परित्यक्ता (जर्मन कहानी) : विल्हेल्म श्मिटबॉन्न (अनुवाद : रामप्रताप गोंडल)

The Abandoned (German Story in Hindi) : Wilhelm Schmidtbonn

प्रतिदिन ही सड़क पर जाती हुई एक औरत दिखलाई पड़ती थी। एक दिन गांव से शहर को जाती थी, दूसरे दिन वह शहर से गांव को और तीसरे दिन पहले दिन की तरह । रास्ते में तीन गांव पड़ते थे । इन तीनों गांवों के आदमी अपने बचपन से, जब वे खेतों की मुंडेरों पर बैठे खेला करते थे, उसे जानते थे । इस समय उसके बाल पक गये थे, और कमर झुक गई थी, परन्तु वह औरत उस सड़क से अब भी आती-जाती थी ।

ठीक पहले की तरह वह अब भी गाड़ी के पीछे-पीछे चलती थी। गाड़ी वही पहले वाली थी और उसमें बक्से, बoरे और कबाड़ लदा रहता था। वही नीले रंग का पेटीकोट नह पहने रहती थी, जिससे आदमियों की तरह घुटने बाहर निकले रहते थे, परन्तु कद उसका लम्बा नहीं था; एक हाथ में उसके अब भी चाबुक रहता था और दूसरे हाथ में हुका। वह हुक्का पीती जाती थी और सूरज की तपस के कारण झुलसे हुए मटीले मुंह से धुंवा छोड़ती जाती थी; उसकी भूरी-भूरी आँखें अब भी दांयें बांयें खेतों को देखती चलती थीं । अब भी वह अपने टट्टू की गर्दन पर हाथ रखकर पुचकारती थी, जिसके खुरों का शब्द पक्की सड़क पर पड़ने के कारण होता था। घोड़ा, निःसन्देह, वह नहीं था। पहले जो घोड़ा था वह सफेद रंग का था, परन्तु अब मोटा, ताज़ा, और काला घोड़ा था । वह बदन में इतना चौड़ा था कि सामने से देखने पर मामूली सी गाड़ी बाहर निकली हुई दिखलाई पड़ती थी । परन्तु वह टट्टू भी उम्र के कारण सख्त पड़ गया था।

खेतों में हल चलाते हुए किसान और अपने घरों के सामने बैंचों पर बैठे हुए आदमी उसे जाती हुए देखकर नमस्कार करते थे । वह बड़े शुद्ध स्वर में उत्तर देती थी और अपना चाबुक घुमाती थी, परन्तु इसके अतिरिक्त वह न कोई दूसरा शब्द निकालती थी और न क्षण भर के लिए ठहरती ही थी ।

उसके चले जाने के बाद लोग कहते थे, "हमारे सामने वह मरती नहीं दिखती; जब हमारे बच्चों के भी बाल पक जायेंगे तब भी वह इसी प्रकार पैदल चलती रहेगी ।" इसमें सन्देह भी क्या था। उसकी जिस आयु ने तीनों गाँवों की एक पीढ़ी को सड़क पर चलते-चलते समाप्त कर दिया था । और नई पीढ़ी उसकी जगह आ गई थी, और वह भी उसके छोटे-छोटे पावों को जिन पर नालदार जूते चढ़े रहते थे थकाने में बिलकुल असमर्थ रही थी ।

इसमें सन्देह नहीं कि उसकी उम्र इस समय ८० बरस से कम नहीं होगी, परन्तु शाल के अन्दर से, जो उसने ओढ़ रखा था, अब भी काफ़ी काले बाल दिखलाई पड़ते थे ।

आखिरकार वह दिन भी आ गया जब सबने यह सोच लिया कि अब वह इस सड़क पर इस प्रकार चलती हुई दिखलाई नहीं देगी | यह था नया जमाना जो नई पीढ़ी के साथ आगे बढ़ रहा था । एक दिन ढेर के ढेर मज़दूर सड़क पर दिखाई दिये । वे कुछ दिन काम करते रहे। उन्होंने सड़क के किनारे गट्टी और मिट्टी डालकर ऊंची जगह बना दी। मजदूर चले गये, परन्तु जल्दी ही रेल की पटरियां लेकर फिर आ गये। ये पटरियां उन्होंने उस सड़क से ऊंची की हुई जमीन पर बिछा दीं। उन्होंने उस बुढ़िया को सड़क से गुजरते देखकर कहा, " अब हमारी बारी आ गई । तुमने अपनी इस पुरानी गाड़ी के साथ सड़क के कई चक्कर काट लिये हैं।"

