टेढ़ी लकीर (नाटक) : सआदत हसन मंटो

Tedhi Lakeer (Play) : Saadat Hasan Manto

पात्र/अफ़राद
जावेद:
असलम:
अलताफ़: (जावेद के दोस्त)
जमील:
अब्बास:
गुल ख़ान: (नौकर)
मुअल्लिन: (जो रेडीयो के ऐलान पढ़ेगा)
एक गवैया: (जो इक़बाल के शेअर गायगा)
मजीद:

(शहनाई की आवाज़। आरकैस्टरा वो धुन बजा रहा है जो आम तौर पर ब्याह शादी के मौक़ा पर बजाई जाती है। ये म्यूज़िक इस अंदाज़ से बजाया जाये कि सामईन ये समझें कोई बरात गुज़र रही है, चुनांचे आहिस्ता-आहिस्ता ये म्यूज़िक तहलील हो जाये।)


जावेद: बाजों के इस शोर में और शादी में कितनी मुनासबत है। दोनों शुरू में शोर मचाते हैं और फिर आहिस्ता-आहिस्ता ये शोर ग़ायब हो जाता है। और वो।और वो निकाह पढ़ने वाला मिला। इस से बढ़कर और कौन चुग़द हो सकता है। मैं जब उस का तसव्वुर करता हूँ तो मुझे इस में और बारिश के बाद किसी जोहड़ के किनारे बैठे हुए मेंढ़क में कोई फ़र्क़ महसूस नहीं होता। लेकिन शायद मेंढ़क की हालत मुल्ला से बेहतर होती है इस लिए कि वो सिर्फ़ बरसात ही में ट्राता है। हमारे मुल्ला साहिब तो हर मौसम में।
असलम: किया बेहूदा बकवास करते हो, आख़िर तुम्हें इस दुनिया की कोई चीज़ पसंद भी है। शादी ब्याह बकवास, दावतें फ़ुज़ूल, मज़हब नाकारा, तालीम नाक़िस, दोस्ती बेहूदा। कोई शैय आपको इस दुनिया की पसंद भी है। तो जनाब ऐसा क्यों नहीं करते कि अपने लिए एक अलैहदा दुनिया बना लें इसी में रहें, अपनी पसंद के क़ानून वज़ा फ़र्मा लें, औरत के बजाय कोई और चीज़ तख़लीक़ कर लें । यूं नेचर का बर्थ कंट्रोल हो जाये तो जनाब की सारी ख़्वाहिशें पूरी हो जाएँगी।लाहौल वला। कुछ होश की दवा करो।
जावेद: जिसका ये नुस्ख़ा सीना-ब-सीना चला आ रहा है कि एक मुला या पण्डित बुलाओ और उस से कुछ पढ़वा के शादी कर लो । होश की दवा यही तजवीज़ फ़रमाएँगे ना आप? भई औरत ना हुई लख़लख़ा हो गया। लेकिन ठहरिए। मैं आपसे एक सीधा सादा सवाल करता हूँ । मंतिक़ और इस्तिदलाल से क़त-ए-नज़र आप ये फ़रमाईए कि रस्मों पर इतनी शिद्दत से कारबन्द रहना क्या ज़रूरी है।शादी तो ख़ैर हुई। यानी उस चीज़ का मतलब इस लिए समझ में आ जाता है कि औरत मौजूद है, इस का कुछ ना कुछ तो ज़रूर होना चाहीए इस कुछ ना कुछ का नाम आपने शादी रख लिया है जिस पर ख़ाकसार को कोई एतराज़ नहीं पर मैं ये पूछता हूँ कि शादी अगर हो तो साथ ही साथ रस्में क्यों हों, यानी अगर मैं किसी औरत को रफ़ीक़ा-ए-हयात बनाना चाहता हूँ और वो भी मुझे अपना जीवन साथी बनाने के लिए तैयार है तो इस में मुलाअ साहिब की तशरीफ़ आवरी क्यों ज़रूरी है।शादी मेरी है।यानी मेरी और उस औरत की।इस में दूसरे लोग क्यों शरीक हूँ और फिर पुलाव क्यों पक्के। बाजे क्यों बजें और दूसरी एक हज़ार लग़वयात क्यों हों। और वो शादी के रुकए (हँसता है) बख़ुदा ये शादी के रुकए भी अजीब चीज़ हैं।
अलताफ़: लो भई असलम, इन शादी के रुक़ओं के बारे में भी जावेद साहिब के इर्शादात सुन लो । फ़रमाईए हज़रत, उनके मुताल्लिक़ आपका निराला फ़लसफ़ा क्या कहता है?
