टेसू और झेंझी का प्रेम विवाह : उत्तर प्रदेश की लोक-कथा
Tesu Aur Jhenjhi Ka Prem Vivah : Lok-Katha (Uttar Pradesh)
यह तो किसी को नहीं मालूम कि टेसू और झेंझीं के विवाह की लोक परंपरा कब से पड़ी पर यह अनोखी, लोकरंजक और अद्भुद है परंपरा बृजभूमि को अलग पहचान दिलाती है,जो बृजभूमि से सारे उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड तक गांव गांव तक पहुंच गई थी जो अब आधुनिकता के चक्कर में और बड़े होने के भ्रम में भुला दी गई है।इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो पता चलता है कि यह परंपरा महाभारत के बीत जाने के बाद प्रारम्भ हुई होगी।क्योंकि यह लोकजीवन में प्रेम कहानी के रूप में प्रचारित हुई थी इसलिए यह इस समाज की सरलता और महानता प्रदर्शित करती है। एक ऐसी प्रेम कहानी जो युद्ध के दुखद पृष्ठभूमि में परवान चढ़ने से पहले ही मिटा दी गई।यह महा पराक्रमी भीम के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की कहानी है जो टेसू के रूप में मनाई जाती है ।नाक, कान व मुंह कौड़ी के बनाए जाते हैं।
जिन्हें लड़कियां रोज सुबह पानी से उसे जगाने का प्रयास करती हैं। विवाह के बाद टेसू का सिर उखाड़ने के बाद लोग इन कौड़ियों को अपने पास रख लेते हैं। कहते हैं कि इन सिद्ध कौड़ियों से मन की मुरादें पूरी हो जाती हैं।
विजयादशमी के दिन से शुरू होकर यह शादी का उत्सव यद्यपि केवल पांच दिन ही चलता है और कार्तिक पूर्णिमा को शादी सम्पन्न हो जाने के साथ ही समाप्त हो जाता है किंतु हैम उम्र बच्चे इसकी तैयारी पूरी साल करते हैं।कानपुर से लेकर झांसी तक और कानपुर से उरई होते हुए इटावा तक और बृजभूमि से राजस्थान के कुछ गांवों में होती हुई मुरैना में यह प्रथा घुसती है और भिण्ड होते हुए दोनों ओर से बुंदेली धरती पर परंपरागत रूप से टेसू गीत गूंजने लगता थे। अपने कटे सिर से महाभारत को देखने वाले बर्बरीक की अधूरी प्रेम कहानी को पूरा कराकर भविष्य के नव जोड़ों के लिए राह प्रशस्त करने की ब्रज क्षेत्र में प्रचलित टेसू झांझी की परंपरा को मध्य उत्तर प्रदेश और बुंदेलखंड की धरती सहेज रही है। कहीं बाकायदा कार्ड छपवाकर लोगों को नेह निमंत्रण दिया जाता है तो कहीं आज भी बैंड बाजा के साथ बरात पहुंचती है और टेसू का द्वारचार के साथ स्वागत किया जाता है। कहीं झांझी, कहीं झेंझी तो कहीं झिंझिया या झूंझिया, अलग-अलग नाम से जानी जाने वाली इस परंपरा का भाव समान है। टेसू-झांझी के विवाह के बाद ही इस क्षेत्र में शहनाई बजने की शुरुआत होती है।
