तीन में से घटा तीन (असमिया कहानी) : महिम बरा

Teen Mein Se Ghata Teen (Assamese Story in Hindi) : Mahim Bora

रविवार । हाट-बाजार का दिन । तिस परखेत में हल जोतने, फावड़ा चलाने का भी कोई खास काम नहीं।

पूर्णकांत ने चटाई पर लेटे-लेटे एक बार करवट बदली । बड़ा लड़का दीवार के इसी ओर बड़े पीढ़े पर बैठा हिसाब लगा रहा था। शायद घटाव का हिसाब था। दो में से पांच नहीं घट सका, इसलिए एक दहाई उधार लेना होगा । एक दहाई, मतलब दस । कुल हुए बारह, बारह में से घटा पांच, बाकी बचा सात । उधरबचा तीन । तीन में से घटा तीन- कुछ नहीं, यानी शून्य ।

वह मतलब', यानी', 'पर', 'फिर' आदि शब्द लगा-लगाकर कहता जा रहा था । इतनी आसानी से दस उधार ले सका है? फिर एक उधार लेने पर दस कैसे हो गया? एक नहीं, दो नहीं, सीधे दस, उधार भला दिया किसने? फिर तीन-तीन मिलकर बराबर नहीं हो सकते । अगर मिल पा सकते तो तुम तीनों भाइयों में ऐसी टकराहट नहीं होती। हां, तीन से तीन घट जरूर सकता है।

उधर रसोईघर में मंझले और नन्हें बेटे को लेकर चाय-जलपान बनाने-खिलाने में पत्नी की चीख-पुकार नियमपूर्वक शुरू हो गयी थी।

“अरे नहीं है रे, हांड़ी के कोने में जरा-सा लगा हुआ है। वह भी तुझे दे दूं तो तेरे बाप भला यह चाय कैसे पीयेंगे? पूरा जलपान गुड़ से लाल कर लिया है, भला और कितना चाहिए? बाप हाट-बाजार जाकर फिर ले आयेंगे न ! तब खाना।"

बात समाप्त होते न होते एक और लड़के को वह डांटती हुई बोल उठी - “मत ले, मत ले, मत ले वह । सुबह-सुबह तेरे बाप क्या फीकी चाय पियेंगे? कहा न, बछड़ा बड़ा हो गया है, दूध नहीं निकलता। किसी तरह खींच-तानकर इतना-सा दूध निकाल पायी हूं | चाय कम से कम सफेद तो हो जाये । पी, पी, दूध के बगैर भी वह चाय पेट में जायेगी।"

सारी बातें पूर्ण फिर अपने मन में दुहराता गया । अचानक अंदर ही कोई रस पाकर उसने मुंह को फैला एक शब्दहीन हंसी हंस दी । दीवार के छेदों से आती हुई धूप से ही उसे सूरज उगने का आभास हो गया था, फिर भी उसने सिरहाने की ओर की खिड़की को जरा-सा परे हटा दिया। बांस की दीवार में कटी खिड़की, उस पर चटाई के टुकड़े को बांस की खपच्चियों से जोड़-बांधकर एक पर्दा बना है और उसे बेंत से लटकाये रखा गया है । किनारे से उसे कुछ बल लगाकर ठेल देने पर वह धड़-धड़ करता एक ओर हट जाता है। उसने खिड़की से ही देखा, सूरज बांस के झुरमुट के ऊपर चला गया है । उठा तो जाता नहीं, काम है इसलिए उठना है। मगर वह उठकर भी क्या करेगा? बाजार क्या लेकर जायेगा? इन नन्हें बच्चों को वंचित करके ले जाना क्या उचित होगा? उसने सिरहाने को हाथ से ही टटोलकर एक बीड़ी निकाली, जलायी और लेटे-लेटे ही पीने लगा।

कोई धमधमाता हुआ आया। ज्यादा गुड़ मांगने वाला उसका मंझला लड़का था।

"बप्पा, उठते क्यों नहीं? क्या बाजार से गुड़ नहीं लाओगे?" उसके हाथ-मुंह में जूठन लगी हुई थी।

दीवार के उस पार से 'तीन में से घटा तीन बराबर' करने वाला लड़का, जो दूसरी कक्षा में पढ़ता था, बोल उठा - “अगर बाजार जायें तो मेरे लिए एक दस्ता कागज लायें, बप्पा ! सिरीरामपुरी कागज, मेरी भूगोल की कापी के पन्ने खत्म हो गये हैं, मास्टर मारेगा।"

सबसे छोटा बेटा, जलपान का कटोरा हाथ में लिये जलपान को हाथ-मुंह में लपेटे, चाटता हुआ बाहर निकल आया। उसकी फरमाइश थी लाजेंस की !

"मेले लिए एक थो जालेन लाना, बपा!"