बुढ़िया हंसी और उसने अपना वाचुक हवा में फटकारा, परन्तु पीछे गर्दन नहीं मोड़ी; वह सदा की तरह अपने छोटे छोटे डग भरती चली गई । परन्तु जिस दिन उसे भक भक करता हुआ। गाड़ियां खींचता इंजिन दिखलाई दिया तो उसने चाबुक हवा में न घुमाते हुए टट्टू की पीठ पर मारा। घोड़े ने पैर जल्दी जल्दी उठाने शुरू किये और गाड़ी के पहिये भी तेजी से लुढ़कने लगे, परन्तु बुढ़िया को यह देखने का अवसर भी नहीं मिला कि उसने इतनी देर में कितना फासला तय किया है कि वह भीमकाय काला देव गाड़ियां खींचता हुआ धक-धक करते हुए उसके बराबर आया, क्षण भर में काला धुआँ छोड़ता हुआ आगे बढ़ा और दूसरे क्षण दूर एक छोटी सी वस्तु में बदल गया । बुढ़िया का दुबारा टट्टू के चाबुक लगाना भी व्यर्थ ही हुआ; उसने लगाम हाथ में ली, उसे झटका मारा और घोड़े के साथ आप भी दौड़ने लगी परन्तु कहां रेल और कहां घोड़ा गाड़ी, वह एकदम पीछे रह गई । खेतों में जो लोग थे वे यह देखकर हंसने लगे, उन्होंने अपनी टोपियां ऊपर उछालीं । "आज उसका यह अन्तिम दिन है, अब वह कभी इस रास्ते पर दिखलाई नहीं देगी", लोग चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे । कुछ क्षण तक ऐसा प्रतीत हुआ मानों उनका कहना ठीक निकलेगा । बुढ़िया ने टट्टू खड़ा किया, उसे पुचकार कर धीमी चाल पर डाला, सिर नीचे झुका लिया और गाड़ी के एक तरफ चलने लगी । उसने दायें-बायें देखना भी बन्द कर दिया और बजाय घोड़े की गर्दन के पास चलने के गाड़ी के पीछे चलने लगी। ऐसा प्रतीत होता था मानों यह हार गई है । अचानक ही दूसरे क्षण उसने अपना चाबुक फटकारा, घोड़े के सिर के बराबर आ गई- और अगले दिन वह शहर को जाती हुई दिखलाई दी, फिर दूसरे दिन वापिस । उसकी चाल में अब भी पहली सी स्फूर्ति थी, और बदन में जोश ।

उसने अपना कार्यक्रम इन नये आविष्कारों के, जो रेल की पटरी वगैरह के साथ-साथ राइन की उस घाटी के एकान्त स्थान में आ रहे थे, मुकाबिले में जारी रखा। उन नये आदमियों के बीच में जिन्होंने अपना रहन-सहन, पहनावा, खाने-पीने की आदतें सब बदल दी थीं, वह बगैर किसी हिचकिचाहट के उनके साथ गर्मियों में ढीली-ढाली, बरसों पुरानी, पुराने फैशन की रुई की कुड़ती और सर्दियों में पुराने जमाने का विचित्र मरदाना कोट पहन कर बैठती और शराब से डबल रोटी के टुकड़े भिगो-भिगोकर खाती थी। सड़क के दोनों ओर बड़े-बड़े दुमंजिले, तिमंजिले नये मकान खड़े हो गये थे। यहां तक कि बच्चों के बर्ताव में भी अन्तर आ गया था । वे फ़ौजों में भागते फिरते थे; सेना की टुकड़ियां जहां पहले दो-तीन थीं वहां दस-बीस हो गई थीं। वे उन्हें देखकर चिल्लाते थे और उनके घोड़ों को पत्थरों का निशाना बनाते थे ।

इस पर भी वह बुढ़िया इस विचित्र, नई दुनिया में बढ़ती ही गई। दिन प्रति दिन उसने अपना काम जारी रखा। मुख मण्डल उसका प्रसन्न और सौम्य, शरीर में उसके स्फूर्ति, और नेत्रों में दीप्ति थी। वह ऐसी प्रतीत होती थी मानों प्रकृति का ही एक अंश हो, मानों उस सड़क से इस प्रकार अभिन्न हो जिस प्रकार वर्षा की बूंदें और सूर्य की किरणें जो उस सड़क पर पड़ती थीं। उसे इस बात की भी चिन्ता नहीं थी कि उसकी गाड़ी का बोझ पहले से अब आधा रह गया है क्योंकि आधा अब रेल ने ले लिया था । जो कुछ था वह भी अब घट रहा था। यह जानते हुए कि गाड़ी का बोझ बहुत कम हो चुका था उसने गाड़ी पर सवार होकर चलना आवश्यक नहीं समझा। वह सदेव की तरह गाड़ी के किनारे से चलती थी, और कदाचित् इस प्रकार के नियमित व्यायाम में उसे आनन्द आता था । रेलगाड़ी उसके सामने से प्रतिदिन गुज़रती थी परन्तु वह कभी उस ओर नहीं देखती थी। वह लगातार दृष्टि अपने सामने रखती थी और अपने हुक्के से जोर-जोर से धुंवा उड़ाना शुरू कर देती थी। साथ ही वह घोड़े से बातचीत करती जाती थी, जो अपने नथुने फुला कर उसकी बात को सुनता मालूम होता था। घोड़े के अतिरिक्त और किसी दूसरे को उसका स्वर सुनाई नहीं देता था, परन्तु उसके चाबुक चलाने के ढंग से, उसके नालदार जूतों के सड़क पर पढ़ने के शब्द से और उसकी आंखों की सामने लगी हुई टकटकी से यह सहज ही अनुमान लगया जा सकता था कि वह उस काले धुंवादार दानव से जो उसकी रोजी और जीवन तक को भी छीनता जा रहा है लड़ती ही चली जावेगी, और यह भी प्रतीत होता था कि उसने कहीं मन के किसी कोने में अपनी निधि गाड़ रखी है जिससे वह शक्ति और आनन्द प्राप्त करती है। ऐसा प्रतीत होता था मानों वह किसी अवसर की खोज में है और उसके आने पर वह हारी हुई बाजी को जीत लेगी, और साथ ही वह साबित कर देगी कि उसकी गाड़ी एंजिन से बढ़िया है - किसी प्रकार भी कमज़ोर और घटिया नहीं है।

