तटस्थ (कहानी) : भगवान अटलानी

Tatasth (Hindi Story) : Bhagwan Atlani

सभागार छात्रों और छात्राओं से भरा हुआ था। वातावरण में भरपूर उत्साह था। फिकरेबाजी और हूटिंग का माहौल गरम था। टोलियों में बैठे लड़के व लड़कियाँ तालियों के तुमुल नाद से कभी सभागार को लंबी गूँज से भर देते थे और कभी उनकी फब्तियों का शोर कुछ सुनने नहीं देता था। मस्ती से भरे लगभग पाँच सौ बेफिक्र युवा हृदय अपनी वेगवान ऊर्जा के साथ कुछ ऐसे रंग बिखेर रहे थे, जिनकी छटा केवल इसी आयु में सृजित होती है।

वाद-विवाद प्रतियोगिता पूरी रंगत पर थी। शहर के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के विभिन्न विभागों का प्रतिनिधित्व करनेवाले छात्र व छात्राएँ सात मिनट के निर्धारित समय में क्रमशः अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। गोपनीयता और नैसर्गिक न्याय का संगम करते हुए प्रत्येक कॉलेज को लॉटरी डालकर एक निश्चित क्रमांक दिया गया था। उसी क्रम के अनुसार पहले विषय के पक्ष में और इसके बाद विपक्ष में बोलने के लिए वक्ता आ रहे थे।

कुछ वक्ताओं के पास तैयार किए हुए भाषण के कागज थे। कागज को देखकर पढ़ने वाले वक्ता हूटिंग के सर्वाधिक शिकार हो रहे थे। कागज की मदद लेकर भाषण देनेवालों का व्यक्तित्व, उनकी आंगिक भाषा और आत्मविश्वास हूटिंग के परिमाण के निर्धारक तत्त्व बने हुए थे। कुछ वक्ताओं के सामने कागज नहीं थे, किंतु मुद्राओं से साफ झलक रहा था कि उन्होंने भाषण लिखकर रटे हैं। मुख-मुद्राओं, भावों, लहजे, तौर-तरीके, उतार-चढ़ाव की एकरसता और चेहरों पर नुमायाँ तनाव को देखकर उनकी रटंत विद्या छिप नहीं पाती। ये वक्ता श्रोताओं का ध्यान अपेक्षाकृत कम आकृष्ट कर पा रहे थे। परची पर लिखे हुए बिंदुओं के आधार पर या विषय के अनुरूप तैयारी के आधार पर सलीके से अवसरानुकूल बात करनेवाले वक्ता प्रशंसा और तालियाँ बटोर रहे थे। दाद व उत्साहवर्धक टिप्पणियाँ हासिल करनेवालों में ऐसे वक्ता भी थे, जो विश्वविद्यालय के उस विभाग से संबंधित थे, जिसने वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया था।

मंच पर अध्यक्ष, प्रतियोगिता के संयोजक, छात्र संघ के अध्यक्ष और संचालक बैठे थे। डायस से पैंतालीस डिग्री का कोण बनाते हुए एक-दूसरे से लगभग सटी तीनों निर्णायकों की मेजें लगी हुई थीं। निर्णायकों की कतार में मेरी कुरसी मंच के सबसे निकट थी। क्षेत्र का वरिष्ठ लेखक हूँ, शायद इसलिए विश्वविद्यालय वाले अपने कार्यक्रमों में किसी-न-किसी रूप में बुलाते रहते हैं। हालाँकि अन्य दोनों निर्णायकों से मेरा परिचय प्रतियोगिता प्रारंभ होने से तुरंत पहले हुआ था, इसके बावजूद हम लोग आपस में हल्की-फुल्की बातचीत कर रहे थे। इस बातचीत में कभी प्रतियोगियों की उक्ति पर टिप्पणी होती तो कभी छात्र-छात्राओं की प्रतिक्रिया पर वक्तव्यनुमा कथन। और कुछ हो, न हो, इससे प्रतियोगियों को अंक देने में जो अंतर संभावित था, उससे हम बच पा रहे थे। बीच-बीच में संयोजक भी मंच से उतरकर हम लोगों के पास आते और प्रतियोगियों के संबंध में कुछ-न-कुछ बताने के बाद लौट जाते।

सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था। गुदगुदाते माहौल के बावजूद सबकुछ वैसा ही था, जैसा ऐसे अवसरों पर विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में होता है। वक्ताओं की स्थिति, मनःस्थिति मंच पर आने से पहले, बोलते समय, मंच से उतरने के बाद चाहे जैसी भी रहती हो, किंतु सभागार में उपस्थित श्रोताओं के साथ हम तीनों निर्णायक भी आनंदित महसूस कर रहे थे।

तभी एक कॉलेज की टीम के पहले छात्र ने पक्ष में बोलने के बजाय विषय के विपक्ष में बोलना शुरू किया। अन्य दो निर्णायकों ने क्या सोचा, मुझे नहीं मालूम, किंतु मेरे सामने प्रश्न था कि इस वक्ता को कितने अंक दूँ? दूँ भी या न दूँ?

नियमानुसार एक कॉलेज की टीम के पहले छात्र को विषय के पक्ष में बोलना चाहिए। यह छात्र विपक्ष में बोल रहा था। इसलिए क्या उसे शून्य अंक देने चाहिए? वक्ता पक्ष में बोल रहा हो चाहे विपक्ष में, उसे अंक विषय-वस्तु और प्रस्तुतीकरण के आधार पर मिलने चाहिए। प्रस्तुतीकरण चाहे आंगिक हो, भंगिमापरक हो या शाब्दिक, यदि विषयवस्तु के साथ उसका तालमेल नहीं है तो अंक किस आधार पर दिए जा सकते हैं? टीम के पहले वक्ता को पक्ष में और दूसरे वक्ता को विपक्ष में बोलना चाहिए। इस समय पहला वक्ता बोल रहा है। पक्ष में नहीं, विषय के विपक्ष में बोल रहा है। दूसरा वक्ता यदि पक्ष में बोलता है तो? नियम विरुद्ध क्रम होने के बाद भी दोनों को यदि शून्य अंक दिए जाते हैं तो क्या यह न्यायसंगत होगा?

इस बिंदु पर मैंने अन्य दोनों निर्णायकों से बात की। क्या किया जाना चाहिए, क्या नहीं? उन्हें भी समझ में नहीं आ रहा था। इशारा करके मैंने संयोजक को अपने पास बुलाया। वे आए तो समस्या उनके सामने रखी। यदि नियमों का सख्ती से पालन करते हुए संबंधित वक्ताओं को अंक नहीं दिए जाते हैं या उन्हें अमान्य कर दिया जाता है तो हंगामा हो सकता है। इसके विपरीत अगर ऐसे वक्ताओं को अंक दे दिए जाते हैं, तब भी शोर-शराबा संभावित है। इस कारण संयोजक भी पसोपेश में थे। कोई स्पष्ट निर्णय लेकर वे अप्रिय स्थितियों का ठीकरा अपने सिर पर नहीं फोड़ना चाहते थे। जल्दी ही बताने की बात कहकर वे वापस लौट गए।

अगले वक्ता ने भाषण विषय के विपक्ष में दिया। संकट यथावत् था। एक ही टीम के दोनों वक्ताओं ने भाषण विपक्ष में दिया था। नियमानुसार पहले वक्ता को पक्ष में बोलना चाहिए था, लेकिन उसने भाषण दिया विषय के विपक्ष में। नियमों का पालन किया जाए तो उसे अमान्य करके शून्य अंक देना चाहिए।