मगर उसने दूसरे ही क्षण सोचा, वह भी तो बाप के साथ बाजार जा ही सकता है । लाजेंस लाने का काम तो वही कर सकता है । इसलिए बोला- “मैं भी जायगा बाजाल तेले साथ ।”

मां अंदर आ गयी।

“दोपहर हो चली, अब भी उठने का नाम नहीं।" शायद बच्चे के हाथ-मुंह धोने के लिए उसका एक हाथ पकड़ दूसरे हाथ से तीन उंगलियां दिखाकर वह बोली- “तीन तो मैंने देखे थे। साथ में और भी दो-एक चीजें खोज देखो तो बाड़ी में ।"

आखिरी बात कहती हुई वह छोटे बच्चे को मुंह-हाथ धुलाने के लिए ले गयी।

उंगली से दिखायी तीन चीजों को वह भी जानता है, पहले दिन ही देख चुका है। वह कल से यह बात तय नहीं कर पाया है कि क्या करे । बच्चे का हाथ-मुंह धुलाकर लौटने पर उसे वैसे ही लेटे देख, आवाज को जरा सख्त कर वह बोली- “बांस की आग अब राख होकर पानी हो जायेगी । मैं फिर आग जला नहीं सकती। उधर डेंकी में बरा डाला हुआ है।"

अब पूर्णकांत उठ पड़ा। सुबह की चाय छोड़ी नहीं जा सकती।

हाथ-मुंह धोकर पिछवाड़े के बरामदे में एक मोढ़े पर बैठते ही पत्नी ने चाय का गिलास सामने रखकर अपनी फरमाइश बतायी - “चालीस नंबर सूत भी पाव भर देखियेगा जरा ! सूत के बगैर करघे पर के अंगोछे ऐसे ही सड़ रहे हैं । हां, आधा पाव कपड़ा धोने का साबुन भी लेते आना।”

“कपड़ा धोने का साबुन । क्यों, वह तो पिछले रविवार को ही लाया था न? खत्म हो गया क्या?"

"पिछले रविवार को कहां? बीच में एक रविवार और निकल नहीं गया? आपके कपड़े क्या दो बार नहीं धोये गये? इनके पैंट-कमीज आदि को जरा-जरा साबुन लगाकर केले की राख डालकर उबाल दिया था, इसलिए दो सप्ताह चला। इसके अलावा कभी-कभी सिर-मुंह धोने के लिए भी तो चाहिए।"

“नहाने के लिए? नहीं, हमें साबुन लगाकर विलायती बनने की कोई जरूरत नहीं।" पूर्ण ने चाय की घूँट मुंह में ली। सिर-मुंह धोने की बात का मतलब पूर्ण ने या तो नहीं समझा, या समझने की कोशिश नहीं की।

"दादा हैं क्या?” बाहर से टंक की आवाज आयी।

"दादा, आओ, अंदर आ जाओ। हाथ-मुंह धोकर चाय की चूंट ले रहा हूं।” गिलास नीचे रखकर पूर्णकांत ने दीवार की ओर रखे पीढ़े को खींचकर सामने कर दिया।

“इतनी देर से चाय पी रहे हो?" बाजार के लिए सामान से भरा छोटा-सा कोंवर एक ओर रखकर टंक पीढ़े पर बैठ गया।

शादी के बाद इन दोनों ने एक ही साथ दीक्षा ली थी। इसलिए दादा का संपर्क आध्यात्मिक भी था। टंक का घरमील भर दूर के गांव में है । बाजार इसी राह से जाना पड़ता है ।

“मैं तो आज बड़े सवेरे ही जाग पड़ा था। बाड़ी की टट्टी की मरम्मत की, गायों ने तोड़ डाली थी। बाड़ी में खोज-ढूंढकर केले का एक फूल, और कुछ नीबू मिले । लकड़ी के लिए कुछ सूखे बांस खोजकर फाड़े । फिर नहा-धोकर घर से चार छीमी आठिया केले पके देखकर कांवर बनाकर बाजार जा रहा हूं।"

“यह जीने-खाने का लक्षण है, भैया !” कहते हुए पूर्णकांत ने मुस्कुराते हुए चाय का गिलास फिर उठा लिया।

तभी पूर्णकांत की पत्नी चादर से चेहरे का एक सिरा ढंककर एक कटोरा फीकी चाय थाली में सजाकर ले आयी औरटंक के सामने की जमीन को हाथ से पोंछकर रख दिया। दादा को चाय या तामोल, चाहे कुछ भी देना हो, यही नियम है।

उसके पास खड़ी होकर चादर को सहेजते हुए पति की ओर देख हंसकर कहा- "देखिए, लोगों के कामों की तो गिनती नहीं । एक हमारे ये' हैं, कहते-सुनते अब जाकर इनकी कुंभकर्णी नींद टूटी है । बाड़ी में तो अभी जाना ही है । खोजने-ढूंढने परखेखसे, केले के फूल हमारे यहां भी निकलेंगे।”

"अच्छा", ..कहकर पूर्णकांत ने और एक चूंट चाय मुंह में डालकर पहले की भांति मुस्कुराते हुए कहा- “पीओ दादा, खाली चाय है । तिस पर फीकी।”

“गाय लात चलाती है। थन परहाथ ही नहीं रखने देती।” पास खड़ी पत्नी ने सुरमिलाया, "कुछ पहले आ जाते, तो एक के हिस्से के दूध से दोनों की चाय कुछ सफेद हो जाती।"

