तीन देवता (कहानी) : महावीर प्रसाद द्विवेदी
Teen-Devta (Hindi Story) : Mahavir Prasad Dwivedi
मेरा नाम वररुचि है। जो एक बार भी किसी अच्छे पंडित के पास बैठा होगा, वह मुझे
भली-भांति जानता होगा कि मैं महापंडित हूं। मेरी पंडिताई का हाल ही से समझ लीजिए
कि मैंने व्याकरण-
संबंधी एक बहुत बड़ा ग्रंथ बनाया है। यह सब इसलिए कहता हूं कि जिसमें तुमको मेरी
बात पर विश्वास आवे। तुम कहीं यह न समझने लगो कि यह एक कहानी है। कहानी नहीं
है। सच्ची घटना है। जो कुछ मैं आज तुमसे कहना चाहता हूं उससे मेरी
प्राणधिका पत्नी ही से संबंध है। इसलिए तुम्हीं कहो, कौन ऐसा मूर्ख होगा जो अपनी ही
घरवाली के झूठे कलंक कहने बैठेगा? यह घटना यद्यपि हजारों वर्ष की पुरानी है, तथापि
इसकी सत्यता में संशय नहीं। वह वृत्तांत उसी समय लिखा गया था। मैं उसे ही तुम्हारे
मनोरंजन के लिए सुनाता हूं। अपनी ओर से मैं कुछ न कहूंगा। लो, सुनो।
लड़कपन में मैं अपने दो साथियों के साथ गुरुकुल में विद्या पढ़ता था। मेरे एक साथ का
नाम विष्णु और दूसरे का इन्द्रदत्त था। मेरे गुरू विन्ध्याचल से थोड़ी दूर पर विन्ध्यनगर
में रहते थे। उनका नाम विद्याविभूति था। हम तीनों बड़े परिश्रम से पढ़ते थे। जब मेरी
अवस्था कोई आठ वर्ष की थी तभी मैं विद्या विभूतिजी के पास भेज दिया गया था। मेरे
पिता का शरीरांत हुए, उस समय चार वर्ष हो चुके थे। घर पर केवल मेरी वृद्ध माता थीं। वे
मुझे प्राणों से अधिक चाहती थीं। मेरी भी यही इच्छा रहती थी कि शीघ्र ही मैं पंडित हो
जाऊं और किसी राजा के आश्रय में रहकर स्वयं सुखी होऊं और माता को भी सुखी करूं।
मेरे गुरू मुझे बहुत चाहते थे। मैं भी उनकी हृदय से सेवा-शुश्रूषा करता था। उनकी कृपा से
मैं शीघ्र ही सब शास्त्रों में पंडित हो गया। मुझे पूरा पंडित होने में 12 वर्ष लगे। अर्थात्
जब मैं 20 वर्ष का हुआ तब मैंने विद्या की भी समाप्ति कर दी और उसके साथ ही
अपने लड़कपन की भी समाप्ति। मैं युवा हुआ।
एक बार नगर में एक उत्सव हुआ। गुरू की आज्ञा से मैं भी उसे देखने गया। साथ में
विष्णु और इन्द्रदत्त भी थे। वहां मैंने एक नवयौवना, दीर्घ-लोचना, शशांक-वंदना और
गजेन्द्र-गमना कामिनी देखी। मैंने इन्द्रदत्त से पूछा, ‘‘यह कौन है?’’ उससे कहा,
‘‘विश्वकोश नामक ब्राह्यण की यह कन्या है। इसका नाम उपकोशा है।’’ उपकोशा को
देखकर मैं प्रेम-परवश हो गया। मेरा मन मेरे हाथ से जाता रहा। चाह-भरी दृष्टि से मुझे
अपनी ओर देखते देख उपकोशा ने अपनी सखी से कुछ पूछा। कुछ क्या, मेरा ही हाल
पूछा। सखी ने उसके कान में कुछ कहा और कहकर मेरी ओर धीरे-से उंगली उठाकर वह
मुसकुराई। मेरा परिचय पाकर उपकोशा ने भी प्रेम-भरी दृष्टि से मेरी ओर एक बार देखा।
देखकर वह वहां से चल दी। मैं भी किसी प्रकार घर लौटा आया। कंदुक के समान सुंदर
स्तनोंवाली, केहरि के समान क्षीण कटिवाली, लक्ष्मी के समान सुंदरी उस मनमोहनी के
बिंबाधरों में वर्तमान सुधा-सलिल की प्यास से व्याकुल होने के कारण रात को मुझे नींद
नहीं आई। बड़ी कठिनता से पिछली रात जरा आंख बंद हुई तो मैं क्या देखता हूं कि
सफेद साड़ी पहने हुए एक दिव्य स्त्री मेरे सामने खड़ी है। उसने मुझसे कहा, ‘‘पुत्र!
