तेरा हाथ (कहानी) : इस्मत चुग़ताई
Tera Haath (Story in Hindi ) : Ismat Chughtai
गज़ाला ने अंगूरों की ख़ाली टोकरी दीवार पर खींच मारी।
लानत, लानत, लानत!” उसने निज़ाम आलम पर गुस्सा उतारा। हर टोकरी खाली! उसे कई रोज़ से पता था कि अंगूरों की टोकरी खाली हो चुकी है। फिर भी खाली बटुए, खाली शकरदानी, खाली मर्तबान और खाली डिब्बों में हाथ आदतन रेंग जाता। इस ख़ालीपन पर उसे बहुत झुंझलाहट हो रही थी।
और फिर अम्मी की ख़ाली आँखों से तो उसे डर लगने लगा था। अम्माँ जान से अम्माँ जानी और फिर उतावली में वह अम्मी बन गई थी। न जाने उसे क्यों जल्दी पड़ी रहती। ऐसी गुफ्तगू कि आधे अल्फ़ाज़ और पूरा मतलब ही बात का खत्म हो जाता। चलती तो यों जैसे लपक-झपक भाग रही हो।
"बेटी जान, लड़कियाँ यों बछड़ों की तरियों धमाधम नहीं चला करतीं। कुँआरी लड़कियों की चाल में नज़ाकत होनी चाहिए, जैसे नसीमे-सहरखरामा-खरामाँ सब्ज़ाज़ारों पर अटखेलियाँ करती"...अम्मी को खाँसी ने आ दबोचा, वर्ना वह बेचारी हसीन बात कहने जा रही थीं।
अम्मी की ख़ाँसी इन्तिहाई डरावने सुर इख़्तियार करती जा रही थी। रुब्बे-सूस, बनफ़शा, तुह्मे-रेहाँ, अल्लम-गल्लम उनकी ख़ाँसी से नबर्द-आज़मा नहीं हो पा रहा था। अम्मी को जब भी खाँसी-जुकाम की शिकायत हो जाती, नाना हुजूर उन्हें शिमला या देहरादून ले जाया करते थे। अल्लाह आमीन की दो बेटियाँ थीं। ख़ाला अम्माँ और अम्मी के दरम्यान कितने ही मामूँखालाएँ पैदा हई, लेकिन इन दो के सिवा क़िस्मत में औलाद ही न थी। खाला अम्माँ पाकिस्तान चली गई थीं और ठाठ कर रही थीं। सब औलादें कामयाब शादियाँ करके अरब मुल्कों, अमेरिका और इंग्लैंड में जम चुकी थीं। अल्लाह तेल के ज़ख़ीरों को सलामत रखे, कितने कुनबों को पाल रहा है।
कभी दिन अच्छे थे। अब्बा हुजूर का क्या दबदबा था। खुले हाथ का ख़र्च। विलायती मेहमान आया करते थे। शिकार का ग़ल्गला' मचता। घर में अनगिनत लौंडियाँ, बाँदियाँ, मुलाज़िम छोकरे भरे पड़े थे। इकलौती बेटी ग़ज़ाला माँ-बाप की आँखों का तारा थी। कितने नाज़ उठाए जाते थे उसके! कॉन्वेंट में तालीम मिली, मगर सीनियर कैम्ब्रिज करने से पहले ही हालात का मनका ढल गया। अब्बाजान अच्छे-भले शिकार को गए। वापस लाश आई! हार्ट फेल हो गया। न जाने गर्ल-फ्रेंड और यार-दोस्त कहाँ फुर्र से उड़ गए। गाँव के लोग लाश लेकर आए और एक आदमी की मौत सारे टाट-प्लान की मौत साबित हुई।
अम्मी के तो होशो-हवास गुम हो गए। अब्बा हजूर इधर-उधर मुँह मारते थे, लेकिन बेगम से हमेशा आप अदब से बात करते थे। ख़ाला अम्माँ बड़ी तर्रार थीं। पढ़ी न लिखी, मगर अच्छीखासी पॉलिटीशियन थीं। ख़ालू मियाँ को जूती की नोक के नीचे दबाकर रखती थीं। आठ बच्चे हुए भी, दम-खम वही था। ख़ालू मियाँ वतन छोड़ने पर किसी तरह तैयार न होते थे, मगर उन्होंने दो-तीन खेपों में बच्चे पार किए और सब कुछ औने-पौने बेच मियाँ की नकेल पकड़ चल दीं। अम्मी आहें भरती रह गईं। अब्बा हजुर ने पट्टे पर हाथ ही न धरने दिया।
ग़ज़ाला ने उन्हें कभी संजीदा नहीं देखा। वह भी बेटी की तरह बेचैन बोटी थीं। दो घड़ी थमकर सोचना, मुस्तक्बिल पर नज़र डालना, उनके खमीर ही में था। साँवला-सलोना रंग। दराज़ क़द! खासे बार्बरा कार्टलैंड के हीरो थे। क्या बॉके अन्दाज़ से घने बालों वाले सिर पर हैट लगाते थे और काला चश्मा, इन्तिहाई रंगीन और पुरअसरार"। अम्मी लाख उनसे रूठे, जलथल आँसू बहाएँ, पर वह निहायत ढिठाई से दनादन इश्क़ दाग़ते। जब एक गर्ल-फ्रेंड से मार-कुटाई तक नौबत पहँच जाती, तो फ़्लैश की बैठकें, शिकार-पार्टियाँ, क्लबबाज़ी और व्हिस्की के दौर! ग़ज़ाला ने हमेशा उनके मुँह से भपके निकलते सूंघे। जब भी वह उसे प्यार करते और किए जाते, यहाँ तक कि वह रो पड़ती, कि उन भपकों से उसे मतली होने लगती थी, तब वह कुछ खिसियाने-से गुद्दी खुजाते बाहर चले जाते।