इस प्रकार शरद ऋतु आ गई ।

एक दिन शाम के समय वह शहर की आखिरी सराय के सामने खड़ी हुई अपनी गाड़ी पर सामान बांध रही थी। उसकी गाड़ी पर एक पलंग, एक मेज और कुछ कुर्सियां लदी हुई थीं जिन्हें उसने त्रिपाल से ढक कर मजबूती से कस दिया था। यह सामान सुबह ही विवाह बन्धन में बंधने वाले दम्पति के घर के लिये था ।

"क्यों ? क्या तुम आज ही रात में वापिस लौट रही हो ?", दरवाजे में फैल कर खड़े हुए सराय के मालिक ने कहा ।

"अवश्य । मैंने वचन दिया हुआ है। मुझे अपनी लालटेन दे दो ।"

सराय वाले ने ऊपर को निगाह उठाकर आसमान की ओर देखा ।

" रात में बरफ अवश्य गिरेगी ।"

"इससे क्या ?”, नीचे देखते हुए ही बुढ़िया ने जवाब दिया। वह घोड़े पर से झूल उठा रही थी । " मैंने न जाने कितनी बार अपने जीवन में इस प्रकार बरफ़ पड़ते देखी है ।"

"अच्छा हो कि तुम रात को यहीं ठहर जाओ ।"

"नहीं भई, मैंने वचन दे रखा है। ये वस्तुएं आज रात में वहां पहुँच ही जानी चाहियें ।"

उसने अपना हुक्का तैयार किया और गाड़ी में से चाबुक खींचकर हाथ में ले लिया ।

एक नौकरानी शहर से भागी भागी उसके पास आई ।

"साहब ने कहा है कि रात में चूंकि बरफ गिरेगी, इस लिए तुम सामान सुबह नहीं पहुंचा सकोगी ! तुम्हें यह सब सामान यहीं खाली करना होगा । वह रेलगाड़ी से भेज दिया जायगा ।"

बुढ़िया ने लड़की की ओर आंख उठाकर देखा । वह अपने जूते का फीता पहिये पर पैर रखकर बांध रही थी। धीरे-धीरे उसने निगाह इस ओर फेरी ।

"नहीं, ले जाने के लिये मुझे यह सामान सौंपा गया है। वह गाड़ी में कसा जा चुका है और अब खाली नहीं किया जा सकता । मैं उसे वहां पहुँचा कर ही रहूंगी।"

"अच्छा यही होगा कि तुम सामान उतार लो", सराय के मालिक ने कहा । "तुम इतनी बरफ में नहीं चल सकोगी। रेलगाड़ी से ही इस सामान को जाने दो।"

"यह कैसे हो सकता है ? मैं इस सामान को अवश्य वहां पहुँचाकर रहूंगी... ... और वह भी रेल से पहले ।"

"तुम यह किस हिसाब से कहती हो ?"

"अभी रेल के छूटने को चार घण्टे बाकी हैं और मैं वहां पहुंचने में कुल तीन घण्टे लूंगी।" उसने अपना चाबुक घुमाया । 'चलो' कहते ही गाड़ी आगे बढ़ने लगी । बुढ़िया का चेहरा जो पहले साधारणतः विनम्र और किंचित् उदास रहता था अब उसके स्वामी और पांच बच्चों के मरने के कारण कठोर हो गया था। चेहरे पर बड़ी-बड़ी झुर्रियां पड़ गई थीं और हड्डियां ही चेहरे पर अधिक नज़र आती थीं ।

सराय से कुछ दूर जाने पर ही चढ़ाई शुरू हो गई। सड़क की बाई ओर दलान में चरागाहें थीं जिनके आगे जाकर जंगल शुरू हो जाता था। उसके दाहिनी ओर आलुओं के खेत थे जिनके पीछे पहाड़ी पर क्रुत्ज़वर्ग का गिरजाघर दिखलाई पड़ता था ।

बुढ़िया प्रतिदिन से कुछ तेज़ ही चल रही थी। वह धीरे-धीरे गाती जाती थी, परन्तु हवा के भारी हो जाने के कारण अब उसका स्वर धीमा पड़ गया था, क्योंकि सांस लेना तक मुश्किल हो गया था। मुंह से जो वह सांस निकालती थी वह बजाय हवा में जाने के वहीं धुंवे के रूप में बदल जाता था। उसके चाबुक का दस्ता भी इतना भीग चुका था कि मानों अभी-अभी पानी में भिगोकर निकाला गया हो। इतने समय में जो कि गाड़ी ने नीची-नीची पहाड़ियों पर चढ़ने में बिताया था उस पर हज़ारों बूंदें दिखलाई देने लग गई थीं। यह उनके बादलों में से होकर गुज़रने के कारण था।

