!DOCTYPE html> तीतर (डोगरी कहानी) : नरेंद्र खजूरिया (हिंदी कहानी) 

तीतर (डोगरी कहानी) : नरेंद्र खजूरिया

Teetar (Dogri Story) : Narendar Khajuria

कास्तू एक-एक उपला पलटती जा रही थी।
'कुर' 'कुर' 'कुर'। यह स्वर सुनकर कोडू तीतर अपनी चोंच उठाकर ऊपर देखता और अपनी गरदन हिलाने लगता। वह कास्तू की ओर भाग रहा होता तो उसके गले में पड़ा छोटा सा घूँघरू बजने लगता...

घुँघरू की मद्धिम-सी आवाज सुनकर कास्तू को अपने सामने दो नाजुक-से छोटे-छोटे हाथ दिखाई देने लगते, जिनमें कभी चाँदी का एक-एक कंगन पड़ा हुआ था। कोडू के गले में इन्हीं कंगनों की घुंगरी पड़ी हुई थी।

कास्तू की दुनिया गोल नहीं लंबी है, जिस पर मोड़-ही-मोड़ दिखते हैं और प्रत्येक मोड़ पर कास्तू ने नई जिंदगी देखी है।

गहरी घाटी पार करके कास्तू जब छप्परवाली रिज पर पहुँची, तो सामने बाँसों पर लहराती रंग-बिरंगी झंडियाँ दिखाई देने लगीं। वह उसी ओर चल पड़ी। जब वह जगतू बरवाले के थान पर पहुँची तो वो झंडियाँ उसे स्याह लगने लगीं।
थान पर जगतू बरवाला देवता के सामने धूप जला रहा था। गूगल धूप की सुगंध थान के भीतर और बाहर चबूतरे तक फैल रही थी। धूपवाली कड़ुछी हाथ में लिये बरवाला बाहर आया।
“जय-जय सुरगल देवता! तेरी साम...जय-जय...।”
“यह कौन डोली है?"
“बरवालाजी, मैं हाजिर हूँ।”
बरवाला धूपवाली कड़ूछी चारों ओर घुमाने लगा, “दसों दिशा में हमारी रक्षा करो...सुरगल महाराज...!”
शंख फूँकने के बाद बरवाला चिलम लेकर एक खंभे के सहारे बरामदे के कोट पर टिक बैठा। 'पक-पक-पक '।

पहले हल्के-हल्के कश लेने के बाद उसने जोर से दम खींचा, चिलम पर एक लाट नाच उठी। लाट की रोशनी में उसे कास्तू की एक झलक-सी दिखाई दी।
“कौन जात है तेरी?”
“महाशी।”
“इस टोले में किससे नाता है? ”
“बरवालाजी, सिर के साईं के सिधारने के बाद सब रिश्ते-नाते टूट गए हैं। मेरे महाशे को फाँसी लटके एक साल बीत चुका है।"
“वह क्यों?”

“उसका स्वभाव जरा तेज था। उसने अपने दो शरीकों को एक साथ काट डाला था।” एक आह भरकर कास्तू कह रही थी, “माथा फूटे इस भाग्य का” उसने एक फलती-फूलती गृहस्थी उजाड़ दी...मैंने डेढ़-डेढ़ मन परोला (सफेद मिट्‌टी) सिर पर ढोकर कस्बे में बेचा। बड़े-बड़े नामवर-लड़ाके वकील किए, बड़ी-से-बड़ी अदालत में अपील की, लेकिन मेरे महाशे के भाग्य में केवल फाँसी लिखी थी।”

“अच्छा, तो तू फामी की औरत है? एक दिन वह इस थान पर सवाली बनकर आया था...औलाद के लिए...लेकिन तू अब...? ”