जावेद: (हँसता है) निराला फ़लसफ़ा क्या कहता है (ये फ़िक़रा फिर दोहराता है) निराला फ़लसफ़ा क्या कहता है (जैसे सोच रहा है फिर एक दम) ये तुम्हारे नज़दीक तिपाई पर जो सिनेमा का इश्तिहार पड़ा है। उसे पढ़ कर सुनाओ, फिर बताऊंगा।
अलताफ़: किया पिक्चर देखने का इरादा है?
जावेद: भई नहीं, तुम ये इश्तिहार तो पढ़ो।
असलम: लाओ मैं पढ़े देता हूँ।
जावेद: पढ़ो।
असलम: लिखा है (काग़ज़ की खड़खड़ाहट) लिखा है । आग का खेल उर्फ़ मदारी की आँख । गौहर टोहन टॉकीज़ का पहला शाहकार । सौ फ़ीसदी नाचता बोलता और गाना फ़िल्म ख़ास अदाकार: मिस मुनीर और सीताराम। इस के साथ ही ज़िंदा नाच-ओ-गाना भी होगा।नगीना टॉकीज़। पहला खेल शाम के छः बजे दूसरा खेल साढे़ आठ बजे।
नोट: मैनेजर को प्रोग्राम बदलने का हक़ हासिल है, ख़रीदा हुआ टिकट वापिस नहीं किया जाएगा, शराब पी कर दंगा फ़साद करने वालों को हवाला पुलिस किया जाएगा । बिजली फ़ेल होने की सूरत में टिक्टों के दाम वापिस नहीं किए जाऐंगे। नगीना टॉकीज़ अमृत बाज़ार।
जावेद: शादी के रुक़ों में भी खेल का नाम होता है और ख़ास अदाकारों का भी । ये भी लिखा होता है कि ये किस का पहला शाहकार है। ज़िंदा नाच और गाने का ज़िक्र नहीं होता मगर यूं ये चीज़ होती ज़रूर है। और फिर इस खेल के औक़ात भी दर्ज होते हैं। अलबत्ता ये नोट साथ नहीं होता कि मैनेजर को प्रोग्राम बदलने का हक़ हासिल है। ख़रीदा हुआ टिकट वापिस ना होगा और फिर बिजली फ़ेल होने की सूरत में टिकट के दाम वापिस नहीं किए जाऐंगे। हालाँकि इन बातों का हवाला उन रुक़ों में ज़रूरी है।
असलम: मीन मेख़ ख़ूब निकालते हो और मुज़हका उड़ाने का फ़न भी तुम्हें ख़ूब आता है पर दोस्त ज़्यादा देर तक तुमसे इस मुश्किल रास्ते पर ना चला जाएगा।
जावेद: सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि तुम मुझे अभी तक नहीं समझ सके। ज़्यादा देर तक मुझसे इस मुश्किल रास्ते पर ना चला जाएगा, यही कहते हो ना ? लेकिन भई मैं कुछ देर तो ज़रूर इस मुश्किल रास्ते पर चलूँगा, बस काफ़ी है। तुम सीधी और हमवार सड़क के क़ाइल हो जिसमें ना कोई मोड़ हो ना फेर लेकिन बंदा ऐसी सड़क पर दो क़दम नहीं चल सकता। सीधी सड़क पर तो हर आने वाली चीज़ सामने होती है, इस में क्या ख़ाक लुतफ़ आ सकता है। यानी हर शैय तुम्हारी निगाहों के सामने है, कोई चीज़ तुम्हारी निगाहों से ओझल नहीं। टेढ़ी बींगी मोड़ों और फेरों वाली सड़क हो तो कई आँखों से ओझल चीज़ें बड़े ड्रामाई अंदाज़ में आँखों के सामने आती हैं। इस मोड़ पर एक दम कोई भारी भरकम लारी तुम्हारे दिल में धड़का पैदा करती हाँफती हुई गुज़र जाती है। इस मोड़ पर अचानक कोई हसीन औरत इस अंदाज़ से तुम्हारे सामने आती है। जैसे तहतुश-शुऊर से कोई धुंदला सा ख़्याल एक दम ज़हन में कूद पड़े। ज़िंदगी सिर्फ़ मोड़ों और फेरों ही की वजह से बसर करने के काबिल है, वर्ना इस में रखा ही किया है।
असलम: क़ता कलामी माफ़ मगर आपने अभी अभी हसीन औरत का ज़िक्र किया था।। औरत में हुस्न तलाश करना आपने कब से शुरू किया है, यानी मोडूँ पर हुसीन औरतों के अचानक सामने आ जाने में आपने कब से दिलचस्पी लेना शुरू की है।
जावेद: (वक़फ़ा) टेढ़ा सवाल किया है तुमने?