उपकोशा तेरी पूर्वजन्म की अर्धांगिनी है। मैं तेरे मुख में वास करनेवाली सरस्वती हूं। तू
चिंता मत कर। तेरी व्याकुलता मुझसे नहीं देखी गई। इसीलिए मैं तुझे धैर्य देने के लिए
प्रकट हुई हूं। तेरे रूप और तेरे गुणों पर मोहित होकर उपकोशा तुझे ही अपना पति करना
चाहती है। शीघ्र ही तेरी इच्छा पूरी होगी।’’ इतना कहकर भगवती सरस्वती अंतर्धान हो
गई।
प्रातःकाल मुझसे नहीं रहा गया। उस चकोर-नयनी को देखने की मुझे छटपटी पड़ी। मैं
उसके घर की ओर चला। यहां पहुंचकर उसके पिता की फूल-वाटिका में इधर-उधर मैं घूमने
लगा कि कहीं उसके दर्शन हो जाएं। मेरा मनोरथ सफल हुआ। घर की खिड़की में मलिन
चंद्रमा का सा उदय हुआ। मेरे नेत्र उसी ओर दौड़ गए और उसके दर्शनों से कृतार्थ होने
लगे। उपकोशा एक क्षण से अधिक वहां न ठहर सकी। लज्जा के वश होकर उसने अपना
मुंह फेर लिया और मुझ पर वज्रपात-सा करके वह लोप हो गई। मेरे सारे शरीर में प्रचंड
ज्वाला जलने लगी। मैं संताप से पीड़ित होकर गिरने ही को था कि उपकोशा की एक सखी
वहां अकस्मात् आकर उपस्थित हुई। उसने मुझे गिरते देख मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं
संभल गया।
मेरी देशा पर उसने खेद प्रकट किया। उसने कहा, ‘‘उपकोशा की भी बुरी दशा है। जिस
क्षण से उसने तुम्हें देखा है, काम ने अपने पैने बाणों की वर्षा उस पर आरंभ की है। उनसे
उसकी किसी प्रकार कहीं भी रक्षा नहीं हो सकती। उनसे बचने का एक ही शिरस्त्राण है।
वह आप हैं।’’ यह सुनकर मुझे बड़ा धीरज हुआ। मैंने कहा, ‘‘मेरी जो दशा है वह तुम देख
ही रही हो। यदि तुम न आती तो शायद मैं भूमि पर मूर्च्छित होकर गिर पड़ता। जितना
शीघ्र हो उतना ही उपकोशा-रूपी अमृतवल्ली के सेवन से मैं अपने शरीर का असह्य दाह
शांत करना चाहता हूं। परंतु गुरुजनों की आज्ञा बिना अपना मनोरथ सफल करना मैं अपने
लिए अकीर्ति का कारण समझता हूं। अकीर्ति से मर जाना अच्छा है। इसलिए तुम अपनी
सखी के मन की बात उसके पिता से कहो; जिसमें वे मेरे गुरू की आज्ञा लेकर विधिपूर्वक
विवाह का प्रबंध कर दें। ऐसा ही होने से मेरा और तुम्हारी सखी का कल्याण है।’’
सखी ने यह सब वृत्तांत उपकोशा की माता से कहा। माता ने उपकोशा के पिता से। पिता
मेरे रूप, शील और विद्या आदि की बड़ाई सुन चुका था। इसलिए उसने इस बात को
प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया और मेरे गुरू विद्याविभूति की भी अनुमति प्राप्त कर ली।