“इस गाय को बेचकर एक दुधारू गाय खरीद लो।" चाय की चुस्की लेते हुए टंक ने कहा।

"ऊंह, पाप होगा, दादा ! धर्म ऐसा नहीं कहता।"

टंक इस बार हो-हो करके हंस पड़ा। बोला- “तुम भी पुराने जमाने के बने रह गये, दादा ! आजकल का युग अलग है । पहले की बातों को पकड़े रहने से काम नहीं चलेगा! पिछली लड़ाई में तुमने नहीं देखा, मिलिट्री के लिए गाय-बैल का ठेका बड़े-बड़े हिंदुओं ने लिया था। हम जैसे हलवाहे अगर घरम का पालन न करें तो भी चल जायेगा। बच्चों को दूष चाहिए, तभी उनका दिमाग अच्छा होगा।"

बीच में ही पूर्ण की पत्नी बोल उठी - “भला बच्चों को दूध कहां से मिले? जब दूध होता था, तब भी थोड़ा-सा चाय के लिए रखकर मुहर्रिर के यहां उठौना देते रहे । तय था कि उसी से लगान की रकम चुकता होती रहेगी। मुहर्रिर भी कहता रहा, लगान का पैसा जमा कर दिया था, और इधर आयी कुर्की । अच्छा ! दूध दूसरों से खरीदने जायें तो एक रुपल्ग सेर लगता है - जबकि हमें देते हैं छह आने ।...” एक ही सांस में इतना कह चुकने पर युगों से लोग जिस चिरंतन सत्य का स्मरण करते हैं, अपने अनुभवों से उसकी याद करती हुई बोली - "गिरे पेड़ पर ही सभी कुठार चलाते हैं, यह बिलकुल सच है।” ये सारी बातें कुछ पाने की आशा से नहीं, क्योंकि दादा की हालत भी उनसे कुछ अच्छी न थी, बल्कि अपने मन को हल्का करने के लिए कही गयी थीं। अपने आदमी से भी ये बातें वह पहले कह चुकी थी।

पूर्णकांत दादा को तामोल-खैनी खाने के लिए देकर आंगन से ही शुरू होने वाली बाड़ी में बड़े तेजी से घुस गया।

इस बीच पूर्ण की पत्नी ने तामोल का बटा और चिलम भरकर तंबाकू टंक के सामने रख दिया। इसके बाद पास के दरवाजे को पकड़कर खड़ी हो गयी और बाड़ी की ओर देखती हुई बोली- “हाट-बाजार में ले जाने लायक सामान में है- मालभोग केले की कुछ छीमियां । दरिद्र की किस्मत में हंस के अंडे में जैसे जर्दी न रहे, वैसे ही उस घौद में भी केलों की सिर्फ तीन ही अच्छी छीमियां निकलीं। बाकी तो वैसे ही सूखे-पतले । बच्चे कहीं देख न लें, इस डर से खलिहान में छिपाकर रखा था। अच्छी वाली तीनों छीमियां पककर एकदम तैयार हैं। बाड़ी की अच्छी चीज है, मानकर देवता को एक छीमी चढ़ाना चाहा था । इनका बप्पा कहता है, एक-एक केले का एक-एक आना मिलेगा । उससे आधा सेरचना लाकर चढ़ा देने से ही हो जायेगा...मगर उन केलों को निकाल ले जाना ही कठिन हो रहा है, अगर किसी तरह नन्हें बच्चे की नजर पड़ गयी तब तो हो गया । बिलकुल कछुवे की पकड़ है।"

अब तक टंक सिर झुकाये तंबाकू पीता हुआ उसकी बातें सुनता रहा । कुछ न कहना भी तो ठीक नहीं, पर कहने को है ही क्या? फिर भी बोला- "हां, मालभोग केले अगर बच्चों को खिलाये जायें, तो उनके शरीर में बल-शक्ति बढ़ती है। चेहरा भी मालभोग केले जैसा ही हो जाता है। शहरवाले तो खरीदकर खिलाया करते हैं। इसीलिए उनके बच्चे पढ़ने-लिखने में भी तेज होते हैं। देखने में भी खूबसूरत । हमारे बच्चे हैं सूखे-दुबले मालभोग केले।..."

टंक ने पूर्णकांत की पत्नी की बात ही दुहरा दी।

वह टंक को तामोल-खैनी देकर बरामदे के एक सिरे पर लगी ढेंकी कूटने चली गयी।

पूर्णकांत ने बाड़ी से खोज-ढूंढकर केले के दो फूल, पंद्रह-बीस खेखसे लाकर फर्श पर रख दिये और जल्दी से एक घड़ा पानी शरीर पर ढालने के लिए तैयार हो गया।

जाने के पहले हाथ में एक फटा कपड़ा लेकर खलिहान का दरवाजा खोल अंदर घुस गया और पुआल के अंदर से केले निकाले । पके केलों को देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है। तीन छीमियों के अलावा कुछ और छीमियां थीं, जो उतनी बढ़िया नहीं थीं। वे अगर पकें भी तो बीच-बीच में गुठरी मारे रहेंगे।

कम से कम तीन रुपये नकद मिल जायेंगे। कागज का एक दस्ता, चालीस नंबर का सूत... फिर अंगोछा बेचकर एक-एक अंगोछे के डेढ़-डेढ़ रुपये मिलेंगे- गुड़ के बिना भी नहीं चलता। नमक, लाजेंस भी चाहिए...दाल, मछली तो खैर लाने की जरूरत नहीं...।"

चोर की भांति केले कपड़े में बांधकर वह उतर ही रहा था, तभी मंझला लड़का जो कहीं खेल रहा था, मौजादार के कारिंदे की भांति वहां आ धमका ।

“बप्पा, वह गठरी में क्या लिया है ?"