अम्मी निस्वानियत की पोट थीं। फज़ की नमाज़ पढ़ के हल्का-सा नाश्ता करतीं। धानपान तो थी ही। नफ़ीस लिबास पहनकर आमना बी से चोटी गुधवाती, पाउडर-लिपस्टिक भी लगाती और पान की धड़ी भी जमातीं।
“बेटी जान बन-सँवरकर रहा करो। मर्द का दिल जीतने के लिए जतन करने पड़ते हैं।"
मगर मर्द कम्बख़्त घर में टिके जब न! सुबह जाता है, रात गए बँकारता-दनदनाता, नशे में धुत आता है और कपड़े बदलने से पहले गाफ़िल हो जाता है। अम्मी निहायत रुआंसी, इख़्तिलाजे-कल्बे की बीमारी में हैरतज़दा, बेबस-सी टुकुर-टुकुर देखा करतीं और आँसू बहाया करतीं। न जाने अम्मी की आँखों में कितना पानी भरा था, रुमाल पर रुमाल भिगोती, अब्बा हुजूर आँसू की पहली ही बूंद पर सैलाबज़दा मख़्लूक' की तरह गुद्दी खुजाते बाहर भागते और फिर उनके घोड़े की टापों की गूंज पर अम्मी कुछ और आँसू बहाकर शल हो जातीं।
काश, वह उनकी गर्ल-फ्रेंड्स की तरह ऊँचे-ऊँचे क़हक़हे लगाकर विलायती गालियाँ बक सकतीं। घोड़े पर उनके साथ शिकार पर जा सकतीं। दो घूट व्हिस्की ही पी लेतीं। कैसी-कैसी अब्बा हुजूर ने मिन्नतें कीं, “बेगम, मेरी जान, एक घुट चखकर तो देखो। चौदह तबक़ रौशन हो जाएँगे बखुदा!" अम्मी के नर्मो-नाजुक होंठ लरज़ते और आँसुओं के आबशार चल पड़ते।
खाला अम्माँ एक बदजात, वह अपने हाथ से पैग बनाकर मियाँ को देती और जब वो जिद करते, तो गिलास में आधा इंच व्हिस्की में लबालब सोडा छोड़कर साथ देने लगतीं। ख़ुदाएमजाज़ी का हुक्म औरत के लिए हुक्मे-ख़ुदा के बाद का दर्जा रखता है। वैसे उनकी कनीज़ गुलनार का कहना था, जब मियाँ नहीं भी होते, तब बेगम साहिबा अकेली ही प्याला पैग मारती हैं। नवाबी ख़ानदानों में रिवाज आम है। ख़वातीन डटकर पीती हैं। वैसे खाते-पीते खानदानों में भी ख़वातीन परहेज़ नहीं करती और निचले तब्के में तो चलती ही है कंडी की 'अप्सरा'।
लेकिन अब ग़ज़ाला की समझ ने काम करने से इनकार कर दिया था। कॉन्वेंट की फ़ीस अदा न करने की वजह से वह अब्बा हुजूर के सामने ही निकाल दी गई थी। वह बेहद बरअफ्रोख़्ता” हुए थे और कॉन्वेंट की ईंट से ईंट बजा देने की धमकी दी थी, फिर शायद भूल-भाल गए। क्या हंगामे थे कि ग़रीब को दम मारने की फुरसत न थी, और फिर हार्ट अटैक ने आन दबोचा।
शुक्र है कि बचपन ही से फ़र-फ़र अंग्रेज़ी बोलने की मश्का थी, मगर मैट्रिक का सर्टीफ़िकेट भी न था। जब अब्बा हुजूर के हार्ट फेल होने के बाद पता चला, मुआमला बिल्कुल खुक्कलक्क है और उस पुरानी कोठी के सिवा कोई और सहारा नहीं, तो हवास गुम हो गए। पाकिस्तान से दूल्हा वसूल करने की भी उम्मीदें ख़त्म हो चुकी थीं। ख़ाला अम्माँ के सब लड़के बड़ी अमीर ससुरालों में खप चुके थे। एक विलायती मेम के साथ इंग्लैंड में जम चुके थे। सारी सहेलियाँ, जो बचपन से ग़ज़ाला को अपनी बहू बनाने की धमकियाँ दिया करती थीं, न जाने कहाँ गारत हो गई थीं।
एक बुआ रह गई थीं। विर्से में मिली थीं, तो तनख़्वाह तो देनी नहीं पड़ती थी। मियाँ छोड़कर न जाने कहाँ उड़न-छु हो गया था। एक मीर साहब थे। सारी उम्र मक्तब में कुरान और उर्दू पढ़ाई, फिर अब्बा हुजूर ने मुंशी का उदा दे दिया। जब आँखों से लाचार हुए, तो ड्यूटी पर सूंड-सी डाले बैठे रहते थे। उनका एक घामइ-सा लड़का था ग़फ़ूरा। ऊपर का काम किया करता था, निहायत मिस्कीना और बुज़दिल। अब्बा हुजूर एक दिन शिकार पर ले गए, तो बन्दूक के धमाके से लरज़कर रोने लगा। यह सैयद काफ़ी ढीले होते हैं। जब कोठी के मकीनों पर बुरा वक़्त पड़ा, तो मीर साहब तो बिल्कुल ही फप्पस हो गए थे। मस्जिद में जा बैठे थे। अल्लाह के नेक बन्दे साल में एकाध जोड़ा भी दे देते। वैसे जब महँगाई न थी, तो मुल्ला भी संग खिला देता था। उन्होंने कभी हाथ न फैलाया, पर नेक बन्दों के दिल में कभी तरस जागता, तो पेट का सहारा हो ही जाता।।
