थाली का बैंगन (कहानी) : कृष्ण चन्दर
Thali Ka Baingan (Story in Hindi) : Krishen Chander
तो जनाब जब मीरमपुर में मेरा धंदा किसी तौर न चला, फ़ाक़े पर फ़ाक़े होने लगे और जेब में आख़िरी अठन्नी रह गई तो मैंने जेब में से आख़िरी अठन्नी निकाल कर उसे देते हुए कह, "जा बाज़ार से बैंगन ले आ, आज चपाती के साथ बैंगन की भाजी खा लेंगे।"
वो नेक बख़्त बोली, "इस वक़्त तो खा लेंगे, शाम के खाने का क्या होगा?"
"तू फ़िक्र न कर, वो ऊपर वाला देगा।" वो बाज़ार से बैंगन ले आई। रसोई में बैठ कर उसने पहला बैंगन काटा ही था कि उसे अंदर से देखकर ठिठक गई। "अरे..." उसके मुँह से बेइख़्तियार निकला।
"क्या है?" मैं रसोई के अंदर गया, उसने मुझे कटा हुआ बैंगन दिखाया, "देखो तो इसके अंदर क्या लिखा है?"
मैंने ग़ौर से बैंगन देखा। बैंगन के अंदर बीज कुछ इस तरह एक दूसरे से जुड़ गए थे कि लफ़्ज़ अल्लाह साफ़ दिखाई दे रहा था। "हे भगवान..." मैंने अपने माथे पर हाथ रखकर कहा, "ये तो मुसलमानों का अल्लाह है। मुहल्ला पुरबयाँ जहां मैं रहता था, मिला-जुला मुहल्ला है यानी आधी आबादी हिंदूओं की और आधी मुसलमानों की है। लोग जोक़ दर जोक़ उस बैंगन को देखने के लिए आने लगे। हिंदूओं और मसीहियों को तो उस बैंगन पर यक़ीन न आया लेकिन हाजी मियां छन्नन उस पर ईमान ले आए और पहली नज़र-नयाज़ उन्होंने ही दी। मैंने उस कटे हुए बैंगन को शीशे के बक्स में रख दिया । थोड़ी देर में एक मुसलमान ने उस के नीचे हरा कपड़ा बिछा दिया। मनन मियां तंबाकू वाले ने क़ुरआन ख़्वानी शुरू कर दी। फिर क्या था शहर के सारे मुसलमानों में उस बैंगन का चर्चा शुरू हो गया। जनाब! समतिपुरा से मैमन पुरा तक और हिजवाड़े से कमानीगढ़ तक और अध टीला मियां के चौक से लेकर मुहल्ला कोठियारां तक से लोग हमारा बैंगन देखने के लिए आने लगे। लोग-बाग बोले एक काफ़िर के घर में ईमान ने अपना जलवा दिखाया है। नज़र-नयाज़ बढ़ती गई। पहले पंद्रह दिनों में सात हज़ार से ऊपर वसूल हो गए। जिसमें से तीन सौ रुपये साईं करम शाह को दिये जो चरस का दम लगा कर हर वक़्त इस बैंगन की निगरानी करता था। पंद्रह-बीस दिन के बाद जब लोगों का जोश ईमान ठंडा पड़ता दिखाई दिया तो एक रात मैंने आहिस्ते से अपनी बीवी को जगाया और मैंने कटे हुए बैंगन का रुख ज़रा सा सरकाया और पूछा, "अब क्या दिखाई देता है?"