इस प्रकार मेरा उपकोशा के साथ विवाह निश्चय हो जाने पर मेरा साथ विष्णु कौशाम्बी से
मेरी माता को ले आया। उसे वहां जाकर माता को लाने में दो दिन लगे। ये दो दिन मेरे
लिए युग हो गए। इन दोनों की प्रतीक्षा में जो-जो मनोरथ मेरे मन में हुए और जो-जो
मनोव्यथा मैंने सहन की, उसका अनुमान वे नहीं कर सकेंगे जिनको कभी इस प्रकार की
प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। किसी प्रकार वह शुभ दिन आया और उपकोशा का पाणिग्रहण
करके मैंने अपने मनोरथ सफल किए।
कुछ दिन में मेरी माता इस संसार से चल बसीं। इसका पहले मुझे बहुत शोक हुआ। परंतु
धीरे-धीरे वह कम हो गया और उपकोशा के साथ मैं आनंद से वहीं विन्ध्यनगर में रहने
लगा। इस बीच में मेरे गुरू विद्याविभूति के अनेक शिष्य हो गए। उनमें एक का नाम
पाणिनि था। वह मेरे गुरू की स्त्री की बड़ी सेवा करता था। मेरी गुरुवानी इसलिए उस पर
बहुत प्रसन्न थीं। उन्होंने पाणिनि को तपस्या के लिए हिमालय पर्वत पर भेज दिया। उसने
वहां जाकर घोर तपस्या की। उसकी तपस्या से शंकर प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे सब
विद्याओं के प्रवेश का आदि-करण एक नया व्याकरण पढ़ाया। इस व्याकरण को पढ़कर
और परम संतुष्ट होकर कई वर्ष पीछे पाणिनी हिमालय से उतरा। वहां से विन्ध्यनगर को
आने में जितने प्रसिद्ध-प्रसिद्ध विद्यापीठ थे सबमें पाणिनि ठहरा। उसके साथ शास्त्रार्थ
करने में किसी को यश नहीं मिला। इस प्रकार दिग्विजय करते-करते वह विन्ध्यनगर के
समीप आ पहुंचा।
पाणिनि की विद्या का वृत्तांत सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। पाणिनि जब विद्याविभूति
के पास था तब वह सबसे अधम शिष्यों में गिना जाता था। इसलिए मुझे यह जानने का
कौतूहल हुआ कि देखूं पाणिनि अब कितना विद्वान् हो गया है। जब वह विन्ध्यनगर को
लौट आया और वहां उसने मेरी प्रशंसा सबके मुख से सुनी तब उससे स्वयं ही न रहा
गया। इसलिए मुझे कुछ भी कहना न पड़ा। उसने आप ही शास्त्रार्थ के लिए मुझे ललकारा।
नियत समय पर मेरा और उसका शास्त्रार्थ आरंभ हुआ। सात दिन तक यह शास्त्रार्थ
बराबर होता रहा। आठवें दिन मैंने पाणिनि को परास्त किया। परास्त करने के साथ ही
एक अद्भुत घटना हुई। आकाश में एक ऐसा घोर नाद हुआ कि उसके होते ही मैं अपना
व्याकरण भूल गया! पाणिनि ने फिर शास्त्रार्थ आरंभ किया और क्रम-क्रम से उसने हम
सबको जीत लिया!