"इससे तो यह समझाना चाहिये कि पानी पड़ेगा, न कि बरफ," बुढ़िया ने आदतवश ज़ोर से कहा । परन्तु उससे कोई यह अन्दाजा न लगा पाता था कि वह अपने आपको सम्बोधन करके कह रही है अथवा अपने घोड़े को । घोड़ा चूंकि इस समय चढ़ाई के बाद विश्राम ले रहा था उसने शहर की ओर गर्दन फेर कर देखा । वह इस शहर को उस काल से जानती थी जब इसमें कहीं इनेगिने ३ व ४ गुम्बद सफेद मकानों से निकले हुए दिखलाई पड़ते थे- अब तो सैंकड़ों ही गुम्बद नज़र आते थे। रेल के स्टेशन की तरफ बुढ़िया आँखे फाड़ फाड़ कर देखती थी, उसे देखने के लिये उसको ढूंढ़ना नहीं पड़ता था। जब वह वहां खड़ी होती थी तो उसे रेल का स्टेशन अपने आप ही दिखलाई पड़ जाता था । इसके बाद उसकी निगाह मकानों के उस पार राइन पर पड़ती थी, जिसने ऐसा मालूम होता था, मानों खेतों को एक धागे में पिरो रक्खा है। नदी पर और उसके आसपास धुंवा ही धुंवा नज़र आता था, हर एक जगह चिमनियां और मशीनें दिखाई देती थीं। जहां देखो वहां उसे नई, विचित्र और हलचलमय ज़िन्दगी दिखलाई पड़ती थी । वहां पर नीचे कभी मल्लाह छाती पर चमड़े की पेटी बांधकर पानी के चढ़ाव की ओर किश्तियां खेते थे; सड़कों पर से अन्य औरतों की गाड़ियां चलनी भी कभी की बन्द हो चुकी थीं, केवल वह अकेली इस सड़क पर चलने वाली शेष रह गई थी। शहर में बत्तियां जलने लग गई थीं। स्टेशन से एंजिनों की लम्बी रोशनी उसे दिखलाई पड़ी। उसने सोचा जब ये ही हमेशा इधर उधर घूमते रहते हैं और थोड़े समय के लिये ही केवल ठहरते हैं तो फिर उसे ही क्यों अधिक ठहरना चाहिये । "अच्छा" उसने कहा, "जब शहर की बत्तियां ही जल पड़ीं तो फिर मैं अपनी लालटेन ही क्यों न जला लूं।" उसने लालटेन जलाई और आगे ऐसे स्थान पर रख दी कि जहां से सामने सड़क पर रोशनी पड़ सके ।

उसे अकस्मात् आसमान गहरा और पीले रंग का होता हुआ दिखाई पड़ा । उसी समय हवा का एक ठण्डा झोंका आया और वह उसके कपड़ों को चीरता हुआ अन्दर घुस गया । " बरफ़ गिरने का समय आ गया", उसने कहा और घोड़े के साथ-साथ चलकर उसने समझा कर कहा कि आज उसे अपनी चाल तेज़ रखनी होगी ।

चूंकि अब चढ़ाव समाप्त हो गया था इसलिये घोड़ा जल्दी- जल्दी आगे बढ़ने लगा | घोड़े के खुरों की टाप, बुढ़िया के पैरों का शब्द, और पहियों की चर्र चर्र ने बुढ़िया के अन्दर आनन्द की एक लहर भर दी । उसने अपना चाबुक ऊपर उठाया और अपने दांयें और बांयें को कई बार घुमाया। धरती यहां पर कहीं ऊंची हो जाती थी और कहीं नीची, मानों समुद्र में लहरें आती हों; वृक्ष वहां पर ऐसे मालूम होते थे मानों जहाज तैरते हों ।

"बरफ़ पड़ने ही वाली है," पहले गांव वालों ने उसे पुकारकर कहा ।

वह ठहरी नहीं, चलती ही चली गई । खिड़कियों के अन्दर से प्रकाश बाहर आ रहा था ।

बुढ़िया को अन्तिम घर पीछे छोड़कर मैदान में आने पर, यह अवश्य विदित हो गया कि रात्रि कितनी शीघ्रता से बढ़ी चली था रही है । केवल आसपास ही झाड़ियां वगैरह दिखलायी पड़ रही थीं। दूर घना काला आसमान दृष्टिगोचर हो रहा था । औसत से हर एक वस्तु बड़ी दिखलाई पड़ती थी क्योंकि वस्तुओं का घेरा घनी हवा में छिप जाता था। कभी-कभी कोई झाड़ी उसके साथ और उसकी गाड़ी के साथ-साथ चलती दिखलाई पड़ती थी; जब वह खड़ी होकर टकटकी लगाकर उसकी ओर देखती थी तब वह खड़ी हो जाती थी, परन्तु ज्योंही वह फिर चलने लगती वह भी साथ-साथ चलने लगती ।

