टेढ़ी लकीर (उपन्यास) : इस्मत चुग़ताई
Tedhi Lakeer (Novel in Hindi ) : Ismat Chughtai
पेश-लफ़्ज़1
जब नॉवेल टेढ़ी लकीर शाया2 हुई तो कुछ लोगों ने कहा मैंने एक जिंसी-मिज़ा़ज3 और बीमार ज़ेहनियत4 वाली लड़की की सरगुज़श्त5 लिखी है। इल्म-ए-नफ़सियात6 को पढ़िए तो ये कहना मुश्किल हो जाता है कि कौन बीमार है और कौन तंदुरुस्त। एक पारसा हस्ती जिंसी बीमार हो सकती है और एक आवारा और बदचलन इनसान सेहतमंद हो सकता है ! जिंसी7 बीमार और तंदुरुस्त में इतना बारीक फ़ासला होता है कि फैसला दुश्वार है। मगर जहाँ तक मेरे मुताले का ताल्लुक है, ‘टेढ़ी लकीर’ की हीरोइन न जेहानी8 बीमार है और न जिंसी। जैसे हर जिंदा इनसान को गंदे माहौल और आस-पास की ग़लाज़त से हैज़ा ताउन हो सकता है, इसी तरह एक बिलकुल तंदुरुस्त ज़ेहनियत का मालिक बच्चा भी अगर ग़लत माहौल में फँस जाए तो बीमार हो जाता है और मौत भी वाक़े9 हो सकती है।
मगर ‘शम्मन’ ज़िंदा ही नहीं है, जानदार है। उस पर मुख़्तलिफ़10 हमले होते हैं लेकिन हर हमले के बाद वह फिर हिम्मत बाँधकर सलामत उठ खड़ी होती है। वह हर दिल से सोच-विचार करने के बाद दूसरा कदम उठाती है। ये उसका क़सूर नहीं है कि वह बेहद हस्सास है और हर चोट पर मुँह के बल गिरती है मगर सँभल जाती है। नफ़सियाती उसूलों से टक्कर लेकर वह उन्हें झुठला देती है-हर तूफ़ान सिर से गुज़र जाता है।
‘शम्मन’ की सबसे बड़ी बदनसीबी ये है कि कोई उसे समझ नहीं पाता। वह प्यार, मुहब्बत और दोस्ती की भूखी है और उन्हें नेमतों की तलाश में भयानक जंगलों की ख़ाक छानती है। उसका दूसरा ऐब है-ज़िद। या शायद यही उसकी ख़ूबी है। हथियार डाल देना उसकी तबीयत नहीं।
कुछ लोगों ने ये भी कहा है कि ‘टेढ़ी लकीर’ मेरी आपबीती है-मुझे खुद से आपबीती लगती है। मैंने इस नॉवेल को लिखते वक्त बहुत कुछ महसूस किया है। मैंने शम्मन के दिल में उतरने की कोशिश की है। उसके साथ आँसू बहाए हैं और क़हक़हे लगाए हैं। उसकी कमज़ोरियों से जल भी उठी हूँ, उसकी हिम्मत की दाद भी दी है। उसकी नादानियों पर रहम भी आया है और शरारतों पर प्यार भी आया है। उसके इश्क़-ओ मुहब्बत के कारनामों पर चटख़ारे भी लिए हैं और हसरतों पर दुःख भी हुआ है। ऐसी हालत में अगर मैं कहूँ कि ये मेरी आपबीती है तो कुछ ज़्यादा मुबालग़ा11 तो नहीं।
और, जगबीती और आपबीती में भी तो बाल बराबर का फ़र्क है। जगबीती अगर अपने आप पर बीती महसूस नहीं की हो तो वह इनसान ही क्या ? और बग़ैर परायी ज़िंदगी को अपनाए हुए, कोई कैसे लिख सकता है !
श्म्मन की कहानी किसी एक लड़की की कहानी नहीं है। ये ह़जारों लड़कियों की कहानी है। उस दौर की लड़कियों की कहानी है, जब वो पाबंदियों और आज़ादी के बीच एक ख़ला12 में लटक रही थीं। और मैंने ईमानदारी से उनकी तस्वीर इन सफ़ात13 से खींच दी है, ताकि आने वाली लड़कियाँ उससे मुलाक़ात कर सकें और समझ सकें कि एक लकीर क्यों टेढ़ी होती है और क्यों सीधी हो जाती है। और, अपनी बच्चियों के रास्ते को उलझाने के बजाय सुलझा सकें और बजाय तंबीहुल ग़ाफ़लीन14 के अपनी बेटियों की दोस्त और रहनुमा बन सकें।
1 .प्राक्कथन 2. प्रकाशित 3 सेक्सी नेचर 4. बीमार मानसिकता 5. जीवनी 6. मनोविज्ञान 7. मानसिक 8. शारीरिक 9. घटित 10. विभिन्न 11. अतिशयोक्ति 12. शून्य 13. पृष्ठों 14 .बात बात पर बग़ैर विचार कि नसीहत करने वाले माता-पिता।
-इस्मत चुग़ताई
एक
वह पैदा ही बहुत बेमौक़ा हुई। बड़ी आपा की चहेती सहेली सलमा की शादी थी और वह बैठी छपाछप सुरमई क्रेप के दुपट्टे पर लचका टाँक रही थीं। अम्मा इतने बच्चे जनने के बाद भी नन्हीं ही बनी हुई थीं। बैठी झाँवे से एड़ियों की मुर्दा खाल घिस-घिसकर उतार रही थीं कि एका-एकी घटा झूम कर घिर आई और वह दुहाई डाली कि मेम को बुलाने का सारा अरमान दिल का दिल ही में रहा और वह आन धमकी। दुनिया में आते ही बग़ैर गले में घाँटी किए ऐसी दहाड़ी कि तौबा भली।
नौ बच्चों के बाद एक का इज़ाफ़ा। जैसे घड़ी की सुई एकदम आगे बढ़ गई और दस बज गए। कैसी शादी और किसकी ब्याह ! हुकुम मिला, नन्हीं-सी बहन के नहलाने के लिए गर्म पानी तैयार करो। पानी से ज्यादा खौलते आँसू बहाती आपा ने कोसते हुए चूल्हे पर पतीली चढ़ा दी। पानी भी मज़ाक़ में ज़रा-सा छलक गया और सारा हाथ उबलकर रह गया।
‘ख़ुदा ग़ारत करे इस मुन्नी-सी बहन को। अम्मा की कोख क्यों नहीं बंद हो जाती, हद हो गई थी। बहन भाई और फिर बहन भाई, बस मालूम होता था, भिखमंगों ने घर देख लिया है। उमड़े चले आते हैं। वैसे ही क्या कम मौजूद थे जो और पै-दर-पै चले आ रहे थे !
