तेजा और तेजी : हिंदी लोक-कथा
Teja Aur Teji : Folktale in Hindi
एक धनी किसान के दो पत्नियाँ थीं। बड़ी पत्नी के एक लड़की थी और छोटी पत्नी के एक लड़का और एक लड़की लड़के का नाम था तेजा और लड़की का नाम था तेजी। बड़ी पत्नी को सौत और उसके बच्चे फूटी आँख नहीं सुहाते थे। छोटी वाली पति की चहेती जो थी। एक दिन दोनों सौतनें तालाब पर नहाने गईं। छोटी वाली ने बड़ी से कहा कि वह जरा उसकी पीठ मल दे। बड़ी सौत ने उसकी पीठ मलते-मलते उसे तालाब में धक्का दे दिया और कहा, “कछुआ बनकर यहीं रहो!” छोटी सौत तुरंत बड़े कछुए में बदल गई।
सौतेली माँ घर आई तो तेजा और तेजी ने उससे अपनी माँ के बारे में पूछा। उसने उन्हें डपटते हुए कहा, “मैं क्या जानूं वह कहाँ है!”
अगले दिन सुबह तेजा और तेजी तालाब के पास गायों को चराने ले गए तो एक कछुआ तालाब से बाहर आया और अचरज की बात कि वह उनसे बातें करने लगा। कछुए ने कहा, “बच्चों, मैं तुम्हारी माँ हूँ। तुम्हारी सौतेली माँ ने मुझे तालाब में धकेला और कछुआ बना दिया। मुझे तुम्हारे खाने-पीने की चिंता लगी रहती है।” यह कहकर उसने एक पत्ते पर थोड़ी उलटी की और बच्चों से उसे खाने के लिए कहा। वे उसे खा गए। उन्हें अचंभा हुआ कि उसे खाते ही उनकी भूख मिट गई। उस दिन के बाद वे हर सुबह माँ के पास जाने लगे। वह अपने पेट से खाना निकालकर उन्हें खिलाती।
तेजा और तेजी की सौतेली माँ ने देखा कि अब वे भूख की शिकायत नहीं करते हैं। वे खाए-पीए और स्वस्थ दिखते हैं। अपनी बेटी को वह ख़ूब अच्छी-अच्छी चीज़ें खिलाती हैं फिर भी वह मरियल-सी है। उसे लगा ज़रूर दाल में कुछ काला है। सो एक दिन उसने अपनी बेटी को तेजा और तेजी के साथ यह देखने को भेजा कि वे बाहर कुछ खाते तो नहीं। तेजा और तेजी सौतेली बहन के साथ अपनी माँ के पास नहीं जाना चाहते थे इसलिए उन्होंने उसे दूर निकल गई एक गाय को लाने के लिए भेजा और लपककर माँ के पास पहुँचे। माँ ने पत्ते पर वमन किया। वे फटाफट उसे खाने लगे। उन्होंने खाना शुरू किया ही था कि सौतेली बहन उन्हें ढूँढ़ते हुए आ पहुँची। उसने कहा कि वे जो खा रहे हैं वह भी खाएगी। उसे वह बहुत अच्छा और तृप्तिकर लगा। तेजा और तेजी ने उससे विनती की कि वह अपनी माँ को कुछ न बताए।
शाम को वे घर लौटे तो किसान की बड़ी पत्नी को लगा कि उसकी अपनी बेटी का पेट भी भरा हुआ है। उसने बेटी को कौंचा, “बोलो, तुमने दिन में क्या खाया?” बेटी ने कहा, “कुछ भी तो नहीं!” पर वह इतनी आसानी से पीछा छोड़ने वाली नहीं थी। उसने बार-बार पूछा और आख़िर पीटने की धमकी दी तो बेटी ने तालाब के कछुए और उसके वमन के बारे में सब-कुछ उगल दिया। यह भी कि वह कितना स्वादिष्ट था।
रात को किसान की बड़ी पत्नी ने सोने से पहले अपनी चटाई के नीचे कुछ ठीकरियाँ रख दीं। उसके हिलने-डुलने और करवटें बदलने से ठीकरियाँ कड़-कड़ाक की आवाज़ के साथ टूटतीं। पति ने पूछा, “क्या बात है?”
पत्नी ने कहा, “आह, पूरा बदन टूट रहा है। जोड़-जोड़ दुख रहा है। ओ मेरी माँ, मैं मरी!”
पति ने पूछा, “कोई दवा हो तो बताओ, ले आऊँ?”
पत्नी ने कराहते हुए कहा, “इसकी एक ही दवा है।”
“वह क्या?”