असलम: इस लिए कि आपसे सीधा सादा सवाल किया ही नहीं जा सकता।
जावेद: ठीक है ।ठीक है। (वक़फ़ा) मोड़ों पर हुसीन औरतों के अचानक सामने आ जाने में कब से दिलचस्पी लेना शुरू की है?। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं अपने कुछ अलफ़ाज़ वापिस ले लूं। नहीं सिर्फ एक लुप्फ ।औरत के बजाय गाय कह लेने दीजिए मुझे।इस में आपका क्या हर्ज होगा। हाँ तो इस मोड़ पर अचानक कोई हसीन गाय इस अंदाज़ से तुम्हारे सामने आती है जैसे।
असलम: दोस्त हुसीन गाय तो सामने आई पर अब तह अलशावर से वो धुंदला ख़्याल तुम्हारे ज़हन में नहीं कूदेगा। गाय की दुम तुम्हारे तहतुश-शुऊर तक नहीं पहुंच सकती जिसको थाम कर वो ख़्याल ऊपर आ जाए।
जावेद: भई मजबूरी भी कोई चीज़ है। क्या ये वाक़या नहीं कि हमारे हाँ सड़कों पर औरतों से ज़्यादा गाय भैंसें चलती हैं।। औरतें हैं कहाँ ? मैं भोला, हैं, मगर संदूक़ों में बंद । अब उस का ईलाज क्या हो सकता है।यही वजह कि अक्सर आज़ादी पसंद और आर्टिस्टिक तबीयत रखने वाले मर्द तंग आकर कोई डेरी फ़ार्म खोल लेते हैं।
असलम: आपने तंग आकर कोई डेरी फ़ार्म खोला?
जावेद: जी नहीं, उस के लिए भी तो गाइयों की ज़रूरत है और मेरी ज़िंदगी में ना चौपाया ना दो पाया । अलबत्ता उमनगीं सीने में काफ़ी हैं।पर याद रहे सिर्फ उमनगीं। और हैं। और मैं क्या हूँ ? बाक़ौल आपके एक टेढ़ी लकीर जो सीधी लकीर के मुक़ाबले में हमेशा बड़ी होती है।ये बड़ापन (हँसता है) ये बड़ापन अपने आपको तसकीन देने के लीए बुरा नहीं। क्या ख़्याल है अलताफ़ साहिब!