"बरफ़ पड़ने ही वाली है। बहतर यही होगा कि तुम यहां पर ठहर जाओ,” दूसरे गांव वालों ने चिल्लाकर कहा । उनके चेहरे और हाथ कोहरा जम जाने के कारण सफेद दिखलाई पड़ रहे थे । वे जल्दी-जल्दी गाड़ियां और औजार झोपड़ों में लाने में जुटे हुए थे । तेज़ रफ़्तार से घर को आती हुई गाड़ियां बुढ़िया के घोड़े के पास से होकर गुज़र रही थीं । कुत्ते भी घरों में पहुंच चुके थे और गाड़ी की आवाज़ सुनकर दबे हुए स्वर में भोंकते थे। जब कभी कोई उन खिड़कियों में से जिनसे रोशनी बाहर आ रही थी अन्दर झाँकता था तो उसे बाप, मां और बच्चे चुपचाप लैम्प की ओर दृष्टि गढ़ाये हुए बैठे दिखलाई पड़ते थे ।

ज्यों ही बुढ़िया खुले स्थान में आई तो खेतों में सब जगह उसे अन्धकार ही अन्धकार नज़र आने लगा । न कोई झाड़ी दिखलाई। पड़ती थी और न कोई वृक्ष । जो थोड़ा-बहुत कुछ दिखाई भी देता था वह लालटेन की रोशनी में गाड़ी का ढांचा, घोड़े की पीठ, दायें और बायें की सड़क का कुछ हिस्सा, घोड़े के खुरों के टूटे हुए नाल और लीद वगैरह ही दीखते थे। उसे अपने शरीर का नीचे का हिस्सा भी नहीं दिखाई देता था । अगर उसे अपना हाथ भी देखना होता था तो उसे उठाकर चेहरे तक लाना पड़ता था । परन्तु वह बड़े जोरों से खिलखिलाकर हंस रही थी, साथ में गुनगुनाती भी जाती थी और जोर के साथ चाबुक भी हिलाती जाती थी । कदम बढ़ाने के साथ ही वह घोड़े को पुचकारती भी जाती थी। उसके चलने से ऐसा मालूम होता था मानो किसी युवा स्त्री के कदम पड़ रहे हों ।

सामने से एक और गाड़ी आ रही थी । "हैं ! क्या यह बुढ़िया है ?" कोचवान ने चिल्लाकर कहा । वह गाड़ी के साथ-साथ बगल से चल रहा था। उसने कॉलर ऊपर उठा रखा था और हाथ अपनी जेब में डाले हुए थे । “क्या तुम्हारा दिमाग़ खराब हो गया है ? और तो और बरफ तो इस समय भी पड़ रही है। ऐसे समय में तुम जंगल में क्या कर रही हो ?"

ज्यों ही घोड़े एक दूसरे के पास आये उस आदमी ने बुढ़िया को वापिस फेरने के लिये उसका हाथ पकड़ कर खींचा, परन्तु वह उसकी तरफ हंसकर रह गई और आगे बढ़ गई।

शीघ्र ही उस गाड़ी की आवाज़ सुनाई देनी भी बन्द हो गई, आसपास केवल सड़क के किनारे लगे हुए तार के खम्भों का हमेशा होने वाला नाद सुनाई पड़ रहा था ।

वह जंगल में पहुंच गई । जंगल में जो अन्धकार उस रात्रि में छाया हुआ था, उससे अधिक कल्पना में भी नहीं लाया जा सकता था ।

बुढ़िया निडर होकर उस बियाबान जंगल में बढ़ती चली गई। उसने घोड़े के सामने रोशनी करने के लिये लालटेन हाथ में ले ली। अकस्मात् ही उसे सफेद-सफेद कपास के फोये सरीखे उड़ते हुए दिखलाई पड़े । रोशनी में उसने उन्हें धीरे-धीरे करके जमीन पर पड़ते देखा । उसने रोशनी पहले अपने कपड़ों पर डाली, बाद घोड़े पर और अन्त में ज़मीन पर डाली। उसे सब ही स्थानों पर बरफ़ पिघलती दिखलाई पड़ी। वह तिरस्कारसूचक स्वर में हंसी । "नहीं, यह बरफ नहीं है। यह तो केवल पानी है ।"

लालटेन उसने अब भी हाथ में ही ले रखी थी । बरफ अब और भी घनी पड़ने लग गई थी। जहां भी वह लालटेन की रोशनी डालती थी वहीं उसे ज़मीन सफेद दिखाई देती थी । चलते समय उसके बूटों की आवाज़ भी अब दबी हुई आने लग गई थी; एड़ियों में बरफ के टुकड़े चिपकने के कारण उसके पैर अब भारी पड़ रहे थे। सांस के साथ उसे चीड़ वगैरह के वृक्षों की खुशबू आती थी परन्तु वृक्षों का कहीं उसे नामोनिशां भी नज़र नहीं आता था । वह खुशबू तरी के कारण और भी बढ़ गई थी। वह अपना चाबुक और भी जोश के साथ हिलाने लग गई थी। मानो उस महक ने उस पर अपना प्रभाव डाल दिया हो । परन्तु इस जोश का असर अधिक देर तक न रह सका । एक तो चाबुक भीगा हुआ होने के कारण और दूसरे बरफ की तेजी बढ़ने के कारण वह हवा भी न चीर सका।