“सुनिए, बरवालाजी, परदेस जाकर भीख माँगने में भी कोई शर्म बाली बात नहीं...पर अपने शरीकों में...और फिर शरीक भी वो, जिन्होंने हमारे विरुद्ध बढ़-चढ़कर गवाहियाँ दीं। महाशे के फाँसी चढ़ने पर इन्होंने खुशियाँ मनाई थीं। अब मैं कैसे उस जगह दिन काट सकती हूँ! "
“घबरा नहीं महाशी! तेरे भाग्य का सितारा अभी डूबा नहीं है। सुरगल देवता ने तुझे अपनी शरण में बुला लिया है।"
कास्तू ने एक और उपला उलटकर देखा। दीमक कुलबुला उठी--कुर...कुर...कुर...
कोडू टिक-टिक करता चुन-चुनकर कीड़े खाने लगा।

छोटे-छोटे उपले और बड़े-बड़े ढोकले--उनमें से कुछ खुश्क होकर भुरभुरा चुके हैं, कुछ बाहर से सूखे; लेकिन भीतर से गीले हैं, इनके अंदर कीड़ों की कुलबुलाहट देखकर कास्तू के शरीर में ऐंठन-सी होने लगती है। उसकी जीभ बे-जायका हो उठती है।

उस रात जब जगतू को 'जातर' पड़ी तो कास्तू ने भी महाकाली का रूप धारण कर लिया। एक हाथ से उसने जगतू की बाँह मरोड़ रखी थी और दूसरे हाथ से उसकी लटकती लटें नोंचती हुई पूछ रही थी, “अरे बरवाले, क्या समझकर तूने मुझ पर हाथ डाला है? मेरे महाशे ने इकट्ठे दो खून किए थे तो एक खून करने की ताकत तो मेरे में भी है। बोल पापी! पाखंडी! ”

जगतू ने कास्तू को माँ कहकर पुकारा और मिन्नत-खुशामद करके उससे अपनी जान बख्शाई थी।

उसी रात कास्तू वहाँ से चली गई थी। बरवाले को उसने क्षमा कर दिया, लेकिन क्रोध से उसका जिस्म काँप रहा था। अलगोजों पर कोई चन्न (पहाड़ी गीत) की धुन बजा रहा था। सावन महीने की घुप-अँधेरी रात थी। कास्तू का भयानक रूप देखकर बस्ती के कुत्ते भौंकने लगे।
"अँधेरे में किसे देखकर ये कुत्ते भौंक रहे हैं?” शोंकू चौकीदार का स्वर सुनाई पड़ा।
“जी, पता नहीं, टोले के तमाम पिल्ले क्यों मेरे पीछे पड़े हैं? ”
“तू कौन है? ”
“मैं परदेसन हूँ।"
शोंकू चौकीदार ने करीब आकर दियासलाई जलाई। टोले में किसके यहाँ जाना है तुझे? "
“जिसके यहाँ ठिकाना मिल सके। मेहनत-मजूरी करके जहाँ दो रोटी का टुकड़ा मिल जाए।"
शोंकू ने जेब से एक सिगरेट निकालकर सुलगाया और तब दियासलाई जलाकर कास्तू की ओर देखा।
“क्या जात है तेरी?”
“महाशी...लेकिन यहाँ अलगोजे कौन बजा रहा था?”
"क्यों?"
“कुछ नहीं, मुझे हौसला हुआ था कि चलो कोई-न-कोई जाग रहा है...”
शोंकू ने एक लंबा कश खींचा। कास्तू को शोंकू के गले से लटक रही अलगोजों की जोड़ी दिखाई दे रही थी।
वह सोचने लगी, मेरा महाशा भी ऐसे ही अलगोजे बजाया करता था।

कास्तू शोंकू के घर आ बसी। चौकीदार के घर पर उसकी बूढ़ी माँ ही थी। कास्तू ने अपने काम-काज से माँ-बेटे का मन जीत लिया।
बस्ती में कानाफूसी होने लगी--
“शोंकू चौकीदार कोई पहाड़ी रखैल ले आया है।”

