्या कहा तुमने इवान इग्नातिच ?" दुर्गपति की बीवी ने पूछा जो दूर कोने में बैठी हुई ताश के पत्तों से नजूम लगा रही थीं, और ये शब्द सुन नहीं पाई थीं।

मेरे चेहरे पर नाराज़गी का भाव देख और अपना वादा याद करके इवान इग्नातिच परेशान हो उठा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या उत्तर दे । श्वाबरिन ने उसकी मदद की ।

"इवान इग्नातिच हमारे बीच सुलह का अनुमोदन कर रहा है," उसने कहा ।

"किसके साथ तुम्हारा झगड़ा हो गया था, भैया ?"

"प्योतर अन्द्रेइच के साथ हमारा ख़ासा ज़ोरदार झगड़ा हो गया था।"

"वह किसलिये ?"

"बहुत ही मामूली - सी बात के लिये - गीत को लेकर, वसिलीसा येगोरोव्ना ।"

"झगड़े के लिये भी क्या चीज़ चुनी है ! गीत !.. कैसे हुआ यह ? "

"ऐसे हुआ कि प्योतर अन्द्रेइच ने कुछ ही समय पहले एक गीत रचा और आज उसे मेरे सामने गाने लगा। उधर मैंने अपना मनपसन्द गीत गाना शुरू कर दिया —

ओ बेटी कप्तान की सुनो, बात पर कान दो,
नहीं घूमने जाओ, आधी रात को ...

इसी बात पर झगड़ा हो गया । प्योतर अन्द्रेइच बिगड़ उठा, मगर बाद में उसने यह सोचा कि जो जैसे चाहे, वैसे ही गा सकता है । ऐसे मामला ख़त्म हो गया ।"

श्वाबरिन की ऐसी बेहयाई से मैं लगभग आग-बबूला हो गया, लेकिन उसके इन भोंडे कटाक्षों को मेरे सिवा और कोई नहीं समझा। कम से कम इतना तो था ही कि उनकी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया । गीत से कवियों की चर्चा चल पड़ी और दुर्गपति ने यह राय जाहिर की कि वे सभी दुराचारी और बड़े पियक्कड़ होते हैं तथा मैत्रीपूर्ण ढंग से मुझे यह सलाह दी कि मैं कवितायें रचने के फेर में न पडूं क्योंकि यह चीज़ फ़ौजी नौकरी के साथ मेल नहीं खाती और इसका कोई अच्छा नतीजा नहीं निकलेगा ।

श्वाबरिन की उपस्थिति मेरे लिये असह्य थी। कुछ ही देर बाद मैंने दुर्गपति और उनके परिवार से विदा ली, घर लौटकर अपनी तलवार को अच्छी तरह से देखा, उसकी नोक को जांचा-परखा और सावेलिच को सुबह के छः बजने के फ़ौरन बाद जगा देने को कहकर बिस्तर पर चला गया ।

अगले दिन मैं नियत समय पर भूसे की टालों के पीछे जाकर अपने प्रतिद्वन्द्वी की प्रतीक्षा करने लगा । शीघ्र ही वह भी आ गया । "यहां हम पकड़े जा सकते हैं, " उसने मुझसे कहा, "इसलिये जल्दी करनी चाहिये ।" हमने फ़ौजी कमीज़ें उतार दीं, केवल नीचे के कुरतों में रह गये और अपनी तलवारें निकाल लीं । इसी क्षण टाल के पीछे से अचानक इवान इग्नातिच और पांच अपाहिज फ़ौजी प्रकट हुए। इवान इग्नातिच ने दुर्गपति के सामने चलने को कहा। हमने बहुत दुखी मन से उसका कहना माना, सैनिकों ने हमें घेर लिया और हम इवान इग्नातिच के पीछे-पीछे, जो विजेता की तरह बड़ी अनूठी शान से क़दम बढ़ा रहा था, दुर्ग की ओर चल दिये ।

हमने दुर्गपति के घर में प्रवेश किया, इवान इग्नातिच ने दरवाज़ा खोला और उत्साहपूर्वक घोषणा की, " ले आया हूं। " वसिलीसा येगोरोव्ना हमारे सामने थीं। "ओह, मेरे प्यारो ! यह सब क्या है ? क्यों ? किसलिये ? हमारे दुर्ग में हत्या की जाये ? इवान कुज़्मिच, इन्हें इसी समय गिरफ़्तार करने का हुक्म दो ! प्योतर अन्द्रेइच ! अलेक्सेई इवानोविच ! अपनी तलवारें इधर दे दो, दे दो इधर ! पालाशा, इन तलवारों को कोठरी में रख आओ । प्योतर अन्द्रेइच ! तुमसे मैंने यह आशा नहीं की थी । तुम्हें शर्म नहीं आती ? अलेक्सेई इवानोविच की बात दूसरी है, उसे तो हत्या करने के लिये गार्ड- सेना से अलग किया गया, वह भगवान को नहीं मानता, मगर तुम्हें, तुम्हें क्या हो गया ? तुम भी उसी रास्ते पर चलना चाहते हो ?”

इवान कुज़्मिच अपनी पत्नी के साथ पूरी तरह सहमत थे और बार-बार यही कहते जाते थे, “सुनते हो न, वसिलीसा येगोरोव्ना बिल्कुल ठीक कह रही हैं । सेना की नियमावली के अनुसार द्वन्द्व-युद्धों की औपचारिक रूप से मनाही है ।" इसी बीच पालाशा हमारी तलवारें लेकर उन्हें कोठरी में रख आई । मैं हंसे बिना नहीं रह सका । श्वाबरिन अपनी शान बनाये रहा । आपके प्रति अपनी पूरी आदर भावना के बावजूद, उसने वसिलीसा येगोरोव्ना को सम्बोधित करते हुए रुखाई से कहा, “मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि व्यर्थ ही आप हम लोगों के बारे में निर्णय करने का कष्ट कर रही हैं। यह काम इवान कुज़्मिच का है, उन्हीं को करने दीजिये ।"

"ओह, मेरे भैया ! " दुर्गपति की पत्नी ने उसकी बात काटी, " क्या पति-पत्नी एक तन और एक ही जान नहीं होते ? इवान कुज़्मिच ! तुम बैठ-बैठे क्या देख रहे हो ? इसी वक़्त इन्हें अलग-अलग कोनों में रोटी और पानी के राशन पर बिठा दो, ताकि इनके दिमाग़ों से बेवक़फ़ी का भूत निकल जाये। हां, और पादरी गेरासिम से कहो कि इन पर पूजा-पाठ का दण्ड लगा दें, ताकि ये भगवान से क्षमा मांगें और लोगों के सामने प्रायश्चित करें ।"

इवान कुज़्मिच समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें। मरीया इवानोव्ना के चेहरे का तो बिल्कुल रंग उड़ा हुआ था। तूफ़ान धीरे-धीरे शान्त हो गया। वसिलीसा येगोरोव्ना का गुस्सा ठण्डा पड़ गया और उन्होंने हम दोनों को गले मिलने और चूमने के लिये विवश किया । पालाशा ने हमें हमारी तलवारें वापस ला दीं ।

दुर्गपति के घर से हम दोनों स्पष्टतः सुलह किये हुए बाहर निकले । इवान इग्नातिच हमारे साथ था। "शर्म आनी चाहिये, आपको," मैंने झल्लाकर उससे कहा, “दुर्गपति के पास जाकर हमारे बारे में मुखबिरी की, जबकि मुझसे ऐसा न करने का वादा कर चुके थे ?"

-"भगवान जानता है, मैंने इवान कुज़्मिच को यह नहीं बताया," उसने उत्तर दिया, "वसिलीसा येगोरोव्ना ने मुझसे यह सब उगलवा लिया। उन्होंने ही दुर्गपति की जानकारी के बिना यह सारी व्यवस्था कर दी। वैसे, भला हो भगवान का कि यह मामला ऐसे ख़त्म हो गया ।" इतना कहकर वह घर वापस चला गया और मैं तथा श्वाबरिन ही रह गये । "हमारा क़िस्सा ऐसे ही खत्म नहीं हो सकता," मैंने उससे कहा । "बेशक," श्वाबरिन ने जवाब दिया, “अपनी गुस्ताखी के लिये आपको अपने खून से क़ीमत चुकानी पड़ेगी । किन्तु हम पर सम्भवतः नज़र रखी जायेगी । हमें कुछ दिनों तक ढोंग करना पड़ेगा । नमस्ते !" और हम ऐसे अलग हो गये मानो कोई बात ही न हुई हो ।

दुर्गपति के घर लौटकर मैं सदा की भांति मरीया इवानोव्ना के पास बैठ गया। इवान कुज़्मिच घर पर नहीं थे । वसिलीसा येगोरोव्ना घर-गिरस्ती के काम में व्यस्त थीं । हम दोनों बहुत धीमे-धीमे बातचीत कर रहे थे । मरीया इवानोव्ना कोमल शब्दों में उस परेशानी के लिये मेरी भर्त्सना कर रही थी जो श्वाबरिन के साथ मेरे झगड़े के कारण हुई थी ।

"मेरी तो जान ही निकल गयी," वह बोली, "जब हमें यह बताया गया कि आप दोनों तलवारों से लड़ने का इरादा रखते हैं । मर्द कैसे अजीब होते हैं ! एक शब्द के लिये, जिसे वे निश्चय ही एक सप्ताह बाद भूल जायेंगे एक-दूसरे का गला काटने और न केवल अपने जीवन और आत्मा की ही बलि देने को तैयार हो जाते हैं, बल्कि उन लोगों के सुख-कल्याण की भी, जो ... किन्तु मुझे विश्वास है कि झगड़ा आपने आरम्भ नहीं किया होगा । अवश्य अलेक्सेई इवानोविच ही दोषी होगा ।"

"आप ऐसा क्यों सोचती हैं, मरीया इवानोव्ना ?"

"यों ही ...वह हमेशा मज़ाक़ उड़ाता रहता है ! अलेक्सेई इवानोविच मुझे अच्छा नहीं लगता । फूटी आंखों नहीं सुहाता । फिर भी यह अजीब बात है कि मैं उसे अच्छी न लगूं, ऐसा मैं नहीं चाहूंगी। मेरे दिल को इससे दुख होगा ।"

"मरीया इवानोव्ना, क्या ख़्याल है आपका, आप उसे अच्छी लगती हैं या नहीं ?"

मरीया इवानोव्ना हकलायी और उसके चेहरे पर लाली दौड़ गयी ।

"मुझे लगता है," उसने कहा, "मैं सोचती हूं कि अच्छी लगती हूं।"

"क्यों आपको ऐसा लगता है ? "

"क्योंकि उसने मेरे साथ अपनी सगाई करनी चाही थी ।"

"सगाई करनी चाही थी ! उसने आपके साथ ? कब ? "

"पिछले साल । आपके आने के दो महीने पहले ।"

"और आप इसके लिये तैयार नहीं हुईं ?"

"जैसा कि देख रहे हैं। अलेक्सेई इवानोविच बेशक समझदार आदमी है, अच्छे घर-बार से ताल्लुक़ रखता है, पैसेवाला है। किन्तु जैसे ही यह ख़्याल आता है कि गिरजे में सबके सामने उसे चूमना पड़ेगा ... तो मैं हरगिज़ ऐसा नहीं करना चाहती ! दुनिया की किसी भी नेमत के लिये नहीं !"

मरीया इवानोव्ना के शब्दों से मेरी आंखें खुल गयीं, बहुत-सी बातें स्पष्ट हो गयीं । श्वाबरिन उसके बारे में हमेशा जो गन्दी बातें कहता था, मैं अब उसका कारण समझ गया था । सम्भवतः एक-दूसरे के प्रति हमारे झुकाव की ओर उसका ध्यान गया था और उसने हमारे बीच खाई पैदा करने की कोशिश की थी। हमारे झगड़े का कारण बननेवाले शब्द मुझे अब और भी घटिया लगे, जब भद्दे तथा अश्लील कटाक्षों के साथ-साथ मुझे उनमें जान-बूझकर की जानेवाली बदनामी भी साफ़ दिखाई दी। मेरे मन में दूसरों पर कीचड़ उछालनेवाले इस गुस्ताख़ को सज़ा देने की इच्छा और भी तीव्र हो गयी तथा मैं बड़ी बेसब्री से उचित अवसर पाने की राह देखने लगा ।

मुझे अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। अगले दिन जब मैं शोक-गीत रच रहा था और तुक के इन्तज़ार में लेखनी का सिरा कुतर रहा था, श्वाबरिन ने मेरी खिड़की पर दस्तक दी। मैंने क़लम नीचे रख दी और तलवार लेकर उसके पास बाहर चला गया । "मामले को टालने की क्या ज़रूरत है ?" श्वाबरिन ने मुझसे कहा, “हम पर नज़र नहीं रखी जा रही है। नदी पर चलते हैं। वहां कोई खलल नहीं डालेगा ।"

हम चुपचाप चल दिये । खड़ी पगडंडी से नीचे उतरकर हम नदी के बिल्कुल पास रुक गये और हमने तलवारें निकाल लीं । श्वाबरिन मुझसे ज़्यादा दक्ष था, मगर मैं अधिक ताक़तवर और साहसी । इसके अलावा श्रीमान बोप्रे ने, जो कभी सैनिक रह चुका था, मुझे पटेबाज़ी के जो कुछ दांव-पेच सिखाये थे, मैंने अब उन्हीं का उपयोग किया । श्वाबरिन को यह आशा नहीं थी कि मेरे रूप में उसे ऐसे ज़ोरदार प्रति- द्वन्द्वी का सामना करना पड़ेगा। देर तक हम एक-दूसरे को किसी तरह की हानि नहीं पहुंचा सके और आखिर यह देखकर कि श्वाबरिन की ताक़त जवाब देती जा रही है, मैं अधिक दिलेरी से उस पर वार करने लगा और उसे लगभग नदी तक पीछे हटा दिया । सहसा मुझे बहुत ऊंची आवाज़ में अपना नाम सुनाई दिया। मैंने मुड़कर देखा, तो मुझे सावेलिच पहाड़ी पगडंडी से नीचे भागा आता नज़र आया... इसी समय दायें कंधे के नीचे मुझे अपनी छाती में ज़ोर का दर्द महसूस हुआ । मैं गिर पड़ा और बेहोश हो गया ।

पांचवां अध्याय : प्रेम

अभी उमरिया छोटी है सुन्दर युवती !
अभी न सोचो, अभी न सोचो शादी की,
पूछो अपने बापू से, तुम अम्मां से,
बापू से, अम्मां से, रिश्तेदारों से,
अक्ल-समझ तुम थोरी-सी जानो, समझो,
समझ-बूझ भी कुछ दहेज संचित कर लो।
(लोक गीत)

मुझसे अच्छा मिला अगर कोई तुमको भूल मुझे तुम जाओगी,
बुरा मिला यदि मुझसे कोई, दिल में मुझे बसाओगी ।
(लोक गीत)

होश आने पर कुछ समय तक मैं यह याद नहीं कर सका और समझ नहीं पाया कि मेरे साथ हुआ क्या था । मैं एक अनजाने-अपरिचित कमरे में लेटा हुआ था और बड़ी कमजोरी महसूस कर रहा था। हाथ में मोमबत्ती लिये हुए सावेलिच मेरे सामने खड़ा था। कोई मेरी छाती और कंधे पर बंधी हुई पट्टी को बड़ी सावधानी से खोल रहा था । धीरे-धीरे मेरे विचारों में स्पष्टता आने लगी। मुझे अपना द्वन्द्व-युद्ध याद हो आया और यह भांप गया कि मैं घायल हो गया था। इसी क्षण चूं-चीं करता हुआ दरवाज़ा खुला । "कहो, कैसा है ?" किसी ने फुसफुसाकर पूछा और इस आवाज़ से मेरे बदन में झुरझुरी-सी दौड़ गयी। "उसी, पहले जैसी हालत में ही, " सावेलिच ने गहरी उसांस छोड़ते हुए कहा, "पांच दिन हो गये, वही मूर्च्छा बनी हुई है।"

मैंने करवट लेनी चाही, किन्तु ऐसा नहीं कर सका। “मैं कहां यहां कौन है?” मैंने बड़ी मुश्किल से पूछा । मरीया इवानोव्ना मेरे पलंग के पास आई और मेरी ओर झुककर उसने पूछा, “ कैसी तबीयत है आपकी ?” – “ भगवान की कृपा है," मैंने बड़ी क्षीण-सी आवाज़ में जवाब दिया । " यह आप हैं मरीया इवानोव्ना ? मुझे बताइये ... मुझमें अपनी बात जारी रखने की शक्ति नहीं थी और मैं चुप हो गया ।

सावेलिच ने हर्षोच्छ्वास छोड़ा। उसके चेहरे पर खुशी झलक उठी । "होश आ गया ! होश आ गया ! " वह दोहरा रहा था । " भला हो भगवान तुम्हारा ! भैया, प्योतर अन्द्रेइच ! तुमने तो मुझे डरा ही दिया था ! मामूली बात है क्या ? पांच दिन तक बेहोशी !.. " मरीया इवानोव्ना ने उसे टोक दिया । "उसके साथ ज़्यादा बात नहीं करो, सावेलिच, " वह बोली "वह अभी कमज़ोर है ।" वह धीरे से दरवाज़ा बन्द करके बाहर चली गयी। मेरे विचारों में हलचल जारी थी। तो मैं दुर्गपति के घर में था । मरीया इवानोव्ना मेरा हालचाल जानने के लिये आयी थी । मैंने सावेलिच से कुछ प्रश्न पूछने चाहे, किन्तु बुड्ढे ने सिर हिला दिया और कानों में उंगलियां ठूंस लीं। मैंने निराशा से आंखें मूंद लीं और जल्द ही नींद में खो गया ।

आंख खुलने पर मैंने सावेलिच को पुकारा और उसकी जगह मरीया इवानोव्ना को अपने सामने पाया । अपनी मृदुल आवाज़ में उसने मेरा अभिवादन किया । इस क्षण मैं जिस मधुर भावना से ओतप्रोत हो गया, उसे व्यक्त नहीं कर सकता। मैंने उसका हाथ पकड़कर अपने होंठों से लगा लिया और उसे खुशी के आंसुओं से तर कर दिया । माशा ने अपना हाथ छुड़ाया नहीं ... अचानक उसके होंठों ने मेरे गालों को छुआ और मुझे उनके गर्म और ताज़ा चुम्बन की अनुभूति हुई। मेरे बदन में बिजली-सी दौड़ गई। “ मेरी प्यारी, मेरी अच्छी मरीया इवानोव्ना, मैंने उससे कहा, “ मेरे सुख के लिये मेरी पत्नी बनना स्वीकार करो ।" वह सम्भली। "भगवान के लिये शान्त हो जाइये," अपना हाथ छुड़ाते हुए उसने कहा । " आप अभी खतरे से बाहर नहीं हुए हैं, घाव खुल सकता है। और कुछ नहीं तो मेरी खातिर ही अपनी चिन्ता कीजिये ।" इतना कहकर और मुझे खुशी से मदहोश-सा बनाकर वह चली गयी। खुशी ने मुझे नई ज़िन्दगी दे दी। वह मेरी हो जायेगी ! वह मुझे प्यार करती है ! मेरा रोम-रोम इस विचार से पुलकित हो उठा।

इस क्षण से मेरी तबीयत लगातार बेहतर होने लगी । रेजिमेंट का नाई मेरी चिकित्सा कर रहा था, क्योंकि दुर्ग में कोई दूसरा चिकित्सक नहीं था और भला हो भगवान का वह मुझ पर अपने तजरबे नहीं करता था । जवानी और प्रकृति ने मेरे जल्दी से स्वस्थ होने में योग दिया। दुर्गपति का सारा परिवार मेरी देख-भाल करता था । मरीया इवानोव्ना तो मेरे बिस्तर के पास से हटती ही नहीं थी। जाहिर है कि पहला अच्छा अवसर मिलते ही मैंने अपने प्रेम- निवेदन की बात चलाई, जो अधूरी रह गयी थी और मरीया इवानोव्ना ने बड़े सब्र से उसे सुना । उसने किसी प्रकार की झेंप-झिझक के बिना मेरे प्रति अपने हृदय के झुकाव को स्वीकार कर लिया और कहा कि उसके माता-पिता तो उसके सुख-सौभाग्य से खुश होंगे। "लेकिन तुम अच्छी तरह से यह सोच लो," उसने इतना और जोड़ दिया, " कि तुम्हारे माता-पिता की ओर से तो कोई बाधा नहीं होगी ?"

मैं सोच में पड़ गया। मां के हृदय की कोमलता के बारे में तो मुझे कोई सन्देह नहीं था, किन्तु पिता जी के मिज़ाज और आचार- विचार को जानते हुए मैंने यह अनुभव किया कि मेरा प्यार उनके हृदय को बहुत नहीं छुएगा और वे इसे एक जवान आदमी की सनक मानेंगे। मैंने सच्चे मन से मरीया इवानोव्ना के सामने इस बात को स्वीकार कर लिया और फिर भी यह तय किया कि पिता जी को यथासम्भव बहुत अच्छे ढंग से पत्र लिखूंगा और उनसे आशीर्वाद देने को कहूंगा। मैंने वह पत्र मरीया इवानोव्ना को दिखाया । उसे वह इतना प्रभावपूर्ण और मर्मस्पर्शी लगा कि सफलता का तनिक भी सन्देह नहीं रहा तथा जवानी और प्रेम की पूरी विश्वसनीयता के साथ उसने अपने को अपने मन की कोमल भावनाओं के अधीन कर दिया ।

स्वस्थ होने के पहले ही दिन मैंने श्वाबरिन से सुलह कर ली । द्वन्द्व-युद्ध के लिये मुझे झिड़कते हुए इवान कुज़िमच ने मुझसे कहा, “ ओह, प्योतर अन्द्रेइच ! वैसे तो मुझे तुम्हें हिरासत में लेने का आदेश देना चाहिये था, किन्तु तुम्हें तो इसके बिना ही काफ़ी सज़ा मिल गयी है। अलेक्सेई इवानोविच तो अनाज की खत्ती में पहरे में बैठा है और उसकी तलवार वसिलीसा येगोरोव्ना ने ताले में बन्द कर रखी है । अच्छा है कि वहां बैठकर अपने किये पर सोचे विचारे और पछताये ।" मैं इतना अधिक खुश था कि मेरे मन में किसी के लिये मैल नहीं रह सकता था, इसलिये मैं श्वाबरिन को क्षमा कर देने का अनुरोध करने लगा और दयालु दुर्गपति ने अपनी पत्नी की अनुमति लेकर उसे छोड़ देने का निर्णय किया । श्वाबरिन मेरे पास आया, जो कुछ हुआ था, उसने उसके लिये बड़ा अफ़सोस जाहिर किया, यह माना कि सारा दोष उसी का है और मुझसे यह प्रार्थना की कि जो कुछ हुआ था, मैं उसे भूल जाऊं । स्वभाव से ही किसी के प्रति वैर भाव न रखने के कारण मैंने हमारे बीच हुए झगड़े और उसके द्वारा किये गये घाव के लिये उसे सच्चे मन से क्षमा कर दिया । उसके झूठे लांछनों को मैंने उसके अहंभाव को लगी ठेस और ठुकराये गये प्यार की खीझ माना और बड़ी उदारता से अपने इस अभागे प्रतिद्वन्द्वी को माफ़ कर दिया ।

जल्द ही मैं बिल्कुल स्वस्थ होकर अपने क्वार्टर में चला गया । मैं बडी बेचैनी-बेसब्री से पिता जी को भेजे गये पत्र के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था, किसी तरह की आशा नहीं रखता था और मन में पहले से ही आनेवाले निराशा के विचारों को दबाने का प्रयास करता था । वसिलीसा येगोरोव्ना और उनके पति से मैंने अपने मन की बात नहीं कही थी, किन्तु मेरे प्रस्ताव से उन्हें आश्चर्य नहीं होना चाहिये था । कारण कि न तो मरीया इवानोव्ना और न मैं ही उनसे अपनी भावनाओं को छिपाता था और हमें पहले से ही इस बात का यक़ीन था कि वे सहमत होंगे।

आखिर एक सुबह को सावेलिच खत लिये हुए मेरे पास आया । मैंने धड़कते दिल से उसे झपट लिया। उस पर पता पिता जी के हाथ से लिखा हुआ था। इसी चीज़ ने मुझे किसी महत्त्वपूर्ण बात के लिये तैयार कर दिया। कारण कि सामान्यतः मां ही मुझे पत्र लिखती थीं और पिता जी अन्त में कुछ पंक्तियां जोड़ देते थे। देर तक मैंने लिफ़ाफ़ा नहीं खोला और औपचारिकतापूर्ण इस पते को पढ़ता रहा मेरे बेटे प्योतर अन्द्रेइच ग्रिनेव को, ओरेनबर्ग गुबेर्निया, बेलोगोर्स्क दुर्ग "।

मैंने लिखावट से पिता जी के मूड का अनुमान लगाने का यत्न किया । आख़िर मैंने पत्र खोला और पहली पंक्तियां पढ़ते ही यह समझ गया कि सब कुछ चौपट हो गया । पत्र में यह लिखा था-

"मेरे बेटे प्योतर ! तुम्हारा वह पत्र, जिसमें तुमने मिरोनोव की बेटी मरीया इवानोव्ना से विवाह करने के लिये हमारा, माता- पिता का आशीर्वाद और सहमति मांगी है, इस मास की १५वीं तिथि को हमें प्राप्त हुआ और मैं न केवल तुम्हें अपना आशीर्वाद और सहमति देने को तैयार नहीं हूं, बल्कि तुम तक पहुंचना और तुम्हारी शैतानियों के लिये तुम्हारे अफ़सरी के पद के बावजूद एक छोकरे की तरह तुम्हारी अच्छी तरह से ख़बर लेना चाहता हूं, क्योंकि तुमने यह दिखा दिया है कि अभी उस तलवार को अपने पास रखने के योग्य नहीं हुए हो जो तुम्हें मातृभूमि की रक्षा के लिये सौंपी गयी है, न कि तुम्हारे ही जैसे किसी ऊधमी के साथ द्वन्द्व-युद्ध करने के लिये । इसी समय अन्द्रेई कार्लोविच को लिखूंगा और यह अनुरोध करूंगा कि तुम्हें बेलोगोर्स्क के दुर्ग से कहीं दूर भेज दे, जहां तुम्हारे सिर से यह भूत उतर जाये । तुम्हारे द्वन्द्व-युद्ध के बारे में, और यह जानकर कि तुम घायल हो गये हो, तुम्हारी मां दुख के कारण बीमार हो गयी और अब बिस्तर थामे है। जाने तुम्हारा क्या बनेगा ? भगवान से प्रार्थना करता हूं कि तुम सुधर जाओ, यद्यपि उसकी अपार कृपा की आशा करने का भी साहस नहीं करता हूं ।

तुम्हारा पिता अ० ग०

पत्र को पढ़कर मेरे मन में विभिन्न भावनायें आईं। कठोर वाक्यों से, जिनके मामले में पिता जी ने बड़ी उदारता दिखाई थी, मेरे दिल को गहरी ठेस लगी । मरीया इवानोव्ना की उन्होंने जिस उपेक्षा से चर्चा की थी, वह मुझे न केवल भद्दी, बल्कि अनुचित भी लगी । बेलोगोर्स्क दुर्ग से दूसरी जगह पर भेज दिये जाने के विचार से मैं दहल उठा, किन्तु सबसे अधिक तो मुझे मां की बीमारी की खबर पाकर दुख हुआ । इस बात के बारे में तनिक भी सन्देह न करते हुए कि मेरे माता-पिता को मेरे इस द्वन्द्व-युद्ध की ख़बर सावेलिच के ज़रिये ही मिली है, मुझे उस पर गुस्सा आ रहा था । अपने छोटे से कमरे में इधर-उधर चक्कर काटते हुए मैं उसके सामने रुका और रौद्र दृष्टि से उसकी ओर देखते हुए बोला, “लगता है, तुम्हें इसी से सन्तोष नहीं हुआ कि तुम्हारे कारण मैं घायल हो गया और एक महीने तक मौत के दरवाज़े पर दस्तक देता रहा । तुम मेरी मां की भी जान लेना चाहते हो ।" सावेलिच पर तो मानो वज्रपात हुआ । "यह क्या कह रहे हो तुम, छोटे मालिक ?” उसने लगभग सिसकते हुए कहा । " मैं कारण हूं तुम्हारे घायल होने का ! भगवान जानता है, मैं तो इसीलिये तुम्हारे पास भागा हुआ आ रहा था कि अपनी छाती सामने करके तुम्हें अलेक्सेई इवानोविच की तलवार से बचा लूं ! कमबख्त बुढ़ापा मेरे आड़े आ गया। और तुम्हारी माता जी के साथ मैंने क्या बुराई की है ?"-" क्या बुराई की है तुमने ?” मैंने प्रश्न करते हुए उत्तर दिया । "किसने तुम्हें मेरी चुगली लिखने को कहा था ? क्या तुम्हें मेरी जासूसी करने के लिये मुझ पर तैनात किया गया है ? "-" मैंने ? मैंने तुम्हारे बारे में चुगली लिखी ?” सावेलिच ने आंसू बहाते हुए कहा । " हे मेरे ईश्वर ! तो कृपया वह पढ़ लो जो बड़े मालिक ने मुझे लिखा है और तुम जान जाओगे कि कैसी चुगली की है मैंने तुम्हारी । " इतना कहकर उसने जेब से पत्र निकाला और मैंने उसमें यह पढ़ा-

"तुम्हें, बुड्ढे कुत्ते को शर्म आनी चाहिये कि मेरी कड़ी हिदायत के बावजूद तुमने मेरे बेटे प्योतर अन्द्रेइच के बारे में कुछ नहीं लिखा और पराये लोगों को मुझे उसकी शरारतों की सूचना देने को विवश होना पड़ा है। तो इस तरह तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो और अपने मालिक की इच्छा पूरी कर रहे हो ? तुम्हें, बुड्ढे कुत्ते को सचाई छिपाने और नौजवान के साथ मिली भगत करने के लिये सूअरों की देख-भाल के काम में लगाऊंगा। पत्र मिलते ही तुम्हें फ़ौरन यह लिखने का आदेश देता हूं कि अब उसका स्वास्थ्य कैसा है, जिसके बारे में मुझे लिखा गया है कि सुधर रहा है। हां, और यह भी लिखना कि घाव किस जगह पर है तथा उसका ढंग से इलाज हो रहा है या नहीं ।"

यह स्पष्ट था कि सावेलिच मेरे सामने दोषी नहीं था और मैंने व्यर्थ ही ताने-बोलियों से तथा सन्देह प्रकट करके उसका अपमान किया था। मैंने उससे क्षमा मांगी, किन्तु बूढ़े को इससे चैन नहीं हुआ । "कैसे दिन देखने पड़े हैं मुझे, वह दोहराता जा रहा था, क्या- क्या इनाम मिले हैं मुझे अपने मालिकों से ! मैं ही बुड्ढा कुत्ता हूं, मैं ही सूअर-पालक हूं, मैं ही तुम्हारे घाव का कारण हूं ? नहीं, मेरे छोटे मालिक प्योतर अन्द्रेइच ! मैं नहीं, वह कमबख्त फ़्रांसीसी ही दोषी है इस सबके लिये-उसी ने तुम्हें लोहे की सलाखें घोंपना और ज़मीन पर पांव पटकना सिखाया है मानो सलाखें घोंपने और पांव पटकने की बदौलत दुष्ट आदमी से बचा जा सकता है ! बड़ी ज़रूरत थी उस फ़्रांसीसी को नौकर रखने और उस पर बेकार पैसा खर्च करने की !"

तो पिता जी को मेरी हरकत की ख़बर देने की तकलीफ़ किसने उठाई ? जनरल ने ? किन्तु लगता है कि उसे तो मेरी बहुत फ़िक्र नहीं थी । इवान कुज्मिच को मेरे द्वन्द्व-युद्ध की सूचना देने की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई होगी। मैं अनुमानों में खो गया । श्वाबरिन पर ही मुझे सन्देह हुआ । केवल उसे ही इस चुगली से लाभ हो सकता था, क्योंकि इसके फलस्वरूप मुझे इस दुर्ग से किसी दूसरी जगह भेजा जा सकता था और दुर्गपति के परिवार से मेरा नाता टूट सकता था । मैं इस सब के बारे में मरीया इवानोव्ना को बताने गया । उसके साथ ड्योढ़ी में मेरी भेंट हुई। "आपको क्या हुआ है ?" मुझे देखकर उसने कहा, कितना पीला चेहरा है आपका ! "-" सब कुछ खत्म हो गया ! मैंने जवाब दिया और उसे पिता जी का पत्र दे दिया । अब उसके चेहरे का रंग उड़ गया। पत्र पढ़कर उसने कांपते हाथ से उसे मुझे लौटा दिया और कांपती आवाज़ में कहा, लगता है कि मेरी क़िस्मत में यह नहीं लिखा है ... आपके माता- पिता मुझे अपने परिवार में नहीं लेना चाहते। भगवान को जो मंजूर है, वही हो ! भगवान हमसे ज़्यादा अच्छी तरह यह जानता है कि हमारे लिये क्या अच्छा है। हो ही क्या सकता है प्योतर अन्द्रेइच, कम से कम आप सुखी रहें...."-"यह नहीं होगा !" उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैं चिल्ला उठा, "तुम मुझे प्यार करती हो, मैं हर चीज़ के लिये तैयार हूं । चलो, हम तुम्हारे माता-पिता के पांव पकड़ लेते हैं, वे सीधे-सादे लोग हैं, घमण्ड से उनके दिल कठोर नहीं हुए हैं... वे हमें आशीर्वाद दे देंगे, हम शादी कर लेंगे ... बाद में, मुझे यक़ीन है कि कुछ वक्त बीतने पर हम मेरे पिता जी को भी मना लेंगे, मां हमारा पक्ष लेंगी और पिता जी मुझे क्षमा कर देंगे ..."-"नहीं, प्योतर अन्द्रेइच," माशा ने जवाब दिया, “तुम्हारे माता-पिता के आशीर्वाद के बिना मैं तुमसे शादी नहीं करूंगी। उनके आशीर्वाद के बिना तुम सुखी नहीं हो सकोगे। भगवान जैसे चाहता है, हम वैसा ही मान लेते हैं। अगर भाग्य में लिखी पत्नी मिल जाये या किसी दूसरी को प्यार करने लगो, तो भगवान तुम्हारा भला करे । मैं तुम दोनों के लिये प्रार्थना करूंगी ..." इतना कहकर वह रो पड़ी और चली गयी। मैंने उसके पीछे-पीछे कमरे में जाना चाहा, किन्तु यह अनुभव किया कि अपनी भावनाओं को वश में करने में असमर्थ हूं और इसलिये अपने यहां लौट आया ।

मैं विचारों में गहरा डूबा हुआ था कि अचानक सावेलिच ने आकर मेरे ख्यालों में खलल डाल दिया । "तो यह लो मालिक," उसने लिखा हुआ एक काग़ज़ मुझे देते हुए कहा, “ इसे पढ़कर यह जान लो कि मैं अपने मालिक की निन्दा-चुगली करता हूं और बेटे तथा पिता के बीच झगड़ा करवाना चाहता हूं या नहीं ।" मैंने उसके हाथ से काग़ज़ ले लिया । यह उसके द्वारा प्राप्त पत्र का उत्तर था । मैं उसे ज्यों का त्यों यहां दे रहा हूं-

“माननीय अन्द्रेई पेत्रोविच,
मेरे कृपालु स्वामी !