कुत्ते, बिल्लियों की तरह, अज़ल के मरभुख्खे अनाज के घुन टूटे पड़ते हैं। दो भैसों का दूध तबर्रुक (प्रसाद) हो जाता फिर भी उनके तंदूर ठंडे ही पड़े रहते।
और, ये सब अब्बा का कसूर था। क्या मजाल जो अम्मा दूध पिला जाएँ। इधर बच्चा पैदा हुआ उधर आगरे से गवालन बुलवा ली। वह दूध पिलाए और बेगम की पट्टी से पट्टी जुड़ी रहे। फिर भला बच्चे क्यों साँस लेते ! घर क्या था, जैसे गाय-बैलों का बाड़ा। खाना है तो पतीलियों पीना है तो घड़ों सोना है तो घर का कोना-कोना जिंदगी से लबरेज़ छलकने को तैयार।
और ये पेट की खुरचन काली पीली धनिया सी नाक चियाँ-सी आँखें परचील से ज्यादा तेज। बड़ी आपा और मंझों, दोनों ने कई दफ़ा उसके चूहे के बच्चे जैसे मुँह को मुस्कुराते हुए देखा। गोया वह उन्हें छेड़ने को मुस्कुरा रही हो। वह ख़ूब समझती थी कि ये उसकी जरखरीद लौंडियों2 की तरह ख़िदमत करेंगी। अम्मा को क्या कम फिक्र हो रही होगी। आखिर ये इतनी ढेर सी लड़कियों का नसीबा कहाँ खुलेगा। माना कि रुपया भी है और लड़की को दिखाने का फ़ैशन नहीं, फिर भी कहाँ तक ताले डाले जाएँगे, क्या होगा ?
न उसका पेट फूला न बीमार हुई और रोज़ - बरोज़ फूलकर कुप्पा होती गई। दो एक भाई, बहनों तक तो ज़रा चाव से चोंचले किए पर अब बड़ी आपा का भी जी भर चुका था । और वह बेज़ार थीं। खैर, अन्ना मौजूद थी और वह पल रही थी ।
अन्ना बिलकुल जवान थी । सोलह-सत्रह बरस की थी तो रातों को वह घंटों ग़लाज़त में लिथड़ी पड़ी रहती और उसकी आँख भी न खुलती । अन्ना को जगाना गो आसान काम न था । मगर दूध ख़ूब होता था। दूसरे अन्ना का आशिक़ जब उसे कंधे पर बैठाकर घोड़े की तरह दौड़ता तो वह सब दुख-दर्द भूलकर किलकारियाँ मारने लगती। वह तीनों घरवालों की आँख बचाकर भैंसों के भूसे वाली कोठरी में दुबक रहती । अन्ना भूसे पर लोटें लगाती और उसका आशिक़ उसके पीछे-पीछे लुढ़कता, तब वह भी तालियाँ बजा-बजाकर घुटनियों दौड़ती मगर जब वह अन्ना से लड़ना शुरू करता तो वह मुँह बिसूरकर अपना निचला होंठ आगे फैला देती । उसे लड़ाई से सख्त परेशानी होती थी। जब दो कुत्ते आपस में भौं-भौं करके लिपट जाते तो उसका सारा जिस्म ख़ौफ़ से लरज़ने लगता और वह बेतरह बिलबिलाने लगती । यहाँ तक कि कुत्ते भी परेशान होकर अलाहेदा हो जाते। जब तक वह जागती रहती, अन्ना को कोई हाथ भी नहीं लगा सकता था। यूँ ही अगर उसे छेड़ने को अन्ना का आशिक़ उसका हाथ पकड़ कर कहता, "अन्ना हमारी है।"तो वह फ़ौरन चीखने लगती और उसे छोड़ना पड़ता ।
मगर उसे अपनी इस सीनाजोरी का जल्द ही ख़ामियाजा भुगतना पड़ा। एक दिन जब वह तीनों हस्बे मामूल ख़ुश्क पयाल पर लोटें लगा रहे थे, तो न जाने कब उसकी आँख लग गई। और वह अपनी नन्हीं सी दुनिया के मासूम ख़्वाबों में खो गई -आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ अन्नाएँ ही अन्नाएँ बिखरी हुई थीं। ख़ुशी से दीवानी होकर एक गोद से दूसरी गोद में हुमक- हुमक कर लपकने लगी। मगर फिर उसने देखा, एकाएक सारी अन्नाएँ कहीं गायब हो गईं। उसका जी कुम्हला गया । नदीदी1 कुतिया की तरह सूँघ - सूँघकर वह ढूँढ़ने लगी। उसने पा लिया। पयाल के एक कोने में उसकी नर्म-गर्म अन्ना के आम की तरह गोल-मटोल सी हो रही थी। कूँ-कूँ कर के वह उसमें घुसने लगी। उसके होंठ हिलने लगे और हलक़ की रगें फड़क उठीं । जैसे दूध के घूँट के घूँट हलक़ में होते हुए पेट में जा रहे हों। उसे उच्छू-सा लग गया। कुछ पकड़ने के लिए उसने अपने मोटे-मोटे हाथ बढ़ाए मगर एक भयानक बला ने उसे दूर झटककर अन्ना को दबोच लिया और भोड़ना शुरू किया। हलक़ फाड़कर वह दहाड़ी जैसे उसे साँपों ने डस लिया हो। उसकी मासूम आँखें उस करीह2 मंज़र को देखकर पथरा गईं। उसकी घिग्घी बँध गई। चीखें सुनकर बाहर से भिश्ती, भंगी और बावर्ची दौड़ पड़े और मुल्जिम गिरफ़्तार हो गए।
1. लालची 2. घृणित ।
बिसूर - बिसूरकर वह अन्ना के प्यारे मुखड़े को तकती। गोया आँखों ही आँखों में पूछ रही हो - चोट तो नहीं लगी ? - मैंने तुम्हें बचा लिया ना ? मगर अन्ना कुछ बेमज़ा सी थी और उसकी शरारतों पर बजाय प्यार से हँसने के, रुखाई से सिर झटक रही थी । अपने तमाम मासूम और कमज़ोर हर्बे1 उसने अन्ना को मनाने के लिए कर डाले मगर वह हँसा न सकी। काश! वह पूछ सकती कि वह क्यों रूठी हुई थी। मगर आज तो अन्ना ने उसकी आँखों की ज़बान समझने से भी इनकार कर दिया था ।
1. हथियार