जगतू बरवाले में भी देवते का प्रवेश हुआ। “बस्ती पर भारी मुसीबत आनेवाली है। गोड़- बंगाल की एक जादूगरनी ने टोले पर अपना खूनी पंजा जमा लिया है..."
जितने मुँह, उतनी बातें! कोई कहता, “वह मसान से अपना काम-धंधा करवाती है।”
“मसान रातोरात शोंकू के खेतों में नलाई-गुड़ाई कर देता है।”
“वह एक गट्ठे में इतनी घास लाती है, जिसको पशु तीन दिन खाएँ तो भी खत्म न हो।"

यह सब सुनकर शोंकू की माँ कहती, “बेटा, लोग सच ही कह रहे हैं। बरवाला कभी झूठ नहीं बोलता। सचमुच यह जनानी कोई छलावा है। भाड़ में जाए, उसका काम। बेटा, इसे तुम घर से निकाल दो।”

यह सब सुनकर शोंकू मुसकरा देता और अकेले में अलगोजे बजाने लगता। बुढ़िया बाबा सुरगल के थान पर जाती, अपने सिर पर दोहत्थड़ मारकर कहती, “बरवालाजी, मेरे बेटे को बचा लो। उस डायन ने उसे भेड़ बना रखा है।”

जगतू दोनों हथेलियाँ जमीन पर पटककर मारता और कहता, “भारी विपत्ति आनेवाली है। देवता नाराज हो गया है। हर रात वह मुझे पकड़ता है, पर मैं किसे जगाऊँ, सारी बस्ती सो रही है! ये लोग जागेंगे, लेकिन उस समय, जब यह गोड़-बंगाल की जादूगरनी सबको निगल जाएगी।”
कास्तू उपले पलटती जा रही थी--कुर...कुर...कुर...

स्मृतियों की बर्फानी परतें आज फिर पिघल रही हैं, हुई बीती बातें मानो लाशों की तरह इस बर्फ तले दफन हैं। बर्फ में दबी लाशें "मानो अभी-अभी इनका दम निकला हो! एक-एक लाश कास्तू के सामने खड़ी रो रही है"
बस्ती में वो पंचायत...

शोंकू की माँ की चीख-पुकार। पंचों के सामने छाती पीट-पीटकर वह कह रही थी, “पंचो, यह गोड़-बंगालिन मेरे बेटे का कलेजा खा गई है। मेरे कलेजे के टुकड़े का लहू अभी भी इसके होंठों पर चमक रहा है। पंच परमेश्वरो, मेरा न्‍याय करो।”

जगतू बरवाला एक टाँग पर खड़ा होकर कह रहा था, “पंचो, यह औरत नहीं है, जादूगरनी है, करकसा है, डाकनी है, जिसने अपने कई खसमों के कलेजे खा लिये हैं।”

दूसरी ओर छोटा-सा बच्चा गोद में लिये कास्तू बैठी थी। वह न बेहोश थी और न होश में। आँसू बह-बहकर उसकी आँखें खुश्क हो चुकी थीं और वहाँ केवल कीच-ही-कीच रह गई थी।

लेकिन कास्तू उस दलदल में भी चली जा रही थी, मानो चलना ही उसकी एकमात्र आस्था हो!

पंचों का फैसला सिर-माथे पर। कास्तू बस्ती से बाहर निकल गई। मरदों ने उसके पीछे सरसों फेंकी, औरतों ने मुट्टियाँ भर-भरकर राख उड़ाई, ताकि यह जादूगरनी दोबारा बस्ती में न लौट आए।
कास्तू ने पीछे मुड़कर देखा। वह काँटों भरी यात्रा का एक और मोड़ काट चुकी थी।

उसके सामने समतल रास्ता था। नीचे उधर एक नाला बहता था और उसके पार एक गुफा- सी बनी थी, जहाँ सर्दियों में चरवाहे ठहरा करते। उसी गुफा में कास्तू अपने बच्चे को लेकर जा बसी।

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तीतर सूखी मिट्टी में लोट रहा था। कास्‍्तू टकटकी बाँधे उसे देख रही थी। मन में वह कह रही थी, “बेटा, मैं तो पक्षी ही थी। न जाने किस गलती से विधाता ने मुझे मानव रूप में ढाल दिया! भाग्य का चक्कर देखो कि मानव ने मुझे अपनी बिरादरी से ही खारिज कर दिया है। न मुझे चलने दिया, न उड़ान भरने दी।”
उसी समय चरवाहे लड़के पशुओं को वापस घर लाते हुए नाले के दूसरे किनारे से चिल्ला उठे--' काँसू...काँसू...कान सू...'