ग़फूरा जूतों के एक कारखाने में काम सीखकर कुछ कमाने लगा था और जब मीर साहब अल्लाह को प्यारे हुए, तो वह दुनिया में अकेला रह गया। जेहनी तौर पर तो वह हमेशा का यतीम था।
काफ़ी अरसे से ग़ज़ाला को अजीब-सा एहसास हो रहा था। ग़फ़ूरा जब भी किसी काम से आता, चोरी-चोरी उसे ताका करता, लेकिन जैसे ही वह उसकी नज़र को पकड़ना चाहती, पलकें झुका लेता। ग़ज़ाला को उससे चिढ़ थी। बेहंगम, लम्बा, कन्धे झुके, ख़शख़ाशी बाल। ख़ुदा जाने किस रंग के होंगे। सफ़ेद चंदिया पर इतनी हक़ीर24 पैदावार खाक रंग जमाती। बड़े-बड़े कान, बड़े-बड़े हाथ-पाँव, अजब ऊँट जैसी उचकती हुई चाल। दाँत पता नहीं कैसे होंगे। कभी हँसता ही नहीं, जो पता चले। आँख मिला ले, तो पुतलियों का रंग मालूम हुआ। ऊँचा शरई पाजामा, नीचा कुर्ता और ज़र्द मशीन के काम की कलफ़दार टोपी। बिल्कुल मीर साहब जैसा लिबास। रोज़ेनमाज़ का निहायत पाबन्द।
उसे हमेशा ग़ज़ाला बीबी कहता था, हालाँकि वह अब बीबी नहीं रही थी। चौबीसवाँ बरस चल रहा था, मगर अम्मी हमेशा उसकी उम्र में से ख़ासे ढेरों साल हइप कर जाती थीं। वह उसे बीस से ऊपर उठती देखने को तैयार नहीं थीं। अठारह बरस की उम्र में तो उनकी गोद भर गई थी। फिर पूत जाता रहा, तो दो साल बाद गज़ाला पैदा हई। ज़्यादा से ज्यादा चवालीस बरस की होंगी, मगर काफ़ी बाल सफ़ेद हो गए थे। जिल्द5 को ढलकने की गुंजाइश न मिली थी कि जिस्म पर गोश्त ही कम था।
“गजाला बीबी," ग़फ़ूरा के रबड़ के जूते दहलीज़ पर देखकर उसने नज़र न उठाई, “ग़फ़ूरा! तुम्हारे हल्क में क्या मोरी की कीचड़ फँसी है?"
“जी...जी...नहीं तो..." नज़रें नीची।
"तो फिर तुम ‘गैन' को 'गाफ' और 'ज़' को 'ज' क्यों बोलते हो। मेरा नाम ग़ज़ाला नहीं, 'ग़ज़ाला' है।"
“जी गजाला!"
“पाजी कहीं का, बन रहा है।" ग़ज़ाला चिढ़ गई। अम्मी ने कोई नर्म-सा नाम क्यों न रखा। कॉन्वेंट में लड़कियाँ और उस्तानियाँ ‘गैन' नहीं बोला करतीं। ‘गैन', 'खे', 'काफ़' निहायत खौफ़नाक आवाजें हैं। न अंग्रेजी में. न हिन्दी में। बस ढ, ग, ड,फ भी तो मीठी थीं।
"हम भी आज से तुम्हें गफूरा कहेंगे समझे!"
“जी!" ग़फ़ूरा को पहले ही उसके यार-दोस्त गफूरा कहते थे। उसे एहितजाज की कोई वजह न नज़र आई।
“ग़ैन हल्क से नहीं निकलती?"
"जी, निकलती है।"
"तो बोलो ग़ैन!"
"जी, गैन'!"
ग़ज़ाला का पारा चढ़ गया। जान को आ गई। बिल्कुल सिर पर सवार हो गई, “कमीने, आज तुम्हें 'गैन' बुलवाकर छोड़ेगी!" ग़फ़ूरा की घिग्घी बँध गई। भाग भी न सकता था। ग़ज़ाला बीबी से उसका दम निकलता था। क्या ततैया की तरह भिनभिनाती थीं। उसके कान लाल हो गए। कम्बख़्त कत्थे के रंग का हो गया था। अम्मी कहती थीं, जब छोटा-सा था, तो फूल की तरह सुर्ख-सफ़ेद था। बर्तन-झाड़ और फिर धूप में जल के रह गया।
ग़ज़ाला की सहेलियाँ हाइड्रोजन और अमोनिया मिलाकर बलीच किया करती थीं। उसका जी चाहा, ग़फ़ूरा को उसी मलूल के क़राबे में डुबो दे और इतनी देर भिगोये रखे कि उसके जिस्म ही नहीं, रूह का भी कलझनवापन उतर जाए, लेकिन उस वक़्त तो उसे गैन' और 'जे' बुलवाना था।
"बैठ जाओ!"
ग़फ़ूरा मेढक की तरह उकइँ बैठ गया।
"नहीं, नहीं," वह लपककर खड़ा हो गया।
“इधर स्टूल पर बैठो!"
ग़फ़ूरा नई दुल्हन की तरह सिमटकर दोनों हाथ गोद में रखकर बैठ गया। आँखों तले!
“ग़फ़ूरा, तुम्हारी क्या उम्र है?"
“जी...पता नहीं!"
“कमाल है, यानी पता ही नहीं?"
"बहुत दिन हुए, अब्बा कहते थे, चौदह बरस का हूँ।"
“कितने दिन हए? कोई तीन दिन...?"
"नहीं...बहुत साल! जब अब्बाजान ज़िन्दा थे और सरकार भी ज़िन्दा थे।"
“ग़फ़ूरा, तुम शादी क्यों नहीं कर लेते?"
"नहीं...नहीं बीबी...मैं कैसे...नहीं, नहीं..."