अब मैं विन्ध्यनगर में मुंह दिखाने के योग्य न रहा। मैं बहुत ही लज्जित हुआ। इसलिए
मैंने भी तप करना निश्चित किया। माता मेरी मर ही चुकी थी। केवल उपकोशा थी। उसको
समझा-बुझाकर मैंने शंकर की आराधना के लिए हिमालय जाने की अनुमति ले ली। कुछ
धन मेरे पास था। उसे मैंने उपकोशा के पास रखना उचित न समझा। इसलिए उसे मैंने
सुवर्णगुप्त नामक महाजन के यहां रख दिया और कह दिया कि उपकोशा को जिस समय
जितना धन अपेक्षित हो उतना वह देता जाए। इस प्रकार प्रबंध करके मैंने हिमालय जाने
के लिए प्रस्थान किया।
उपकोशा पूरी पतिव्रता थी। दिन-रात वह मेरी मंगल-कामना किया करती थी। प्रतिदिन वह
नर्मदा-स्नान करने जाया करती थी और सदा व्रत-उपवास भी किया करती थी। इन व्रतों
और उपवासों को करने से वह बहुत ही दुबली हो गई। तथापि उसकी शरीर-शोभा कम नहीं
हुई। प्रतिपदा का चंद्रमा क्षीण होने पर भी अच्छा लगता है। एक बार, वसंत-ऋतु में, वह
स्नान किए सायंकाल घर आ रही थी कि मार्ग में पहले उसे राजा के पुरोहित ने, फिर
न्यायाधीश ने और फिर मंत्री ने देखा। उपकोशा को देखते ही वे सब काम के बाणों का
निशाना बन गए। वे अपना अधिकार, पद, धर्म सब क्षण में भूल गए। उपकोशा को अकेले
आते देख मंत्री ने उसे मार्ग में सहसा रोका। उपकोशा का कलेजा कांपने लगा। परंतु वह
बड़ी प्रत्युत्पन्नमति थी। उसकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी। समय की बात उसे झट सूझ जाती
थी। उसने कहा, ‘‘मंत्री जी! आपकी जो अभिलाषा है यह मेरी भी है। परंतु मैं कुलकामिनी
हूं। पति मेरा विदेश में है। यहां एकांत में अकेले आपसे बातचीत करते यदि हमको कोई
देख लेगा तो इसमें मेरी भी बदनामी होगी और आपकी भी। इसलिए आज तो मुझे व्रत है।
कल रात को, आप, पहले पहर मेरे घर पधारें। वसंतोत्सव का समय है; सब लोग मेले के
झमेले में रहेंगे; कोई आपको देख न सकेगा।’’ इसे मंत्री जी ने स्वीकार किया।
इस प्रकार मंत्री महाशय से छुट्टी पाकर ज्यों ही उपकोशा थोड़ी दूर आगे गई त्यों ही उसे
मार्ग में पुरोहित देवता मिले। उन्होंने भी उसे रोका और अपना अनुराग प्रकट किया। उन्हें
भी उपकोशा ने प्रेम-भरी बातों से प्रसन्न करके, दूसरे दिन-रात के दूसरे पहर अपने घर
आने की कृपा करने के लिए उनसे निवेदन किया। पुरोहितजी को पुलकित करके कुछ दूर
उपकोशा आगे गई ही थी कि न्यायाधीश जी ने, एक गली में, अपनी भुजवल्ली से उसे
बांधना चाहा। उपकोशा ने उनकी भी अभिलाषा पूर्ण करने का वचन देकर रात के तीसरे
पहर अपने घर को पवित्र करने की प्रार्थना की। इस प्रकार इन तीनों प्रेमियों से छुटकारा