कास्तू भी गोया उन्हीं की प्रतीक्षा में बैठी हो। वह उन लड़कों से भी ऊँची आवाज में चिल्ला उठी, “हाँ, यह कोडू तीतर नहीं, काँसू ही है--तुम्हारी माँ का खसम।” यह सुनकर लड़के हँस- हँसकर लोट-पोट होने लगे।

टोले के बूढ़े-जवान सभी सुरगल देवता की सौगंध खाकर कहते हैं, “काँसू का कलेजा भी कास्तू ने ही निकाला था।"

जगतू बरवाला ढोल और काँसे की थाली के ताल पर 'कण छाँटने' के ढोंग पर चावल के दाने गिनकर भूत और भविष्य का हाल बताता था। “काँसू की आत्मा कास्तू के काले तीतर के अंदर ही कैद है। यह कोई मामूली औरत नहीं, गोड़-बंगाले की...।”

यह बातें मानो हवा के घोड़े पर सवार होकर कास्तू के कानों तक भी पहुँची थीं। वह जगतू बरवाले का नाम ले-लेकर जमीन पर थूकती और अपने बाल इस तरह नोंचतो मानो अब भी जगतू की लटें नोंच रही हो, “ए बरवाले, गूगल धूप की सुगंध में छिपा तेरा असली रूप मैं खूब पहचानती हूँ। तेरा भ्रष्ट काम उपलों के नीचे पलनेवाले गंदे कीड़े से भी बुरा है। ए पापी, तेरा पाप-पंक से भरा शरीर लोहे की साँकलों की मार से और ज्यादा पापी और बेशर्म हो गया है।”

कास्तू अपने पति को अपना मालिक ही नहीं, बल्कि घर का चिराग भी समझती थी। घर तो अब उजड़ चुका था, लेकिन चिराग की उस गुफा में भी जरूरत थी। और कास्तू का अंतिम चिराग था काँसू, जिसका न घर था न घाट”। वह कस्बे की कचहरियों में झूठी गवाही देता और बस्ती से अवैध शराब ले जाकर कस्बे में बेचा करता। स्वयं भी वह पक्का शराबी था।

एक दिन शाम को ज्यादा पीकर नाले के पार गिर पड़ा। गिरना उसके लिए कोई अनहोनी बात न थी, क्योंकि अपने जीवन में वह चला कम और गिरा अधिक था।

अगली सुबह कास्तू ने वहाँ जाकर देखा कि वह उसी तरह मूर्च्छित पड़ा है। कास्तू घबरा गई, “माथा फूटे इस भाग्य का!” अब एक और कलेजा उसके जिम्मे चढ़ने लगा था। वह उसके करीब गई। काँसू की साँस अभी चल रही थी। वह उसे उठाकर ले आई और दस दिन तक उसकी सेवा में लगी रही।

बच्चे को पीठ पर उठाए वह कस्बे में जाकर परोला, झाड़ू और छकरियाँ बेचती और उन पैसों से काँसू के लिए दवाई वगैरह खरीद लाती।

काँसू ठीक हुआ तो एक दिन उसकी आँखें आँसुओं से भर गई। कहने लगा, “कास्तू मुई, इस बार तो तूने मुझे बचा लिया, लेकिन आखिर एक दिन तो मुझे कहीं रास्ते में ही गिरकर मरना है ।"

कास्तू जवाब देती, "अगर मैं बचानेवाली होती तो अपने उन दो खसमों को न बचा लेती? नहीं, मैं बचानेवाली नहीं हूँ, खानेवाली हूँ। बस्ती का बच्चा-बच्चा मुझे गोड़-बंगालिन कहता है।”