“अरे अहमक़, इतना बौखलाने की क्या बात है," मगर ग़फ़ूरा के कान इतने सुर्ख हो गए कि ग़ज़ाला डरी, कहीं टपक न पड़े पक्के टमाटरों की तरह। वह ऐसी बुधुन थी कि ग़फ़ूरा की निगाहों का पैग़ाम उसके भेजे तक न पहँचा हो, मगर उसे कतई अपनी 'इंसल्ट' महसूस न हई। बस हँसी आई। उफ़, इतना बोर, अहमक कौन बदनसीब झेलेगी!
फिर उसे गफ़रा पर तरस आ गया। माली तौर पर उसकी हालत ग़ज़ाला से गनीमत थी कि वह तो कौड़ी भी नहीं कमाती थी, लेकिन जेनी तौर पर ग़फ़ूरा कितना महरूम था। उसके आलिम-फ़ाज़िल1 बाप ने सिर्फ़ उसे कुरान पढ़ाया। वह भी बेमानी के। फिर उर्दू का कायदा शुरू कराया, तो काम से फुरसत ही न मिली। ग़ज़ाला को उन्होंने कुरान के साथ आमदनामा भी रटा दिया था।
“आमदन = आना...आमद = आया...आमदीद = आए...!"
फिर थोड़ी-सी उर्दू भी पढ़ा डाली थी। उर्दू में था ही क्या पढ़ने को। उसको कॉन्वेंट में तो बताया ही नहीं किसी ने...उसके कॉन्वेंट में आठवीं से हिन्दी शुरू हो गई थी। पतली-सी किताब थी। लड़कियाँ रटकर हिन्दी में थर्ड डिवीज़न मार्क ले आती थीं। कम्बख़्त पोजीशन गिर जाती थी। इससे तो संस्कृत अच्छी। बारह छोटे-छोटे श्लोक रट डालो। पचानवे नम्बर मिले धरे हैं।
उफ़! स्कूल से कैसी जान जलती थी। जब स्कूल छूटा, तो जैसे पैरों तले से ज़मीन खिसक गई। खैर, अंग्रेजी के सहारे वह लाइब्रेरी से चार आने फ़ी हफ्ता ढेरों किताबें ले आती थी। लाइब्रेरियन तकाज़ा नहीं करता था। काफ़ी रुपए चढ़ गए थे, बहुत मुश्किल से अदा किए और उसके बाद वह कबाड़िये की दुकान से परानी अंग्रेजी की किताबें और रिसाले दोआना हफ्ता पर ले आती। ज़्यादातर मिल्ज़ एंड बून के और बार्बरा कार्टलैंड के तारीख़ी रूमान उसे पसन्द आते। दिन में एक किताब आसानी से डकार लेती। उन किताबों में उसकी अपनी महरुमियों के लिए मर्हम था। छह-सात बरस से वह इन्हीं रुमानों की रंगीन फ़िज़ाओं में मवे-परवाज़ थी। इन सब रुमानों की हीरोइनें बिल्कुल उसी की तरह गरीब, मगर निहायत हसीन और पाकबाज़ थीं। बड़े दुख उठाती थीं। निहायत अमीर और बेहद मालदार और हैंडसम से टक्कर हो जाती। बेहद अकड़ और बद-मिज़ाज, खुर्रा, औरत ज़ात से मुतनफ़िफ़र आवारा, बदमाश, उस नाजुक अन्दाम, फूल जैसी हीरोइन का बेहद धोबी-घाट करता। तोड़ता, मरोड़ता और जलतेसुलगते बोसों की बारिश में उसे भूनता-भुलसता। उसका तन-मन उस ज़ालिम दरिन्दे के इश्क़ में पिघलकर मोम हो जाता। वह नामुराद टूटा हुआ दिल लेकर भागती। तब वह उसके पीछे दौड़ता और बताता कि वह किस बुरी तरह उस पर ज़िन्दगी में पहली और आखिरी बार दिलो-जान से और रूह की गहराइयों से आशिक़ हुआ है और वह उससे शादी कर लेता। हँसी-खुशी बीतने लगती।
लेकिन इस नामुराद मुल्क में उसके नसीब के तमाम डैशिंग हीरो सिर्फ अमीर लड़कियों पर आशिक़ होते हैं और शादी करके ढीले-मोटे फप्पस होने लगते हैं। दो-एक बार लाइब्रेरी में उसे लड़कों ने मीठी नज़र से देखा। कॉफ़ी की दावत भी दी। सिनेमा भी दिखाया, मगर बदले में निहायत टटोलने पर मुसिरहए और सख़्त नागवार माहौल में उसे जान छुड़ानी पड़ी।
एक दफ़ा एक काफ़ी हैंडसम और अमीर लड़का उसके पीछे लगा। खूब मोटर दौड़ाई। उसके बाल हवा में उड़े, मगर जब एक निहायत मैले होटल के कमरे में वह एक दिन उस पर चढ़ बैठा, तो उसने उसके बाजुओं में दाँत गाइ दिए। 'यू बिच' उसने गाली दी और वह ज़कन्द मार के बाहर निकल गई। वह उसके पीछे बहुत खुशामदें करता लगा रहा, मगर न जाने क्यों वह कतई न पिघली। वह उसे निहायत गन्दी गालियाँ देता। मोटर भगाता, उसे घर से मीलों दूर छोड़कर चलता बना। घंटों पैदल और फिर खडखड़ाती बस में रगड़ती घर पहँची, तो गफरा ने उसे ग़ज़ाला कहकर खून थुकाया। अगर वह इतनी दूर और ऊँचा न होता, तो वह ज़रूर उसके मुँह पर चाँटा जमा देती।
इन्तिकामन उसने ग़फ़ूरा को धर घसीटा।
"कहोगा आ आ!"