"कुछ...भी...नहीं...।" क्या बहाना करे झट सोच न पाकर पूर्ण बोला- “जाओ, तुम सब खेल रहे थे न, खेलते रहो।”

लड़के ने दौड़कर गठरी पकड़ ली।

"अरे ! अरे ! छोड़ दे ! छोड़ दे, खराब हो जायेगा...”

"क्या खराब हो जायेगा?”

खींच-तान में कपड़े के खुले हिस्से से खरे सोने जैसे केले दमक उठे।

"केला - केला - केला - कहां मिला? एक दे मुझे, दे दे।”

"केला- केला - केला” चिल्लाता हुआ छोटा लड़का भी कहीं से दौड़कर आ गया।

कुछ समझदार-सा बड़ा लड़का थोड़ा अलग खड़ामानो कुछ सोच रहा था । चीख-पुकार सुनकर मां भी ढेंकी छोड़कर दौड़ी आयी । इस बीच टंक भी उठकर आ गया था।

उसके बाद शुरू हो गयी- “केला दो- केला दो” की चीख पुकार।

मां ने एक छड़ी हिलाते हुए कहा, “गुड़ से जब तक कटोरी लाल न हो जाये, जलपान नहीं खाता, भाजी के बगैर भात मुंह में नहीं जाता । वह सब भला कहां से आयेगा, अगर इन केलों को बाजार में न बेचें?”

पिटने का डर उन्हें न था। उन्हें केले ही चाहिए थे। पूर्ण ने गठरी को सिर पर से उठाकर कहा- “तुम लोगों के लिए खलिहान में और हैं न ! कल तक पक जायेंगे, खाना।"

बात कहते ही हंसी उल्टी की भांति निकल आकर गले के पास अटक गयी । वह हंसी सुबह से लगी हुई थी । खलिहान में केले होने की बात सुनते ही मंझला लड़का उधर दौड़ पड़ा । मगर नन्हें ने हठ पकड़ लिया था। हाथ की चिड़िया को छोड़कर वह झाड़ी की चिड़िया पकड़ने नहीं गया।

बड़ा लड़का पास आकर उसका हाथ पकड़ समझाने लगा- “बप्पा तुम्हारे लिए बाजार से अच्छा लाजेन खरीद देंगे न - केले बेचने पर ही तो लाजेन मिलेगा।"

"मुझे लाजेन चाहिए, केले भी चाहिए।” उसने बाप के पैरों को बांहों में भर लिया और बाप के सिर पर के केलों की ओर देखते हुए तुतला-तुतलाकर जवाब दिया।

"आज जलपान में खाने के लिए गुड़ लायेंगे न, मेरे लिए कागज भी.., ” बड़े ने फिर समझाने की कोशिश की।

"नहीं चाहिए” - कहकर वह जोर से गरज उठा । समझाने से उसे मानो मिर्चे लग रही थीं।

बाप ने उनकी मां की तरफ देखा । मतलब- एक दे ही दूं? “नहीं, न देना । एक देने से तो होगा नहीं, तीन चाहिए । तीन आने पैसे यानी सेर भर नमक, पाव भर गुड़ या आधा पाव साबुन मिल सकता है । केले तीन तो टप् से निगल ही जायेंगे साथ-साथ ...(दादा ने कहा था - दिमाग बढ़ेगा ! तीन केलों से भला कौन सा दिमाग बढ़ेगा?)” कहती हुई, पास जाकर नन्हें का हाथ पकड़कर वह पति के पास से उसे खींच ले गयी, बोली- “बेकार में केले तोड़ लेने पर छीमी टूट जायेगी, भला कौन खरीदेगा?” कहकर उसने पति को चले जाने के लिए आंखों से इशारा किया।

दोनों आताई निकल गये जल्दी से बाहर।

कांवर पर ले जाने को सामान कम था, लेकिन कांवर लेकर न जायें तो जरा संकोच-सा लगता है। पूर्ण ने पहले के जमाने के अंग्रेजी स्कूल की दूसरी श्रेणी तक पढ़ाई की थी। अब तो अंग्रेजी की क्या बांत, बंगला अक्षर भी बर्तनी लगाकर पढ़ता है । “अनभ्यासे हता विद्या।" टूटी-फूटी ही क्यों न हो, एक साइकिल थी। उसी को धकेल-धकेलकरहाट-बाजार किया करता था। उस दिन कुर्की वाले आकर उसके मुंह पर आठ रुपये मारकर वह भी ले गये। सुना है, रुपया न देने पर साइकिल नीलाम करदी जायेगी। सूत लाने पर अंगोछे बनेंगे, अंगोछे बेचकर रुपये आयेंगे, आज भी केले बेच कर दो रुपये...नहीं, नहीं, कहां बचेगा उतना...?