अलताफ़: ख़्याल?। मेरा ख़्याल? मेरा ख़्याल आपके ख़्याल के मुक़ाबले में इतना लंबा नहीं है जो आप अपने फ़लसफ़े के असकंदरी गज़ से माप सकें।
जावेद: अलताफ़, असलम तुम दोनों मुझे अपना दोस्त समझते हो और ये भी कहते हो कि तुम दोनों मेरे दोस्त हो। मैं आज तुमसे एक बात पूछता हूँ।क्या मैं वाक़ई बुरा हूँ। क्या मेरे ख़्यालात वाक़ई इतने ख़तरनाक हैं कि यहां किसी चौराहे में टिकटिकी से बांध कर मुझे कोड़े लगाए जाएं?। मैं चोर नहीं, डाकू नहीं। अगर मैं कभी सेंध लगाऊँ तो अपने ही घर में चोरी करूँगा तो अपनी ही चीज़ों की। मेरी फूंकें उस तहज़ीब का चिराग़ बुझाना नहीं चाहतें। मेरे अंदर चंद दिए रोशन हैं, मैं इन ही को जलाने बुझाने के दिलचस्प खेल में मशग़ूल रहना चाहता हूँ। इस पर किसी को क्या एतराज़ हो सकता है और तुम जो मेरे दोस्त हो इस में क्या ऐब देखते हो।
(ख़ामोशी)
जावेद: लेकिन इस कमरे की फ़िज़ा अक्की अक्की इतनी उदास क्यों हो गई है। क्या ये मेरी बातों का असर है या
असलम: छोड़ो जावेद इन बातों को।तुमने बिलकुल सच्च कहा था, हम तुम्हें नहीं समझ सके और ना कभी समझ सकेंगे।अलताफ़, कोई स्टेशन तो निकालो।रेडीयो तुम्हारे क़रीब पड़ा है।ज़रा गाना हो जाये।

(रेडीयो)
इक़बाल की ये नज़म गाई जाये:।
ये दैर-ओ-कुहन किया है? अम्बार-ए-ख़स-ओ-ख़ाशाक
मुश्किल है गुज़र इस में बेनाला आतिशनाक
रमज़ीं हैं मुहब्बत की गुस्ताख़ी-ओ-बेबाकी
हर शौक़ नहीं गुस्ताख हर जज़ब नहीं बेबाक
फ़ारिग़ तो ना बैठेगा मह्शर में जुनूँ मेरा
या अपना गरेबाँ-चाक या दामन-ए-यज़्दाँ चाक
रेडीयो: अभी अभी आप एजाज़ साहिब से हज़रत-ए-इक़बाल का कलाम सुन रहे थे अब आपको कल यानी ग्यारह फरवरी के प्रोग्राम के मुताल्लिक़ कुछ बताया जाये । कल ग्यारह फरवरी को।
(वक़फ़ा)
रेडीयो: हम दिल्ली से बोल रहे हैं। अभी अभी आप बाज़ार के भाव सुन रहे थे आपसे कल यानी ग्यारह दिसंबर के प्रोग्राम की चंद दिलचस्पियों का ज़िक्र किया जाएगा।
असलम: अलताफ़, तुम्हें याद है, जावेद से मिले हुए हमें पूरे दस महीने हो गए हैं। पिछली बार जब उस से गुफ़्तगु हुई थी उस दिन फरवरी की ग्यारह तारीख़ थी।आज दस दिसंबर है।कहाँ ग़ायब हो गया है। कुछ समझ में नहीं आता।
अलताफ़: यही मैं भी सोचता हूँ।मुझे ऐसा महसूस होता है कि हमने उसे नाराज़ कर दिया है । उस के दिल को दुख पहुंचाया है। असलम, जावेद दिल का बहुत नाज़ुक है।तुम्हें याद है उस रोज़ किस दर्द भरे लहजे में उसने हमसे पूछा था। क्या मैं वाक़ई बुरा हूँ। क्या मेरे ख़्यालात वाक़ई इतने ख़तरनाक हैं कि यहां किसी चौराहे में टिकटिकी से बांध कर मुझे कोड़े लगाए जाएं। मुझे जब उस के ये लफ़्ज़ याद आते हैं तो दिल में एक हलचल सी मच जाती है।
(दस्तक की आवाज़)
अलताफ़: देखना भई, कोई बाहर दस्तक दे रहा है।
असलम: कौन है।चले आओ, दरवाज़ा खुला है।
(दरवाज़ा खुलने की आवाज़)
असलम: आहा ये तो अपना मजीद है।कहो भई मजीद इतने दिन कहाँ रहे।
मजीद: बीमार था।लेकिन भई तुम लोग जावेद के निकाह पर क्यों नहीं आए। क्या यहां नहीं थे।
असलम: जावेद ? कौन सा जावेद?
मजीद: भई वाह ! जावेद एक है दो तो नहीं हैं। तुम कितने जावेदों को जानते हो?