कुछ समय से घोड़ा गर्दन हिलाकर चल रहा था, क्योंकि बरफ उसकी आँखों में आकर पड़ती थी । अकस्मात् ही वह गर्दन बुढ़िया की ओर फेरकर ठहर गया। "बढ़ो, चलते चलो !" बुढ़िया ने उत्साह-वर्धक शब्दों में उसकी गर्दन पर हाथ फेरते हुए कहा, और घोड़ा एक बार फिर आगे बढ़ने लगा ।

जमीन पर पढ़ी हुई बरफ अभी नरम ही थी । बुढ़िया जो भी पैर जमीन पर रखती थी वह ही बरफ में गिट्टे तक धंस जाता था और उसे ताकत के साथ बाहर खींचना पड़ता था । वह सड़क के एक ओर चलने लगी और उसने ऊपर वृक्षों पर रोशनी डाली, वृक्षों की टहनियां सब नंगी नज़र आती थीं। सड़क के किनारे के वृक्षों को गौर के साथ देखने पर उसे पता लग गया कि वह अभी जंगल के बीच में न पहुंच कर उसके पहले सिरे पर ही है।

उसने, गाड़ी के रोकने के लिये पहियों के पास जो लकड़ी के ब्रेक लगे हुए थे, उन्हें हटाकर और भी दूर कर दिया, परन्तु बरफ इस पर भी उनके अन्दर पहुँच कर रुकावट पैदा करने लगी, जिसके कारण पहिये घूमने के बजाय घिसटने लगे ।

लगातार उसे अपने मुख से बरफ़ पोंछनी पड़ती थी। हर एक कदम के साथ उसके बूट नीचे धंस जाते थे, बरफ़ उसके पैर और बूट के बीच में भी घुसने लगी और ज्यों ही वह गिट्टे पर जोर देकर पैर बाहर खींचती थीं कि बरफ़ की रगड़ उसके पैर में ऐसे लगती थी मानों उसका पैर पत्थर के टुकड़ों के साथ रगड़ खा रहा हो ।

एक बार घोड़ा फिर चुपचाप खड़ा हो गया। बुढ़िया ने लालटेन की रोशनी घोड़े पर डाली। उसकी पीठ पर से परनालों की शकल में पानी बह रहा था। उसने लालटेन आगे गाड़ी पर कसकर बांध दी और आप गाड़ी को पीछे से ढकेलने लग गई। घोड़े को हांकने के लिये वह साथ में शोर भी करती जा रही थी। इस प्रकार आगे बढ़ने लगे।

सांस लेने के लिये उसे अपना मुंह भी खुला रखना पड़ा । उसके मुंह में बार बार बरफ जोर के साथ आकर भर जाती थी, मानों कोई ढेले फेंक कर मार रहा हो। उसके शाल पर उसके कन्धों पर और उसके हाथों पर बरफ के छोटे-छोटे ढेर लग गये थे । उसने गाड़ी को ढकेलना जारी रखा। फलस्वरूप पहले उसकी छाती में दर्द शुरू हुआ, और धीरे-धीरे सारे शरीर में फैल गया। अपनी बरफ़ में गड़ी हुई टांगों को खींचने के लिये उसे अपनी सारी शक्ति लगानी पड़ती थी। वे अब लड़खड़ाने लग गई थीं। उसकी बाहें जो गाड़ी को ढकेल रही थीं लकड़ो की तरह सख्त पड़ गई थीं और उसकी कलाइयां दर्द करने लग गई थीं ।

बुढ़िया ने बरफ़ को बोलना शुरू किया। पहले उसकी खिल्ली उड़ाई, बाद को उसे गालियां देना शुरू किया, उसने उस पर थूका, फिर उसने घूंसे मारे । उसके लिये वह एक जीवित वस्तु थी, जिसे उसके दुश्मनों ने अर्थात् रेल के अधिकारियों ने उसे रोकने के लिये भेजा था।

अपनी मुसीबतों के लिये वह परेशान न थी बल्कि उसे घोड़े की मुसीबतों का रह रह कर विचार आ रहा था। बरफ़ के कारण अपने बैठे हुए गले से वह धीमे परन्तु भारी स्वर में घोड़े को सम्बोधित कर कह रही थी:-

"पीटर, बुद्धिमत्ता से काम लो। तुम जानते ही हो कि हमें रेल के पहुंचने से पहले वहां पहुँच जाना चाहिये । हमने वचन दिया है, क्यों याद है न तुम्हें ? अगर रेलगाड़ी अकेली यह काम कर सकती है तो हम दोनों क्यों नहीं ? पीटर, तुम कितने अच्छे हो ! बढ़ते चलो।"

इससे अधिक वह और कुछ न बोल सकी। उसके गले से शब्द अब नहीं निकल पाता था, केवल कराहने की आवाज़ आ रही थी । अक्सर उसे प्रतीत होता था मानों उसका थका, टूटा और हारा हुआ शरीर उससे अलग होकर बरफ में ही गढ़ा रह जाना चाहता है । परन्तु गाड़ी से अपनी छाती अड़ाकर वह ढकेलती ही चली गई।