पाकर वह किसी प्रकार घर पहुंची। यहां उसने अपनी सखी से मार्ग का सारा वृत्तांत कांपते
हुए वर्णन किया। उसने कहा, ‘‘मेरी सुंदरता को धिक्कार है। जिस कुल स्त्री का पति घर
पर नहीं है उसका मर जाना ही अच्छा है।’’ इस प्रकार खेद प्रकट करके और मेरा बारंबार
स्मरण करके बीती हुई घटना को सोचती हुई उस रात उपकोशा निराहार ही पड़ी रही।
सबेरे पूजन-पाठ और ब्राह्मणों को दक्षिणा देने के लिए उपकोशा को कुछ धन की
आवश्यकता हुई। इसलिए उसने अपनी सखी को सुवर्णगुप्त के पास भेजा कि वह मेरे रखे
हुए धन में से कुछ ले आवे। सुवर्णगुप्त ने धन तो दिया नहीं परंतु उपकोशा के घर स्वयं
आने की कृपा की। घर आकर एकांत में उपकोशा से उसने कहा, ‘‘सुंदरी! तुम्हारे स्मरण में
मुझे निद्रा नहीं आती; भूख-प्यास जाती रही है; काम-काज में जी नहीं लगता; अतएव
मुझे प्राणदान दीजिए। मेरा अंगीकार करके मेरी अभिलाषा पूरी कीजिए। जो कुछ धन
तुम्हारे स्वामी का मेरे पास रखा है वहीं नहीं, मैं अपनी भी सारी संपत्ति तुम्हारे लिए देने
को तैयार हूं।’’ इन बातों को सुनकर उपकोशा सूख गई; परंतु धीरज धरकर, उसी दिन, रात
के चौथे पहर सुवर्णगुप्त को भी आने के लिए उसने निमंत्रण दिया।
चारों प्रेमी अपने-अपने मन में मनोमोदक खाने लगे। इधर उपकोशा ने केशर-कस्तूरी आदि
सुगंधित पदार्थों को मिलाकर बहुत-सा काजल तैयार कराया। उस काजल को एक कुंड में
उसने भराया और उसी में बहुत-सा तेल डलवा दिया। उसी तेल से डूबे हुए चार कौपीन भी
उसने तैयार कराए। यथासमय पहले पहर मंत्रीजी पधारे। उपकोशा बड़े आदर से उठकर
मिली। परंतु उसने कहा-आपको पहले स्नान कर लेना चाहिए। बिना स्नान किए मैं आपको
कैसे स्पर्श करूं?
मंत्रीजी ने स्नान करना स्वीकार किया। उपकोशा की दो सखियां उसे भीतर अंधेरे में ले
गई। वहां उसके वस्त्राभूषण उतारकर उसको वही तेल और काजल से भीगा हुआ कौपीन
उन्होंने पहनाया। स्नान के पहले सुगंधित पदार्थों का अभ्यंग (उबटन) लगाया जाता है।
शरीर में वही उबटन लगाने के बहाने उन सखियों ने पूर्वोक्त कुंड की कालिख उसके शरीर
में खूब मली। सखियां अभ्यंग कर ही रही थी कि पुरोहित देवता आ गए। उनका आगमन
सुनकर सखियों ने कहा कि वररुचि के मित्र पुरोहित जी किसी काम से आए हैं। अतः आप
इस संदूक के भीतर हो जाइए। एक लंबी-चौड़ी संदूक पहले ही से तैयार रखी गई थी। उसमें
हवा जाने का मार्ग था; परंतु ऊपर से बड़ी मजबूत कुंडी लगी थी। इस प्रकार भय से बचने
के लिए मंत्री को संदूक के भीतर चुपचाप बैठे रहने की सलाह देकर सखियों ने पुरोहित जी
की भी पूर्ववत् सेवा आरंभ की। उनको भी उन्होंने वही कौपीन पहनाया और स्नान करने