ब्रज के घर-घर में टेसू झांझी के विवाह की मनाई जाने वाली परंपरा का उल्लास औरैया के दिबियापुर में भी पालन होता है। यहां टेसू झांझी के विवाह में सारी रस्में निभाई जाती हैं। लोग मिलकर टेसू और झांझी तैयार करते हैं। बाकायदा कार्ड छपवाया जाता है। जनाती होते हैं, बराती होते हैं। बैंड बाजा लेकर टेसू की बारात इलाके में घूमती है और बाराती नाचते हुए झांझी के घर पहुंचते हैं। टेसू का द्वारचार से स्वागत होता है। विवाह की रस्म की जाती है। झांझी की पैर पुजाई होती है। इसके बाद कन्यादान किया जाता है। झांझी की ओर से आए लोग व्यवहार लिखाते हैं। प्रीतिभोज भी दिया जाता है।
एक दौर था जब गांव में छोटे छोटे बच्चे - बच्चियां टेसू-झांझी लेकर घर-घर से निकलते थे और गाना गाकर चंदा मांगते थे। इसके लिए टेसू झांझी समिति बनाई। हर साल कोई एक परिवार झांझी के लिए जनाती बनता और एक परिवार टेसू की तरफ से बराती। कुछ इलाकों में शरद पूर्णिमा के दिन बृहद स्तर पर आयोजन होते । गांव-कस्बा, हर जगह आयोजन होता है। ट्रैक्टरों से बारात निकलती है। शहर में रथ व कारों के काफिले की बारात होती है। लोग यह भी मानते हैं कि अगर किसी लड़के की शादी में अड़चन आ रही है तो तीन साल झांझी का विवाह कराए, लड़की की शादी में दिक्कत आ रही है तो टेसू का विवाह कराने का संकल्प लेते हैं। कुंभकार ही टेसू झांझी बनाते हैं और लोग उनसे ले जाते हैं। इसके बाद शरद पूर्णिमा को झांझी की शोभायात्रा निकाली जाती है। दशहरा पर रावण के पुतले का दहन होते ही, बच्चे टेसू लेकर निकल पड़ते हैं और द्वार-द्वार टेसू के गीतों के साथ नेग मांगते हैं, वहां लड़कियों की टोली घर के आसपास झांझी के साथ नेग मांगने निकलती थे।
अब समय के साथ बदलाव आया है। अब कम लोग ही इस पुरानी परंपराओं को जीवित रखे हुए हैं। कानपुर देहात के ग्रामीण इलाके हों या फिर शहरी, यहां सामूहिक आयोजन भले न हो लेकिन घर-घर में टेसू झांझी का विवाह होता था। मान्यता थी कि इस विवाह के बाद अन्य वैवाहिक कार्यक्रमों में कोई अड़चन नहीं आती। शरद पूर्णिमा की रात में मनाए जाने वाले इस विवाह समारोह में महिलाएं मंगलगीत गाती थीं। किवदंती हैं कि भीम के पुत्र घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक को महाभारत का युद्ध देखने आते समय झांझी से प्रेम हो गया। उन्होंने युद्ध से लौटकर झांझी से विवाह करने का वचन दिया, लेकिन अपनी मां को दिए वचन, कि हारने वाले पक्ष की तरफ से वह युद्ध करेंगे के चलते वह कौरवों की तरफ से युद्ध करने आ गए और श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उनका सिर काट दिया। वरदान के चलते सिर कटने के बाद भी वह जीवित रहे। युद्ध के बाद मां ने विवाह के लिए मना कर दिया। इस पर बर्बरीक ने जल समाधि ले ली। झांझी उसी नदी किनारे टेर लगाती रही लेकिन वह लौट कर नहीं आए।