“गा...आ..." ग़फ़ूरा रुआँसा हो गया।
“ग़ा..."
“अरे क्यों निगोड़े को हलकान कर रही है, बेटी गज़ल!" वह हमेशा उसे बड़े रुमानी नामों से पुकारा करती।
थोड़े दिन तो वह खुद को हसीन समझती रही कि हर नवाबज़ादी नाजुक-अन्दाम और रोमांटिक होती है। उसकी निस्वानियत शर्मो-हया, नज़ाकत, लताफ़त मस्हरकुन होती है, लेकिन उसे मालूम हो गया था कि कमाऊ, दौलतमन्द दूल्हा के लिए दौलतमन्द बीवी ही सबसे बड़ी माहलिका होती है और निस्वानियत, नज़ाकत, लताफ़त और शर्मो-हया का तक़ाज़ा है कि बीवी मेह मुआफ़ कर दे और जायदाद ख़दाए-मजाज़ी के नाम...
इसमें क्या ऐब की बात है। मौजूदा हालात में अगर वह भी कमाऊ पूत होती, तो कानीभैंगी, मगर बेहद अमीर दुल्हन ब्याह के लाती कि कोठी की मरम्मत हो जाती। दुकानदारों के क़र्ज़ उतर जाते और अम्मी को पहाड़ पर आराम के लिए किसी सेनीटोरियम में दाखिल करवा देती। तब वाक़ई उसे वह बद-शक्ल बीवी परीज़ाद लगती, और पहली फुरसत में वह कोई हसीन छोकरी ढूंढकर उसके साथ ऐश उड़ाती। जाहिल हैं वह लोग, जो दौलत पर नाक-भौंह चढ़ाते हैं। बनते हैं, जो रियासत को हिकारत से देखते हैं और गरीबी को खुदा की रहमत समझते हैं।
अगर ऊपर से कोई 'गैन' को 'गाफ', 'जे' को जीम और फ़े' को 'फ' कहे, तो क़त्ल की वह मुजरिम हरगिज़ न होगी। उसे फाँसी देना ज़ेहनी और अख़्लाकी पस्ती का सबूत होगा। उस पर माद्दीयत 8 छा रही थी। किसी को जलाने, ज़लील करने और ठुकराने को जी चाह रहा था। उसे दूर-दूर ग़फ़ूरा के सिवा कोई नज़र नहीं आ रहा था। और जब उसने अकड़कर कहा, "ग़ज़ाला बीबी! बेगम साहब ब्ला रही हैं।"
दुख में आँसून जाने कहाँ जा मरते हैं, और हँसी का सत्यानास मारने उमड़े चले आते हैं।
और जब चौके पर दस्तरख्वान लगाकर ग़फ़ूरा हस्बे-आदत दहलीज़ पर पतीली पोंछने बैठ गया, तो ग़ज़ाला का पारा जनाज़न ऊपर चढ़ने लगा।
“छोड़ो पतीली गधे!"
ग़फ़ूरा ने डर के पतीली से हाथ खींच लिए।
“यहाँ बैठ के खाओ,” उसने दस्तरख्वान के कोने की तरफ़ इशारा किया। अम्मी लौकी का शोरबा पी रही थीं। नथुने फड़कने लगे। अंग्रेज़ी में बोलीं, “डोंट बी सिल्ली!"
उसने भी अंग्रेज़ी में जवाब दिया, “आई एम नॉट सिल्ली। यह भी इनसान का बच्चा है, कुत्ता नहीं, सैयद है। पठानों से ऊँचा आले-रसूल! और हमारे रसूल तो गुलामों को साथ बिठाकर खिलाते थे।"
अम्मी काफ़ी पक्की मुसलमान थीं। बैठकर सिर्फ़ फ़र्ज़ पढ़तीं, मगर नमाज़ मुश्किल ही से क़ज़ा करती, मगर इस्लाम के ऐसे इश्तिराक और मुसावा के उसूलों पर सिर्फ ज़बानी जमा-खर्च की क़ाइल थीं।
"जा ग़फ़ूरा, प्लेट ला!"
ग़फ़ूरा प्लेट लाया और सहमा-सहमा उक' बैठने लगा, तो वह दहाड़ी, “पालथी मार के बैठो।"
ग़फ़ूरा की पालथी ऐसी फुर्ती से मरी कि ग़ज़ाला को अच्छू लग गया।
ग़फ़ूरा का दम घुट रहा था। निवाला निगलते ही सहम जाता कि कहीं निगलने का धमाका बीबी को चौंका न दे। ग़ज़ाला को महसूस हुआ, जैसे वह मिल्ज़ एंड बून या बार्बरा कार्टलैंड का डैशिंग बेरहम लखपति मर्द है और ग़फ़ूरा नादार, नाजुक अन्दाम कुँआरी हसीना है और उसे चाहिए कि हसीना को पछाड़कर उस पर दहकते हए बोसों की बारिश कर दे और कहे, "डार्लिंग, आई लव यू सो!”
