ठग : बुंदेली लोक-कथा (मध्य प्रदेश)

Thag : Bundeli Lok-Katha (Madhya Pradesh)

एक ठग था पर कहीं उसे ठगी करने का अवसर ही नहीं मिल रहा। वह बहुत समय से फुरसत में बैठा विचार बना रहा था। बात समय की है, जब नोट नहीं, चाँदी के कल्दार चलन में थे और इन्हें कहीं सफर में साथ ले जाने के लिए कल्दार के नाप की पतली थैली बनाई जाती थी, जिसमें चाँदी के सिक्के भरकर कमर में बाँध लेते थे। उसको टाँची कहते थे। तो ठग ने मिट्टी के खपरे तोड़कर रुपया (कल्दार) के आकार में घिसकर टाँची में भर लिये थे और दोनों ओर किनारों पर दो-चार चाँदी के सिक्के लगा लिये। खाना-पीना खाकर वह राहगीरों को ठगने के लिए निकल पड़ा। उसे पूरा दिन हो गया तो हार - थककर एक वृक्ष की छाया में बैठ गया।

सामने से एक राहगीर सिर पर एक मिट्टी का घड़ा रखे हुए आ रहा था। उस वृक्ष के नीचे दूसरे यात्री को देखकर वह भी सुस्ताने के लिए बैठ गया। पहलेवाले यात्री ने उससे वार्त्तालाप प्रारंभ करते हुए उसकी राजी खुशी पूछी और फिर कहा कि भाई, इस मटकी में क्या लिये हो। तो दूसरे ने उत्तर दिया कि इस मटकी में शुद्ध देसी घी है। हमारे यहाँ घी- दूध का धंधा होता है, इसलिए इसको बेचने के लिए बाजार जा रहा हूँ। ठग ने कहा कि हमारे यहाँ भी दुकानदारी होती है। हम भी घी खरीदने के लिए जा रहे हैं। अगर आप को बेचना ही है तो मुझे दे दो। मैं तुम्हें इसके बदले कीमत देने को तैयार हूँ। दूसरा व्यक्ति मन-ही- -मन प्रसन्न हो रहा था कि सौदा यहीं तय हो गया तो अच्छी बात है। घी वाले ने कहा कि चलो किसी नजदीक के गाँव में चलकर नाप-तौल कर देंगे। यहाँ हमारे पास नाप-तौल करने के बाट- बरतन नहीं हैं। तब ठग व्यक्ति ने कहा कि देखो भाई, सफर में चलते-चलते काफी थक गए और घर भी वापस लौटना है। तुम ईमानदारी से इसकी तौल बता दो। उसी अनुसार हम तुम्हें कीमत दे दें। घी वाला बोला कि मटकी में घी मेरी पत्नी ने शाम को भरकर रख दिया था। सुबह चलते समय वजन तो पूछ नहीं पाया हूँ। मटकी का वजन देखकर अनुमान कर लो। ठग ने मटकी दोनों हाथों से उठाकर देखी, पूरी घी से भरी हुई थी। वजन का अंदाजा लगाया, देसी घी की महक देखी, उँगली पर लेकर अँगूठे से मलकर नाक से लगाया, देसी घी की खुशबू, वह मन ही मन प्रसन्न हो रहा था। ठग ने कहा कि सौदा पक्का है, अब अपने रुपए गिन लो और कमर से उसने टाँची खोली। फिर इधर-उधर जंगल, झाड़ियों की ओर झाँककर बोला, ले भाई, शीघ्रता से रुपया सावधानी से गिन ले। कहीं चोर डाकू आ गए तो सब लूट ले जाएँगे।

घीवाले ने कहा, यह बात तो सही है। ऐसा करते हैं कि नफा- नुकसान भगवान् भरोसे छोड़, तुम अपनी टाँची मुझे दे दो और घी की मटकी ले जाओ। दोनों के मन में प्रसन्नता थी। अब सूर्यास्त भी होने जा रहा था। सो ठग ने टाँची उसे दे दी। घीवाले ने टाँची का मुँह खोला, दोनों ओर से देखा, चाँदी के सिक्के थे। वह आश्वस्त हो गया और टाँची अपनी कमर में बाँध ली, दोनों ने राम-राम, दुआ सलाम किया और शीघ्रता से अपने घरों की ओर चल दिए। दोनों लोग अपने सौदे से अति प्रसन्न थे। घर पहुँचकर उसने मटकी रख दी और दूसरे ने टाँची खोलकर रख दी। शाम को भोजन के पश्चात् दोनों ने अपनी घरवालियों को 'खुशी-खुशी सौदा पटने की बात सुनाई और कहा कि कल देखेंगे।

प्रात: पति-पत्नी अपनी सफलता पर प्रसन्न थे। उन्होंने रकम गिनने के लिए टाँची खोली, तो मात्र दो-चार चाँदी के सिक्के थे। बाकी सब मिट्टी के टूटे बरतनों से घिसकर बनाए गए नकली सिक्के थे । पत्नी दुःखी होने के बजाय खुश होकर बोली- मैंने ही मटकी में कौन सा देसी घी भरा था।

उधर पति-पत्नी खुशी-खुशी मटकी से घी निकालने लगे। मटकी में ऊपर तो घी की परत जमी थी, नीचे किया तो गोबर और मिट्टी में उसका हाथ चला गया। मटकी में नीचे बिल्कुल घी नहीं था । यह देखकर ठग की पत्नी रोने लगी, तब ठग बोला, चुप हो जा भागवान, मैंने ही टाँची में कौन से रुपए भरे थे। पर यह तो मुझसे भी बड़ा ठग निकला !

(साभार : एम.डी. मिश्रा 'आनंद')

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