“तालाब का बड़ा कछुआ। उसका माँस खाते ही मैं अच्छी हो जाऊँगी।” पति ने उसे आश्वस्त किया कि सुबह वह कछुए को पकड़ मँगवाएगा। तेजा और तेजी ने यह सुन लिया। वे अदेर तालाब पर गए और माँ को बताया। माँ ने कहा, “रोओ मत! रोने से कुछ नहीं होगा। मेरी बात ध्यान से सुनो! वे मुझे जाल में नहीं फँसा सकेंगे। लेकिन अगर तुम मुझे पकड़ने तालाब पर आओगे तो मैं तुम्हारी पकड़ाई में आ जाऊँगी। वे मुझे काटकर मेरा माँस पकाएँगे। वे तुम्हें खाने के लिए कहें तो तुम पत्तल के नीचे बोटियाँ छुपा देना। उन बोटियों को तुम पत्तल समेत तालाब के पास गाड़ देना। जल्दी ही तुम्हें वहाँ सोने-चाँदी का एक पेड़ दिखेगा। वह तुम्हारी बहुत मदद करेगा।”
सुबह किसान के नौकरों ने कछुए को पकड़ने की बहुत कोशिश की, पर हर बार वह उनके जाल से निकल जाता। वे कोशिश करके थक गए तो तेजा और तेजी वहाँ गए। उन्होंने बड़ी आसानी से कछुए को पकड़ लिया। फिर जैसा कि माँ ने कहा था उन्होंने तालाब के पास बोटियाँ गाड़ दीं।
अगले दिन सुबह वहाँ सोने-चाँदी का पेड़ खड़ा था। उस अद्भुत पेड़ को देखने के लिए लोगों का जमघट लग गया। जब राजा ने उसके बारे में सुना तो उसने उसे अपने महल में ले जाना चाहा। पर कोई भी पेड़ को उखाड़ न सका। तेजा पेड के पास ही खड़ा था। उसने राजा से कहा, “महाराज, इसे मैं उखाड़ सकता हूँ, पर आपको मेरी बहन से विवाह का वचन देना होगा।” तेजा ने यह इसलिए कहा क्योंकि उसकी माँ ने उससे ऐसा कहा था। राजा मान गया। तेजा ने पेड़ को जड़ समेत उखाड़ दिया। राजा हैरान रह गया। उसने तेजा को धन्यवाद दिया और कहा, “तेरी बहन अभी बहुत छोटी है। इसे बड़ी होने दे। फिर मैं इससे विवाह करूँगा।”
तेजा ने राजा को एक चिड़िया और अनार का एक पौधा देते हुए कहा, “महाराज, हो सकता है आप अपना वचन भूल जाएँ। आप इन्हें ले जाएँ। जब यह चिड़िया बोलने लगे और इस अनार पर फल लगने लगें तो आप विवाह करके तेजी को ले जाएँ!” राजा मान गया।
समय बीतता गया। एक दिन वह चिड़िया बोलने लगी और अनार के पेड़ पर फल लगने लगे। पर राजा को अपने वचन की बिल्कुल याद नहीं रही। एक दिन उसे सुनाते हुए चिड़िया गाने लगी—
इजर निजर परील...
पक गया अनार
अब गिरा कि तब गिरा।
भूला कैसे राजा?
बड़ी हो गई तेजी बहना।
गाना सुनकर राजा ने इधर-उधर देखा। चिड़िया ने फिर गाया—
इजर निजर परील....
पक गया अनार
अब गिरा कि तब गिरा।
भूला
कैसे राजा?
बड़ी हो गई तेजी बहना।
राजा को तुरंत अद्भुत पेड़ तले का दृश्य और अपना वचन याद आ गया। उसने बिल्कुल समय नहीं गँवाया और तेजी के गाँव के लिए रवाना हो गया। वहाँ तेजी से शादी करके दुलहन के साथ वह वापस चल पड़ा।
राजा के पहले से ही सात रानियाँ थीं। वे नहीं चाहती थीं कि उनकी एक और सौत आए। राजा और तेजी की नाव को मल्लाह घाट पर लगा रहे थे कि सबसे बड़ी रानी गाने लगी—
यहाँ नहीं, यहाँ नहीं,
यहाँ मत उतरो तेजी!
यह घाट मेरा है
ओ री दुष्ट तेजी!
मल्लाहों ने नाव को दूसरे घाट पर लगाना चाहा। वहाँ दूसरी रानी गाने लगी—
यहाँ नहीं, यहाँ नहीं,
यहाँ मत उतरो तेजी!
यह घाट मेरा हैं
ओ री दुष्ट तेजी!
