थैंक्यू सर (कहानी) : प्रकाश मनु
Thankyou Sir (Hindi Story) : Prakash Manu
1
अचानक ही वह प्रिंसिपल मनचंदा से टकरा गया था।
कॉलेज का स्पोट्र्स टूर्नामेंट चल रहा था और आज उसका फाइनल डे था। इस समापन-समारोह की अध्यक्षता राज्य के मंत्री महोदय बोधासिंह बिद्दू को करनी थी। अच्छी-खासी दान-राशि कालेज को मिलने की संभावना थी। प्रिंसिपल मनचंदा का नाम-वाम भी होता। पर यह साला मौसम भट्ठा बैठाने पर तुला है।
बारिश, बेवक्त-बेमौसम!...
प्रिंसिपल मनचंदा बेचैनी से बरामदे में टहल रहे थे।
मंत्री महोदय बोधासिंह बिद्दू तक वे दो-चार जैक यानी जुगाड़-तुगाड़ लगाकर पहुँच तो गए थे और उनकी ‘हाँ’ भी ले आए थे, मगर ससुर ये बादल...!
उनका बस चलता तो अपनी तर्जनी को बंदूक की तरह बादलों की ओर तानकर ‘शूट’ कर देते! पर...
पर लाचार थे। इसलिए तर्जनी से बार-बार माथा घिस रहे थे।
यही वह क्षण था, जब उसने यानी भास्कर आनंद ने उन्हें अकेला देखा तो सहानुभूति जताने के लिए पास आ गया। चेहरे पर ऐसी विनम्रता चस्पाँ करके, जिससे दुनिया भर के नौकरीपेशा गुलाम अलग पहचान में आते हैं।
“यह तो सर...कुछ अजीब ही मौसम हो गया जी!” कहने के बाद उसे लगा ‘कुछ’ पर जोर ज्यादा ही पड़ा गया है और बाद का ‘जी’ फालतू बोला गया।
प्रिंसिपल मनचंदा उसी तरह अनमने से बरामद में टहलते रहे—बेचैन, निर्वाक! क्या इन्होंने सुना, जो मैंने कहा?...या शायद नहीं सुना।
वह बिना बात नर्वस हो गया।
शब्द साथ छोड़ गए। होंठों पर केवल हिस्स...हिस्स!
फिर हिम्मत बाँधकर उसने कहा, “सर...लगता है बारिश रुक जाएगी।”
2
प्रिंसिपल मनचंदा की नजरें अब उस पर पड़ीं, “अच्छा, अच्छा देखो तो मिस्टर आनंद, जरा आसमान की ओर देखकर बताओ, यह कितनी देर तक ऐसा ही बरसोगा।”
अपनी आज्ञा को उन्होंने किंचित मुलायम स्वर में ढालकर कहा था। एक ऐसा अंदाज जिसे दुनिया भर के ‘मालिक’ खुद ब खुद सीख लेते हैं। उन्हें कहीं से सीखना नहीं पड़ता।
यह एक अवसर था—अवसर! उसने पहचानने में देर नहीं की।
फिर वह यंत्रचालित सा बरामदे के बाहर आया था। आधे मिनट तक नजरें टिकाए बेवकूफ-सा आसमान को घूरता रहा था। पूरा भीग गया था वह। पर इतनी देर में उसने सोच लिया था कि क्या कहना है।
वापस आकर उसने उगलना शुरू किया जैसे कोई जोकर मुँह से ‘छल्ले’ उगलता है। बोला, “सर, लगता है कि ज्यादा देर नहीं बरसेगा, यही...यही कोई आधा घंटा। पानी रुक जाएगा सर...! हाँज्जी, सर। और अगर न भी रुके तो सर, कोई ज्यादा तेजी से यह नहीं पड़ेगा। यानी कार्यक्रम कुछ लेट भी हो सकता है, लेकिन कार्यक्रम होगा जरूर—और शान से। इट वुड भी ए सक्सेज सर! एंड मंत्री महोदय मि. बोधासिंह बिद्दू विल भी एक्सट्रीमली हैप्पी! आई टेल यू सर, आई टेल यू...आई होप!”
दिल, दिमाग और उम्मीद के टूटे हुए पंखों की पूरी ताकत लगाकर वह बोलता गया। बोलता गया...बोलता गया।
...पंखकटा कबूतर!
गुटूर-गुटुर-गूँ...गुटुर-गूँ...गुटुर-गूँ!
हालाँकि जितनी तेजी से वह बोल रहा था, उतनी ही तेजी से भीतर कोई चिल्ला रहा था, ‘जोकर! जोकर...जोकर!...सर्कस का जोकर!’
और फिर से उसे नजर आया—मुँह से छल्ले निकालता जोकर! जलती आग के बीच से कूदता जोकर!
जोकर...! जोकर...! जोकर...!
“अच्छा, अच्छा...! अब तुम अंदर आकर बैठो।” अचानक प्रिंसिपल मनचंदा फिर तटस्थ हो आए थे।
पता नहीं, उनके चेहरे पर क्या-क्या आकर क्या-क्या चला गया था। कहाँ-कहाँ चला गया था?
डब्बा...बंद डबलरोटी!
“सर...सर वो मेरा कन्फर्मेशन!” उसने फिर से जरा ढक्कन खोलने की कोशिश की।
“अच्छा, अच्छा। सोचेंगे...”
“थैंक्यू सर!” उसने थूक निगलते हुए कहा।
3
वहाँ से आकर पंडाल में एक कुर्सी खींचकर वह बैठा, और अपने सुन्न हुए हाथ-पैरों को झटककर चेताने लगा।
आरामकुर्सी में धँसा हुआ वह सोच रहा था, “स्याला पानी बरसे, न बरसे, ऐसी तैसी में जाए आकाश और बादल! अपन ससुर कोई मौसम विज्ञानी नहीं हैं। पर...लेकिन हाँ, किसी तरह बची रहे मेरी नौकरी...ओ प्रभु!!”
और अचानक वह झाड़ी के पीछे एक ‘सेफ’ कोने में निकल गया।
उसके भीतर का जोकर अब खुलकर हँस रहा था—हा-हा-हा...! उसे लगा, कहीं हँसते-हँसते यह पागल न हो जाए!