अलताफ़: तुम तुम्हारा मतलब।यानी तुम्हारा मतलब अपने जावेद से है।
मजीद: ये क़िस्सा किया है? एक ही जावेद को तो हम लोग जानते हैं और वो हमारा अपना ही था पर अब तो किसी और का हो गया है। बड़ी हैरत की बात है तुम लोग जो उस के बेहतरीन दोस्त हो उस की शादी के मुताल्लिक़ कुछ जानते ही नहीं।
असलम: जावेद ने शादी करली?
अलताफ़: किस से? कहाँ? कब?
मजीद: गुजरांवाला में यक्म दिसंबर को। तुम अब्बास को नहीं जानते।वो लिमतड़ंग जो हमारे साथ स्कूल में पढ़ा करता था।
असलम: अच्छी तरह जानता हूँ।क्या हुआ उस को?
मजीद: जावेद का निकाह उस की बहन से हुआ है।
असलम: झूट।
मजीद: मुझे इस में झूट बोलने की क्या ज़रूरत है। अपनी लड़की को छोड़ने के लिए मैं गुजरांवाला गया था वहां अब्बास से मुलाक़ात हुई चुनांचे मुझे निकाह की रस्म में शरीक होना पड़ा।
असलम: और वहां मुला साहिब भी थे?
मजीद: कौन से मुलाअ साहिब?
असलम: अरे भाई वही जो निकाह पढ़वाते हैं।
मजीद: उनके बग़ैर निकाह कैसे हो सकता है।कहीं तुम्हारा दिमाग़ तो नहीं बहक गया।निकाह ख़वानी के वक़्त जो कुछ हुआ करता है हुआ, जावेद ने सेहरा पहन रखा था और।
अलताफ़: छोहारे भी बाँटे गए वो इलायची दाने भी थे?। ईजाब-ओ-क़बूल हुआ होगा और जावेद ने तीन मर्तबा सर हिला कर हाँ भी की होगी।
असलम: क्यों नहीं?
अलताफ़: (बुलंद आवाज़ में) वो मारा । असलम, मार लिया जावेद को। अगर ये ख़बर सच्च है तो बंदे को नाचने में भी कोई उज़्र नहीं।मजीद, भई ख़ुदा की क़सम क्या ख़बर सुनाई है तुमने। दिल बाग़ बाग़ कर दिया।अब वो है कहाँ। गुजरांवाला ही में है?। क्या इस वक़्त कोई गाड़ी उधर जाती है?। मैं ये देखना चाहता हूँ कि वो अब हमसे आँख कैसे मिलाता है?। कहाँ गया जनाब का वो फ़लसफ़ा?। क्यों असलम, क्या फ़र्मा रहे थे जनाब उस दिन? ये शादी ब्याह की रस्में क्या हैं?। और सरकार ने सेहरा भी लगाया। माइयों भी बैठे होंगे। (हँसता है। ज़ोर ज़ोर से हँसता है)। लेकिन अब मालूम ये करना है कि हज़रत, हैं कहाँ?। उनसे मुलाक़ात कहाँ हो सकती है?
असलम: क्यों मजीद, क्या तुम उस का पता बता सकते हो।लेकिन मैं हैरान हूँ वो गुजरांवाला कैसे पहुंच गया और ये निकाह कैसे हो गया।
मजीद: कैसी बहकी बहकी बातें कर रहे हो।निकाह कैसे हो गया?। तुम्हारा निकाह कैसे हुआ था और तुम्हारी शादी कैसे हुई थी।
असलम: छोड़ो इस बहस को, तुम नहीं जानते कि हम इस क़दर मुतअज्जिब क्यों हो रहे हैं। तुम फ़क़त इतना बताओ कि वो आजकल है कहाँ।
मजीद: मैं जब गुजरांवाला से वापिस आ रहा था तो वो कहीं जाने की तैयारीयां कर रहा था। क्योंकि उसे शादी के लिए इंतिज़ाम करना था। हाँ, मैं तुमको ये बताना तो भूल ही गया कि उस की शादी यक्म जनवरी को हो रही है, यानी नए साल के आग़ाज़ के साथ ही उस की नई ज़िंदगी भी शुरू हो जाएगी।
असलम: तो यक्म जनवरी से पहले हम उस से नहीं मिल सकते।मगर तुम्हें सब बातों का इलम भी तो नहीं। अलताफ़, तुम इतमीनान रखो मैं सब खोज लगा लूँगा।
अलताफ़: असलम वो हमसे बच कर जाएगा कहाँ?