भाषण समाप्त हो गया। आगामी टीम के प्रथम वक्ता मंच पर आए। संयोग से उन्होंने भी पक्ष की बजाय विषय के विपक्ष में विचार व्यक्त करने शुरू कर दिए। प्रत्यक्ष रूप से तो हम तीनों निर्णायक वक्ताओं के भाषण सुन रहे थे, किंतु ऊहापोह की स्थिति बरकरार थी। मैंने साथी निर्णायकों से फिर बात की। उनका असमंजस भी मेरी तरह कायम था। एक बार फिर इशारा करके संयोजक को मैंने अपने पास बुलाया। मंच से उतरकर वे हमारी तरफ आते, इससे पहले ही सभागार में एक युवक अपने स्थान पर खड़ा हो गया, ‘जब निर्णायक आपस में बातचीत और इशारेबाजी में लगे हों तो उनसे सही निर्णय की उम्मीद कैसे की जा सकती है?’

सभागार में भूचाल सा आ गया। अनेक लड़के-लड़कियाँ खड़े होकर हवा में मुट्ठियाँ लहराते हुए आक्रोश व्यक्त कर रहे थे। एकाएक बने इस वातावरण से किंचित् घबराए संयोजक, ‘बैठिए, बैठ जाइए’ की गुहार लगा रहे थे। लेकिन उनकी बात कोई सुन नहीं रहा था।

आरोप निर्णायकों पर लगा था। सीधे तौर पर उन्हें मानो कठघरे में धकेल दिया गया था। एक ऐसे अपराध के लिए, जो उन्होंने किया ही नहीं था। आक्रोश इस उक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण था कि अपनी आँख से देखी घटना भी जरूरी नहीं है, सच हो। पंद्रह-बीस मिनट से छात्र-छात्राएँ निर्णायकों को आपस में बातें करते देख रहे थे। इस कारण पैदा हुई गलतफहमी विकराल स्वरूप धारण करती जा रही थी। मैं अपने आपको रोक नहीं सका। तेजी से उठकर मंच पर चढ़ा। वक्ता हतप्रभ सा माइक के सामने खड़ा था। हल्के हाथ से उसे एक तरफ करके मैंने माइक अपने कब्जे में लिया। स्थिति के लिए गुस्सा और अप्रसन्नता मेरे चेहरे पर लिखे हुए थे। मंच पर आसीन महानुभावों और सभागार में उपस्थित छात्र-छात्राओं में से किसी को भी आशा नहीं थी कि निर्णायकों में से एक मंच पर आ खड़ा होगा। समय बरबाद करने का न अवसर था और न मैंने ऐसा किया, ‘तीनों निर्णायकों में से कोई भी विश्वविद्यालय से संबंधित नहीं है। वे वाद-विवाद प्रतियोगिता में दिए गए भाषण सुनकर अपना निर्णय देने आए हैं, आपस में बातें करने नहीं।’

‘फिर भी आप लोग बातें कर रहे थे।’ सभागार में से आवाज आई।

‘हाँ कर रहे थे। आपने ध्यान दिया होगा, दो बार संयोजक को भी हमने अपने पास बुलाया। क्यों? यह जाने बिना ही आप लोगों ने निर्णायकों पर इल्जाम मढ़ दिए!’

सभागार में पूर्ण निस्तब्धता थी। मेरे संक्षिप्त मौन ने खामोशी को उत्सुकता में परिवर्तित कर दिया, ‘मैं नहीं जानता, आप लोगों का ध्यान गया या नहीं, किंतु इससे पहले वाली टीम के प्रथम वक्ता ने अपना भाषण पक्ष की बजाय विषय के विपक्ष में दिया था। जो वक्ता इस समय आपके सम्मुख खड़ा है, उसे भी नियमानुसार विषय के पक्ष में बोलना चाहिए, मगर वह अपना भाषण विपक्ष में दे रहा है। निर्णायक क्या करें? गुणवत्ता के आधार पर उचित अंक दें या नियम तोड़ने के कारण अमान्य कर दें? इस मुद्दे पर यदि निर्णायक आपस में विचार-विमर्श करते हैं या संयोजक से बात करते हैं, तो कुछ गलत करते हैं क्या? जब तक इस समस्या को हल नहीं किया जाता कोई विकल्प बचता है निर्णायकों के सामने?’ सभागार में उपस्थित छात्र-छात्राओं पर मैंने एक भरपूर नजर डाली। सब लोग सकते में थे। मंच से उतरकर मैं अपने स्थान पर आकर बैठ गया।