इधर "टेसू अटर करें, टेसू मटर करें, टेसू लई के टरें... यह गाना गाते हुए लड़कों की टोली उधर झांझी के विवाह की तैयारियों में जुटे किशोरियाँ भी झेंझीं गीत गातीं प्रयास किये जाते कि शादी से पहले झेंझी के एक झलक किसी भी प्रकार से टेसू को मिल जाएं।पर मजाल क्या की लड़कियां यह सब होने देतीं। दशहरा मेला में लड़कियां झांझी और लड़के टेसू के नाम की मटकी खरीदकर लाते थे। झांझी कन्या के रूप में टेसू को राजा के रूप में रंग कर टेसू वाली मटकी में अनाज भर कर एक दीया जलाते थे और घर घर जाकर अनाज और धन इकट्ठा करते थे। लोग बच्चों को इस आयोजन में खुले दिल से सहयोग करते और विवाह की रात पूरा साथ देते थे। सामाजिक सद्भाव नक यह परवे था। हर घर का अनाज और पैसा एक साथ मिलकर एक हो जाता है। न कोई ऊंचा न कोई नीचा। लड़कियों में अजब उल्लास रहता था तो लड़कों में भी। लड़कियों को भी उतना ही सहयोग दिया जाता था, जितना लड़कों को। गांव के बड़े लोग शामिल होते थे। कुछ लोग बराती बनते थे, कुछ लोग जनाती। फिर दशहरा से लेकर चतुर्दशी तक तैयारी चलती थी। रात में स्त्रियां और बच्चे इकट्ठा होते थे। नाच गाना होता था। बरात आती थी। खील, बताशे, रेवड़ी बांटी जाती थी।आतिशबाजी होती और फिर अंगले वर्ष के लिए यह समारोह चला जाता।
अड़ता रहा टेसू, नाचती रही झेंझी : - 'टेसू गया टेसन से पानी पिया बेसन से...', 'नाच मेरी झिंझरिया...' आदि गीतों को गाकर उछलती-कूदती बच्चों की टोली आपने जरूर देखी होगी। हाथों में पुतला और तेल का दीपक लिए यह टोली घर-घर जाकर चंदे के लिए पैसे मांगती है। कोई इन्हें अपने द्वार से खाली हाथ ही लौटा देता है, तो कहीं ये गाने गाकर लोगों का मनोरंजन करते हैं।
ऐसे होता है विवाह :- टेसू-झेंझी नामक यह खेल बच्चों द्वारा नवमी से पूर्णमासी तक खेला जाता है। इससे पहले 16 दिन तक बालिकाएं गोबर से चांद-तरैयां व सांझी माता बनाकर सांझी खेलती हैं। वहीं नवमी को सुअटा की प्रतिमा बनाकर टेसू-झेंझी के विवाह की तैयारियों में लग जाती हैं। पूर्णमासी की रात को टेसू-झेंझी का विवाह पूरे उत्साह के साथ बच्चों द्वारा किया जाता है। वहीं मोहल्ले की महिलाएं व बड़े-बुजुर्ग भी इस उत्सव में भाग लेते थे। प्रेम के प्रतीक इस विवाह में प्रेमी जोड़े के विरह को बड़ी ही खूबसूरती से दिखाया जाता है।
हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार लड़के थाली-चम्मच बजाकर टेसू की बारात निकालते हैं। वहीं लड़कियां भी शरमाती-सकुचाती झिंझिया रानी को भी विवाह मंडप में ले आती हैं। फिर शुरू होता है ढोलक की थाप पर मंगल गीतों के साथ टेसू-झेंझी का विवाह। सात फेरे पूरे भी नहीं हो पाते और लड़के टेसू का सिर धड़ से अलग कर देते हैं। वहीं झेंझी भी अंत में पति वियोग में सती हो जाती है।
लोकपर्व टेसू : शिवचरण चौहान