आपका कृपापत्र मुझे मिला जिसमें आपने मुझ पर, अपने इस दास पर क्रोध प्रकट किया है कि आपका, अपने स्वामी का आदेश न मानने के लिये मुझे शर्म आनी चाहिये । किन्तु मैं बूढ़ा कुत्ता नहीं, आपका सच्चा सेवक हूं, स्वामी का आदेश मानता हूं, सदा तन-मन से आपकी सेवा करता रहा हूं और ऐसा करते हुए ही मेरे बाल सफ़ेद हो गये हैं। प्योतर अन्द्रेइच के घाव के बारे में मैंने आपको कुछ नहीं लिखा, ताकि व्यर्थ आपको न डराऊं, अब यह सुनता हूं कि हमारी स्वामिनी, हमारी माता जी अब्दोत्या वसील्येना घबराहट के कारण बीमार पड़ गयी हैं और उनके स्वास्थ्य के लिये मैं भगवान का नाम जपूंगा। प्योतर अन्द्रेइच को दायें कंधे के नीचे छाती में हड्डी के बिल्कुल नीचे घाव लगा था, डेढ़ इंच गहरा था, वह दुर्गपति के घर में रहा, जहां हम उसे नदी तट से लाये थे और स्थानीय नाई स्तेपान पारामोनोव उसकी चिकित्सा करता रहा। भगवान की कृपा से प्योतर अन्द्रेइच अब स्वस्थ है और उसके बारे में अच्छा लिखने के सिवा और कुछ लिख ही नहीं सकता । सुना है, उसके अफ़सर उससे खुश हैं और वसिलीसा येगोरोव्ना उसे बेटे की तरह मानती हैं। उसके साथ अगर ऐसी अजीब बात हो गयी है, तो यह जवानी के लिये कोई अपमान नहीं-चार टांगें होने पर भी घोड़ा ठोकर खा जाता है। आपने यह लिखने की भी कृपा की है कि मुझे सूअर चराने भेजेंगे, तो यह आप स्वामी जैसा चाहें, कर सकते हैं। दासवत आपको शीश नवाता हूं ।

आपका निष्ठावान दास
अर्खीप सावेल्येव ।"

इस भले बूढ़े का पत्र पढ़ते हुए मैं कई बार मुस्कराये बिना न रह सका। पिता जी के पत्र का उत्तर देने लायक़ मेरी स्थिति नहीं थी और माता जी के मन को शान्त करने के लिये मुझे सावेलिच का पत्र काफ़ी प्रतीत हुआ ।

इस दिन से मेरी स्थिति में परिवर्तन हो गया। मरीया इवानोव्ना मेरे साथ लगभग नहीं बोलती थी और हर प्रकार मुझसे कन्नी काटने का प्रयत्न करती थी । दुर्गपति के घर का मेरे लिये कोई आकर्षण नहीं रहा । धीरे-धीरे मुझे अपने घर में अकेले बैठने की आदत हो गयी । वसिलीसा येगोरोव्ना ने शुरू में ऐसा करने के लिये मुझे कुछ बुरा-भला कहा, किन्तु मेरी ज़िद्द देखकर उन्होंने मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया । केवल फ़ौजी काम-काज के सिलसिले में ही मैं इवान कुज्मिच के पास यदा-कदा जाता। श्वाबरिन से कभी-कभार और मन मारकर ही मिलता, क्योंकि उसमें अपने प्रति छिपे हुए शत्रुभाव को अनुभव करता जिससे मेरे सन्देहों की पुष्टि होती । मेरा जीवन असह्य हो उठा। मैं उदासीभरे विचारों में डूबा रहने लगा जो निठल्लेपन और एकाकीपन का फल होते हैं । एकाकीपन में मेरा प्यार दहक उठा और मेरे लिये अधिकाधिक बोझल बनने लगा। पुस्तकें पढ़ने और कुछ रचने में मेरी रुचि जाती रही। मेरे मन पर गहरी निराशा छा गयी। मुझे डर लगता कि या तो मैं पागल हो जाऊंगा या ऐय्याशी में डूब जाऊंगा। मेरे पूरे जीवन पर बहुत महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालनेवाली अप्रत्याशित घटनाओं ने सहसा मेरी आत्मा को बहुत ज़ोरदार और हितकर झटका दिया ।

छठा अध्याय : पुगाचोव का दल-बल

तुम सुनो ध्यान से युवा लोग
हम बूढ़े तुम्हें सुनायें जो ।
(गीत)

इससे पहले कि मैं उन अजीब घटनाओं का वर्णन करूं, जिनका मैं साक्षी बना, मुझे उस स्थिति के बारे में कुछ शब्द कहने होंगे जो १७७३ के अन्त में ओरेनबुर्ग के गुबेर्निया में थी ।

इस विशाल और समृद्ध गुबेर्निया में अनेक अर्ध-सभ्य जातियां रहती थीं जिन्होंने कुछ ही समय पहले रूसी ज़ारों की सत्ता स्वीकार की थी । उनके जब-तब विद्रोह करने, क़ानून-क़ायदे और सभ्य जीवन के अभ्यस्त न हो पाने तथा उनकी सनकों और क्रूरता के कारण सरकार को उन्हें अपने अधीन रखने के लिये उन पर लगातार कड़ी नज़र रखनी पड़ती थी । सुविधाजनक माने जानेवाले स्थानों पर जहां एक ज़माने से याइक नदी-तटों पर बसे हुए अधिकतर कज़्ज़ाक लोग ही रहते थे, गढ़-गढ़ियां बनाई गयी थीं । किन्तु यही याइक कज़्ज़ाक, जिन पर इस सारे क्षेत्र की शान्ति और सुरक्षा को बनाये रखने की ज़िम्मेदारी थी, पिछलें कुछ समय से सरकार के लिये बेचैनी का कारण बन गये थे, ख़तरनाक लोग हो गये थे । १७७२ में उनके प्रमुख नगर में विद्रोह हुआ । इसका कारण वे कठोर क़दम थे, जो मेजर जनरल त्राउबेन्बेर्ग ने फ़ौजों को पूरी तरह अपने अधीन करने के लिये उठाये थे। इसका नतीजा हुआ था त्राउबेन्बेर्ग की निर्दयतापूर्ण हत्या, प्रशासन में मनमाने परिवर्तन । अन्त में बड़ा दमन चक्र चलाकर तथा कड़ी सज़ायें देकर इस विद्रोह को कुचला गया ।

ये सारी घटनायें मेरे बेलोगोर्स्क के दुर्ग में आने के कुछ समय पहले घटीं। सब कुछ शान्त हो चुका था या कम से कम ऐसा प्रतीत होता था। अधिकारियों ने मक्कार विद्रोहियों के बनावटी पश्चाताप पर बहुत आसानी से विश्वास कर लिया जो अपने दिलों में बदले की आग छिपाये हुए फिर से गड़बड़ शुरू करने के लिये अच्छे मौके के इन्तज़ार में थे ।

तो मैं अपनी कहानी की ओर लौटता हूं ।

एक शाम को ( यह १७७३ के अक्तूबर महीने के आरम्भ की बात है ) मैं घर में अकेला बैठा हुआ पतझर की हवा की चीख-चिल्लाहट सुन रहा था और खिड़की में से चांद के पास से भागे जा रहे बादलों को देख रहा था। इसी समय दुर्गपति ने मुझे बुलवा भेजा। मैं फ़ौरन गया । दुर्गपति के यहां श्वाबरिन, इवान इग्नातिच और कज़्ज़ाक सार्जेंट पहले से ही मौजूद थे। कमरे में न तो वसिलीसा येगोरोव्ना थीं और न ही मरीया इवानोव्ना । दुर्गपति ने कुछ परेशानी जाहिर करते हुए मेरा अभिवादन किया। उन्होंने दरवाज़े को ताला लगाकर बन्द किया, सार्जेंट के सिवा जो दरवाज़े के पास खड़ा था, हम सभी को बिठाया और जेब से एक काग़ज़ निकालकर हम सभी को सम्बोधित करते हुए कहा, "महानुभावो, बड़ा महत्त्वपूर्ण समाचार है! जनरल साहब ने जो लिखा है, उसे सुनिये ।" इतना कहकर उन्होंने चश्मा चढ़ा लिया और यह पढ़ा -

"बेलोगोर्स्क के दुर्गपति श्रीमान कप्तान मिरोनोव को ।
सर्वथा गुप्त ।

इसके द्वारा आपको सूचित करता हूं कि जेल से भाग जानेवाले दोन तटवर्ती कज़्ज़ाक और विधर्मी येमेल्यान पुगाचोव ने, जिसने दिवंगत सम्राट पीटर तृतीय का नाम धारण करने की अक्षम्य धृष्ठता की है, चोर उचक्कों का एक गिरोह जमा करके याइक गांवों में गड़बड़ी पैदा की है, कुछ दुर्गों पर अधिकार करके उन्हें नष्ट कर दिया है, सभी जगह लूट-मार और हत्यायें की हैं। अतः यह पत्र पाते ही आप, श्रीमान कप्तान उल्लिखित दुष्ट और झूठे दावेदार के विरुद्ध आवश्यक उपाय करें और यदि वह आपके अधीन दुर्ग पर आक्रमण करे, तो संभव होने पर उसे पूर्णतः नष्ट कर डालें ।"

"आवश्यक उपाय करें ! " दुर्गपति ने चश्मा उतारते और काग़ज़ को तह करते हुए कहा । "यह कह देना बड़ा आसान है । वह दुष्ट तो स्पष्टतः काफ़ी शक्तिशाली है और हमारे पास, कज़्ज़ाकों को छोड़कर, जिन पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता, तुम्हारी भर्त्सना नहीं कर रहा हूं, मक्सीमिच ( सार्जेंट व्यंग्यपूर्वक मुस्करा दिया ), कुल एक सौ तीस सैनिक हैं । किन्तु हमारे सामने और कोई चारा नहीं है, महानुभावो ! अच्छी तरह अपनी ड्यूटी बजायें, सन्तरी और रात के पहरेदार तैनात कर दें । आक्रमण होने पर फाटक बन्द कर लें और सैनिकों को मैदान में ले आयें मक्सीमिच तुम अपने कज़्ज़ाकों पर कड़ी नज़र रखो। तोप की खूब जांच-पड़ताल करके अच्छी तरह से साफ़ करवा लिया जाये। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस सारी चीज़ को गुप्त रखा जाये ताकि दुर्ग में किसी को भी समय से पहले इसकी कानों कान खबर न मिले ।

ऐसे आदेश देने के बाद इवान कुज़्मिच ने हम लोगों से जाने को कहा। हमने जो कुछ सुना था, मैं उसी पर विचार करता हुआ खाबरिन के साथ बाहर निकला । “तुम्हारे ख्याल में क्या अन्त होगा इसका ?" मैंने उससे पूछा। "भगवान जाने,” उसने उत्तर दिया, "देखा जायेगा । फ़िलहाल तो कोई खास बात नज़र नहीं आती। अगर ..." इतना कहकर वह सोच में डूब गया और खोया-खोया सा एक फ़्रांसीसी प्रेम-गीत की धुन पर सीटी बजाने लगा ।

हमारी पूरी सावधानी के बावजूद पुगाचोव के प्रकट होने की बात सारे दुर्ग में फैल गयी । इवान कुज़्मिच अपनी पत्नी का यद्यपि बहुत आदर करते थे, तथापि फ़ौजी नौकरी के सिलसिले में उन्हें सौंपे गये राज़ को किसी भी हालत में अपनी बीवी को नहीं बताते थे । जनरल का ख़त मिलने पर उन्होंने बड़ी चालाकी से यह कहकर पत्नी को पादरी गेरासिम के यहां भेज दिया मानो पादरी के पास ओरेनबुर्ग से कोई अनूठी खबर आयी है जिसे वह बड़े राज़ की तरह छिपाये हैं । वसिलीसा येगोरोव्ना उसी समय पादरी की बीवी के पास जाने को तैयार हो गयीं और इवान कुज्मिच की सलाह के मुताबिक़ माशा को भी अपने साथ ले गयीं, ताकि उसे अकेली रहने पर ऊब महसूस न हो ।

घर का एकच्छत्र स्वामी रह जाने पर इवान कुज़्मिच ने हम सभी को फ़ौरन बुलवा भेजा और पालाश्का को कोठरी में बन्द कर दिया, ताकि वह हमारी बातचीत न सुन सके । वसिलीसा येगोरोव्ना पादरी की बीवी से कोई भी ख़बर हासिल किये बिना घर लौटीं और उन्हें पता चला कि उनकी अनुपस्थिति में इवान कुज्मिच के यहां बैठक हुई तथा पालाश्का को ताला लगाकर कोठरी में बन्द कर दिया गया था । उन्हें फ़ौरन यह सूझ गया कि पति ने उन्हें धोखा दिया है और वे कुरेद-कुरेदकर उनसे सवाल पूछने लगीं । किन्तु इवान कुज्मिच ने अपने को पत्नी के ऐसे प्रश्न- प्रहार के लिये तैयार कर लिया था । तनिक भी घबराये बिना उन्होंने बड़ी प्रफुल्लता से अपनी जीवन संगिनी के प्रश्नों के उत्तर दिये, "सुनो तो, हमारी औरतों के दिमाग़ों में फूस से चूल्हे जलाने की बात समा गई है और चूंकि इससे कोई मुसीबत हो सकती है, इसलिये मैंने यह कड़ा आदेश दे दिया है कि वे घास-फूस से नहीं, बल्कि सूखी टहनियों और झाड़-झंखाड़ से ही चूल्हे जलायें । " "मगर तुमने पालाश्का को ताला लगाकर कोठरी में क्यों बन्द किया ? " बीवी ने पूछा । " किसलिये बेचारी नौकरानी हमारे लौटने तक कोठरी में बैठी रही ?” इवान कुज़्मिच ऐसे सवाल के लिये तैयार नहीं थे, गड़बड़ा गये और उन्होंने बहुत ही अटपटा-सा जवाब दे दिया । वसिलीसा येगोरोव्ना अपने पति की मक्कारी को समझ गयीं, किन्तु यह जानते हुए कि उनसे कुछ भी नहीं उगलवा सकेंगी, उन्होंने अपने सवाल करने बन्द कर दिये और खीरों के अचार की चर्चा करने लगीं जिसे अकुलीना पम्फ़ीलोव्ना एक खास ही ढंग से तैयार करती थी। वसिलीसा येगोरोव्ना को सारी रात नींद नहीं आई और वे किसी भी तरह इस बात का अनुमान नहीं लगा पाईं कि उनके पति के दिमाग़ में ऐसी क्या चीज़ थी जिसके बारे में उनके लिये जानकारी पाना अनुचित था ।

अगले दिन सुबह की प्रार्थना के बाद गिरजाघर से लौटते हुए उनकी इवान इग्नातिच पर नज़र पड़ी, जो तोप के मुंह में से बच्चों द्वारा ठूंसे गये चिथड़े, कंकड़-पत्थर, चैलियां और हड्डियां आदि निकाल रहा था । "युद्ध की ऐसी तैयारियों का क्या अर्थ हो सकता है ?" वसिलीसा येगोरोव्ना सोचने लगीं, “कहीं किर्ग़ीज़ियों के हमले का तो अन्देशा नहीं है ? क्या इवान कुज़्मिच मुझसे ऐसी मामूली-सी बात छिपायेगा ?” उन्होंने अपने नारी-हृदय को व्यथित करनेवाले रहस्य को इवान इग्नातिच से जानने का पक्का इरादा बनाकर उसे पुकारा ।

वसिलीसा येगोरोव्ना ने उस न्यायाधीश की भांति जो शुरू में उत्तर देनेवाले से उसे असावधान बनाने के लिये इधर-उधर के सवाल पूछता है, घरेलू कामकाज के बारे में कुछ टीका-टिप्पणियां कीं । इसके पश्चात कुछ मिनट तक चुप रहने के बाद गहरी सांस ली और सिर हिलाते हुए बोलीं-

"हे भगवान ! खबर तो कैसी है ! क्या होगा अब ?"

"कोई चिन्ता न करें आप ! " इवान इग्नातिच ने उत्तर दिया । "भगवान की दया चाहिये-हमारे पास बहुत सैनिक हैं, बारूद की कुछ कमी नहीं और तोप मैंने साफ़ कर दी है । पुगाचोव के दांत खट्टे कर ही देंगे। भगवान की कृपादृष्टि रही तो कुछ नहीं बनेगा उसका !"

"यह पुगाचोव है कौन ?" वसिलीसा येगोरोव्ना ने पूछा ।

इवान इग्नातिच की समझ में अब यह आया कि उसने भंडाफोड़ कर दिया है और फ़ौरन चुप हो गया । किन्तु देर हो चुकी थी । वसिलीसा येगोरोव्ना ने उसे यह वचन देकर कि किसी को कुछ नहीं बतायेंगी, उससे सारी बात जान ली ।

वसिलीसा येगोरोव्ना ने अपना वचन निभाया और पादरी की पत्नी के अतिरिक्त किसी से भी एक शब्द नहीं कहा। पादरी की पत्नी से भी उन्होंने केवल इसलिये इसकी चर्चा की कि उसकी गाय अभी कहीं स्तेपी में चर रही थी और उचक्कों के हत्थे चढ़ सकती थी ।

शीघ्र ही सभी पुगाचोव की चर्चा करने लगे। उसके बारे में तरह- तरह की बातें होने लगीं । दुर्गपति ने सार्जेंट को आस-पास के गांवों और दुर्गों से अधिकतम जानकारी हासिल करने के लिये भेजा । सार्जेंट ने दो दिन बाद लौटकर यह बतलाया कि दुर्ग से लगभग साठ वेस्र्ता की दूरी पर उसने बेशुमार अलाव जलते देखे और बश्कीरियों से यह सुना कि सेनाओं का कोई बहुत बड़ा दल-बादल उमड़ा आ रहा है। वैसे वह निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकता था, क्योंकि आगे जाते हुए उसे डर महसूस हुआ था ।

दुर्ग के कज़्ज़ाकों के बीच असाधारण उत्तेजना दिखाई देती थी । वे सभी दल बनाकर गलियों में जमा होते, आपस में खुसर- फुसर करते और किसी घुड़सवार या दुर्ग के सैनिक को देखकर इधर-उधर बिखर जाते। उनके बीच जासूसों को भेजा गया। कल्मीक जाति के ईसाई धर्म ग्रहण कर लेनेवाले युलाई ने दुर्गपति को महत्त्वपूर्ण सूचना दी। युलाई के मतानुसार सार्जेंट ने ग़लत ख़बरें दी थीं। धूर्त्त कज़्ज़ाक ने लौटने पर अपने साथियों से यह कहा था कि वह विद्रोहियों के पास हो आया है, उनके सरदार से मिला है जिसने उसे अपना हाथ चूमने दिया और वह देर तक उससे बातें करता रहा । दुर्गपति ने सार्जेंट को फ़ौरन पहरे में रख दिया और उसकी जगह युलाई की नियुक्ति कर दी। कज़्ज़ाकों को यह समाचार स्पष्टतः बहुत बुरा लगा। उन्होंने ऊंचे-ऊंचे अपना गुस्सा जाहिर किया और दुर्गपति के आदेशों को पूरा करते हुए इवान इग्नातिच ने खुद अपने कानों से उन्हें यह कहते सुना, "अब जल्द ही तुम्हारी बारी आनेवाली है दुर्ग के चूहे !" दुर्गपति ने उसी दिन हिरासत में लिये गये सार्जेंट से पूछताछ करनी चाही, मगर वह सम्भवतः अपने हमख्यालों की मदद से भाग निकला था ।

एक नई परिस्थिति से दुर्गपति की चिन्ता और बढ़ गयी | उकसाने- भड़कानेवाले इश्तिहारों के साथ एक बश्कीरी पकड़ा गया था। इस मामले को लेकर दुर्गपति ने फिर से अपने अफ़सरों की बैठक बुलानी चाही और इसीलिये कोई अच्छा-सा बहाना बनाकर अपनी बीवी को फिर से कहीं भेज देना चाहा । किन्तु इवान कुज़्मिच चूंकि बहुत ही सीधे-सरल, सच्चे और ईमानदार आदमी थे, इसलिये उन्हें पहले भी उपयोग में लाये गये उपाय के अतिरिक्त और कुछ नहीं सूझा ।"

"सुनो तो, वसिलीसा येगोरोव्ना, ” उन्होंने खांसते हुए बीवी से कहा, सुनने में आया है कि फ़ादर गेरासिम को शहर से .... " - "बस, काफ़ी झूठ बोल लिया, इवान कुज़्मिच," बीवी ने उन्हें बीच में ही टोक दिया, “ मतलब यह है कि तुम फिर से अफ़सरों की बैठक बुलाना और मेरे बिना येमेल्यान पुगाचोव के बारे में सोच-विचार करना चाहते हो । लेकिन इस बार तुम्हारी दाल नहीं गलेगी ।" इवान कुज़्मिच आंखें फाड़-फाड़कर देखते रह गये । अगर तुम्हें सब कुछ मालूम ही है," उन्होंने कहा, “तो कृपया यहीं रहो, हम तुम्हारे सामने ही सोच-विचार कर लेंगे । यह हुई अक्ल की बात," पत्नी ने जवाब दिया, “तुमसे चालाकी करते नहीं बनेगी, बुलाओ अफ़सरों को ।"

हम फिर से एकत्रित हुए। इवान कुज्मिच ने अपनी पत्नी की उपस्थिति में पुगाचोव का आह्वान-पत्र पढ़ा जो किसी अर्ध-शिक्षित कज़्ज़ाक द्वारा लिखा गया था। उस लुटेरे ने बहुत जल्द ही हमारे दुर्ग पर आक्रमण करने के इरादे की घोषणा की थी, कज़्ज़ाकों और सैनिकों को अपने गिरोह में शामिल होने की दावत दी थी और कमांडरों को यह सलाह दी थी कि वे उसका विरोध न करें, अन्यथा उन्हें मृत्यु-दण्ड दिया जायेगा । यह आह्वान पत्र भद्दे, किन्तु जोरदार वाक्यों में लिखा हुआ था और साधारण लोगों पर उसका भयानक प्रभाव होना चाहिये था ।

" कैसा बदमाश है !" दुर्गपति की बीवी ने कहा । "हमें ऐसी सलाह देने की भी जुर्रत करता है ! उसका स्वागत करें और उसके पैरों पर झण्डा रख दें ! कुत्ते का पिल्ला ! क्या वह यह नहीं जानता कि चालीस साल से हम फ़ौजी नौकरी कर रहे हैं और भगवान की कृपा से बहुत कुछ देख-भाल चुके हैं ? क्या ऐसे कमांडर भी होंगे जो इस उठाईगीरे की बातों पर कान देंगे ? "

"ऐसे कमांडर तो शायद ही होंगे, " इवान कुज़्मिच ने उत्तर दिया । "मगर सुना है कि उस दुष्ट ने कई दुर्गों पर अधिकार कर भी लिया है। "

"लगता है कि वह सचमुच शक्तिशाली है," श्वाबरिन ने राय ज़ाहिर की ।

"हम अभी उसकी असली शक्ति जान लेंगे, " दुर्गपति ने कहा । "वसिलीसा येगोरोव्ना, मुझे खत्ती की चाबी दो । इवान इग्नातिच उस बश्कीरी को यहां लाओ और युलाई से कोड़े लाने को कहो ।"

"ज़रा रुको, इवान कुज्मिच, " दुर्गपति की बीवी ने अपनी जगह से उठते हुए कहा । " मैं माशा को घर से कहीं बाहर ले जाती हूँ वरना चीख़-चिल्लाहट सुनकर वह डर जायेगी । और सच बात तो यह है कि इस तरह की जांच-पड़ताल में मुझे खुद भी कोई दिलचस्पी नहीं है। तो मैं चली।"

पुराने वक़्तों में क़ानूनी मामलों में यातना देने की प्रथा ने इतनी गहरी जड़ जमा रखी थी कि इसे ख़त्म करने का कल्याणकारी आदेश बहुत समय तक काग़ज़ी कार्रवाई ही बना रहा । ऐसा सोचा जाता था कि अपराधी के अपराध का पूरी तरह भण्डाफोड़ करने के लिये यह ज़रूरी है कि वह स्वयं उसे स्वीकार करे । यह विचार न केवल निराधार, बल्कि विवेकपूर्ण क़ानूनी तर्क-वितर्क के बिल्कुल विरुद्ध भी था। कारण कि यदि अपराधी न होने का प्रमाण नहीं माना जाता, तो उसका उसे स्वीकार कर लेना उसके अपराधी होने का और भी कम प्रमाण होना चाहिये । पुराने न्यायाधीश तो अब भी कभी-कभी इस बात के लिये खेद प्रकट करते सुनाई देते हैं कि इस बर्बर परम्परा का अन्त कर दिया गया। हमारे समय में न तो न्यायाधीशों और न अभियुक्तों को ही यातना देने की आवश्यकता के बारे में कोई सन्देह था । इसलिये दुर्गपति के आदेश से हम में से किसी को न तो हैरानी और न परेशानी ही हुई । इवान इग्नातिच बश्कीरी को लाने चला गया जो खत्ती में बन्द था और जिसकी चाबी दुर्गपति की बीवी के पास थी। कुछ मिनट बाद बन्दी को ड्योढ़ी में लाया गया । दुर्गपति ने उसे अपने सामने पेश करने का आदेश दिया ।

बश्कीरी ने बड़ी मुश्किल से दहलीज लांघी ( उसके पैरों में बेड़ी थी ) और अपनी ऊंची टोपी उतारकर दरवाज़े के पास खड़ा हो गया । मैं उसे देखकर कांप उठा । इस आदमी को मैं कभी नहीं भूल सकूंगा । वह कोई सत्तर साल का लग रहा था । उसकी न तो नाक थी और न कान ही । उसका सिर मुंडा हुआ था, दाढ़ी की जगह कुछ सफ़ेद बाल लटक रहे थे । वह नाटा और दुबला-पतला था तथा उसकी पीठ कुछ झुकी हुई थी, किन्तु उसकी छोटी-छोटी आंखों में अभी भी चिंगारी की चमक थी ।

"अरे !" उसकी भयानक निशानियों से १७४१ के विद्रोह1 के लिये दण्डप्राप्त एक अपराधी को पहचानकर दुर्गपति ने कहा । “देख रहा हूं कि पुराने भेड़िये हो, हमारे जाल में पहले भी फंस चुके हो। तुम्हारे सिर पर जिस तरह रंदा फिरा है, उससे पता चलता है कि तुम पहली बार विद्रोह नहीं कर रहे हो। ज़रा नज़दीक आकर बताओ कि किसने तुम्हें यहां भेजा है ?"

1. १७४१ में बश्कीरिया के विद्रोह से अभिप्राय है जिसे जारशाही सरकार ने निर्दयता से कुचल दिया था ।-सं० बूढ़ा बश्कीरी चुप रहकर खाली-खाली आंखों से दुर्गपति को ताकता रहा ।

"तुम बोलते क्यों नहीं ?" इवान कुज्मिच ने पूछना जारी रखा । “ या फिर तुम रूसी नहीं समझते ? युलाई, तुम इससे अपनी भाषा में पूछो कि किसने उसे हमारे दुर्ग में भेजा है ?"

युलाई ने तातारी भाषा में इवान कुज्मिच का प्रश्न दोहराया । किन्तु बश्कीरी पहले जैसी मुद्रा बनाये ताकता रहा और उसने उत्तर में एक भी शब्द नहीं कहा ।

"याकशी (अच्छा), "दुर्गपति ने कहा, अभी तुम्हारी ज़बान खुल जायेगी। तो सैनिको ! इसका यह बेहूदा धारीदार चोगा उतारकर इसकी पीठ की चमड़ी उधेड़ो | युलाई, देखो, अच्छी तरह से !"

दो पंगु सैनिक बश्कीरी के कपड़े उतारने लगे। उस क़िस्मत के मारे के चेहरे पर घबराहट झलक उठी । उसने बच्चों द्वारा पकड़ लिये गये जानवर की तरह सभी ओर नज़र दौड़ाई। जब एक पंगु ने उसके दोनों हाथ पकड़े और उन्हें अपनी गर्दन के पास टिकाकर बूढ़े को अपने कंधों पर ऊपर उठाया और युलाई ने कोड़ा ऊपर उठाया, तो बश्कीरी धीमी-सी तथा मिन्नत करती आवाज़ में कराह उठा तथा सिर झुकाकर उसने मुंह खोल दिया जिसमें ज़बान की जगह उसका छोटा-सा टुकड़ा हिल रहा था ।

मैं जब यह याद करता हूं कि हमारे ही समय में ऐसा हुआ था और मैं सम्राट अलेक्सान्द्र के विनयशील शासन1 के समय तक जीवित हूं, तो मैं द्रुत गति से शिक्षा की सफलता और मानव-प्रेम के नियमों के प्रचार-प्रसार से आश्चर्य चकित हुए बिना नहीं रह सकता । नौजवान ! यदि मेरी टिप्पणियां तुम्हारे हाथों में आ जायें, तो याद रखना कि वही परिवर्तन सबसे अच्छे और पक्के होते हैं जो किसी भी प्रकार की हिंसा- पूर्ण उथल-पुथल के बिना नैतिकता के सुधार द्वारा किये जाते हैं ।

1. विनयशील शासन में निहित व्यंग्य तब स्पष्ट हो जाता है, जब हम पुश्किन द्वारा एक पद में दिये गये वर्णन को स्मरण करते हैं जिसमें उसे "दुर्बल और कपटी शासक... एक गंजा छैला ... भाग्य की कृपा से ख्याति के मज़े लूटनेवाला काहिल " कहा गया है।-अनु०

हम सभी स्तम्भित रह गये ।

" तो," दुर्गपति ने कहा, स्पष्ट है कि हम इससे कुछ नहीं जान पायेंगे। युलाई, बश्कीरी को खत्ती में वापस ले जाओ । महानु- भावो, तो हम कुछ और बातचीत कर लेते हैं । हम अपनी स्थिति के बारे में कुछ और विचार-विमर्श करने लगे कि अचानक वसिलीसा येगोरोव्ना हांफती और बहुत ही परेशान हाल कमरे में दाखिल हुईं ।

"तुम्हें क्या हुआ है ?" दुर्गपति ने हैरान होकर पूछा ।

"हाय, मुसीबत आ गयी ! " वसिलीसा येगोरोव्ना ने उत्तर दिया । निज्नेओज़ेर्नाया दुर्ग पर आज सुबह क़ब्ज़ा कर लिया गया है। फ़ादर गेरासिम का नौकर अभी-अभी वहां से लौटा है। उसने अपनी आंखों से दुर्ग पर अधिकार होते देखा। वहां के दुर्गपति और सभी अफ़सरों को सूली दे दी गयी है । सभी सैनिकों को बन्दी बना लिया गया है। ये बदमाश किसी समय भी यहां आ सकते हैं ।"

इस अप्रत्याशित समाचार से मुझे बहुत ही परेशानी हुई। निज्ने- ओज़ेर्नाया दुर्ग के शान्त और विनम्र युवा दुर्गपति से मैं परिचित था । दो महीने पहले वह ओरेनबुर्ग से अपने दुर्ग की ओर जाते हुए अपनी जवान बीवी के साथ इवान कुज़्मिच के यहां ठहरा था । निज्नेओज़ेर्नाया दुर्ग हमारे दुर्ग से कोई पच्चीस वेर्स्ता दूर था । अब किसी भी वक़्त पुगाचोव हमारे दुर्ग पर हमला कर सकता था। मरीया इवानोव्ना का क्या बनेगा, इस बात की सजीव कल्पना करते ही मेरा दिल बैठ गया ।

"इवान कुज्मिच, मेरी बात सुनिये !” मैंने दुर्गपति से कहा । अपनी आखिरी सांस तक दुर्ग की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, यह बात तो साफ़ ही है । लेकिन हमें नारियों की सुरक्षा की चिन्ता अवश्य करनी चाहिये। अगर रास्ता अभी खुला है, तो उन्हें ओरेनबुर्ग अथवा दूर के किसी ऐसे विश्वसनीय दुर्ग में भेज दीजिये जहां ये बदमाश न पहुंच पायें।"

इवान कुज़्मिच ने पत्नी को सम्बोधित करते हुए कहा -

"हां, सुनो तो माशा की मां, क्या सचमुच यह अच्छा नहीं रहेगा कि जब तक हम विद्रोहियों से निपट न लें, तुम दोनों कहीं दूर चली जाओ ।"

"बेकार की बात है !" वसिलीसा येगोरोव्ना ने उत्तर दिया । "कौनसा ऐसा दुर्ग है जहां गोली नहीं पहुंचेगी ? हमारा बेलोगोर्स्क किसलिये भरोसे का नहीं है ? भगवान की दया से इसमें रहते हुए हमारा बाईसवां साल चल रहा है। हमने बश्कीरी भी देखे और किर्ग़ीज भी । पुगाचोव से भी निपट लेंगे !"

"अच्छी बात है " इवान कुज़्मिच ने उत्तर दिया, "अगर तुम्हें हमारे दुर्ग पर भरोसा है, तो यहीं रहो। मगर माशा के बारे में ज़रूर कुछ सोचना चाहिये। अगर हम बच गये या कुमक आ गयी, तब तो अच्छा है। लेकिन अगर दुष्टों ने दुर्ग पर अधिकार कर ही लिया, तब ? "

"तब..." इतना कहकर वसिलीसा येगोरोव्ना हकलाईं और बहुत ही परेशानी जाहिर करते हुए खामोश हो गयीं ।

"नहीं, वसिलीसा येगोरोव्ना," दुर्गपति ने यह देखकर कि शायद ज़िन्दगी में पहली बार उनके शब्दों का असर हुआ है अपनी बात जारी रखी । "माशा का यहां रहना ठीक नहीं होगा । उसे ओरेनबुर्ग में उसकी धर्म- माता के पास भेज देते हैं-वहां सेनायें और तोपें भी काफ़ी हैं और दीवार भी पत्थर की है । तुम्हें भी वहीं जाने की सलाह दूंगा-तुम बूढ़ी औरत हो और अगर उन्होंने दुर्ग पर अधिकार कर ही लिया, तो सोचो कि तुम्हारा क्या होगा । "

" अच्छी बात है, " दुर्गपति की बीवी ने कहा, "ऐसा ही सही, हम माशा को भेज देंगे। मुझसे तो स्वप्न में भी ऐसी आशा नहीं करना – हरगिज़ नहीं जाऊंगी। बुढ़ापे में मैं तुमसे अलग होकर किसी अजनबी जगह पर अपनी अकेली की क़ब्र बनवाऊं, यह नहीं होने का । एकसाथ जिये हैं, एकसाथ मरेंगे।"

"सो तय हो गया," दुर्गपति ने कहा । "लेकिन देर नही करो । माशा के लिये सफ़र की तैयारी कर दो। उसे कल तड़के ही रवाना कर देंगे, रक्षक-दस्ता भी साथ दे देंगे, यद्यपि हमारे पास फ़ालतू लोग बिल्कुल नहीं हैं । लेकिन माशा है कहां ?"

"अकुलीना पम्फीलोव्ना के यहां" दुर्गपति की बीवी ने जवाब दिया । उसने जैसे ही निज्नेओज़ेर्नाया दुर्ग पर क़ब्ज़ा हो जाने की बात सुनी, उसे ग़श आ गया । मुझे डर है कि कहीं बीमार न हो गयी हो । हे भगवान, कैसे दिन देखने के लिये ज़िन्दा रह गये हम ! "

वसिलीसा येगोरोव्ना बेटी के जाने की तैयारी करने चली गयीं । दुर्गपति के यहां बातचीत जारी रही, मगर मैंने उसमें कोई हिस्सा नहीं लिया और न कुछ सुना ही। मरीया इवानोव्ना शाम के भोजन के समय आई, पीला, रुआंसा चेहरा लिये हुए। हमने मौन साधे रहकर ही खाना खाया, हर दिन की तुलना में मेज़ पर से जल्दी उठे और दुर्गपति के परिवार से विदा लेकर अपने-अपने घर को चल दिये । मैंने जान-बूझकर अपनी तलवार वहीं छोड़ दी और उसे लेने के लिये वापस आया। मुझे ऐसी पूर्वानुभूति हो रही थी कि मरीया इवानोव्ना वहां मुझे अकेली ही मिलेगी । वास्तव में ऐसा ही हुआ । वह दरवाज़े पर ही मुझसे मिली और उसने मेरी तलवार मुझे सौंप दी । "तो विदा, प्योतर अन्द्रेइच !” उसने आंसू बहाते हुए मुझसे कहा । "मुझे ओरेनबुर्ग भेजा जा रहा है। आप ज़िन्दा और सुखी रहें। हो सकता है कि भगवान की कृपा से हमारी फिर कभी भेंट हो जाये, अगर ऐसा न हो, तो ..." इतना कहकर वह सिसकने लगी। मैंने उसे अपनी बांहों में भर लिया ।

"विदा, मेरी जान," मैंने कहा, "विदा, मेरी प्यारी, मेरे दिल की रानी ! मेरे साथ चाहे कुछ भी क्यों न गुज़रे, यह विश्वास रखना कि अन्तिम सांस लेते हुए मैं तुम्हारे ही बारे में सोचूंगा और तुम्हारे लिये ही प्रार्थना करूंगा !" मेरी छाती से चिपकी हुई माशा सिसक रही थी। मैंने बहुत ही भाव-विह्वल होकर उसे चूमा और झटपट कमरे से बाहर चला गया ।

सातवां अध्याय : आक्रमण

सिर मेरे, ओ सिर मेरे,
फ़ौजी सेवा करनेवाले सिर मेरे !
पूरे तैंतीस वर्ष कि तुमने सेवा की,
दौलत नहीं जमा की जानी नहीं खुशी,
नहीं किसी ने पीठ ठोंक कुछ भला कहा,
बना न अफ़सर बस, सैनिक ही बना रहा,
सिर्फ़ यही जीवन में हासिल कर पाये-
दो ऊंचे खम्भे औ' बीच कड़ी उनके,
रेशम का फंदा, गर्दन में पड़ जाये ।
(लोक गीत)

इस रात को मैं न तो सोया और न मैंने कपडे ही उतारे । मेरा यह इरादा था कि पौ फटते ही दुर्ग के फाटक पर चला जाऊंगा, जहां से मरीया इवानोव्ना को ओरेनबुर्ग के लिये जाना था, और वहां उससे अन्तिम बार विदा ले लूंगा। मैं अपनी आत्मा में बहुत बड़ा परिवर्तन अनुभव कर रहा था - अपनी आत्मा की उत्तेजना मुझे उस उदासी की तुलना में कहीं कम बोझल अनुभव हो रही थी जिसमें मैं कुछ समय पहले डूबा रहा था। बिछोह - वेदना के साथ-साथ मेरे भीतर अभी तक अस्पष्ट, किन्तु मधुर आशायें, खतरे की विह्वलतापूर्ण प्रत्याशा और उदात्त महत्त्वाकांक्षा की भावनाएं घुल-मिल गयी थीं । रात कब गुज़र गयी, इसका पता भी नहीं चला। मैं घर से बाहर निकलने ही वाला था कि मेरा दरवाज़ा खुला और दफ़ादार ने मुझे यह सूचना दी कि हमारे कज़्ज़ाक रात के वक़्त दुर्ग से भाग गये, युलाई को ज़बर्दस्ती अपने साथ ले गये और यह कि अजनबी घुड़सवार दुर्ग के आस-पास घूमते दिखाई देते हैं । इस ख़्याल से मेरा दिल बैठ गया कि मरीया इवा- नोव्ना दुर्ग से नहीं जा पायेगी। मैंने दफ़ादार को जल्दी-जल्दी कुछ हिदायतें दीं और फ़ौरन दुर्गपति की ओर भाग चला ।

पौ फट रही थी। मैं गली में बहुत तेज़ी से क़दम बढ़ाता जा रहा था कि किसी को अपना नाम पुकारते सुना । मैं रुका। "कहां जा रहे हैं आप ?" इवान इग्नातिच ने मेरे क़रीब आकर पूछा । इवान कुज़्मिच दुर्ग-प्राचीर पर हैं और मुझे आपको बुला लाने के लिये भेजा है । पुगाचोव आ गया है। " -

" मरीया इवानोव्ना चली गयी या नहीं ? "

मैंने धड़कते दिल से पूछा । " नहीं जा पायी,"इवान इग्नातिच ने उत्तर में कहा, “ओरेनबुर्ग का रास्ता काट दिया गया है और दुर्ग घेरे में है। हालत अच्छी नहीं है, प्योतर अन्द्रेइच !"

हम दुर्ग- प्राचीर पर गये। यह प्रकृति द्वारा बनायी गयी ऊंची जगह थी और इसे बाड़ से मज़बूत कर दिया गया था। सारे दुर्गवासी वहां जमा थे। सैनिक बन्दूकें लिये तैयार खड़े थे। तोप को पिछली शाम ही वहां पहुंचा दिया गया था । दुर्गपति मिरोनोव अपने थोड़े से सैनिकों के सामने इधर-उधर आ-जा रहे थे । खतरे की निकटता से पुराने योद्धा में असाधारण स्फूर्ति आ गयी थी । दुर्ग से कुछ ही दूर कोई बीसेक घुड़सवार स्तेपी में जाते दिखाई दे रहे थे । वे कज़्ज़ाक प्रतीत होते थे, किन्तु उनके बीच बश्कीरी भी थे जिन्हें उनकी बन-बिलाव की ऊंची टोपियों और तरकशों से आसानी से पहचाना जा सकता था । दुर्गपति अपनी फ़ौज के गिर्द चक्कर लगाते हुए कह रहे थे, "तो जवानो, आज हम सम्राज्ञी माता के लिये डटकर लड़ेंगे और सारी दुनिया को यह दिखा देंगे कि हम वीर और शपथ के प्रति निष्ठावान लोग हैं ! " सैनिकों ने बहुत ज़ोर से अपना उत्साह प्रकट किया । श्वाबरिन मेरी बग़ल में खड़ा था और एकटक शत्रु को देख रहा था । स्तेपी में नज़र आनेवाले घुड़- सवार दुर्ग में हलचल देखकर एक जगह पर इकट्ठे हो गये और आपस में बातचीत करने लगे । दुर्गपति ने इवान इग्नातिच को आदेश दिया कि तोप का मुंह उनकी ओर कर दे और उन्होंने स्वयं पलीते को आग लगाई। गोला भनभनाया और किसी को हानि पहुंचाये बिना उनके सिरों के ऊपर से गुज़र गया। घुड़सवार बिखर गये, उसी क्षण घोड़ों को सरपट दौड़ाते हुए नज़र से ओझल हो गये और स्तेपी निर्जन हो गयी ।

इसी समय वसिलीसा येगोरोव्ना और उनके साथ माशा भी, जो मां से अलग नहीं रहना चाहती थी, यहां आ गयीं । “तो ?” दुर्गपति की बीवी ने पूछा, “लड़ाई कैसी चल रही है ? दुश्मन कहां है ? " - " दुश्मन दूर नहीं है, इवान कुज़्मिच ने जवाब दिया । भगवान ने चाहा तो सब कुछ ठीक हो जायेगा। क्यों, तुम्हें डर लग रहा है माशा ?”

"नहीं, पापा," मरीया इवानोव्ना ने उत्तर दिया, "घर में अकेली रहने पर और ज़्यादा डर लगता है । इतना कहकर उसने मेरी ओर देखा और किसी तरह से मुस्करा दी । यह याद आने पर कि पिछले दिन मुझे उसके हाथ से अपनी तलवार मिली थी, मेरा हाथ अनजाने ही उसकी मूठ पर चला गया मानो मैं अपनी प्यारी की रक्षा को तैयार हूं। मेरे दिल में जैसे आग-सी धधक रही थी । मैंने उसके रक्षक के रूप में अपनी कल्पना की । मैं यह प्रमाणित करने को बेचैन था कि उसके विश्वास के योग्य हूं और बड़ी बेसब्री से निर्णायक क्षण की प्रतीक्षा करने लगा ।

इसी वक़्त दुर्ग से कोई आध वेर्स्ता की दूरी पर स्थित ऊंचाई पर घुड़सवारों के नये दल दिखाई दिये और शीघ्र ही स्तेपी में बर्छियों तथा तीर-कमानों से लैस लोगों की बड़ी भीड़ जमा हो गयी। इनके बीच लाल अंगरखा पहने तथा हाथ में नंगी तलवार लिये एक व्यक्ति सफ़ेद घोड़े पर सवार था - यही पुगाचोव था । वह रुका, लोग उसके इर्द- गिर्द जमा हो गये और, जैसा कि स्पष्ट था, उसके आदेश पर चार व्यक्ति भीड़ से अलग होकर सरपट घोड़े दौड़ाते हुए दुर्ग के पास आ गये। हमने उनमें अपने ग़द्दारों को पहचान लिया। उनमें से एक अपनी टोपी के नीचे एक काग़ज़ दबाये था और दूसरे की बर्छी पर युलाई का सिर टंगा हुआ था जिसे उसने ज़ोर से झटका देकर बाड़ के ऊपर से हमारे पास फेंक दिया । बेचारे कल्मीक का सिर दुर्गपति के क़दमों पर आकर गिरा। ग़द्दारों ने चिल्लाकर कहा, " गोली नहीं चलाइये ! हमारे महाराज के सामने आ जाइये । महाराज यहां हैं ! "

"अभी चखाता हूं मैं तुम्हें मज़ा ! " इवान कुज़्मिच चिल्लाये । " जवानो ! चलाओ गोली ! " हमारे सैनिकों ने गोलियों की बौछार की । खत लिये हुए कज़्ज़ाक काठी पर लड़खड़ाया और घोड़े से नीचे गिर गया, बाक़ी कज़्ज़ाक अपने घोड़ों को पीछे दौड़ा ले गये। मैंने मरीया इवानोव्ना की ओर देखा । खून से लथपथ युलाई के सिर से चकित और गोलियां दग़ने की आवाज़ से बहरी - सी हुई वह लगभग बेहोश लग रही थी । दुर्गपति ने दफ़ादार को बुलाया और उसे मृत कज़्ज़ाक के हाथ से काग़ज़ लाने का हुक्म दिया । दफ़ादार मैदान में गया और मरे हुए कज़्ज़ाक के घोड़े की लगाम थामे हुए लौटा। उसने पत्र दुर्गपति को दिया । इवान कुज़्मिच ने उसे मन ही मन पढ़ा और फिर फाड़कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले । विद्रोहियों ने इसी बीच अपने को स्पष्टतः हमले के लिये तैयार कर लिया था । कुछ ही देर बाद गोलियां हमारे कानों के पास सनसनाने लगीं और कुछ तीर हमारे क़रीब धरती में और क़िलेबन्दी के बाड़ों में आकर धंस गये । "वसिलीसा येगोरोव्ना !" दुर्गपति ने कहा । "यहां औरतों का काम नहीं है, माशा को ले जाओ । देखती नहीं हो कि लड़की का दम निकला जा रहा है ।"

गोलियों के कारण परास्त हुई वसिलीसा येगोरोव्ना ने स्तेपी की ओर देखा, जहां बहुत हलचल दिखाई दे रही थी। इसके बाद उन्होंने पति को सम्बोधित करते हुए कहा, "इवान कुज़्मिच, जीना मरना तो भगवान के हाथ में है - माशा को आशीर्वाद दो । माशा, पिता के पास जाओ !"