छात्र-छात्राओं से सहमति लेकर संयोजक ने नियमानुसार भाषण न देनेवाले वक्ताओं को अमान्य घोषित किया। तय हुआ कि एक टीम का प्रथम वक्ता विषय के विपक्ष में बोलने पर अगर अमान्य होता है तो दूसरा वक्ता भी पक्ष में बोलने पर प्रतियोगिता से बाहर माना जाएगा।

वाद-विवाद प्रतियोगिता फिर शुरू हुई। कुछ देर के लिए हुए विवाद को भूलकर फिकरेबाजी, हूटिंग, मौज-मस्ती और तालियों की गड़गड़ाहट व ठहाकों का सिलसिला पुराने रंग पर आ गया। बस अमान्य भाषण पर ‘बंद करो, वापस जाओ’ के फिकरे इनमें जुड़ गए थे।

आयोजन समाप्त हुआ। हम लोग अपने स्थानों से खड़े हुए ही थे कि एक छात्र मेरे पास आया। उसके पीछे पाँच-सात छात्रों का एक समूह था। मैंने पहचाना, यह वही युवक था, जिसने हंगामे की शुरुआत की थी। किस इरादे से, क्यों आया है वह मेरे पास? मित्रगण उसके साथ थे। कोई गलत इरादा तो नहीं है उसका? यद्यपि चारों ओर भीड़ थी। विश्वविद्यालय के अनेक अध्यापक, आयोजन के संयोजक और स्टाफ के सदस्य अच्छी खासी संख्या में आसपास थे, फिर भी मुझे लगा कि माँद में जाकर शेर को ललकारने के नतीजे भोगने का समय आ गया है।

‘बिना सोचे-समझे आपका अपमान करने के लिए मैं क्षमा चाहता हूँ, सर!’ युवक मेरे कदमों पर झुक गया था।

‘जैसी स्थितियाँ थीं, उनसे किसी को भी यह गलतफहमी हो सकती थी। मुझे अच्छा लगा कि आपने मन में उठी शंका को शब्द दिए।’

‘मुझे धीरज से काम लेना चाहिए था, सर। इस तरह आक्रोश में आकर आपके ऊपर आरोप नहीं लगाना चाहिए था।’

‘आपने जो किया, वह यौवन का प्रतीक है। जिस दिन यह साहस आप खो देंगे, समझिएगा बूढ़े हो गए।’ एक जोरदार ठहाका लगा।

नहीं, अब सोचता हूँ कि मैंने उस युवक को यौवन और साहस के बीच में संबंध स्थापित करते हुए जो बात कही थी, वह ठीक नहीं थी। एक आवेग था, जिसके दबाव को रोक न पाने के कारण वह युवक आक्रोशित हुआ था। मैं तो युवक नहीं हूँ! हंगामे के बाद स्वयं को निर्दोष साबित करने के लिए मैं मंच पर क्यों जा चढ़ा? सुयोग से मेरी कही गई बात के अच्छे नतीजे निकले। भीड़ तंत्र का कोई विधान नहीं होता। अराजकता किसी का लिहाज नहीं करती। मेरे जवाब के बाद सबकुछ उलटा-पुलटा भी हो सकता था। तब किसे दोष दिया जाता? मुझे, केवल मुझे ही तो!

प्रश्न है, सभी प्रकार की संभावनाओं के बावजूद ऐसी स्थितियों में क्या मैं तटस्थ रह सकता हूँ? मेरी प्रकृति, मेरा स्वभाव क्या मुझे मौन रहने देगा?

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