बाजार लगभग डेढ़ मील दूर था। दोनों तेजी से आगे बढ़ गये।

रास्ते में ही हलधर बनिया मिला। तुंदिल, दढ़ियल, हलधर बुड्डा बाजार के दिन घात लगाये रहता है । उधार में सामान लेकर उधर मुंह न करने वाले ग्राहकों को पकड़कर गालियां बकता है, और पैसे न मिलें तो कोई सामान रखवा लेता है।

“क्यों रे पूर्णकांत, क्या ला रहा है?"

“क्या लायेंगे भला, दादा? केले की तीन छीमियां, दो-चारखेखसे, केले के दो फूल, बस यही..."

भीम केले के फूल? देखें, देखें । मैं खोज ही रहा हूं। कितना दाम मांग रहा है ?" कह कर आगे बढ़ा और केले देखकर चकित हो गया। “अरे मुझे भी एक छीमी देता जा ! कितना मांगता है, बता?”

“एक-एक आने का । जल्दी कीजिए । मुझे बाजार पहुंचना है।"

"एक आने का एक? अरे क्या शहर समझ रहा है ? दो-दो पैसे में दे।"

"नहीं, नहीं । बाजार में एक-एक के छ-छ: पैसे भी मिल सकते हैं।"

"छ.छ: पैसे क्यों, कोई आंख का अंधा गांठ का पूरा दो-दो आने भी दे सकता है । मगर तीन माह पहले एक सेर गुड़, एक सेर नमक, पाव भर तंबाकू लिया था उधार, याद है ?"

पूर्ण के चेहरे पर मानो किसी ने होली की तेलसनी कालिख पोत दी हो । वह तो बिलकुल भूल ही गया था। बाजार में कोई चीज बेच न पाने के कारण लौटते समय इस दूकान से उधार में माल ले गया था। वैसे आम तौर पर इस दूकान से वह माल नहीं लेता, पास की दूसरी दूकान से लेता है। फिर भी बूढ़े ने धर्म के नाम पर उस दिन उधार दे दिया था।

लेने के समय सबको याद रहता है- देने के समय नहीं?" बूढ़े के वाक्य-बाणों ने उसे जर्जर करना शुरू कर दिया।

आखिर मोल-तोलकर केले की एक छीमी, एक केले का फूल और बारह खेखसे देकर उसने उधार चुका दिया। जो हो, बोझ तो हल्का हो गया । तीन में से एक केला गया।

बाजार के छोर पर पहुंचते ही गठरी को आताई के कांवर में मिला दिया। नहीं तो इन्हीं थोड़ी-सी चीजों के लिए हाट वाले को अलग से दो पैसे भरने पड़ेंगे। जो भी लाभ हो वही अच्छा ।

बाजार में चुने हुए स्थानों पर इसी बीच व्यापारी बैठ चुके थे। उन दोनों ने छायादार जगह देखकर अपने सामान लगा दिये । पूर्ण के हाथ सामान सौंपकर टंक बाजार देखने गया । उसे खास तौर पर एक गज ननगिलाट कपड़ा पत्नी के लिए चाहिए था। पत्नी ने जमा किया हुआ डेढ़ रुपया देकर भेजा है।

पूर्ण वहां से जरा हटकर एक पीपल की बढ़ी हुई डाली के नीचे खड़ा होकर ग्राहकों की बाट जोहने लगा। धूप भी काफी कड़ी हो आयी थी। कुछ ही हटकर मछली-बाजार था। गर्मी के मारे नारो-बाटो मछलियों की बदबू फैल रही थी। मधुमक्खियों की तरह भनभनाती हुई भेना मक्खियों ने मछलियों की टोकरियों को घेर लिया था। मक्खियों को गिन पाना भले संभव हो, पर वहां मछली खरीदने के लिए धक्कम-धक्का करने वालों को गिन पाना संभव न था।

मछली खरीदने की तो बात ही नहीं थी, यों ही रंग-ढंग एक बार देख भर लेने के लिए मछली-बाजार का एक चक्कर लगाने के बारे में उसने मन ही मन सोचा था, मगर इस धक्कम-धक्के के बीच क्या जरूरत पड़ी है वहां जाने की? बेकार में लालच बढ़ेगा। दो सप्ताह पहले बच्चों की रिरियाहट पर धान देकर मछली-व्यापारी से मछली खरीदी थी, इसके बाद फिर नहीं। क्योंकि धान इस बार पूरा पड़ेगा या नहीं, इसमें भी संदेह है।

सफेद हाफ-पैंट और शर्ट पहने, आंखों पर चश्मा लगाये स्थानीय डाक्टर आकर उसके सामान के सामने खड़ा हो गया। पूर्ण आगे बढ़ आया।

"केले तो बढ़िया है, कितने लाये थे?"

"दो ही छीमियां हैं। सिर्फ तीन छीमियां अच्छे केलों की हुई थीं।"

“घर में सिर्फ एक छीमी रखी है ? असल में सब बच्चों को खिलाना चाहिए। बड़ी अच्छी चीज है । वह सरकारी कागज वहां लगाया गया है, देख रहे हो या नहीं?"