के पहले शरीर में उबटन लगाना आरंभ किया। तीसरे पहर न्यायाधीश जी का आगमन
हुआ। उनको आया जान सखियों ने पुरोहित जी से कहा कि जान पड़ता है आपके आने का
समाचार न्यायाधीश को मिल गया। इसीलिए वे आपको पकड़ने आए हैं। आप चुपचाप इस
संदूक के भीतर बैठ जाइए। इस प्रकार पुरोहित को भी उसी संदूक में उन्होंने बंद किया।
यथाक्रम न्यायाधीश के शरीर में भी उबटन-तेल लगने लगा।
इसी बीच सुवर्णगुप्त ने कृपा की। सखियों ने कहा, ‘‘सुवर्णगुप्त वररुचि की धरोहर देने
आया है। वह कहीं आपको देख न ले। इसलिए आप झटपट छिप जाइए।’’ अतएव
न्यायाधीश जी ने भी उसी संदूक में रक्षा पाई। उसमें अब तीन मनुष्य हो गए, परंतु उस
अंधेरी कोठरी में वे परस्पर एक दूसरे को पहचान न सकते थे और चुपचाप कांपते हुए
उसी में पड़े थे।
सुवर्णगुप्त के आने पर उपकोशा ने उसका बड़ा आदर किया और दीपक जलाकर उसी
कोठरी में, जहां वह संदूक रखी थी, वह उसे ले गई। वहां उसने बड़ी नम्रता से अपना धन
लौटा देने की सुवर्णगुप्त से प्रार्थना की। सुवर्णगुप्त ने कहा, ‘‘मैं पहले ही वादा कर चुका
हूं कि जो कुछ धन तुम्हारे स्वामी का मेरे पास रखा है, मैं उसे ही नहीं, अपना भी धन
देने को तैयार हूं।’’ जब सुवर्णगुप्त यह कह चुका तब संदूक की ओर उंगली उठाकर
उपकोशा बोली, ‘‘हे संदूक के देवता! सुनो, सुवर्णगुप्त क्या कहते हैं। इनके वादे को भूल
मत जाना।’’ यह कहकर उपकोशा ने दीपक बुझा दिया। सखियों ने पूर्ववत् बहाना बतलाकर
सुवर्णगुप्त को कौपीन पहनाया और अभ्यंग आरंभ किया। थोड़ी ही देर में सबेरा हो गया।
सुवर्णगुप्त के हाथ जोड़ने पर भी उसे उसके वस्त्राभूषण न मिले। सखियों ने उसकी गरदन
में हाथ लगाकर जबरदस्ती उसे उसी दशा में घर से निकाल दिया। एक छोटा-सा कौपीन
पहने और शरीर भर काजल लिपटाये हुए सुवर्णगुप्त शीघ्रता से अपने घर की ओर नंगा ही
भागा। काले देव का सा उसका यह विलक्षण रूप देखकर कुत्ते, भूंकते हुए, उसके
पीछे-पीछे दौड़े। वह बेचारा किसी प्रकार अपने घर पहुंचा। वहां अपने सेवकों से काजल
धुलाते समय, लज्जा के मारे, मुंह तक उनके सामने वह न कर सका। दुराचारियों की यही
दशा होती है।
दिन निकलते ही उपकोशा राजा प्रतापादित्य की सभा में पहुंची। वहां इस प्रकार बातचीत
हुईं-
उपकोशा, ‘‘महाराज! सुवर्णगुप्त मेरे स्वामी का रखा हुआ धन हजम करना चाहता है। मैंने
बहुत मांगा; परंतु वह नहीं देता।’’
राजा, ‘‘सुवर्णगुप्त को तुरंत हाजिर करो।’’
राजा की आज्ञा पाकर दो मनुष्य उसी क्षण दौड़े गए और सुवर्णगुप्त को ले आए। उसे
सम्मुख खड़े देख राजा ने पूछा-
‘‘सुवर्णगुप्त! वररुचि की धरोहर तुम क्यों नहीं देते?’’