"ओम, अरे ये तो ओम है।" मेरी बीवी ने उंगली ठोढ़ी पर रख ली। उसके चेहरे पर इस्तिजाब था।
रातों रात मैंने पण्डित राम दयाल का दरवाज़ा खटखटाया और उसे बुला कर कटे हुए बैंगन का बदला हुआ रुख दिखाया। पण्डित राम दयाल ने चीख़ कर कहा, "अरे ये तो ओम है, ओम। इतने दिनों तक मुसलमानों को धोका देते रहे।"
बस फिर क्या था सारे शहर में ये ख़बर आग की तरह फैल गई कि कटे हुए बैंगन के अंदर दरअसल ओम का नाम खुदा हुआ है। अब पण्डित राम दयाल ने उस पर क़बज़ा जमा लिया। रात-दिन आरती होने लगी। भजन गाय जाने लगे, चढ़ावा चढ़ने लगा। मैंने राम दयाल का हिस्सा भी रख दिया था कि जो मेहनत करे उसे भी फल मिलना चाहिए, लेकिन बैंगन पर मिल्कियत मेरी ही रही। अब शहर के बड़े बड़े संत जोगी और शुद्ध महात्मा और स्वामी इस बैंगन को देखने के लिए आने लगे, शहर में जा ब जा लेक्चर हो रहे थे। हिंदू धर्म की फ़ज़ीलत पर धुआँदार भाषण दिए जा रहे थे। पच्चीस दिनों में कोई पंद्रह बीस हज़ार का चढ़ावा चढ़ा और सोने की अँगूठीयां और सोने का एक कंगन भी हाथ आया लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता लोगों का ख़ुमार फिर ढलने लगा। तो जनाब! मैंने सोचा अब कोई और तरकीब लड़ानी चाहिए। सोच सोच कर जब एक रात मैंने अपनी बीवी को जगा कर मैंने ओम का ज़ावीया ज़रा सा और सरका दिया! और पूछा, "अब बता क्या दिखाई देता है?" वो देखकर घबरा गई। मुँह में उंगली डाल कर बोली, "हे राम ये तो ईसाईयों की सलीब है।"
"श...श..." मैंने अपने होंटों पर उंगली रखते हुए कहा, "बस किसी से कुछ न कहना। कल सुबह मैं पादरी ड्योरोंड से मिलूँगा। कटे हुए बैंगन में मसीही सलीब को देखने के लिए पादरी ड्योरोंड अपने साथ ग्यारह ईसाईयों को ले आए और बैंगन की सलीब देखकर अपने सीने पर भी सलीब बनाने लगे और ईसाईयों के भजन गाने लगे और सर पर जाली दार रूमाल ओढ़े ख़ूबसूरत फ़्राक पहने सुडौल पिंडलीयों वाली औरतें इस मोजज़े को देखकर निहाल होती गईं। शहर में तनाव बढ़ गया। हिंदू कहते थे इस बैंगन में ओम है, मुसलमान कहते थे अल्लाह है, ईसाई कहते थे सलीब है। बढ़ते-बढ़ते एक दूसरे पर पत्थर फेंके जाने लगे। इक्का दुक्का छुरे बाज़ी की वारदातें होने लगीं। समतिपुरा में दो हिंदू मार डाले गए और मिस्त्री मुहल्ले में तीन मुसलमान। एक ईसाई शहर के बड़े चौक में हलाक कर दिया गया। शहर में दफ़ा 144 नाफ़िज़ कर दी गई। जिस दिन मेरी गिरफ़्तारी अमल में आने वाली थी उससे पहले दिन की रात मैंने बैंगन को मोरी में फेंक दिया। घर का सारा सामान बांध लिया और बीवी से कहा, "किसी दूसरे शहर चल कर दूसरा धंदा करेंगे।"
"तो जनाब! तब से मैं बंबई में हूँ। मीरमपुर के इन दो महीनों में जो रक़म मैंने कमाई थी उससे एक टैक्सी ख़रीद ली है। अब चार साल से टैक्सी चलाता हूँ और ईमानदारी की रोज़ी खाता हूँ।" इतना कह कर मैंने मेज़ से अपना गिलास उठाया और आख़िरी घूँट लेकर उसे ख़ाली कर दिया। यकायक मेरी निगाह मेज़ की उस सतह पर गई जहां मेरे गिलास के शीशे के पेंदे ने एक गीला निशाँ बना दिया था मैंने अपने दूसरे साथी टैक्सी ड्राईवर मुहम्मद भाई से कहा, "मुहम्मद भाई, देखो तो इस गिलास के पेंदे के नीचे जो निशान बन गया है ये ओम है कि अल्लाह?" मुहम्मद भाई ने ग़ौर से निशान को देखा, मुझे देखा फिर मेरी पीठ पर ज़ोर से हाथ मार कर कहा, "अबे साले! ये बंबई है, यहां ओम है न अल्लाह न सलीब। जो कुछ है रुपया है बस रुपया।" इतना कह कर मुहम्मद भाई ने मेज़ पर हाथ फेर कर पानी के निशान को हर्फ़-ए-ग़लत की तरह मिटा दिया।