डाक्टर ने उंगलियों से जिधर दिखाया था, उस ओर नजर डालकर पूर्ण ने देखा, पीपल के पेड़ के तने पर एक कागज लगा दिया गया है, जिसमें एक गिलास दूध, एक केला, कुछ फल-फूल और मछली के चित्र हैं, और उनके पास एक मोटा-सा, हंसमुख बच्चा हंस रहा है।

किताबों में तो ऐसी बातें लिखते ही हैं। तस्वीरों में भी बहुत कुछ दिया रहता है। उसने धीरे-धीरे अपनी आंखें मोड़कर केलों पर टिका दीं। _ एक छीमी लेते जायें, सर !” उसने केले की एक छीमी उठाकर डाक्टर के सामने कर दी।

“कीमत क्या लोगे?"

"घर की चीज है, कीमत नहीं चाहिए।” इसी डाक्टर ने पिछली बार बड़े लड़के की बीमारी में कई बार जाकर सिर्फ दवा की कीमत लेकर सुई दी थी, इलाज किया था। विजिट के रूप में सिर्फ एक अंगोछा देकर पत्नी ने रो-रोकर कहा था - "आप देवता हैं, नहीं तो मेरे बच्चे की भला जान कैसे बचती?" आज उसी डाक्टर से कैसे कीमत ले सकेगा? ऐसा करना उचित न होगा।

डाक्टर ने आठ आने दिये । उसने वापस कर दिया। अंत में डाक्टर ने चार आने देकर केले के फूल और खेखसे ले लिये । साथ आये नौकर ने चीजों को थैले में डाल लिया।

तीन में से दो गया, बाकी बचा एक ।

जाने दो, एक तरह से भले काम में ही लगा । डाक्टर भी हाथ में रहना चाहिए । बाल-बच्चे नहीं हैं । प्रौढ़ सज्जन हैं, नाम है - कोई रहमान । शिवसागर की ओर के हैं - चार आने के कागज खरीदने होंगे।

वह फिर लौटकर उसी पीपल-तले जाना चाहता था। तभी पास कोई जानी-पहचानी आवाज सुनी, और मुड़कर देखा- मुहर्रिर था।

"क्या है पूर्णकांत, खड़ा-खड़ा क्या कर रहा है?"

बीच-बीच में सफेद हो आये बालों की सुंदर ढंग से मांग निकाले, साफ चिकना काला-सा चेहरा, और फड़कती आवाज वाला प्रौढ़ आदमी । मौजादारसे भी ज्यादा प्रतापी, मुहरिर आगे बढ़ आया। पूर्ण कोई जवाब देता इसके पहले ही उसने कहा- “क्यों रे, मुझे देने को दूध नहीं होता, दूसरों को कैसे दे रहा है ?”

चौंक-सा पड़ा पूर्णकांत- “श्री विष्णु भैया जी, आपसे क्या छिपाना? सुबह-सुबह फीकी, चाय पीकर आये हैं आताई के साथ । अगर पूछना चाहें तो पूछ लीजिए, आताई शायद आ ही रहा है । कपड़ा खरीदने गया है।"

हालांकि मुहर्रिर को पता था, बात झूठी है। फिर भी बोला - “हां, अब मैं इस बात को बाजार के बीच आताई से पूछने जाऊं, क्यों? मगर मैंने दूध की कीमत तो लगान में कटवा दी थी, तेरा पहले का लगान बाकी था, इसलिए कुर्को हुई। जल्द रकम का इंतजाम कर साइकिल ले जाना, नहीं तो नीलाम कर दी जायेगी।"

“पहले का लगान तो बाकी नहीं था।” कुछ सहमते हुए पूर्ण ने कहा।

"पता नहीं, बाकी था या नहीं । जाकर देख लेना । जो कहना था कह दिया, पीछे दोष न देना।" इसके बाद जरा नरम आवाज में कहा- “यह चीज तेरी ही है न?"

“मेरे कहने को तो ये केले भर हैं। और चीजें दादा की हैं।"

"हां, केले तो बढ़िया हैं। अच्छी चीजों में हिस्सा हमें नहीं मिलता। सिर्फ मुसीबत में 'भैया, भैया करता है। कीमत कितनी कह रहा है ?” कहकर उसने हाथ से यों ही केलों को दबाकर देखा । फिर केले ऊपर उठे, फिर एक ठहुवे से बांध देने पर वे हाथ में टंग गये।

“कीमत भला कितनी कहूं?" केले के प्रसंग में कही दूसरी बातों को पचाकर मुख्य विषय के बारे में पूर्ण ने कहा, “छीमी के हिसाब से लेने पर डेढ़ रुपया।"

"हूं, डेढ़ रुपया लेना हो तो घर आकर लेना । अभी-अभी डाक्टर को तूने यों ही नहीं दिया था? क्या मुझे डाक्टर से पता नहीं चला? तेरा रंग-ढंग तो देख रहा हूं।...हूं ! जमाना कितना बदल गया? डाक्टर सूई में सिर्फ पानी भरके दे देता है, उसी पर इतनी खातिरदारी, और मैं सब कुछ नीलाम से बचा देता हूं, फिर भी अंगूठा दिखा देते हैं लोग।..."