काँसू ने कहा, “पहले तो तू न थी, लेकिन अब इस उजड्ड बियाबान में रहकर जरूर ही गोड़-बंगालिन हो जाएगी। अरी मुई, आदमी को आदमी का सहारा होता है।”

कास्तू ठंडी आह भरकर कहती, “काँसू, विधाता ने मेरी माँग में सिंदूर नहीं, उपलों की राख भरनी लिखी है। इसलिए जिधर जाती हूँ, मुझ पर राख ही पड़ती है।”

काँसू अपनी छाती बजाकर कहता, “कास्तू मुई, अगर यह बात है तो काँसू विधाता के लिखे को मिटाकर तेरी माँग में सिंदूर भरेगा।”

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महाशों के टोले में एक बार फिर भूचाल आ गया।

औरतों में चर्चा हो रही थी, “ये मर्द निगोड़े इनका सीना जले...कैसे गए-गुजरे होते हैं। देखो न, वह गोड़-बंगाल की राँड एक-एक करके उनके कलेजे खाए जा रही है और ये मर्द फिर भी उसी की ओर खिंचे चले जाते हैं, जैसे वही राँड दुनिया में एक हुस्न-परी रह गई हो! ”

और मरदों की टोली कह रही थीं, “यह साली महाशी डायन ही नहीं है, इसके पास “वशीकरण मंत्र” भी है। एक के बाद दूसरा परवाना उस पर जान देने चला आता है।”

उधर जगतू बरवाला अपने शरीर को थरथराकर और छाती ठोंककर भविष्यवाणी कर रहा था, “यह करकसा, डाकनी एक दिन काँसू का कलेजा भी निकालकर खा जाएगी। अगर ऐसा न हुआ को सुरगल देवता का यह चेला भेड़े मूँड़ने वाली कैचीं से अपनी यह लटें कटवा लेगा...जय सुरगल बावा...तेरी साम...”

यह सब बातें सुनकर काँसू आँखें बंद कर लेता और जोरदार ठहाका लगाकर कहता, “कास्तू, तू बिल्कुल चिंता न कर। मेरे जिगर को पहले ही शराब चाट चुकी है।”

सूरज की सुनहरी टिकिया गोता लगाने की तैयारी में थी। कास्तू के शरीर का प्रत्येक अंग आज टूट रहा था।

सूखे हुए उपले उसने एक ओर रख दिए तो कोडू ने उस खाली जगह से दीमक का शिकार किया और फिर पेट भरने पर आडू की एक टहनी पर बैठकर चोंच से अपने पर खुजाने लगा। यह आवाज सुनकर कास्तू के समक्ष उसके बच्चे के दो छोटे-छोटे कोमल हाथ आ गए, जिनमें कंगन पड़े हुए थे। यह कंगन आखिरी बार तब छनके थे, जब कास्तू ने बच्चे के बुखार से तपे हुए हाथों से उन्हें उतारा था। कितनी देर तक वह उन छोटे-छोटे कंगनों को घूर-घूरकर देखती रही और फिर उनमें से एक घुँघरू उतारकर वह कंगन उसने काँसू को दे दिए और एक आह भरकर बोली थी, “यह कंगन मेरे चौकीदार ने बड़े चाव से बनवाए थे।”

चौकीदार का नाम सुनकर काँसू तुनककर बोला, “अगर तेरा बच्चा बच गया तो इसे मैं सोने के कंगन बनवा दूँगा। अरी, मैं भी अदालतों का सूरमा हूँ, जिसके खिलाफ गवाही दे दूँ..."

काँसू डॉक्टर को बुलाने शहर चला गया। कास्तू अपने क्षीणकाय बच्चे को गोद में लिये उसे ममतालू नजरों से देख रही थी। बच्चे को मियादी बुखार हो गया था और वह बेचारा इस तरह कराह रहा था, मानो जंगल में बिल्ली कराह रही हो!