टेसू पर्व भारत के कई प्रदेशों में विजयदशमी (दशहरे) के दूसरे दिन एकादशी से पूर्णिमा तक मनाया जाता है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, बिहार, मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में टेसू और झेंझी का पर्व मनाया जाता है और गीत गाए जाते हैं। गाँवों, कस्बों में शाम होते ही चाँद के निकलने के साथ बच्चों की टोलियाँ टेसू गीत गाते हुए निकल पड़ती हैं। बालिकाएँ सिर पर मिट्टी का छोटा घड़ा या करवा, जिसमें करीब एक दर्जन छेद होते हैं, जिसे कहीं झुँझिया तो कहीं झाँझी कहा जाता है, लेकर निकलती हैं। झुँझिया के भीतर कड़वे तेल का दीपक जलाकर रखा जाता है। लड़कियाँ नाचते-गाते झुँझिया गीत गाते हुए निकलती हैं। टेसू की तरह झुँझिया भी घर-घर जाती है और मंगल गीत गाए जाते हैं। चाँदनी रात में गाँव के खुले स्थान पर गाँव भर के बड़े-बूढ़े, बच्चे व लड़कियाँ इकट्ठा होते हैं, जहाँ पर टेसू राजा व झुँझिया रानी का विवाह कराया जाता है और रात में ही उन्हें गणेश प्रतिमाओं की तरह गंगा में विसर्जित कर दिया जाता है।
टेसू को मिट्टी से बनाया जाता है। कहीं-कहीं बाँस के टुकड़े में मिट्टी की एक छोटी मटकी बाँधकर उसके आँख, कान, नाक, मुँह तथा बड़ी-बड़ी मूँछें लगाकर टेसू बनाया जाता है। टेसू को कुरता-पाजामा पहनाया जाता है। कहीं-कहीं पैंट-शर्ट में सजे टेसू भी बनाए जाते हैं। इसके अलावा गत्ते व पुआल के टेसू भी बनाए जाते हैं। टेसू को कहीं-कहीं ‘गड़बड़ा’ भी कहते हैं। टेसू लड़कों की टोलियाँ निकालती हैं, जबकि झुँझिया लड़कियों के सिर पर चलती हैं। वैसे तो अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग टेसू गीत प्रचलित हैं। उत्तर प्रदेश में भोजपुरी, ब्रज, अवधी भाषा में जो टेसू गीत गाए जाते हैं, वे मिलते-जुलते हैं। भोजपुरी बच्चों की टोली चाँदनी रात में जब घर-घर टेसू को लेकर जाती है तो टोली के बच्चे गाते हैं—
टेसू हो तुम वामन वीर,
हाथ लिये सोने का तीर।
बजरंग बेटा खड़ा निशान,
बाएँ हाथ चला पहिचान॥
हरे बाग मा डेरा परिगा,
सब लोगों ने पूँछी बात।
कितना लोग तुम्हारे पास,
अस्सी पियादे, नौ असवार॥
कुछ क्षेत्रों में दूसरा टेसू गीत गाया जाता है—
इमली की जड़ से उड़ी पतंग,
नौ सौ मोती एकै रंग।
रंग-रंग की बनी कमान
बाणों से भरिगा खलिहान॥
भइया भइया कहाँ जइहौ?
पांडव जितावैं।
हथिया मारी लाता।
जाय परे गुजराता॥
करी कृष्ण कै सेवा।
गुर्जर कै दुई चार परेवा॥
टेसू के दुई-वार मजीरा।
दोऊ नाँचें गंगा तीरा॥
गंगा तीरे आई ताई।
चिकन बकरिया चिकवै जाई॥
कुछ कंजूस लोग जब बच्चों की टोली को चंदे के रूप धान, ज्वार, बाजरा, मक्का या पैसा नहीं देते हैं तो बच्चों की टोली गाने लगती है—
टेसू अचल करैं
टेसू मचल करैं।
टेसू लई कै टरैं॥
टेसू गीतों से लगता है कि टेसू कोई पराक्रमी योद्धा था, जो युद्ध के लिए जा रहा है। जनश्रुति के अनुसार पाँच पांडवों में भीम के पुत्र घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक को ही टेसू कहा गया है। महाबली भीम ने वनवास के दौरान एक राक्षसी हिडिंबा से विवाह किया था। हिडिंबा से एक पुत्र पैदा हुआ, जिसका नाम घटोत्कच था। घटोत्कच का ही पुत्र था ‘बर्बरीक’। कहते हैं, जब महाभारत का युद्ध