गाड़ी के पहिये सड़क के किनारे पर इतने बढ़ गये थे कि हवा से उड़ता हुआ उसका कोट किसी सख्त चीज़ से छुआ। इसका आभास उसे हुआ और पहचानने पर उसे मालूम हुआ कि जंगल के सिरे पर लगा हुआ एक प्राचीन खम्भा था ।

'यह लो पीटर-अब हम घर आ पहुँचे ।'

अक्समात् बुढ़िया को यह अनुभव हुआ मानों कोई उसके साथ साथ आ रहा है । वह अन्धकार में न तो उसे देख ही पाती थी और न उसकी आहट बरफ में सुन ही पाती थी। डर के मारे वह गाड़ी के साथ जोर से चिपक गई और उस ओर मुख फेरा जिधर उसे किसी अज्ञात व्यक्ति के साथ-साथ चलने का आभास होता था । उसने अपनी भुजाएँ उधर बढ़ाईं, परन्तु सिवाय हवा के और कुछ न पकड़ सकी । उसे अपने आप पर हंसी आ गई। इन सब के होते हुए भी उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसकी छाती किसी भारी बोझ से दबी जा रही है और जो थोड़ी बहुत हवा बरफ़ में होकर उसके अन्दर पहुंचती है यह भी कोई और बांट लेता है। उसे ऐसा जान पड़ा जैसे कुछ पहले उसके एक कन्धे पर आकर गिरा और फिर दूसरे पर वे सिवाय इसके कि किसी के दो हाथ उसके कन्धों पर आकर पड़े हों और हो भी क्या सकता है ? उसका सारा शरीर थर-थर कांपने लगा; उसने गाड़ी छोड़ दी; वह झपट कर आगे बढ़ी और उसने घोड़े को छूना चाहा, केवल यह जानने के लिये कि कोई जान-पहचान की जीवित वस्तु उसके पास है भी या नहीं । घोड़ा अपनी धीमी चाल से चल रहा था। उसे ऐसा मालूम होता था मानों मुसीबत का पहाड़ अब टल चुका है और घर अनकरीब आ गया है। बुढ़िया को वह अज्ञात व्यक्ति फिर पास में प्रतीत होने लगा । उसे साफ साफ यह मालूम होने लगा कि वे हाथ जो पहले उसके कन्धों पर पड़े थे वे अब नीचे उतर रहे हैं और वे सारे शरीर को जकड़ते जा रहे हैं। फलस्वरूप वह अब न खड़ी हो सकेगी और न अपनी टांगे ही हिला सकेगी ।

वह बांई ओर अन्धकार में आँखें फाड़-फाड़ कर देखने लगी, पीछे गर्दन फेरने का उसे साहस न हुआ। वह बरफ की तरह जम रही थी; उसे ऐसा मालूम होता था मानों उसके दिल पर एक बड़ा पत्थर का टुकड़ा रख दिया गया है और वह धीरे-धीरे आकार में बढ़कर नीचे की ओर फैलता जा रहा है और कुछ समय में उसके सारे शरीर को दबोच लेगा । बड़ी हिम्मत बांधकर उसने अपने ओंठ खोले और चिल्लाकर कहा, "कौन है ?"

परन्तु उसके आसपास कुछ था ही नहीं । तार के खम्भों और तारों की हमेशा होने वाली झन-झन की आवाज़ भी बरफ़ के शोर में दब चुकी थी । ओह, यह कैसा पागलपन ! वह इतनी मूर्ख कैसे बनी ? यह तो केवल कल्पनामात्र थी, यह वह अच्छी तरह जानती थी; उसके आसपास कोई भी न था; वह तो उसके शरीर के अन्दर था — वही भारी बोझ । उसकी जोर से बोलने की आदत अब जाती रही थी; वह केवल अपने भय को मूर्त रूप देने के लिये थोड़े-थोड़े ओंठ शीघ्रता से हिला रही थी।

उसे एक आवाज भी सुनाई दी जैसे कोई उसके कोट से बरफ़ झाड़ रहा था। उसने चिल्लाना चाहा, परन्तु गले से उसके कोई शब्द न निकला । अपनी सम्पूर्ण शक्ति एकत्रित करते हुए उसने अपना चाबुक तलाश किया, उसे उठाया, और जोर के साथ बांई ओर दे मारा।

अक्समात् सारे शरीर में उसे पसीना आ गया । भला इसका क्या कारण ? स्पष्ट शब्दों में उसने क्रोधपूर्ण स्वर सुना, "शैतान, इस बरफ़ को यहां से हटा ।"

अपनी बची-खुची सारी शक्ति समेट कर उसने भारी बोझ को एक तरफ फेंका और लालटेन को दांयें, बांयें और पीछे को घुमाकर देखा । उसे घास सड़क के किनारे पर लगा हुआ दिखाई दिया । उसे खाइयां और उसके आगे खुला मैदान बरफ़ से ढका हुआ दिखलाई पड़ा; न कोई झाड़ी नज़र आती थी और न कोई वृक्ष, वह जंगल से निकल चुकी थी; जंगल अब पीछे छूट चुका था; अब उसे पहाड़ी से नीचे उतरना शेष रहा था, और उसके बाद बस उसका घर था - अर्थात् रेल से पूर्व । उसने एक बार फिर लालटेन आगे हांकने वाली जगह पर रख दी और सामने धुंधलेपन में से मन्द मन्द प्रकाश आता हुआ उसे दिखाई दिया । यह तीसरा गांव था जिसके मकान सड़क के पिछवाड़े में थे ।