ज़र्द चेहरा लिये और कांपती हुई माशा इवान कुज़्मिच के पास गयी, घुटनों के बल हो गयी और उसने झुककर पिता को प्रणाम किया । बूढ़े दुर्गपति ने उसके ऊपर तीन बार सलीब का निशान बनाया, उसे उठाया और चूमने के बाद बदली हुई आवाज़ में उससे कहा, “ सकुशल रहो, बेटी मेरी ! भगवान का नाम लो - वह तुम्हारी मदद करेगा । अगर कोई भला आदमी मिल जाये, तो भगवान तुम दोनों को प्यार और सद्बुद्धि दे। ऐसे ही जीना, जैसे मैं और तुम्हारी मां वसिलीसा येगोरोव्ना जिये हैं । तो विदा, माशा । वसिलीसा येगोरोव्ना, जल्दी से ले जाओ इसे ।" ( माशा पिता के गले से लगकर रो पड़ी । ) "आओ, हम भी एक-दूसरे को चूम लें," दुर्गपति की बीवी ने रोते हुए कहा । "तो विदा मेरे इवान कुज़्मिच। अगर मैंने किसी तरह से तुम्हारा दिल दुखाया हो, तो क्षमा कर देना !" "विदा, विदा, मेरी प्यारी !” अपनी बूढ़ी पत्नी को गले लगाकर दुर्गपति ने कहा । "बस, काफ़ी है ! जाओ, घर जाओ, अगर समय मिल जाये, तो माशा को सराफ़ान1 पहना देना ।" दुर्गपति की पत्नी और बेटी चली गयीं । मैं मरीया इवानोव्ना को देखता जा रहा था - उसने मुड़कर मेरी ओर देखा और सिर झुकाकर विदा ली ।

1. रूसी किसान औरतों की पोशाक । - अनु०

इवान कुज़्मिच ने अब हमारी ओर दृष्टि घुमाई और उनका ध्यान पूरी तरह से शत्रु पर केन्द्रित हो गया। घोड़ों पर सवार विद्रोही अपने सरदार को घेरे हुए थे और वे अचानक घोड़ों से नीचे उतरने लगे । "अब मज़बूती से डटे रहना," दुर्गपति ने कहा, "धावा बोला जायेगा ..." इसी क्षण भयानक चीख- चिल्लाहट सुनाई दी, विद्रोही तेज़ी से दुर्ग की ओर दौड़ने लगे। हमारी तोप में छर्रे भरे हुए थे । दुर्गपति ने विद्रोहियों को अधिक से अधिक निकट आ जाने दिया और फिर अचानक तोप दाग़ दी । छर्रे भीड़ के ठीक बीचोंबीच जाकर गिरे । विद्रोही दायें-बायें बिखरे और पीछे हटने लगे। सिर्फ़ उनका सरदार ही अकेला आगे खड़ा रहा ... वह तलवार हिलाता हुआ बड़े जोश से उन्हें प्रेरित करता प्रतीत हो रहा था ... क्षण भर को शान्त होनेवाली चीख-पुकार फिर से सुनाई देने लगी । " तो जवानो, " दुर्गपति ने कहा, "अब फाटक खोल दो और नगाड़े पर चोट लगाओ। जवानो ! धावा बोलने के लिये मेरे पीछे-पीछे आगे बढ़ो !"

दुर्गपति, इवान इग्नातिच और मैं क्षण भर में ही दुर्ग की फ़सील के बाहर पहुंच गये, मगर दहशत में आई हुई दुर्ग - सेना टस से मस नहीं हुई । तुम वहीं क्यों खड़े हो, जवानो ?" इवान कुज़्मिच ने चिल्लाकर कहा । "मरना है, तो मरना है हम फ़ौजियों का यही धर्म है ! " इसी क्षण विद्रोही हम पर चढ़ आये और दुर्ग में घुस गये । नगाड़ा बन्द हो गया, दुर्ग-सेना ने हथियार डाल दिये। रेल-पेल में मुझे नीचे गिरा दिया गया, किन्तु मैं उठा और विद्रोहियों के साथ ही दुर्ग में दाखिल हुआ। दुर्गपति, जिनके सिर पर चोट आई थी, बदमाशों की भीड़ से घिरे हुए थे जो उन्हें चाबियां देने को मजबूर कर रहे थे। मैं दुर्गपति की मदद करने के लिये लपका, किन्तु कुछ हट्टे-कट्टे कज़्ज़ाकों ने मुझे पकड़ लिया और यह कहते हुए "तो चखिये मज़ा हमारे महाराज की बात न मानने का !" मुझे कमरबन्दों से कस दिया । हमें गलियों में से घसीटकर ले जाया गया । बस्ती के लोग नमक और रोटी लेकर घरों से बाहर आ गये । गिरजाघर का घण्टा बजने लगा । सहसा भीड़ में बहुत ऊंचे यह सुनाई दिया कि महाराज चौक में हैं और बंदियों के वहां लाये जाने तथा वफ़ादारी की क़सम खाने की राह देख रहे हैं। लोगों की भीड़ उस तरफ़ उमड़ पड़ी और हमें भी घसीटकर वहीं ले जाया गया ।

पुगाचोव दुर्गपति के घर के ओसारे में कुर्सी पर बैठा था । वह कज़्ज़ाकों के ढंग का लाल अंगरखा पहने था जिस पर गोटा लगा था । सुनहरी कलगी लगी सेबल की खाल की ऊंची टोपी उसकी चमकती आंखों पर खिंची हुई थी । उसका चेहरा मुझे जाना-पहचाना प्रतीत हुआ । कज़्ज़ाक मुखिया उसे घेरे हुए थे। फ़ादर गेरासिम, जो कांप रहा था और जिसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं, हाथों में सलीब थामे ओसारे के पास खड़ा था और ऐसा लगता था मानो कुछ ही समय बाद दी जानेवाली कुर्बानियों की माफ़ी के लिये चुपचाप उसकी मिन्नत कर रहा था । चौक में जल्दी-जल्दी सूली बनाई जा रही थी। जब हम निकट पहुंचे, तो बश्कीरियों ने लोगों को खदेड़ दिया और हमें पुगाचोव के सामने पेश किया | घण्टा बजना बन्द हो गया और गहरी ख़ामोशी छा गयी । " दुर्गपति कौन है ?" नक़ली सम्राट ने पूछा । हमारे सार्जेंट ने भीड़ में से आगे आकर इवान कुज़्मिच की तरफ़ इशारा किया । पुगाचोव ने कोप- दृष्टि से बूढ़े दुर्गपति की तरफ़ देखा और बोला, "अपने सम्राट का विरोध करने की तुम्हें कैसे हिम्मत हुई ?” घाव के कारण दुर्बल हुए दुर्गपति ने अपनी बची - बचायी शक्ति बटोरी और दृढ़ता से उत्तर दिया, “तुम मेरे लिये सम्राट नहीं, चोर-उचक्के और झूठे दावेदार हो, सुना तुमने !" पुगाचोव की गुस्से से भौंहें चढ़ गयीं और उसने सफ़ेद रूमाल हिलाया । कई कज़्ज़ाकों ने बूढ़े कप्तान को पकड़ लिया और सूली के पास घसीट ले गये । अपंग बश्कीरी, जिससे हमने एक दिन पहले पूछताछ की थी, सूली के शहतीर पर तैनात था । वह अपने हाथ में रस्सी लिये था और एक मिनट बाद मैंने बेचारे इवान कुज़्मिच को सूली पर लटकते पाया। इसके बाद इवान इग्नातिच को पुगाचोव के सामने लाया गया । "मुझ सम्राट प्योतर फ्योदोरोविच के सामने वफ़ादारी की क़सम खाओ !” पुगाचोव ने उससे कहा । "तुम हमारे लिये सम्राट नहीं हो अपने कप्तान के शब्द दोहराते हुए इवान इग्नातिच ने उत्तर दिया । "चचा, तुम चोर उचक्के और झूठे दावेदार हो !” पुगाचोव ने फिर से रूमाल हिलाया और भला लेफ्टिनेंट अपने बूढ़े अफ़सर की बग़ल में ही सूली पर लटक गया ।

अब मेरी बारी थी । मन ही मन अपने भले साथियों के उत्तर दोहराने की तैयारी करते हुए मैं बड़े साहस से पुगाचोव की ओर देख रहा था। इसी समय मैंने विद्रोही मुखियाओं के बीच कज़्ज़ाकों के ढंग से बाल कटवाये और कज़्ज़ाकों का अंगरखा पहने श्वाबरिन को देखा और मुझे इतनी हैरानी हुई कि बयान से बाहर । उसने पुगाचोव के क़रीब आकर उसके कान में कुछ शब्द कहे । "इसे सूली दे दो!” मेरी ओर देखे बिना ही पुगाचोव ने कहा । मेरी गर्दन में फंदा डाल दिया गया। मैं मन ही मन प्रार्थना और अपने सभी पापों का प्रायश्चित तथा भगवान से यह अनुरोध करने लगा कि वह मेरे सभी प्रियजन की रक्षा करे। मुझे सूली के नीचे खींच ले गये । "डरो नहीं, 'डरो नहीं," मेरे हत्यारे लगातार दोहराते जा रहे थे और वे शायद सचमुच ही मेरी हिम्मत बढ़ाना चाहते थे । अचानक मैंने किसी को यह चीखते सुना "रुक जाओ, दुष्टो ! रुक जाओ ! ..." जल्लाद रुक गये। देखता क्या हूं कि सावेलिच पुगाचोव के क़दमों पर गिरा हुआ है । "दयालु पिता !" बेचारा सावेलिच गिड़गिड़ा रहा था । "मेरे स्वामी के इस बच्चे की जान लेकर तुम्हें क्या मिलेगा ? इसे छोड़ दो, इसके बदले में तुम्हें दौलत मिल जायेगी और लोगों के सामने मिसाल पेश करने तथा उनमें दहशत पैदा करने के लिये अगर चाहो तो मुझ बुड्ढे को सूली दे सकते हो ।” पुगाचोव ने इशारा किया और मुझे उसी समय खोलकर छोड़ दिया गया । "हमारे महाराज आपकी जान बख्शते हैं," मुझसे कहा गया। कह नहीं सकता कि अपनी जान बच जाने से मुझे खुशी हुई या नहीं, किन्तु यह भी नहीं कह सकता कि मुझे इसका अफ़सोस हुआ । बहुत ही धुंधली - धुंधली - सी भावनायें आ रही थीं उस वक़्त मेरे दिल-दिमाग़ में। मुझे फिर से उस नक़ली सम्राट के सामने लाया गया और घुटनों के बल होने को विवश किया गया । पुगाचोव ने उभरी हुई नसोंवाला हाथ मेरी ओर बढ़ाया । "चूमो, हाथ को चूमो !" मुझे अपने आस-पास से आवाजें सुनाई दीं । किन्तु ऐसे नीचतापूर्ण अपमान की तुलना में मैंने कड़े से कड़े दण्ड को बेहतर माना होता । “भैया, प्योतर अन्द्रेइच !” मेरे पीछे खड़ा और मुझे आगे की ओर धकियाता हुआ सावेलिच फुसफुसाया, “ज़िद्द नहीं करो! तुम्हारा इसमें क्या जाता है ? थूको और चूम लो नीच ... ( छि: ! ) मेरा मतलब उसका हाथ चूम लो ।" मैं टस से मस नहीं हुआ । पुगाचोव ने व्यंग्यपूर्वक यह कहते हुए हाथ नीचे कर लिया लगता है कि जनाब का खुशी के मारे दिमाग़ ठिकाने नहीं रहा । इसे उठाकर खड़ा कर दीजिये । मुझे खड़ा किया गया और मुक्त छोड़ दिया गया। मैं आगे जारी रहनेवाले इस भयानक तमाशे को देखता रहा । "

दुर्गवासी वफ़ादारी की क़सम खाने लगे। वे बारी-बारी से आते, सलीब को चूमते और फिर उस नक़ली सम्राट के सामने सिर झुकाते । दुर्ग के सैनिक भी वहीं खड़े थे । अपनी कुंठित कैंची लिये हुए दुर्ग का दर्ज़ी उनकी चोटियां काट रहा था। अपने को झटककर वे पुगाचोव का हाथ चूमते जो उन्हें क्षमा-दान देता और अपने गिरोह में शामिल कर लेता । यह सब कुछ लगभग तीन घण्टे तक चलता रहा । आखिर पुगाचोव अपनी कुर्सी से उठा और अपने सलाहकारों से घिरा हुआ ओसारे से नीचे उतरा। उसके लिये बढ़िया साज़ से सजा हुआ सफ़ेद घोड़ा लाया गया। दो कज़्ज़ाकों ने सहारा देकर उसे जीन पर बिठाया । उसने फ़ादर गेरासिम से कहा कि दिन का भोजन वह उसके यहां करेगा। इसी समय एक नारी की चीख सुनाई दी। कुछ लुटेरे वसिलीसा येगोरोव्ना को ओसारे में घसीट लाये । उनके बाल अस्त-व्यस्त थे और वह एकदम नंगी थीं। उनमें से एक ने तो उनकी रूईदार जाकेट भी पहन ली थी । दूसरे लोग रोयों से भरे हुए गद्दे, सन्दूक, चीनी के बर्तन, गिलाफ़- चादरें और दूसरी चीजें उठाये ला रहे थे । "भले लोगो !" बेचारी बूढ़ी वसलीसा येगोरोना चिल्ला रही थीं । "मुझे शान्ति से मर जाने दो ! प्यारे लोगो, मुझे इवान कुज़्मिच के पास पहुंचा दो ।" अचानक उन्होंने सूली की ओर देखा और अपने पति को पहचान लिया । "नीच दुष्टो," वह गुस्से से पागल होकर चिल्ला उठीं। "यह तुमने क्या किया है उसके साथ? मेरी आंखों की रोशनी, इवान कुज़्मिच, मेरे वीर सैनिक ! न प्रशा की संगीन तुम्हारा कुछ बिगाड़ सकी, न तुर्की की गोली । न इन्साफ़ की सच्ची लड़ाई में तुम खेत रहे, एक भगोड़े अपराधी के हाथों मारे गये ! बन्द करो इस चुड़ैल बुढ़िया की ज़बान । पुगाचोव ने कहा । इसी वक़्त एक जवान कज़्ज़ाक ने उनके सिर पर तलवार से वार किया और वह ओसारे की पैड़ी पर निर्जीव होकर गिर पड़ीं। पुगाचोव ने घोड़ा बढ़ाया ; लोगों की भीड़ उसके पीछे-पीछे भागने लगी ।

आठवां अध्याय : बिन बुलाया मेहमान

बिन बुलाया मेहमान
तातार से भी बदतर ।
-कहावत

चौक खाली हो गया । मन पर पड़ी इतनी भयानक छापों के कारण बेहद परेशान हुआ मैं एक ही जगह पर खड़ा था और अपने विचारों को व्यवस्थित नहीं कर पा रहा था।

मरीया इवानोव्ना का क्या हुआ, यह बात मुझे सब से अधिक व्यथित कर रही थी। कहां है वह ? कैसी है वह ? कहीं छिप पाई या नहीं ? उसके छिपने की जगह भरोसे की है या नहीं ?.. मन को अत्यधिक चिन्तित करनेवाले ऐसे विचारों को लिये हुए ही मैं दुर्गपति के घर में दाखिल हुआ... वहां बरबादी का नज़ारा था - कुर्सियां, मेजें, सन्दूक़ तोड़-फोड़ डाले गये थे, बर्तन टूटे-फूटे पड़े थे, सब कुछ लूटा जा चुका था। मैं भागता हुआ सोने के कमरे की ओर ले जानेवाला छोटा-सा जीना चढ़ गया और जीवन में पहली बार मरीया इवानोव्ना के कमरे में प्रवेश किया। मैंने उसका बिस्तर देखा जिसे उचक्कों ने खूब अच्छी तरह से उथला-पुथला था, अलमारी को तोड़ा और लूट लिया गया था, देव - प्रतिमा के सामने दीपक की बत्ती अभी तक धीरे- धीरे सुलग रही थी । खिड़कियों के बीच की दीवार पर लटकनेवाला दर्पण सही-सलामत था ... कुंआरी कन्या के इस बहुत ही साधारण, छोटे-से और शांत कमरे की स्वामिनी कहां थी ? मेरे मस्तिष्क में एक भयानक - सा विचार कौंध गया - अपनी कल्पना में मैंने उसे लुटेरों के हाथों में देखा... मेरा दिल बैठ गया... मैं फूट-फूटकर रोने लगा और मैंने ऊंची आवाज़ में अपनी प्यारी का नाम लिया ... इसी समय हल्की-सी आहट सुनाई दी और अलमारी के पीछे से कांपती तथा पीला - ज़र्द चेहरा लिये हुए पालाशा सामने आई ।

“ओह, प्योतर अन्द्रेइच !” उसने हताशा से हाथ झटकते हुए कहा । "कैसा मनहूस दिन है आज ! कैसी भयानक चीज़ों का सामना करना पड़ा !"

"मरीया इवानोव्ना कहां है ?" मैंने अधीरता से पूछा । " क्या हुआ मरीया इवानोव्ना का ?"

"छोटी मालकिन जिन्दा हैं," पालाशा ने उत्तर दिया । "अकुलीना पम्फ़ीलोव्ना के यहां छिपी हुई हैं।"

पादरी के यहां ! "मैं भयभीत होकर चिल्ला उठा ।" हे भगवान ! पुगाचोव भी वहीं पर है !.."

मैं पागलों की तरह कमरे से बाहर भागा, आन की आन में सड़क पर आ गया, कुछ भी सोचे- विचारे बिना कुछ भी देखे सुने और अनुभव किये बिना दौड़ता हुआ पादरी के घर जा पहुंचा। वहां हो-हल्ला, ठहाके और गाने सुनाई दे रहे थे... पुगाचोव अपने साथियों के साथ दावत उड़ा रहा था । पालाशा भी मेरे पीछे-पीछे दौड़ती हुई यहीं आ पहुंची। मैंने उसे अकुलीना पम्फ़ीलोव्ना को धीरे से बुला लाने को भेजा। क्षण भर बाद हाथ में खाली बोतल लिये हुए पादरिन ड्योढ़ी में मेरे पास आई ।

"भगवान के लिये यह बताइये कि मरीया इवानोव्ना कहां है ?" मैंने बेहद उत्तेजना से पूछा ।

"वह, मेरी प्यारी, मेरे यहां बीच की ओट के पीछे मेरे पलंग पर लेटी हुई है। ओह, प्योतर अन्द्रेइच, मुसीबत का पहाड़ टूटते - टूटते बचा। बड़ी कृपा है भगवान की कि बुरी घड़ी टल गयी - वह बदमाश दिन का भोजन करने बैठा ही था कि मेरी उस बेचारी बच्ची की आंख खुल गयी और वह कराह उठी!.. मेरी तो जान ही निकल गयी । उसने कराहने की आवाज़ सुन ली - 'बुढ़िया, कौन तुम्हारे यहां कराह रहा है?' मैंने सिर झुकाकर चोर से कहा, 'मेरी भानजी हुजूर, उसकी बीमारी का दूसरा हफ़्ता चल रहा है ।' - ' जवान है तुम्हारी भानजी ?' – ' जवान है हुजूर । ' - 'बुढ़िया, मुझे दिखाओ तो अपनी भानजी ।' मेरा दिल बहुत ज़ोर से धड़कने लगा, मगर हो ही क्या सकता था। ‘जैसी आपकी इच्छा हुजूर, लेकिन लड़की तो उठकर आपकी सेवा में उपस्थित नहीं हो सकती । ' - ' कोई बात नहीं बुढ़िया, मैं खुद जाकर उसे देख लेता हूं।' और वह दुष्ट सचमुच कमरे की ओट के पीछे चला गया। और क्या बताऊं तुम्हें ! उसने पर्दा हटाया और अपनी बाज़ जैसी पैनी नज़र से उसे देखा । मगर कोई बात नहीं ... भगवान ने बड़ी दया की ! यक़ीन मानना, मैंने और मेरे पति ने घोर यन्त्रणायें सहकर मरने के लिये अपने को तैयार भी कर लिया था । खुशकिस्मती कहिये, मेरी उस प्यारी बच्ची ने उसे पहचाना नहीं । हे भगवान, कैसा दिन दिखाया है तुमने ! कुछ कहते नहीं बनता ! बेचारे इवान कुज़्मिच ! कौन सोच सकता था ऐसी बात !.. और वसिलीसा येगोरोव्ना ? इवान इग्नातिच भी ? उसके साथ भला ऐसा सुलूक क्यों किया गया ? आप पर कैसे रहम कर दिया उसने ? और वह अलेक्सेई इवानोविच श्वाबरिन भी ख़ब है ? कज़्ज़ाकों की तरह बाल कटवा लिये और अब उन्हीं के साथ हमारे यहां बैठा हुआ दावत उड़ा रहा है ! बड़ा चलता पुर्ज़ा है! जैसे ही मैंने बीमार भानजी के बारे में कहा, वैसे ही, यक़ीन मानिये, उसने मेरी ओर ऐसे देखा मानो छुरी मेरे आर-पार कर दी हो, लेकिन भंडाफोड़ नहीं किया, इसके लिये ही शुक्रिया उसका।" इसी समय नशे में धुत्त मेहमानों की चीख-पुकार और फ़ादर गेरासिम की आवाज़ सुनाई दी । मेहमान शराब मांग रहे थे, मेज़बान अपनी पत्नी को पुकार रहा था । पादरिन ने हड़बड़ाते हुए कहा, “अपने घर जाइये, प्योतर अन्द्रेइच, आपका यहां रुकना ठीक नहीं। बदमाशों की पिलाई चल रही है। कहीं किसी शराबी के हत्थे चढ़ गये, तो बहुत बुरा होगा । विदा प्योतर अन्द्रेइच। जो होगा, सो होगा। शायद भगवान रक्षा करेगा ।"

पादरिन चली गयी। कुछ शान्त होकर मैं अपने घर की ओर चल दिया। चौक के पास से गुज़रते हुए मुझे कुछ बश्कीरी दिखाई दिये जो सूली के आसपास जमा थे और लटकते हुए मुर्दों के बूट उतार रहे थे । यह अनुभव करते हुए कि उन्हें मना करने में कोई तुक नहीं, मैंने बड़ी मुश्किल से अपने गुस्से पर काबू पाया। अफ़सरों के घरों को लूटते हुए लुटेरे दुर्ग में जहां-तहां भागे फिर रहे थे। हर जगह पीते - पिलाते विद्रोहियों का चीखना - चिल्लाना सुनाई दे रहा था । मैं घर पहुंचा। सावेलिच दहलीज़ पर ही मेरी राह देख रहा था ।

"भला हो भगवान का !" मुझे देखकर वह चिल्ला उठा । “मैं सोचने लगा था कि बदमाशों ने तुम्हें फिर से पकड़ लिया। भैया, प्योतर अन्द्रेइच ! यकीन मानोगे, शैतान के बच्चे हमारे यहां से सब कुछ लूट ले गये - कपड़े-लत्ते, गिलाफ़ चादर, चीजें, बर्तन - कुछ भी तो नहीं छोड़ा। भाड़ में जाये यह सब कुछ ! भगवान की यही बड़ी कृपा है कि तुम्हें ज़िन्दा छोड़ दिया ! इनके सरदार को तो पहचाना तुमने मालिक ?"

"नहीं, नहीं पहचाना। कौन है वह ? "

"क्या कहते हो मालिक ? तुम उस शराबी को भूल गये जिसने सराय में तुमसे खरगोश की खाल का कोट ठग लिया था ? कोट बिल्कुल नया था, मगर उस जंगली ने पहनते वक़्त उसे उधेड़ डाला था ! "

मैं दंग रह गया। वास्तव में ही पुगाचोव और उस तूफ़ानी रात के मेरे मार्गदर्शक के बीच बहुत समानता थी । मुझे विश्वास हो गया कि पुगाचोव वही व्यक्ति था तथा यह समझने में देर न लगी कि क्यों मुझ पर दया की गयी थी । परिस्थितियों के ऐसे अजीब उलट-फेर पर मैं आश्चर्यचकित हुए बिना न रह सका - एक आवारा को भेंट किये गये बालक के फ़र-कोट ने मुझे सूली के फंदे से बचा लिया और एक सराय से दूसरी में भटकते रहनेवाला पियक्कड़ अब दुर्गों की नाकाबन्दियां कर रहा था और राज्य की नींव हिला रहा था।

"कुछ खाना चाहोगे न ?” सावेलिच ने अपनी आदत के मुताबिक़ पूछा । " घर में तो कुछ भी नहीं, जाकर ढूंढ़ता - ढांढ़ता हूं और तुम्हारे खाने के लिये किसी तरह कुछ तैयार कर दूंगा ।"

अकेला रह जाने पर मैं अपने विचारों में खो गया । मुझे क्या करना चाहिये ? इस दुष्ट के अधीन दुर्ग में ही रहना या उसके गिरोह में शामिल हो जाना अफ़सर को शोभा नहीं देता था । मेरा कर्तव्य इस बात की मांग करता था कि मैं वहां जाऊं, जहां इस समय की कठिन परि- स्थितियों में मातृभूमि के लिये मेरी सेवा उपयोगी हो सकती थी ... किन्तु प्रेम बहुत ज़ोर से यह सलाह देता था कि मैं मरीया इवानोव्ना के पास रहूं, उसका रक्षक और संरक्षक बनूं । यद्यपि मैं पहले से ही यह देख रहा था कि परिस्थितियों में निश्चय ही और बहुत शीघ्र परिवर्तन होगा, तथापि मरीया इवानोव्ना की स्थिति के ख़तरे की कल्पना करके कांपे बिना नहीं रह सकता था।

एक कज़्ज़ाक के भागते हुए भीतर आने और यह घोषणा करने से मेरी विचार श्रृंखला टूटी कि "महान सम्राट ने तुम्हें अपने यहां आने का आदेश दिया है।"

"कहां है वह?” आदेश-पालन के लिये तत्पर होते हुए मैंने पूछा ।

"दुर्गपति वाले घर में," कज़्ज़ाक ने जवाब दिया । भोजन के बाद हमारे महाराज गुसल करने गये और अब आराम कर रहे हैं। हुजूर, सभी बातों से पता चलता है कि बहुत बड़ी हस्ती हैं वह । भोजन के वक़्त उन्होंने सूअर के दो तले हुए बच्चे खाये और वह इतना गर्म भाप-स्नान करते हैं कि तरास कूरोच्किन भी बर्दाश्त न कर सका, उसने तन साफ़ करने का झाडू फ़ोमका बिक्बायेव को दे दिया और फिर खुद बड़ी मुश्किल से ठण्डे पानी की बदौलत होश में आया । यही कहना चाहिये कि हमारे महाराज के सभी रंग-ढंग बड़े निराले हैं ... और सुनने में आया है कि गुसलघर में उन्होंने अपनी छाती पर अपने सम्राट-चिह्न दिखाये - एक ओर तो पांच कोपेक के सिक्के जितना बड़ा दो सिर वाला उक़ाब और दूसरी ओर अपना चित्र ।"

मैंने कज़्ज़ाक के मत का खण्डन करना आवश्यक नहीं समझा और पुगाचोव के साथ अपनी भेंट तथा इस बात की पहले से ही कल्पना करने का प्रयास करते हुए कि इसका क्या अन्त होगा, कज़्ज़ाक के साथ दुर्गपति के घर की ओर चल दिया। पाठक बहुत आसानी से ही यह अनुमान लगा सकता है कि मेरा मन बेचैन था ।

जब मैं दुर्गपति के घर पहुंचा, तो झुटपुटा होने लगा था । लटकती लाशोंवाली सूली अब काली और बहुत भयानक लग रही थी। बेचारी वसिलीसा येगोरोव्ना की लाश अभी भी ओसारे के नीचे, जहां दो कज़्ज़ाक पहरा दे रहे थे, पड़ी हुई थी। मुझे बुलाकर लानेवाला कज़्ज़ाक मेरे बारे में सूचना देने गया और उल्टे पांव लौटकर मुझे उस कमरे में ले गया जहां पिछली शाम को मैंने इतने प्यार से मरीया इवानोव्ना से विदा ली थी ।

मेरी आंखों के सामने बड़ा असाधारण-सा दृश्य था - मेज़पोश से ढकी मेज़ पर सुराहियां और गिलास रखे थे और कोई दसेक कज़्ज़ाक मुखियों के साथ, जो ऊंची टोपियां और रंगीन क़मीजें पहने थे तथा जिनके तोबड़े लाल और आंखें चमक रही थीं, पुगाचोव मेज़ के पास बैठा था। नये शामिल हुए ग़द्दार - यानी श्वाबरिन और हमारा सार्जेंट इनमें नहीं थे। "अरे, हुज़ूर आप हैं !" मुझे देखकर पुगाचोव ने कहा । "कृपया पधारिये, हमारे लिये बड़े गौरव की बात है, बैठिये ।" लोग एक-दूसरे के साथ तनिक सट गये। मैं चुपचाप मेज़ के सिरे पर बैठ गया। मेरी बग़ल में बैठे हुए जवान, सुघड़ - सुडौल और सुन्दर कज़्ज़ाक ने मेरे लिये शराब का गिलास भर दिया जिसे मैंने छुआ भी नहीं । मैं यहां एकत्रित लोगों को जिज्ञासा से देखने लगा। मेज़ पर कोहनी टिकाये और काली दाढ़ी को अपनी चौड़ी मुट्ठी पर फैलाये पुगाचोव मुख्य स्थान पर बैठा था । तीखे और खासे प्यारे नाक-नक्शे वाले उसके चेहरे पर क्रूरता की झलक तक नहीं थी । वह रह-रहकर पचासेक साल के एक व्यक्ति को सम्बोधित करता था और कभी तो उसे काउंट, कभी तिमोफ़ेइच और कभी चाचा कहता था । सभी साथियों की तरह एक-दूसरे के साथ पेश आते थे और अपने सरदार के प्रति कोई खास आदर-सत्कार नहीं दिखा रहे थे। सुबह के हमले, विद्रोह की सफलता और भावी गतिविधियों के बारे में बातचीत चल रही थी । हर कोई अपनी डींग हांक रहा था, अपनी राय जाहिर करता था और बेरोक- टोक पुगाचोव की बात काटता था । इस अजीब क़िस्म की युद्ध - परिषद में ओरेनबुर्ग पर हमला करने का फ़ैसला किया गया - यह बड़ा साहसपूर्ण निर्णय था जो आपदपूर्ण सफलता के चरम बिन्दु तक पहुंचता - पहुंचता रह गया। अगले दिन कूच करने की घोषणा की गयी । "तो बन्धुओ," पुगाचोव ने कहा, "बिस्तर पर जाने के पहले आओ मेरा मनपसन्द गीत गा लें । चुमाकोव ! शुरू करो !" मेरी बग़ल में बैठे कज़्ज़ाक ने पतली-सी आवाज़ में बजरे खींचनेवालों का एक उदासीभरा गीत शुरू किया और सभी मिलकर गाने लगे -

हरे-भरे प्यारे बलूत, तुम नहीं करो सरसर,
मुझे सोचना, खलल न डालो, बोझ बड़ा मन पर,
रौद्र ज़ार के न्यायालय में कल मुझको जाना-
जो कुछ पूछेगा वह मुझसे, होगा बतलाना ।
पूछेगा यह ज़ार - " मुझे तुम इतना बतलाओ :
ओ किसान के बेटे, किसके संग मिल चोरी की,
जब डाके डाले, तब किसने तेरा साथ दिया,
बुहत अधिक थे साथी, जिनको तूने साथ लिया ? "
"न्यायप्रिय सम्राट, तुम्हें मैं सब कुछ बतलाता,
सब कुछ सच-सच कहूं, ज़रा भी कपट न कर पाता ।
सिर्फ़ चार थे मेरे साथी-
पहला तो था रात अन्धेरी,
दूजा - तेज़ छुरी यह मेरी,
और तीसरा साथी तो था - बढ़िया घोड़ा,
चौथा साथी – धनुष कसा यह मेरा,
मेरे सन्देशों के वाहक तेज़ तीर थे ।"
न्याय-धर्म का प्यारा, ज़ार कहेगा तब यह -
"ओ किसान के बेटे है शाबाश, तुम्हें है
जाना तुमने चोरी करना, उत्तर देना !
भैया, इसके लिये करूं सम्मान तुम्हारा -
महल खुले मैदान बीच मैं बनवाऊंगा,
दो खम्भों के बीच कड़ी मैं डलवाऊंगा ।"

सूली के बारे में इस साधारण लोक-गीत ने जिसे उन्हीं लोगों ने गाया था जिनके भाग्य में सूली लिखी थी, मेरे मन पर कितनी गहरी छाप अंकित की, यह बयान करना मुमकिन नहीं । उनके रौद्र चेहरे, सधी हुई आवाज़ें, उनकी वह उदासी भरी अभिव्यक्ति जिससे वे उन शब्दों को गाते थे जो स्वयं ही बहुत अभिव्यक्तिपूर्ण थे - इन सब चीज़ों ने मुझे अजीब काव्यमय भय से झकझोर डाला ।

मेहमानों ने शराब का एक-एक गिलास और पिया, मेज़ पर से उठे और पुगाचोव से विदा लेकर जाने लगे। मैंने भी ऐसा ही करना चाहा, किन्तु पुगाचोव ने मुझसे कहा, “ बैठो, " मैं तुम से कुछ बातचीत करना चाहता हूं। हम दोनों ही रह गये ।

कुछ मिनट तक हम दोनों खामोश रहे । पुगाचोव मुझे एकटक देख रहा था, धूर्त्तता और उपहास का अद्भुत भाव लिये अपनी बायीं आंख को कभी-कभी सिकोड़ लेता था । आखिर वह ऐसी निश्छल प्रफुल्ल- ता से खुलकर हंस दिया कि कारण न जानते हुए मैं खुद भी उसकी ओर देखकर हंसने लगा ।

“तो जनाब ?” उसने मुझसे कहा, "यह स्वीकार कर लो कि जब मेरे जवानों ने तुम्हारी गर्दन में सूली का फंदा डाला, तो तुम्हारे पैरों तले की धरती खिसक गयी थी ? सम्भवतः होश - हवास गुम हो गये थे ... अगर तुम्हारा नौकर न आता, तो तुम सूली पर लटक गये होते। उस बुड्ढे - खूसट को मैंने देखते ही पहचान लिया । जनाब ने यह तो कभी नहीं सोचा होगा कि तुम्हें रास्ता दिखानेवाला व्यक्ति स्वयं महान सम्राट है ?" ( इतना कहकर वह अपने चेहरे पर बहुत रोबीला और रहस्यपूर्ण भाव ले आया ) । "तुम मेरे सम्मुख बहुत अपराधी हो, वह कहता गया, किन्तु मैंने तुम्हारी नेकी के लिये, इस चीज़ के लिये तुम्हें माफ़ कर दिया कि तुमने उस वक़्त मेरी मदद की थी जब मैं अपने दुश्मनों की नज़र से छिपने के लिये मजबूर था । मगर अभी तो क्या है और आगे देखना ! जब अपना राज्य प्राप्त कर लूंगा, तो तुम्हारे लिये और बहुत कुछ करूंगा ! निष्ठा से मेरी सेवा करने का वचन देते हो ?"

इस बदमाश का प्रश्न और उसका ऐसा साहस, मुझे ये दोनों चीजें इतनी मनोरंजक प्रतीत हुईं कि मैं मुस्कराये बिना न रह सका ।

"किसलिये मुस्करा रहे हो ?” उसने नाक-भौंह सिकोड़कर मुझसे पूछा । " या तुम यह विश्वास नहीं करते कि मैं महान सम्राट हूं ? साफ़-साफ़ जवाब दो । "

मैं उलझन में पड़ गया - एक आवारा को सम्राट मान लेना मेरे बस की बात नहीं थी - मुझे लगा कि यह अक्षम्य कायरता होगी । उसके मुंह पर उसे धोखेबाज़ कहना मौत को बुलावा देना था। गुस्से की पहली झोंक में सूली के फंदे के नीचे और सभी की आंखों के सामने मैं जो करने को तैयार था, वह अब मुझे व्यर्थ डींग मारना प्रतीत हो रहा था । मैं दुविधा में पड़ गया । पुगाचोव निष्ठुरता का भाव लिये मेरे उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था । आखिर ( आज भी मैं बहुत आत्मसन्तोष से इस क्षण को याद करता हूं ) मानवीय दुर्बलता पर कर्तव्य-भावना की विजय हुई। मैंने पुगाचोव को उत्तर दिया, "सुनो, मैं तुमसे सब कुछ सच - सच कहे देता हूं। खुद ही सोचो, क्या मैं तुम्हें सम्राट मान सकता हूं ? तुम चतुर व्यक्ति हो - मेरे ऐसा करने पर तुमने स्वयं यह जान लिया होता कि मैं मक्कारी कर रहा हूं ।"

"तो तुम्हारे ख्याल में मैं कौन हूं ?"

"भगवान ही जानता है । लेकिन तुम कोई भी क्यों न हो, तुम एक भयानक खिलवाड़ कर रहे हो ।"

पुगाचोव ने झटपट मेरी ओर देखा ।

"तो तुम यह विश्वास नहीं करते, " उसने कहा, “ कि मैं सम्राट प्योतर फ़्योदोरोविच हूं ? खैर, ठीक है । किन्तु क्या साहसी को ही सफलता नहीं मिलती ? क्या पुराने वक़्तों में ग्रीश्का ओत्रेप्येव1 ने राज नहीं किया था ? मेरे बारे में जो भी चाहो, सोचो, मगर मेरा साथ दो। मैं कौन हूं, तुम्हें इससे क्या लेना-देना? किसी के नाम से क्या फ़र्क पड़ता है ? वफ़ादारी और ईमानदारी से मेरी सेवा करो और मैं तुम्हें फ़ील्डमार्शल और प्रिंस बना दूंगा। क्या ख़्याल है तुम्हारा ?"