(क़दमों की चाप)
जावेद: मैं ख़ुद हाज़िर हो गया हूँ।
असलम: जावेद!
अलताफ़: जावेद?
मजीद: लो भई जावेद ख़ुद ही आ गया । इधर आओ यार, इन दोनों की ऊटपटांग बातों ने तो मुझे परेशान कर दिया है।तुम्हारे निकाह का उनको यक़ीन ही नहीं आता और फिर जाने क्या-क्या बातें की हैं उन्होंने। कब आए गुजरांवाला से!
असलम: तो जनाब का निकाह हो गया?
जावेद: (संजीदगी के साथ) जी हाँ!
अलताफ़: मुलाअ साहिब भी तशरीफ़ लाए थे?
जावेद: जी हाँ, वो भी तशरीफ़ लाए थे?
असलम: माइयों भी बैठे होंगे आप?
जावेद: जी हाँ!
असलम: और
जावेद: जी हाँ।
असलम: यानी
जावेद: जी हाँ।
अलताफ़: तो गोया आप इस ऊंचे मन्नार से नीचे तशरीफ़ ले आए हैं जहां बैठ कर आप हम लोगों को देखा करते थे, यानी अब आप ने भी लख़लख़ा सूँघ लिया है।
जावेद: जी हाँ।
असलम: अब आप ये फ़रमाईए कि एक ज़माने के बाद आपका यहां आना कैसे हुआ?
जावेद: आपसे वो सौ रुपये वापिस लेने के लिए जो अरसा हुआ आपने मुझसे क़र्ज़ लिए थे। आपने कहा था जब तुम्हें ज़रूरत होगी मैं ये रक़म वापिस दे दूँगा।
असलम: जनाब को अपनी शादी के लिए ये रुपये चाहिऐं। अपनी शादी के लिए जो कि आज से कुछ अरसा पहले आपके नज़दीक मज़हकाख़ेज़ चीज़ थी।
जावेद: जी नहीं, मुझे ये रुपये अपनी शादी के लिए नहीं चाहिऐं। एक इस से भी ज़्यादा ज़रूरी काम मुझे उन रूपों के ज़रीये निकालना है।
अलताफ़: वो ज़रूरी काम किया है?
जावेद: मैं एक लड़की को अग़वा कर रहा हूँ। परसों रात मैं उसे भगा कर ले जाऊँगा। और ज़ाहिर है कि इस काम के लिए मुझे रूपों की अशद ज़रूरत है।
मजीद: और वो तुम्हारी शादी।उस लड़की का क्या होगा जिसको तुम निकाह के बंधन में बांध चुके हो।
असलम: (हंसकर) तो जनाब किसी लड़की को परसों अग़वा करने का इरादा रखते हैं।
जावेद: जी हाँ। वो लड़की बिलकुल तैयार है। और मैं भी बिलकुल तैयार हूँ।लेकिन इस के बावजूद हम उसे अग़वा ही कहेंगे। इस लिए कि अलताफ़ साहिब और असलम साहिब भी मेरे इस फे़अल को अग़वा ही का नाम देंगे।
असलम: आपकी ये गुफ़्तगु भी अग़वा से कम ख़तरनाक नहीं।
जावेद: तो लीजिए मैं अपनी ज़बान बंद करता हूँ।बराह मेहरबानी वो सौ रुपये मुझे दे दीजिए ताकि मैं चला जाऊं। मैं यहां ज़्यादा देर ठहर कर आप लोगों के दिमाग़ पर अगुवाई कैफ़ीयत तारी नहीं करना चाहता।
अलताफ़: तुम बहुत रूखे हो गए हो जावेद।
असलम: तुम्हारे लहजे में ये तल्ख़ी कहाँ से आ गई?
अलताफ़: अपनी राम-कहानी तो सुनाओ। इस दौरान में तुम पर क्या-क्या बीती। बैठ जाओ। और। असलम, तुमने ग़ौर किया, किस क़दर दुबला हो गया है जावेद। जावेद क्या हो गया है तुम्हें?