दिन चढ़ गया। काँसू डॉक्टर को लेकर न पहुँचा। और कास्तू का इकलौता बेटा हमेशा के लिए सो गया। काँसू की राह देखते-देखते आखिर दोपहर के बाद कास्तू ने नाले पार जाकर एक गड़्ढा खोदा और बच्चे को अच्छी तरह नहा-धुलाकर गड्ढे में लिटा दिया।

वह विलाप कर रहो थी, “बच्चे, में टोलेवालों के डर से जोर-जोर से रो भी नहीं सकती, क्योंकि सुनकर वे कहेंगे, मैंने अपने बेटे का कलेजा भी खा लिया है। बेटा, मैं तेरा इलाज भी न करवा सकी और मैंने तेरे कंगन छीन लिये, मेरे बेटे...!"

रात भर वह अपने बच्चे की कब्र पर बैठी रोती रही, पर काँसू वापस न आया। दूसरी सुबह “रेजिन! (बरोजा) ढोनेवाले ने बस्ती में सूचना दी कि काँसू ढक्की पर मरा पड़ा है।

बस्ती के झोंपड़ों के दरवाजे और खिड़कियाँ भड़ाक से खुलने लगीं। रात को सुरगल देवता के थान पर ढोलक और थाली छनछना उठी। जगतू अपनी लटें नचा-नचाकर ' जातर' कर रहा था।

“जय सच्ची शक्तिवाले अपने चेले के बोल सच्चे करनेवाले देवता, तेरी साम। जय-जय सुरगल महाराज!”

गरमियों में कास्तू हर रोज अपने बच्चे की कब्र पर बरहेंकड़ के हरे पत्ते बिछा आती, ताकि उसके जिगर के टुकड़े को धूप न लगे।

एक दिन वह बरहेंकड़ के पत्ते तोड़ रही थी कि झाड़ी में से काले तीतर का एक बच्चा कुर- कुर करता हुआ बाहर निकल भागा। कास्तू ने दौड़कर उसे पकड़ लिया। उसे ऐसे लगा, जैसे उसका ही बेटा तीतर बनकर पुन: आ गया हो। वह अपने बच्चे को कोडू कहकर बुलाती थी। इसलिए तीतर को भी वह इसी नाम से बुलाने लगी। अपने बच्चे के कंगनों से उतारा हुआ घुँघरू उसने कोडू के गले में डाल दिया।
इधर जगतू ने टोले में अफवाह उड़ा दी कि कास्तू ने तीतर में काँसू की रूह कैद कर रखी है।

कास्तू ने यह शरारतपूर्ण अफवाह सुनी तो तड़प उठी, “माथा फूटे इस पापी बरवाले का! काडू तो मेरा जिगर का टुकड़ा है; वह जिगर का टुकड़ा, जो बिन इलाज के आज भी नाले के पार लेटा हुआ है। उसकी कब्र पर में बरहेंकड़ के पत्ते बिछाती हूँ।”

कार्तिक महीने के सूने-सूने आकाश पर लाली छाई हुई थी। कास्तू घुटनों पर हाथ रखे खड़ी थी। कोडू अभी तक अपने पर कुरेद रहा था। कास्तू ने उसके पास आकर कहा, “आओ बेटा कोडू, घर चलें।”

उसने हाथ आगे बढ़ाया तो कोडू कुछ बिदका और फुर-र-र करके उड़ गया। कास्तू को यों लगा, जैसे उसके अपने प्राण-पख्लेरू उड़े जा रहे हों!
"कोडू...कोडू...ऊ..."

गिरती-लड़खड़ाती कास्‍्तू उसी ओर भागी, जिधर कोडू उड़ा था। चबूतरेवाले बोहड़ के पेड़ तक उड़ता हुआ वह दिखाई दिया। उसके बाद कास्तू की आँखों के सामने अँधेरा छा गया।

“कोडू बेटा, तूने अपना धर्म नहीं निबाहा। तू भी मुझे छोड़कर चला गया।” वह फूट-फूटकर रोने लगी। बस्ती के बाहर कोडू-कोडू पुकारती रही, लेकिन...