सुवर्णगुप्त, ‘‘महाराज! मेरे पास एक कौड़ी भी नहीं रखी; मैं दूं क्या? उपकोशा झूठ बोलती
है!’’ वह उपकोशा पर जल रहा था; भला क्यों वह उसकी धरोहर स्वीकार करता!
राजा, ‘‘उपकोशा! तुमने सुना सुवर्णगुप्त ने क्या कहा? कोई तुम्हारा साक्षी है?’’
उपकोशा, ‘‘हां महाराज! मेरे तीन देवता साक्षी हैं। विदेश जाने के पहले मेरे स्वामी ने उन
तीनों को संदूक में बंद कर दिया था। उन्हीं के सामने इस धूर्त ने धन का रखा जाना
स्वीकार किया है। आप यदि चाहें तो उस बंदूक को मंगाकर उन देवताओं से पूछ लें।’’
यह सुनकर राजा को आश्चर्य और कुतूहल दोनों एक ही साथ हुए। उसने उस संदूक के
लाये जाने की आज्ञा दी। कुछ देर में सात-आठ आदमी उसे बड़ी कठिनता से उठाकर सभा
में लाये। उसके बीच सभा में रखी जाने पर उपकोशा बोली-
‘‘हे देवता! इस धूर्त ने मेरे स्वामी का धन लौटाने का वादा तुम्हारे सामने किया है।
तुमको यह बात स्मरण होगी। अतः उसे तुम सत्य-सत्य राजा के सामने कहो। यदि न
कहोगे तो मैं या तो इसी सभा में तुम्हें खोल दूंगी या तुमको संदूक समेत जला दूंगी।’’
यह सुनकर उस संदूक के भीतर के तीनों मनुष्य बहुत ही भयभीत हुए। उन्होंने धीरे-धीरे
कहा, ‘‘सुवर्णगुप्त झूठा है; उसने वररुचि की धरोहर अवश्य रखी है और उसे वापस देने
का वादा भी किया है।’’ यह सुनकर सुवर्णगुप्त ने राजा और उपकोशा से क्षमा मांगी और
वररुचि का सारा धन देकर झूठ बोलने और धोखा देने के अपराध में राजा की आज्ञा से
बहुत-सा धन-दंड भी उसने दिया।
यह हो चुकने पर राजा ने उपकोशा की अनुमति से सभा में वह संदूक खुलवाई। खोलने पर
वे तीनों पुरुष काजल से लिपटे हुए उसके भीतर से निकले! सबने उन्हें पहचाना। उनके
रूप को देखकर सारी सभा के पेट में हंसते-हंसते बल पड़ गए। राजा ने उपकोशा से उसका
वृत्तांत पूछा। उपकोशा ने उनका सारा चरित वर्णन किया। उनकी दुःशीलता का वृत्तांत
सुनकर राजा प्रतापादित्य बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने उन तीनों का सर्वस्व छीनकर उनको
अपने देश से निकाल दिया। उपकोशा को राजा ने, उस दिन से अपनी बहन माना और
उसे बहुत-सा धन और वस्त्रालंकार देकर विदा किया।
कुछ दिन बाद मैं शंकर को प्रसन्न करके और उनसे इच्छानुकूल वर पाकर घर लौट आया।
आकर मैंने उपकोशा की चतुरता और उन तीन पुरुषों की दुःशीलता का वृत्तांत सुना।
उपकोशा के पतिव्रत पर मैं अतिशय प्रसन्न हुआ और उस दिन से फिर मैं उससे एक घड़ी
भर के लिए भी जुदा नहीं हुआ।
अपनी प्रियतमा उपकोशा के इस अद्भुत चरित को मैंने अपने मित्र सोमदेव से लिख रखने
के लिए कहा। उसने इसी क्षण इसे लिख लिया। वही मैंने आज यहां पर तुम्हें सुनाया है।
तुमको मेरी शपथ है, इसे सच समझना।