उसी दिन शाम की गाड़ी से उसकी अन्ना को आगरे वापस भेज दिया गया। उसे ऐसा मालूम हुआ कि वह यतीम हो गई। आँखें फाड़-फाड़कर वह कई दिन और कई रात रोती रही। सारा घर उसके चारों तरफ़ जमा हो गया मगर उसे चैन न पड़ा। वह गर्म-गर्म अन्ना जिसके सीने से चिमटकर बिलकुल माँ के पेट में सोने का मज़ा आता था, भला वह अब कहाँ मिल सकती थी ! उसे वह बोतल देखकर ही सदमे का दौरा पड़ जाता था जिससे उसे दूध पिलाने की कोशिश की गई। कहाँ वह साँवली - साँवली गुदगुदी अन्ना और कहाँ शीशे की ज़लील बोतल । मगर पेट की आग ने उसे सब कुछ बर्दाश्त करने पर मजबूर कर दिया। मंझो बी ने जब उसे गोद में लेकर बोतल पिलाई और चंद क़तरे भूले से उसके हलक़ में चले गए तो वह ख़ामोश हो गई। फिर भी एकदम से वह बोतल को छोड़कर जल्दी से मंझो से चिमट जाती और पिल्ले की तरह उसके कपड़ों में अपनी अन्ना को ढूँढ़ने लगती। मंझो घबराकर उसे दूर लिटा देती और बड़ी आपा से शिकायत करती कि वह उसके बेतरह गुदगुदी करती है ।
तजुर्बे ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया, और बिलकुल जैसे गाय-बैल चारा खाते हैं। वह दूध ज़हरमार2 कर लेती। मगर उसके हाथ भटकते ही रहते। बोतल की चिकनी- चिकनी सतह पर वह प्यार से अपनी हथेलियाँ चिपकाकर उसे कलेजे से भींच लेती । शुरू-शुरू में तो दूध पीते-पीते एकदम उसे अन्ना की आँखें, उसकी नाक की नन्हीं-सी बाली और कान की लौंगें याद आ जातीं । उसका दिल भर आता और वह थोड़ी देर को चुसनी छोड़कर दर्दनाक आवाज़ में रोने लगती। मगर पेट की पुकार उसे चौकन्ना करती और वह ख़ामोश हो जाती ।
2. अनिच्छा से ग्रहण करना
जबसे अन्ना छिन गई थी, मंझो ने उसे ले लिया था। पता नहीं मंझो को उस पर क्यों प्यार आ गया। शायद जिस दिन उसने उसके कपड़ों में अन्ना को ढूँढ़ने की कोशिश की थी उसी दिन से मंझो को उस पर तरस आने लगा था । बोतल से दूध पिलाकर मंझो बी उसे सीने से चिपका लेती और पलंगड़ी पर लेट जाती वरना उसे नींद ही न आती। मंझो के पहलू में उसे कुछ-कुछ अन्ना की गर्मी मिल जाती और वह अपने छोटे-छोटे हाथों से मंझो की गर्दन और गाल सहलाया करती जिसका मंझो बिलकुल बुरा न मानती ।
फिर एक दिन जब मंझो नहा रही थी तो वह अंदर घुसती चली गई । “ अरे आपा उसे पकड़ो, "मंझो लरज़कर चिल्लाई ।
'उई' वह क्या समझे, इत्ती ज़रा-सी तो है ! मगर उसने मंझो को ऐसी बुरी तरह से घूरा कि वह शरमा गई । वह सकते के आलम में उसे घूरती रही। "चल यहाँ से !” मंझो ने लोटे की आड़ लेकर उसे डाँटा । मगर वह तो जैसे जादू से उसकी तरफ खिंचने लगी। मंझो ने ख़ौफ़ज़दा होकर उसे फिर दुतकारा और जब वह चमकती हुई आँखों से मुस्कुरा- मुस्कुराकर उसे मानीखेज़ नज़रों से ताकती बढ़ती ही चली गई तो उसने चुल्लू भर पानी लेकर उसके मुँह पर छींटा मारा।
पानी की मार से ठिठककर वह ज़ोर से रो पड़ी और सिसकियाँ भरती हुई बाहर आई। उस दिन उसने न तो जी भर के दूध पिया और न ही हँसी- बोली । वह मंझो की तरफ़ शिकायत-भरी नज़रों से देखती गोया उसने उसके साथ कोई ज़बर्दस्त बेईमानी की है। और वह फूट-फूटकर रो पड़ी। जब मंझो ने उसे पहलू में लिटाकर रज़ाई ओढ़ ली तो वह ख़िलाफ़-ए-मामूल1 ख़ामोश उसे घूरने लगी ।
1. रोज़ की आदत के विरुद्ध
"क्या है ?"मंझो ने प्यार से पूछा और वह हसरत से मुस्कुरा पड़ी। आहिस्ता से उसने उसकी गर्दन पर अपनी उँगलियों से खुजाना शुरू किया और आँखें गड़ाए उसके तिल को देखती रही जो बाएँ गाल पर चमक रहा था।
“नहीं, बुरी बात।” मंझो ने उसका भटकता हुआ हाथ उठाकर पहलू में रख दिया । वह बिसूरने लगी और ऐसी इल्तिजा' भरी नज़रों से देखा कि मंझो पसीज गई। उसक हाथ उठाकर गर्दन में डाल लिया और कलेजे से लगाकर सो गई ।
मंझो ने उसके लिए फूल जैसी फ्राकें और टोपियाँ सीं । घड़ी-घड़ी नहलाया जा रहा है। सुरमा, काजल और मिस्सी से लैस, वह अपनी सारी गतें खामोश बैठी बनवाया करती । मगर क्या मजाल जो कोई उसे हाथ भी लगा जाए। मंझो से तो आँखों में साबुन भी लग जाता तब भी वह कुछ यूँ ही सा बिसूरकर चुप हो जाती। मंझो आखिर मंझो ही थी।
मगर ज्यों-ज्यों बढ़ती गई वह मंझो की सफ़ाई से आजिज़ आ गई । वह उसे सजा बनाकर नादिरशाही हुक्म सादिर' कर देती कि “एक बाल भी इधर से उधर हुआ और • मौत आई।"पर ये उसके बस की बात न थी । चलती हुई टाँगों और हाथों को रोकना उसके क़ाबू में न था। थोड़ी देर तो वह कलेजे पर सब्र की सिल रखे बैठी रहती । मगर ज्यों ही मंझो की आँख बचती वह बाहर खिसक जाती और फिर शाम को जो वह क़दम रखती तो ये मालूम होता कोई दीवानी कुतिया कीचड़ की कुंडी में लोटकर आई है ! गुब्बारा जैसी नाक मानो सड़े हुए चूहे की खाल और उस पर बारीक-बारीक धूल की अफ़्शाँ छिड़की हुई । सर, बाल और आँखें धूल में अटी हुईं। दोनों नथने गलाज़त से ऐसे ठसाठस जैसे सीमेंट से दरवाज़े चुने हुए हों । जामुनों, अमरूदों, बेरों और आमों का, या मौसम के मुताबिक़ जो फल मौजूद होते उनका पलस्तर किया हुआ और ऊपर से ताऊनी2 चूहे जैसी बू ।
2. प्लेग के