1. ग्रीश्का ओत्रेप्येव - एक भगोड़ा साधु जिसने ज़ार इवान रौद्र का बेटा, प्रिंस द्मीत्री होने का ढोंग किया था । पोलैंडी हस्तक्षेपकारियों का यह कठपुतला, "झूठा द्मीत्री" १६०५ और १६०६ में ग्यारह महीने तक शासन करता रहा था । - सं०

"नहीं," मैंने दृढ़ता से जवाब दिया । "मैं जन्मजात कुलीन हूं, मैंने सम्राज्ञी के प्रति निष्ठावान रहने की शपथ ली है - तुम्हारी सेवा नहीं कर सकता। अगर तुम सचमुच ही मेरी भलाई चाहते हो, तो मुझे ओरेनबर्ग जाने दो।"

पुगाचोव सोचने लगा ।

"अगर जाने दूं,” उसने कहा, “ तो कम से कम यह वचन तो देते हो कि मेरे विरुद्ध नहीं लड़ोगे ? "

"मैं तुम्हें यह वचन कैसे दे सकता हूं? मैंने उत्तर दिया । खुद ही जानते हो कि अपनी मर्जी का मालिक नहीं हूं - अगर मुझे तुम्हारे खिलाफ लड़ने का हुक्म मिलेगा, तो ऐसा करूंगा, और कोई चारा नहीं। अब तो तुम खुद बड़े अधिकारी हो - अपने अधीनों से आज्ञा-पालन की मांग करते हो । जब मेरी सेवा की आवश्यकता होगी और अगर मैं उससे इन्कार करूंगा, तो यह कैसा लगेगा ? मेरी जान तुम्हारी मुट्ठी में है, मुझे छोड़ दोगे तो तुम्हें धन्यवाद दूंगा, सूली दिलवा दोगे तो भगवान तुम्हारी करनी का निर्णय करेगा - मैंने तुमसे सचाई कह दी ।"

मेरी निश्छल, दो टूक बात से पुगाचोव दंग रह गया ।

"ऐसा ही सही, " मेरे कंधे पर हाथ मारते हुए उसने कहा । दण्ड दिया जाये तो दण्ड, और अगर क्षमा किया जाये तो क्षमा । जहां तुम्हारा मन चाहे वहां जाओ और जो चाहो, वह करो । कल मुझसे विदा लेने आ जाना और अब जाकर सो जाओ। मुझे भी नींद आ रही है।"

मैं पुगाचोव के कमरे से बाहर सड़क पर आ गया। रात शान्त और पाले से ठण्डी - ठिठुरी हुई थी । चांद-सितारे खूब चमक रहे थे, चौक और सूली को रोशन कर रहे थे । दुर्ग में सब कुछ शान्त था, अन्धेरा छाया था । केवल मदिरालय में रोशनी थी और रात को देर तक पीने-पिलानेवालों का चीखना - चिल्लाना सुनाई दे रहा था। मैंने पादरी के घर की ओर देखा । उसके शटर और फाटक - दरवाज़े बन्द थे। वहां सब कुछ शान्त प्रतीत हो रहा था ।

मैं घर लौटा और सावेलिच को अपनी अनुपस्थिति के कारण दुख में घुलते पाया । मुझे आज़ाद कर दिया गया है, इस ख़बर से उसे इतनी खुशी हुई कि बयान से बाहर । "भला हो तुम्हारा भगवान । " उसने सलीब का निशान बनाते हुए कहा । "सुबह होते ही हम दुर्ग से चल देंगे और कहीं भी चले जायेंगे। मैंने तुम्हारे खाने के लिये कुछ तैयार कर दिया है, उसे खा लो और सुबह तक चैन से सोये रहो ।"

मैंने सावेलिच की इस सलाह पर अमल किया और बड़े मन से भोजन करके मानसिक और शारीरिक रूप से बेहद थका-टूटा हुआ फ़र्श पर ही गहरी नींद सो गया ।

नौवां अध्याय : जुदाई

बहुत मधुर था, मेरी प्यारी, तुमसे मिलना,
बहुत दुखद, ज्यों हृदय गंवाना रहा बिछुड़ना ।
हेरास्कोव

ढोल की आवाज़ से तड़के ही मेरी आंख खुल गयी । मैं लोगों के एकत्रित होने के स्थान की ओर चल दिया । पुगाचोव के लोग-बाग वहां सूली के क़रीब, जहां अभी तक पिछले दिन की लाशें लटक रही थीं, क़तारों में खड़े हो रहे थे । कज़्ज़ाक घोड़ों पर सवार थे और फ़ौजी बन्दूकें लिये खड़े थे। झण्डे लहरा रहे थे। कुछ तोपें, जिनमें मैंने हमारी तोप भी पहचान ली, तोप - गाड़ियों पर लाद दी गयी थीं । सारे दुर्गवासी भी यहीं थे, नकली सम्राट का इन्तज़ार कर रहे थे दुर्गपति के घर के ओसारे के क़रीब एक कज़्ज़ाक किग़ज़ी नस्ल के एक बहुत ही बढ़िया सफ़ेद घोड़े की लगाम थामे खड़ा था। मैंने दुर्गपति की बीवी की लाश को नज़रों से ढूंढ़ने की कोशिश की । अब उसे एक तरफ़ को हटाकर चटाई से ढंक दिया गया था। आखिर पुगाचोव ड्योढ़ी से बाहर निकला। लोगों ने टोपियां उतार लीं। ओसारे में रुककर पुगाचोव ने सबका अभिवादन किया। उसके एक मुखिया ने तांबे के सिक्कों की थैली पकड़ा दी और वह मुट्ठियां भर-भरकर उन्हें बिखेरने लगा। लोग शोर मचाते हुए उन्हें उठाने के लिये लपके और किसी-किसी का हाथ-पांव भी टूट गया । पुगाचोव के प्रमुख विद्रोही साथी उसे घेरे हुए थे । श्वाबरिन भी उनमें खड़ा था। हमारी नज़रें मिलीं। मेरी नज़र में तिरस्कार देखकर उसने दिली गुस्से तथा बनावटी उपहास के भाव से मुंह फेर लिया। भीड़ में मुझे पहचानकर पुगाचोव ने मेरी ओर सिर झुकाया और मुझे अपने पास बुलाया । "सुनो, उसने मुझसे कहा अभी ओरेनबुर्ग जाओ और मेरी ओर से गवर्नर तथा सभी जनरलों को यह बता दो कि एक हफ़्ते बाद मेरी राह देखें । उन्हें यह सलाह देना कि बाल-सुलभ स्नेह के साथ मेरा स्वागत करें और मेरी बात मानें, वरना वे कठोर दण्ड से नहीं बच सकेंगे । हुजूर, तुम्हारी यात्रा शुभ रहे। इसके बाद उसने श्वाबरिन की तरफ़ इशारा करते हुए लोगों से कहा, " यह तुम लोगों का नया दुर्गपति है - इसकी हर बात मानो और वह तुम्हारे तथा दुर्ग के लिये मेरे सामने ज़िम्मेदार है ।" ये शब्द सुनकर मेरा दिल दहल गया - श्वाबरिन को दुर्गपति बना दिया गया; मरीया इवानोव्ना उसके हाथों में रह गयी ! हे भगवान, उसका क्या होगा ! पुगाचोव ओसारे से नीचे उतरा। उसके लिये घोड़ा लाया गया। उन कज़्ज़ाकों का इन्तज़ार किये बिना, जो घोड़े पर सवार होने में उसकी सहायता करना चाहते थे, वह फुर्ती से उस पर चढ़ गया ।

इसी वक्त मैंने क्या देखा कि मेरा सावेलिच भीड में से आगे आया और पुगाचोव के पास जाकर उसने एक काग़ज़ उसकी ओर बढ़ा दिया। मेरे लिये यह अनुमान लगाना कठिन था कि इसका क्या नतीजा होगा । यह क्या है ? " पुगाचोव ने बड़ी शान से पूछा ।

"पढ़ लो, और तब जान जाओगे", सावेलिच ने उत्तर दिया । पुगाचोव ने काग़ज़ ले लिया और बड़ी गम्भीर मुद्रा बनाकर उसे देर तक देखता रहा । क्या ग़ज़ब की लिखावट है तुम्हारी ? " आखिर उसने कहा। "हमारी राजसी दृष्टि भी यहां कुछ नहीं पढ़ पा रही। मेरा प्रथम सेक्रेटरी कहां है ?

दफ़ादार की वर्दी पहने एक नौजवान भागता हुआ पुगाचोव के पास आया। “ इसे ऊंचे-ऊंचे पढ़ो, " नक़ली सम्राट ने काग़ज़ देते हुए कहा । मैं यह जानने को बहुत उत्सुक था कि मेरे इस बुजुर्ग को पुगाचोव के नाम क्या लिखने की सूझी है। सेक्रेटरी अक्षर जोड़- जोड़कर ऊंची आवाज़ में पढ़ने लगा -

"मोटी दरेस और धारीदार रेशमी कपड़े के दो गाउन - छः रूबल ।"

"क्या मतलब है इसका ? ” पुगाचोव ने माथे पर बल डालकर पूछा।

"आगे पढ़ने को कहिये," सावेलिच ने इतमीनान से जवाब दिया ।

सेक्रेटरी आगे पढ़ने लगा -

"महीन, हरे ऊनी कपड़े की वर्दी - सात रूबल ।"

"सफ़ेद कपड़े का पतलून - पांच रूबल ।"

"कफ़ोंवाली एक दर्जन हालैंडी क़मीज़ें - दस रूबल ।"

"चीनी के बर्तनों सहित पेटी - ढाई रूबल ..."

"यह सब क्या बकवास है ? " पुगाचोव ने टोक दिया । " मुझे क्या मतलब है चीनी के बर्तनों सहित पेटी, पतलून और कफ़ों से ?"

सावेलिच ने खांसकर गला साफ़ किया और समझाने लगा-

"हुजूर, यह मेरे मालिक की उन चीज़ों की सूची है जिन्हें दुष्ट लोग चुरा ले गये हैं ..."

"कौन-से दुष्ट लोग ? ” पुगाचोव ने गुस्से से गरजकर पूछा ।

"माफ़ी चाहता हूं, ज़बान ग़ोता खा गयी ", सावेलिच ने जवाब दिया । "दुष्ट हैं या नहीं, तुम्हारे जवानों ने सब कुछ छान मारा और हमारी सारी चीजें उठा ले गये । बुरा नहीं मानो - घोड़े की चार टांगें होती हैं, मगर वह भी कभी-कभी ठोकर खा जाता है । अन्त तक पढ़ने को कह दो ।"

"अन्त तक पढ़ डालो,” पुगाचोव ने कहा । सेक्रेटरी ने पढ़ना जारी रखा —

"एक छींट की और दूसरी तफ़्ते की रेशमी रज़ाई - चार रूबल ।"

"लाल कपड़ेवाला लोमड़ी की खाल का कोट - चालीस रूबल ।"

"इसके अलावा खरगोश की खाल का कोट जो हुजूर को सराय में दिया गया —१५ रूबल ।"

"यह और क्या बकवास है !" गुस्से से धधकती आंखों की चमक दिखाते हुए पुगाचोव चिल्ला उठा ।

मैं यह खुलकर मानता हूं कि अपने इस बेचारे बुजुर्ग के लिये मेरा दिल डर गया। उसने फिर से स्पष्टीकरण देना चाहा, मगर पुगाचोव ने उसे बीच में ही टोक दिया —

"ऐसी फ़ुज़ूल की बातें लेकर तुम्हें मेरे पास आने की जुर्रत कैसे हुई ?" उसने सेक्रेटरी के हाथों से काग़ज़ झपटते और उसे सावेलिच के मुंह पर फेंकते हुए चिल्लाकर कहा । "मूर्ख बुड्ढा ! इन्हें लूट लिया गया – बड़ी आफ़त आ गयी ? बूढ़े- खूसट, तुम्हें मेरे और मेरे जवानों के लिये उम्र भर भगवान से इसलिये दुआ मांगनी चाहिये कि तुम और तुम्हारा मालिक उनके साथ सूली पर नहीं लटक रहे हो जिन्होंने मेरी आज्ञा का पालन नहीं किया... खरगोश की खाल का कोट ! दूंगा तुम्हें मैं खरगोश की खाल का कोट ! क्या तुम यह नहीं जानते कि मैं कोट बनवाने के लिये ज़िन्दा ही तुम्हारी खाल उधड़वा सकता हूं ?"

"जैसी तुम्हारी मर्जी," सावेलिच ने उत्तर दिया, "मैं ठहरा गुलाम आदमी और मालिक की दौलत के लिये जवाबदेह हूं ।

पुगाचोव स्पष्टतः अच्छे मूड में था । उसने मुंह फेरा तथा एक भी शब्द कहे बिना अपना घोड़ा आगे बढ़ा ले चला । श्वाबरिन और दूसरे मुखिया उसके पीछे-पीछे हो लिये । पूरा गिरोह व्यवस्थित ढंग से दुर्ग से बाहर निकला। लोग-बाग पुगाचोव को विदा करने उसके पीछे-पीछे चल दिये। मैं और सावेलिच ही चौक में रह गये। मेरा यह बुजुर्ग अपनी सूची हाथ में लिये था और बहुत अफ़सोस से उसे देख रहा था ।

मेरे साथ पुगाचोव के अच्छे रवैये को देखकर उसने इससे फ़ायदा उठाना चाहा था, लेकिन अपने इस नेक इरादे में उसे कामयाबी नहीं मिली । ग़लत ढंग से अपना जोश दिखाने के लिये मैंने उसे डांटना- फटकारना चाहा, मगर अपनी हंसी को नहीं रोक पाया ।

"हंसो, मालिक, हंसो," सावेलिच ने कहा । लेकिन जब नये सिरे से सारी गिरस्ती जमानी होगी, तब देखेंगे कि हंसी आयेगी या नहीं ।"

मैं मरीया इवानोव्ना से मिलने के लिये झटपट पादरी के घर की ओर चल दिया । पादरिन ने मुझे बुरा समाचार सुनाया । मरीया इवानोव्ना को पिछली रात को बहुत ज़ोर का बुखार चढ़ गया था। वह बेहोश और सरसाम की हालत में थी । पादरिन मुझे उसके कमरे में ले गयी। मैं दबे पांव उसके पलंग के पास गया । उसके चेहरे पर हुए परिवर्तन से मैं हैरान रह गया । उसने मुझे पहचाना नहीं । पादरी गेरासिम और उसकी नेक बीवी की बातों पर कान न देते हुए, जो संभवतः मुझे तसल्ली दे रहे थे, मैं देर तक उसके सामने खड़ा रहा । क्षुब्ध करनेवाले विचार मेरे मन में घूम रहे थे । क्रूर विद्रोहियों के बीच छोड़ दी गयी इस बेचारी, असहाय यतीम की स्थिति और अपनी बेबसी से मैं भयभीत हो रहा था। सबसे अधिक तो श्वाबरिन मेरी कल्पना को यातना प्रदान कर रहा था। अब, जब उसे नक़ली सम्राट से सत्ता मिल गई थी, वह उस दुर्ग का सरदार बन गया था, जहां क़िस्मत की मारी वह मासूम लड़की रह गयी थी जिससे उसे नफ़रत थी, तो वह उसके साथ मनमाना सुलूक कर सकता था । मैं क्या करता? कैसे उसे सहायता देता ? किस तरह चोर उचक्कों से उसे निजात दिलवाता ? केवल एक ही उपाय था – मैंने इसी समय ओरेनबुर्ग जाने का निर्णय किया, ताकि बेलोगोर्स्क दुर्ग को जल्दी से जल्दी मुक्त करवा सकूं और इस काम में यथाशक्ति सहयोग दूं । मैंने पादरी और अकुलीना पम्फ़ीलोव्ना से विदा ली, मन के उमड़ते प्यार से उसको उसके हाथों में सौंपा जिसे अपनी पत्नी मानता था । मैंने अपनी अभागी - असहाय मरीया का हाथ अपने हाथ में लेकर उसे आंसुओं से तर करते हुए चूमा। "अलविदा", पादरिन ने दरवाज़े तक मेरे साथ आते हुए कहा, “अलविदा, प्योतर अन्द्रेइच । शायद अच्छे दिन आयेंगे और हम मिलेंगे। हमें भूलियेगा नहीं और अक्सर खत लिखियेगा । बेचारी मरीया इवानोव्ना को तो अब आपके सिवा न तो कोई तसल्ली देनेवाला है और न उसका कोई संरक्षक ही है।"

चौक में आकर मैं क्षणभर को रुका, मैंने सूली की तरफ़ देखा, नतमस्तक हुआ, दुर्ग से बाहर निकला और सावेलिच के साथ, जो लगातार मेरे पीछे-पीछे आ रहा था, ओरेनबर्ग की ओर जानेवाली सड़क पर चल दिया ।

मैं अपने ख़्यालों में खोया हुआ चला जा रहा था कि अचानक मुझे अपने पीछे घोड़े की टापें सुनाई दीं। मैंने मुड़कर देखा, तो दुर्ग की ओर से एक कज़्ज़ाक को सरपट घोड़ा दौड़ाते आते पाया। वह एक बश्कीरी घोड़े की लगाम थामे हुए उसे अपने साथ ला रहा था और दूर से ही मुझे कुछ इशारे कर रहा था । मैं रुक गया और शीघ्र ही मैंने हमारे सार्जेंट को पहचान लिया। मेरे नज़दीक पहुंचकर वह अपने घोड़े से नीचे उतरा और मुझे दूसरे घोड़े की लगाम पकड़ाते हुए बोला, “हुजूर ! हमारे महाराज ने आपके लिये घोड़ा और अपना यह फ़र-कोट भेजा है " ( ज़ीन के साथ भेड़ की खाल का कोट बंधा हुआ था ) । इसके अलावा, वह रुका और हिचकिचाया, "उसने आपके लिये ... पचास कोपेक... भी भेजे हैं... पर मैं उन्हें रास्ते में ही कहीं खो बैठा हूं, माफ़ी चाहता हूं, हुजूर ।" सावेलिच ने उसको तिरछी नज़र से देखा और बड़बड़ाया – “ रास्ते में खो बैठा हूं ! तुम्हारी भीतर वाली जेब में क्या खनक रहा है ? बेहया कहीं का ! " "क्या खनक रहा है मेरी जेब में ?" ज़रा भी पे बिना सार्जेंट ने वाक्य दोहराया । "भगवान तुम्हारा भला करे बाबा! पचास कोपेक नहीं, यह तो लगाम खनक रही है । " - "खैर, ठीक है," मैंने इस बहस का अन्त करते हुए कहा । “उसे मेरी ओर से धन्यवाद देना जिसने तुम्हें भेजा है, लौटते समय खोये हुए पचास कोपेक को ढूंढ़ने की कोशिश करना और उनकी वोदका पी लेना ।" "बहुत बहुत शुक्रिया, हुजूर," उसने अपना घोड़ा मोड़ते हुए जवाब दिया, "हमेशा आपके लिये खुदा से दुआ मांगूंगा।” इतना कहकर वह एक हाथ से जेब को सम्भाले हुए घोड़े को सरपट वापस दौड़ा ले चला और क्षण भर बाद नज़र से ओझल हो गया ।

भेड़ की खाल का कोट पहनकर मैं घोड़े पर सवार हो गया और सावेलिच को मैंने अपने पीछे बिठा लिया । "देखा मालिक," बुड्ढे ने कहा, “व्यर्थ ही मैंने उस लुटेरे को अपनी अर्जी नहीं दी थी - उचक्के को शर्म आई, यद्यपि लम्बी टांगोंवाला यह बश्कीरी घोड़ा और भेड़ की खाल का कोट उस सबकी आधी क़ीमत के बराबर भी नहीं है जो उन शैतान के बच्चों ने हमारे यहां से चुरा लिया और जो तुमने खुद उसे दे दिया था। फिर भी ये काम आयेंगे, भागते भूत की लंगोटी ही सही ।"

दसवां अध्याय : शहर की नाकाबन्दी

डाल पड़ाव चरागाहों में औ' पर्वत पर,
दृष्टि उकाब सरीखी डाली शहर, नगर पर,
हुक्म दिया - दीवार बना, सब भेद छिपाओ,
रात हुई तो धावा बोला, दल-बल लेकर ।
हेरास्कोव

ओरेनबुर्ग के निकट पहुंचने पर हमें मुंडे सिरों और जल्लाद की चिमटियों द्वारा कुरूप बनाये गये चेहरोंवाले क़ैदियों की भीड़ दिखाई दी। वे दुर्ग के पंगु सैनिकों की निगरानी में क़िलेबन्दी के नज़दीक काम कर रहे थे। उनमें से कुछ ठेलों में भरकर खाई से कूड़ा-करकट निकाल रहे थे, दूसरे फावड़ों से ज़मीन खोद रहे थे। राज लोग प्राचीर के ऊपर ईंटें ढो-ढोकर नगर - दीवार की मरम्मत कर रहे थे । फाटक पर सन्तरियों ने हमें रोका और पासपोर्ट मांगे। किन्तु सार्जेंट को जैसे ही यह मालूम हुआ कि मैं बेलोगोर्स्क दुर्ग से आ रहा हूं, वह मुझे सीधे जनरल के पास ले गया ।

जनरल बाग़ में थे। वे पतझर से पातहीन हुए सेबों के पेड़ों को ध्यान से देख रहे थे और बूढ़े माली की सहायता से उन्हें बड़े प्यार से भूसे से ढक रहे थे। उनके चेहरे पर चैन, अच्छे स्वास्थ्य और खुश-मिज़ाजी की झलक थी। मुझे देखकर उन्हें खुशी हुई और वे उन भयानक घटनाओं के बारे में पूछ-ताछ करने लगे जिनका मैं साक्षी रहा था। मैंने उन्हें सब कुछ बताया । बूढ़े जनरल बहुत ध्यान से मेरी बातें सुनते और साथ ही सूखी टहनियां भी काटते रहे । "बेचारा मिरोनोव !" मेरा दर्दभरा क़िस्सा ख़त्म हो जाने पर जनरल ने कहा । "उसके लिये बड़ा अफ़सोस है - बहुत अच्छा अफ़सर था । मदाम मिरोनोवा भी भली महिला थीं, खुम्मियों का अचार डालने में तो कमाल हासिल था उन्हें ! और कप्तान की बेटी माशा का क्या हुआ ?" मैंने बताया कि वह पादरिन के पास दुर्ग में ही रह गयी है । "हाय, हाय, हाय ! जनरल कह उठे । बहुत बुरा हुआ, बहुत बुरा हुआ यह । उन चोर-लुटेरों के अनुशासन पर बिल्कुल भरोसा नहीं किया जा सकता। क्या बनेगा उस बेचारी लड़की का ? " उत्तर में मैंने कहा कि बेलोगोर्स्क दुर्ग दूर नहीं है और सम्भवतः जनरल साहब मुसीबत के मारे दुर्गवासियों को मुक्ति दिलाने के लिये फ़ौरन वहां फ़ौजें भेज देंगे । जनरल ने संशय से सिर हिलाया । "देखा जायेगा देखा जायेगा," उन्होंने कहा । " इस बारे में सोच-विचार करने के लिये हमारे पास अभी समय है। मेरे यहां चाय का प्याला पीने के लिये आने की कृपा करना। आज मेरे घर पर युद्ध - परिषद की बैठक होगी। तुम हमें उस निकम्मे पुगाचोव और उसकी सेना के बारे में भरोसे की सूचना दे सकोगे। फ़िलहाल तुम जाकर आराम करो ।"

मुझे जो क्वार्टर दिया गया था और जहां सावेलिच आवश्यक व्यवस्था कर रहा था, मैं वहां पहुंचा और बड़ी बेचैनी से नियत समय की प्रतीक्षा करने लगा। पाठक तो बड़ी आसानी से यह कल्पना कर सकता है कि मैं उस परिषद की बैठक में जाने से नहीं चूका जो मेरे भाग्य के लिये इतना अधिक महत्त्व रखती थी। नियत समय पर मैं जनरल के यहां पहुंच गया ।

नगर का एक अधिकारी, यदि मैं भूल नहीं कर रहा हूं, किमखाब का अंगरखा पहने थलथल और लाल-लाल गालोंवाला चुंगी का डायरेक्टर मुझसे पहले ही वहां मौजूद था। वह इवान कुज़्मिच के बारे में, जिसे उसने अपना मित्र बताया, मुझसे पूछ-ताछ करने लगा, अक्सर अतिरिक्त प्रश्न तथा उपदेशात्मक टीका-टिप्पणियां करते हुए मुझे टोकता जाता था, जो उसे यदि युद्ध-कला का जानकार नहीं, तो कम से कम समझदार और जन्मजात कुशाग्र बुद्धिवाला व्यक्ति अवश्य प्रकट करती थीं। इसी बीच अन्य आमन्त्रित लोग भी जमा हो गये । जनरल को छोड़कर उनमें सेना से सम्बन्धित एक भी आदमी नहीं था जब सभी लोग बैठ गये और सबके सामने चाय का प्याला आ गया, तो जनरल ने बहुत स्पष्ट रूप से और विस्तारपूर्वक सारी स्थिति पर प्रकाश डाला ।

"तो महानुभावो" जनरल कहते गये, "अब हमें यह तय करना है कि हम विद्रोहियों के विरुद्ध आक्रमणात्मक या रक्षात्मक कार्रवाई करें ? इन दोनों विधियों के पक्ष-विपक्ष में बहुत कुछ कहा जा सकता है। दुश्मन का जल्दी से मुंह तोड़ने के लिये आक्रमणात्मक कार्रवाई ज़्यादा उम्मीद बंधवाती है, रक्षात्मक कार्रवाई अधिक विश्वसनीय है और उसमें कम जोखिम होती है ... सो हम उचित क्रम में यानी सबसे छोटे पदवाले की राय जानने से इस काम को आरम्भ करते हैं। तो श्रीमान छोटे लेफ्टिनेंट !" जनरल ने मुझे सम्बोधित करते हुए अपनी बात जारी रखी, “हमारे सामने अपना मत प्रकट करने की कृपा करें। "

मैं उठकर खड़ा हो गया और आरम्भ में पुगाचोव और उसके गिरोह का संक्षिप्त वर्णन करने के बाद मैंने यह कहा कि नक़ली सम्राट नियमित सेना के सामने नहीं टिक सकेगा ।

नगर-अधिकारियों को स्पष्टतः मेरा मत अच्छा नहीं लगा। उन्हें इसमें युवा आदमी की गर्ममिज़ाजी और ढिठाई दिखाई दी । खुसर- फुसर होने लगी और मुझे किसी के द्वारा दबी ज़बान में कहे गये “दूध पीता बच्चा है" शब्द साफ़ सुनाई दिये । जनरल ने मुझे सम्बोधित करते हुए मुस्कराकर कहा -

"श्रीमान छोटे लेफ्टिनेंट ! युद्ध - परिषदों की बैठकों में प्रारम्भिक मत आक्रमणात्मक कार्रवाई के पक्ष में ही व्यक्त किये जाते हैं - यह स्वाभाविक क्रम है । अब हम दूसरों से अपने मत प्रकट करने को कहेंगे । श्रीमान कौंसिलर! अपनी राय जाहिर कीजिये ।"

किमखाब का अंगरखा पहने बुजुर्ग ने जल्दी से चाय का तीसरा प्याला, जिसमें काफ़ी रम डाली गयी थी, खत्म किया और जनरल को यह जवाब दिया-

"हुजूर, मेरे ख्याल में हमें न तो आक्रमणात्मक और न रक्षात्मक कार्रवाई ही करनी चाहिये । "

"आप यह क्या कह रहे हैं श्रीमान कौंसिलर ? " जनरल ने हैरान होते हुए आपत्ति की । "रणनीति में अन्य कोई उपाय नहीं है - रक्षात्मक या आक्रमणात्मक कार्रवाई..."

“हुजूर, ख़रीदने की नीति पर चलिये ।"

"हुं... हुं ! बहुत समझदारी की राय है आपकी ! खरीदने की नीति पर भी चला जा सकता है और हम आपकी इस सलाह का भी उपयोग करेंगे। उस निकम्मे के सिर के लिये हम गुप्त कोश से ... सत्तर या एक सौ रूबल की घोषणा कर सकते हैं .. "

"और तब," चुंगी के डायरेक्टर ने जनरल को टोकते हुए कहा, अगर ये उचक्के अपने सरदार की मुश्के बांधकर उसे हमारे हवाले न कर दें, तो आप मुझे कौंसिलर नहीं, किर्ग़ीज भेड़ कह सकते हैं। "

" हम इसके बारे में और सोच-विचार करेंगे और गहराई में जायेंगे," जनरल ने उत्तर दिया । "पर कोई सैनिक उपाय भी करना चाहिए । महानुभावो सभी उचित क्रम से अपने मत प्रकट करें ।"

सभी ने मेरे विरुद्ध मत प्रकट किया। हर किसी ने यही कहा कि सेनाओं पर भरोसा नहीं किया जा सकता, सफलता का विश्वास नहीं हो सकता, सावधानी बरतनी चाहिये आदि आदि । सबका यही ख़्याल था कि मैदान में सामने आकर हथियारों से कामयाबी की आज़माइश करने के बजाय क़िले की मज़बूत पथरीली दीवार के पीछे और तोपों की छाया में रहना कहीं अधिक समझदारी की बात होगी । सभी लोगों के विचार सुनने के बाद जनरल ने पाइप में से राख झाड़ी और बोले-

"महानुभावो ! मुझे यह कहना होगा कि मैं पूरी तरह से श्रीमान छोटे लेफ्टिनेंट के मत का समर्थन करता हूं, क्योंकि यह मत सूझबूझ की रणनीति के सभी नियमों पर आधारित है, जो लगभग हमेशा ही रक्षात्मक कार्रवाई पर आक्रमणात्मक कार्रवाई को तरजीह देती है ।"

जनरल इतना कहकर रुके और पाइप में तम्बाकू भरने लगे। मेरे स्वाभिमान की विजय हो गयी थी । मैंने गर्व से सरकारी कर्मचारियों की ओर देखा, जो असन्तोष और बेचैनी जाहिर करते हुए आपस में खुसर- फुसर कर रहे थे ।

"किन्तु महानुभावो, ” जनरल ने गहरी सांस के साथ-साथ तम्बाकू के धुएं का घना बादल - सा छोड़ते हुए अपनी बात जारी रखी, जब हमारी कृपालु सम्राज्ञी द्वारा मेरे हाथों में सौंपे गये प्रान्त की सुरक्षा का प्रश्न सम्मुख हो, तो मैं अपने ऊपर इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी लेने की हिम्मत नहीं कर सकता। इसलिये मैं बहुमत के साथ अपनी सहमति प्रकट करता हूं जिसके अनुसार शहर के भीतर रहते हुए नाकाबन्दी का इन्तज़ार करना कहीं अधिक समझदारी और कम जोखिम का काम होगा और दुश्मन के हमलों को तोपों और ( यदि ऐसा सम्भव हो ) तो जवाबी धावों से नाकाम बनाना चाहिये ।"

सरकारी कर्मचारियों ने अब मेरी ओर उपहासपूर्ण दृष्टि से देखा । परिषद की बैठक समाप्त हो गयी । मैं सम्मानीय जनरल की इस दुर्बलता पर अफ़सोस किये बिना न रह सका कि उन्होंने अपनी आस्था के विरुद्ध रणनीति से अनभिज्ञ और अनुभवहीन लोगों के मत का अनुकरण करने का निर्णय किया था ।

इस विख्यात परिषद की बैठक के कुछ दिन बाद हमें पता चला कि पुगाचोव अपने वादे के मुताबिक़ ओरेनबुर्ग के नज़दीक आता जा रहा है। शहर की दीवार की ऊंचाई से मैंने विद्रोहियों की सेना को देखा । मुझे ऐसे लगा कि अन्तिम आक्रमण के बाद, जिसका मैं साक्षी रहा था, पुगाचोव का लशकर दस गुना बढ़ गया था । उसके पास तोपें भी थीं जो उसने क़ब्ज़े में कर लिये गये छोटे दूर्गों से हासिल की थीं । युद्ध - परिषद के निर्णय को याद करते हुए मैं अभी से ही यह देख रहा था कि ओरेनबुर्ग की दीवारों में लम्बे अर्से तक बन्द रहना पड़ेगा और इसलिये मुझे खीझ - निराशा से रुलाई आ रही थी । मैं ओरेनबर्ग की नाकेबन्दी का वर्णन नहीं करूंगा जो पारिवारिक टिप्पणियों की नहीं, इतिहास की थाती है । संक्षेप में इतना ही कहूंगा कि स्थानीय अधिकारियों की असावधानी के कारण यह नगरवासियों के लिये विनाशकारी सिद्ध हुई। उन्हें भुखमरी और सभी तरह की मुसीबतें सहनी पड़ीं। इस बात की आसानी से कल्पना की जा सकती है कि ओरेनबुर्ग का जीवन असह्य था। सभी मरे मन से अपने भाग्य- निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे थे। महंगाई के कारण, जो वास्तव में ही भयानक थी, सभी हाय-तोबा करते थे। नगरवासी अपने अहातों में आकर गिरनेवाले तोप के गोलों के आदी हो गये थे। पुगाचोव के धावों में भी लोगों की आम जिज्ञासा नहीं रही थी । ऊब के मारे मेरा दम निकलता था । वक़्त बीतता जा रहा था । बेलोगोर्स्क से कोई पत्र नहीं आया था। सभी रास्ते कटे हुए थे । मरीया इवानोव्ना से मेरा बिछोह बहुत बोझल होता जा रहा था। उसका क्या हुआ, यह अस्पष्टता मुझे बड़ी यातना देती थी । घुड़सवारी ही मेरे मनबहलाव का एकमात्र साधन थी । पुगाचोव की मेहरबानी से मेरे पास अच्छा घोड़ा था जिसे मैं अपनी थोड़ी-सी खुराक का हिस्सा खिला देता था और जिस पर सवार होकर मैं हर दिन पुगाचोव के घुड़सवारों के साथ बन्दूकों की लड़ाई में हिस्सा लेने के लिये शहर से बाहर जाता था। इस तरह की लड़ाई में आम तौर पर बदमाशों का ही पलड़ा भारी रहता जो खूब खाते और खूब शराब पीते थे तथा जिनके पास बढ़िया घोड़े भी थे। नगर की मरियल-सी घुड़सेना उनसे पार पाने में असमर्थ थी। कभी-कभी हमारी भूखी पैदल फ़ौज भी मैदान में उतरती, मगर बहुत गहरी बर्फ़ बिखरे हुए घुड़सवारों का कामयाबी से मुक़ाबला करने में उसके लिये बाधा सिद्ध होती । क़िले की फ़सील से तोपें व्यर्थ ही दहाड़तीं, मगर मैदान में जाकर धंस जातीं और घोड़ों के बेहद कमज़ोर होने के कारण हिल-डुल न पातीं। ऐसा रंग-ढंग था हमारी सैनिक कार्रवाई का ! और यह नतीजा था ओरेनबुर्ग के सरकारी कर्मचारियों की सावधानी और समझदारी का !

एक बार जब हमें दुश्मन की काफ़ी बड़ी भीड़ को तितर-बितर करने और भगाने में किसी तरह कामयाबी मिल गयी, तो मैं घोड़ा दौड़ाता हुआ अपने साथियों से पिछड़ गये एक कज़्ज़ाक के पास जा पहुंचा। मैं अपनी तुर्की तलवार से उस पर भरपूर वार करने ही वाला था कि वह अचानक टोपी उतारकर चिल्ला उठा -

"नमस्ते, प्योतर अन्द्रेइच ! भगवान की कृपा से कैसे हैं आप ?"

मैंने उसकी तरफ़ देखा और हमारे दुर्ग के सार्जेंट को पहचान लिया। उसे देखकर मुझे इतनी खुशी हुई कि बयान नहीं कर सकता ।

"नमस्ते, मक्सीमिच," मैंने कहा । "बहुत समय हो गया तुम्हें बेलोगोर्स्क से आये हुए ?"

"नहीं, भैया प्योतर अन्द्रेइच । कल ही लौटा हूं। आपके लिये मेरे पास ख़त है।"

"कहां है वह ? " मैं बहुत ही बेचैनी से चिल्ला उठा ।"

"मेरे पास है," भीतर की जेब में हाथ डालते हुए मक्सीमिच ने उत्तर दिया ।

"मैंने पालाशा से वादा किया था कि इसे किसी न किसी तरह आप तक पहुंचा दूंगा ।" तह किया हुआ एक काग़ज़ मुझे देकर वह सरपट घोड़ा दौड़ाता हुआ चला गया। मैंने काग़ज़ खोला और धड़कते दिल से यह पढ़ा-

"भगवान की ऐसी ही इच्छा थी और उसने सहसा मुझसे मेरे माता-पिता छीन लिये इस धरती पर अब न तो मेरा कोई सगा-सम्बन्धी है और न ही रक्षक-संरक्षक । यह जानते हुए कि आप हमेशा मेरी भलाई चाहते रहे हैं और हर किसी की सहायता करने को तैयार हैं मैं आप ही से यह अनुरोध कर रही हूं। भगवान से यही प्रार्थना है कि यह पत्र किसी तरह आप तक पहुंच जाये ! मक्सीमिच ने वादा किया है कि वह इसे आप तक पहुंचा देगा । पालाशा ने मक्सीमिच से यह भी सुना है कि धावों के वक्त वह अक्सर आपको दूर से देखता है और यह कि आप अपनी जान की बिल्कुल चिन्ता नहीं करते तथा उनके बारे में नहीं सोचते जो आंसू बहाते हुए आपकी रक्षा के लिये भगवान से प्रार्थना करते रहते हैं। मैं लम्बे अर्से तक बीमार रही और जब स्वस्थ हुई तो अलेक्सेई इवानोविच ने जो मेरे दिवंगत पिता की जगह अब यहां दुर्गपति है, पुगाचोव को मेरे बारे में सूचित कर देने की धमकी देकर पादरी गेरासिम को मुझे उसे सौंपने के लिये विवश कर दिया। मैं सन्तरियों के पहरे में अपने घर में रह रही हूं। अलेक्सेई इवानोविच मुझे अपने साथ शादी करने को मजबूर कर रहा है। वह कहता है कि उसने मेरी ज़िन्दगी बचाई है, क्योंकि अकुलीना पम्फ़ीलोव्ना के इस धोखे का भंडाफोड़ नहीं किया जिसने बदमाशों से यह कहा था कि मैं मानो उसकी भानजी हूं। अलेक्सेई इवानोविच जैसे व्यक्ति की पत्नी बनने के बजाय मैं मर जाना कहीं बेहतर मानती हूं। वह मेरे साथ बड़ा क्रूर व्यवहार करता है और यह धमकी देता है कि अगर मैं अपना इरादा नहीं बदलूंगी और उसकी बीवी बनने को राजी नहीं हो जाऊंगी, तो वह मुझे उस दुष्ट के डेरे पर ले जायेगा और तब मेरा भी लिजावेता ख़ार्लोवा1 जैसा ही हाल होगा। मैंने अलेक्सेई इवानोविच से प्रार्थना की है कि वह मुझे सोचने-विचारने का कुछ समय दे। वह तीन दिन तक और इन्तज़ार करने को राजी हो गया है। अगर तीन दिन बाद मैं उससे शादी नहीं करूंगी, तो मुझ पर किसी तरह से रहम नहीं किया जायेगा। प्यारे प्योतर अन्द्रेइच ! केवल आप ही मेरे एकमात्र रक्षक हैं, मुझ असहाय की रक्षा कीजिये । जनरल और सभी कमांडरों से अनुरोध कीजिये कि हमारी सहायता को जल्दी से जल्दी सेनायें भेजें, और यदि सम्भव हो, तो स्वयं भी आ जाइये। मैं हूं आपकी आज्ञाकारिणी असहाय यतीम -

मरीया मिरोनोवा ।"

1. नीज्नेओज़ेर्नाया दुर्गपति मेजर खार्लोव की पत्नी । मेजर खार्लोव की पुगाचोव ने हत्या कर दी थी । - सं०

यह पत्र पढ़कर मैं तो मानो पागल हो गया। बड़ी बेरहमी से अपने बेचारे घोड़े को एड़ लगाता हुआ मैं उसे नगर की ओर बढ़ा ले चला। रास्ते में मैं असहाय मरीया की मदद करने के लिये तरह-तरह की तरकीबें सोचता रहा, मगर कुछ भी नहीं सोच पाया। घोड़े को सरपट दौड़ाता हुआ मैं नगर में पहुंचा, सीधे जनरल की तरफ़ चल दिया और कुछ भी सोचे - विचारे बिना भागता हुआ उनके सामने जा पहुंचा ।

फेनिज पाइप से कश खींचते हुए जनरल कमरे में इधर-उधर आ-जा रहे थे। मुझे देखकर रुके । शायद मेरी सूरत देखकर उन्हें हैरानी हुई होगी और उन्होंने चिन्ता प्रकट करते हुए मेरे इस तरह हड़बड़ी में आने का कारण जानना चाहा ।

"हुजूर," मैंने उनसे कहा "आपको अपने सगे पिता की तरह मानते हुए आपके पास आया हूं। भगवान के लिये मेरा अनुरोध पूरा करने से इन्कार नहीं कीजिये – मेरे समूचे जीवन के सुख-सौभाग्य की बात है ।"

"क्या बात है, भैया ?" आश्चर्यचकित बूढ़े ने पूछा। "क्या कर सकता हूं मैं तुम्हारे लिये ? बोलो। "

“हुजूर, मुझे सैनिकों की एक कम्पनी और पचासेक कज़्ज़ाक अपने साथ लेकर बेलोगोर्स्क दुर्ग जाने और उसे साफ़ करने की आज्ञा दीजिये । "

जनरल यह मानते हुए कि मेरा दिमाग़ चल निकला है ( और इसमें उनसे लगभग भूल भी नहीं हुई थी ) मुझे एकटक देखते रहे ।

“क्या मतलब ? क्या मतलब है बेलोगोर्स्क दुर्ग को साफ़ करने से आपका ?" आखिर जनरल ने पूछा ।

"कामयाबी की गारंटी करता हूं, " मैंने बड़े जोश से जवाब दिया। "बस, आप मुझे जाने दीजिये ।"

“नहीं, मेरे नौजवान " उन्होंने सिर हिलाते हुए कहा । "इतने बड़े फ़ासले पर शत्रु के लिये मुख्य सेना केन्द्र से आपका सम्पर्क काट देना और आप पर पूरी तरह विजय प्राप्त कर लेना आसान होगा । सम्पर्क कट जाने पर ... "

मैं इस बात से डर गया कि जनरल रणनीति पर विचार-विनिमय आरम्भ करने जा रहे हैं और इसलिये मैंने झटपट उन्हें टोका ।

"कप्तान मिरोनोव की बेटी ने मुझे पत्र लिखा है," मैंने जनरल से कहा। “उसने सहायता की प्रार्थना की है। श्वाबरिन उसे मजबूर कर रहा है कि वह उससे शादी करे ।"

"सच ? ओह, यह श्वाबरिन बड़ा Schelm (बदमाश - जर्मन ) है और अगर मेरे हत्थे चढ़ गया तो हुक्म दूंगा कि चौबीस घण्टे के भीतर उस पर मुक़दमा चलाकर फ़ैसला किया जाये और हम उसे क़िले की दीवार के सामने खड़ा करके गोली से उड़वा देंगे ! किन्तु फ़िलहाल तो सब्र से काम लेना होगा ... "

"सब्र से काम लेना होगा !" मैं पागलों की तरह चिल्ला उठा। "और वह इसी बीच मरीया इवानोव्ना से शादी कर लेगा !.. "

"अरे, यह तो कोई बड़ी मुसीबत नहीं होगी," उन्होंने मेरी बात काटी । उसके लिये फ़िलहाल श्वाबरिन की बीवी बन जाना बेहतर होगा। इस वक़्त वह उसकी रक्षा कर सकता है । जब हम उसे गोली से उड़ा देंगे, तो भगवान की कृपा से कोई वर भी मिल जायेगा। प्यारी विधवाएं कुंवारियां नहीं बैठी रहतीं, मेरा मतलब यह कि किसी लड़की की तुलना में विधवा को अधिक जल्दी से पति मिल जाता है ।"

"श्वाबरिन उससे शादी कर ले, इसके बजाय तो मैं मर जाना कहीं बेहतर समभूंगा !" मैं दीवानों की तरह कह उठा ।

"ओह, हो, हो !" बूढ़े जनरल ने अर्थपूर्ण ढंग से उत्तर दिया । "अब समझा, लगता है कि तुम खुद मरीया इवानोव्ना के प्रेम में गहरे डूबे हुए हो। यह दूसरी बात है ! बेचारा नौजवान ! लेकिन सैनिकों की कम्पनी और पचास कज़्ज़ाक मैं तुम्हें किसी हालत में भी नहीं दे सकता। ऐसी मुहिम बेसमझी की बात होगी। मैं अपने ऊपर इसकी ज़िम्मेदारी नहीं ले सकता ।"

मैंने निराशा से सिर झुका लिया हताशा मुझ पर हावी हो गयी । अचानक मेरे दिमाग़ में एक ख्याल कौंध गया । वह ख़्याल क्या था, पाठक इसके बारे में, जैसा कि पुराने उपन्यासकार कहा करते थे, अगले अध्याय में जान जायेंगे ।

ग्यारहवां अध्याय : विद्रोही गांव

बेशक जन्मजात वह क्रोधी,
पर उस क्षण था तृप्त बबर
बड़े प्यार से पूछा उसने -
"कहो किसलिये आये हो तुम,
किस कारण, इस जगह, इधर ? "
अ० सुमारोकोव

जनरल के यहां से मैं जल्दी-जल्दी अपने क्वार्टर में आया । सावेलिच ने सदा की भांति उपदेश और उलाहने देने शुरू किये। “इन शराबी लुटेरों के साथ लड़ने के लिये जाने की भी तुम्हें क्या सूझती है, मालिक ! यह भी कोई कुलीनों का काम है ? कौन जाने, कब व्यर्थ ही तुम्हारी जान पर आ बने ! तुर्कों और स्वीडन वालों से लड़ने जाते, तो कोई बात भी थी, लेकिन अब जिनसे जूझने जाते हो उनका तो नाम लेते भी शर्म आती है ।"

मैंने उसे टोकते हुए पूछा कि मेरे पास कुल कितने पैसे हैं ?