"नहीं भैया, बहू की..."

"हं:”, कहकर बीच में टोकते हुए मुहर्रिरने कहा, "ठीक है, ठीक है, जो कीमत लेना चाहता है, लगान में लिखा देना । मैं नीलामी के दिन उसी में कटवा दूंगा।"

बनावटी गुस्सा दिखाकर भनभनाता हुआ मुहर्रिर चला गया।

वह भी कोई ऐरा-गैरा नहीं, लोगों पर उसकी भी धाक है- ऐसी आत्म-संतुष्टि का भाव उसके चेहरे पर बनावटी गुस्से के बीच भी खिल उठा।

दूसरी ओर से टंक पसीने-पसीने होकर आ गया। उसके हाथ में एक छोटी-सी पोटली थी और चेहरे पर नाराजगी की एक बड़ी-सी पोटली।

“अरे! ये सारे के सारे रक्त-शोषकों के झुंड जुट गये हैं । सात दुकानों का चक्कर लगाया, एक रुपये बारह आने से कम में एक गज कपड़ा कहीं नहीं था। दुकानदार से लेकर व्यापारी तक, एम.एल.ए.से लेकर मंत्री तक, सभी हम हलवाहों पर ही अपना बड़प्पन दिखाते हैं । देखना आताई, ये कमुनिस्ट ठीक ही कहते हैं, लोगों को कमूनिस्ट ही बनना होगा, मैं शर्तिया कह रहा हूं । ओह ! तुम्हारे केले बिक गये?"

“लंका में जो जाता है, वही रावण होता है, आताई ! सोशलिस्ट हो या कमनिस्ट हो, गरीब का दुख कोई मिटाने वाला नहीं है । देश स्वतंत्र तो हुआ, मगर वह कहीं और हुआ है। केले की बात कह रहे हो? हां, बोझ तो हल्का हो गया है। जानते तो हो, तीन घटा तीन बराबर शून्य यानी खत्म !” यह कहकर पूर्ण ने मुहर्रिर की बातें दुहरा दीं।

"बहंगी से मारकर उसे लंबा क्यों नहीं कर दिया? कैसे आदमी हो तुम, आताई ? बच्चों के मुंह से छीनकर ले आये थे। सब यहां ऐसे ही बेकार में चले गये? छि: ! छि: ! इस इस इस इस् ! मेरे शरीर में लावा फूटने लगा है। आज मैं यहां होता तो मुहर्रिर को...”

“जाने भी दो, आताई ! अपनी किस्मत भला कौन छीन सकता है ? खुद राजा भी नहीं !" कहते हुए पूर्ण ने आताई को छाता सौंपकर कहा - "जरा ठहरना, मैं बाजार का एक चक्कर लगा आऊं।” और वहां से चला गया। क्योंकि टंक को इतना गुस्सा चढ़ आया था कि उसका वश चलता तो वह उन केलों को दौड़कर छीन लाता । यहां तक कि वह पूर्ण को भी यों ही नहीं छोड़ता । गुरुभाई ठहरा, उससे जबान लड़ाना उचित नहीं, मानकर पूर्ण ने वहां से हट जाना ही ठीक समझा।

मगर अब वह खरीदे तो क्या खरीदे ? कागज तो लेना ही होगा। किताब-कागज की दूकान नाम के एक छप्पर की ओर वह बढ़ा, तभी उसने देखा कि नरोराम गुड़ बेच रहा है । पाठशाला में नरोराम उसका सहपाठी था। हिरन के कलेजे की तरह दमकता गुड़ देखकर अनेक लोग खरीदने के लिए इकट्ठे हो गये थे। नरोराम के साथ बैठा उसका भाई पैसे ले रहा था। नरोराम को दम लेने की फुरसत न थी । वह गुड़ तोल रहा था । पूर्ण कुछ देर खड़ा रहा।

एक बार अचानक दोनों की आंखें चार हो गयीं।

“पूर्ण हो क्या? बहुत दिनों से मुलाकात नहीं हुई ?”

"हां, तुम्हें भी तो नहीं देखा। अच्छे हो न?”

"हां, हूं तो ! क्या तुम्हें भी गुड़ चाहिए?"

"नहीं..ई, यों ही देख रहा हूं।" कहते-कहते वह पसीने-पसीने हो गया । वह भला नरोराम से कैसे बताये कि उसे आधा सेर या एक सेर गुड़ उधार चाहिए? उससे तो कभी उधार नहीं लिया। उन दिनों नरोराम स्कूल में गुड़ के मौसम में गुड़ की रेह आदि तरह-तरह की चीजें लाकर बांटा करता था। पूर्ण को हिसाब सिखा देने के कारण ज्यादा देता था।...अब इतने लोगों के बीच, तिस पर छोटे भाई के सामने...ठीक है, बाद में फिर कोशिश करूंगा। नरोराम फिर गुड़ बेचने में जुट गया । पूर्ण भी कदम बढ़ाता धीरे-धीरे किताब की दूकान पर पहुंचा।

"श्रीरामपुरी कागज चाहिए था, दस्ता क्या भाव है?"