सबसे पहला काम मंझो बी ये करती कि घूँसों, थप्पड़ों और चाँटों से जितनी धूल झाड़ सकती, झाड़ देती । वह ज़ोर से भैंस के पड्डे की तरह डकराती.... पलकों की रेत आँसुओं से धुल जाती और खार की वजह से दोनों नथने सट से खुल जाते जैसे अटकी हुई नाली में तेज़ाब डाल दिया हो। फिर घूँसों और गरजदार धमाकों के शादियानों1 के साथ गुस्ल-ए-मय्यत2 शुरू होता, फिर साफ़ सुथरा फ्रॉक पहनकर वह अपनी ग़लती को बड़ी तेज़ी से महसूस करती और पिछले गुनाहों से तौबा करके आइंदा नेकचलनी का इरादा बाँधती । वह पुख़्ता फ़ैसला कर लेती कि अब कीचड़ और मिट्टी से कोई वास्ता न रखेगी। धूल में लोटना तो क़तई बंद। उस वक़्त उसके चेहरे पर तारकुद्दुनिया3 साधू का-सा इस्तक़लाल4 छा जाता जो अपने जिस्म के किसी अज़ा5 को मुअत्तल6 कर लेने का क़स्द7 कर चुका हो। चील जैसी चौकन्ना आँखें कबूतर की तरह मासूम होकर ऊँघने लगतीं।
1. नगाड़ों 2. मृत्यु के बाद मुर्दे का स्नान 3. असांसारिक 4. दृढ़ संकल्प 5. अंग 6 स्थगित 7 संकल्प
मगर ज़माना साज़गार न था। दूसरे दिन जब ऐन उसी वक्त उसी इबरतनाक1 हालत में एक बदमस्त शराबी की तरह झूमती धूल की अफ़्शों में जगमगाती नज़र आती तो देखने वालों को सख़्त इबरत होती और जब धूल झड़ती तो ज़मीन-आसमान काँप उठते ।
1. दयनीय
वह फिर तौबा करती, हलफ़ उठाती ... मगर सब भूल जाने के लिए। शैतान उसे फिर बरग़लाता1 । ज्योंही वह सज-धजकर बाहर निकलती जुम्ला अनासिर2 को उसके साफ़ कपड़ों से बैर हो जाता। खेतों की साँवली साँवली कीचड़, ताल के किनारे की सरगोशियाँ करती हुई रेत उसे फुसलाती । अस्तबल की भीगी भीगी महकती हुई घास आगोश फैलाकर उसके पीछे दौड़ती। मुर्गियों का गंदा दड़बा उसे फूलों से लदी सेज की तरह अपनी तरफ़ खींचता .... वह सब कुछ भूल जाती। अपने ज़मीर से वह क़सम जो कई बार खाई थी, मंझो से वादा और ख़ुद उसकी अपनी खुद्दारी जिसे रोज़-रोज़ की धूल छुड़ाई चकनाचूर किए देती थी...वह उन बेपनाह शैतानी रानाइयों3 से बचने के लिए बहुत बेचैन हो जाती मगर फिर वह पुकार पुकारकर बुलाती तो वह कटी हुई पतंग की तरह इस अबदी4 गुनाह के ग़ार5 में जा गिरती जिसकी वजह से वह रोज़ दुख झेला करती ।
1. भ्रमित करता 2. कुछ लोगों 3. हरकतों 4. दैवी 5. गड्ढा
थोड़ी-सी देर में वह लह्वोलएब1 में ग़र्क़ नज़र आतीं। कीचड़ के रेशमी लड्डू, भूरी-भूरी भूनी हुई सूजी जैसी रेत की नन्हीं-नन्हीं ढेरियाँ... घोड़े की घास से बनाई हुई छोटी-सी झाडू, मुर्गी के दुम के झड़े हुए पर और पिनियाँ - उसकी अज़ीज़तरीन सहेली, भंगन की लड़की। मंझो के बाद दुनिया में यही पिनियाँ थी। वह दोनों भैंसों के पीछे जाकर एक-दूसरे के गले में हाथ डाले टहला करतीं, फिर रेत में बैलों की तरह गोल-गोल लोटें लगातीं। मुट्ठियाँ भर-भर के रेत पानी के चुल्लू की तरह उछालतीं। यहाँ तक कि वह बिलकुल मिट्टी की खौफ़नाक मूर्तियाँ मालूम होने लगतीं। उनकी रग-रग में रेत रेंगने लगती, फिर भी उनके जी मिट्टी से न भरते और वह सूखे हुए पत्तों के चमचे बनाकर रेत फाँकना शुरू कर देतीं। ख़स्ता भुरभुरी रेत वह मज़ेदार पँजीरी की तरह खा जातीं। पेट वालियों की तरह उन्हें सोंधी सोंधी मिट्टी बहुत ही भाती थी । न जाने उनके फूले हुए कचौरियों जैसे पेटों में कौन से सपूत परवान चढ़ रहे थे ।
1. भोग-विलास
उनकी हालत थी भी कुछ हामला1 औरतों जैसी । चिकनी, सुरमई रंगतें पीली पड़ गई थीं और ज़बानों पर सफ़ेद फफूँदी लग गई थी। आँखों में भूरे भूरे डोरे पड़ गए थे। पिनियाँ का इज़ारबंद2 इतना छोटा हो गया था कि उसकी घघरिया में आगे ताक़चा खुला रहता था। रोज़-ब-रोज़ सुस्ती बढ़ती जा रही थी। मुँह का मज़ा ख़राब रहता था । लड़ाई में उन्होंने दाँतों और नाखूनों का इस्तेमाल ज़रूरत से ज़्यादा कर दिया था। चनन-मनन वह हर वक़्त मिनमिनाती ही रहती, जैसे किसी ने भुतनी को डिब्बे में क़ैद कर दिया हो। इसलिए सबने उसका नाम भुतनी रख दिया ।
1. गर्भवती 2. नाड़ा
जब सब उसे छेड़ने के लिए 'भुतनी भुतनी' कहते तो वह वाक़ई चुड़ैलों की तरह आँखें निकालकर गुर्राती । बिल्ली की तरह वह दुश्मन पर झपट्टा मारती और जहाँ-जहाँ उसका नाखून लगता, खाल ही उतरी चली आती। जब वह दाँतों से किसी को चबाती तो ऊपर-नीचे के दाँत गोश्त में आर-पार होकर आपस में बज उठते ।
वह सपूत जो उसके पेट में पल रहा था, उसकी सोंधी मिट्टी के शौक़ को बढ़ाता ही गया। उसकी ज़बान पर नमक छिड़का गया, फिर कुनेन लगाई गई मगर किसी सज़ा से भी मिट्टी की चाट न गई। किसी ने राय दी, “चुड़ैल की ज़बान जला दो ।"किसी ने तरकीब बताई, “सुइयाँ चुभो दो कमबख़्त के ।"मगर कोई इलाज कारगर न हुआ । जब वह मिट्टी खाती पकड़ी जाती तो मंझो उसके मुँह ही मुँह तमाँचे मारती कि होंठ कटकर खून निकल आता मगर वह कुछ नहीं तो कोयले ही चबा जाती, दीवार पर से चूना ही नाख़ूनों से खुरचकर खा लेती ।
एक दिन जब वह और पिनियाँ रफ़ा हाजत1 की ग़रज़ से पास-पास बैठीं गप्पें हाँक रही थीं कि वह सपूत वारिद2 हो गया...एक खौफ़नाक चीख़ के साथ वह मंझो के पास रपटी ।
1. टट्टी करने 2. प्रकट