" पैसे तो हैं तुम्हारे पास " उसने खुशी जाहिर करते हुए जवाब दिया । "लुटेरों ने वहां चाहे सब कुछ छान मारा था, फिर भी मैंने कुछ तो छिपा ही लिया।" इतना कहकर उसने जेब से चांदी के सिक्कों से भरी बुनी हुई थैली निकाली ।

"तो सावेलिच," मैंने उससे कहा, "अब यह आधी रक़म तुम मुझे दे दो और आधी खुद ले लो। मैं बेलोगोर्स्क दुर्ग को जा रहा हूं ।"

"भैया, प्योतर अन्द्रेइच ।" दयालु बूढ़े ने कांपती आवाज़ में कहा । "क्या तुम्हें भगवान का डर - खौफ़ नहीं ? कैसे तुम ऐसे वक़्त में, जब सभी ओर दुश्मन छाये हुए हैं, वहां जाने की बात सोच सकते हो ! अगर तुम्हें खुद पर रहम नहीं आता, तो अपने माता-पिता पर ही रहम करो। क्यों तुम वहां जाना चाहते हो ? किसलिये ? थोड़ा सब्र करो - हमारी फ़ौजें आ जायेंगी, इन बदमाशों को पकड़ लेंगी और तब जहां तुम्हारा मन माने जा सकते हो ।"

किन्तु मैं तो पक्का इरादा बना चुका था।

"अब सोच-विचार करने में कोई तुक नहीं," मैंने बूढ़े को जवाब दिया । "मुझे जाना ही होगा, मैं जाये बिना रह ही नहीं सकता । दुखी न होओ, सावेलिच, भगवान दयालु है, शायद हम फिर मिलेंगे ! तुम न तो किसी बात का संकोच करना और न कंजूसी ही । तुम्हें जिस भी चीज़ की ज़रूरत हो खरीद लेना, चाहे कितनी ही क़ीमत क्यों न देनी पड़ी। ये पैसे मैं तुम्हें भेंट करता हूं। अगर तीन दिन बाद मैं न लौटू .. "

"यह तुम क्या कह रहे हो, मालिक ?” सावेलिच ने मुझे टोक दिया । "मैं तुम्हें अकेले जाने दूंगा ! यह तो तुम सपने में भी मुझसे नहीं कहना । अगर तुमने जाने का ही फ़ैसला कर लिया है, तो मैं चाहे पैदल ही तुम्हारे पीछे-पीछे जाऊं, मगर तुम्हारा साथ नहीं छोडूंगा । तुम क्या सोचते हो कि मैं तुम्हारे बिना अकेला पत्थर की दीवार के पीछे बैठा रहूंगा ! मेरा क्या दिमाग़ खराब हुआ है ? तुम कुछ भी क्यों न कहो मालिक, मैं तुम्हारा साथ नहीं छोडूंगा ।"

मैं जानता था कि सावेलिच से बहस करना बेकार है और इसलिये मैंने उससे सफ़र की तैयारी करने को कह दिया । आध घण्टे बाद मैं अपने बढ़िया घोड़े पर सवार हो गया और सावेलिच मरियल-सी लंगडी घोड़ी पर, जो उसे एक नगरवासी ने इसलिये मुफ़्त भेंट कर दी थी कि उसके पास उसे खिलाने-पिलाने को कुछ नहीं था । हम नगर के फाटक पर पहुंचे, सन्तरियों ने हमें जाने दिया । हम ओरेनबुर्ग से बाहर आ गये ।

झुटपुटा होने लगा था । मेरा रास्ता बेर्दा गांव से होकर जाता था, जहां अब पुगाचोव के लोगों की छावनी थी। सीधा रास्ता बर्फ से ढका हुआ था, मगर सारी स्तेपी में घोड़ों के सुमों के निशान दिखाई दे रहे थे, जो हर दिन नये हो जाते थे । मैं तेज़ दुलकी चाल से घोड़े को दौड़ा रहा था । सावेलिच बड़ी मुश्किल से मेरे पीछे-पीछे आ पा रहा था और दूर से ही लगातार चिल्लाकर मेरी मिन्नत करता था- "धीरे धीरे दौड़ाओ घोड़े को मालिक। मेरी मनहूस घोड़ी तुम्हारे लम्बी टांगोंवाले शैतान का साथ नहीं दे सकती । कहां जाने की जल्दी में हो ? अगर दावत पर जाते होते तो दूसरी बात थी, मगर सच मानना, कुल्हाड़े के नीचे सिर रखने जा रहे हो...." ....भैया प्योतर अन्द्रेइच... प्योतर अन्द्रेइच!.. मेरी जान नहीं लो !.. हे भगवान, मेरे मालिक का बेटा यों ही अपनी जान गंवाने जा रहा है !"

शीघ्र ही बेर्दा की बत्तियां जगमगा उठीं। हम खाइयों खड्डों के निकट पहुंचे जो इस गांव की मानो प्राकृतिक क़िलेबन्दियां थीं । सावेलिच मेरे पीछे-पीछे अपनी घोड़ी बढ़ाता आ रहा था और लगातार दर्दभरी आवाज़ में गिड़गिड़ाता तथा मेरी मिन्नत - समाजत करता जा रहा था । मुझे आशा थी कि इस गांव के गिर्द चक्कर काटकर सही-सलामत आगे निकल जाऊंगा कि अचानक अन्धेरे में लट्ठ लिये पांच किसानों को अपने सामने देखा । पुगाचोव की छावनी की यह अग्रिम चौकी थी। उन्होंने हमें ललकारा। चूंकि मैं गुप्त संकेत - शब्द नहीं जानता था, इसलिये मैंने चुपचाप उनके पास से निकल जाना चाहा । किन्तु उन्होंने मुझे उसी क्षण घेर लिया और एक ने मेरे घोड़े की लगाम पकड़ ली। मैंने झटपट तलवार निकाली और किसान के सिर पर वार किया। टोपी ने उसे बचा लिया, किन्तु वह लड़खड़ा गया और उसने लगाम छोड़ दी। दूसरे किसान घबराकर भाग निकले। मैंने इस मौक़े का फ़ायदा उठाया, घोड़े को एड़ लगायी और उसे सरपट दौड़ा ले चला ।

रात घिरती आ रही थी और उसका अन्धेरा मुझे हर तरह के ख़तरे से बचा सकता था कि अचानक मुड़कर देखने पर मैंने बूढ़े सावेलिच को ग़ायब पाया । बेचारा अपनी लंगड़ी घोड़ी पर उन बदमाशों से बचकर नहीं निकल पाया था। तो मैं क्या करता ? कुछ मिनट तक इन्तज़ार करने और इस बात का पक्का यक़ीन हो जाने पर कि उसे रोक लिया गया है, मैंने घोड़े को मोड़ा और उसकी मदद को चल दिया ।

मुझे खाई के निकट पहुंचने पर दूर से ही शोर, चीख-पुकार और अपने सावेलिच की आवाज़ सुनाई दी। मैंने घोड़े को तेज़ किया और शीघ्र ही अपने को उन पहरा देनेवाले किसानों के निकट पाया जिन्होंने मुझे कुछ मिनट पहले रोका था। सावेलिच उनके बीच था । उन्होंने बूढ़े को उसकी मरियल घोड़ी से नीचे खींच लिया था और उसकी मुश्कें बांधने ही वाले थे। मुझे देखकर किसान खिल उठे। वे चीखते हुए मुझ पर झपटे और आन की आन में उन्होंने मुझे घोड़े से नीचे खींच लिया। उनमें से एक ने, जो सम्भवतः उनका मुखिया था, हमसे कहा कि इसी क्षण वे हमें अपने महाराज के पास ले जायेंगे ।" हमारे महाराज ही,” उसने इतना और जोड़ दिया, “यह हुक्म देंगे कि तुम दोनों को अभी सूली दी जाये या दिन निकलने तक इन्तज़ार किया जाये ।" मैंने किसी तरह का विरोध नहीं किया, सावेलिच ने भी मेरा अनुकरण किया और पहरेदार विजेताओं की तरह हमें ले चले।

खाई लांघकर हम गांव में पहुंचे। सभी झोंपड़ों में बत्तियां जल रही थीं। सभी जगह शोर-शराबा और हल्ला - गुल्ला सुनाई दे रहा था । सड़क पर मुझे बहुत से लोग मिले, किन्तु अंधेरे में किसी का भी हमारी ओर ध्यान नहीं गया और ओरेनबुर्ग के अफ़सर के रूप में किसी ने भी मुझे नहीं पहचाना। हमें सीधे चौराहे के नुक्कड़वाले घर के सामने ले जाया गया। फाटक के पास शराब से भरे लकड़ी के पीपे और दो तोपें रखी थीं । यह रहा महल, एक किसान ने कहा, "हम अभी आपके बारे में सूचना देंगे ।" वह घर में चला गया। मैंने सावेलिच की ओर देखा : बूढ़ा मन ही मन भगवान से प्रार्थना करता हुआ अपने ऊपर सलीब का निशान बना रहा था । मुझे काफ़ी देर इन्तज़ार करना पड़ा। आखिर किसान लौटकर मुझसे बोला, "भीतर जाओ, हमारे महाराज ने कहा है कि अफ़सर को भीतर भेज दिया जाये ।"

मैं घर या महल में, जैसा कि किसान उसे कहते थे, गया । उसमें चर्बी की दो बत्तियां जल रही थीं और दीवारों पर सुनहरा काग़ज़ चिपका हुआ था। वैसे बेंचें, मेज़, रस्सी से लटकती हुई हाथ-मुंह धोने की चिलमची, कील पर लटकता हुआ तौलिया, कोने में रखा चिमटा और अंगीठी के सामने चौड़ी जगह पर रखे मिट्टी के बर्तन - सभी कुछ साधारण किसानी घर जैसा था । पुगाचोव लाल अंगरखा पहने, ऊंची टोपी डाटे और कूल्हों पर बड़ी शान से हाथ रखे देव- प्रतिमाओं के नीचे बैठा था । उसके कुछ मुख्य साथी बनावटी अधीनता का सा दिखावा करते हुए उसके निकट खड़े थे । साफ़ नज़र आ रहा था कि ओरेनबुर्ग के अफ़सर के आने की खबर ने विद्रोहियों में बड़ी जिज्ञासा पैदा कर दी थी और उन्होंने अपने पूरे ठाट-बाट के साथ मुझसे मिलने की तैयारी की थी । पुगाचोव ने मुझे देखते ही पहचान लिया। उसकी बनावटी शान यकायक ग़ायब हो गयी । “अरे, आप हैं हुज़ूर !" उसने बड़े उत्साह से कहा । "क्या हालचाल है ? यहां कैसे आना हुआ ?" मैंने जवाब दिया कि अपने काम से जा रहा था और आपके लोगों ने मुझे रोक लिया । " किस काम से ?” उसने मुझसे पूछा। क्या जवाब दूं, मैं यह नहीं जानता था । पुगाचोव ने यह मानते हुए कि मैं दूसरे लोगों के सामने बताना नहीं चाहता, अपने साथियों से बाहर जाने को कहा। दो को छोड़कर, जो अपनी जगह से नहीं हिले, बाक़ी सबने उसके आदेश का पालन किया । "तुम्हें जो कुछ भी कहना है किसी तरह की झिझक के बिना इनके सामने कहो ।” पुगाचोव ने मुझसे कहा, “मैं इनसे कुछ भी नहीं छिपाता हूं।" मैंने इस नक़ली सम्राट के राज़दानों को कनखियों से देखा । उनमें से एक था नाटा-सा, झुकी पीठ और सफ़ेद दाढ़ीवाला बूढ़ा । उसमें तो इस चीज़ के सिवा कोई ख़ास बात नहीं थी कि वह अपने भूरे कोट के कंधे पर नीला रिबन डाले था। लेकिन उसके साथी को ज़िन्दगी भर नहीं भूल सकूंगा । लम्बा-तड़ंगा, मोटा-तगड़ा, चौड़े - चकले कंधे । मुझे वह कोई पैंतालीस साल का लगा। लाल रंग की घनी दाढ़ी, चमकती हुई भूरी आंखें, नासिकाओं के बिना नाक और माथे तथा गालों पर लाल रंग के धब्बे उसके चेचकरू चौड़े चेहरे को ऐसा भाव प्रदान करते थे कि बयान से बाहर । वह लाल कमीज़ किर्ग़ीज़ी चोग़ा और कज़्ज़ाकी शलवार पहने था। पहला ( जैसा कि मुझे बाद में पता चला ) फ़रार दफ़ादार बेलोबोरोदोव था और दूसरा अफ़ानासी सोकोलोव (जिसे लोपूशा के नाम से पुकारा जाता था) निर्वासित अपराधी था जो तीन बार साइबेरिया की खानों से भाग चुका था । मेरे मन में भारी उथल-पुथल पैदा करनेवाली भावनाओं के बावजूद मैं संयोग से जिन लोगों की संगत में आ गया था, उन्होंने मेरी कल्पना को अत्यधिक वशीभूत कर लिया । किन्तु पुगाचोव ने प्रश्न दोहराकर फिर से मेरा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया – “तो बोलो, किसलिये तुम ओरेनबुर्ग से आये हो ?"

मेरे दिमाग़ में एक अजीब-सा ख्याल आया - मुझे लगा कि दूसरी बार पुगाचोव से मिला देनेवाली मेरी क़िस्मत ने मानो ऐसा मौक़ा दिया है कि मैं अपने इरादे को अमली शक्ल दूं । मैंने इस मौक़े का फ़ायदा उठाने का फ़ैसला किया और अपने फ़ैसले पर सोच-विचार किये बिना पुगाचोव के सवाल का जवाब दिया-

“मैं एक यतीम लड़की को बचाने के लिये, जिसके साथ वहां बुरा बर्ताव किया जा रहा है, बेलोगोर्स्क जा रहा था।"

पुगाचोव की आंखों में बिजली-सी कौंध गई।

“मेरे लोगों में से किसे यतीम लड़की के साथ बुरा बर्ताव करने की हिम्मत हुई ?" वह चिल्ला उठा । "वह चाहे कितना ही धूर्त्त क्यों न हो, मेरे इन्साफ़ से नहीं बच सकेगा । बोलो, कौन है वह अपराधी ?"

"श्वाबरिन," मैंने जवाब दिया । "वह उस लड़की को बन्दी बनाये हुए है जिसे तुमने पादरिन के यहां बीमारी की हालत में देखा था और उससे ज़बर्दस्ती शादी करना चाहता है ।"

“मैं उस श्वाबरिन की अक्ल ठिकाने करूंगा,” पुगाचोव ने रौद्र रूप धारण करते हुए कहा । "उसे मालूम हो जायेगा कि मनमानी और लोगों के साथ बुरा बर्ताव करने का क्या नतीजा होता है । मैं उसे सूली दे दूंगा ।"

"कुछ कहने की इजाज़त दो," ख्लोपूशा ने खरखरी-सी आवाज में कहा । " श्वाबरिन को दुर्गपति बनाने में भी तुमने जल्दी की और अब सूली देने की भी जल्दी कर रहे हो । एक कुलीन को कज़्ज़ाकों के सिर पर बिठाकर तुम उनकी बेइज़्ज़ती कर चुके हो और अब उसके बारे में पहली निन्दा चुगली सुनते ही उसे सूली देकर कुलीनों को नहीं डराओ ।"

"कोई ज़रूरत नहीं है उन पर रहम करने की, उन्हें रुतबे देने की !” नीले रिबन वाले बूढ़े ने कहा । "श्वाबरिन को सूली देने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन साथ ही इस अफ़सर साहब से अच्छी तरह यह पूछ लेना भी कुछ बुरा नहीं होगा कि किसलिये यहां पधारा है । अगर वह तुम्हें सम्राट नहीं मानता तो तुमसे इन्साफ़ की उम्मीद क्यों रखता है ? अगर सम्राट मानता है, तो आज तक ओरेनबर्ग में तुम्हारे जानी दुश्मनों की बग़ल में क्यों बैठा रहा ? क्या तुम्हारे लिये यह हुक्म देना ठीक नहीं होगा कि इसे फ़ौजी दफ़्तर में ले जाया जाये और वहां लोहे की सलाखें गर्मायी जायें ? मेरा दिल कहता है कि इस हज़रत को ओरेनबुर्ग के अफ़सरों ने हमारे पास भेजा है ।"

शैतान बुड्ढे की दलील मुझे काफ़ी वज़नी लगी । यह सोचकर कि मैं किन लोगों के हाथों में हूं, मेरे रोंगटे खड़े हो गये । पुगाचोव मेरी घबराहट ताड़ गया।"

"तो हुज़ूर ?" उसने मेरी ओर आंख मारते हुए कहा, "लगता है कि मेरा फ़ील्डमार्शल अक़्ल की बात कह रहा है। क्या ख्याल है तुम्हारा ?"

पुगाचोव द्वारा ली गयी इस चुटकी से फिर मेरी हिम्मत बंध गयी । मैंने शान्ति से जवाब दिया कि मैं पूरी तरह से उसके रहम पर हूं और वह मेरे साथ जैसा भी चाहे, बर्ताव कर सकता है ।

“अच्छी बात है,” पुगाचोव बोला । "अब यह बताओ कि तुम्हारे नगर की कैसी हालत है ?"

"भगवान की कृपा से सब कुछ ठीक-ठाक है," मैंने जवाब दिया । "सब कुछ ठीक-ठाक है ?" पुगाचोव ने मेरे शब्दों को दोहराया । "और लोग भूख से मर रहे हैं !"

नक़ली सम्राट सच कह रहा था । लेकिन मैंने वफ़ादारी की क़सम निभाते हुए यक़ीन दिलाना शुरू किया कि ये सब झूठी अफ़वाहें हैं और ओरेनबुर्ग में रसद की कोई कमी नहीं है ।

"देख रहे हो," बूढ़े ने मेरी बात पकड़ी, "वह तुम्हारी आंखों में साफ़-साफ़ धूल झोंक रहा है। वहां से भागकर आनेवाले सभी लोग यह कहते हैं कि वहां भुखमरी और महामारी फैली हुई है, कि लोग जानवरों की लाशें खाते हैं और उनके मिल जाने पर भी अल्लाह का शुक्र करते हैं। मगर यह हज़रत यक़ीन दिला रहा है कि वहां सब कुछ ठीक-ठाक है । अगर श्वाबरिन को सूली देना चाहते हो तो उसी सूली पर इस छैले को भी लटका दो, ताकि किसी को भी एक-दूसरे से ईर्ष्या न हो ।"

ऐसा प्रतीत हुआ कि इस दुष्ट बुड्ढे के शब्दों से पुगाचोव का मन कुछ डांवांडोल हो गया है । मेरी खुशकिस्मती थी कि लोपूशा अपने साथी की बात का विरोध करने लगा ।

"बस, काफ़ी है, नाऊमिच," उसने कहा । "तुम तो सभी का गला घोंटने और काटने पर उतारू रहते हो। क्या खूब सूरमा हो तुम भी ? जाने कहां जान अटकी हुई है तुम्हारी। खुद क़ब्र में पैर लटकाये हुए हो, मगर दूसरों की जान लेने पर उतारू रहते हो। क्या कम खून के धब्बे हैं तुम्हारी आत्मा पर ?"

"और तुम तो बड़े दूध के धोये हो ?" बेलोबोरोदोव ने आपत्ति की । "तुम में कहां से रहम आ गया ? "

"बेशक, मैं भी गुनाहगार हूं," ख्लोपूशा ने जवाब दिया, यह हाथ (इतना कहकर उसने हड़ीली मुट्ठी भींच ली और आस्तीन ऊपर चढ़ाकर बालों से ढकी हुई बांह दिखाई) भी ईसाइयों का खून बहाने के लिये अपराधी है। मगर मैंने दुश्मनों की जान ली, मेहमानों की नहीं । मैं चौराहे पर या घने जंगल में अपने शिकार को मारता हूं, अंगीठी के क़रीब घर पर नहीं । मैं लट्ठ और फ़रसे से वार करता हूं, औरतों जैसी निन्दा - चुगलियों से काम नहीं लेता ।"

बुड्ढे ने मुंह फेर लिया और बड़बड़ाया - “नककटा !"

"तुम वहां क्या बड़बड़ा रहे हो, बुड्ढे खूसट ?" ख्लोपूशा चिल्ला उठा । “मैं तुम्हें चखाऊंगा नककटा होने का मज़ा । ज़रा सब्र करो, तुम्हारा वक़्त भी आ जायेगा । खुदा ने चाहा तो तुम्हारी नाक भी चिमटी की नज़र हो जायेगी ... फ़िलहाल तो इतनी ही ख़ैर मनाओ कि कहीं मैं तुम्हारी दाढ़ी न नोच लूं !"

“ए मेरे जनरलो !” पुगाचोव ने बड़ी शान से कहा । "बस, काफ़ी नोक-झोंक हो गयी। अगर ओरेनबुर्ग के सभी कुत्ते एक ही सूली पर लटक जायें, तो इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। लेकिन अगर हमारे कुत्ते एक-दूसरे पर झपटेंगे, तो बहुत बुरा होगा । सुलह कर लीजिये ।"

ख़्लोपूशा और बेलोबोरोदोव चुप्पी साधे हुए रुखाई से एक-दूसरे की ओर देखते रहे। मुझे इस बातचीत को बदलने की ज़रूरत महसूस हुई जिसका मेरे लिये बहुत ही बुरा अन्त हो सकता था । मैंने पुगाचोव को सम्बोधित करते हुए खुशमिजाजी से कहा-

"अरे, हां ! घोड़े और भेड़ की खाल के कोट के लिये मैं तो तुम्हें धन्यवाद देना ही भूल गया । तुम्हारी इस मदद के बिना मैं शहर तक न पहुंच पाता और रास्ते में ही ठिठुरकर रह गया होता ।"

मेरी यह चाल कामयाब रही। पुगाचोव खिल उठा ।

“ नेकी के बदले में नेकी करनी चाहिये, " पुगाचोव ने आंख मारते और सिकोड़ते हुए कहा । "अच्छा, अब यह बताओ कि उस लड़की से तुम्हारा क्या वास्ता है जिसके साथ श्वाबरिन बुरा बर्ताव कर रहा है ? कहीं उसने तुम्हारे दिल में तो घर नहीं कर रखा है ? बोलो ?"

"वह मेरी मंगेतर है," हवा का रुख अपने हक़ में देखते और सचाई को छिपाने की ज़रूरत न महसूस करते हुए मैंने पुगाचोव को जवाब दिया ।

"तुम्हारी मंगेतर ! ” पुगाचोव चिल्ला उठा । " तुमने पहले क्यों नहीं कहा ? हम तुम्हारी शादी करेंगे और तुम्हारी शादी की दावत उड़ायेंगे ! " इसके बाद उसने बेलोबोरोदोव को सम्बोधित करते हुए कहा, “सुनो, फ़ील्डमार्शल ! इन हुजूर के साथ हमारी पुरानी दोस्ती है। आओ, अब सब एकसाथ खाना खायें। रात से प्रभात भला। कल सुबह देखा जायेगा कि हम इसके साथ क्या बर्ताव करें ।"

मैंने खुशी से इस सम्मान से इन्कार कर दिया होता, मगर कोई चारा नहीं था। दो जवान कज़्ज़ाक लड़कियों ने, जो इस घर के मालिक की बेटियां थीं, मेज़ पर सफ़ेद मेज़पोश बिछा दिया, डबल रोटी और मछली का शोरबा और शराब तथा बियर की कुछ सुराहियां ले आईं। मैं दूसरी बार पुगाचोव और उसके दुष्ट साथियों की संगत में खाने की एक ही मेज़ पर बैठा था ।

अपनी इच्छा के विरुद्ध मैं जिस रंग - रस का साक्षी बना हुआ था, वह काफ़ी रात तक जारी रहा। आखिर नशा मेरे साथियों पर हावी होने लगा । पुगाचोव अपनी जगह पर बैठा हुआ ही ऊंघने लगा, उसके साथी उठे और उन्होंने मुझे उसे छोड़कर बाहर चलने का इशारा किया। मैं उनके साथ बाहर आ गया । ख्लोपूशा के हुक्म के मुताबिक़ सन्तरी मुझे फ़ौजी दफ़्तर में ले गये । सावेलिच भी वहीं था और मुझे उसके साथ छोड़कर उन्होंने बाहर से ताला लगा दिया। बूढ़ा सावेलिच घटना-चक्र से इतना चकित था कि उसने मुझसे कुछ भी पूछ-ताछ नहीं की। वह अंधेरे में लेट गया, देर तक आहें भरता तथा आह ओह करता रहा और आख़िर खर्राटे लेने लगा। मैं ख़्यालों में खो गया, जिन्होंने क्षण भर को भी मुझे पलक नहीं झपकने दी ।

अगली सुबह को पुगाचोव ने मुझे बुलवा भेजा। मैं उसके पास गया। उसके घर के बाहर तीन तातारी घोड़ों से जुती हुई स्लेज खड़ी थी। सड़क पर लोगों की भीड़ थी । पुगाचोव से मेरी ड्योढ़ी में भेंट हुई । वह सफ़री कपड़े - फ़र-कोट और किर्ग़ीज़ी टोपी पहने था । पिछली शाम के उसके साथी उसे घेरे हुए थे और उनके चेहरों पर चापलूसी का ऐसा भाव था जो मेरे द्वारा पिछले दिन देखे गये भाव से सर्वथा भिन्न था। पुगाचोव ने प्रसन्नतापूर्वक मुझसे हाथ मिलाया और स्लेज में बैठने को कहा ।

हम स्लेज में सवार हो गये । "बेलोगोर्स्क दुर्ग को चलो !” पुगाचोव ने चौड़े कन्धोंवाले तातार कोचवान से कहा जो तीनों घोड़ों को हांकने के लिये स्लेज में तैयार खड़ा था। मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा । घोडे चल पड़े, घण्टियां बज उठीं और स्लेज हवा से बातें करने लगी ...

“रुको ! रुको!" ज़ोर से आवाज़ सुनाई दी जो मेरी बहुत ही जानी- पहचानी थी। मैंने सावेलिच को हम लोगों की ओर भागे आते देखा । पुगाचोव ने स्लेज रोकने का आदेश दिया । "भैया, प्योतर अन्द्रेइच !" बूढ़े ने चिल्लाकर कहा । "बुढ़ापे में मुझे नहीं छोड़ो इन बद... ।- "अरे बुड्ढे खूसट ! " पुगाचोव ने उससे कहा । "भगवान ने हमें फिर मिला दिया। बैठ जाओ, कोचवान की सीट पर ।" " - " धन्यवाद महाराज, धन्यवाद हुजूर !" सावेलिच ने बैठते हुए कहा । "बूढ़े आदमी की चिन्ता करने और उसके दिल को तसल्ली देने के लिये भगवान तुम्हें सौ बरस तक जिन्दा रखे। जब तक जीता रहूंगा, भगवान से तुम्हारे लिये प्रार्थना करूंगा और खरगोश की खाल के कोट की अब कभी याद नहीं दिलाऊंगा ।"

खरगोश की खाल के कोट की चर्चा से पुगाचोव सचमुच ही आग- बबूला हो सकता था । लेकिन खुशकिस्मती कहिये कि नकली सम्राट ने या तो यह सुना नहीं या फिर बेमौक़े के इस इशारे की तरफ़ जान- बूझकर कोई ध्यान नहीं दिया। घोड़े तेज़ी से दौड़ने लगे - लोग रास्ते में रुक-रुककर दोहरे होते हुए उसका अभिवादन करते । पुगाचोव जवाब में दायें-बायें सिर हिलाता जा रहा था । आन की आन में हम गांव से बाहर आ गये और स्लेज बढ़िया रास्ते पर तेज़ी से बढ़ चली ।

इस बात की आसानी से कल्पना की जा सकती है कि इस क्षण मैं क्या अनुभव कर रहा था । कुछ घण्टे बाद मैं उससे मिलनेवाला था जिसे मैं अपने लिये मानो खो ही चुका था। मैं हमारे मिलन -क्षण की कल्पना कर रहा था ... मैं उस व्यक्ति के बारे में भी सोच रहा था जिसके हाथों में मेरा भाग्य था और जो किसी अजीब कारणवश अदृश्य सूत्रों से मेरे साथ जुड़ा हुआ था। मुझे उस आदमी की बेसमझी की क्रूरता, खून के प्यासे रवैये का भी ध्यान आया जो अब मेरे दिल की रानी का रक्षक होनेवाला था ! पुगाचोव को यह मालूम नहीं था कि वह कप्तान मिरोनोव की बेटी है । गुस्से से पगलाया हुआ श्वाबरिन उसे यह सब कुछ बता सकता था। किसी और तरीक़े से भी पुगाचोव को सारी सचाई मालूम हो सकती थी... तब क्या होगा मरीया इवानोव्ना का ? मुझे अपने सारे शरीर में झुरझुरी - सी महसूस हुई, मेरे रोंगटे खड़े हो गये ...

पुगाचोव ने यह प्रश्न करके सहसा मेरी विचार-शृंखला को भंग कर दिया -

"हुजूर, किन ख़्यालों में खो गये ? "

"ख्यालों में खोये बिना रह ही कैसे सकता हूं," मैंने उसे जवाब दिया । "मैं फ़ौजी अफ़सर और कुलीन हूं। अभी कल तक मैं तुम्हारे विरुद्ध लोहा ले रहा था, आज तुम्हारे साथ एक ही स्लेज में जा रहा हूं और मेरी ज़िन्दगी की खुशी तुम पर निर्भर है ।"

“ तो क्या डर लगता है तुम्हें ?” पुगाचोव ने पूछा।

मैंने जवाब दिया कि जब एक बार वह मुझे माफ़ कर चुका है, तो मैं केवल उसका दया-पात्र होने की ही नहीं, बल्कि उसकी सहायता पाने की भी आशा रखता हूं।

"तुम ठीक कहते हो, भगवान की क़सम, बिल्कुल ठीक कहते हो !" नक़ली सम्राट ने कहा । "तुमने देखा था न कि मेरे लोग तुम्हें कैसी नज़र से देखते थे । वह बुड्ढा तो आज भी इस बात की रट लगाये हुए था कि तुम जासूस हो, तुम्हें यातना और सूली देनी चाहिये । लेकिन मैं नहीं माना," उसने आवाज़ धीमी करके, ताकि सावेलिच और तातार उसकी बात न सुन सकें, इतना और जोड़ दिया, "क्योंकि तुम्हारा शराब का गिलास और खरगोश की खाल का कोट नहीं भूला था। देखते हो न, मैं दूसरों के खून का वैसा ही प्यासा नहीं हूं, जैसा कि तुम्हारे लोग मेरे बारे में कहते हैं ।"

बेलोगोर्स्क दुर्ग पर जब क़ब्ज़ा किया गया था और तब क्या हुआ था, मुझे वह सब याद हो आया, लेकिन पुगाचोव की बात का खण्डन करना मैंने आवश्यक नहीं समझा और कुछ भी नहीं कहा ।

"मेरे बारे में ओरेनबुर्ग में क्या कहा जा रहा है ?” कुछ देर चुप रहने के बाद पुगाचोव ने पूछा ।

“कहा जा रहा है कि तुमसे मोर्चा लेना लोहे के चने चबाने के बराबर है । निश्चय ही तुमने अपनी धाक मनवा ली है ।"

नक़ली सम्राट के चेहरे पर अहंभाव की तुष्टि झलक उठी ।

"हां !” उसने खुश होते हुए कहा । "मैं लड़ता तो खूब डटकर हूं। तुम्हारे ओरेनबर्ग में युजेयेवा के निकट हुई लड़ाई के बारे में जानते हैं या नहीं ? चालीस जनरल मार डाले गये, चार पलटनें बन्दी बना ली गयीं । क्या ख़्याल है तुम्हारा, प्रशा का बादशाह मेरे मुक़ाबले में डटा रह सकता ?"

इस उचक्के का डींग हांकना मुझे दिलचस्प लगा ।

"तुम्हारा अपना क्या ख़्याल है इस बारे में ?” मैंने उससे पूछा, " तुम फ़ेडरिक से निपट लेते ? "

"फ़्योदोर फ़्योदोरोविच1 से ? क्यों नहीं ? तुम्हारे जनरलों से तो मैं निपट लेता हूं और उन्होंने उसे पीट डाला था। अभी तक तो मेरे हथियारों ने मेरा साथ दिया है। अभी क्या है, जब मास्को पर चढ़ाई करूंगा, तब देखना ।"

1. पुगाचोव ने व्यंग्यपूर्वक प्रशा के बादशाह फ़ेडरिक द्वितीय को रूसी नाम से सम्बोधित किया है। रूस और प्रशा के बीच सातवर्षीय युद्ध में पुगाचोव सैनिक था । इस युद्ध में रूस ने प्रशा को पराजित किया और १७६० में रूसी सेना बर्लिन में दाखिल हुई । - सं०

"तुम्हारा ख्याल है कि तुम मास्को पर भी चढ़ाई कर पाओगे ? "

नक़ली सम्राट कुछ देर को सोच में डूब गया और धीमे से बोला-

"भगवान ही जानता है । मेरी राह तंग है, विस्तार की कमी है। मेरे जवानों के दिमाग़ों में सभी तरह की उल्टी-सीधी बातें आती हैं। वे चोर उचक्के हैं। मुझे हर वक्त अपने कान खड़े रखने चाहिये । पहली नाकामी होते ही वे अपनी गर्दन बचाने के लिये मेरा सिर कटवा देंगे ।"

"यही तो बात है !" मैंने पुगाचोव से कहा ।" क्या तुम्हारे लिये वक़्त रहते उनसे पिंड छुड़ा लेना और अपने को सम्राज्ञी की दया पर छोड़ देना ज़्यादा अच्छा नहीं होगा ?"

पुगाचोव बड़ी कटुता से मुस्कराया ।

"नहीं,” उसने जवाब दिया, "मेरे लिये क़दम पीछे हटाने के मामले में देर हो चुकी है। मुझे माफ़ नहीं किया जायेगा । जैसे शुरू किया था, वैसे ही जारी रखूंगा। कौन जाने ? शायद कामयाबी मिल जाये ! ग्रीश्का ओत्रेप्येव ने तो आखिर मास्को पर शासन किया ही था।

"उसका अन्त क्या हुआ था, यह तो जानते हो न ? उसे खिड़की से बाहर फेंका गया था, उसके टुकड़े-टुकड़े किये गये थे, उसे जलाया गया था, उसकी राख को तोप में भरकर उड़ाया गया था !"