“एक रुपया।"

"बाप रे बाप ! लड़कों-बच्चों को भला कैसे पढ़ाया जा सकता है।"

"अब यह बात न पूछो ! तुम्हें कितना चाहिए?”

"आधा दस्ता चाहिए था। मगर पैसा शायद पूरा न पड़े । दो-चार आने क्या उधार दे सकोगे?”

दुकानदार ने मानो कड़वे चिरायता का पानी पी लिया हो- ऐसे मुंह बिचकाकर बोला, "उधार की बात न करो। कितने लोगों के बच्चे बड़े होकर, बाल-बच्चों के मां-बाप बनकर उन बच्चों का स्कूल में नाम लिखवाकर उनके लिए (यहां जरा-सा दम लेकर उसने फिर जोर से बोलना शुरू किया) किताब-कागज उधार लेने के लिए मेरे ही पास आते हैं । इसी दुकान में, समझे न ? अभी भी बही में...'

"ठीक है, तब जितना मिले उतना ही दे दो।” पूर्ण बोला- “मगर पैसे तो सिर्फ चार ही आने हैं । बस, उतने का ही दे दो।"

कागज लेकर और एक चक्कर लगाते समय उसने देखा, एक दूकान में डाक्टर बड़े-बड़े खसिया आलू खरीद रहा है । आलू देखते ही खाने की तबीयत हो आती है । बड़ा लड़का एक बार किसी शादी में गया था तो दाल और खसिया आलू की सब्जी के साथ पूड़ी खा आया था और वैसी ही सब्जी बनाने के लिए मां से हठ कर रहा था। मगर बात बने तो भला कैसे? आलू की कीमत इतनी अधिक है।

उस पर डाक्टर की आंखें पड़ने के पहले ही वह हट गया । समय भी काफी हो गया था। सोचा, शायद आताई का सामान बिक चुका हो। फिर भी एक चक्कर नरोराम के यहां लगा लेना उसने उचित समझा। नरोराम का गुड़ बिक चुका था, वह सामान सहेजने में लगा था।

"क्यों नरो, आज तो अच्छा दांव मारा है।"

"दांव मारने की क्या बात है? लेकिन हां, गुड़ बढ़िया था।"

"हां, हां, ठीक कहते हो । मुझे भी कुछ चाहिए था, मगर उस समय उतने सारे लोगों के सामने कहना भी अच्छा नहीं लगा। समझे न? सोचा तुम भी न जाने क्या सोच लो।” कहता हुआ पूर्ण उसके बिलकुल पास पहुंचकर नरोराम के पास ही बोरे के एक सिरे पर बैठ गया।

"क्यों? कहा क्यों नहीं?”

"उधार।"

"उंह, फिर भी, मेरे लिए सेर भर रख देना' यह बात भी क्या तुम्हारी जबान से नहीं निकली? छि:, भला कैसे आदमी हो तुम भी?”

"टीन को खुरचकर जितना निकले वही दे दो? तुमसे छिपाना क्या? मेरे पास एक भी पैसा नहीं है।"

नरोराम ने कुछ हटकर सामान सहेजने में लगे अपने भाई की नजर बचाकर चुपके से चार आने उसे देकर कहा- "टीन में भला क्या मिलेगा? जाओ किसी के यहां मिल जाये तो ले लेना । मुझे बाद में याद करके दे देना।"

गद्-गद् होकर पूर्ण वहां से हट आया।

दोनों आताई घर लौटे।

लाजेन नहीं ले सका, सूत नहीं लिया, साबुन भी नहीं।

बाजार में तरह-तरह के लोगों का मिला-जुला शोर-शराबा, उनके तरह-तरह के रूप पूर्ण की आंखों से ओझल हो गये। उसकी आंखों के सामने एक केले के लिए उसे बांहों में घेरे रोते हुए नन्हें बच्चे की तस्वीर उभर आयी। उसके पैरों पर टप-टप झरते उस बच्चे के आंसुओं की बूंदें...साफ झलकने लगीं । पीले चेहरे वाले करुणाभरी नजरों से देखते बड़े लड़के की तस्वीर और छोटे बच्चे को समझाने की उसकी आवाज कानों में गूंजने लगी...

फिर एक बार बहुत जोर से हंसने की इच्छा हो आयी उसकी, मगर वह संभल गया। उसे हंसते देखकर राह चलते लोग क्या उसे बावला न समझेंगे?

(बरा=एक तरह का कोमल चावल जिसका आटा बनाकर खाते हैं और पीठा आदि भी बनाते हैं; आठिया=एक तरह का केला जिसमें काफी बीज होते हैं; मालभोग=असम में होने वाला एक प्रकार का बढ़िया केला; आताई-एक ही गुरु के चेले, गुरु-भाई; बंगला=उस जमाने में असम के स्कूलों में प्राय: बंगला पढ़ायी जाती थी; ननगिलाट=लांग क्लाथ; नारो-बाटो=एक तरह की छोटी मछलियां; भेना=एक तरह की बड़ी मक्खियां, जो सड़ी-गली चीजों पर ज्यादा पड़ती हैं; ठहुवे=केले के पत्ते के बीच के डंठल से निकाला गया पतले बेंत जैसा टुकड़ा)

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