“साँप...” उसने मंझो की टाँगों में अपना मुँह छुपा लिया। मंझो ने उसे परे धकेल दिया । तहक़ीक़ात के बाद डॉक्टर ने बताया कि उसके पेट में केंचुए पड़ गए हैं।
लेकिन उसे यक़ीन न आया और रात भर वह 'साँप' - 'साँप' चिल्लाती रही। पूरे वक़्त उसे पेट में साँप लहराते हुए महसूस हो रहे थे । साँपों के गुच्छे के गुच्छे जैसे सँपेरे की टोकरी में कुलबुलाते हैं, उसके पेट में ऊधम मचा रहे थे। एक के पीछे दूसरा और दूसरे के पीछे तीसरा, हजारों साँप आँख-मिचौली खेल रहे थे ।
उस दिन से पिनियाँ के साथ सूखे हुए पत्तों के चमचों में भर-भरकर मिट्टी खानी छोड़ दी। ललचाई हुई नज़रों से वह रेत के ज़रों को घूरती और एकदम वह बढ़-बढ़कर साँपों के फन बन जाते जो लप-लप अपनी ज़बानें निकालकर आँखें मटकाने लगते। मुट्ठी में लेकर वह रेत को प्यार से सहलाती जी चाहता भर-भर मुट्ठियाँ खाना शुरू कर दे और सारी दुनिया की मिट्टी को अपनी ज़बान के नीचे थूक में रोल डाले और फिर ये लेसदार खोया-सा उसके हलक़ के नीचे फिसलता चला जाए। मंगर फ़ौरन ही उसके पेट में साँप अँगड़ाइयाँ लेने लगते। एकदम दीवानों की तरह वह रेत उछालना शुरू कर देती, ज़मीन पर लोट जाती और ठंडी-ठंडी मिट्टी पर अपने गाल रगड़ती । उसके जिस्म की रगें एक हँसिए की तरह तन जातीं और वह चाहती कि ज़मीन के कलेजे में घुस जाए। जब ज़रा जोश ठंडा हो जाता तो आहिस्ता-आहिस्ता वह अपना माथा ज़मीन से खट-खट टकराती ।
दरवाज़ा खोलो । उसका माथा इल्तिजा करता मगर ज़मीन उसी तरह ढीठ बनी पड़ी रहती। उसे ज़मीन से क्यों इतना प्यार था ? वह उसी में समा जाना चाहती। फिर अगर कोई देख लेता तो वह सारी रेत झाड़ देती । मगर जहाँ मौक़ा मिलता वह मिट्टी में जज़्ब होने की कोशिश करती ।
"ख़ाक में मिले कमबख़्त । जितनी दफ़ा नहलाओ उतनी दफ़ा गंदी ।"मंझो कहती. और वह सोचती, काश, कोई जानता कि ख़ाक में मिलना उसके लिए कोसना नहीं बल्कि दुआ थी - यही तो उसकी आरज़ू थी !
दो
लोगों को शादी-ब्याह का अरमान होता है मगर शम्मन को कुछ दिन से किसी को मारने का अरमान हो गया था। बैठे-बैठे उसका जी फड़फड़ाने लगता कि वह किसी को मारे । अपने मोटे से घूँसे से धमाधम किसी को कुचलकर रख दे ! बारहा ऐसा हुआ कि वह कुछ सोच रही है। वैसे उसकी आँखें दाना खाती हुई मुर्गी की दुम पर जमी हुई हैं जहाँ सूखी हुई बीट का नन्हा सा कुमकुमा1 उसकी हर जुंबिश2 पर लरजने3 लगता है। या उस नन्हीं सी चुहिया की तरफ़ जो सुबह से तीन बार सहमी हुई नज़रों से संदूक के पीछे से झाँक चुकी है या वह किसी और चीज़ को घूर रही है कि एकदम से उसे मारने का शौक़ चर्राता। घर में ऐसा दयालु कौन था जो उससे पिट लेता ! मंझो क्या मज़े से जब चाहती धर्म से उसकी कमर पर घूँसा जमा देती ? उसका भी दिल चाहता कि एक दिन वह भी मंझो बी की ठोस कमर पर एक तगड़ा-सा घूँसा जमाए ... फिर ख़्यालों में वह मंझो बी को पीटने लगती। दो थप्पड़ गाल पर मारकर उसके कपड़े उतार डालती और नहलाने लगती । इस वक़्त उसे कहीं से अपनी भूली-बिसरी अन्ना का धुँधला-सा ख़ाका याद आ जाता और उसका जी भर आता और गुस्सा चढ़ने लगता और मंझो के सर पर बेसन डालकर खूब घिस्से लगाती, ज़ोर-ज़ोर के झाँवे से उसकी कोहनियाँ और घुटने छीलने लगती । फिर खुदुरा सा तौलिया लेकर इतना रगड़ती कि मंझो की खाल उतर जाती और नाक लाल चुकंदर हो जाती । एक कान की लौ टूटकर तौलिए ही में उलझ आती । फिर वह उसे एक उम्दा सी फ्राक पहनाकर कहती, "ख़बरदार जो हिली, टाँगें तोड़ डालूंगी।"मगर जब वह विचारों की दुनिया से जागकर वापस आ तो देखती कि कुछ भी नहीं, उसके दोनों हाथ पत्थर की मूर्ति की तरह गोद में अकड़े हुए हैं। गर्दन की रगें तने-तने दुख गई हैं... वह एक इंतक़ाम भरी लंबी साँस खींचकर जिस्म को और तान लेती और एकदम पागलों की तरह ज़ोर-ज़ोर से बिस्तर पर घूँसों की बारिश कर देती। जब वह जी भरकर कूट चुकती तो थक जाती। जिस्म ढीला छोड़ देती और बड़ा ही सुकून मिलता ।
1. झाड़फ़ानूस में लटकने वाली काँच की गोली 2. हिलना 3. काँपने
एक दिन उसे बैठे-बैठे अपनी गुड़िया को मारने का दौरा पड़ा। पहले तो उसने इसके हौले-हौले दो-तीन तमाचे मारे, फिर एकदम उस पर भूत सवार हो गया। धड़ाधड़ उसने घूँसों और लातों की बौछार कर दी । दाँतों और नाखूनों से इसके पुरज़े कर दिए गोया वह अपने किसी ख़ौफ़नाक दुश्मन से लड़ रही हो ।
गुड़िया का चूरा-चूरा हो गया। उसके जिस्म में भरा हुआ बुरादा बिखर गया और कुछ शम्मन की ज़ुबान पर चिपक गया। इसके बाद उसका पेट भर गया और वह इत्मीनान की साँस लेकर हाँफती हुई चित पड़ गई । बुरादे का मज़ा बड़ी देर तक उसकी जुबान पर बासी ख़ून की तरह जमा रहा।
फिर एकदम उस पर ख़ौफ़ तारी हो गया। जैसे उसने सचमुच किसी को क़त्ल कर डाला हो । डरकर वह घिघियाने लगी और जल्दी-जल्दी गुड़िया के पुरज़े संदूक़ के नीचे छिपा दिए । वह मंझो बी की तरफ़ पनाह लेने के लिए भागी। मंझो बेख़बर बैठी अपना कुर्ता सी रही थी । उसकी रान से लगकर लिपट गई और उसकी गर्दन पर अपनी सहमी हुई उँगलियाँ - फेरने लगी।