"सुनो,” पुगाचोव ने एक अजीब उत्साह से ओतप्रोत होकर कहा। “तुम्हें वह क़िस्सा सुनाता हूं जो एक कल्मीक बुढ़िया ने मुझे बचपन में सुनाया था। एक बार उक़ाब ने कौवे से पूछा - 'कौवे, तुम इस दुनिया में तीन सौ साल तक जीते रहते हो, जबकि मैं कुल तैंतीस वर्ष तक ही जी पाता हूं, भला क्यों ? ' - ' इसलिये पक्षीराज,' कौवे ने उसे जवाब दिया, 'कि तुम ताज़ा खून पीते हो और मैं मुर्दा गोश्त पर ज़िन्दा रहता हूं।' उक़ाब ने कुछ देर सोचा और बोला, 'अच्छी बात है, मैं भी ऐसा ही करके देखता हूं।' सो उक़ाब और कौवा उड़ चले। उन्होंने एक मरा हुआ घोड़ा देखा दोनों नीचे उतरकर उसकी लाश पर जा बैठे। कौवा मांस नोचकर खाने और उसकी तारीफ़ करने लगा। उक़ाब ने एक बार चोंच मारी, दूसरी बार चोंच मारी, पंख फड़फड़ाये और कौवे से कहा, 'नहीं, भैया कौवे तीन सौ साल तक लाश का गोश्त खाने के बजाय एक बार ताज़ा खून पी लेना कहीं बेहतर है और फिर भगवान जो करे, वही ठीक है!' तो कैसा है यह कल्मीक क़िस्सा ? "

"बड़ा दिलचस्प है," मैंने जवाब दिया ।

मैंने जवाब दिया। “किन्तु मेरी नज़र में हत्या और लूट-मार से जीना भी लाश खाने के बराबर है ।"

पुगाचोव ने मुझे हैरानी से देखा और कोई जवाब नहीं दिया । अपने-अपने ख़्यालों में खोये हुए हम दोनों खामोश रहे । तातार कोचवान ने कोई उदासी भरा गीत गाना शुरू कर दिया। सावेलिच कोचवान की सीट पर ऊंघते हुए डोल रहा था । जाड़े की साफ़- सपाट सड़क पर स्लेज उड़ी जा रही थी ... अचानक मुझे बाड़ और गिरजे की घण्टे वाली मीनार सहित याइक नदी के खड़े तट पर छोटा-सा गांव दिखाई दिया और कोई पन्द्रह मिनट बाद हमने बेलोगोर्स्क दुर्ग में प्रवेश किया ।

बारहवां अध्याय : यतीम

पेड़ सेब का जैसे अपना —
नहीं फुनगियां. नहीं नई शाखायें उस पर,
हाल यही अपनी दुलहन का -
नहीं पिता हैं, और न मां का स्नेह - छतर ।
कौन करे उसका श्रृंगार ?
दे आशीष, उसे दे प्यार ?
(विवाह-गीत)

स्लेज दुर्गपति के घर के निकट पहुंच गयी । लोगों ने पुगाचोव की स्लेज की घण्टियों की आवाज़ पहचान ली और उनके दल के दल हमारे पीछे-पीछे दौड़ने लगे । श्वाबरिन ने बाहर ओसारे में आकर नक़ली सम्राट का स्वागत किया। वह कज़्ज़ाकों की तरह कपड़े पहने था और उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी । ग़द्दार ने पुगाचोव को सहारा देकर स्लेज से उतारा और दास सरीखी भावाभिव्यक्तियों द्वारा अपनी प्रसन्नता और निष्ठा व्यक्त की। मुझे देखकर वह घबरा - सा गया, किन्तु शीघ्र ही उसने अपने को सम्भाल लिया और यह कहते हुए मेरी ओर हाथ बढ़ाया - "और तुम भी हमारे हो गये ? बहुत पहले ही ऐसा कर लेना चाहिये था !" मैंने मुंह फेर लिया और कोई उत्तर नहीं दिया ।

चिर-परिचित कमरे में जाने पर जहां अतीत के करुण समाधि - लेख की तरह दिवंगत दुर्गपति का डिप्लोमा अभी तक दीवार पर लटका हुआ था, मेरा दिल टीस उठा । पुगाचोव उसी सोफ़े पर बैठ गया जहां अपनी बीवी की बड़बड़ सुनते हुए इवान कुमिच ऊंघ जाया करते थे । श्वाबरिन खुद उसके लिये वोदका लेकर आया । पुगाचोव ने एक जाम पी लिया और मेरी ओर संकेत करते हुए उससे कहा, "इन हुज़ूर की भी ख़ातिरदारी करो !" श्वाबरिन ट्रे लिये हुए मेरे पास आया, लेकिन मैंने दूसरी बार उसकी ओर से मुंह फेर लिया । वह बेहद परेशान नज़र आ रहा था। अपनी सहज बुद्धि से उसने निश्चय ही यह अनुमान लगा लिया था कि पुगाचोव उससे नाराज़ है । वह उससे डरता था और मेरी ओर अविश्वास से देखता था। पुगाचोव ने दुर्ग की स्थिति और शत्रु सेनाओं आदि के बारे में पूछ-ताछ की और फिर अचानक उससे यह प्रश्न किया -

"यह बताओ, भैया, किस लड़की को तुम बन्दी बनाये हुए हो ? उसे मुझे दिखाओ तो ।"

"श्वाबरिन का चेहरा मुर्दे की तरह पीला हो गया ।"

"महाराज," वह कांपती आवाज़ में बोला...- "महाराज, वह बन्दी नहीं है ... वह बीमार है ... अपने कमरे में लेटी हुई है।"

“मुझे उसके पास ले चलो," नक़ली सम्राट ने अपनी जगह से उठते हुए कहा । टाल-मटोल करना सम्भव नहीं था । श्वाबरिन पुगाचोव को मरीया इवानोव्ना के कमरे की ओर ले चला। मैं उनके पीछे-पीछे हो लिया । श्वाबरिन जीने में रुका ।

"महाराज !" वह बोला । "आप मुझे कुछ भी करने का हुक्म दे सकते हैं, लेकिन किसी पराये आदमी को मेरी बीवी के कमरे में नहीं जाने दीजिये ।"

मैं सिर से पांव तक कांप उठा ।

"तो तुमने शादी कर ली !” मैंने श्वाबरिन से कहा और इस क्षण में उसके टुकड़े-टुकड़े कर डालने को तैयार था ।

"बस, काफ़ी है !” पुगाचोव ने मुझे चुप करवा दिया । "यह मेरा मामला है । और तुम, ”उसने श्वाबरिन को सम्बोधित करते हुए कहा, बहुत होशियारी दिखाने और बहानेबाज़ी करने की कोशिश नहीं करो। वह तुम्हारी बीवी है या नहीं, मैं जिसको चाहूंगा, उसके पास ले जाऊंगा । हुजूर, तुम आओ मेरे साथ ।"

कमरे के दरवाज़े के क़रीब श्वाबरिन फिर से रुका और टूटती-सी आवाज़ में बोला -

"महाराज, आपको पहले से ही आगाह कर देना चाहता हूं कि उसे बहुत ज़ोर का बुखार है और वह तीन दिन से सरसाम में लगातार बड़बड़ा रही है।"

“दरवाज़ा खोलो !” पुगाचोव ने कहा ।

श्वाबरिन अपनी जेबें टटोलने लगा और बोला कि चाबी अपने साथ लाना भूल गया है। पुगाचोव ने दरवाज़े पर ठोकर मारी, ताला टूट गया, दरवाज़ा खुल गया और हम भीतर दाखिल हुए ।

मैंने कमरे में नज़र डाली और सकते में आ गया। किसान औरतों के ढंग की फटी-पुरानी पोशाक पहने दुबली-पतली, पीले चेहरे और अस्त-व्यस्त बालोंवाली मरीया इवानोव्ना फ़र्श पर बैठी थी । उसके सामने रोटी के टुकड़े से ढकी हुई पानी की गागर रखी थी। मुझे देखकर वह चौंकी और चीख उठी। तब मेरी क्या हालत हुई थी - मुझे याद नहीं ।

पुगाचोव ने श्वाबरिन की ओर देखा और कटु व्यंग्य-बाण छोड़ते हुए कहा —

"खूब अच्छा अस्पताल है तुम्हारा ! " इसके बाद मरीया इवानोव्ना के पास जाकर उसने पूछा, “मेरी प्यारी, मुझे यह बताओ कि तुम्हारा पति तुम्हें किस बात की सज़ा दे रहा है ? किस कारण अपराधी हो तुम उसके सम्मुख ?"

"मेरा पति !" मरीया इवानोव्ना ने इन शब्दों को दोहराया । यह मेरा पति नहीं है । मैं कभी भी इसकी पत्नी नहीं बनूंगी ! अगर कोई मुझे इसके चंगुल से निजात नहीं दिलायेगा, तो मैं मर जाना बेहतर समभूंगी और मर जाऊंगी ।"

पुगाचोव ने जलती नज़र से श्वाबरिन की ओर देखा ।

"तुमने मुझे धोखा देने की हिम्मत की !” उसने कहा । "जानते हो कमीने तुम्हारे साथ कैसा सुलूक किया जाना चाहिये ? "

श्वाबरिन घुटनों के बल हो गया इस .... क्षण तिरस्कार की भावना ने मेरे गुस्से और घृणा की जगह ले ली। मैं एक फ़रार कज़्ज़ाक के पैरों पर पड़े हुए कुलीन को तिरस्कारपूर्वक देख रहा था । पुगाचोव कुछ नर्म पड़ गया।

"इस बार तुम्हें माफ़ करता हूं" उसने श्वाबरिन से कहा, "लेकिन याद रखना कि अगर तुमने फिर ऐसी हरकत की, तो तुम्हें इस अपराध की भी सज़ा दी जायेगी ।" इसके बाद मरीया इवानोव्ना को सम्बोधित करते हुए वह स्नेहपूर्वक बोला, “बाहर जाओ, सुन्दरी, मैं तुम्हें मुक्त करता हूं। मैं सम्राट हूं ।"

मरीया इवानोव्ना ने झटपट पुगाचोव की तरफ़ देखा और उसे यह भांपते देर न लगी कि उसके सामने उसके माता-पिता का हत्यारा खड़ा है। उसने दोनों हाथों से मुंह ढंक लिया और मूर्च्छित होकर गिर गयी। मैं उसकी ओर लपका, किन्तु इसी क्षण मेरी पुरानी परिचिता पालाशा बेधड़क कमरे में दाखिल हुई और अपनी मालकिन की देख- भाल करने लगी । पुगाचोव कमरे से बाहर चला गया और हम तीनों नीचे मेहमानखाने में आ गये ।

"तो हुजूर ?” पुगाचोव ने हंसते हुए कहा । सुन्दरी को तो हमने मुक्त करवा लिया ! क्या ख़्याल है, अब पादरी को बुलवाकर तुम्हारे साथ उसे अपनी भानजी की शादी करने को कहा जाये ? मैं धर्म-पिता का कर्तव्य निभाऊंगा और श्वाबरिन बनेगा दूल्हे का साथी । खूब छककर पियेंगे और जी भरकर मौज मनायेंगे !"

मुझे जिस बात की शंका थी, वही हुई । पुगाचोव का यह प्रस्ताव सुनकर श्वाबरिन आपे से बाहर हो गया ।

"महाराज !" वह पागलों की तरह चिल्ला उठा । “ मैं कुसूरवार हूं; मैंने आपके सामने झूठ बोला, लेकिन ग्रिनेव भी आपको धोखा दे रहा है। यह लड़की यहां के पादरी की भानजी नहीं : इवान मिरोनोव की बेटी है जिसे इस दुर्ग पर अधिकार करने के समय सूली दी गयी थी ।"

पुगाचोव ने अपनी दहकती आंखें मेरे चेहरे पर टिका दीं।

"यह और क्या मामला है ?” उसने हैरान होते हुए पूछा ।

"श्वाबरिन ने तुमसे सच कहा है," मैंने दृढ़ता से उत्तर दिया ।

"तुमने तो मुझे यह नहीं बताया,” पुगाचोव ने कहा, जिसका चेहरा मुरझा सा गया था ।

"तुम खुद ही सोचो," मैंने उसे उत्तर दिया, "क्या मैं तुम्हारे लोगों के सामने ऐसा कह सकता था कि मिरोनोव की बेटी ज़िन्दा है? वे तो उसे नोच खाते । किसी हालत में भी उसकी जान न बच पाती !"

"हां, यह भी सच है, ” पुगाचोव ने हंसते हुए कहा । "मेरे उन पियक्कड़ों ने बेचारी लड़की पर रहम न किया होता । पादरिन ने अच्छा ही किया कि उन्हें चकमा दे दिया ।"

"मेरी बात सुनो,” पुगाचोव का अच्छा मूड देखकर मैंने अपनी बात आगे बढ़ाई। तुम्हें क्या कहकर सम्बोधित करूं, मैं यह नहीं जानता और जानना भी नहीं चाहता, किन्तु भगवान जानता है कि तुमने मेरे लिये जो कुछ किया है, मैं उसके बदले में खुशी से अपनी जान तक दे सकता हूं। केवल मुझसे उस बात की मांग न करो जो मेरी मान-मर्यादा और ईसाई के नाते मेरी आत्मा की आवाज़ के विरुद्ध है। तुम मेरे उद्धारक हो । तुमने जैसे आरम्भ किया था, वैसे ही अन्त भी करो - इस बेचारी यतीम लड़की के साथ हमें जहां भी भगवान ले जाये, वहीं जाने दो। और तुम कहीं भी क्यों न होगे, कैसे भी क्यों न होगे, हम हर दिन तुम्हारी पापी आत्मा के उद्धार के लिये भगवान से प्रार्थना करेंगे .... "

पुगाचोव की कठोर आत्मा पसीज गयी ।

"जैसा तुम चाहते हो, वैसा ही सही !” उसने कहा । "सज़ा देता हूं तो सज़ा देता हूं और माफ़ करता हूं, तो माफ़ करता हूं - मेरा यही उसूल है । अपनी इस हसीना को जहां चाहो, वहां ले जाओ । भगवान तुम दोनों को प्यार और सद्बुद्धि दे ! "

इतना कहकर उसने श्वाबरिन को सम्बोधित करते हुए आदेश दिया कि वह मुझे उसके अधीन सभी दुर्गों और नगर-द्वारों को लांघने का अनुमति - पत्र लिख दे । पूरी तरह से पराजित श्वाबरिन बुत बना खड़ा था। पुगाचोव दुर्ग देखने चल दिया। श्वाबरिन उसके साथ गया और मैं सफ़र की तैयारी का बहाना करके यहीं रुक गया ।

मैं मरीया इवानोव्ना के कमरे की ओर भाग गया। दरवाज़ा बन्द था। मैंने दस्तक दी । "कौन है ?" पालाशा ने पूछा। मैंने अपना नाम बताया। दरवाज़े के पीछे से मरीया इवानोव्ना की प्यारी- सी आवाज़ सुनाई दी - “ ज़रा रुकिये, प्योतर अन्द्रेइच ! मैं कपड़े बदल रही हूं। आप अकुलीना पम्फ़ीलोव्ना के यहां चले जाइये – मैं भी अभी वहां आ जाऊंगी। "

उसकी बात मानते हुए मैं पादरी गेरासिम के घर की ओर चल दिया । पादरी और पादरिन मुझसे मिलने के लिये बाहर आ गये । सावेलिच ने उन्हें मेरे बारे में पहले से ही सूचना दे दी थी । नमस्ते, प्योतर अन्द्रेइच," पादरिन ने कहा भगवान की कृपा से फिर भेंट हो गयी । कैसा हालचाल है ? हम तो आपको हर दिन याद करते थे । प्यारी मरीया इवानोव्ना को तो आपके बिना बहुत कुछ सहना पड़ा !.. हां भैया, यह तो बताइये कि पुगाचोव के साथ आपने कैसे पटरी बिठा ली ? आपकी जान कैसे बख्श दी उसने ? और कुछ नहीं तो इसी के लिये हम उस बदमाश को धन्यवाद दे सकते हैं ।" "बस, बस, काफ़ी है, बुढ़िया," पादरी गेरासिम ने उसे टोका । " जो कुछ जानती हो, सभी कुछ कह डालना तो ज़रूरी नहीं । बहुत बोलना अच्छा नहीं होता। भैया प्योतर अन्द्रेइच ! कृपया, भीतर आइये! बहुत, बहुत दिनों बाद मिल रहे हैं !"

पादरिन ने घर में उपलब्ध खाने-पीने की सभी चीज़ें मेरे सामने लाकर रख दीं। साथ ही वह लगातार बातें भी करती जाती थी । उसने मुझे बताया कि श्वाबरिन ने कैसे मरीया इवानोव्ना को उसके हवाले कर देने के लिये विवश किया, मरीया इवानोव्ना कैसे फूट-फूटकर रोई और कैसे वह उनसे अलग नहीं होना चाहती थी, कैसे मरीया इवानोव्ना ने पालाशा ( बड़ी साहसी लड़की है, जिसने सार्जेंट को भी अपने इशारों पर नचाया) के ज़रिये उसके साथ सम्पर्क बनाये रखा और कैसे उसने मरीया इवानोव्ना को मुझे पत्र लिखने की सलाह दी आदि। दूसरी ओर, मैंने संक्षेप में उसे अपनी कहानी सुनाई। यह सुनकर कि पुगाचोव को उनके द्वारा दिये गये धोखे की जानकारी है, पादरी और पादरिन ने अपने ऊपर सलीब का निशान बनाया । “भगवान का ही भरोसा है हमें तो !" अकुलीना पम्फ़ीलोव्ना ने कहा । "दुख के बादलों को दूर भगा दो, प्रभु । और अलेक्सेई इवानोविच, क्या कहने हैं उसके ! खूब है वह !" इसी क्षण दरवाज़ा खुला और पीले चेहरे पर मुस्कान लिये हुए मरीया इवानोव्ना भीतर आई। उसने किसान युवती की पोशाक उतार दी थी और पहले की तरह ढंग की सादी-सी पोशाक पहने थी ।

मैंने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया और देर तक मेरे मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला । हम दोनों इतना कुछ कहना चाहते थे कि कुछ भी नहीं कह पा रहे थे । हमारे मेज़बानों ने अनुभव किया कि हमें अब उनकी सुध नहीं थी और इसलिये उन्होंने हमें अकेले छोड़ दिया । हमें दीन-दुनिया की खबर नहीं रही । हम बातें करते जाते थे और उनका अन्त नहीं होने को आ रहा था। मरीया इवानोव्ना ने मुझे वह सब कुछ बताया जो दुर्ग पर अधिकार होने के बाद उसे सहन करना पड़ा था। उसने अपनी स्थिति की सारी भयानकता और उन सभी मुसीबतों-आज़माइशों का वर्णन किया जिनका कमीने श्वाबरिन ने उसे शिकार बनाया था। हमने पहले के अच्छे और सुखी समय को भी याद किया... हम दोनों रोये... आखिर मैं उसे भविष्य की योजना बताने लगा । पुगाचोव के अधीन और श्वाबरिन द्वारा शासित दुर्ग में उसके लिये रहना सम्भव नहीं था । दुश्मन के घेरे में सभी तरह की मुसीबतें सहते हुए ओरेनबर्ग जाने की भी बात नहीं सोची जा सकती थी। मरीया इवानोव्ना का दुनिया में कोई सगा सम्बन्धी नहीं था । मैंने उससे कहा कि वह मेरे माता-पिता के पास गांव चली जाये । शुरू में उसने हिचकिचाहट ज़ाहिर की- मेरे पिता जी का उसके प्रति अच्छा रवैया नहीं था, उसे यह मालूम था और यही चीज़ उसके मन में भय पैदा करती थी। मैंने उसकी शंका को दूर कर दिया। मैं जानता था कि मेरे पिता अपनी मातृभूमि के लिये वीरगति को प्राप्त हुए सम्माननीय योद्धा की बेटी को अपने यहां शरण देना अपना सौभाग्य और कर्तव्य मानेंगे। "प्यारी मरीया इवानोव्ना !" मैंने आखिर कहा । “मैं तुम्हें अपनी पत्नी मानता हूं। अजीब परिस्थितियों ने हमें सदा के लिये अटूट बन्धन में बांध दिया है और दुनिया की कोई भी ताक़त हमें अलग नहीं कर सकती ।" मरीया इवानोव्ना ने बड़ी सरलता से, किसी तरह की कृत्रिम झेंप या टालमटोल प्रकट किये बिना मेरी बात सुनी। वह महसूस कर रही थी कि उसका भाग्य मेरे भाग्य से जुड़ चुका है। किन्तु उसने यह दोहराया कि मेरे माता-पिता की सहमति के बिना वह मेरी पत्नी नहीं बनेगी। मैंने उसकी बात नहीं काटी । हमने भावविह्वल और प्रेम-विभोर होकर एक-दूसरे को चूमा और इस तरह हमारे बीच सब कुछ तय हो गया ।

एक घण्टे बाद सार्जेंट पुगाचोव के टेढ़े-मेढ़े हस्ताक्षरोंवाला अनुमति - पत्र लेकर आया और यह बताया कि उसने मुझे अपने पास बुलाया है। मैंने उसे सफ़र के लिये तैयार पाया । इस व्यक्ति से अलग होते हुए, जो मेरे सिवा सभी के लिये भयानक, दरिन्दा और दुष्ट-कमीना था, मैंने क्या अनुभव किया, मैं यह बता नहीं सकता। लेकिन सचाई को कह ही क्यों न दूं ? इस क्षण बहुत ही सहानुभूति हो रही थी मुझे उससे। मैं बेहद चाहता था कि उसे उन दुष्टों के बीच से निकाल लूं जिनकी वह अगुवाई कर रहा था और वक़्त रहते उसे सूली के फंदे से बचा लूं । किन्तु श्वाबरिन और हमारे आस-पास जमा लोगों की भीड़ ने मुझे वह सब कुछ कहने नहीं दिया जो इस वक़्त मेरे दिल में उमड़-घुमड़ रहा था।

हम मित्रों की भांति अलग हुए। भीड़ में अकुलीना पम्फ़ीलोव्ना को देख उसने उंगली दिखाकर उसे धमकाया और अर्थपूर्ण ढंग से आंख मारी। इसके बाद वह स्लेज में जा बैठा, बेर्दा चलने का आदेश दिया और जब घोड़े चल पड़े तो फिर एक बार स्लेज से सिर बाहर निकालकर चिल्लाया - "तो विदा, हुजूर ! शायद फिर कभी मुलाक़ात हो जाये । सचमुच हमारी मुलाक़ात हुई, लेकिन किन परिस्थितियों में ! ..

पुगाचोव चला गया। मैं बहुत देर तक उस सफ़ेद स्तेपी को देखता रहा जिसमें उसकी स्लेज तेज़ी से बढ़ी जा रही थी । लोग-बाग अपनी- अपनी राह चलते बने। श्वाबरिन भी ग़ायब हो गया । मैं पादरी के घर में लौट आया। हमारे जाने की पूरी तैयारी हो चुकी थी, मैं देर नहीं करना चाहता था । दुर्गपति की पुरानी घोड़ा गाड़ी पर हमारा सारा सामान लादा जा चुका था। कोचवानों ने आन की आन में घोड़े जोत दिये। मरीया इवानोव्ना गिरजे के पीछे दफ़नाये गये अपने माता- पिता की क़ब्रों से विदा लेने गयी। मैंने उसके साथ जाना चाहा, किन्तु उसने अनुरोध किया कि उसे अकेली ही रहने दिया जाये। कुछ मिनट बाद वह मूक आंसू बहाती हुई चुपचाप वापस आ गयी। घोड़ा गाड़ी लाई गयी। पादरी गेरासिम और उसकी पत्नी बाहर आकर खड़े हो गये । मरीया इवानोव्ना पालाशा और मैं हम तीनों घोड़ा गाड़ी में बैठ गये। सावेलिच कोचवान की बग़ल में जा बैठा । "नमस्ते, मेरी प्यारी मरीया इवानोव्ना ! नमस्ते, प्योतर अन्द्रेइच, हमारे बांके सूरमा दयालु पादरिन ने कहा । यात्रा शुभ हो और भगवान तुम दोनों को सुख-सौभाग्य दे !" हम रवाना हो गये । दुर्गपति के घर की खिड़की में मुझे श्वाबरिन खड़ा दिखाई दिया । उसके चेहरे पर उदासी भरा क्रोध झलक रहा था । मैं पराजित शत्रु पर अपनी विजय का प्रदर्शन नहीं करना चाहता था और इसलिये मैंने नज़र दूसरी ओर कर ली । आखिर हम दुर्ग के फाटक से बाहर निकले और हमेशा के लिये बेलोगोर्स्क दुर्ग से विदा हो गये ।

तेरहवां अध्याय : गिरफ़्तारी

बुरा नहीं मानें हुजूर, मुझको कर्तव्य निभाना है-
जेल आपको इसी घड़ी, अब मुझको तो भिजवाना है ।
- जाने को तैयार, बात पर साफ़ मुझे कर लेने दें,
क्या कारण है, मुझको मन की शंकायें हर लेने दें ।
(कन्याजनिन)

अपने दिल की रानी से जिसके बारे में मैं आज सुबह ही इतनी यातनापूर्ण चिन्ता में घुल रहा था, ऐसे अप्रत्याशित मेल हो जाने पर मुझे हक़ीक़त का यक़ीन नहीं हो रहा था और मैं यही कल्पना कर रहा था कि जो कुछ घटा है, वह केवल सपना है । ख्यालों में डूबी -खोई-सी मरीया इवानोव्ना कभी मेरी ओर, तो कभी सड़क की ओर देखती थी और ऐसे लगता था कि अभी तक उसके होश- हवास ठीक नहीं हुए हैं, वह पूरी तरह सम्भल नहीं पाई है। हम दोनों खामोश थे। हमारे हृदय बहुत क्लान्त थे । हमें पता भी नहीं चला कि दो घण्टे बीत गये और हम पुगाचोव के ही अधीन एक अन्य दुर्ग में पहुंच गये । यहां हमने घोड़े बदले । पुगाचोव द्वारा नियुक्त किये गये इस दुर्ग के दढ़ियल कज़्ज़ाक दुर्गपति ने जिस तेजी से घोड़े बदलवाये, जैसे हमारी लल्लो-चप्पो की, उससे मैं यह समझ गया कि हमारी स्लेज के बातूनी कोचवान की बदौलत मुझे यहां पुगाचोव का कृपा - पात्र मान लिया गया है ।

हम आगे चल दिये । झुटपुटा होने लगा था । हम उस बस्ती के निकट पहुंच रहे थे, जहां दढ़ियल दुर्गपति के शब्दों में एक शक्तिशाली दस्ता पड़ाव डाले था और वह नक़ली सम्राट की सेना में शामिल होने जा रहा था। पहरेदारों ने हमें रोका। यह पूछा जाने पर कि कौन जा रहा है, कोचवान ने ऊंची आवाज़ में जवाब दिया, "अपनी पत्नी सहित महाराज का मित्र " । अचानक हुस्सारों की भीड़ ने धुआंधार गालियां बकते हुए हमें घेर लिया । "बाहर निकल, शैतान के दोस्त !" मुच्छल सार्जेंट मेजर ने मुझसे कहा । "अभी तुम्हारी और तुम्हारी बीवी की खातिर की जायेगी !"

घोड़ा गाड़ी से नीचे उतरकर मैंने यह मांग की कि मुझे उनके सबसे बड़े अफ़सर के पास ले जाया जाये । मुझ अफ़सर को अपने सामने देखकर फ़ौजियों ने गालियां बकना बन्द कर दिया । सार्जेंट मेजर मुझे मेजर के पास ले गया । सावेलिच बड़बड़ाता हुआ मेरे पीछे-पीछे बना रहा - " ले लो मज़ा महाराज का मित्र होने का ! गढ़े से बचे, खाई में गिरे... हे भगवान ! क्या अन्त होगा इस सब का ?" घोड़ा गाड़ी धीरे-धीरे हमारे पीछे-पीछे आती रही ।

पांच मिनट बाद हम रोशनी से जगमगाते घर के नज़दीक पहुंच गये । सार्जेंट मेजर मुझे पहरे में छोड़कर मेरे बारे में सूचना देने गया । उसने उसी वक़्त लौटकर मुझे बताया कि मेजर साहब के पास मुझसे मिलने का वक्त नहीं है, उन्होंने हुक्म दिया है कि मुझे जेल भेज दिया जाये और श्रीमती जी को उनके पास लाया जाये ।

"क्या मतलब है इसका ?" मैं गुस्से से बौखलाकर चिल्ला उठा । "क्या उसका दिमाग़ चल निकला है ?"

"मालूम नहीं, हुजूर," सार्जेंट मेजर ने जवाब दिया । "हां, उन बड़े हुजूर ने हुक्म दिया है कि आप हुजूर को जेल भेज दिया जाये और श्रीमती जी को उन बड़े हुज़ूर के पास ले जाने का हुक्म दिया गया है, हुज़ूर !"

मैं दरवाज़े की तरफ़ लपका । सन्तरियों ने मुझे रोकने की कोशिश नहीं की और मैं भागता हुआ उस कमरे में घुस गया जहां छः हुस्सार अफ़सर जुआ खेल रहे थे। मेजर खजांची था । कितनी हैरानी हुई तब मुझे जब मैंने उसे देखते ही पहचान लिया। यह इवान इवानोविच जूरिन था, जिसने कभी सिम्बीर्स्क के होटल में मुझसे पैसे जीत लिये थे । "यह क्या देख रहा हूं ?" मैं चिल्ला उठा । "इवान इवानोविच ? यह तुम्हीं हो क्या ?"

"अरे वाह, प्योतर अन्द्रेइच ! यहां कैसे आना हुआ ? कहां से आ टपके ? बहुत खूब मेरे भाई । तो बाज़ी हो जाये ? "

“शुक्रिया । यही ज़्यादा अच्छा होगा कि तुम मेरे कहीं ठहरने का इन्तज़ाम करने का हुक्म दो ।"

"कहीं ठहरने का क्या सवाल पैदा होता है ? मेरे यहां ठहरो ।"

“ऐसा नहीं कर सकता मैं अकेला नहीं हूं ।"

"तो अपने दोस्त को भी यहीं ले आओ ।"

"मैं दोस्त के साथ नहीं... एक महिला के साथ हूं ।"

“ महिला के साथ ! कहां तुमने उसे अपने गले बांध लिया ? अरे, भैया ! ( इतना कहकर जूरिन ने ऐसे अर्थपूर्ण ढंग से सीटी बजायी कि सभी ठठाकर हंस पड़े और मैं बिल्कुल चकरा गया । )

"खैर," जूरिन ने अपनी बात जारी रखी, “ऐसा ही सही । रहने की जगह का इन्तज़ाम हो जायेगा । मगर अफ़सोस की बात है ... हमने पहले की तरह मौज उड़ाई होती ... अरे, सुनो तो ! पुगाचोव की उस सहेली को यहां क्यों नहीं लाया जा रहा? या वह ज़िद्दी है ? उससे कह देना चाहिये कि डरे नहीं, कि रईसज़ादा बहुत ही शरीफ़ है, किसी तरह उसके दिल को ठेस नहीं लगायेगा । अगर बहुत हंगामा करे तो उसे धकेलकर ले आओ ।"

"यह तुम क्या कह रहे हो ?" मैंने जूरिन से कहा । "कैसी पुगाचोव की सहेली ? वह तो शहीद हुए कप्तान मिरोनोव की बेटी है । मैं उसे रिहा करवाकर लाया हूं और अब पिता जी के पास गांव ले जा रहा हूं और वहीं छोड़ आऊंगा ।"

"क्या कहा ! तो क्या तुम्हारे बारे में ही मुझे अभी सूचना दी गयी थी ? कृपया यह बताओ कि यह सब क्या क़िस्सा है ? "

"बाद में सब कुछ बताऊंगा | भगवान के लिये अभी तो उस बेचारी लड़की को तसल्ली दो जिसे तुम्हारे हुस्सारों ने बुरी तरह डरा दिया है ।"

जूरिन ने उसी समय सारी व्यवस्था कर दी। अनजाने ही हो जानेवाली इस भूल के लिये उसने खुद बाहर जाकर मरीया इवानोव्ना से माफ़ी मांगी और सार्जेंट मेजर को उसे बस्ती के सबसे अच्छे मकान में ले जाकर टिकाने का आदेश दिया । मैं जूरिन के साथ ही ठहर गया ।

हमने रात का भोजन किया और जब हम दोनों ही रह गये तो मैंने उसे अपनी सारी दास्तान सुनाई। जूरिन बहुत ध्यान से मेरी बातें सुनता रहा। मेरे सब कुछ कह लेने पर उसने सिर हिलाते हुए कहा -

"यह सब तो अच्छा है भैया, मगर एक बात अच्छी नहीं - तुम्हारे सिर पर यह शादी का भूत क्यों सवार हुआ है ? मैं ईमानदार अफ़सर हूं, तुम्हें धोखा नहीं देना चाहता- मेरी बात पर यक़ीन करो कि शादी निरी बकवास चीज़ है । क्या लेना है तुम्हें बीवी और बच्चों के फेर में पड़कर ? गोली मारो। मेरी बात मानो - कप्तान की बेटी से तुम अपना पिंड छुड़ा लो । सिम्बीक जाने का रास्ता मैंने दुश्मनों से साफ़ कर दिया है और वहां कोई ख़तरा नहीं । कल ही उसे अपने माता-पिता के पास रवाना कर दो और खुद मेरी पलटन में ही रह जाओ। तुम्हारे ओरेनबर्ग लौटने में कोई तुक नहीं । अगर फिर से विद्रो- हियों के हत्थे चढ़ गये, तो शायद ही फिर उनके पंजे से निकल पाओगे । इस तरह यह मुहब्बत का जनून भी अपने आप ही दिमाग़ से निकल जायेगा और सारी बात ठीक हो जायेगी ।"

यद्यपि मैं जूरिन के साथ पूरी तरह सहमत नहीं था, तथापि यह अनुभव करता था कि अफ़सर के नाते मेरी प्रतिष्ठा और मेरा कर्तव्य यह मांग करते हैं कि मैं सम्राज्ञी की सेनाओं में डटा रहूं। मैंने जूरिन की सलाह पर अमल करने का फ़ैसला किया - मरीया इवानोव्ना को गांव भेज दूंगा और खुद उसकी पलटन में ही रह जाऊंगा ।

सावेलिच सोने के लिये मेरे कपड़े बदलवाने को आया। मैंने उससे कहा कि वह अगले दिन ही मरीया इवानोव्ना को साथ लेकर गांव जाने की तैयारी कर ले । उसने हठ करते हुए विरोध किया —

"यह क्या कह रहे हो, मालिक ? मैं तुम्हें छोड़कर कैसे जा सकता हूं ? कौन तुम्हारी देख-भाल करेगा ? तुम्हारे माता-पिता क्या कहेंगे ?" मैं अपने इस बुजुर्ग की हठधर्मी से परिचित था, इसलिये मैंने प्यार और मन की सच्ची बात कहकर उसका दिल जीतने का फ़ैसला किया ।

"मेरे दोस्त, अर्खीप सावेलिच ! " मैंने उससे कहा । मैंने उससे कहा। “मुझे इन्कार नहीं करो, मुझ पर एहसान करो ! मुझे यहां देख-भाल करनेवाले की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, लेकिन अगर मरीया इवानोव्ना तुम्हारे बिना अकेली जायेगी, तो मेरा दिल बहुत परेशान रहेगा । उसकी सेवा करते हुए तुम मेरी भी सेवा करोगे, क्योंकि मैंने यह पक्का इरादा बना लिया है कि सम्भव होते ही मैं उससे शादी कर लूंगा ।"

यह सुनकर सावेलिच ने इतनी हैरानी से हाथ झटके कि बयान से बाहर ।

"शादी कर लूंगा !" उसने मेरे शब्द दोहराये । "बेटा शादी करना चाहता है ! लेकिन तुम्हारे पिता क्या कहेंगे, माता क्या सोचेंगी ?"

"वे मान जायेंगे, ज़रूर मान जायेंगे," मैंने जवाब दिया, "मरीया इवानोव्ना को समझ भर लेने की देर है । मैं तुम पर भी भरोसा करता हूं। मेरे माता-पिता तुम पर यकीन करते हैं, तुम भी हमारी वकालत करोगे न ?"

बूढ़े का दिल पसीज गया ।

"ओह, मेरी आंखों की रोशनी, प्योतर अन्द्रेइच !” उसने जवाब दिया । "बेशक तुम शादी के मामले में जल्दी कर रहे हो, फिर भी मरीया इवानोव्ना इतनी भली हैं कि ऐसा अवसर हाथ से जाने देना पाप होगा । सो वही हो, जो तुम चाहते हो ! मैं इस फ़रिश्ते को घर पहुंचा दूंगा और बड़ी नम्रता से तुम्हारे माता-पिता से कहूंगा कि ऐसी दुलहन के लिये दहेज ज़रूरी नहीं ।"

मैंने सावेलिच को धन्यवाद दिया और जूरिन के कमरे में अपने बिस्तर पर जा लेटा । अत्यधिक उत्साहित और भाव विह्वल होने के कारण मैं खूब बतियाता रहा। शुरू में जूरिन बहुत खुशी से मेरे साथ बातें करता रहा, मगर धीरे-धीरे उसके मुंह से निकलनेवाले शब्द कम होते गये और उनके बीच सिलसिला टूटता चला गया । आखिर मेरे किसी सवाल का जवाब देने के बजाय उसने खर्राटे लेना शुरू किया और उसकी नाक बजने लगी । मैं चुप हो गया और कुछ देर बाद खुद भी सो गया।

अगली सुबह को मैं मरीया इवानोव्ना के पास पहुंचा। मैंने उससे अपने दिल की बात कही। उसे ठीक मानते हुए वह मेरे साथ फ़ौरन सहमत हो गयी। जूरिन की पलटन उसी दिन नगर से रवाना होनेवाली थी। देर करना सम्भव नहीं था । मैंने उसी क्षण मरीया इवानोव्ना से विदा ली और अपने माता-पिता के नाम एक खत देते हुए उसे सावेलिच की देख-रेख में छोड़ दिया। मरीया इवानोव्ना रो पड़ी। "तो विदा, प्योतर अन्द्रेइच !" उसने धीमी-सी आवाज़ में कहा । "फिर कभी हमारी मुलाक़ात होगी या नहीं, यह तो भगवान ही जानता है । लेकिन मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूंगी, आखिरी सांस तक तुम ही मेरे दिल में बसे रहोगे।” मैं कोई जवाब नहीं दे पाया। हमारे आस-पास बहुत-से लोग थे। मैं उनके सामने अपने हृदय को उद्वेलित करनेवाले भाव व्यक्त नहीं करना चाहता था । आखिर वह रवाना हो गयी । मैं उदास और गुमसुम सा जूरिन के पास वापस आ गया। उसने मुझे रंग में लाने की कोशिश की और मैं खुद भी ऐसा ही चाहता था । हमने हो-हल्ला करते और मौज मनाते हुए दिन बिताया और शाम को हमारी पलटन यहां से चल दी।

यह फ़रवरी के अन्त की बात है । जंगी कार्रवाइयों को मुश्किल बनानेवाला जाड़ा खत्म हो रहा था और हमारे जनरल मिल-जुलकर क़दम उठाने की तैयारियां कर रहे थे । पुगाचोव अभी भी ओरेनबुर्ग की नाकाबन्दी किये हुए था । इसी बीच हमारे दस्ते उसके निकट जमा होकर सभी दिशाओं से इन दुष्टों के गढ़ की ओर बढ़ते जा रहे थे। विद्रोही गांव हमारी सेनाओं को देखते ही अधीनता स्वीकार कर लेते थे, लुटेरों के गिरोह सभी जगह हमें देखते ही भाग उठते थे और हर चीज़ इस बात का विश्वास दिलाती थी कि जल्द सब कुछ अच्छे ढंग से समाप्त हो जायेगा ।

शीघ्र ही प्रिंस गोलीत्सिन ने ततीश्चेव दुर्ग के निकट पुगाचोव के छक्के छुड़ा दिये, उसके गिरोहों को तितर-बितर कर दिया, ओरेनबुर्ग को घेरे से मुक्त करवा लिया और ऐसे प्रतीत हुआ मानो पुगाचोव के विद्रोह पर अन्तिम और निर्णायक चोट कर दी गयी है। जूरिन को उस समय विद्रोही बश्कीरियों के विरुद्ध भेजा गया था और ये हमें देखने के पहले ही भाग जाते थे । वसन्त ने हमें एक तातार गांव में रुके रहने के लिये विवश कर दिया था। नदियों में बाढ़ आ गयी थी और रास्ते लांघना सम्भव नहीं था । हम अपने निठल्लेपन को इस विचार से तसल्ली देते थे कि चोर - लुटेरों और जंगलियों के विरुद्ध इस ऊबभरी तथा मामूली-सी लड़ाई का जल्द ही अन्त हो जायेगा ।

किन्तु पुगाचोव गिरफ़्तार नहीं हुआ था । वह साइबेरिया के कारखानों में नमूदार हुआ, वहां उसने नये गिरोह जमा किये और फिर से अपनी काली करतूतें शुरू कर दीं। पुनः उसकी सफलताओं के समाचार फैलने लगे। हमें साइबेरिया के दुर्गों के मटियामेट किये जाने की ख़बरें मिलीं। जल्द ही कज़ान पर पुगाचोव के क़ब्ज़े और नक़ली सम्राट के मास्को की ओर कूच करने के समाचार ने घृणित विद्रोही के कुछ न कर सकने की आशा संजोये हुए चैन से सो रहे हमारे सेना-संचालकों की निद्रा भंग कर दी। जूरिन को वोल्गा लांघने का आदेश मिला ।

अपने अभियान और युद्ध के अन्त का मैं वर्णन नहीं करूंगा । केवल इतना ही कहूंगा कि दुख - मुसीबतों की कोई हद नहीं थी । हम विद्रोहियों द्वारा बरबाद किये गये गांवों में से गुज़रते थे और बेचारे गांववाले जो कुछ बचा पाये थे, वह भी अनिच्छापूर्वक उनसे छीन लेते थे । प्रशासन नाम की कहीं कोई चीज़ नहीं रही थी। ज़मींदारों ने जंगलों में जाकर पनाह ली थी । लुटेरों के गिरोह सभी जगह लूट-मार कर रहे थे। अलग-अलग सैनिक अधिकारी मनमाने ढंग से लोगों को दण्ड देते और क्षमा करते थे । इस पूरे क्षेत्र की, जहां यह आग भड़की हुई थी, बहुत बुरी हालत थी... भगवान न करे कि किसी को बेमानी और निर्मम रूसी विद्रोह को देखना पड़े !