मगर वह ज़ोर से हँसी भी नहीं। ग़फ़ूरा के लाल अंगारा कान देखकर दुखी हो गई।
यह नहीं कि उसके लिए पैगाम ही नहीं आए। बूढ़े दुहाजू या क्लर्को के। वैसे कोठी खंडहर सही, काफ़ी रकबे पर खंडहर फैला था। पीछे जहाँ कभी फलों से लदा बाग, बेला, चमेली और गुलाब के तख्ते खिले रहा करते थे। संगमरमर के तालाब में सुर्ख मछलियाँ तैरा करती थीं। थूहर, भटखटिया और बबूल के सिवा सब पेड़ बूढ़े होकर कुछ दिन ईंधन के काम और टाल वाले के हाथ बेचने पर दाल-दलिया के काम आ गए थे।
मगर एक दिन वह चौंक पड़ी। वह साहब, जिन्होंने ख़ाला अम्माँ की कोठी ख़रीदी थी, उनका कारिन्दा आया और कोठी का तख्मीना मालम करने लगा। ग़ज़ाला ने कभी कोठी की कीमत पर गौर ही नहीं किया था। एक दफ़ा और ज़िक्र छिड़ा था, तो अम्मी बेहद रोई थीं।
“नहीं, मैं आपा जान की तरह बुजुर्गों की बख़्शी जायदाद नहीं बेचूंगी।" अम्मी पर उसे आज बहुत गुस्सा आ रहा था, अगर वह सीनियर कैम्ब्रिज कर लेती, तो ज़िन्दगी बन जाती। वह यूँही शादी के कॉलम देखा करती थी। उनमें भी कॉन्वेंट की पढ़ी लड़कियों की ख़ासी माँग थी। ख़ास तौर पर बाहर बड़ी-बड़ी तनख़्वाहों पर लगे हुए दूल्हा की तरफ़ से! उसने कारिन्दे से कहा, "इस वक्त अम्मी सो रही हैं। कल-परसों जवाब देंगे।"
फिर अम्मी ने बताया, कोठी के काग़ज़ात अन्दर के कमरे में मचान पर काले सन्दूक में रखे हैं। जब ग़फ़ूरा आया, उसने मचान पर चढ़कर पहले तो जाले और ख़ाक-धूल झाड़ी। फिर बडी मश्किल से ताला खोला। कागजात के अम्बार में पहला लिफ़ाफ़ा ढूँढकर निकाला। उसमें न जाने कौन-से काग़ज़ात थे। जाहिल लट्ठ ग़फ़ूरा पर उसे बहुत गुस्सा आया।
"नीचे उतरो!" ग़फ़ूरा सहमकर उतर आया। और वह खद चढ़ने लगी. मगर फिसल पड़ी। बन्दर की औलाद क्या फर्ती से चढ़ गया और उसके फिसलने पर हँस भी रहा था। वह उस पर बरस ही पड़ती, लेकिन इस बार उसके उजले दाँतों की कतार देखकर सक्ते में रह गई।
बचपन में तो उसके दाँत बड़े ऊबड़-खाबड़ थे।
"ई करो!"
“जी?"
"करो...ईईई..." उसने दाँत निकोसकर बताया।
“ई...ईई..." ग़फ़ूरा ने नक़्ल की।
"अरे वाह पढ़े! तुम्हारे दाँत तो एकदम बिनाका टूथ-पेस्ट का इश्तिहार हैं!"
वह गर्दन टेढ़ी करके उसे गौर से देखने लगीं। यानी गूदड़ में लाल छिपा था और उसने नोटिस ही न लिया। महा-गधी!
ठोड़ी हथेली पर रखे वह सोचती रही।
अगर ग़फ़ूरा को बना-सँवारकर चलाया जाए, तो चल जाएगा।
एक दिन उसकी सहेली ने कहा था, "हाय, सो क्यूट!"
अगर धोया-माँजा जाए, तो ग़फ़ूरा काफ़ी क्यूट रहेगा, और कम्बख़्त बाल ख़शखाशी करके कददू जैसी खोपड़ी पर अगर एलविस प्रेस्ले का विग लगाकर टाम जोन्ज़ की टाइट जीन...मारवेलेस! कम्बख़्त जूते गाँठने से बेहतर है। फ़स्ट क्लास जिगलू बन सकता है।
"ग़फ़ूरा अगर अब के तुमने बाल कटवाए, तो समझ लो, तुम्हारी चप्पल से ऐसी चाँद गंजी की जाएगी कि बस!"
“जी?" ग़फ़ूरा बिदका।
“बाल कटाना एकदम बन्द! हम काटेंगे तुम्हारे बाल खुद...और हाँ, यह मूंछ...राजकपूर कट नहीं चलेंगी...छोड़ो?"
"छोड़ूँ?"
“यानी बढ़ने दो, बस बाल और मूंछे बेमुहार बढ़ने दो!"
"मगर गज़ाला बीबी!"
“हत्त तेरे की! नामुराद 'ग़ैन' भी बहक-तस्लीम हुई!"
"गज़ाला ब्यूबा!"
“उठ छोड़ यह ग़ैन', 'फ़े', 'काफ़' तुम्हारे बस के नहीं। कल से तुम अंग्रेज़ी पढ़ोगे।"
"ए बी सी डी तो अब्बा जी ने सिखा दी थी। सी ए टी केट...के माने बिल्ली...आर ए टी...रैट...रैट माने चूहा!"
"बुधू कैट मायनी बिल्ला भी तो हो सकता है, और रैट की मादा भी होती है।"
“ही केट और शी केट!"
"अरे भोंदू, तुम तो छुपे रुस्तम निकले! अच्छा, बस इधर आओ...” ग़फ़ूरा शरमाता लजाता बढ़ा।
"झूको!"
"जी!"
“हम कहते हैं, झुको। तुम्हारी पीठ पर चढ़ना है!"
"बीबी!"
“ॐ ईडियट, झुको!" ग़फ़ूरा झुक गया और वह उसकी पीठ, फिर कन्धों पर चढ़ गई।
"हाँ, अब हौले-हौले खड़े हो एहतियात से! अगर मैं गिरी, तो तुम्हारी जान की खैर नहीं!"
मचान पर चढ़कर वह काग़ज़ ढूँढ़ती रही और ग़फ़ूरा भागकर गया और नल के नीचे कान ठंडे करने लगा। दो-तीन दिन तक साहब का कारिन्दा नहीं पलटा। उसे भी नहीं मालूम था...कैसे सौदा शुरू करे।
लेकिन दूसरे दिन एक और आदमी मोटर में आया। कोठी और मुल्हका ज़मीन की कीमत पूछी।
"हम अपने वकील से बात करके बताएँगे...आप कल आइए!"