मजीद: मैंने पिछले दिनों गुजरांवाला में जब उन्हें देखा तो इतने लाग़र नहीं थे। अब तो।
जावेद: वो सौ रुपये आपने अभी तक मुझे नहीं दिए। शायद आपने मेरी बात बावर नहीं की। मैं सच्च कहता हूँ परसों मुझे एक लड़की को अग़वा करके ले जाना है और मेरे पास ज़्यादा वक़्त नहीं जो मैं बेकार ज़ाए कर सकूँ।
असलम: रुपये मेरी जेब में हैं। मैं अभी निकाले देता हूँ। रुपये ले लो फिर बातें करेंगे। (नोटों की खड़खड़ाहट, थोड़ा वक़फ़ा) सत्तर, अस्सी नव्वे और ये सब दस नोट हैं दस दस के लो।
जावेद: शुक्रिया।बहुत बहुत शुक्रिया।अच्छा मैं अब रुख़स्त चाहता हूँ।
असलम: चले जाओगे।
अलताफ़: कुछ देर ठहरोगे नहीं।
मजीद: ये मुआमला क्या है?
असलम: जावेद!
अलताफ़: जावेद!
जावेद: मैं चला।लेकिन तुम दुआ करो ख़ुदा मुझे कामयाबी दे।
(थोड़ा वक़फ़ा।एक सन्नाटा तारी रहता है)
असलम: आज तारीख़ किया है?
मजीद: दस दिसंबर।

(वक़फ़ा)

अब्बास: आज दिसंबर की तीस तारीख़ है जमील।ख़ुदा के लिए सोचो कि हम पर मुसीबत का कितना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा है। इन तीन दिनों में हम क्या कर सकते हैं।कुछ भी नहीं। दस रोज़ से मुतवातिर हम उसे तलाश कर रहे हैं मगर। अब क्या करूँ।किसी ने सच्च कहा है कि।
जमील: मैं ख़ुद बहुत हैरान हूँ अब्बास । उस से मुझे ये तवक़्क़ो हरगिज़ ना थी। मैं तो कहता हूँ कि अभी ख़ामोश रहो।शायद।
अब्बास: नहीं, अब ज़्यादा देर तक मुझसे ख़ामोश ना रहा जाएगा। वालिद साहिब की भी यही राय है कि जावेद से सब कुछ कह दिया जाये। उस को अंधेरे में रखना बहुत बड़ा ज़ुलम है। मैंने इसी लिए तुम्हें यहां गुजरांवाला आने की तकलीफ़ दी है कि तुम वापिस जा कर मजीद को सारी बात समझा दो। मजीद को मैंने यहां बुला लिया होता मगर उस को दफ़्तर से छुट्टी नहीं मिल सकती। मजीद, जावेद को समझा देगा। आदमी शरीफ़ है। सुनकर ख़ामोश हो जाएगा और शोर नहीं मचाएगा। अब तुम ख़ुद ही ग़ौर करो कि इस कि सिवा और चारा ही किया है। ये हमारे नसीब हैं कि उसने हमारी नाक कटवाई।
जमील: जो तुमने कहा है मैं बड़े अच्छे तरीक़े से मजीद को समझा दूँगा। पर किया ये बेहतर होगा कि अभी एक दो दिन और देख लिया जाये।
अब्बास: क्या देख लिया जाये?। ये दिन देखना था सो देख लिया। नहीं जमील ये तै है कि जावेद को सब कुछ बता दिया जाये।
(नौकर की आमद)
नौकर: एक साहिब तशरीफ़ लाए हैं, आपसे मिलना चाहते हैं।
अब्बास: कौन हैं?। कह दो अब्बास घर पर नहीं।
नौकर: बहुत अच्छा जनाब।ये कार्ड ले लीजिएगा उनका।
(थोड़ा वक़फ़ा)
जमील: अरे भई।ये असलम है।नौकर को जल्द वापिस बुलाओ।
अब्बास: गुल ख़ान।गुल ख़ान।कौन असलम ? गुल ख़ान बात सुनो।
जमील: असलम।वही असलम जो लाहौर में हमारे साथ पढ़ता था। भई वाह इतनी जल्दी भूल गए।तुम्हारी उस के साथ ख़त-ओ-किताबत भी तो है।