शुरू होने जा रहा था तो घटोत्कच व बर्बरीक भी अपनी फौजें लेकर पांडवों के लिए पहुँचे। बर्बरीक बहुत बलवान्, किंतु घमंडी था। कहते हैं, वह युद्ध में शत्रु या मित्र जिसका भी पक्ष कमजोर देखता था, उसी की तरफ से युद्ध करने लगता था। श्रीकृष्ण बैठे महाभारत युद्ध की रणनीति तैयार कर रहे थे तो बर्बरीक की डींगें अर्जुन से बरदाश्त नहीं हुईं। उन्होंने गुस्से में आकर बर्बरीक का सिर काट दिया। बर्बरीक के कटे हुए सिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि वह उसे ऐसी शक्ति प्रदान करें, जिससे वह युद्ध देख व समझ सके। श्रीकृष्ण ने उसे दिव्य शक्ति प्रदान की तथा उसके सिर को बाँस में टँगवा दिया। जहाँ से वह पूरा युद्ध देख सके। महाभारत का युद्ध अठारह दिन तक चला। पांडव विजयी हुए। सभी डींगें हाँक रहे थे कि युद्ध उनके पराक्रम से जीता जा सका है। विवाद बढ़ा तो मामला श्रीकृष्ण तक पहुँचा। श्रीकृष्ण ने कहा, ‘‘सारा युद्ध बर्बरीक के सिर ने देखा है; उसी से निर्णय करा लो।’’
पाँचों भाई बर्बरीक के पास पहुँचे और निर्णय देने को कहा। बर्बरीक बोला, ‘‘घमंड बहुत बुरी चीज है, यदि मैं घमंड न करता तो मेरी यह हालत न होती। अब आप मेरा विवाह व अंतिम संस्कार कर मेरी आत्मा को शांति प्रदान करें।’’ युधिष्ठिर बोले, ‘‘तुम्हें उपदेश देने के लिए नहीं, निर्णय सुनाने को कहा गया है। निर्णय करो।’’
‘‘तो सुनो’’, बर्बरीक बोला, ‘‘तुम लोगों के पराक्रम से नहीं, युद्ध कृष्ण की नीति से जीता जा सका है। तुम नाहक अपने बल पर इतरा रहे हो!’’
कहते हैं कि यही बर्बरीक बाद में टेसू के नाम से जन-जन में लोकप्रिय हुआ और लोक जीवन में रच-बस गया। आज भी गाँवों, कस्बों में बच्चे, किशोर, युवक टेसू की आकृति, मूर्ति बनाकर टेसू यात्रा निकालते हैं और गीत गाते हैं। लड़कियाँ जगमगाती झुँझिया निकालती हैं और घर-घर जाकर गीत गाती हैं—
मैरी झुँझिया आउर माँगे, चाऊर माँगे।
सोलह शृंगार माँगे, बाँह भरे की चूड़ी माँगे॥
दोनों पग की बिछिया माँगे, नई-नई घाँघरिया मागे।
मेरी झुँझिया चली है, सुहाग नारे सुबना।
मेरी झुँझिया का पूजौ आप नारे सुबना॥
कई स्थानों पर अलग-अलग गीत हैं। रात में एक स्थान पर सभी इकट्ठा होते हैं और टेसू राजा, झुँझिया रानी का विधिवत् रस्मों सहित विवाह संपन्न होता है। महिलाएँ मंगलगीत गाती हैं और फिर आधी रात को नदी या ताल में टेसू राजा व झुँझिया रानी को विसर्जित कर दिया जाता है। टेसू उठने के दो रोज (दिन) पहले बच्चे हिरन बनकर गाँव भर में नाचते-कूदते व गाते हैं।
हिन्ना गुड़ आऊर-बाऊर।
हिन्ना माँगें तिली चाउर॥
अगले दिन एक बच्चा अपने शरीर पर नीम के पत्ते बाँधकर भालू (रीछ) बनता है और घर-घर जाकर नाच दिखाता है। उसके साथ के बच्चे गाते हैं—
हुक्का पी ले दम लगा ले।
काले वन का रीछ नाँच दे।
ताक धिना धिन ताक धिना॥