पुगाचोव भाग खड़ा हुआ था और इवान इवानोविच मिखेलसोन1 उसका पीछा कर रहा था । जल्द ही हमें यह पता चला कि उसे पूरी तरह से कुचल दिया गया है। आखिर जूरिन को नक़ली सम्राट के गिरफ़्तार कर लिये जाने का समाचार और साथ ही यह आदेश मिला कि वह आगे बढ़ना बन्द कर दे । लड़ाई खत्म हो गयी थी । आखिर तो मैं अपने माता-पिता के पास जा सकता था ! यह विचार कि उनसे गले मिल सकूंगा, मरीया इवानोव्ना को देख सकूंगा, जिससे कोई समाचार नहीं मिला था, मुझे खुशी से दीवाना - सा बना रहा था । मैं बालक की तरह उछलता कूदता था। जूरिन हंसता और कंधे झटककर कहता, "नहीं, तुम्हारा बुरा हाल होगा ! शादी करोगे और बरबाद हो जाओगे ! "

1. लेफ्टिनेंट कर्नल (१७४० - १८०७), जिसने त्सारीत्सिन और चोर्नी यार के बीच २५ अगस्त १७७४ को हुई लड़ाई में पुगाचोव को पूरी तरह से पराजित किया था । - सं ०

किन्तु इसी बीच एक अजीब-सी भावना मेरी खुशी में ज़हर घोल रही थी । दुष्ट पुगाचोव का, जिसने इतनी बड़ी संख्या में निर्दोष लोगों के खून से अपने हाथ रंगे थे और अब उसे जो दण्ड मिलनेवाला था, उसका भी मुझे बरबस ध्यान आ रहा था । "येमेल्या, येमेल्या !" मैं दुखी मन से सोचता, "क्यों तुम किसी संगीन या गोली का निशाना नहीं बन गये ? तुम्हारे लिये इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता था ।" मैं उसके बारे में भला सोचता कैसे नहीं ? उसके बारे में मेरे मन में आनेवाला विचार उस दया भाव के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ था जो उसके जीवन के एक भयानक क्षण में उसने मेरे प्रति दिखाया था और यह भी कि कैसे उसने मेरे दिल की रानी को नीच श्वाबरिन से निजात दिलवाई थी ।

जूरिन ने मुझे घर जाने की छुट्टी दे दी। कुछ दिन बाद मैं फिर से अपने परिवार में पहुंचनेवाला था, फिर से अपनी मरीया इवानोव्ना से मेरी भेंट होनेवाली थी... अचानक मानो बिजली टूटी जिसने मुझे स्तम्भित कर दिया ।

मेरे जाने के दिन ठीक उसी क्षण जब मैं सफ़र के लिये रवाना होने को तैयार हो रहा था, जूरिन हाथ में एक काग़ज़ और चेहरे पर गहरी चिन्ता का भाव लिये हुए मेरे पास आया । मेरे दिल में फांस-सी चुभी । मुझे मालूम नहीं कि किस चीज़ से, लेकिन मैं डर ज़रूर गया । उसने मेरे अर्दली को बाहर भेज दिया और बोला कि उसे मुझसे कुछ काम है। "क्या बात है ?" मैंने घबराकर पूछा । "छोटी-सी अप्रिय बात है, ” उसने काग़ज़ मुझे पकड़ाते हुए उत्तर दिया । “ इसे पढ़ो, मुझे अभी-अभी मिला है ।" मैं पढ़ने लगा यह सभी सैनिक विभागाध्यक्षों के नाम भेजा गया गुप्त आदेश था कि मुझे, मैं जहां भी होऊं, फ़ौरन गिरफ़्तार करके फ़ौजी पहरे में कज़ान भेज दिया जाये, जहां पुगाचोव के मामले की जांच-पड़ताल करने का आयोग नियुक्त किया गया था।

काग़ज़ मेरे हाथ से नीचे गिरते-गिरते रह गया । "कुछ भी नहीं हो सकता !" जूरिन ने कहा । "आदेश का पालन करना मेरा कर्तव्य है। सम्भवतः पुगाचोव के साथ तुम्हारे मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की ख़बर किसी तरह सरकार तक पहुंच गयी है । मुझे आशा है कि इस मामले का कोई बुरा नतीजा नहीं होगा और आयोग के सामने तुम अच्छी तरह से अपनी सफ़ाई दे सकोगे। दिल छोटा नहीं करो और रवाना हो जाओ।" मेरे मन में किसी तरह की अपराध - भावना नहीं थी और फ़ौजी अदालत के सामने जाने में मुझे किसी तरह का डर नहीं महसूस हो रहा था । किन्तु मधुर मिलन के क्षणों को, सो भी शायद कई महीनों के लिये स्थगित करने के विचार से मैं कांप उठा । घोड़ा- गाड़ी तैयार थी। जूरिन ने मैत्रीपूर्ण ढंग से मुझसे विदा ली। मुझे घोड़ा गाड़ी में बिठा दिया गया नंगी तलवारें लिये हुए दो हुस्सार मेरे साथ बैठ गये और घोड़ा गाड़ी बड़ी सड़क पर चल दी ।

चौदहवां अध्याय : मुक़दमा

लोगों में यों फैलती खबर
जैसे बढ़ती हुई लहर ।
(कहावत)

मुझे इस बात का विश्वास था कि अपनी इच्छानुसार ओरेनबुर्ग से मेरा अनुपस्थित रहना ही मेरा मुख्य अपराध था । मैं बड़ी आसानी से अपनी सफ़ाई पेश कर सकता था, क्योंकि शत्रु से जूझने के लिये दुर्ग से बाहर जाने की न केवल कभी मनाही नहीं की गयी थी, बल्कि इसे हर तरह से प्रोत्साहित किया जाता था । मुझ पर ज़रूरत से ज़्यादा जोश दिखाने का अपराध लगाया जा सकता था, मगर अनुशासन भंग करने का नहीं । किन्तु पुगाचोव के साथ मेरे हेल-मेल की अनेक गवाह पुष्टि कर सकते थे और मेरे ऐसे सम्बन्ध कम से कम काफ़ी सन्देहपूर्ण अवश्य प्रतीत हो सकते थे। रास्ते भर मैं उन प्रश्नों पर विचार करता रहा जो मुझसे पूछे जा सकते थे, अपने जवाबों के बारे में भी सोचता रहा और अदालत के सामने सब कुछ सच-सच कह देने को ही अपनी सफ़ाई का सबसे सीधा-सादा और साथ ही विश्वसनीय उपाय मानते हुए मैंने यही करने का निर्णय किया ।

मैं जलकर खाक हुए और सुनसान कज़ान में पहुंचा। सड़कों पर मकानों की जगह राख और जली चीज़ों के ढेर लगे थे और छतों तथा खिड़कियों के बिना धुएं से काली हुई दीवारें खड़ी थीं। तो पुगाचोव अपने पीछे ऐसे निशान छोड़ गया था भस्म हुए नगर के बीचोंबीच बिल्कुल क्षतिहीन रह गये दुर्ग में मुझे ले जाया गया । हुस्सारों ने मुझे सन्तरियों के अफ़सर के हवाले कर दिया । उसने लुहार को बुला लाने का आदेश दिया। मेरे पैरों में बेड़ियां डालकर उन्हें अच्छी तरह से कस दिया गया। इसके बाद मुझे जेलखाने में ले जाकर खाली दीवारों और लोहे का जंगला लगी छोटी-सी खिड़की वाली तंग तथा अंधेरी कोठरी में अकेला छोड़ दिया गया ।

इस तरह का आरम्भ किसी अच्छी बात की आशा नहीं बंधवाता था । फिर भी मैंने न तो हिम्मत हारी और न उम्मीद ही छोड़ी । मैंने सभी दुखियों - पीड़ितों को सान्त्वना देनेवाले मार्ग का सहारा लिया और पहली बार सच्चे, किन्तु विदीर्ण मन से प्रार्थना के सुख का मधुपान किया और इस बात की चिन्ता किये बिना कि मेरे साथ क्या होगा, चैन की नींद सो गया ।

अगले दिन जेल के चौकीदार ने यह कहते हुए मुझे जगा दिया कि जांच आयोग के सामने बुलाया गया है। दो सैनिकों के साथ अहाते को लांघकर हम दुर्गपति के घर में दाखिल हुए, सैनिक प्रवेश - कक्ष में ही रुक गये और मुझे अकेले ही भीतर जाने दिया ।

मैंने काफ़ी बड़े हॉल में प्रवेश किया। काग़ज़ों से ढकी मेज़ के पीछे दो व्यक्ति बैठे थे – कठोर और रुखा सा दिखनेवाला बुजुर्ग जनरल और गार्ड सेना का जवान कप्तान, जिसकी उम्र कोई अट्ठाईस साल थी, प्रियदर्शी, चुस्त- फुर्तीला और स्वाभाविक ढंग से व्यवहार करनेवाला । खिड़की के पास एक खास मेज़ के पीछे कान में क़लम अटकाये काग़ज़ पर झुका हुआ और मेरा बयान लिखने को तैयार मुंशी बैठा था । पूछ-ताछ शुरू हुई । मुझसे मेरा नाम और ओहदा पूछा गया । जनरल ने प्रश्न किया कि क्या मैं अन्द्रेई पेत्रोविच ग्रिनेव का बेटा तो नहीं हूं ? मेरा उत्तर सुनने के बाद उसने बड़ी कठोरता से कहा, “ बड़े अफ़सोस की बात है कि ऐसे सम्माननीय व्यक्ति का ऐसा नालायक़ बेटा है !" मैंने शान्ति से जवाब दिया कि मुझ पर चाहे कैसे भी आरोप क्यों न लगाये जायें, मुझे आशा है कि मैं ईमानदारी से सचाई बयान करके उन्हें ग़लत सिद्ध कर दूंगा । मेरा यह आत्मविश्वास उसे अच्छा नहीं लगा ।

"तुम बहुत तेज़ हो, भैया, उसने नाक-भौंह सिकोड़ते हुए कहा, किन्तु हमने तुमसे भी कहीं ज़्यादा तेज़ देखे हैं !"

तब जवान कप्तान ने मुझसे पूछा कि किन परिस्थितियों में और किस समय मैंने पुगाचोव की नौकरी की और उसने मुझे क्या काम सौंपे थे ?

मैंने गुस्से से जवाब दिया कि एक अफ़सर और अभिजात होने के नाते मैं पुगाचोव की कभी नौकरी नहीं कर सकता था और उसके लिये कुछ भी करने को तैयार नहीं हो सकता था ।

"तो भला किस तरह उस नक़ली सम्राट ने," जिरह करनेवाले कप्तान ने आपत्ति की, " एक अभिजात और अफ़सर को बख़्श दिया, जबकि उसके बाक़ी सभी साथियों की निर्दयता से हत्या कर दी गयी थी ? कैसे इसी अफ़सर और अभिजात ने विद्रोहियों के साथ बैठकर दावत उड़ाई और बदमाशों के सरदार से तोहफ़े - फ़र-कोट, घोड़ा और पचास कोपेक लिये ? यदि ग़द्दारी या कम से कम कमीनी और अपराधपूर्ण कायरता इस अजीब दोस्ती की बुनियाद नहीं थी, तो और क्या कारण था इसका ?"

गार्ड- सेना के अफ़सर के शब्दों से मेरे दिल को बड़ी ठेस लगी और मैं खूब जोश से अपनी सफाई पेश करने लगा। मैंने बताया कि बर्फ़ के तूफ़ान के वक़्त कैसे पुगाचोव से स्तेपी में मेरी जान-पहचान हुई, कैसे बेलोगोर्स्क दुर्ग पर अधिकार करने के समय उसने मुझे पहचानकर क्षमा कर दिया। मैंने कहा, यह सच है कि उस नक़ली सम्राट से फ़र-कोट और घोड़ा लेते हुए मुझे शर्म नहीं आई, किन्तु बदमाशों से बेलोगोर्स्क दुर्ग की रक्षा के लिये मैंने अपनी पूरी ताक़त लगाई । अन्त में मैंने अपने जनरल का हवाला दिया जो ओरेनबुर्ग की भयानक क़िले- बन्दी के समय मेरे जोश की गवाही दे सकता था ।

कठोर बूढ़े जनरल ने मेज़ पर से खुला हुआ पत्र उठाया और उसे ऊंचे-ऊंचे पढ़ने लगा-

"महामान्य छोटे लेफ्टिनेंट ग्रिनेव से सम्बन्धित आपकी पूछ-ताछ के उत्तर में, जिसने मानो हाल के विद्रोह में भाग लिया और सैनिक नियमों तथा वफ़ादारी की क़सम का उल्लंघन करते हुए बदमाशों के सरदार के साथ सम्बन्ध स्थापित किया, मैं सादर यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि छोटा लेफ्टिनेंट पिछले १७७३ के अक्तूबर महीने से इस वर्ष के फ़रवरी महीने की २४ तारीख तक ओरेनबुर्ग में सैनिक ड्यूटी पर रहा, इसी दिन शहर से ग़ायब हो गया और उसके बाद मेरी कमान में नहीं लौटा। भगोड़ों से सूनने को मिला है कि वह गांव में पुगाचोव के साथ था और उसके साथ बेलोगोर्स्क गया जहां वह पहले फ़ौजी ड्यूटी पर रहा था। जहां तक उसके आचरण का प्रश्न है, तो मैं यह कह सकता हूं ... " यहां उसने पत्र पढ़ना बन्द कर दिया और कठोरतापूर्वक मुझसे कहा, "अब तुम्हें क्या कहना है अपनी सफ़ाई में ?"

मैंने जैसे अपना बयान शुरू किया था, वैसे ही जोश और निष्कपटता से मरीया इवानोव्ना के साथ अपना सम्बन्ध और बाक़ी सब कुछ भी स्पष्ट करना चाहा। किन्तु सहसा मैंने एक अदम्य वितृष्णा अनुभव की। मेरे दिमाग में यह बात आई कि अगर मैं मरीया इवानोव्ना का नाम ले दूंगा तो आयोग उसे पूछ-ताछ के लिये बुला लेगा और बदमाशों के घटिया लांछनों के साथ उसका नाम जोड़ने तथा उनके सामने खुद उसके आने के विचार से मैं ऐसे विह्वल हो उठा कि मेरी ज़बान लड़खड़ा और गड़बड़ा गई ।

मेरे भाग्य-निर्णायकों के दिलों में, जो कुछ अनुकूल भाव दिखाते हुए मेरे उत्तर सुनने लगे थे, मेरी घबराहट देखकर फिर से मेरे विरुद्ध पूर्वाग्रह जाग उठे । गार्ड सेना के अफ़सर ने यह मांग की कि मुझे मुख्य मुखबिर के आमने-सामने किया जाये। जनरल ने हुक्म दिया कि “पिछले दिन के बदमाश" को भीतर लाया जाये। मैं अपने अभियोक्ता के प्रकट होने की प्रतीक्षा करते हुए बड़ी उत्सुकता से दरवाज़े की तरफ़ देखने लगा। कुछ मिनट बाद बेड़ियां खनखनाईं, दरवाज़ा खुला और श्वाबरिन भीतर आया। मैं उसमें हुआ परिवर्तन देखकर दंग रह गया । वह बेहद दुबला हो गया था और उसके चेहरे का रंग बिल्कुल पीला था। कुछ ही समय तक राल की तरह काले उसके बाल अब एकदम सफ़ेद हो गये थे और उसकी लम्बी दाढ़ी बिखरी हुई थी । उसने क्षीण, किन्तु दृढ़ आवाज़ में अपना अभियोग दोहराया। उसके कथनानुसार पुगाचोव ने मुझे जासूस बनाकर ओरेनबुर्ग भेजा था, मैं हर दिन इसलिये मुठभेड़ को दुर्ग से बाहर जाता था कि शहर में जो कुछ हो रहा था, उसका लिखित ब्योरा भेज सकूं, कि आखिर मैं खुलकर नक़ली सम्राट का साथ देने लगा, एक के बाद एक दुर्ग में उसके साथ जाने लगा, ताकि अपने जैसे ग़द्दार साथियों को हर सम्भव तरीक़े से तबाह कर सकूं, उनके पद छीन सकूं और झूठे दावेदार द्वारा दिये जानेवाले इनाम पा सकूं। मैंने चुपचाप उसका बयान सुना और मुझे एक बात की खुशी हुई - इस कमीने ने मरीया इवानोव्ना का नाम नहीं लिया था । शायद उसने इसलिये ऐसा किया था कि उसका विचार आने पर जिसने तिरस्कारपूर्वक उसे ठुकरा दिया था, उसके आत्माभिमान को ठेस लगी या फिर इसलिये कि उसके दिल में भी कहीं उसी भावना की चिंगारी छिपी हुई थी जिसने मुझे चुप रहने को विवश किया था । कारण कुछ भी रहा हो, बेलोगो के दुर्गपति की बेटी का नाम जांच आयोग के सामने नहीं लिया गया । मेरा इरादा और भी ज़्यादा पक्का हो गया और जब निर्णायकों ने यह पूछा कि मैं श्वाबरिन के बयान का कैसे खण्डन कर सकता हूं, तो मैंने जवाब दिया कि अपने पहले स्पष्टीकरण को ज्यों का त्यों रखना चाहता हूं और अपनी सफ़ाई में और कुछ भी नहीं जोड़ सकता। जनरल ने हम दोनों को ले जाने का आदेश दिया । हम एकसाथ बाहर निकले। मैंने शान्ति से श्वाबरिन की ओर देखा, किन्तु उससे एक भी शब्द नहीं कहा। वह द्वेषपूर्वक हंसा, बेड़ियां ऊपर उठाते हुए मुझसे आगे निकल गया और तेज़ी से बढ़ गया । मुझे फिर से जेल की कोठरी में ले जाकर बन्द कर दिया गया और इसके बाद फिर कभी पूछ-ताछ के लिये नहीं बुलाया गया ।

अपने पाठकों को मुझे जो कुछ और बताना है, मैं उसका भुगत- भोगी नहीं हूं । किन्तु ये बातें मैंने इतनी अधिक बार सुनी हैं कि उनकी हर छोटी-छोटी तफ़सील मेरे मानसपट पर ऐसे अंकित हो गयी है मानो अदृश्य रूप से मैं इनका साक्षी रहा हूं ।

मेरे माता- पिता ने उसी हार्दिकता से मरीया इवानोव्ना को स्वीकार किया जो पिछली सदी के लोगों का विशेष लक्षण थी। वे इसी बात के लिये भगवान के आभारी थे कि उन्हें एक यतीम को शरण और स्नेह देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। जल्द ही उन्हें उससे सच्चा लगाव हो गया, क्योंकि उसे जान-समझकर प्यार न करना सम्भव नहीं था । मेरा प्यार पिता जी को अब कोरी सनक नहीं प्रतीत होता था और मां तो केवल यही चाहती थीं कि उनका पेशा कप्तान की प्यारी बेटी से शादी कर ले।

मेरी गिरफ़्तारी की ख़बर से मेरे परिवार के सभी लोग हैरान रह गये । पुगाचोव के साथ मेरी अजीब जान-पहचान का मरीया इवानोव्ना ने इतनी सरलता से वर्णन किया कि इससे उन्हें न केवल कोई चिन्ता नहीं हुई, बल्कि इसने उन्हें अक्सर सच्चे दिल से हंसने को भी मजबूर किया । पिता जी इस बात पर विश्वास नहीं करना चाहते थे कि उस नीचतापूर्ण विद्रोह से, जिसका उद्देश्य गद्दी उलटना और कुलीनों का नाश करना था, मेरा कोई वास्ता था । उन्होंने बड़ी कड़ाई से सावेलिच से पूछ-ताछ की। बुजुर्ग सावेलिच ने यह नहीं छिपाया कि छोटे मालिक की येमेल्यान पुगाचोव के यहां खातिरदारी हुई थी और वह उस बदमाश का कृपा-पात्र था, किन्तु क़सम खाई कि किसी तरह की ग़द्दारी की बात उसने नहीं सुनी थी । बूढ़े माता-पिता शान्त हो गये और बड़ी बेसब्री से कोई अच्छी खबर सुनने का इन्तज़ार करने लगे । मरीया इवानोव्ना बहुत ज़्यादा परेशान थी, किन्तु उसने मौन साध रखा था क्योंकि उसमें नम्रता और सावधानी के गुण तो अपनी चरम सीमा पर पहुंचे हुए थे ।

कुछ सप्ताह बीत गये... अचानक पिता जी को पीटर्सबर्ग के एक हमारे रिश्तेदार प्रिंस ब... का पत्र मिला। प्रिंस ने उन्हें मेरे बारे में लिखा था। शुरू की कुछ रस्मी पंक्तियों के बाद उन्होंने बताया था कि दुर्भाग्य से, विद्रोहियों के मंसूबों में मेरे सहभाग के बारे में सन्देह बहुत ठोस सिद्ध हुआ और मुझे उसका उपयुक्त दण्ड मिलना चाहिये था, किन्तु पिता जी की सेवाओं और उनके बुढ़ापे को ध्यान में रखते हुए सम्राज्ञी ने अपराधी बेटे को क्षमा करने और सूली का कलंकपूर्ण दण्ड देने के बजाय साइबेरिया के किसी दूरस्थ स्थान पर सदा के लिये जा बसने की सज़ा देने का निर्णय किया है ।

इस अप्रत्याशित आघात ने मेरे पिता जी की लगभग जान ही नहीं ले ली। उनकी सामान्य दृढ़ता जाती रही और उनका दुख ( सामान्यतः मूक ) कटु शिकवे- शिकायतों में व्यक्त होने लगा । "यह क्या है ! " वे आपे से बाहर होते हुए दोहराते, "मेरे बेटे ने पुगाचोव के काले कारनामों में हिस्सा लिया ! हे ईश्वर, कैसे बुरे दिन देखने लिखे थे मेरे नसीब में ! सम्राज्ञी ने उसकी जान बख़्श दी ! क्या इससे मेरा दुख कुछ कम हो सकता है ? मौत की सज़ा भयानक नहीं - मेरे एक पूर्वज ने उस चीज़ की रक्षा करते हुए, जिसे अपनी आत्मा के लिये पावन मानते थे, अपने प्राण दे दिये। मेरे पिता जी वोलीन्स्की और ख्रुश्चेव1 के साथ शहीद हुए। लेकिन कुलीन अपनी क़सम के प्रति निष्ठावान न रहे, चोर-लुटेरों, हत्यारों और भगोड़े भू-दासों का साथ दे !. डूब गया हमारे कुल का नाम और उसकी प्रतिष्ठा !.." पिता जी की हताशा से भयभीत मां उनके सामने रोने की हिम्मत नहीं कर पाती थीं और यह कहकर कि अफ़वाहें झूठी हैं और लोगों का मत भी डांवांडोल है, उन्हें तसल्ली देने का प्रयास करती थीं । किन्तु मेरे पिता जी को चैन नहीं मिला ।

1. अर्तेमी वोलीन्स्की, आन्ना इओआनोव्ना के शासन ( १७३०- १७४० ) में एक मन्त्री जिसने सम्राज्ञी के कृपापात्र और रूसी दरबार के एक नीचतम भाड़े के विदेशी टट्टू बिरोन के विरुद्ध षड्यन्त्र का निर्देशन किया। अन्द्रेई ख्रुश्चेव, एडमिरौल्टी के एक सलाहकार, षड्यन्त्र में भागीदार, जिसे वोलीन्स्की के साथ सूली दी गयी । - सं०

मरीया इवानोव्ना सबसे अधिक यातना सह रही थी। इस बात का विश्वास करते हुए कि मैं जब भी चाहता, अपने को निरपराध सिद्ध कर सकता था, वह सचाई का अनुमान लगा रही थी और मेरे दुर्भाग्य के लिये अपने को दोषी मान रही थी । वह सभी से अपने आंसुओं और व्यथा को छिपाती और साथ ही मुझे बचाने के उपायों के बारे में भी लगातार सोचती रहती ।

एक शाम को पिता जी सोफ़े पर बैठे हुए दरबारी सूचना-पुस्तक के पृष्ठ उलट रहे थे। किन्तु उनके विचार कहीं दूर चक्कर काट रहे थे और इस सूचना - पुस्तक को पढ़ते हुए आम तौर पर उनके दिल पर जैसा प्रभाव पड़ता था, इस समय ऐसा नहीं हो रहा था। वे फ़ौजी कूच की एक पुरानी धुन पर सीटी बजा रहे थे । माता जी चुपचाप ऊनी स्वैटर बुन रही थीं और जब-तब उनके आंसुओं की बूंदें उस स्वैटर पर टपक पड़ती थीं । अचानक मरीया इवानोव्ना ने, जो वहीं बग़ल में बैठी हुई बुनाई कर रही थी, यह घोषणा की कि एक ज़रूरी काम से उसे पीटर्सबर्ग जाना होगा और वह अनुरोध करती है कि उसके वहां जाने की व्यवस्था कर दी जाये । माता जी बहुत परेशान हो उठीं । "क्या ज़रूरत आ पड़ी है तुम्हें पीटर्सबर्ग जाने की ? मरीया इवानोव्ना, रही हो ?" मरीया इवानोव्ना ने जवाब दिया कि उसका पूरा भविष्य इसी यात्रा पर निर्भर क्या तुम भी हमें छोड़ जाने की तो नहीं सोच है, कि वह वफ़ादारी के लिये शहीद हो जानेवाले आदमी की बेटी के नाते प्रभावशाली और सत्तासम्पन्न लोगों की सरपरस्ती और मदद हासिल करने जा रही है।

मेरे पिता जी ने सिर झुका लिया - बेटे के तथाकथित अपराध की याद दिलानेवाला हर शब्द उनके दिल पर भारी गुज़रता था, उनके सीने में चुभता हुआ-सा व्यंग्य-बाण लगता था। जाओ बेटी, तुम भी जाओ !” "हम तुम्हारे सुख- सौभाग्य के मार्ग में रोड़ा नहीं अटकाना चाहते। भगवान तुम्हें ऐक बदनाम ग़द्दार के बजाय पति के रूप में कोई भला आदमी दे ।" इतना कहकर वे कमरे से बाहर चले गये ।

माता जी के साथ अकेली रह जाने पर मरीया इवानोव्ना ने उन्हें अपनी कुछ योजनाएं स्पष्ट कीं । माता जी ने आंसू बहाते हुए उसे गले लगा लिया और भगवान से प्रार्थना की कि उसे अपने इरादों में कामयाबी मिले। मरीया इवानोव्ना के सफ़र की तैयारी की गयी कुछ दिन बाद वह अपनी वफ़ादार पालाशा और सेवानिष्ठ सावेलिच के साथ, जिसे मैंने ज़बर्दस्ती अपने से अलग कर दिया था और जो अपने को कम से कम इस विचार से तसल्ली देता था कि मेरी भावी पत्नी की सेवा कर रहा है, रवाना हो गयी ।

मरीया इवानोव्ना सही-सलामत सोफ़ीया1 पहुंच गयी और डाक- चौकी पर यह जानकारी पाकर कि सम्राज्ञी और उनके दरबारी इस समय त्सास्कोंये सेलो में हैं, उसने वहीं रुकने का निर्णय किया। उसे बीच की दीवार के पीछे ठहरने के लिये थोड़ी-सी जगह दे दी गयी । डाक-चौकी के मुंशी की बीवी उसी क्षण उसके साथ बतियाने लगी । उसने बताया कि वह दरबार में आतिशदान गर्मानेवाले की भानजी है और उसने उसे दरबारी जीवन के सभी रहस्यों की जानकारी दे दी । उसने उसे बताया कि सम्राज्ञी आम तौर पर किस वक़्त जागती हैं, कॉफ़ी पीती हैं, सैर करती हैं और उस समय कौनसे दरबारी उनके साथ होते हैं, पिछले दिन खाने की मेज़ पर उन्होंने क्या कुछ कहा, शाम को किससे मिलीं - थोडे में यही कि आन्ना ब्लास्येव्ना की बातचीत ऐतिहासिक महत्त्व की टिप्पणियों के कुछ पृष्ठों के समान थी और भावी पीढ़ियों के लिये बहुत मूल्यवान हो सकती थी । मरीया इवानोव्ना बहुत ध्यान से उसकी बातें सुनती रही। वे बाग़ में घूमने गयीं । आन्ना ब्लास्येव्ना ने हर वीथी और हर पुल की कहानी सुनाई तथा सैर करने के बाद वे दोनों बहुत खुश-खुश डाक-चौकी पर वापस आईं ।

1. त्सार्स्कोये सेलो के पार्क के पीछे फ़ौजी बस्ती, जो १८०८ से त्सार्स्कोये सेलो का भाग है । - सं०

अगले दिन मरीया इवानोव्ना तड़के ही जागी, उसने कपड़े पहने और दबे पांव बाग़ में चली गयी। सुबह बहुत सुहावनी थी, पतझर की ताज़ा सांसों से पीली हुई लाइम वृक्षों की फुनगियां धूप में चमक रही थीं। निश्चल, चौड़ी झील चमचमा रही थी । अभी-अभी जागनेवाले हंस-हंसिनियां तटवर्ती झाड़ियों के नीचे से निकलकर बड़ी शान से झील में तैर रहे थे। मरीया इवानोव्ना उस प्यारी चरागाह के पास से गुज़र रही थी, जहां काउंट प्योतर अलेक्सान्द्रोविच रुम्यान्त्सेव की कुछ ही समय पहले की विजयों के सम्मान में एक स्मारक बनाया गया था। अचानक अंग्रेज़ी नस्ल का एक छोटा-सा कुत्ता भौंकने लगा और उसकी ओर भाग आया । मरीया इवानोव्ना डरकर वहीं रुक गयी । इसी समय एक औरत की प्यारी - सी आवाज़ सुनाई दी - "डरो नहीं, यह काटेगा नहीं" । मरीया इवानोव्ना को स्मारक के सामने बेंच पर एक महिला बैठी दिखाई दी। मरीया इवानोव्ना बेंच के दूसर सिरे पर बैठ गयी । महिला उसे एकटक देखती जा रही थी । मरीया इवानोव्ना ने भी कनखियों से उस पर कुछ बार नज़र डालकर उसे सिर से पांव तक देख लिया । महिला सुबह के समय का सफ़ेद फ़्रॉक रात की टोपी और रूईदार जाकेट पहने थी । उसकी उम्र चालीस के क़रीब प्रतीत हो रही थी। उसके भरे हुए और लाल-लाल चेहरे पर रोब और चैन तथा नीली नीली आंखों एवं हल्की मुस्कान में अवर्णनीय आकर्षण था । महिला ने ही मौन भंग किया ।

"आप तो सम्भवतः यहां की रहनेवाली नहीं हैं ?" उसने कहा ।

"जी, बिल्कुल ठीक । मैं कल ही प्रान्तीय नगर से आई हूं ।"

"अपने परिवार वालों के साथ ? "

"जी नहीं। अकेली आई हूं ।"

"अकेली ! लेकिन आपकी उम्र तो अभी बहुत कम है ।"

"मेरे न तो पिता और न मां ही हैं ।"

"आप निश्चय ही किसी काम से आई होंगी ?"

" जी हां। मैं सम्राज्ञी को अपना आवेदन-पत्र देने आई हूं। "

"आप यतीम हैं और इसलिये सम्भवतः अन्याय और ज़्यादती के ख़िलाफ़ शिकायत करने आई हैं ? "

"जी नहीं। मैं न्याय नहीं, कृपा - अनुकम्पा के लिये अनुरोध करने आई हूं।"

"कृपया यह बताइये कि आप हैं कौन ?"

"मैं कप्तान मिरोनोव की बेटी हूं ।"

"कप्तान मिरोनोव ! उसी कप्तान मिरोनोव की, जो ओरेनबुर्ग प्रदेश के एक दुर्गपति थे ? "

"जी, बिल्कुल ठीक ।"

ऐसे लगा कि महिला द्रवित हो उठी थी ।

"अगर मैं किसी तरह से आपके मामलों में दखल दे रही हूं तो क्षमा चाहूंगी, ” उसने और भी अधिक प्यार भरी आवाज़ में कहा, लेकिन दरबार में मेरा आना-जाना बना रहता है । "मुझे बताइये कि आप किस बात का अनुरोध करना चाहती हैं और बहुत सम्भव है कि मैं आपकी मदद कर सकूं ।"

मरीया इवानोव्ना ने खड़ी होकर बड़े आदर से महिला को धन्यवाद दिया । इस अज्ञात महिला की हर चीज़ बरबस मन को छूती थी और भरोसा पैदा करती थी । मरीया इवानोव्ना ने तह किया हुआ एक काग़ज़ जेब से निकाला और अपनी इस अपरिचित संरक्षिका को दे दिया जो मन ही मन उसे पढ़ने लगी ।

शुरू में वह ध्यान और सहानुभूति से पढ़ती रही, किन्तु अचानक उसका चेहरा कुछ बदल - सा गया और मरीया इवानोव्ना, जो नज़रों से ही उसकी हर भंगिमा को देख रही थी, उसके चेहरे के कठोर भाव से, जो क्षण भर पहले इतना मधुर और शान्त था, भयभीत हो उठी । "आप ग्रिनेव के लिये अनुरोध कर रही हैं ?" महिला ने रुखाई से पूछा ।

सम्राज्ञी उसे क्षमा नहीं कर सकतीं । "उसने अज्ञानता या भोलेपन से नक़ली सम्राट का साथ नहीं दिया, बल्कि दुराचारी और भयानक दुष्ट के रूप में ऐसा किया ।"

"ओह, यह झूठ है !" मरीया इवानोव्ना कह उठी ।

"झूठ कैसे है !" महिला ने गुस्से से लाल होते हुए आपत्ति की ।

"झूठ है, भगवान की क़सम झूठ है ! मैं सब कुछ जानती हूं, सब कुछ आपको बताती हूं। उसके साथ जो कुछ बीती है, वह सब मेरे कारण ही । यदि उसने फ़ौजी अदालत में अपनी सफ़ाई नहीं दी, तो भी केवल इसलिये कि मुझे इस मामले में नहीं उलझाना चाहता था ।" इसके बाद मरीया इवानोव्ना ने बड़े जोश से वह सब कुछ कह सुनाया जो हमारे पाठकों को मालूम है ।

महिला ने बहुत ध्यान से उसकी बात सुनी ।

"आप कहां ठहरी हैं ?” उसने बाद में पूछा और आन्ना ब्लास्येव्ना के यहां ठहरने के बारे में जानकर मुस्कराते हुए बोली -

"हां। जानती हूं उसे! तो अब विदा किसी से भी हमारी भेंट की चर्चा नहीं कीजियेगा । मुझे आशा है कि आपको अपने पत्र के उत्तर की देर तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी ।"

इतना कहकर वह उठी और बन्द वीथी में चली गयी, जबकि मरीया इवानोव्ना खुशी भरी उम्मीद लिये हुए आन्ना ब्लास्येव्ना के पास लौट आई।

आन्ना व्लास्येव्ना ने पतझर के दिनों में तड़के ही सैर को जाने के लिये उसकी लानत-मलामत की, जो उसके शब्दों में, जवान लड़की के लिये हानिकारक था। वह समोवार ले आई और चाय की चुस्कियां लेते हुए दरबार के बारे में अपने अन्तहीन क़िस्से-कहानियां शुरू ही करनेवाली थी कि अचानक दरवाज़े के सामने शाही बग्घी आकर रुकी और शाही हरकारे ने भीतर आते हुए यह घोषणा की कि सम्राज्ञी ने मिरोनोव की बेटी को अपने पास बुलाया है ।

आन्ना ब्लास्येव्ना अत्यधिक चकित होकर दौड़-धूप करने लगी । "हे भगवान! " वह चिल्लाई ।" सम्राज्ञी आपको महल में बुला रही हैं। उन्हें आपके बारे में कैसे मालूम हो गया ? अरे, आप कैसे सम्राज्ञी के सामने जायेंगी ? आपको तो शायद दरबारी तौर-तरीके भी नहीं आते ! .. क्या मैं आपके साथ चलूं? मैं आपको थोड़ा-बहुत तो समझा- बुझा ही सकती हूं। सफ़र का फ़ाक पहने हुए भला आप कैसे जायेंगी ? क्या दाई के यहां से उसकी पीली पोशाक न मंगवा दूं ? " हरकारे ने कहा कि सम्राज्ञी ने मरीया इवानोव्ना को अकेली और जो कुछ पहने हों, उसी पोशाक में आ जाने के लिये कहा है। अब कोई चारा नहीं था - मरीया इवानोव्ना बग्घी में बैठ गयी और आन्ना ब्लास्येव्ना की सलाहों तथा शुभकामनाओं के साथ महल की ओर रवाना हो गयी । मरीया इवानोव्ना को हम दोनों के भाग्य निर्णय की पूर्वानुभूति हो रही थी । उसका दिल बहुत ज़ोर से धड़कता और फिर मानो उसकी धड़कन बन्द हो जाती । कुछ मिनट बाद बग्घी महल के सामने जा खड़ी हुई। मरीया इवानोव्ना घबराहट अनुभव करती हुई जीना चढ़ने लगी। उसके सामने दरवाज़े खुलते जाते थे। उसने अनेक सुन्दर और खाली कमरे लांघे - हरकारा उसे रास्ता दिखाता जा रहा था। आखिर एक बन्द दरवाज़े के सामने पहुंचकर उसने कहा कि अभी उसके बारे में सूचना देगा और उसे अकेली छोड़कर भीतर चला गया ।

सम्राज्ञी के सामने जाने के ख्याल से उसे ऐसी दहशत महसूस हुई कि वह बड़ी मुश्किल से अपने पैरों पर खड़ी रह पा रही थी । एक मिनट बाद दरवाज़ा खुला और उसने सम्राज्ञी के श्रृंगार-कक्ष में प्रवेश किया ।

सम्राज्ञी श्रृंगार की मेज़ पर बैठी थीं। कुछ दरबारी उन्हें घेरे हुए थे और उन्होंने बड़े आदर से मरीया इवानोव्ना को आगे जाने दिया । सम्राज्ञी ने बड़े स्नेह से उसे सम्बोधित किया और मरीया इवानोव्ना ने उनमें उस महिला को पहचान लिया जिसके साथ कुछ ही मिनट पहले उसने बहुत खुलकर बातचीत की थी । सम्राज्ञी ने उसे अपने पास बुलाया और मुस्कराकर कहा, "मुझे प्रसन्नता है कि मैं अपना वचन निभा सकी और आपका अनुरोध पूरा कर पाई। आपका मामला तय हो गया । मुझे इस बात का यक़ीन हो गया कि आपका मंगेतर निरपराध है । यह पत्र ले लीजिये और स्वयं ही इसे अपने भावी ससुर तक पहुंचाने का कष्ट कीजिये ।"

मरीया इवानोव्ना ने कांपते हाथ से पत्र लिया और रोते हुए सम्राज्ञी के पैरों पर गिर पड़ी । सम्राज्ञी ने उसे उठाकर चूमा और बातचीत करने लगी । "मुझे मालूम है कि आप धनी नहीं हैं," वह बोली, “किन्तु कप्तान मिरोनोव की बेटी की मैं ऋणी हूं। आप भविष्य की कोई चिन्ता न करें। आपकी सुख-समृद्धि का दायित्व मैं अपने ऊपर लेती हूं।"

बेचारी यतीम को दुलराकर सम्राज्ञी ने उसे विदा किया। मरीया इवानोव्ना उसी बग्घी में वापस आ गयी । बहुत बेसब्री से उसके लौटने की प्रतीक्षा कर रही आन्ना ब्लास्येव्ना ने उस पर प्रश्नों की बौछार कर दी। मरीया इवानोव्ना ने जैसे-तैसे प्रश्नों के जवाब दिये । आन्ना ब्लास्येव्ना यद्यपि उसकी बुरी याददाश्त से नाखुश थी, तथापि उसने इसे उसकी प्रान्तीय झेंप - शर्म मानते हुए उसे उदारता से क्षमा कर दिया । मरीया इवानोव्ना पीटर्सबर्ग को देखने के लिये रुके बिना उसी दिन ही गांव वापस चली गयी ...

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प्योतर अन्द्रेइच ग्रिनेव की पाण्डुलिपि यहां समाप्त हो जाती है । परिवार में प्रचलित कथा से यह पता चलता है कि १७७४ के अन्त में उसे सम्राज्ञी के आदेशानुसार जेल से रिहा कर दिया गया, कि वह पुगाचोव को मृत्यु - दण्ड देने के समय वहां उपस्थित था, कि पुगाचोव ने उसे पहचानकर उसकी ओर सिर झुकाया जो एक मिनट बाद निर्जीव और खून से लथ-पथ हुआ लोगों को दिखाया गया। कुछ ही समय बाद प्योतर अन्द्रेइच ने मरीया इवानोव्ना से शादी कर ली। उनके वंशज सिम्बीर्स्क गुबेर्निया में फल-फूल रहे हैं। ... से तीस वेर्स्ता की दूरी पर एक गांव है जिसके दस ज़मींदार मालिक हैं। वहीं, एक हवेली के एक भाग में येकतेरीना द्वितीय के हाथ का लिखा शीशे और चौखटे में जड़ा हुआ पत्र रखा है। वह प्योतर अन्द्रेइच के पिता के नाम है, उसमें उनके बेटे को निरपराध बताया गया है तथा कप्तान मिरोनोव की बेटी के दिल-दिमाग़ की तारीफ़ की गयी है। प्योतर अन्द्रेइच ग्रिनेव की पाण्डुलिपि हमें उनके पोते से मिली, जिसे यह मालूम हो गया था कि हम उनके दादा द्वारा वर्णित समय पर खोज - कार्य कर रहे हैं। उनके रिश्तेदारों की अनुमति से हमने प्रत्येक अध्याय के लिये उचित आदर्श वाक्य चुनकर तथा कुछ नामों को बदलने की स्वतन्त्रता लेते हुए उसे अलग से छापने का निर्णय किया।

१६ अक्तूबर, १८३६
प्रकाशक

परिशिष्ट : छोड़ा हुआ अध्याय

(सेंसर को ध्यान में रखते हुए ' कप्तान की बेटी' उपन्यास की प्रकाशन के लिये तैयार की गयी पाण्डुलिपि में यह अध्याय शामिल नहीं किया गया था और पाण्डुलिपि के रूप में ही सुरक्षित रखा गया । इसलिये स्वयं पुश्किन ने इसे ' छोड़ा हुआ अध्याय' कहा है । इस अध्याय में कुछ पात्रों के नाम भी बदल दिये गये हैं। ग्रिनेव यहां बुलानिन है और जूरिन ग्रिनेव ।)

हम वोल्गा के तट के निकट पहुंच रहे थे। हमारी रेजिमेंट ने ...गांव में पहुंचकर रात के लिये वहां पड़ाव डाल लिया। गांव के मुखिया ने मुझे बताया कि उस पार के सभी गांवों ने विद्रोह कर दिया है, कि सभी जगहों पर पुगाचोव के गिरोह घूम रहे हैं । इस ख़बर ने मुझे बेहद परेशान कर दिया। हमें अगली सुबह को उस पार जाना था । मैं अधीर हो उठा। मेरे पिता जी का गांव नदी के उस पार तीस वेर्ता की दूरी पर था । मैंने पूछा कि उस पार ले जानेवाला कोई मांझी मिल सकता है या नहीं। यहां के सभी किसान मछुए भी थे, नावें बहुत-सी थीं। मैंने ग्रिनेव के पास जाकर उसके सामने अपना इरादा ज़ाहिर किया - "जोखिम नहीं उठाओ,” उसने मुझसे कहा, अकेले जाना खतरनाक है। सुबह तक इन्तज़ार करो । हम ही सबसे पहले उस पार चले जायेंगे और कोई ज़रूरत आ पड़े, इसलिये ५० हुस्सार भी तुम्हारे माता-पिता के यहां अपने साथ ले जायेंगे ।

किन्तु मैं अपनी बात पर अड़ा रहा। नाव तैयार थी । मैं दो मांझियों को लेकर उसमें सवार हो गया । वे नाव बढ़ा ले चले।

आकाश निर्मल था। चांद चमक रहा था। मौसम शान्त था। वोल्गा मन्द-मन्थर गति से बह रही थी । धीरे-धीरे हिलती-डोलती नाव अंधेरे में काली दिखती लहरों पर तेज़ी से चली जा रही थी । मैं कल्पनाओं से ओत-प्रोत विचारों में खो गया । कोई आध घण्टा बीता । हम नदी के मध्य में पहुच गये थे ... अचानक मांझी आपस में खुसुर-फुसुर करने लगे । "क्या बात है ?” मैंने सम्भलते हुए पूछा । "मालूम नहीं, भगवान जाने," एक ही दिशा में देखते हुए दोनों ने जवाब दिया। मेरी नज़र भी उसी दिशा में घूम गयी और मुझे अंधेरे में वोल्गा में नीचे की ओर बही आती कोई चीज़ दिखाई दी । यह अपरिचित चीज़ निकट आती जा रही थी। मैंने मांझियों से रुककर उसका इन्तज़ार करने को कहा। चांद बादलों की ओट में हो गया। बही आ रही छाया - सी और भी अस्पष्ट हो गयी। वह मेरे निकट आ चुकी थी, मगर मैं अभी भी यह नहीं जान पा रहा था कि वह क्या है ।

"यह क्या चीज़ हो सकती है," मांझी एक-दूसरे से कह रहे थे, “ ये न तो पाल हैं और न मस्तूल ..."