मंझो बी फ्राकें सीना ही नहीं जानती थी बल्कि एक दिन उसने एक 'अलिफ़ बे' का क़ायदा1 मँगाकर मशीन से सी डाला। शम्मन पास बैठी मशीन के दाँतों को कट-कट काग़ज़ चबाते देखती रही। दाँतों में हलकी सी लतीफ़2 खुजली होने लगी। इन दाँतों पर उँगली फेरकर अजीब सी लहर अपने जिस्म में दौड़ती हुई महसूस की। क़ायदा सी कर मंझो ने उसे गोद में बैठा लिया।
1. अरबी वर्णमाला की पुस्तक 2. मज़ेदार
"आज से तुम पढ़ना शुरू करोगी, अच्छा।”
"अच्छा !"शम्मन ने मान लिया और क़ायदा देखने के लिए उचकने लगी। ये पहली या दूसरी किताब इसकी जिंदगी में दाखिल हो रही थी। एक तो वह, जिसे पढ़ते में परेशान करने पर मंझो बी उसे मार दिया करती थी। वैसे घर में पढ़ने लिखने का सारा दिलचस्प सामान उसकी पहुँच से दूर रखा जाता था। मारने के काम का तो था नहीं ये क़ायदा। इससे बेहतर तो वह अख़बार होता था जिससे अब्बा लिफ़ाफ़ा-सा बनाकर प्यार में इसके सर पर मारा करते थे। "देखें - देखें मंझो बी ।"उसने किताब लेकर देखना शुरू की। फिर फ्राक में उसकी फुकनी-सी बनाकर मंझो के सीने पर मारी ।
"अरे गधी, तमाम मोड़कर रख दी।" मंझो ने उससे क़ायदा ले लिया ।
"देखो ये अलिफ़ है-अलिफ़ ।"
“काँ ?" उसे बिलकुल यकीन न आया।
"ये.... ये अलिफ़ से अनार ।"
“ऐं हाँ, अलिफ़ से अनार का होता है ? अनार तो आतिशबाज़ी से छूटता है फ़र-फ़र, है ना ?"
"हट, ये देख, ये अलिफ़ है । अलिफ़ से अनार... कहो, अलिफ़ से अनार ।”
"कहो अलिफ़ ।"
"यूँ कहो... अलिफ़ !"
"नहीं, हम नहीं कहते। पहले ये बताओ, ये क्या है....ये, ये ?"
"ये जीम है।"
"और ये ?"
"ये स्वाद, ज्वाद ।”
“उह - स्वाद ज्वाद नहीं है। ये तो चायदानियाँ हैं ।"
"चल पगली, ये देखो, अलिफ़ से अनार - कहो ।”
"कहो ।” वह बेवक़ूफ़ों की तरह मंझो का मुँह तकने लगी ।
"अरे मैं कहती हूँ, अलिफ़ कहो।"सब्र का पैमाना छलका।
“अलिफ़ कहो।"
"उँह चुड़ैल !” मंझो ने धक्का देकर उसे अपनी गोद से उँडेल दिया और उठकर बरामदे में चली गई। शम्मन ने क़ायदा उठा लिया। बिलकुल सूअर कमबख़्त, सूअर था क़ायदा, काली काली टेढ़ी तस्वीरें सिवाय लोटे की शक्ल के 'स्वाद ज़्वाद' के कुछ न भाया और जीम को तो वह देखकर जल ही गई। किस क़दर इतराई हुई मेहतरानी की शक्ल की थी ! तौबा |...अलिफ़ से अनार ।...हुँह, भला कैसे ? ये मटके की शक्ल का अनार, न लाल-लाल चिनगारियाँ न कुछ ... बिलकुल रद्दी । खैर अलिफ़ तो वह पढ़ लेगी मगर 'जीम' तो वह मर जाए, जब भी नहीं पढ़ेगी। बहुत होगा मंझो घूँसे मारेगी। मगर हर्ज ही क्या है। मारने दो। अपना क्या जाता है ! धम से जैसे मुहर्रम में ढोल बजा उस पर। फिर किसी को मुहर्रम के ढोल की तरह पीट डालने का जुनून सवार हुआ । मगर वह ज़ब्त कर गई। उसने ध्यान बँटाने के लिए क़ायदा उठा लिया। कट-कट मशीन के दाँतों के निशान देखकर उसके अपने मसूड़ों में सुइयाँ सी चुभने लगीं। यूँ ही जो सिरे पर लटकता हुआ डोरा पकड़कर खींचा तो कच्चे ज़ख़्म की तरह टाँके टूटते चले आए। बड़ा मज़ा आया जैसे वह जल्दी-जल्दी छोटी-छोटी सीढ़ियों से उतर रही हो । क़ायदे के वर्क बिखर गए ।
अरे ! मंझो शर्तिया बुरा मानेगी और क्या अजब जो मार भी बैठे। उसने जल्दी से क़ायदे के वर्क समेटकर मशीन के दाँतों के नीचे रख दिए और हैंडिल घुमाती रही । कट-कट कट-कट वह इधर से उधर बड़ी मश्शाक़ी1 से चलाया की, यहाँ तक कि क़ायदा सोज़नी2 की तरह टाँकों से भर गया। ख़ैर अच्छा हुआ । 'स्वाद ज्वाद' कमबख़्त चायदानी की शक्ल के गारत हो गए और 'जीम' भी मिट गया ।
1. कौशल 2. कथरी
मगर जब मंझो ने क़ायदे की सूरत देखी तो तमाम गुज़श्ता1 घूँसों से ज़्यादा वज़नी घूँसा जमाया। इसके बाद थप्पड़ और चाँटे। वह देर तक बैठी बेआँसुओं की सूखी-सूखी सुबकियाँ भरती रही। अगर हर बार मार पड़ने पर आँसू गिराना लाज़मी होता तो यक़ीनन मुसीबत हो जाती और उसकी आँखों के डेले कभी के बह गए होते। इधर मंझो के थप्पड़ों का ख़ज़ाना कम होता नज़र न आता और जो वह हर थप्पड़ पर एक आँसू भी बहाती तो सात समुंदर का पानी होता सो भी खुश्क़ हो जाता। इसलिए वह अब बस गले से रोया करती थी । दिमाग़ बिलकुल पुरसुकून और गैरमुतास्सिर 2 रहता ।
1. विगत 2. अप्रभावित
ये दूसरी किताब थी जिससे उसे लिल्लाही बुग्ज़ हो गया। एक तो वह नॉवेल ही क्या कम थी जिसे पढ़ते वक़्त मंझो बी उसकी किसी आह-ओ-ज़ारी1 पर कान नहीं धरती थी। अब दूसरी ये, जिसकी आमद ही मनहूस साबित हुई ।
1. रोना पीटना
मगर ये किताब तो उसकी जान को चिमट गई ऐसी कि छुटना दुशवार2 हो गया। अलिफ़ तो खैर दिल पर पत्थर रखकर पढ़ लिया गया मगर जीम। हद तो ये है कि स्वाद - ज्वाद कमबख़्त भी पढ़ना पड़े। हैरत तो उसे तब हुई जब उसे मालूम हुआ कि...