चौदहवींवाले दिन बड़े-बूढ़े, बच्चे इकट्ठा होकर पुआल, काँस, कुआ से एक बड़ी मोटी रस्सी बनाई जाती है। इस रस्सी को ‘बाँट’ कहते हैं। गाँव के लोग दो भागों में बँटकर बाँट को खीचते हैं, जिसके हिस्से में बड़ा टुकड़ा टूटकर आता है, वह विजेता होता है। इसे ‘बाँटा चौदस’ कहते हैं।
मध्य प्रदेश व गुजरात की कथा के अनुसार टेसू व झाँझी की प्रेम कथा मशहूर लोककथा है, जो आज भी परंपरा के रूप में होती है। मध्य प्रदेश में कुछ क्षेत्रों में झाँझी को गड़बड़ा कहते हैं। दशहरे से लेकर दीपावली तक टेसू पर्व मनाया जाता है। क्वार माह सितंबर-अक्तूबर की शरद ऋतु की सुहावनी चाँदनी रात में गाँव-गाँव में टेसू पर्व मनाया जाता है। कहते हैं, टेसू भीम का पुत्र तथा चंबल क्षेत्र का शासक था। बहुत पराक्रमी था। जो सेना हारने लगती थी, वह उसी की तरफ लड़ता है। यह बात पांडवों के हितैषी श्रीकृष्ण को पता चली तो उन्होंने सोचा कि अगर कौरवों की हारती सेना को टेसू की मदद मिल गई तो पांडवों को विजयश्री मिलना मुश्किल होगी। उन्होंने महाभारत युद्ध देखने आ रहे टेसू से एक वृद्ध ब्राह्मण के भेष में दान में उसका सिर माँग लिया। टेसू ने सिर दान में दे दिया, किंतु शर्त रखी कि वह पूरा महाभारत संग्राम-किसी ऊँचे स्थल से देखेगा तथा युद्ध समाप्ति पर अपनी प्रेमिका गड़बड़ा (झाँझी रानी) से शादी करेगा। कृष्ण ने उसकी दोनों इच्छाएँ पूरी कीं। ऊँचे बाँस पर टँगे टेसू के सिर ने अठारह दिन युद्ध देखा और फिर शरद पूर्णिमा की रात में झाँझी से शादी कर दोनों ने एक साथ प्राण त्याग दिए। गुजरात व मध्य प्रदेश के कुछ गाँवों में शरद पूर्णिमा को विधिवत् टेसू व झाँझी का विवाह कराया जाता है और जल में दोनों के पुतले विसर्जित किए जाते हैं। टेसू व झाँझी की कथा पंजाब में सोहनी-महिवाल की प्रेम कथा से मेल खाती है।
मध्य प्रदेश में गड़बड़ा (ढांढी) लेकर लड़कियाँ निकलती हैं। एक मटकी को लेकर उसके बीच में चारों ओर गोल-गोल छेद कर लिये जाते हैं। मटकी (गगरी) में चूना पोतकर उस पर सुंदर चित्रकारी की जाती है, फिर उसके अंदर सरसों के तेल का दीपक जलाकर रखा जाता है। लड़कियों की टोली घर-घर जाकर गाती हैं—
गड़बड़ गड़बड़ लाडी लो
सेरी भागी जायके बाई को गड़बड़ी
सेरी लागी काटो ला
नउआ के घर जायके बाई को गड़बड़ी
नउआ दीन्हीं निहरनी
बसोडा दीनी छाबडि़या
माली के घर जाइके
माली दीन्ही फूलड़ा
देव चढ़ावन जाई के
देव ने दीन्ही लाडुला
मगरा बैठ खाइ के बाई को गड़बड़ी
मगरे लागा मुसरा (चूहा)
कोने लग गई बाई के घूस को गड़बड़ी।
टेसू बाँस की तीन खपचियों के सहारे लड़के खुद बना लेते हैं या बाजार से खरीद लेते हैं। कई जगह हुक्का पीते, तलवार चलाते टेसू बनाए जाते हैं। बच्चों की टोली घर-घर जाकर गाती है—
मेरा टेसू यहीं अड़ा
खाने को माँगे दही बड़ा
दही बड़े ने पूछी बात
कह दे बेटा मन की बात
आगरे के टेकरे से
लड़की सुनार की
उसके भूरे-भूरे बाल