अचानक चांद बादल के पीछे से सामने आ गया और मेरे सामने एक भयानक दृश्य उभरा। एक बेड़े पर सूली तैरती चली आ रही थी और उसके साथ तीन लाशें लटक रही थीं। एक विचित्र - सी जिज्ञासा मेरे मन पर हावी हो गयी। मैंने लाशों के चेहरे देखने चाहे।

मेरे आदेश पर मांझियों ने उस बेड़े को हुक से रोक लिया और मेरी नाव तैरती सूली से टकराई । मैं कूदकर उस पर गया और मैंने अपने को भयानक खम्भों के बीच पाया। चांद के प्रखर प्रकाश ने इन क़िस्मत के मारों के विकृत चेहरों को रोशन कर दिया। उनमें से एक बूढ़ा चुवाश था, दूसरा कोई बीस साल का हट्टा-कट्टा रूसी किसान । किन्तु तीसरे को देखकर मैं अत्यधिक आश्चर्यचकित हुआ और दुख से चीखे बिना न रह सका - यह वान्या था, बेचारा वान्या जो अपनी बेवकूफ़ी के कारण पुगाचोव के साथ हो गया था। इनके ऊपर एक काला तख़्ता ठोंक दिया गया था जिस पर मोटे-मोटे सफ़ेद अक्षरों में लिखा था - "चोर और विद्रोही" । मांझी उदासीनता से लाशों को देखते और हुक से बेड़े को थामे हुए मेरा इन्तज़ार कर रहे थे । मैं नाव पर लौट आया। सूली वाला बेड़ा नदी में नीचे की ओर बहने लगा । सूली देर तक अंधेरे में काली - सी झलक देती रही। आखिर वह ग़ायब हो गयी और मेरी नाव ऊंचे तथा खड़े तट पर जा लगी....

मैंने मांझियों को खूब पैसे दिये। उनमें से एक मुझे घाट के निकट - वर्ती गांव के विद्रोही मुखिया के पास ले गया । मैं उसके साथ घर में गया। मुखिया यह सुनकर कि मुझे घोड़े चाहिये, मेरे साथ काफ़ी रुखाई से पेश आया । किन्तु मांझी ने धीमे-से उससे कुछ शब्द कहे और उसकी कठोरता फ़ौरन मेरी लल्लो-चप्पों में बदल गयी । तीन घोड़ों की बग्घी आन की आन में तैयार हो गयी, मैं उसमें बैठा और कोचवान से कहा कि वह मुझे मेरे पिता जी के गांव की ओर ले चले। बग्घी सोये हुए गांवों के पास से बड़ी सड़क पर भागी जा रही थी। मुझे एक बात का डर था - कहीं रास्ते में रोक न लिया जाऊं । वोल्गा पर रात के समय बेड़े और उस पर लटकी लाशों से हुई भेंट यदि विद्रोहियों की उपस्थिति को प्रमाणित करती थी, तो साथ ही इस बात का सबूत भी देती थी कि सरकार की ओर से भी ज़ोरदार विरोध हो रहा है। किसी विकट स्थिति के लिये मेरी जेब में पुगाचोव द्वारा दिया हुआ अनुमति पत्र भी था और कर्नल ग्रिनेव का आदेश - पत्र भी। किन्तु रास्ते में कोई नहीं मिला और सुबह होते न होते मुझे नदी और फ़र-वृक्षों का वह झुरमुट नज़र आने लगा जिसके पीछे हमारा गांव था। कोचवान ने घोड़ों पर चाबुक बरसाया और पन्द्रह मिनट बाद मैं... गांव में पहुंच गया ।

हमारी हवेली गांव के दूसरे सिरे पर थी । घोड़े पूरे ज़ोर से सरपट दौड़ रहे थे । अचानक कोचवान उन्हें सड़क के बीचोंबीच रोकने लगा । "क्या बात है ?” मैंने बेसब्री से पूछा । " फ़ौजी चौकी है, हुजूर, बहुत जोश में आये अपने घोड़ों को मुश्किल से रोक पाते हुए कोचवान ने उत्तर दिया । वास्तव में ही मुझे मार्ग - बाधा और लट्ठ लिये सन्तरी दिखाई दिया। किसान - सन्तरी ने मेरे पास आकर टोपी उतार ली और पासपोर्ट मांगा ।

"क्या मतलब है इसका ?" मैंने उससे पूछा । "किसलिये यहां यह बाधा बनायी गयी है ? किसकी पहरेदारी कर रहे हो तुम ?"

"हुजूर, हम विद्रोह कर रहे हैं," उसने सिर खुजलाते हुए जवाब दिया ।

"आपके मालिक लोग कहां हैं ?" मैंने पूछा और अनुभव किया कि मेरा दिल बैठा जा रहा है।"

"मालिक लोग कहां हैं ?" किसान ने सवाल दोहराया । " हमारे मालिक लोग खत्ती में हैं ।"

"खत्ती में, यह कैसे ? "

"बात यह है कि गांव कमेटी के अन्द्रेई ने उनके पैरों में शिकंजे डाल दिये हैं और वह उन्हें ज़ार-पिता के सामने ले जाना चाहता है ।"

“हे भगवान! अरे उल्लू, बाधा को हटा ले। मुंह देख रहा है ?"

सन्तरी ने झिझक दिखाई। मैंने बग्घी से कूदकर उसके कान पर घूंसा जमाया ( माफ़ी चाहता हूं ) और खुद मार्ग - बाधा को हटा दिया। किसान कुछ न समझ पाते हुए एक बुद्धू की तरह टुकुर-टुकुर मेरी ओर देखता रह गया । मैं फिर से बग्घी में सवार हुआ और हवेली की ओर चलने का आदेश दिया। खत्ती अहाते में थी । तालाबन्द दरवाज़े पर दो किसान लट्ठ लिये खड़े थे । बग्घी बिल्कुल उनके सामने जाकर रुकी। मैं कूदकर नीचे उतरा और सीधा उनकी तरफ़ लपका। "खोलो !” मैंने उनसे कहा । सम्भवतः मैं बहुत भयानक लग रहा था । कुछ भी हो, वे दोनों लट्ठ फेंककर भाग गये। मैंने ताला और दरवाज़ा तोड़ने की कोशिश की, मगर दरवाज़ा बलूत की लकड़ी का था और बहुत बड़ा ताला तोड़ना मुमकिन नहीं था । इसी क्षण एक लम्बा-तड़ंगा जवान किसान नौकरों के घर से बाहर आया और उसने बड़ी अकड़ से यह पूछा कि मैं हंगामा करने की हिम्मत कैसे कर रहा हूं ।

"गांव-कमेटी वाला अन्द्रेई कहां है?" मैंने चिल्लाते हुए उससे पूछा । “ उसे बुलाओ मेरे पास । "

"अन्द्रेई नहीं, मैं ही हूं अन्द्रेई अफ़ानासियेविच, " बड़े घमण्ड से कूल्हों पर हाथ रखे हुए उसने जवाब दिया । " क्या बात है ?"

जवाब देने के बजाय मैंने उसका गरेबान पकड़ लिया, खींचकर उसे खत्ती के दरवाज़े पर ले गया और दरवाज़ा खोलने का हुक्म दिया । उसने कुछ ज़िद्द की, मगर “पैतृक" दण्ड ने उस पर भी असर डाला । उसने चाबी निकालकर खत्ती का दरवाज़ा खोल दिया। मैंने लपककर दहलीज लांघी और अन्धेरे कोने में, जहां छत में किये गये छोटे-से सूराख से धीमी-सी रोशनी आ रही थी, मुझे अपने माता-पिता दिखाई दिये । उनके हाथ बंधे हुए थे और पैरों में शिकंजे थे। मैंने उन्हें अपनी बांहों में भर लिया और मेरे मुंह से एक भी शब्द नहीं निकल सका । दोनों हतप्रभ से मेरी ओर ताक रहे थे - सैनिक जीवन के तीन सालों ने मुझे इतना बदल दिया था कि उनके लिये पहचान पाना सम्भव नहीं था। मां अचम्भे से चीख उठीं और टप टप आंसू गिराने लगीं ।

अचानक मुझे प्यारी और जानी-पहचानी आवाज़ सुनाई दी - "प्योतर अन्द्रेइच ! यह आप हैं !” मैं स्तम्भित रह गया ... मैंने मुड़कर देखा तो पाया कि दूसरे कोने में मरीया इवानोव्ना भी उसी तरह बंधी हुई है।

पिता जी मुझे चुपचाप देखते जा रहे थे, खुद अपने पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे। उनके चेहरे पर खुशी चमक रही थी । मैं झटपट तलवार से उनकी रस्सियों की गांठें काटने लगा ।

"नमस्ते नमस्ते पेशा, " मुझे अपनी छाती से लगाते हुए पिता जी ने कहा, "भला हो भगवान का, तुम्हें देख पाये ..."

"पेशा, मेरे प्यारे, " मां बोलीं, भगवान तुम्हें यहां ले आया ! तुम ठीक-ठाक तो हो ?"

मैंने उन्हें इस जेल से बाहर निकालने की उतावली की, किन्तु दरवाज़े के पास जाने पर मैंने उसे फिर से बन्द पाया ।

"अन्द्रेई, " मैं चिल्लाया, “ दरवाज़ा खोलो !"

"नहीं खुलेगा दरवाज़ा," गांव- कमेटी के मुखिया ने बाहर से जवाब दिया । " खुद भी यहीं बैठे रहो। हम तुम्हें हंगामा करने और सरकारी कर्मचारियों को गरेबान से पकड़ने का मज़ा चखायेंगे ! "

मैं इस आशा से खत्ती में इधर-उधर नज़र दौड़ाने लगा कि वहां से बाहर निकलने का कोई उपाय है या नहीं ।

“बेकार कोशिश नहीं करो, ” पिता जी ने मुझसे कहा, ऐसा बुरा मालिक नहीं हूं मैं कि मेरी खत्ती में चोर आसानी से घुस सकें और बाहर निकल जायें ।"

मेरे आने पर कुछ देर के लिये खुश हो उठनेवाली मेरी मां यह देखकर हताश हो गयीं कि सारे परिवार की तरह मुझे भी अपनी जान गंवानी होगी। किन्तु मैं जिस समय से माता-पिता और मरीया इवानोव्ना के पास आया था, अपने को अधिक शान्त अनुभव कर रहा था । मेरे पास तलवार और दो पिस्तौलें थीं और मैं घेरे का सामना कर सकता था। शाम होने तक ग्रिनेव को यहां पहुंचना और हमें आज़ाद करवा लेना चाहिये था। मैंने अपने माता-पिता को यह सब कुछ बता दिया और मां को शान्त करने में सफल हो गया। वे पूरी तरह मिलन की खुशी की तरंग में बह गये ।

"तो प्योतर" पिता जी ने मुझसे कहा, “काफ़ी शरारतें कर चुके हो तुम और मैं काफ़ी नाराज़ था तुमसे । लेकिन पुरानी बातों को याद करने से क्या हासिल ? मुझे उम्मीद है कि अब तुम सुधर गये हो और समझदार हो गये हो। मुझे यह मालूम है कि जैसे किसी ईमानदार अफ़सर को शोभा देता है, तुमने वैसे ही अपनी फ़ौजी ड्यूटी पूरी की है । धन्यवाद । बुढ़ापे में मेरे दिल को तसल्ली दी है। अगर तुम्हारी बदौलत ही मुझे निजात मिलेगी, तो मेरी ज़िन्दगी दुगुनी मधुर हो जायेगी। "

मैंने आंसू बहाते हुए पिता जी का हाथ चूमा और मरीया इवानोव्ना की ओर देखा जो मेरे आ जाने से इतनी अधिक खुश हुई थी कि बिल्कुल सुखी और शान्त प्रतीत हो रही थी ।

लगभग दोपहर के समय हमें असाधारण हल्ला-गुल्ला और चीख- चिल्लाहट सुनाई दी । "यह क्या मामला है," पिता जी ने कहा, "कहीं तुम्हारा कर्नल तो नहीं आ गया ?" "नहीं, यह मुमकिन नहीं, " मैंने जवाब दिया । वह तो शाम होने से पहले नहीं पहुंचेगा । शोर बढ़ता चला गया । खतरे का घण्टा बजाया जा रहा था । अहाते में घुड़सवार अपने घोड़े दौड़ा रहे थे। इसी समय सावेलिच ने दीवार में किये गये सूराख में पके बालोंवाला अपना सिर घुसेड़ा और उस बेचारे बुजुर्ग ने दर्द भरी आवाज़ में कहा, " अन्द्रेई पेत्रोविच, अब्दोत्या वसील्येव्ना ! प्यारे प्योतर अन्द्रेइच, मरीया इवानोव्ना, मुसीबत आ गयी ! बदमाश लोग गांव में आ गये हैं । और जानते हो प्योतर अन्द्रेइच, कौन उन्हें लेकर आया है? अलेक्सेई इवानोविच श्वाबरिन, शैतान उसका बुरा करे !" श्वाबरिन का घृणित नाम सुनकर मरीया इवानोव्ना ने अपने हाथ झटके और बुत-सी बनी रह गयी ।

"सुनो, " मैंने सावेलिच से कहा, " किसी को घोड़ा देकर हुस्सारों की पलटन के पास घाट पर भेजो और कहो कि वह कर्नल को हमारे बारे में ख़तरे की ख़बर दे दे ।"

"लेकिन किसे भेजूं, छोटे मालिक ! सभी छोकरे विद्रोह किये हुए हैं और सारे घोड़े भी उन्होंने अपने क़ब्ज़े में कर लिये हैं ! ओह, बुरा हो इनका ! अहाते में आ गये - खत्ती की ओर बढ़ रहे हैं ।"

इसी समय दरवाज़े के दूसरी ओर से कुछ आवाजें सुनाई दीं । मैंने मां और मरीया इवानोव्ना को चुपचाप इशारा किया कि वे कोने में चली जायें, म्यान से अपनी तलवार निकाल ली और दरवाज़े के बिल्कुल क़रीब दीवार से सटकर खड़ा हो गया। पिता जी ने पिस्तौलें लीं, दोनों के घोड़े चढ़ा लिये और मेरी बग़ल में खड़े हो गये । ताले में चाबी डालने की आवाज़ हुई, दरवाज़ा खुला और गांव- कमेटी के मुखिया का सिर दिखाई दिया। मैंने उस पर तलवार से वार किया, वह वहीं गिर गया और उसने भीतर आने का रास्ता रोक दिया । इसी समय पिता जी ने पिस्तौल से एक गोली चला दी। हमें घेरे में लेनेवाले लोगों की भीड़ गालियां बकते हुए तितर-बितर हो गयी । मैंने घायल को दहलीज़ से भीतर खींच लिया और अन्दर से कुंडी चढ़ा दी । अहाता हथियारबन्द लोगों से भरा हुआ था। मैंने श्वाबरिन को उनमें पहचान लिया ।

"डरें नहीं," मैंने अपनी मां और मरीया इवानोव्ना से कहा । "अभी उम्मीद बाक़ी है। और पिता जी, आप और गोली नहीं चलाइये । हमें आखिरी गोली बचाकर रखनी चाहिये ।"

मां चुपचाप भगवान को याद कर रही थीं । मरीया इवानोव्ना फ़रिश्ते जैसी शान्ति से उसके पास खड़ी हुई अपने भाग्य निर्णय की प्रतीक्षा कर रही थी। दरवाज़े के उस ओर से धमकियां, गाली-गलौज और गन्दी बातें सुनाई दे रही थीं। मैं अपनी पहलेवाली जगह पर और भीतर आने की हिम्मत करनेवाले को मौत के घाट उतारने को तैयार खड़ा था। बदमाश लोग अचानक ख़ामोश हो गये । मेरा नाम लेकर पुकारनेवाले श्वाबरिन की आवाज़ मुझे सुनाई दी ।

"मैं यहां हूं, क्या चाहिये तुम्हें ?"

"हथियार फेंक दो, बुलानिन, सामना करना बेकार है । अपने बुजुर्गों पर रहम करो। ज़िद्द करके बच नहीं सकोगे। मैं तुम तक पहुंच जाऊंगा ! "

"कोशिश करके देखो ग़द्दार ! "

"न तो खुद बेकार ही भीतर आऊंगा और न अपने लोगों की ही जान खतरे में डालूंगा। मैं खत्ती को आग लगाने का हुक्म दे दूंगा और फिर देखेंगे कि तुम क्या करते हो, बेलोगोर्स्क के डोन क्विग्जोट । अब तो दोपहर के खाने का वक़्त हो गया । तुम इसी बीच फ़ुरसत से इस बात पर सोच-विचार कर लो। अलविदा, मरीया इवानोव्ना, आपसे क्षमा नहीं मांगूंगा – सम्भवतः आपको तो अपने सूरमा के साथ अंधेरे में बैठे हुए ऊब महसूस नहीं हो रही होगी ।"

खत्ती के पास सन्तरी तैनात करके श्वाबरिन चला गया। हम मौन रहे। हममें से हर कोई अपने-अपने विचारों में खोया हुआ था, दूसरे से उन्हें कहने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था । मैं उस सब की कल्पना करने लगा कि ग़ुस्से में आया हुआ श्वाबरिन क्या कुछ कर सकता है । अपनी तो मुझे लगभग कोई चिन्ता नहीं थी । मैं यह भी स्वीकार कर लेता हूं कि अपने माता-पिता के भाग्य से भी मुझे मरीया इवानोव्ना के बारे में कहीं ज़्यादा फ़िक्र थी । मैं जानता था कि किसान और नौकर-चाकर मेरी मां को पूजते हैं तथा कड़ाई के बावजूद पिता जी को भी प्यार करते हैं, क्योंकि वे न्यायप्रिय थे और अपने अधीन लोगों की वास्तविक आवश्यकताओं से परिचित थे। उनका विद्रोह रास्ते से भटक जाना था, कुछ देर का नशा था और उनके गुस्से की अभिव्यक्ति नहीं था । इसलिये वे ज़रूर ही उन पर रहम करेंगे। लेकिन मरीया इवानोव्ना ? बदमाश और बेहया श्वाबरिन उसके साथ कैसा सुलूक करनेवाला है? इस भयानक विचार पर मैं तो सोचने की भी हिम्मत नहीं कर पा रहा था । भगवान क्षमा करे, उसे फिर से ज़ालिम दुश्मन को सौंपने के बजाय मैं तो खुद अपने हाथों से उसकी हत्या करने को तैयार था।

लगभग एक घण्टा और बीत गया। गांव में नशे में धुत्त लोगों के गाने गूंजते थे । हमारी पहरेदारी करनेवालों को उनसे ईर्ष्या होती थी और वे हम पर झल्लाते हुए कोसने और हमें यातनायें देने तथा मार डालने की धमकियां दे रहे थे । हम यह इन्तज़ार कर रहे थे कि श्वाबरिन ने जो धमकियां दी हैं, उनका क्या नतीजा निकलता है। आखिर अहाते में बड़ी हलचल हुई और हमें फिर से श्वाबरिन की आवाज़ सुनाई दी -

“आप लोगों ने सोच-विचार कर लिया ? अपनी खुशी से मेरे सामने हथियार फेंकने को तैयार हैं ?"

किसी ने भी उसे उत्तर नहीं दिया। कुछ देर इन्तज़ार करने के बाद श्वाबरिन ने फूस लाने का हुक्म दिया। कुछ मिनट बाद आग भड़क उठी, खत्ती में रोशनी हो गयी और दहलीज़ के नीचे वाले सूराखों से धुआं निकलने लगा । तब मरीया इवानोव्ना मेरे पास आई और मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे से बोली-

" बस, काफ़ी हो चुका, प्योतर अन्द्रेइच ! मेरी खातिर अपनी और अपने माता-पिता की जान नहीं लीजिये । मुझे बाहर जाने दीजिये । श्वाबरिन मेरी बात मान लेगा ।"

"हरग़िज़ ऐसा नहीं करूंगा," मैं बड़े ज़ोर से चिल्ला उठा । आपको मालूम है न कि आपके साथ क्या बीतनेवाली है ?"

"बेइज़्ज़ती मैं बर्दाश्त नहीं करूंगी " मरीया इवानोव्ना ने शान्ति से जवाब दिया । किन्तु यह सम्भव है कि मैं अपने मुक्तिदाता और उस परिवार को बचा पाऊं जिसने इतनी उदारता से मुझ यतीम को शरण दी । तो विदा अन्द्रेई पेत्रोविच, अब्दोत्या वसील्येव्ना । आप मेरे संरक्षक ही नहीं, इससे कहीं अधिक थे। मुझे अपना आशीर्वाद दीजिये । आप भी मुझे क्षमा करें, प्योतर अन्द्रेइच । आप विश्वास कर सकते हैं कि... कि ... इतना कहते हुए वह रो पड़ी और उसने हाथों से मुंह ढंक लिया... मैं तो पागल जैसा हो रहा था। मां रो रही थीं ।

"बस, अब यह सब रहने दो मरीया इवानोव्ना" मेरे पिता जी ने कहा । "कौन तुम्हें उठाईगीरों के पास अकेली जाने देगा ! यहां बैठ जाओ और चुप रहो । मरना ही है, तो सभी एकसाथ मरेंगे । सुनो, वे और क्या कह रहे हैं ?"

"मेरी बात मानते हो या नहीं ? " श्वाबरिन चिल्ला रहा था । "देख रहे हैं ? पांच मिनट में आप सब जलकर राख हो जायेंगे ।"

"नहीं मानेंगे, नीच !” मेरे पिता जी ने दृढ़ आवाज़ में जवाब दिया ।

पिता जी के झुर्रियोंवाले चेहरे पर अद्भुत उत्साह की सजीवता दिखाई दे रही थी, सफ़ेद भौंहों के नीचे चमकती हुई आंखें दहशत पैदा कर रही थीं। मुझे सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा -

"अब देर नहीं करनी चाहिये !"

उन्होंने दरवाज़ा खोला। आग भीतर की ओर लपकी तथा शहतीरों और उनके बीच जमी हुई सूखी काई की तरफ़ बढ़ने लगी। पिता जी ने पिस्तौल से गोली चलाई और “सब मेरे पीछे आओ !" चिल्लाते हुए दहकती दहलीज़ को लांघ गये। मैंने मां और मरीया इवानोव्ना के हाथ पकड़े और जल्दी से उन्हें बाहर ले गया। पिता जी के कमज़ोर हाथ से घायल हुआ श्वाबरिन दहलीज़ के क़रीब पड़ा था । हमारे ऐसे अप्रत्याशित धावे से भाग उठनेवाली लुटेरों- बदमाशों की भीड़ फिर से हिम्मत बटोरकर हमें घेरने लगी। मैं तलवार के कुछ और वार करने में सफल रहा, किन्तु अच्छा निशाना बांधकर फेंकी गयी ईंट सीधी मेरी छाती में आकर लगी। मैं गिर पड़ा और एक क्षण को बेहोश हो गया । होश आने पर मैंने श्वाबरिन को खून से रंगी हुई घास पर बैठे पाया और हमारा सारा परिवार उसके सामने था। मुझे बग़लों में हाथ डालकर सहारा दिया जा रहा था। किसानों, कज़्ज़ाकों और बरकीरियों की भीड़ हमें घेरे थी । श्वाबरिन के चेहरे का रंग भयानक रूप से पीला था। एक हाथ से वह अपनी घायल बग़ल को दबाये हुए था । उसके चेहरे पर पीड़ा और क्रोध अंकित थे । उसने धीरे-धीरे सिर ऊपर उठाया, मेरी ओर देखा और क्षीण तथा अस्पष्ट आवाज़ में कहा -

"इसे सूली दे दो... सभी को ... सिर्फ़ इस लड़की को छोड़कर ..."

बदमाशों की भीड़ ने इसी क्षण हमें घेर लिया और चीखते-चिल्लाते हुए फाटक की ओर घसीट ले गयी । किन्तु ये लोग हमें छोड़कर अचानक भाग खड़े हुए। ग्रिनेव और उसके पीछे नंगी तलवारें लिये हुए पूरा दस्ता फाटक को लांघकर अहाते में आ रहा था ।

...........................

विद्रोही सभी दिशाओं में भागे जा रहे थे; हुस्सार उनका पीछा कर रहे थे, उनके टुकड़े कर रहे थे और बन्दी बना रहे थे। ग्रिनेव ने घोड़े से नीचे उतरकर मेरे माता-पिता को प्रणाम किया और तपाक से मेरे साथ हाथ मिलाया । "तो मैं ठीक वक़्त पर पहुंच गया, उसने हमसे कहा । सो, यह है तुम्हारी मंगेतर !" मरीया इवानोव्ना लज्जारुण हो गयी । पिता जी उसके पास गये और यद्यपि वे मन में बड़ी भाव-विह्वलता अनुभव कर रहे थे, तथापि बाहरी तौर पर शान्त- स्थिर रहते हुए उन्होंने उसके प्रति आभार प्रकट किया। मां ने उसे गले लगाया, रक्षक-फ़रिश्ता कहा । "हमारे यहां पधारिये," पिता जी ने उससे कहा और ग्रिनेव को हमारे घर की ओर ले चले ।

श्वाबरिन के पास से गुज़रते हुए ग्रिनेव रुका ।

"यह कौन है ?" घायल की तरफ़ देखते हुए उसने पूछा ।

"यह है इनका मुखिया, इस गिरोह का सरदार," पिता जी ने कुछ गर्व के साथ उत्तर दिया, जिससे यह प्रकट हो गया कि वे पुराने फ़ौजी हैं, "भगवान ने मेरे कमज़ोर हाथ में इस जवान बदमाश को दण्ड देने और अपने बेटे की चोट का बदला लेने की शक्ति देकर बड़ी मदद की ।"

"यह श्वाबरिन है," मैंने ग्रिनेव से कहा ।

"श्वाबरिन ! बहुत खुशी हुई ! हुस्सारो ! इसे ले जाओ! हमारे चिकित्सक से कहें कि इसके घाव पर पट्टी बांध दे और आंख की पुतली की तरह इसकी रक्षा करे । श्वाबरिन को अवश्य ही कज़ान के गुप्त आयोग के सामने पेश करना चाहिये । वह मुख्य अपराधियों में से एक है और उसकी गवाही महत्वपूर्ण होनी चाहिये ।"

श्वाबरिन ने अपनी थकी हुई आंखें खोलीं। उसके चेहरे पर शारीरिक पीड़ा के अलावा और कुछ नज़र नहीं आ रहा था । हुस्सार उसे चोगे पर लिटाकर ले गये ।

हम कमरे में दाखिल हुए। मैंने अपने बचपन के वर्षों को याद करते हुए धड़कते दिल से इधर-उधर नज़र घुमाई । घर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था, सब कुछ अपनी पहले वाली जगह पर था । श्वाबरिन ने उसे लूटने नहीं दिया था और बेहद पतन के बावजूद उसमें तुच्छ लालच के प्रति स्वाभाविक घृणा बनी रही थी । नौकर-चाकर प्रवेश- कक्ष में सामने आये। उन्होंने विद्रोह में भाग नहीं लिया था और हमारे निजात पाने पर सच्चे मन से खुशी जाहिर की । सावेलिच तो विजेता की तरह रंग में था । यहां यह बताना उचित होगा कि लुटेरों के हमले से पैदा हुई घबराहट के वातावरण में वह अस्तबल में भाग गया जहां श्वाबरिन का घोड़ा खड़ा था, उसने उस पर ज़ीन कसा, धीरे से उसे बाहर लाया और हल्ले-गुल्ले की बदौलत सब की आंख बचाकर उसे घाट पर सरपट दौड़ा ले गया। वहां उसे वोल्गा के इस पार आराम करती हुई रेजिमेंट दिखाई दी । हमारे सिरों पर मंडरा रहे खतरे के बारे में जानकर ग्रिनेव ने फ़ौरन घोड़ों पर सवार होने तथा सरपट घोड़े दौड़ाते हुए हमारे पास पहुंचने का हुक्म दिया- भगवान की कृपा से वे ठीक वक़्त पर पहुंच गये।

ग्रिनेव ने इस बात का आग्रह किया कि गांव - कमेटी के मुखिया का सिर शराबखाने के निकट कुछ घण्टों तक एक डंडे पर टंगा रहे ।

हुस्सारों ने विद्रोहियों का पीछा किया और कुछ लोगों को बन्दी बनाकर ले आये। उन्हें उसी खत्ती में बन्द कर दिया गया जिसमें हमने अपने स्मरणीय घेरे का सामना किया था ।

हम सभी अपने-अपने कमरे में चले गये। मेरे बुजुर्ग माता-पिता को आराम की ज़रूरत थी । मैं सारी रात नहीं सोया था, इसलिये बिस्तर पर जा गिरा और गहरी नींद सो गया। ग्रिनेव हुक्म - हिदायतें देने चला गया ।

शाम को हम मेहमानखाने में समोवार के गिर्द जमा हुए और हंसते-हंसाते हुए टल गये भयानक खतरे की चर्चा करने लगे। मरीया इवानोव्ना चाय के प्याले तैयार कर रही थी मैं उसके क़रीब जा बैठा और पूरी तरह उसी में खो गया । ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे माता-पिता को हमारा आपसी लगाव अच्छा लग रहा था । यह शाम अभी तक मेरी स्मृति में सजीव है । मैं सुखी था, पूरी तरह सुखी था - क्या हम इन्सानों की ज़िन्दगी में बहुत होते हैं ऐसे क्षण ?

अगले दिन मेरे पिता जी को यह सूचना दी गयी कि किसान माफ़ी मांगने के लिये हवेली के सामने जमा हैं। पिता जी बाहर गये । उन्हें देखकर किसान घुटनों के बल हो गये ।

"तो मूर्खो," पिता जी ने उनसे पूछा, “किसलिये विद्रोह करने की सूझी थी तुम्हें ?"

“हम कुसूरवार हैं, हमारे मालिक," सभी ने एक आवाज़ में जवाब दिया ।

"कुसूरवार तो तुम हो ही। शरारत करते हो और फिर खुद ही पछताते हो। इस खुशी में तुम्हें माफ़ करता हूं कि भगवान ने बेटे प्योतर अन्द्रेइच से मिलन करवाया है । कुसूरवार ! बेशक, कुसूरवार हो ! लेकिन खैर - माफ़ी के लिये झुके हुए सिर को तो तलवार भी नहीं काटती । भगवान ने अच्छा मौसम दिया है, घास काटनी चाहिये, मगर तुम बेवकूफ़ों ने पूरे तीन दिन तक क्या किया ? मुखिया ! सभी को घास काटने के लिये भेज दो - और सुनो लाल बालोंवाले शैतान, सन्त इल्या के दिन तक सारी घास की टालें तैयार हो जानी चाहिये । अब चलते बनो !"

किसानों ने सिर झुकाये और बेगार के लिये ऐसे चल दिये मानो कुछ हुआ ही न हो ।

श्वाबरिन का घाव घातक नहीं था । उसे फ़ौजी पहरे में कज़ान भेज दिया गया। मैंने खिड़की से उसे घोडा गाडी में लिटाया जाते देखा । हमारी नज़रें मिलीं, उसने सिर झुकाया और मैं झटपट खिड़की से दूर हट गया। मैं यह जाहिर नहीं करना चाहता था कि अपने शत्रु के दुर्भाग्य और अपमान पर खुश हो रहा हूं ।

ग्रिनेव को आगे जाना था । अपनी इस इच्छा के बावजूद कि मैं कुछ दिन तक अपने परिवार में और रहूं, मैंने उसका साथ देने का निर्णय किया । कूच के एक दिन पहले मैं अपने माता-पिता के पास गया और उस समय के रिवाज के मुताबिक़ मैंने उनके पैरों पर शीश झुकाया और मरीया इवानोव्ना से शादी करने के लिये उनसे आशीर्वाद देने का अनुरोध किया। मेरे माता-पिता ने मुझे उठाया और खुशी के आंसू बहाते हुए अपनी सहमति व्यक्त की । कांपती हुई और पीला चेहरा लिये मरीया इवानोव्ना को मैं उनके पास ले गया । उन्होंने हमें आशीर्वाद दिया... उस समय मैंने क्या अनुभव किया, मैं इसका वर्णन नहीं करूंगा। जिसे इस चीज़ की अनुभूति हो चुकी है, वह मेरे वर्णन के बिना ही इसे समझ जायेगा और जिसे ऐसा दिन देखना नसीब नहीं हुआ, उसके लिये सिर्फ़ अफ़सोस ही कर सकता हूं और यह सलाह दे सकता हूं कि वक़्त रहते किसी से प्यार कर लो और माता - पिता का आशीर्वाद पा लो ।

हमारी रेजिमेंट अगले दिन कूच को तैयार हो गयी । ग्रिनेव ने हमारे पूरे परिवार से विदा ली। हम सभी को इस बात का पूरा यक़ीन था कि फ़ौजी कार्रवाइयां जल्द ही खत्म हो जायेंगी। मुझे उम्मीद थी कि एक महीने बाद मैं शादी कर लूंगा । मरीया इवानोव्ना ने मुझसे विदा लेते हुए सभी के सामने मुझे चूमा। मैं घोड़े पर सवार हुआ । सावेलिच फिर से मेरे पीछे-पीछे हो लिया - रेजिमेंट चल दी।

मैं गांव की अपनी हवेली को, जिसे फिर से छोड़कर जा रहा था, दूर से देर तक देखता रहा । उदासीभरी पूर्व भावना मेरे मन को आशंकित कर रही थी। कोई मेरे कान में मानो फुसफुसा रहा था कि मेरे सभी दुर्भाग्यों का अभी अन्त नहीं हुआ है। दिल यह महसूस कर रहा था कि अभी एक नया तूफ़ान आयेगा ।

हमारे कूच और पुगाचोव के साथ लड़ाई के अन्त की चर्चा नहीं करूंगा। हम पुगाचोव द्वारा तबाह किये गये गांवों- बस्तियों में से गुजरे और हमने अनिच्छा से बदक़िस्मत लोगों से वह छीन लिया जो लुटेरे छोड़ गये थे ।

लोग यह नहीं जानते थे कि किसके आदेशों का पालन करें। शासन तो सभी जगह पर समाप्त हो गया था। ज़मींदार जंगलों में जा छिपे थे । डाकुओं- लुटेरों के गिरोह सभी जगह लूट-मार कर रहे थे । अलग- अलग फ़ौजी दस्तों के अफ़सर, जिन्हें उस वक़्त अस्त्राखान की तरफ़ भागे जा रहे पुगाचोव का पीछा करने के लिये भेजा गया था, अपनी मर्ज़ी से दोषियों और निर्दोषों को भी सज़ा देते थे... जहां यह आग भड़की हुई थी, उस सारे इलाक़े की ही भयानक हालत थी । भगवान न करे कि कभी बेमानी और क्रूरतापूर्ण रूसी विद्रोह को देखना पड़े। हमारे यहां जो लोग असम्भव उथल-पुथल की कल्पना करते हैं, वे या तो जवान हैं और हमारी जनता को नहीं जानते या फिर संगदिल हैं जिनके लिये दूसरों का सिर एक दमड़ी का है और अपनी गर्दन की क़ीमत एक कौड़ी है ।

पुगाचोव भागता जा रहा था और जनरल इवान इवानोविच मिखेलसोन उसका पीछा कर रहा था । जल्द ही हमें यह पता चला कि उसे पूरी तरह कुचल दिया गया है। ग्रिनेव को अपने जनरल से यह खबर मिली कि नक़ली सम्राट को गिरफ़्तार कर लिया गया है और साथ ही उसे आगे न बढ़ने का आदेश प्राप्त हुआ । आखिर तो मैं घर जा सकता था । मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था - लेकिन एक अजीब-सी भावना मेरी खुशी पर छाया डाल रही थी ।

परिशिष्ट

कृषकों का विद्रोह, जिसे पूश्किन ने अपने लघु उपन्यास में छुआ भर था, कप्तान की बेटी की पाश्वभूमि बना । पूश्किन किसानों के आन्दोलन से काफ़ी उत्तेजित थे। इस विषय पर मनन करते हुए वे पुगाचोव के विद्रोह तक पहुँचे और तभी उनके हृदय में पुगाचोव के विद्रोह तथा पुगाचोवी कुलीनों पर उपन्यास लिखने के विचार ने जन्म लिया। जनवरी 1833 में पूश्किन ने इस उपन्यास का प्रथम ख़ाका तैयार किया, जिसका नायक था मिखाईल अलेक्साद्रोविच श्वानविच । श्वानविच एक वास्तविक व्यक्ति था, जो तोप दस्ते का अफ़सर था, पुगाचोव से मिल गया था और जिसे बाद में साइबेरिया भेज दिया गया था।

जुलाई 1833 में पूश्किन ने छुट्टी के लिए आवेदन पत्र दिया, जिससे वे उन स्थानों पर जा सकें, जहाँ नियोजित उपन्यास की घटनाएँ घटित हुई थीं। साथ ही । पुगाचोव का इतिहास भी लिखा जा रहा था।

अगस्त 1833 में वे 'पुगाचोव का इतिहास” तथा विचाराधीन उपन्यास के लिए जानकारी एकत्र करने ओरेनबुर्ग तथा यूराल प्रान्त में गये। उपन्यास के प्रथम ख़ाके में काफ़ी परिवर्तन किये गये। उपन्यास का अन्तिम रूप, जो कप्तान की बेटी के काफ़ी निकट था, अक्टूबर-नवम्बर 1834 में प्रकट हुआ। धीरे-धीरे पुगाचोव के विद्रोह के विषय को उपन्यास में प्रमुखता प्राप्त हुई और साथ ही एक प्रेम-कहानी ने भी जन्म लिया-उपन्यास के नायक और दुर्ग के कप्तान की बेटी की प्रेम-कहानी ने।

उपन्यास धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। वह पूरा हुआ 1836 में। उसे सेंसर को सौंपने के बाद पूश्किन ने सेंसर के सदस्य कोर्साकोव को लिखा, “मिरोनोव की बेटी का नाम काल्पनिक है। मेरा उपन्यास कभी सुनी गयी घटना पर आधारित है, जिसके अनुसार, किसी एक अफ़सर को, जिसने अपने दस्ते के साथ विश्वासघात किया और पुगाचोव के गिरोह में शामिल हो गया, साम्राज्ञी ने क्षमा कर दिया था। इस अफ़सर के पिता ने साम्राज्ञी के पैरों पर गिरकर बेटे के लिए क्षमा की याचना की थी। उपन्यास जैसा कि आप देखेंगे, वास्तविकता से दूर चला गया है।”

कप्तान की बेटी को पहली बार 'सव्रेमेन्निक' पत्रिका में सन्‌ 1836 में प्रकाशित किया गया। सेंसर ने ग्रीनेव के गाँव में किसानों के विद्रोह सम्बन्धी अध्याय को प्रकाशित करने की अनुमति नहीं दी। इसे पूश्किन ने 'एक छूटा हुआ अध्याय' कहा । यह अध्याय सन्‌ 1880 में ही छप सका।

पूश्किन ने इस उपन्यास पर कार्य करते हुए ऐतिहासिक और जनजीवन से जुड़ी सामग्री का तथा ओरेनबुर्ग यात्रा के समय पुगाचोव विद्रोह के प्रत्यक्षदर्शियों से बातचीत करने के बाद लिखे गये संस्मरणों का खुलकर उपयोग किया है।

(मूल रूसी भाषा से अनुवाद : डॉ. मदनलाल 'मधु')

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