इब्तेदाए इश्क़ है रोता है क्या,
आगे आगे देखिए होता है क्या ।
1. कठिन
बात यूँ हुई कि उसने एक दिन मंझो से पूछा, “मंझो बी! जब क़ायदा ख़त्म हो जाएगा तो मिठाई बँटेगी ना ?"
“हाँ, और फिर दूसरी किताब शुरू होगी।"
“दूसरी !... फिर ?”
“फिर बड़े भाई जैसी मोटी-मोटी किताबें पढ़ा करना..."मंझो ने निहायत मासूमियत से बताया। किस सादगी से वह उसे आने वाली बलाओं से दो-चार कर रही थी !
ख़ामोश, अपनी गोद में हाथ समेटे वह बैठी रही और ऐसा महसूस हुआ कि थोड़ी-थोड़ी देर के बार एक मोटी-सी भयानक किताब उसके सर पर पत्थर की सिल की तरह गिरती है जिसमें 'स्वाद ज्वाद' और 'जीम' से भी ज़्यादा कमीने और गैरदिलचस्प अल्फ़ाज़ मौजूद हैं।
बहुत से बहन-भाइयों और भरे पूरे खानदान में जिंदगी के दिन माज़ी1 की तारीकी2 में डूबते चले गए। जैसे कोई बहुत से कंकरों को सूप में डालकर फटक रहा है और हर कंकर सूप के दंदानों में पंजे गाड़े जमा हुआ है। साँय-साँय लंबे-लंबे पींगों की तरह जिंदगी गुज़रने लगी ।
1. अतीत 2. अंधकार
तीन
मंझो बी मारती थी तो क्या था, दुलार भी तो करती थी ! पीट-कूटकर जब उसे खूब रुला चुकती तो सीने की गर्मी से उसके सारे ज़ख़्म सेंक देती पर अब उसकी जुबान चल निकली थी। जब मंझो मारती तो वह उसे कोसने देने लगती जो उसने नौकरानियों से सीख लिए थे।
"मर जाए। अल्ला करे मंझो बी मर जाए।"अम्मा अपनी लाडली को कोसते देखकर ख़ूब बिगड़ीं।
“खोद के गाड़ दूँगी जो मेरी बच्ची को कोसा, कलमुँही कहीं की !" वह ख़ुद तो अम्मा की बच्ची थी नहीं, उसकी बदमाश अन्ना के जाने के बाद से मंझो ही उसकी माँ थी।
“यूँ कहो कि अल्ला मियाँ, मंझो का ब्याह हो जाए।" अम्मा ने सिखाया और उसने यूँ ही कहना शुरू किया !
“अल्ला मियाँ, मंझो का ब्याह हो जाए। मंझो बी का ब्याह हो जाए।"इस कोसने का काफ़ी असर होता । पहले मंझो बी बिगड़ती। ज़ोर-ज़ोर से धमोके मारती । मगर फिर उसके हाथ ढीले पड़ जाते और वह मुस्कुरा- मुस्कुराकर शरमाने लगती ।
दुआ न जाने कैसे बुरे वक़्त से निकली थी कि झट क़बूल हो गई। कुछ ऐसी गड़बड़ थी कि उसकी समझ में ही न आया कि क्या हो रहा है। घर उथल-पुथल हो गया। मंझो घेरघार कर एक कमरे में बिठा दी गई और ख़ूब गुल मचाया गया।
उलटी-सीधी मिठाइयाँ और ज़र्क-वर्क कपड़े चारों तरफ़ फैल गए। अच्छा खासा घर हाट बन गया। दुनिया भर की औरतें लाल हरे कपड़ों में लिपटकर दौड़ पड़ीं। धवाँ-धौं बाजे बजने लगे। जब औरतें मंझो का दूल्हा देखने दौड़ीं तो वह भी बिलक गई। किसी ने उसे गोद में लेकर दूल्हा दिखाना चाहा, मगर वह न देख सकी। “ये तो आदमी है, दूल्हा ।"वह चिल्लाई और मचल गई, फिर किसी ने उसे दूल्हा दिखाना ज़रूरी न समझा। वह भी उकताकर उबटने में बसी हुई मंझो से लिपटकर सो गई। रस्मों के वक़्त लोगों ने चाहा दूल्हा के मेहँदी लगा दे मगर वह इस पर भी बिगड़ खड़ी हुई कि अव्वल तो वह दूल्हा नहीं, सीधा-सादा आदमी है और आदमी मेहँदी नहीं लगाते। इस पर उसे दीवानी कहकर दूर धकेल दिया गया ।
मंझो तो दुल्हन बनी बैठी थी । इसलिए वह बेनथे बैल की तरह घूमती रही। पहले तो उसने बरी की शक्कर ले जाकर ख़ूब गुसलखाने के मटकों में घोली जिससे बीवियाँ इस्तंजा करके बदहवास हो गईं। उसके बाद बावर्चीखाने की तरफ़ मुतवज्जा1 हुई और वहाँ ख़ूब हाँडियों में नमक, कोयला और राख झोंकी। बावर्ची किसी दूसरी तरफ़ लगे हुए थे। वह खीर के प्याले गिनने लगी । चाँदी के वर्क और पिस्तों की हवाइयाँ लगे हुए प्याले कामदार शतरंजी की तरह बिछे हुए थे, बड़े ही भले मालूम हुए। बे-इख़्तयार2 उसका जी चाहा उनके बीचोबीच में जो खाली जगह है वहाँ पैर रख रखकर चले। वह तौल-तौलकर क़दम उठाने लगी- एक... दो... तीन। किसी ने देख लिया और वह गड़बड़ा कर जो भागी तो धड़ाम से खीर के कीचड़ में सर से पैर तक लतपत ।
1. ध्यानाकर्षित 2. सहसा