कास्तू की गुफा आज बीरान और सुनसान थी। कोडू का बाँस की तीलियोंवाला खाली पिंजरा ऐसे दिखता था, मानो कास्तू का शव पड़ा हो।

आज फिर वह लहूलुहान हो गई। उसका तमाम बदन आज फिर टीसने लगा। वह कह रही थी, “कोडू बेटे, बस्तीवालों की झूठी बातों को, जगतू बरवाले की पाप भरी अफवाहों को मुझे एक-एक करके छोड़ जानेवाले तुम लोगों ने सच्चा कर दिया है।"

गुफा के बाहर जोर की आँधी चलने लगी। कास्तू को कोडू के गले में पड़े हुए घुँघरू की डोरी का ध्यान आया।

“कहीं वह डोर किसी पेड़ की टहनी से उलझ गई तो...!" उसकी आँखों के आगे पेड़ की टहनी से लटकता हुआ कोडू आ जाता और वह घबराहट में बाहर निकल आती और चिल्लाने लगती, 'कुर...कुर...कुर...'

दो वर्ष पूर्व एक बार कास्तू बीमार पड़ी थी तो पानी पिलानेवाला भी कोई न था। उसने समझ लिया था अब आखिरी बेला आ पहुँची है। उसे अब जीते रहने की चाह न थी।

लेकिन, यह चिंता उसकी जान को खाए जाती थी कि उसके बाद कोडू का क्‍या बनेगा? उसकी देखभाल कौन करेगा? कौन खिलाएगा-पिलाएगा उसे? फिर जैसे कोई उसके भीतर से पुकारकर कहा कि वह मरेगी नहीं। कोडू को असहाय छोड़कर नहीं जाएगी वह। और सचमुच वह नीरोग हो गई।

पर आज कोडू ही उसे छोड़कर चला गया। कास्तू को यों लगने लगा, जैसे आज की रात उसकी अंतिम रात है। अब जीवन का आखिरी मोड़ चला आया।

वह जमीन पर लेट गई। उसके आँसुओं के बाँध आज फिर टूट गए। वह एक पीड़ा से पगी आह भरकर सोच रही थी, 'हाँ, मैंने क्या सोचा था!' एक महीना पहले उसे पता चला था कि घोरणी गाँव में किसी आदमी ने मादा तीतर पाल रखे हैं। कोडू के लिए मादा तीतर प्राप्त करने के लिए उसने किसी से सिफारिश भी करवाई थी। और तब उसे खयाल आया था कि अब कोडू के लिए एक बड़े पिंजरे की जरूरत पड़ जाएगी। चश्मेबद्दूर अब कोडू अपनी गृहस्थी बसाएगा...और कास्तू ऐसे खुश होने लगी, मानो सचमुच वह किसी की सास, किसी की दादी बननेवाली हो!

कास्तू ने धीरे से करवट बदली। उसका शरीर निढाल और अचेत हो चुका था। साँस धीरे-धीरे चल रही थी। लेकिन हर श्वास के साथ 'कोडू-कोडू' की मद्धिम-सी ध्वनि आ रही थी।

इसी दुरवस्था में रात का आखिरी पहर बीत गया। सहसा कास्तू के कानों में कोई चिर-परिचित आवाज पड़ी। वह गहरी बेहोशी की समाधि से निकल आई और उठकर बैठ गई। सुबह की मद्धिम रोशनी गुफा में प्रवेश कर रही थी। कास्तू को यों लगा, जैसे कोई उसे बुला रहा है।

उसे महसूस हुआ, बाहर आड़ू के पेड़ पर बैठे किसी पंछी...शायद कोडू के गले में पड़ा घुँघरू बज रहा है--छन-टुन, छन-टुन...

कास्तू की आँखों से ममता भरे आँसू टपक पड़े और हठात् उसके मुँह से निकला--“कोडू बेटे...!"

(नरेंद्र खजूरिया (1933-1970)। डोगरी भाषा के विख्यात साहित्यकार थे, इन्हें कहानी-संग्रह 'नीला अंबर काले बादल” के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार” से सम्मानित (मरणोपरांत) किया गया।)

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