उसकी नथनी हजार की
सोने के कान फूल
सोने की आरसी
महल बैठी ढोलकी बजाती
ढोलकी की तान अपने यार को सुनाती
यार का दुपट्टा सारे शहर की निशानी
माँगो रे लड़को आई दीवाली
रेल चली है खटके से
चवन्नी निकालो मटके से।
बच्चों की टोली तब तक नहीं टलती, जब तक चंदे में अनाज या पैसा नहीं दिया जाता। पहले गाते हैं—
टेसू आए घर के द्वार।
खोलो रानी चंदन किवार।
अगर कोई कंजूसी करता है तो टोली के बच्चे गाने लगते हैं—
टेसू की मर गई नानी,
नानी बड़ी सयानी।
नानी की थी बिल्ली,
बिल्ली बड़ी चिबिल्ली।
बिल्ली खाए बर्फी, बर्फी में लगी पन्नी,
दे दो एक चवन्नी॥
अंतिम दिन टेसू व झाँझी का विवाह कराकर उन्हें तालाब या नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। इस पर्व में धान, ज्वार, बाजरा या रुपयों-पैसों को इकट्ठा कर बच्चों की टोली मिठाइयाँ, पटाखे खरीदती है।
बुंदेलखंड में टेसू पर्व पाँच दिन मनाया जाता है। शरद पूर्णिमा को टिसवारी पूर्णिमा या ‘टेसू पूर्णिमा’ कहा जाता है और यह पर्व उल्लास से मनाया जाता है। बच्चे गाते हैं—
टेसू-टेसू कहाँ गए थे? पत्ता तोड़ने गए थे।
पत्ता ले गयो कौआ, टेसू हो गयो नौआ।
नौआ ने मूडे, टेसू हो गए ठूठ।
ठूठ मू रखो अंगरा, टेसू हो गए बंदरा।
बंदरा ने खाई पाती, टेसू हो गए हाथी।
हाथी ने गह लई गैल, टेसू हो गए बैल।
कहीं-कहीं पर बाल टोलियाँ टेसू गीत कुछ इस तरह गाते हुए निकलती हैं—
टेसू की गइया लचपे दरिया, नौ गठरी भुस खाय।
गंगा पीवे, जमुना पीवे, तऊ पियासी जाए॥
टेसू गीतों में मनोरंजक बातें होती हैं तो झेंझी गीतों में पारिवारिक व सामाजिक विषयों का चित्रण पाया जाता है। लोक गायिकाएँ पहले इन गीतों को खूब गाती थीं। हास-परिहास, मनोरंजन ही लोक-पर्व टेसू का उद्देश्य रहा है।
झेंझी की एक कथा में कहा गया है कि सुआटा नामक एक राक्षस किशोरी कन्याओं को उठा ले जाता था। उसी के अत्याचार से ऊबकर कन्याओं ने माँ गौरी की आराधना की। माँ गौरी ने सुआटा राक्षस का वध करने के लिए एक वीर युवक टेसू को भेजा, जिसने दैत्य सुआटा का वध करके उसकी पुत्री झुँझिया से विवाह कर लिया। शारदीय नवरात्र में लड़कियाँ गोबर से सुआटा राक्षस की प्रतिमा बनाती हैं, बाद में झुँझिया का विवाह होता है। अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग कथाएँ व गीत प्रचलित हैं।
डॉ. राष्ट्रबंधु ने टेसू राजा और झुँझिया रानी के गीतों के आधार पर खंडकाव्य की रचना की। आज लोग टेसू तथा टेसू पर्व को भूलते जा रहे हैं। लोकपर्व टेसू एकता का प्रतीक था, जिसमें गरीब, अमीर, ऊँच-नीच का भेद भुलाकर सभी लोग शामिल होते थे, किंतु इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, चैनलों की चकाचौंध व बढ़ती आपाधापी के कारण टेसू पर्व समाप्त होता जा रहा है, इसे नए संदर्भों में पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।