इस तरह सात घाट पर रानियों ने तेजी को उतरने नहीं दिया। मल्लाहों को नाव अगले घाट पर ले जानी पड़ी।
तेजी राजा के साथ सुख से थी। पर सौतेली माँ से उसका सौभाग्य देखा न गया। वह भीतर ही भीतर जाल गूँथ रही थी और अवसर की प्रतीक्षा कर रही थी। एक बरस बाद जब तेजी के बच्चा हुआ तो उसे वह अवसर मिल गया। रिवाज़ के मुताबिक़ तेजी को मायके जाना था। राजा ने उसे जाने की आज्ञा दे दी। तेजी मायके पहुँची तो सौतेली माँ ने बहुत प्रेम दरसाया। तेजी और उसके बच्चे का वह बहुत ख़याल रखती थी। एक सुबह उसने तेजी से कहा, “आ, तेरे कंघी कर दूँ।” कंघी करते-करते उसने तेजी के माथे में एक काँटा चुभाया और बोली, “मैना बन जा!” तेजी तत्काल मैना बन गई और उड़कर छत पर जा बैठी।
कुछ दिन बाद राजा ने तेजी को लिवाने के लिए पालकी भेजी। सौतेली माँ ने अपनी बेटी को तेजी के कपड़े-गहने पहनाकर तेजी के बच्चे के साथ पालकी में बिठा दिया। मैना पालकी का पीछा करने लगी।
तेजी की सौतेली बहन तेजी जैसी ही लगती थी, ख़ासकर तेजी के कपड़ों में। सो राजा धोखा खा गया। पर बच्चे ने सौतेली मौसी के लिए मुसीबत खड़ी कर दी। माँ के बिना उसका रोना बंद ही नहीं होता था। सौतेली मौसी ने उसे दुलारने और दूध पिलाने का प्रयास किया तो मैना चीख़ उठी—
किसका बच्चा, दुलारती कौन?
इससे तो यह ज़्यादा रोता।
मैना का गाना राजा ने भी सुना। वह असमंजस में पड़ गया।
मायके जाने से पहले तेजी अपने करघे पर जालीनुमा कोई कपड़ा बुन रही थी। वह करघे पर अधबना पड़ा था। सौतेली बहन करघे पर बैठकर बुनने का दिखावा करने लगी तो मैना चीख़ी—
किसका करघा, बुनती कौन?
धागे तोड़ेगी, उलझाएगी मुई।
राजा का संदेह चरम पर पहुँच गया। तेजी कितनी अच्छी तरह बच्चे की सार-संभाल करती थी और कैसी कुशलता से करघा चलाती थी! राजा ने अपने दोनों हाथों में एक-एक लड्डू लिया और मैना से कहा, “मेरे हाथों में दो लड्डू हैं। एक लड्डू भूख का है और दूसरा प्यास का। अगर वास्तव में तुम मेरी अपनी हो तो भूख के लड्डू को खाओ! और अगर तुम कोई दूसरी हो तो प्यास के लड्डू को खाओ!” मैना उसके हाथ पर आ बैठी और भूख के लड्डू के चोंच मारी। राजा ने मैना को सहलाया तो उसे उसके सर पर कोई सख़्त चीज़ महसूस हुई। वह काँटा था। उसने काँटे को खींचकर निकाल दिया। और लो, उसकी तेजी उसके सामने खड़ी थी!
तेजी ने उसे सारी बात बताई। तेजी की सौतेली माँ और उसकी बेटी के छल-छंद के बारे में जानकर राजा का ख़ून खौल उठा। उसने तुरंत वधिकों को आदेश दिया कि वे धूर्त सौतेली बहन का वध कर दें और उसका माँस और चर्बी एक पीपे में रखे, दूसरे पीपे में उसके हाथ-पाँव और सर रखें और तीसरे में उसका ख़ून। फिर उसने दो आदमियों के साथ तीनों पीपे तेजी की सौतेली माँ के पास भिजवा दिए। उसने उन्हें हिदायत दी, “पहले उसे माँस और चर्बी का पीपा देना और कहना कि यह हिरण का माँस है। बाक़ी दोनों पीपे सुबह जब तुम वापस आओ तब वहीं छोड़ आना!”
सो वे पीपों को धूर्त औरत के पास ले गए। उसने मन ही मन कहा, “मेरी बेटी मेरा कितना ख़याल रखती है! अभी कल ही तो वह राजमहल गई है और आज यह उपहार भेज दिया! एक वह कलमुंही थी जिसने कभी कुछ नहीं भेजा।” मुदित माँ ने फटाफट माँस पकाकर घरवालों को खिलाया, ख़ुद भी खाया और चर्बी से घर के दीए जलाए। राजा के चाकरों ने तबीयत ख़राब होने का बहाना करके कुछ नहीं खाया। जब सब खा चुके और दीए अच्छी तरह जलने लगे तो चाकरों ने गाया—
सगे ने उसे पकाया, सगे ने परोसा,
सबने मिलकर उसे खाया।
सगे की चर्बी से उन्होंने दीए जलाए,
आँगन उजाले से नहाया।
गीत के बोल तेजी की विमाता के कानों में पड़े तो उसने पूछा, “क्या गा रहे हो भले आदमियों?” उन्होंने जवाब दिया, “हमें तेज बुखार है। हमें ध्यान नहीं कि हम क्या गा रहे हैं।” सुबह धूर्त औरत ने देखा कि राजा के चाकर जा चुके हैं और दरवाज़े के पास दो पीपे रखे हैं। उसे झटपट उन्हें खोला। उनमें अपनी दुलारी बेटी का सर, हाथ-पाँव और रक्त देखकर वह समझ गई कि रात को उसने क्या खाया था। उसकी व्यथा और क्रोध की सीमा न रही। उसकी चीख़ों से हवा विदीर्ण हो गई।
(साभार : भारत की लोक कथाएँ, संपादक : ए. के. रामानुजन)