अगर दूसरा आदमी न आता और खुद सेठ रमेश चन्द्र, तो वह दोबारा सोचती भी नहीं।
"न भई, मसलमान भाई को देंगे कोठी...अपना ख़याल करेगा!"
"ब्योपार में हिन्दू-मुसलमान की क्या कैद! दोनों में से जो ज़्यादा दाम देगा!"
“मगर..."
"अम्मी, पैसे का कोई धर्म नहीं होता। बस कमी और इफ़रात की टक्कर होती है।"
और तीसरे दिन ख़लीकुज्जमां साहब के लड़के के लिए ग़ज़ाला का पैगाम आ गया।
अम्मी तो रो पड़ीं। वह ना-उम्मीद हो चुकी थीं कि बच्ची का नसीबा कभी न खुलेगा, मगर खुदा के यहाँ देर है, अँधेर नहीं! “अपनी जात-पात का भी है। तेल का कारखाना है। अपनी वकालत भी करता है। हाय! मेरी लाड़ली के हाथों में मेहँदी रचे। खैर से अपने घर-बार की हो।" अम्मी देर तक वज़ीफ़ा पढ़ती रहीं और ग़ज़ाला पर फूंकती रहीं।
“सेठ और खाँ साहब इलेक्शन में खड़े हो रहे हैं।" ग़फ़ूरा ने कहा और 'खे' साफ़ न बोलने पर गुस्सा की बजाय न जाने क्यों ग़ज़ाला को मसर्रत हुई।
शाम को एहसान खालू आए। अब्बा हजुर के जनाज़े में शिरकत करके जो गए, तो आज पलटे और आते ही अम्मी पर कुर्बान होने लगे। ठंडी आवाज़ में बोले, “हमारी तुम्हारी ठीकरे की माँग थी, मगर किस्मत को और कुछ ही मंजूर था। तुम्हारी इस नाक़द्रे से हो गई और मेरी कनीज़ फ़ातिमा से क़िस्मत फूटी!
"कैसी हैं कनीज़ आपा?" अम्मी के चेहरे पर दो बूंद खून फिर गया।
"वही रफ़्तार बेढंगी, जो पहले थी, वह अब भी है। दोस्तों का ताना, क़व्वाली सुनने पर दाँता-किल-किल...लडकियाँ जवान,कोई ठिकाना है मसीबतों का। लडके चाहते हैं, पढी-लिखी कमाऊ बीवी। कहो बेशरमो,बीवी की कमाई पर ऐश करोगे!"
“शहज़ादी बेगम तो खुदा के फ़ज़्ल से अब...मेरा ख़याल है, मुझ से आठ-नौ बरस छोटी होंगी!"
“क्या बताऊँ, कलेजे पर चट्टान रखे हैं और नामुरादें तीनों ननिहाल पर पड़ गईं। जावेद मेरे ऊपर गया। सो. वह पाकिस्तान चला गया!"
“सुना, शादी कर ली है!”
“हाँ, बड़े जनरल की बेटी है। नाक पर मक्खी नहीं बैठने देती। पिछले साल हम दोनों चले ही गए। सूरत को तरस गए थे। हर साल यही क़िस्सा कि आइन्दा साल आऊँगा। मेरी बदली होनेवाली है। मैंने कहा, ऐसी-तैसी बदली की, मगर जा के पछताये। बस एक कमरे में बन्द रहे। डाइंग-रूम में पार्टियाँ चल रही हैं। बहत कहा, तुम्हारी आपा ने, भलीमानस तंग पाजामा छोड़! कहती है, छह गज़ लट्ठा चुकता है गरारे में। दो गज़ में घुटना बनता है।"
बहुत देर तक बैठे रहे, खाने में दाल और भिंडी की भाजी देखकर गए और होटल के गुलावठी के कबाब और ख़मीरी गर्म-गर्म रोटियाँ ले आए।
फिर तो एहसान ख़ालू सुबह-शाम आने लगे। बैठे अम्मी से बातें किया करते थे। कोठी की कीमत का अन्दाज़ा लगाने के लिए वकील की फ़ीस चाहिए थी। पड़ोस में पंडित जी कभी किसी वकील के कारिन्दे रह चुके थे। दमे के मरज़ ने लाचार कर दिया था, बैठे खाँसा करते थे। ग़ज़ाला गफूरे को लेकर उनसे मिलने गई।
“आदाब-अर्ज़ पंडित चचा!"
"अरे ग़ज़ाला बेटा! किधर भूल पड़ी? तुमने तो जब से स्कूल छोड़ा, सड़क पर भी नज़र नहीं आतीं। हम उधर से कई बार गुज़रे, चमन में भी नहीं दिखाई पड़ी।"
“अब चमन है कहाँ, चचा ख़ाक उड़ रही है!"
"बेगम साहब तो अच्छी हैं?"
"जी, इधर हफ्ता भर से जी अच्छा है।"
"अकेलापन सबसे बड़ा मरज़ है बेटा!"
“एहसान खालू आ जाते हैं, उनके साथ ताश खेल लेती हैं, वक्त गुज़र जाता है।"
"अच्छा एहसान मियाँ आने लगे!"
“उनकी इनायत है। ख़ानदान वाले कुछ हिज्रत कर गए, कुछ दूसरे शहरों में चले गए। कुछ यहीं भूल बैठे।"
“यही ज़माने की रीत है बेटा! सुना है, कोठी बिक रही है!"
"उसी के बारे में आप से सलाह लेनी थी। बीस हज़ार मिल रहे हैं। अम्मी को पहाड़ पर सेनीटोरियम भिजवाना है।"
पंडित भी चुप चिलम कुरेदते रहे।
"मुझे तो कुछ पता नहीं, क्या भाव है जायदाद का चचा!"