अब्बास: गुल ख़ान। और देखो अगर वही है तो उस से कोई बात ना करना। लेकिन अगर उस ने पूछा कि शादी कब हो रही है तो मैं क्या जवाब दूँगा?। मेरी जान किस क़दर मुसीबत में फंस गई है। मैं तुमसे क्या कहूं जमील, वालिदा ने तो अपना बुराहाल कर रखा है। समझ में नहीं आता ये इक्का अक्की क्या हो गया।
जमील: लो वो असलम आ गया। आओ भई असलम । कैसे आए।
अब्बास: आईए, आईए तशरीफ़ लाइए, पर आपने अपनी आमद से मतला तो कर दिया होता। यहां आप किस के हाँ ठहरे हैं। यानी क्या मेरा घर नहीं था। अभी परसों ही तो आपका ख़त मुझे मिला है, इस में लिख दिया होता।तशरीफ़ रखीए। हाँ ।हाँ। तो मैं क्या कह रहा था बात दरअसल ये हुई असलम साहिब कि मैं बहुत परेशान हूँ, यही वजह है कि मैं आपके ख़त का जवाब ना दे सका।
असलम: कोई हर्ज नहीं और अपनी आमद की इत्तिला देने के मुताल्लिक़ ये अर्ज़ है कि मुझे मालूम नहीं था। मैं इतनी जल्दी इधर आऊँगा। क़िस्सा ये है कि मुझे कल जावेद का ख़त मिला था चुनांचे मुझे फ़ौरन ही इधर का रुख करना पड़ा।
अब्बास: तो। आपको मालूम है।
असलम: जी हाँ। और मेरी अक़ल काम नहीं करती कि उसने ये क्या हमाक़त की ?
जमील: देखो असलम, अब जो कुछ होना था हो चुका। ख़ुदा के लिए ये बात अब फैलने ना पाए। तुम जानते हो इस में एक बड़े ख़ानदान की इज़्ज़त का सवाल है और अब्बास हमारा दोस्त है। लेकिन तुम ये बताओ कि जावेद ने अपने ख़त मैं तुम्हें क्या लिखा है। उसने इस अफ़सोसनाक वाक़िया को किस रंग में देखा है।
असलम: मैं कुछ समझ ना सका तुमने क्या कहा है। जावेद अपनी हमाक़तों को हमेशा ही से एक अजीब-ओ-ग़रीब रंग में देखता रहा है जो कि उस की सबसे बड़ी हमाक़त है। मगर इस वाक़े ने तो मेरे होश गुम कर दिए हैं। । ये बात किस के ज़हन में आ सकती थी।
अब्बास: मैं आपका मतलब नहीं समझा। जावेद साहिब ने क्या-किया है।
असलम: उस का ख़त पढ़ लीजिए। (काग़ज़ की खड़खड़ाहट) जमील मैं तुमसे क्या कहूं, जावेद जैसा अजीब-ओ-ग़रीब आदमी दुनिया में फिर कभी पैदा ना होगा।
अब्बास: (तुतलाकर) ये ये ये ये क्या-क्या जावेद साहिब ने? यानी इस की ज़रूरत ही किया थी? और हम दस दिन से इस का खोज लगा रे हैं। खाना पीना और रात की नींद हम पर हराम रही है। मैं पूछता हूँ इस में उन्होंने किया मस्लिहत देखी।
असलम: यही तो मैं भी सोचता हूँ। निकाह हो चुका था, बीवी उस की थी, वो जब चाहता उसे अपने घर ले जाता मगर ये अग़वा करने की ज़रूरत उसे क्यों महसूस हुई।रात को वो उसे भगा कर क्यों ले गया। और जैसा कि आप कहते हैं आपको कुछ इलम नहीं।ख़ुदा जाने आपने ये दिन किस तरह गुज़ारे होंगे और वो। अब मैं इस को क्या कहूं।
अब्बास: टेढ़ी लकीर। ये देखिए ना ख़त पर टेढ़ी लकीर खींची हुई है। इस का क्या मतलब है।

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