परन्तु उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानों वह उस आनन्द में हिस्सा नहीं बँटा सकती। भारी बोझ फिर उसके ऊपर आ गया, वह उसे हटा नहीं सकी, वह वज़न में और भी बढ़ गया। उसका चेहरा मुर्झा गया। उसे स्पष्ट दीखने लगा, वह भली प्रकार समझ गई। कि किसी वस्तु ने उसे आ घेरा है - यह वही वस्तु थी जो उसकी मां के पास भी आई थी। उसके सामने मृत्यु मुंह बाये खड़ी थी । जिस शक्ति को पहले वह गाड़ी के ढकेलने में लगा रही थी अब बिल्कुल नष्ट हो चुकी थी । वह अब आगे नहीं बढ़ सकी; उसके लिये अब वहीं लेटना और मरना बदा था। बरफ़ के ऊपर तो वह बाज़ी मार ले गई थी परन्तु अब जिस चीज का उसे सामना करना था वह उससे बहुत शक्तिशाली थी, वह उस पर काबू नहीं पा सकी, उसे संग्राम से हटना ही पड़ेगा, वह अपने वचनों पर दृढ़ नहीं रह सकी उसका शत्रु, एंजिन अब उससे पहले वहां पहुंच जायेगा।

वह गाड़ी के नज़दीक बरफ़ में गिर पड़ी और शान्त लेट गई।

परन्तु घोड़ा ! उसने अपनी गर्दन उठाई, हिनहिनाया, और ! पूंछ हिलाते हुए तेजी के साथ आगे बढ़ने लगा। घोड़े को मालूम होता था, अस्तबल की गन्ध आ गई थी। जब बुढ़िया हारकर बैठ गई, घोड़े ने कदम बढ़ाया । लगातार हिनहिनाते हुए वह अपनी गर्दन ऊपर-नीचे करता रहा मानों वह बुढ़िया को अपने पास बुला रहा हो।

घोड़े के इस प्रयत्न पर बुढ़िया पहले उठकर बैठी, और फिर उसने अपने वज़नी पैरों के सहारे से धीरे-धीरे आगे बढ़कर गाड़ी को पकड़ लिया । वह गाड़ी के साथ लटक गई, और धीरे-धीरे हाथों और घुटनों के सहारे कुर्सियों वगैरह को पार करती हुई लालटेन के पास पहुंच कर कोचवान की जगह से बरफ हटाकर बैठ गई। उसने शाल मज़बूती से अपने सिर पर कस लिया, चाबुक को अपने कड़े हुए हाथ में ले लिया और वहां जम कर बैठ गई । गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ती गई ।

"पीटर, तू ठीक कहता है, मैं भी नहीं मरूंगी। पीटर, चलता चल; हम अवश्य ही वहां पर पहले पहुंचेंगे ।"

उसने अपनी गर्दन सारस की तरह बाहर निकाल ली। वह बरफ़ में से चिल्लाती जाती थी, "बढ़ते चलो, पीटर, बढ़ते चलो", और घोड़ा कदम आगे बढ़ाता जाता और हिनहिनाता जाता था ।

अन्तिम गांव के सराय वाले को ऐसा मालूम हुआ कि बाहर से कोई आवाज आई है । वह लैम्प के पास बैठे हुए अपने महमानों को वहीं छोड़कर मेज पर से उठा और बाहर सड़क पर पहुंच गया ।

वास्तव में वहां एक गाड़ी खड़ी थी । "ओह ! तुम ? क्या सचमुच वापिस आ पहुँची ?"

छोटे कद का आदमी होने के कारण उसने पायदान पर पैर रखा और बरफ से ढकी हुई लालटेन को हाथ में उठाकर उसके सामने किया वहां सिवाय बरफ़ के ढेर के और कुछ था ही नहीं । अवश्य, नीचे की ओर नीले कपड़े का एक टुकड़ा दिखलाई दे रहा था। सराय के मालिक ने बरफ हाथ से एक ओर हटाई और बुढ़िया के पञ्जरवत् मुख को, जो पहले कभी भूरे रंग का हुआ करता था, परन्तु अब बरफ़ की तरह सफेद रंग का हो गया था, छुआ ।

वह औरत की तरह जोर से चिल्लाया और नीचे उतरकर खिड़की से जा टकराया ।

दूर से रेलगाड़ी की घर्र-घर्र की आवाज़ सुनाई दी। वह बड़ी तेजी से भागी चली आ रही थी ताकि समय पर वहां पहुँच सके। ज्यों ही एंजिन घरों के पास से गुज़रा उसने जोर के साथ सीटी मारी, मानों वह बुढ़िया की गाड़ी अपने से पहले वहां पाकर गुस्से में भर गया हो, और स्वयं बड़ी देर से वहां पहुँचा हो ।

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