“हरामी पिल्ले...क्षमा करना बेटा! गन्दे बोल मुंह से निकल गए। यह पक्के चोर हैं। मैं तो खुद तुम्हारे पास आने की सोच रहा था। गिद्ध हैं बेटा यह सारे के सारे, चाहे वह किसी धर्म के चालक हों, उनका धर्म बस धन-दौलत है। सुना है, तुम्हारे लिए खाँ साहब के बेटे की मंग आई है?"
“जी?"
“कोई बड़ा रोग नहीं, बर्स! सूरत से बे-सूरत हो जाता है। छूत भी नहीं, पर बेटा पीढ़ी-दरपीढ़ी चलता है। वैसे लड़का लायक़ है। बड़ा दुखी है।"
“अरे, शादी-ब्याह की बात बाद में देखी जाएगी। चचा, ज़मीन का क्या भाव है। कोठी की तो बस दीवारें ही लीप-पोत के मरम्मत हो सकती है। दरवाज़े-खिड़कियाँ सब घुन गए हैं। फ़र्श भी उधड़ रहे हैं।"
इलाक़ा बड़ी तेज़ी से ऊपर चढ़ रहा है। मेरी यह तिल भर की कोठी के चौदह हज़ार लग चुके हैं, पर मुझे नहीं देनी। मैं तो सोच रहा हूँ, परचून की दुकान खोल लूँ। पीछे आँगन है। बहबेटे के लिए अलग कमरा है। यह मेरी कोठड़ी सड़क के किनारे है। यह दालान भी माल सजाने के काम आ जाएगा। सोडा वाटर की पेटी तो सुबह और शाम मँगवाता हूँ, यह सन्दूक मीठी गोलियों का भी है। बाल-बच्चे ले ही जाते हैं। बैठा-बैठा ऊब जाता हूँ। बहू का जापा हो ले, तो सोचता हूँ, उससे मीठे सेब और तिल के लड्डू बनवाकर रख दूँ, बड़ी सुघड़ बच्ची है।"
"अरे चचा, आप तो अच्छा-खासा स्टोर खोल सकते हैं। साबुन वगैरा..."
“अरे हज़ारों वस्तुएँ...तेल-फुलेल वगैरा...बिस्कुट...खैर तो बेटी, सोच-समझ के सौदा करना!"
"सामान के लिए भैया जी रुपया लगाएँगे?"
"अरे, क्लर्की में पेट भर जाए, तो बहुत समझो। फिर बह के जापे में खर्चा होगा। बेटा, मैं तो बैंक से तीन हज़ार ले रहा हूँ।"
“बैंक से? कैसे लेते हैं बैंक से क़र्ज़?"
"किसी दिन चली चलो रिक्शा में मेरे साथ। सब समझ जाओगी!"
"कल ही चलती हैं। कितने बजे चचा?"
“यही कोई साढ़े दस-ग्यारह बजे बैंक खुलता है।"
"अरे घोंचू!"
“जी ग़ज़ाला बीबी!” ग़फ़ूरा बोला,
“तुम घोंचू हो?"
"आप ही कहती हैं!"
"देखो, आइन्दा मैंने घोंचू पुकारा और तुम बोले, तो तुम्हारी खैर नहीं समझे?"
“जी!"
"कल जुमा है!"
"जुमेरात है कल तो!"
“खैर, परसों तुम्हारे बाल कटवाने का दिन है, और जुमा मुबारक दिन...शहादत का दर्जा भी नसीब होता है जुमा के दिन।"
ग़फ़ूरा कुछ न बोला, मगर हँसी दबाने के लिए मुँह पर हाथ रख लिया। "हाथ हटाओ!" ग़ज़ाला ने डॉट बताई। ग़फ़ूरा को हाथ रखने की ज़रूरत न रही।
“कहो...ईई...ई!"
मगर ग़फ़ूरा गुमसुम खड़ा रहा। उसके बाल काफ़ी बढ़ गए थे और माथे पर झुक आए थे। मूंछे भी ऊपर के होंठ पर भर गई थीं। एकदम उसकी पिंडलियों में च्यूंटियाँ-सी रेंगने लगीं। फ़िज़ा एकदम गुंग हो गई। दूर कहीं पनचक्की फ़ाख़्ता की तरह कप-कप-कप बोल रही थी, दिल की धड़कन के ताल-सुर पर!
न बादे-सबा थी, न फूलों के महकते हुए तख्ते थे, न रौशन चाँद। बिजली के खम्बे पर कोई मरगिल्ला बीमार कौआ ऊँघ रहा था। रास्ते में नर्म-नर्म घास नहीं, मलबे और कूड़े के ढेर थे।
वह बौखलाकर जल्दी से मुड़ी और कोठी के झूलते हुए फाटक की तरफ़ लपकी। मलबे के ढेर से टकराकर उसके सेंडल की एड़ी निकल गई और पैर गन्द भरे गड्ढे में जा पड़ा।
ग़फ़ूरा बेसाख़्ता आदतन लपका! अगर मनहूस ने उसे कोलिया भरकर उठा लिया, तो वह भस्म हो जाएगी, लेकिन वह ठिठक गया। कीचड़ से पैर निकालकर उसने सारी दुनिया से नफ़रत करते हुए हाथ उठाया। ग़फ़ूरा का गर्म खुरदरा हाथ थामकर वह खड़ी हुई। उसने अपना हाथ खींचा। अगर ग़फ़ूरा ने उसका हाथ न छोड़ा तो?
मगर ग़फ़ूरा ने जल्दी से उसका हाथ छोड़ दिया। मुट्ठी में लम्स समेटे वह कोठी के अहाते में दाखिल हो गई।