न जाने किसने उसे नहलाने की कोशिश की मगर वह तो मंझो के नहलाने की आदी हो चुकी थी। यूँ रसाँ- रसाँ नहलाने से वह चिढ़ गई और ख़ूब ज़िदें कीं । पानी के छींटे उड़ाए । वह औरत तो कमर बंद की लकड़ी ढूँढ़ने लगी, इधर उसने तौलिया बाँधकर टहलना शुरू किया।... मंझो बी के भारी-भारी जहेज़ के जोड़े दिखाने के लिए एक कमरे में सजा दिए गए थे। उसने सितारे नोंच - नोंचकर थूक से माथे पर चिपकाए । सलमे के तार खींचकर उनके छल्ले बनाए, दुपट्टों की तहें खोलकर खूब फैला दिए। इतने में उसकी नज़र गोटा लगी हुई तौलियों पर पड़ी। झिलमिल करती ज़रकार1 डोरियाँ । उसे उन्हें पहनने का कितना अरमान था, मगर उसे तो देखने को भी नहीं मिलती थीं ! अम्मा तो गुसलखाने में ऐसा छिपकर पहनतीं जैसे मोटी-सी गाली हो ! और मैले कपड़ों के डब्बे में उसका हाथ भी तो न जाता था। जल्दी-जल्दी उसने चारों तरफ़ देखकर उल्टे सीधे सुराखों में हाथ डालकर डोरियाँ गले में कस लीं। फिर उसने भारी क्रेप का दुपट्टा निकालकर ओढ़ा और अतलस का पाजामा देखकर तो उसके दिल में हूकें -सी उठने लगीं। जाँघिए पहनते-पहनते उसका जी मितलाने लगा था । झाड़-झंकाड़ फूलों का ढेर उसने घसीटकर टाँगों में फँसा लिया। फिर क्रेप के दुपट्टे का घूँघट निकालकर वह चारों तरफ़ फ़र्ज़ी मेहमानों को झुक-झुककर सलाम करने लगी। "जीती रहो बेटी, दूधों नहाओ, पूतों फलो !” उसने उन्हें कहते सुना और फिर ठोड़ी अपनी हथेली पर टिकाकर घरवालियों की तरह हो बैठी ।
1. ज़री के काम वाली
"अरी रसूलन ! ओ रसूलन, कहाँ मर गई मालज़ादी ! जा अलीबख़्श से कह के सौदा नहीं लाए। हाँ, जल्दी से लाएँ, मूँग की दाल और ... और भुनी हुई गर्म-गर्म मूँगफलियाँ, हाँ, शम्मन बी के लिए, और शकर की गोलियाँ भी ।"वह ख़याली मामा को डाँटने लगी। बातें करते-करते उसे याद आया कि अरे ! नन्हा तो घुटने पर सो रहा है। जाग गया। उसने फुर्ती से घुटना हिलाना शुरू किया जैसे बच्चे को हलकोरे दे रही है ।
“नाई मेरा चाँद, मेरे कलेजे का टुकड़ा...ले भूखा है, दूध पिएगा ?” ऊँ-ऊँ... कुर्ता सरकाकर वह नक़ल में घुटने को दबोचने लगी...मगर फ़ौरन ही किसी आवारा मच्छर के काटे हुए निशान ने उसकी सारी तवज्जो खींच ली। बच्चा-बच्चा भूलकर वह होंठ लटका कर ददोड़ा देखने लगी ।
“काट खाया मरीपीटे ने !” वह अपने घुटने पर चपत्तें लगाने लगी...और फिर उसे किसी को मारने का दौरा पड़ गया । धमाधम उसने जहेज़ की चीज़ों को दोनों हाथों से कूटना शुरू किया। ज़रा-सी देर में खेत का खलिहान करके रख दिया। लोग आ गए और उसे यूँ ही घसीटकर बाहर निकाल दिया गया । इतनी फुर्सत किसे थी जो उसका पाजामा ढूँढ़कर पहनाता। लिहाज़ा शाम तक वह तौलिया लपेटे इधर-उधर घूमती रही।
मगर उसे एक तजर्बा ज़रूर हुआ कि तौलिया पाजामे से कहीं ज़्यादा आरामदेह और फ़ायदेमंद होता है। एक तो घड़ी-घड़ी ढीला कमरबंद तंग कराने की ज़रूरत नहीं पड़ती। दूसरे इस अजीबो-गरीब हुलिए में देखकर बहुत से बच्चे तो जलन की आग से भुने जा रहे थे । दो-चार इस ताक में लगे थे कि तौलिया हट जाए तो उसे नंगा देख लें। मगर वह उन्हें जूतियों से मार-मारकर भगा रही थी। उसे उस खेल में बड़ा मज़ा आ रहा था।
“हम सो रहे हैं। हमें जगाना मत।"वह बनकर सो जाती और बदज़ात बच्चे उसका तौलिया छीनने लगते। फिर वह जाग जाती और ख़ूब नाख़ूनों और दाँतों से उनकी खातिरदारी करती ।
जिधर वह निकल जाती सब उसे डाँटते, बहनें चपतें लगाकर दुतकार देतीं। मगर किसी को इतनी तौफ़ीक़ न हुई कि ताला खोलकर उसका पाजामा निकाले। खुदा-ख़ुदा करके शाम को जब दूल्हा के आँचल या किसी दूसरी ज़रूरी रस्म का वक़्त आया तो उसकी तलाश हुई और वह पिछले दालान में अजीबो-गरीब खेल खेलती हुई पकड़कर मारी गई।
दूल्हा आया ! गुल1 मचा। किसी ने उसे जूता छुपाने को दिया। बड़ी देर तक तो वह उस जूते से खेलती रही। फिर सो गई। रात को जब दूल्हा जाने लगा तो जूते की ढुँढइया पड़ी। लोगों ने उसे जगाया तो वह बौखलाकर उनसे लिपट गई। कोई ख़्वाब देख रही थी, बेतहाशा चिल्लाई :
“दुअन्नी...अरे मेरी दुअन्नी !”
1. शोर
कहते हैं, दूल्हा निगोड़ा नंगे पैर गया। सुबह को जूता पीने के पानी में लाश की तरह फूला हुआ मिला। ख़ूब समधनों ने इसका शरबत पिया। लाख लोगों ने चाहा कि वह बता दे कि उसने जूता मटके में किसलिए डाला था। मगर वह कुछ भी न बता सकी।
"जूता ?... मटका ?” वह यही पूछती रही। मगर फूला हुआ जूता देखकर उसके दिल में गुदगुदी होने लगी और वह हँसते-हँसते बेहाल हो गई ।
चार
जब मंझो ब्याह कर जाने लगी तो शम्मन ज़रा भी न रोई बल्कि चुपके से पालकी में जाकर बैठ गई। मंझो जाने से पहले उसे याद करती रही। मगर वह न मिली। जब दुल्हन और उसके साथवालियाँ पालकी में बैठीं तो उनमें से सबसे मोटी औरत शम्मन की गोद में चढ़ बैठी। वह ज़ोर से चिल्लाई। मगर मौके की नज़ाक़त को देखते हुए ज़ब्त कर गई और मोटी औरत के कूल्हों में कचकचा कर दाँत गाड़ दिए। एक ग़दर मच गया। पालकी लौटते-लौटते बची मगर शम्मन पकड़ी गई। लोगों ने उसे घसीटकर उतार लिया। हज़ार लातें चलाईं, कोसा, गालियाँ बकीं मगर कोई सुनवाई नहीं हुई ।
(अधूरी रचना)